आतंकवाद के मोहरे या बलि के बकरे

अहमदाबाद धमाकों के बाद एक मौलाना की संदिग्ध गिरफ्तारी तो केवल बानगी भर है. तीन महीने की गहन पड़ताल के बाद ऐसे ही तमाम मामलों पर रोशनी डालती अजित साही की रिपोर्ट.
हर शुक्रवार की तरह 25 जुलाई को भी मौलाना अब्दुल हलीम ने अपना गला साफ करते हुए मस्जिद में जमा लोगों को संबोधित करना शुरू किया. करीब दो बजे का वक्त था और इस मृदुभाषी आलिम (इस्लामिक विद्वान) ने अभी-अभी अहमदाबाद की एक मस्जिद में सैकड़ों लोगों को जुमे की नमाज पढ़वाई थी. अब वो खुतबा (धर्मोपदेश) पढ़ रहे थे जो पड़ोसियों के प्रति सच्चे मुसलमान की जिम्मेदारी के बारे में था. गंभीर स्वर में हलीम कहते हैं, “अगर तुम्हारा पड़ोसी भूखा हो तो तुम भी अपना पेट नहीं भर सकते. तुम अपने पड़ोसी के साथ हिंदू-मुसलमान के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकते.”
तीस घंटे बाद, शनिवार को 53 लोगों की मौत का कारण बने अहमदाबाद बम धमाकों के कुछ मिनटों के भीतर ही पुलिस मस्जिद से सटे हलीम के घर में घुस गई और भौचक्के पड़ोसियों के बीच उन्हें घसीटते हुए बाहर ले आई. पुलिस का दावा था कि हलीम धमाकों की एक अहम कड़ी हैं और उनसे पूछताछ के जरिये पता चल सकता है कि आतंक की इस कार्रवाई को किस तरह अंजाम दिया गया. पुलिस के इस दावे के आधार पर एक स्थानीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें दो हफ्ते के लिए अपराध शाखा की हिरासत में भेज दिया.
त्रासदी और आतंक के समय हर कोई जवाब चाहता है. हर कोई चाहता है कि गुनाहगार पकड़े जाएं और उन्हें सजा मिले. ऐसे में चुनौती ये होती है कि दबाव में आकर बलि के बकरे न ढूंढे जाएं. मगर दुर्भाग्य से सरकार इस चुनौती पर हर बार असफल साबित होती रही है. उदाहरण के लिए जब भी धमाके होते हैं सरकारी प्रतिक्रिया में सिमी यानी स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया का नाम अक्सर सुनने को मिलता है. ज्यादातर लोगों के लिए सिमी एक डरावना संगठन है जो घातक आतंकी कार्रवाइयों के जरिये देश को बर्बाद करना चाहता है.
मगर सवाल उठता है कि ये आरोप कितने सही हैं?
एक न्यायसंगत और सुरक्षित समाज बनाने के संघर्ष में ये अहम है कि असल दोषियों और सही जवाबों तक पहुंचा जाए और ईमानदारी से कानून का पालन किया जाए. इसके लिए ये भी जरूरी है कि झूठे पूर्वाग्रहों और बनी-बनाई धारणाओं के परे जाकर पड़ताल की जाए. इसीलिए तहलका ने पिछले तीन महीने के दौरान भारत के 12 शहरों में अपनी तहकीकात की. तहकीकात की इस श्रंखला की ये पहली कड़ी है.
हमने पाया कि आतंकवाद से संबंधित मामलों में, और खासकर जो प्रतिबंधित सिमी से संबंधित हैं, ज्यादातर बेबुनियाद या फिर फर्जी सबूतों पर आधारित हैं. हमने पाया कि ये मामले कानून और सामान्य बुद्धि दोनों का मजाक उड़ाते हैं. इस तहकीकात में हमने पाया कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के पूर्वाग्रह, राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव और सनसनी का भूखा व आतंकवाद के मामले पर पुलिस की हर कहानी को आंख मूंद कर आगे बढ़ा देने वाला मीडिया, ये सारे मिलकर एक ऐसा तंत्र बनाते हैं जो सैकड़ों निर्दोष लोगों पर आतंकी होने का लेबल चस्पा कर देता है. इनमें से लगभग सारे मुसलमान हैं और सारे ही गरीब भी.
अहमदाबाद के सिविल अस्पताल, जहां हुए दो धमाकों ने सबसे ज्यादा जानें लीं, का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना था, “हम इस चुनौती का मुकाबला करेंगे और मुझे पूरा भरोसा है कि हम इन ताकतों को हराने में कामयाब होंगे.” उन्होंने राजनीतिक पार्टियों, पुलिस और खुफिया एजेंसियों का आह्वान किया कि वे सामाजिक ताने-बाने और सांप्रदायिक सद्भावना को तहस-नहस करने के लिए की गई इस कार्रवाई के खिलाफ मिलकर काम करें. मगर निर्दोषों के खिलाफ झूठे मामलों के चौंकाने वाले रिकॉर्ड को देखते हुए लगता है कि अक्षम पुलिस और खुफिया एजेंसियां कर बिल्कुल इसका उल्टा रही हैं. मौलाना अब्दुल हलीम की कहानी इसका सुलगता हुआ उदाहरण है.
पिछले रविवार से ही मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उनमें पुलिस के हवाले से हलीम को सिमी का सदस्य बताया जा रहा है जिसके संबंध पाकिस्तान और बांग्लादेश स्थित आतंकवादियों से हैं. गुजरात सरकार के वकील ने मजिस्ट्रेट को बताया कि आतंकवादी बनने का प्रशिक्षण देने के लिए हलीम मुसलमान नौजवानों को अहमदाबाद से उत्तर प्रदेश भेजा करते थे और इस कवायद का मकसद 2002 के नरसंहार का बदला लेना था. वकील के मुताबिक इन तथाकथित आतंकवादियों ने बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई दूसरे नेताओं को मारने की योजना बनाई थी. पुलिस का कहना था कि इस मामले में आरोपी नामित होने के बाद हलीम 2002 से ही फरार चल रहे थे.
