पत्रकारों व गैर पत्रकारों को ३० प्रतिशत अंतरिम राहत

डा.मान्धाता सिंह

अखबारों व समाचार एजंसियों के पत्रकारों व गैर पत्रकारों को ३० प्रतिशत अंतरिम राहत को न्यायमूर्ति के। नारायण कुरूप की अगुवाई वाले वेजबोर्ड ने मंजूरी दे दी है। न्याय मूर्ति कुरूप की अध्यक्षता में शनिवार २८ जून को हुई बैठक यह फैसला काफी जद्दोजहद के बाद आमराय से नहीं बल्कि मतदान के जरिए हुआ। इस संस्तुति के मुताबिक मूल वेतन का ३० प्रतिशत अंतरिम राहत के तौर पर दिया जाएगा जो ८ जनवरी २००८ से लागू माना जाएगा। अब इसे केंद्रीय श्रम व रोजगार मंत्रालय को सौंपा जाएगा। मतदान में कर्मचारियों के प्रतिनिधियों और स्वतंत्र सदस्यों ने ३० प्रतिशत अंतरिम दिए जाने के पक्ष में मत दिया। एक प्रतिनिधि बैठक से नदारद था।

जो संस्तुति वेजबोर्ड ने दी है उससे भी ट्रेड यूनियन नेता खुश नहीं हैं। ट्रेड यूनियन नेताओं ने इसमें और वृद्धि किए जाने की मांग करते हुए ३० प्रतिशत अंतरिम दिए जाने को अपेक्षा से कम बताया है। ट्रेडयूनियन नेता एमएस यादव और सुरेश अखौरी की दलील है मंहगाई ११।४२ प्रतिशत पर पहुंच चुकी है और इससे पत्रकार व गैर पत्रकार भी परेशान हैं। अंतरिम में वृद्धि के लिए ट्रेड यूनियन कंफेडरेशन के नेता जल्द ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, केंद्रीय श्रममंत्री आस्कर फर्नांडीज और वामपंथी नेताओं से मिलेंगे। नेताओं ने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय बछावत वेतन बोर्ड ने ७।५ प्रतिशत अंतरिम के मंजूरी दी थी जिसे बढ़ाकर १५ प्रतिशत किया गया था। इसी तरह मणिसाना बोर्ड ने २० प्रतिशत अंतरिम की मंजूरी दी थी जिसमें १०० रुपए अतिरिक्त जोड़ा गया। इसी आधार और बढ़ती मंहगाई के मद्देनजर अंतरिम में वृद्धि की मांग की गई है। ट्रेड यूनियन कंफेडरेशन में इंडियन जर्नलिस्ट यूनियन, आल इंडिया न्यूजपेपर इंप्लाइज फेडरेशन, नेशनल यूनियन आफ जर्नलिस्ट (आई), दी फेडरेशन आफ पीटीआई इंप्लाइज यूनियन और यूएनआई वर्कर्स यूनियन शामिल हैं। (स्रोत-पीटीआई व हिंदू समाचार पत्र से साभार)

मेरी पहली कविता


ये बरगद जैसे खड़ा है


इन पत्थरों के सीने पर


कभी हम भी होंगे इसकी जगह


और इन पत्थरों की जगह होगी


यह व्यवस्था !


अगर कविता शायद ऐसी ही होती है तो, ये मेरी पहली कविता है। पत्थरों के सीने को चीर कर बहती चम्बल नदी और उसके किनारे पत्थरों के सीने पर उगे उस बरगद के पेड़ को देख आज कुछ ऐसा ही महसूस हुआ। इसे देख कर एक बात समझ में आई की कुछ भी नामुमकिन नहीं, इस व्यवस्था को बदला भी नामुमकिन नहीं. बस जरूरत है तो इस चम्बल नदी और उस बरगद से जज्बे की.