इस मौलाना की गिरफ्तारी के बाद तहलका ने अहमदाबाद में जो तहकीकात की उसमें कई अकाट्य साक्ष्य निकलकर सामने आए हैं. ये बताते हैं कि फरार होने के बजाय हलीम कई सालों से अपने घर में ही रह रहे थे. उस घर में जो स्थानीय पुलिस थाने से एक किलोमीटर दूर भी नहीं था. वे एक सार्वजनिक जीवन जी रहे थे. मुसलमानों को आतंकवाद का प्रशिक्षण देने के लिए भेजने का जो संदिग्ध आरोप उन पर लगाया गया है उसका आधार उनके द्वारा लिखी गई एक चिट्ठी है. एक ऐसी चिट्ठी जिसकी विषयवस्तु का दूर-दूर तक आतंकवाद से कोई लेना-देना नजर नहीं आता.
दिलचस्प ये भी है कि शनिवार को हुए बम धमाकों से पहले अहमदाबाद पुलिस ने कभी भी हलीम को सिमी का सदस्य नहीं कहा था. ये बात जरूर है कि वह कई सालों से 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के पीड़ितों की मदद में उनकी भूमिका के लिए उन्हें परेशान करती रही है. हलीम के परिजन और अनुयायी ये बात बताते हैं. इस साल 27 मई को पुलिस थाने से एक इंस्पेक्टर ने हलीम को गुजराती में एक पेज का हस्तलिखित नोटिस भेजा. इसके शब्द थे, “मरकज-अहले-हदीस (इस्लामी पंथ जिसे हलीम और उनके अनुयायी मानते हैं) ट्रस्ट का एक दफ्तर आलीशान शॉपिंग सेंटर की दुकान नंबर चार में खोला गया है. आप इसके अध्यक्ष हैं...इसमें कई सदस्यों की नियुक्ति की गई है. आपको निर्देश दिया जाता है कि उनके नाम, पते और फोन नंबरों की सूची जमा करें.”
कानूनी नियमों के हिसाब से बनाए गए एक ट्रस्ट, जिसके खिलाफ कोई आपराधिक आरोप न हों, से की गई ऐसी मांग अवैध तो है ही, साथ ही इस चिट्ठी से ये भी साबित होता है कि पुलिस को दो महीने पहले तक भी सलीम के ठिकाने का पता था और वह उनसे संपर्क में थी. नोटिस में हलीम के घर—2, देवी पार्क सोसायटी का पता भी दर्ज है. तो फिर उनके फरार होने का सवाल कहां से आया. हलीम के परिवार के पास इस बात का सबूत है कि पुलिस को अगले ही दिन हलीम का जवाब मिल गया था.
एक महीने बाद 29 जून को हलीम ने गुजरात के पुलिस महानिदेशक और अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त को एक टेलीग्राम भेजा. उनका कहना था कि उसी दिन पुलिस जबर्दस्ती उनके घर में घुस गई थी और उनकी गैरमौजूदगी में उनकी पत्नी और बच्चों को तंग किया गया. हिंदी में लिखे गए इस टेलीग्राम के शब्द थे,“हम शांतिप्रिय और कानून का पालन करने वाले नागरिक हैं और किसी अवैध गतिविधि में शामिल नहीं रहे हैं. पुलिस गैरकानूनी तरीके से बेवजह मुझे और मेरे बीवी-बच्चों को तंग कर रही है. ये हमारे नागरिक अधिकारों का उल्लंघन है.”
जैसा कि संभावित था, उन्हें इसका कोई जवाब नहीं मिला. अप्रैल में जब सोशल यूनिटी एंड पीस फोरम नाम के एक संगठन, जिसके सदस्य हिंदू और मुसलमान दोनों हैं, ने एक बैठक का आयोजन किया तो लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत के लिए संगठन ने पुलिस को चिट्ठी लिखी. इस चिट्ठी में भी साफ जिक्र किया गया था कि बैठक में हलीम मुख्य वक्ता होंगे. ये साबित करने के लिए कि हलीम इस दौरान एक सामान्य जीवन जीते रहे हैं, उनका परिवार उनका वो ड्राइविंग लाइसेंस भी दिखाता है जिसका अहमदाबाद ट्रांसपोर्ट ऑफिस द्वारा 28 दिसंबर, 2006 को नवीनीकरण किया गया था. तीन साल पहले पांच जुलाई 2005 को दिव्य भास्कर नाम के एक गुजराती अखबार ने उत्तर प्रदेश के एक गांव की महिला इमराना के साथ उसके ससुर द्वारा किए गए बलात्कार के बारे में हलीम का बयान उनकी फोटो के साथ छापा था.
हलीम की रिहाई के लिए गुजरात के राज्यपाल से अपील करने वाले उनके मित्र हनीफ शेख कहते हैं, “ये आश्चर्य की बात है कि हमें मौलाना हलीम की बेगुनाही साबित करनी है.” नाजिर, जिनके मकान में हलीम अपने परिवार के साथ किराये पर रहा करते थे, कहते हैं, “मैं मौलाना को सबसे करीब से जानता हूं. वे धार्मिक व्यक्ति हैं और उनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं रहा है.” हलीम की पत्नी भी कहती हैं कि उनके पति आतंकवादी नहीं हैं और उन्हें फंसाया जा रहा है.हलीम को जानने वालों में उनकी गिरफ्तारी को लेकर हैरत और क्षोभ है. 27 वर्षीय अहसान-उल-हक कहते हैं, “मौलाना हलीम ने सैकड़ों लोगों को सब्र करना और हौसला रखना सिखाया है.” ये साबित करने के लिए कि हलीम फरार नहीं थे, हक अपना निकाहनामा दिखाते हैं जो हलीम की मौजूदगी में बना था और जिस पर उनके हस्ताक्षर भी हैं.
उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले 43 वर्षीय अब्दुल हलीम 1988 से अहमदाबाद में रह रहे हैं. वे अहले हदीस नामक एक इस्लामी संप्रदाय के प्रचारक हैं जो इस उपमहाद्वीप में 180 साल पहले अस्तित्व में आया था. ये संप्रदाय कुरान के अलावा पैगंबर मोहम्मद द्वारा दी गई शिक्षाओं यानी हदीस को भी मुसलमानों के लिए मार्गदर्शक मानता है. सुन्नी कट्टरपंथियों से इसका टकराव होता रहा है. मीडिया में लंबे समय से खबरें फैलाई जाती रही हैं कि अहले-हदीस एक आंतकी संगठन है जिसके लश्कर-ए-तैयबा से संबंध हैं. पुलिस दावा करती है कि इसके सदस्य 2006 में मुंबई में हुए ट्रेन धमाकों सहित कई आतंकी घटनाओं में आरोपी हैं. करीब तीन करोड़ अनुयायियों वाला ये संप्रदाय इन आरोपों से इनकार करता है और बताता है कि दो साल पहले जब इसने दिल्ली में अपनी राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की थी तो गृह मंत्री शिवराज पाटिल इसमें बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए थे.
14 साल तक अहमदाबाद में अहले हदीस के 5000 अनुयायियों का नेतृत्व करने के बाद हलीम तीन साल पहले इस्तीफा देकर एक छोटी सी मस्जिद के इमाम हो गए. अपनी पत्नी और सात बच्चों के परिवार को पालने के लिए उन्हें नियमित आय की दरकार थी और इसलिए उन्होंने कबाड़ का व्यवसाय शुरू किया.
हलीम की मुश्किलें 2002 की मुस्लिम विरोधी हिंसा के बाद तब शुरू हुईं जब वे हजारों मुस्लिम शरणार्थियों के लिए चलाए जा रहे राहत कार्यों में शामिल हुए. उस दौरान शाहिद बख्शी नाम का एक शख्स दो दूसरे मुस्लिम व्यक्तियों के साथ उनसे मिलने आया था. कुवैत में रह रहा शाहिद अहमदाबाद का ही निवासी था. उसके साथ आए दोनों व्यक्ति उत्तर प्रदेश के थे जिनमें से एक फरहान अली अहमद कुवैत में रह रहा था. दूसरा व्यक्ति हाफिज़ मुहम्मद ताहिर मुरादाबाद का एक छोटा सा व्यापारी था. ये तीनों लोग 2002 की हिंसा में अनाथ हुए बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा और देखभाल का इंतजाम कर उनकी मदद करना चाहते थे. इसलिए हलीम उन्हें चार शरणार्थी कैंपों में ले गए. एक हफ्ते बाद एक कैंप से जवाब आया कि उसने ऐसे 34 बच्चों को खोज निकाला है जिन्हें इस तरह की देखभाल की जरूरत है. हलीम ने फरहान अली अहमद को फोन किया जो उस समय मुरादाबाद में ही था और उसे इस संबंध में एक चिट्ठी भी लिखी. मगर लंबे समय तक कोई जवाब नहीं आया और योजना शुरू ही नहीं हो पाई. महत्वपूर्ण ये भी है कि किसी भी बच्चे को कभी भी मुरादाबाद नहीं भेजा गया.
तीन महीने बाद अगस्त 2002 में दिल्ली पुलिस ने शाहिद और उसके दूसरे साथी को कथित तौर पर साढ़े चार किलो आरडीएक्स के साथ गिरफ्तार किया. मुरादाबाद के व्यापारी को भी वहीं से गिरफ्तार किया गया और तीनों पर आतंकी कार्रवाई की साजिश के लिए पोटा के तहत आरोप लगाए गए. दिल्ली पुलिस को इनसे हलीम की चिट्ठी मिली. चूंकि बख्शी और हलीम दोनों ही अहमदाबाद से थे इसलिए वहां की पुलिस को इस बारे में सूचित किया गया. तत्काल ही अहमदाबाद पुलिस के अधिकारी डी जी वंजारा(जो अब सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में जेल में हैं) ने हलीम को बुलाया और उन्हें अवैध रूप से हिरासत में ले लिया. घबराये परिवार ने उनकी रिहाई के लिए गुजरात हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की. उनके परिवार के वकील हाशिम कुरैशी याद करते हैं, “जज ने पुलिस को आदेश दिया कि वह दो घंटे के भीतर हलीम को कोर्ट में लाए.” पुलिस ने फौरन हलीम को रिहा कर दिया. वे सीधा कोर्ट गए और अवैध हिरासत पर उनका बयान दर्ज किया गया जो अब आधिकारिक दस्तावेजों का हिस्सा है.
जहां दिल्ली पुलिस ने उत्तर प्रदेश के दोनों व्यक्तियों और शाहिद बख्शी के खिलाफ आरडीएक्स रखने का मामला दर्ज किया वहीं अहमदाबाद पुलिस ने इन तीनों के खिलाफ मुस्लिम युवाओं को मुरादाबाद में आतंकी प्रशिक्षण देने के लिए फुसलाने का मामला बनाया. अहमदाबाद के धमाकों के बाद पुलिस और मीडिया इसी मामले का हवाला देकर हलीम पर मुस्लिम नौजवानों को आतंकी प्रशिक्षण देने का आरोप लगा रहे हैं. हलीम द्वारा तीस नौजवानों को प्रशिक्षण के लिए मुरादाबाद भेजने की बात कहते वक्त गुजरात सरकार के वकील सफेद झूठ बोल रहे थे. जबकि मामले में दाखिल आरोपपत्र भी किसी को अहमदाबाद से मुरादाबाद भेजने की बात नहीं करता.