वाह क्रीमी लेयर से आह क्रीमी लेयर तक

- दिलीप मंडल
गरीब सवर्णों को पहली बार आरक्षण मिला है...चलिए इसका जश्न मनाते हैं। लेकिन मीडिया से लेकर जिसे सिविल सोसायटी बोलते हैं, उसमें गरीब सवर्णों को मिलने वाले रिजर्वेशन को लेकर कोई उत्साह नजर नहीं आ रहा है। चुप तो वो लोग भी हैं जो कई साल से आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत कर रहे थे और जाति आधारित आरक्षण का विरोध कर रहे थे। सामाजिक पिछड़ापन जिनके लिए निरर्थक था, निराधार था। सवर्ण समुदाय के गरीबों को नौकरियां मिलने की बात से वो खुश नहीं दिख रहे हैं। वाह क्रीमी लेयर, इस मामले में आह क्रीमी लेयर में तब्दील होता दिख रहा है।
जाट परिवार की वधु और गुर्जर परिवार की समधन राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने देश में पहली बार गरीब सवर्णों के लिए सरकारी नौकरियों में 14 परसेंट आरक्षण की व्यवस्था की है। इस पर सवर्ण इलीट की क्या प्रतिक्रिया है? लगभग वैसी ही चुप्पी आपको उत्तर प्रदेश के सवर्ण इलीट में दिखती है, जब मायावती गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की बात करती हैं। लेफ्ट पार्टियां भी इस बार खामोश हैं। वो अपने शासन वाले राज्यों में तो गरीबों को आरक्षण नहीं ही देती हैं, किसी और ने ये कर दिया है तो उसका स्वागत भी नहीं करती हैं।
मीडिया की इसे लेकर प्रतिक्रिया यही है कि ये राजस्थान सरकार का ये फैसला ज्यूडिशियल स्क्रूटनी में पास नहीं हो पाएगा। तर्क ये कि राजस्थान में नए प्रावधानों से कोटा 68 परसेंट हो जाएगा। वैसे ये नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडु में 69 परसेंट आरक्षण है और न्यायपालिका ने इसे खारिज नहीं किया है।सवर्ण इलीट की आम प्रतिक्रिया आपको यही मिलेगी कि ये वोट की राजनीति है। वोट की राजनीति तो ये सरासर है, लेकिन महाराज, लोकतंत्र में वोट की राजनीति नहीं होगी तो क्या होगा।

मौत की बस गिनती करो !

गुर्जर आन्दोलनकारिओं और राजस्थान सरकार के बीच बरक़रार गतिरोध पर बयाना में शुरू हुई बातचीत से समाप्त होने की उम्मीद की जा रही है। आने वाला समय ही बतायेगा की इस बातचीत के क्या नतीजे होंगे। लेकिन उससे अलग में अपने साथियों का ध्यान वसुंधरा सरकार के पिछले ४ साल में हुए कुछ प्रमुख गोली कांडों की ओर दिलाना चाहूँगा. पिछले ४ साल के भीतर करीब १८ गोली कांड हो चुकें हैं. इसमे करीब १०० से अधिक लोग मारे गए हैं. कभी पानी मांग रहे किसान पुलिस के शिकार हुए तो कभी आदिवासी और पिछले साल से गुर्जर आंदोलन में करीब ७० लोग मरे जा चुके हैं. अब हालत इसे हैं की सराकार गोली मरती है और मीडिया और जनता गिनती कर रहें हैं.

११ अप्रेल, ०४ मंडावा (झुंझुनू) में पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाई १२ लोग घायल।

३० अप्रेल, ०४ कोटडा (उदयपुर) में पुलिस ने एक बार फ़िर भीड़ को निशाना बनाया एक कि मौत ।

२९ जुलाई, ०४ सराडा (उदयपुर) में आदिवासिओं पर गोली चलाई १० घायल।

२७ अक्टूबर, ०४ रावला (श्री गंगानगर) ने भीड़ पर गोली चलाई ६ लोगों की मौत।

८ अप्रेल, ०५ मंडला (भीलवाडा) में एस पी ने गोली चलाई एक की मौत।

६ जून, ०५ कंचनपुर (धौलपुर) हिरासत में मौत का विरोध कर रहे लोगों पर गोली एक बच्चे की मौत।

१३ जून, ०५ हफ्ते भर बाद ही सोहेला (टोंक) में पानी मांग रहे किसानों पर गोली चलाई ५ किसानों की मौत.