दिल्ली में दर्ज मामले में जहां हलीम को गवाह नामित किया गया तो वहीं अहमदाबाद के आतंकी प्रशिक्षण वाले मामले में उन्हें आरोपी बनाकर कहा गया कि वो भगोड़े हैं. कानून कहता है कि किसी को भगोड़ा साबित करने की एक निश्चित प्रक्रिया होती है. इसमें गवाहों के सामने घर और दफ्तर की तलाशी ली जाती है और पड़ोसियों के बयान दर्ज किए जाते हैं जो बताते हैं कि संबंधित व्यक्ति काफी समय से देखा नहीं गया है. मगर अहमदाबाद पुलिस ने ऐसा कुछ नहीं किया. हलीम के खिलाफ पूरा मामला उस पत्र पर आधारित है जो उन्होंने सात अगस्त 2002 को फरहान को लिखा था. इस पत्र में गैरकानूनी जैसा कुछ भी नहीं है. ये एक जगह कहता है, “आप यहां एक अहम मकसद से आए थे.” कल्पना की उड़ान भर पुलिस ने दावा कर डाला कि ये अहम मकसद आतंकी प्रशिक्षण देना था. हलीम ने ये भी लिखा था कि कुल बच्चों में से छह अनाथ हैं और बाकी गरीब हैं. पत्र ये कहते हुए समाप्त किया गया था, “मुझे यकीन है कि अल्लाह के फज़ल से आप यकीनन इस्लाम को फैलाने के इस शैक्षिक और रचनात्मक अभियान में मेरी मदद करेंगे.” आरडीएक्स मामले में दिल्ली की एक अदालत के सामने हलीम ने कहा था कि उनसे कहा गया था कि मुरादाबाद में बच्चों को अच्छी तालीम और जिंदगी दी जाएगी. उन्हें ये पता नहीं था कि बख्शी और दूसरे लोग बच्चों को आतंकी प्रशिक्षण देने की सोच रहे हैं.पिछले साल दिल्ली की एक अदालत ने “आरडीएक्स मामले” में बख्शी और फ़रहान को दोषी करार दिया और उन्हें सात-सात साल कैद की सज़ा सुनाई. बावजूद इसके कि तथाकथित आरडीएक्स की बरामदगी के चश्मदीद सिर्फ पुलिस वाले ही थे, कोर्ट ने पुलिस के ही आरोपों को सही माना. फरहान का दावा था कि उसे हवाई अड्डे से तब गिरफ्तार किया गया था जब वो कुवैत की उड़ान पकड़ने जा रहा था और उसके पास इसके सबूत के तौर पर टिकट भी थे. लेकिन अदालत ने इसकी अनदेखी की.
बख्शी और फरहान ने इस सज़ा के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की जिसने निचली अदालत द्वारा दोषी करार देने के बावजूद उन्हें ज़मानत दे दी. वहीं गुजरात हाई कोर्ट ने उन्हें “आतंकी प्रशिक्षण” मामले में ज़मानत देने से इनकार कर दिया जबकि उन पर आरोप सिद्ध भी नहीं हुआ था. गुजरात क्राइम ब्रांच भी ये मानती है कि इस मामले में उनका अपराध सिर्फ षडयंत्र रचने तक ही सीमित हो सकता है.
सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता. मुरादाबाद के ताहिर को आरडीएक्स मामले में बरी कर दिया गया था. वो एक बार फिर तब भाग्यशाली रहा जब गुजरात हाई कोर्ट ने जून 2004 में उसे आतंकवाद प्रशिक्षण मामले में ज़मानत दे दी. अदालत का कहना था, “वर्तमान आरोपी के खिलाफ कुल मिलाकर सिर्फ इतना ही प्रमाण है कि वो अहमदाबाद आया था और कैंप का चक्कर भी लगाया था, ताकि उन बच्चों की पहचान कर सके और उनकी देख रेख अच्छे तरीके से हो सके और इसे किसी तरह का अपराध नहीं माना जा सकता.”
बख्शी और फरहान पर भी बिल्कुल यही आरोप थे, लिहाजा ये तर्क उन पर भी लागू होना चाहिए. लेकिन गुजरात हाई कोर्ट के एक अन्य जज ने उन्हें ज़मानत देने से इनकार कर दिया और दोनों को जेल में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस बीच ताहिर अहमदाबाद आकर रहने लगा क्योंकि गुजरात हाई कोर्ट ने उसकी ज़मानत के फैसले में ये आदेश दिया था कि उसे हर रविवार को अहमदाबाद क्राइम ब्रांच ऑफिस में हाजिरी देनी होगी. 26 जुलाई को हुए धमाकों के बाद अगली सुबह रविवार के दिन डरा सहमा ताहिर अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के ऑफिस पहुंचा. ताहिर ने तहलका को बताया, “उन्होंने चार घंटे तक मुझसे धमाके के संबंध में सवाल जवाब किए. उस वक्त मुझे बहुत खुशी हुई जब उन्होंने मुझे जाने के लिए कहा.” आतंकी प्रशिक्षण मामले की सुनवाई लगभग खत्म हो चुकी है. अब जबकि हलीम भगोड़े नहीं रहे तो ये बात देखने वाली होगी कि उसके खिलाफ इस मामले में अलग से सुनवाई होती है या नहीं. इस बीच हलीम के परिवार को खाने और अगले महीने घर के 2500 रूपए किराए की चिंता सता रही है। हलीम की पत्नी बताती है है कि उनके पास कोई बचत नहीं है. हलीम की कबाड़ की दुकान उनका नौकर चला रहा है.
दुखद बात ये है कि मौलाना अब्दुल हलीम की कहानी कोई अकेली नहीं है. 15 जुलाई की रात हैदराबाद में अपने पिता के वर्कशॉप से काम करके वापस लौट रहे मोहम्मद मुकीमुद्दीन यासिर को सिपाहियों के एक दल ने गिरफ्तार कर लिया. दस दिन बाद 25 जुलाई को जब बंगलोर में सीरियल धमाके हुए, जिनमें दो लोगों की मौत हो गई, तो हैदराबाद के पुलिस आयुक्त प्रसन्ना राव ने हिंदुस्तान टाइम्स को एक नयी बात बताई. उनके मुताबिक पूछताछ के दौरान यासिर ने ये बात स्वीकारी थी कि गिरफ्तारी से पहले वो आतंकियों को कर्नाटक ले गया था और वहां पर उसने उनके लिए सुरक्षित ठिकाने की व्यवस्था की थी. मगर जेल में उससे मिलकर लौटीं उसकी मां यासिर के हवाले से तहलका को बताती हैं कि पुलिस झूठ बोल रही है, और पुलिस आयुक्त जिसे पूछताछ कह रहे हैं असल में उसके दौरान उनके बेटे को कठोर यातनाएं दी गईं. वो कहती हैं, “उसे उल्टा लटका कर पीटा जा रहा था.”
हालांकि पुलिस के सामने दिये गए बयान की कोई अहमियत नहीं फिर भी अगर इसे सच मान भी लें तो ये हैदराबाद पुलिस के मुंह पर एक ज़ोरदार तमाचा होगा. आखिर यासिर सिमी का पूर्व सदस्य था, उसके पिता और एक भाई आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद हैं. उसके पिता की जमानत याचिका सुप्रीम कोर्ट तक से खारिज हो चुकी है. ये जानते हुए कि उसके भाई और बाप खतरनाक आतंकवादी हैं हैदराबाद पुलिस को हर वक्त उसकी निगरानी करनी चाहिए थी, और जैसे ही वो आतंकियों के संपर्क में आया उसे गिरफ्तार करना चाहिए था.
पुलिस ने न तो यासिर के बयान पर कोई ज़रूरी कार्रवाई की जिससे बैंगलुरु का हमला रोका जा सकता और न ही वो यासिर द्वारा कर्नाटक में आतंकियों को उपलब्ध करवाया गया सुरक्षित ठिकाना ही ढूंढ़ सकी. इसकी वजह शायद ये रही कि उसने ऐसा कुछ किया ही नहीं था. तहलका संवाददाता ने हैदराबाद में यासिर की गिरफ्तारी के एक महीने पहले 12 जून को उससे मुलाकात की थी. उस वक्त यासिर अपने पिता द्वारा स्थापित वर्कशॉप में काम कर रहा था. उसका कहना था, “मेरे पिता और भाई को फंसाया गया है.” ऐसा लगता है कि अंतर्मुखी यासिर फर्जी मामलों का शिकार हुआ है. 27 सितंबर 2001 को सिमी पर प्रतिबंध लगाए जाने के वक्त वो सिमी का सदस्य था. (तमाम सरकारी प्रचार के बावजूद देश की किसी अदालत ने अभी तक एक संगठन के रूप में सिमी को आंतकवाद से जुड़ा घोषित नहीं किया है) यासिर ने देश भर में फैले उन कई लोगों की बातों को ही दोहराया जिनसे तहलका ने मुलाकात की थी. उसने कहा कि सिमी एक माध्यम था जो धर्म में गहरी आस्था और आत्मशुद्धि का प्रशिक्षण देता था और इसका आतंकवाद या फिर भारत विरोधी साजिशों से कोई नाता नहीं था। “सिमी चेचन्या से लेकर कश्मीर तक मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों की बात करता था”, यासिर ने बताया. “उसने कभी भी बाबरी मस्जिद का मुद्दा नही छेड़ा और इसी चीज़ ने हमें सिमी की तरफ आकर्षित किया”, वो आगे कहता है.
सिमी पर जिस दिन प्रतिबंध लगाया गया था उसी रात हैदराबाद में यासिर और सिमी के कई प्रतिनिधियों को ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. अगले दिन उन्हें ज़मानत मिल गई. एक दिन बाद ही पुलिस ने तीन लोगों को सरकार के खिलाफ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. दो लोगों को फरार घोषित कर दिया गया जिनमें यासिर भी शामिल था. उन्होंने कोर्ट में आत्मसमर्पण किया और उन्हें जेल भेज दिया गया. यहां यासिर को 29 दिनों बाद ज़मानत मिली. इस मामले में सात साल बीत चुके हैं, लेकिन सुनवाई शुरू होनी अभी बाकी है.
यासिर के पिता की किस्मत और भी खराब है. इस तेज़ तर्रार मौलाना की पहचान सरकार के खिलाफ ज़हर उगलने वाले के रूप में थी, विशेषकर बाबरी मस्जिद और 2002 के गुजरात दंगो के मुद्दे पर इनके भाषण काफी तीखे होते थे. तमाम फर्जी मामलों में फंसाए गए मौलाना को हैदराबाद पुलिस ने नियमित रूप से हाजिरी देने का आदेश दिया था.