१ जुलाई, ०५ टोंक की घटना के महीने भी पूरे नहीं हुए की डग (झालावाड़) थाने मैं पिटाई से युवक की मौत का विरोध कर रहे लोगों पर गोली चलाई

१० अक्टूबर, ०६ घड़साना में पुलिस का किसानों पर लाठीचार्ज एक किसान की मौत।

०८ फरवरी, ०७ उदयपुर में मन्दिर में घुसाने का प्रयास कर रहे आदिवासिओं पर पुलिस ने गोली चलाई एक आदिवासी की मौत।

२९ मई, ०७ अब शुरू हुआ गुर्जर आन्दोलन का दमन दौसा, करौली, बूंदी में गुर्जरों पर फायरिंग, ३ जवान सहित १८ लोगों की मौत।

३० मई, ०७ दूसरे दिन भी ३ और गुर्जर मरे गए।

१ जून, ०७ लालसोट में गुर्जर मीणा संघर्ष में ५ मरे।

२३ मई, ०८ पिछले साल मरे गए अपने लोगों की याद में रेल रोक रहें गुर्जाओं पर बयाना और पिलुपुरा में फायरिंग, १७ गुर्जरों की मौत

२५ मई, ०८ सिकंदर में आन्दोलन कर रहे गुर्जरों पर फ़िर गोली, २२ मरे जगह जगह हो रहे आन्दोलन पर फायरिंग में कुल ४५ से अधिक गुर्जर मरे गएँ.

सोनभद्र में भूख से एक और की मौत

उत्तर प्रदेश में दलितों के राज में एक और आदिवासी की भूख से मौत हो गई. बुंदेलखंड के बाद अब सोनभद्र में भी ७ आदिवासियों की भूख से मौत हुई है. पूरे प्रदेश में यह सिलसिला चल पड़ा हैं. यह केवल बुंदेलखंड या सोनभद्र का ही मामला नहीं है प्रदेश में जगह जगह लोग भूख से मर रहे हैं. गोरखपुर, कुशीनगर और पूरब के अधिकांश जिलों के मुसहर जनजाति के लोग चूहा खा कर गुजरा कर रहें हैं. और ऊपर से इन्सेफेलैटिस बीमारी उनके बच्चों को बेमौत मारे जा रही है. लेकिन हर तरफ खामोशी छाई है किसी भी राजनितिक दल के लिए यह मुद्दा नहीं है. रिपोर्ट डेली न्यूज एक्टिविस्ट ने भेजी हैं.

सोनभद्र में अकाल मौतों का सिलसिला बदस्तूर जारी है। चोपन विकास खंड के पांडू चट्टान इलाके में खाने और पानी के अभाव में एक और महिला ने दम तोड़ दिया। अकेले पांडू चट्टान में पिछले एक सप्ताह के दौरान अकाल जनित यह दूसरी मौत है। पार्वती नामक महिला की बीती रात हुई मौत के बाद आदिवासियों का आक्रोश खुलकर सामने आ गया।
ग्रामीणों ने 35 वर्षीय पार्वती की लाश को लगभग 20 घंटों तक अपने कब्जे में रखकर जिला प्रशासन को मुआवजा देने या फिर लाश को जमींदोज न होने देने की चेतावनी दे डाली। अंतत: शाम को प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा पीड़ित परिवार को मुआवजे के आश्वासन व अन्न उपलब्ध कराए जाने के बाद शव का अंतिम संस्कार किया गया। इस मामले में जिलाधिकारी अजय शुक्ला का कहना था कि पार्वती की मौत टूयुबरक्लोसिस से हुई है, फिलहाल मामले की जांच हो रही है। महत्वपूर्ण है कि विगत दो माह के दौरान सोनभद्र में भूख से मौत का आंकड़ा सात जा पहुंचा है। बुंदेलखंड के बाद सोनभद्र में भुखमरी ने अपना कहर ढाना शुरू कर दिया है। अकाल मौतों का गांव कहे जाने वाले सोनभद्र केपांडू चट्टान में दो मासूम बच्चों की मां पार्वती ने अंतत: दम तोड़ दिया उसने तीन दिनों से कुछ नहीं खाया था। घोर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सुमार पांडू चट्टान वो इलाका है जहां आज भी आदिवासियों को एक बूंद पानी के लिए तीन से चार किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है।

बर्बरता की रिपोर्ट

गुर्जर आरक्षण आन्दोलन में मारे गये लोगों का लगभग दो हफ्ते के बाद पोस्टमार्टम हुआ। आन्दोलनकारियों की मांग थी की जब तक आरक्षण की चिट्टी केन्द्र सरकार को नहीं भेज दी जाती शव राज्य सरकार को नहीं सौंपेंगे. लेकिन लगभग दो हफ्ते बाद आखिरकार शवों का पोस्टमार्टम हो सका है और जो रिपोर्ट आई है वो राज्य सरकार के बर्बरता को साफ साफ बयां करती है. आन्दोलन में करीब ४५ लोग मरे गए थे. ये आकाणा केवल पिछले महीने मरे गए लोगों का है, इससे पहले पिछले साल के आन्दोलन में भी करीब २५-३० लोग मारे गए थे. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर लोगों को गोली कमर से ऊपर या सिर में मारी गई थी. केवल यही नहीं दैनिक भास्कर में छपी एक रिपोर्ट की माने तो एक प्रदर्शनकारी की मौत गोली लगाने के बाद गला दबाने से हुई. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के आनुसार टोरद निवासी सुरेश गुर्जर को पहले पैर में गोली मारी गई फिर अस्पताल पहुचाने से कुछ देर पहले उसका गला दबा दिया गया. रिपोर्ट में उसके गले और सरीर पर चोट के निशान पाए गए। ऐसे ही एक और प्रदर्शनकारी हनुमान की मौत गोली लगाने के बाद घायल अवस्था में गला दबाने से हुई। प्रदर्शनकारियों की माने तो १४ घायलों को पुलिस आरपीऍफ़ के जवान हास्पिटल लेकर गए उन सभी की मौत हो गई। जबकि जिन २४ लोगों को स्थानीय लोगों ने हास्पिटल पहुचाया उनमे से किसी की भी मौत नहीं हुई. इससे अंदाजा लगाया जा सकता हैं की घायलों के साथ क्या हुआ होगा. इसकी पुष्टि अब पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी कर रही है .
सरकारी बर्बरता का यह कोई पहला नमूना नहीं है लेकिन शायद इस तरह से मारने का पहला ही उदाहरण हों. राज्य की वसुन्धरा सरकार किसी भी आन्दोलन से गोली बंदूक से निपटे का यह पुराना तरीका है. जब से वह सत्ता में है तब से अब तक १०० से भी अधिक लोग पुलिस की गोली के शिकार हो चुकें हैं. प्रदर्शनकारिओं को जानबूझ कर गोली मारी गई। कई लोगों को तो तब घायलों को उठाते समय गोली मारी गई. लेकिन राज्य सरकार के कुछ मंत्री यह प्रचारित करने मैं लगे थे की अधिकतर प्रदर्शनकारी कट्टे या देशी बंदूक के छर्रे लगाने से मरे. राजस्थान पुलिस का यह रवैया पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के ही जैसा था जिसके शासन काल में सिंगुर और नंदीग्राम में उसकी पुलिस और निजी कैडरों ने अपनाया था. वहाँ भी पुलिस की बर्बरता की कहानी वहाँ मरे गए लोगों के शव ख़ुद कहते थे और राज्य सरकार उसे माओवादियों की करतूत बताती रहीं, इससे एक बात तो साफ है की सत्ता में कोई भी हो लेकिन पुलिस और सरकार का रवैया एक जैसा ही रहता है.