इसी तरह अक्टूबर 2004 को जब मौलाना पुलिस में हाजिरी देने पहुंचे तो अहमदाबाद से आयी एक पुलिस टीम ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनके ऊपर गुजरात में आतंकवादी साजिश रचने और साथ ही 2003 में गुजरात के गृह मंत्री हरेन पांड्या की हत्या की साजिश रचने का आरोप था।
मौलाना के साथ पुलिस स्टेशन गए स्थानीय मुसलमानों ने वहीं पर इसका विरोध करना शुरू कर दिया। इस पर गुजरात पुलिस के अधिकारी नरेंद्र अमीन ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर निकाल कर फायर कर दिया जिसमें एक प्रदर्शनकारी की मौत हो गई। इसके बाद तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा। नसीरुद्दीन के समर्थकों ने अमीन के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग को लेकर मृत शरीर को वहां से ले जाने से इनकार कर दिया। अंतत: हैदराबाद पुलिस ने दो एफआईआर दर्ज कीं। एक तो मौलाना की गिरफ्तारी का विरोध करने वालों के खिलाफ और दूसरी अमीन के खिलाफ।
अमीन के खिलाफ दर्ज हुआ मामला चार साल में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा है। हैदराबाद पुलिस को उनकी रिवॉल्वर जब्त कर मृतक के शरीर से बरामद हुई गोली के साथ फॉरेंसिक जांच के लिए भेजना चाहिए था। उन्हें अमीन को गिरफ्तार करके मजिस्ट्रेट के सम्मुख पेश करना चाहिए था। अगर गोली का मिलान उनके रिवॉल्वर से हो जाता तो इतने गवाहों की गवाही के बाद ये मामला उसी समय खत्म हो जाता। पर ऐसा कुछ नहीं किया गया।
अमीन, मौलाना नसीरुद्दीन को साथ लेकर अहमदाबाद चले गए और उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर फाइलों में दब कर रह गई। अमीन ही वो पुलिस अधिकारी हैं जिनके ऊपर कौसर बी की हत्या का आरोप है। कौसर बी गुजरात के व्यापारी सोहराबुद्दीन की बीवी थी जिसकी हत्या के आरोप में गुजरात पुलिस के अधिकारी वंजारा जेल में है। अमीन भी अब जेल में हैं।
इस बीच अमीन के खिलाफ हैदराबाद शूटआउट मामले में शिकायत दर्ज करने वाले नासिर के साथ हादसा हो गया। नासिर मौलाना नसीरुद्दीन का सबसे छोटा बेटा और यासिर का छोटा भाई है। इसी साल 11 जनवरी को कर्नाटक पुलिस ने नासिर को उसके एक साथी के साथ गिरफ्तार कर लिया। जिस मोटरसाइकिल पर वो सवार थे वो चोरी की थी। पुलिस के मुताबिक उनके पास से एक चाकू भी बरामद हुआ था। पुलिस ने उनके ऊपर ‘देशद्रोह’ का मामला दर्ज किया।
आश्चर्यजनक रूप से पुलिस ने अगले 18 दिनों में दोनों के 7 कबूलनामें अदालत में पेश किए। इनमें से एक में भी इस बात का जिक्र नहीं था कि वो सिमी के सदस्य थे। इसके बाद पुलिस ने आठवां कबूलनामा कोर्ट में पेश किया जिसमें कथित रूप से उन्होंने सिमी का सदस्य होना और आतंकवाद संबंधित आरोपों को स्वीकार किया था। 90 दिनों तक जब पुलिस उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल करने में नाकाम रही तो नासिर का वकील मजिस्ट्रेट के घर पहुंच गया, इसके बाद क़ानून के मुताबिक उसे ज़मानत देने के अलावा और कोई चारा नहीं था। लेकिन तब तक पुलिस ने नासिर के खिलाफ षडयंत्र का एक और मामला दर्ज कर दिया और इस तरह से उसकी हिरासत जारी रही। इस दौरान यातनाएं देने का आरोप लगाते हुए उसने पुलिस द्वारा पेश किए गए कबूलनामों से इनकार कर दिया।
दोनों को पुलिस हिरासत में भेजने वाले मजिस्ट्रेट बी जिनाराल्कर ने तहलका को एक साक्षात्कार में बताया:
“जब मैं उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजने के लिए जरूरी कागजात पर दस्तखत कर रहा था तभी अब्दुल्ला (दूसरा आरोपी) मेरे पास आकर मुझसे बात करने की विनती करने लगा।” उसने मुझे बताया कि पुलिस उसे खाना और पानी नहीं देती है और बार-बार पीटती है। वो नासिर के शरीर पर चोटों के निशान दिखाने के लिए बढ़ा। दोनों लगातार मानवाधिकारों की बात कर रहे थे और चिकित्सकीय सुविधा मांग रहे थे”।
“मुझे तीन बातों से बड़ी हैरानी हुई—वो अपने मूल अधिकारों की बात बहुत ज़ोर देकर कर रहे थे। वो अंग्रेज़ी बोल रहे थे और इस बात को मान रहे थे कि उन्होंने बाइक चुराई थी। मेरा अनुभव बताता है कि ज्यादातर चोर ऐसा नहीं करते हैं।”
जब एक पुलिस सब इंस्पेक्टर ने मजिस्ट्रेट को फोन करके उन्हें न्यायिक हिरासत में न भेजने की चेतावनी दी तब उन्होंने सबसे पहले सबूत अपने घर पर पेश करने को कहा। “उन्होंने मेरे सामने जो सबूत पेश किए उनमें फर्जी पहचान पत्र, एक डिजाइनर चाकू, दक्षिण भारत का नक्शा जिसमें उडुपी और गोवा को चिन्हित किया गया था, कुछ अमेरिकी डॉलर, कागज के दो टुकड़े थे जिनमें एक पर www.com और दूसरे पर ‘जंगल किंग बिहाइंड बैक मी’ लिखा हुआ था।