१८५७ के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ जम कर लड़ने वाले गुर्जरों को उस समय अंग्रेजों ने आपराधिक प्रवृति का घोषित कर दिया था. इस सम्बन्ध में हाल ही इतिहासकार अमरेश मिश्रा का एक लेख दैनिक अमर उजाला के २९ मई के अंक में प्रकाशित हुआ था.जिसमे उन्होंने १८५७ के संग्राम में गुर्जरों की भूमिका का उल्लेख किया था. अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले गुर्जर आज अगर भारतीय राज सत्ता से लड़ रहें हैं. यह लड़ाई और भी व्यापक होगी. क्योंकि आज सत्ता में उन्हीं अंग्रेजों के चाटुकार हैं. और कम से कम राजस्थान में तो हैं ही. यहाँ आज सत्ता जिस सिंधिया राजघराने के हाथ में है वह आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के साथ खड़ा था और उनके साथ मिलकर अपने ही देश्वशियों के आन्दोलन को कुचला था. आज इन्ही चाटुकार हुक्मरानों की वजह से वो सत्ता में हैं और आजादी के लिए लड़ने वाली जनता उनके सामने याचक बन के खडी है.
इनको आरक्षण देने की मांग राज्य में विपक्ष में रहने वाली सभी पार्टियाँ करती रहीं हैं. लेकिन सरकार में आने के बाद कभी इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया. यह केवल गुर्जरों के साथ ही नहीं हुआ बल्कि और भी कई इसी जातियाँ हैं जिनको ये राजनितिक दल अपने स्वार्थों के लिए यूज करते रहें हैं. अभी बहुत दिन नहीं हुए उस तस्वीर के छापे जिसमे बेतहाशा भागती के अर्ध नग्न आदिवासी लड़की लड़की को एक 'भीड़' लोहे की छड़ और डंडों से पिट रही थी. कौन थी वो लड़की? वो भी एक इसी ही जाति की लड़की थी जिसे कभी अंग्रेजों ने चाय के बगानों में मजदूरी के लिए झारखण्ड के पिछडे गावों से ले जाकर आसाम के चाय बगानों में बसाया था. जिसे अब 'टी ट्राइब' के नाम से जाना जाता है. इस जाती के लोग भी अपने को एस सी वर्ग में शामिल करें के लिए आंदोलनरत हैं. इन्हे भी करीब ४ दशकों से भरमाया जा रहा है. जो भी विपक्ष में होता है, इनकी मांगों को जायज बताता है. लेकिन सत्ता पते ही भूल जाता है. लेकिन अब लगता है की जनता लड़ना सीख रहीं हैं.यह जरुर है की उनका नेतृत्व उन्हीं बुर्जुआ पार्टियों के हाथ में है जो कभी भी अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए किसी से समझौता कर सकतें हैं. लेकिन जब एक बार लोगों में सत्ता और पुलिस का भय ख़त्म हो जाएगा तो वो कल को इन साम्राज्यवादपरस्त सत्ताधारिओं को भी बेदखल कर सकतें हैं जैसा की नेपाल की जनता ने कर दिखाया. छोटे छोटे उदेश्यों को लेकर जगह जगह जनता लड़ रही है. उसका आक्रोश बार बार उभर कर अब सामने आ रहा है. जिसे जरुरत है एक सही नेतृत्व की.
बग्गा जी कहते हैं उर्फ़ रियल पत्रकार की छवि

मैं जिस संस्थान में काम करता हूँ वहाँ एक बग्गा जी हैं जितेन्द्र बग्गा। क्राइमरिपोर्टर हैं . मेरे बारे में अक्सर वह कहतें हैं की विजय रियल पत्रकार लगता है. बिल्कुल दबा कुचला, पैर में चप्पल पहने जनता की बात कराने वाला. वो ये बात मेरे लिए क्यों कहतें हैं मुझे पता है और यह मेरे लिए नया भी नहीं है. इससे पहले मैं भाषा में भी कुछ दिन रहा. वंहा के संपादक कुमार आनंद को भी मेरी यह छवि पसंद नहीं आई. उन्हों ने इसे कस्बाई पत्रकाओं वाली छवि करार दिया. उनके सामने भी जब मैं पहली बार गया था तो बिल्कुल उसी गेट अप जैसे मैं हमेशा रहता हूँ. शर्ट बाहर किए, पैर में चप्पल पहने और पार्टी कांग्रेस में मिला जुट वाला बैग लिए हुए. संपादक महोदय ने इसे कस्बाई छवि वाला पत्रकार का नाम दिया और साथ ही हिदायत भी की यह नही चलेगा. खैर मेरी यह छवि संसद मार्ग पर बने उस बड़े से आफिस से बिल्कुल ही मेल नहीं खाता था. लेकिन हरकतों में बहुत बदलाव नहीं आया और मुझे वंहा आगे काम कराने का मौका भी नहीं मिला. मौजूदा संस्थान के संपादक से मैं पहली दफा बिल्कुल उसी गेट अप में मिला बात करते करते वह कई बार मुझे ऊपर से निचे तक देखें. मेरे झोले को देखें. इसलिए जब बग्गा जी यह बात कहते हैं तो मुझे कतई यह बुरा नहीं लगता. बस कुछ सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ की वास्तव में रियल पत्रकार की छवि क्या उसके कपडे और चप्पलें तय करतीं हैं. फ़िर मैं आपने ब्लॉग को खोलकर उन पत्रकारों की कहानी पढता हूँ जिन्हें पुलिस माओवादी बता कर गिरफ्तार किया है. क्या उनकी भी यही छवि रही होगी. आख़िर आज आदमी का गेट अप क्यों यह तय कराने लगा है की वह कैसा होगा. आज जब हम आम आदमी की बात करतें हैं तो आधिकंश लोगों इसे आजिब तरह से लेतें हैं. इस बने बनाये खाके से अलग हट कर कुछ करना चाहों तो यह व्यवस्था तुरंत आपको मावोवादी या नक्सली करार देती हैं. मीडिया में आकर कई अच्छे लोग भी मज़बूरी में या व्यवस्था से न लड़ पाने के कारन उसी के होकर रह जातें हैं. लेकिन अभी भी कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस व्यवस्थ में रह कर भी इससे लड़ रहें हैं और ख़ुद को जिंदा रखें हैं. मेरे सामने एक इसे भी पत्रकार का उदाहरण हैं. अनिल चमडिया ऐसे ही एक पत्रकार हैं जो शायद आने वाली पीढ़ी के हम जैसे युवा पत्रकारों का आदर्श बन सकतें हैं. जो ख़ुद भी ऐसे तमाम अनुभवों से गुजारें हैं. उनके यह अनुभव ही मुझमे यह सहस भरतें हैं की व्यवस्था से लड़ना कठिन तो है नामुमकिन नहीं. इसके लिए बस तय करना होगा की आप किस तरफ़ बहना चाहतें हैं नदी के साथ या उसके विपरीत.