जब मैंने इतने सारे सामानों को एक साथ देखा तो मुझे लगा कि ये सिर्फ बाइक चोर नहीं हो सकते। बाइक चोर को फर्जी पहचान पत्र और दक्षिण भारत के नक्शे की क्या जरूरत? उनके पास मौजूद अमेरिकी डॉलर से संकेत मिल रहा था कि उनके अंतरराष्ट्रीय संपर्क हैं। कागज पर www.com से मुझे लगा कि वे तकनीकी रूप से दक्ष भी हैं। दूसरे कागज पर लिखा संदेश मुझे कोई कूट संकेत लगा जिसका अर्थ समझने में मैं नाकाम रहा। इसके अलावा जब मैंने दक्षिण भारत के नक्शे का मुआयना शुरू किया तो उडुपी को लाल रंग से चिन्हित किया गया था। शायद उनकी योजना एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान उडुपी में हमले की रही हो।”
“मुझे लगा कि इतने सारे प्रमाण नासिर और अब्दुल्ला को पुलिस हिरासत जांच को आगे बढ़ाने के वास्ते हिरासत में भेजने के लिए पर्याप्त हैं।”
तो क्या मौलाना हलीम, मुकीमुद्दीन यासिर, मौलाना नसीरुद्दीन, और रियासुद्दीन नासिर के लिए कोई उम्मीद है? यासिर और नासिर की मां को कोई उम्मीद नहीं है। वे गुस्से में कहती हैं, “क्यों नहीं पुलिस हम सबको एक साथ जेल में डाल देती है।” फिर गुस्से से ही कंपकपाती आवाज़ कहती है, “और फिर वो हम सबको गोली मार कर मौत के घाट उतार दें।”
साभार : तहलका हिन्दी

चुनाव जितने की भाजपाई राजनीति


प्रफुल्ल बिदवई
जम्मू जल रहा है। पिछले सात हफ्तों से यह क्षेत्र, जिसमें 30 लाख लोग बसते हैं बेहद कट्टरपंथी, साफतौर पर साम्प्रदायिक और निष्ठुर हिंसा से भरपूर अशांति का गवाह रहा है। यह अशांति श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड को 100 एकड़ भूमि हस्तांतरित किए जाने से संबंधित सरकारी आदेश के रद्द किए जाने के परिणाम स्वरूप फूट पड़ी थी। इस अशांति ने जम्मू को कश्मीर के डोगरों को अन्य जातीय समूहों के विरुध्द और हिंदुओं को मुसलमानों के विरुध्द इस तरीके से ला खड़ा किया है, जिसकी संभावना पहले कभी नहींदिखाई दी थी।

इस अशांति ने बहुत ही गंदा राजनीतिक रूप धारण कर लिया है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी इसका इस्तेमाल बहुत ही विद्वेषपूर्ण ढंग से कर रही है। उसके समर्थकों ने जम्मू-कश्मीर पर आंशिक नाकाबंदी शुरू कर दी। जिसकी वजह से जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग कई हफ्तों तक बंद रहा। इसके परिणाम स्वरूप हर किस्म के सामान का लाना ले जाना बंद हो गया और जनता को अकथनीय कष्ट उठाने पड़े।जम्मू में असहिष्णुता के विस्फोट का सीधा असर आइने में अक्स की तरह कश्मीरवादी में देखने को मिला, जहां मुख्यधारा की पार्टियों ने अलगाववादियों के साथ मिलकर मुजफ्फराबाद की तरफ मार्च करना शुरू कर दिया। इस मार्च का जाहिराना तौर पर उद्देश्य था, नष्ट होने वाले फल को पाकिस्तानी कश्मीर में बेचकर नाकाबंदी को तोड़ना। इस मार्च को रोकने के लिए पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई में पांच लोग मारे गए। एक साथ चल रहे दो अशांति आंदोलन से जम्मू-कश्मीर की एकता और उसके बहुलवादी, बहुसंस्कृतिक और बहुधार्मिक स्वरूप के लिए एक अभूतपूर्व खतरा पैदा हो गया है। दो महीने से भी कम अवधि में भाजपा जम्मू-कश्मीर के दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भावनात्मक जातीय-धार्मिक और राजनीतिक दरार पैदा करने में कामयाब हो गई है। ऐसा काम पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर जिहादी अलगाववादी आजादी आंदोलन फूट पड़ने के बाद पिछले लगभग 20 वर्षो में भी नहीं कर पाए थे।

दोनों आंदोलन अपने-अपने क्षेत्र में जोर पकड़ते चले गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप जम्मू-कश्मीर का ध्रुवीकरण हो गया है। जैसा कि सरकार ने खुद स्वीकार किया है कि इससे हुरियत और हिंदुत्व ताकतें, दोनों ही मजबूत हुई हैं। केंद्र तो बहुत देर तक इंतजार करता रहा और उसने समस्या को और भी उग्र रूप लेने का मौका दे दिया। वह देश के कानून को वहां लागू करके जम्मू-श्रीनगर राज्य मार्ग को खुलवाने में नाकाम रही। 