असली आज़ादी की लड़ाई ज़रुरी



महाश्वेता देवी, सुप्रसिद्ध साहित्यकार


मेरे लिए तो आज़ादी के 60 साल काफी बेहतर रहे हैं। मैंने एक लेखक के बतौर काफी कुछ पाया है। देश में एक बड़ा वर्ग है, जिसमें मेरी पहचान बनी। देश-विदेश के पुरस्कार मिले। मेरा जीवन स्तर उंचा उठा लेकिन देश की हालत आज भी बद्दतर बनी हुई है।आज़ादी के 60 सालों में समस्यायें जस की तस बनी हुई हैं. जाति की समस्याएं वैसी ही हैं, भूमि सुधार का मसला अब भी उसी हालत में है, आदिवासियों की क्या हालत है, ये हम सभी के सामने है. बार-बार लगता है कि कहीं कुछ नहीं हुआ. बंधुवा मज़दूरों के मुद्दे पर मैंने लंबे समय तक काम किया लेकिन वह समस्या आज भी दूसरे रुप में बरकरार है. मेरे पास इलाहाबाद से, बंगाल के अलग-अलग इलाकों से लोग आते हैं कि दीदी, चलो उधर लड़ाई लड़नी है. आज भी मज़दूरों को सौ रुपए-डेढ़ सौ रुपए की मज़दूरी का लोभ दिखा कर ले जाया जाता है और उनसे ग़ुलामों की तरह काम लिया जाता है. बाद में ये मज़दूर किसी तरह अपनी जान बचा कर अपने घर लौट पाते हैं. 1976 में बंधुआ मज़दूर उन्मूलन अध्यादेश आया था लेकिन आज भी मज़दूर उसी तरह गुलाम है।

आदिवासी समाज समृद्ध

हाल के दिनों में जिस तरह स्पेशल इकॉनामिक ज़ोन का मुद्दा सामने आया है, उसके बाद तो मेहनतकश जनता का जीवन और मुश्किल हो जाएगा। छत्तीसगढ़ के जंगल और उसके आदिवासी कहां जाएंगे, क्या होगा, छत्तीसगढ़ के अलावा पूरे देश का आदिवासी समाज कहां जाएगा, ये आज का सबसे बड़ा संकट है।आदिवासी समाज को इसलिए निशाना बनाया जाता है, क्योंकि वह समाज हम सब से बहुत समृद्ध है. वह सांप्रदायिक नहीं है, वह समाज स्त्री-पुरुष में भेदभाव नहीं करता, विधवा के लिए वहां पुनर्विवाह की संस्कृति है और इस तरह की ढ़ेरों बातें हैं, जो उस समाज को हमसे कहीं अधिक समृद्ध बनाती हैं. अमरीका और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों पूरा देश बिक रहा है. पश्चिम बंगाल में कुछ हो रहा है, उसमें पूरे भारते के लिए संदेश है, इसे समझने की ज़रुरत है.

आरोप

इन सबों के खिलाफ जिस तरह जनता उठ खड़ी हुई है, उससे लगता है कि जनता में एक जागृति तो आई है। ऐसे में हम कह सकते हैं कि आज़ादी के 60 सालों में असली आज़ादी के लिए लड़ने की भूमिका तैयार हुई है और अब जनता को असली लड़ाई के लिए सामने आ जाना चाहिए। जनता का मतलब उस मेहनतकश समाज से है, जिसके बल पर ये देश चल रहा है. जो बौद्धिक वर्ग है, अब वह इस तरह की लड़ाइयों में सामने नहीं आता. वह केवल जनता की लड़ाई का लाभ लेता है. मैं जब भी लड़ाई की बात करती हूं, तो मुझ पर कोई ठप्पा लगा दिया जाता है. एक ज़माने में मुझे नक्सली कहा जाता था. उस समय मैंने बिरसा मुंडा पर एक किताब लिखी थी. जनता की लड़ाई जब भी लड़ी जाती है तो इस तरह की बातें होती ही हैं. मैं तो इन दिनों कहीं नहीं जाती, घर के अंदर रहती हूं. अपने घर में पढ़ती-लिखती रहती हूं और मेरे लिखने भर से अगर कोई शोषक डर जाता है, मुझे नक्सली या माओवादी या कोई और तमगा दे दिया जाता है, तो इसे मैं गौरव का विषय मानती हूं. और पढ़ें रविवार