18 सदस्यों वाली सर्वदलीय समिति का गठन करके उसने इतनी देर से इस स्थिति को शांत करने की जो कोशिश की है, उससे कुछ बात बन नहीं पाई। केंद्र ने श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड की नाजायज मांग को मानते हुए तीन समिति सदस्यों को-जो कि तीनों ही वादी से थे-बैठक में शामिल नहींकिया। बोर्ड द्वारा अपनी मांग का कारण यह बताया गया कि ये तीनों सदस्य समस्या का हिस्सा थे, न कि समाधान के। (हालांकि समाधान ठूंढने के लिए बातचीत उन्हींसे ही की जानी चाहिए जो समस्याएं पैदा करते हैं।) लेकिन उससे भी कोई काम नहींबना। श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड, जो कि 28 समूहों का तंत्र है, पूरी तरह से संघ परिवार का ही उद्यम है। उसके तीन शीर्ष नेताओं-संयोजक लीलाकरण शर्मा, ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) सुचेत सिंह और तिलक राज शर्मा- की पक्की आरएसएस की पृष्ठ भूमि है और जम्मू कश्मीर नेशनल फ्रंट के साथ उनके निकट संबंध हैं, जिसकी यह मांग है कि राज्य के तीन हिस्से किए जाएं-जिनमें से जम्मू और कश्मीर को अलग-अलग राज्य बना दिया जाए और लद्दाख को संघ शासित क्षेत्र का दर्जा दिया जाए। इस मांग का तर्काधार है धार्मिक पहचान, जो घृणास्पद रूप से सामुदायिक तर्काधार है।यह समझना मुश्किल है कि धार्मिक आधार पर जम्मूृ-कश्मीर का बटवारा कश्मीर वादी को भारत से अलग करने का नुस्खा है। इससे दो अलग-अलग पहचानें कायम हो जाएंगी, जिनमें एक दूसरे के प्रति कठोरता पैदा होती चली जाएगी और अंतत: एक कभी न मिटाई जा सकने वाली हकीकत बन जाएगी। और ये दो पहचानें होंगी-मुस्लिम कश्मीर और हिंदू जम्मू। वादी में मौजूद सैयद अली शाह जैसे पाकिस्तानी परस्त अलगाववादियों जो कि कश्मीर के लिए एक बहुलवादी, धर्मनिरपेक्ष गैर धार्मिक पहचान के खिलाफ है, के मकसद को इससे बेहतर कोई मदद हासिल नहींहो सकती। जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सों में बांटने की किसी भी मांग से पाकिस्तानी कट्टरपंथी तत्वों को बैठे बिठाए एक मुद्दा हाथ लग जाएगा और पाकिस्तान और भारत के बीच सरहदों को फिर से तय किए बगैर कश्मीर समस्या के समाधान के लिए दोनों देशों के बीच चल रही अनौपचारिक बातचीत से जितनी भी अब तक प्रगति हो पाई है, उस पर सारा पानी फिर जाएगा। ये कट्टरपंथी तत्व 'बंटवारे के अधूरे मुद्दों' के हिस्से के तौर पर कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनाए जाने के रुढ़िवादी परिप्रेक्ष्य को अपनाते हुए अपना पुराना राग अलापने लगेंगे। भाजपा ने इतना खतरनाक रास्ता क्यों अपनाया है? इसका एक ही जवाब है। वह अपनी कमजोर पड़ती हुई संभावनाओं में सुधार लाने के लिए कोई भी ऐसा मुद्दा हथियाने के लिए दुस्साहस पर उतर आई है जिस पर उसे कुछ समर्थन मिल सके। यही कारण है कि उसने अमरनाथ मुद्दे को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन करने का निर्णय लिया है। इतना ही नहीं, भाजपा से इस बात से भी इनकार करती है कि जम्मू-कश्मीर में आर्थिक नाकाबंदी हुई है। पार्टी के महासचिव अरुण जेटली ने इसे एक 'मिथक' करार दिया है और उनका तो यहां तक कहना है कि जम्मू में चल रहा आंदोलन पूर्णत: शांतिपूर्ण है। जब कि हकीकत यह है कि जम्मू के लड़ाकू प्रदर्शनकारियों ने जो अब देखने में और अपनी रणनीति में 2002 में गुजरात के स्वसैनिकों जैसे लगते हैं। सरकार के अनुसार जिसे किसी भी आधार पर जम्मू विरोधी नहींकहा जा सकता, अमरनाथ मुद्दे को लेकर 10513 विरोध प्रदर्शन किए गए हैं, जिनमें हिंसा की 359 गंभीर घटनाएं घट चुकी हैं। इन घटनाओं में 28 सरकारी इमारतों, 15 पुलिस वाहनों और 118 निजी वाहनों को क्षति पहुंचाई गई है। सांप्रदायिक हिंसा के 80 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 20 व्यक्ति घायल हुए 72 गाुरघरों को जला दिया गया, 22 वाहन क्षतिग्रस्त हुए और जरूरी सामान ले जा रहे कई ट्रकों को लूट लिया गया। इस हिंसापूर्ण आंदोलन की योजना तैयार करने और उसे अमली जामा पहनाने में भाजपा का जबरदस्त हाथ रहा है। उसके नेता अपने मूल तत्वों पर फिर से लौट आए हैं और वे हैं अपने प्रकृत रूप में हिंदुवादी तत्व, जिनसे वे भली भांति परिचित हैं और जो उन्हें बहुत सुहाते है। भाजपा निराशा के कारण इतने दुस्साहस पर क्यों उतर आई है? अभी एक ही महीना पहले कई राज्य विधानसभा चुनावी जीतों के बाद उसने खुद को उस ढंग से पेश किया मानों उसको यह पूरा विश्वास हो कि अगले आम चुनाव में जीत उसकी ही होगी। यहां तक कि उसने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा करनी शुरू कर दी जिससे कि वे अपने चुनावी प्रचार की योजना तैयार कर सकें। लेकिन विश्वासमत के दौरान भाजपा की इस ख्याली उड़ान में जबरदस्त रुकावट पड़ गई। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद विजयी बनकर सामने आए और अपने स्वभाव के विपरीत आक्रमक डॉ। मनमोहन सिंह को 'भारत का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री' करार नहीं दिया जा सकता था। विश्वासमत में भाजपा की छवि धूमिल होकर सामने आई। व्हिप की अवहेलना करने वाले सबसे ज्यादा सांसद भाजपा के ही थे। पैसे के बदले सवाल घोटाले, मानव व्यापार कांड और हालिया अनुशासहीनताओं के कारण भाजपा ने अपनी मूल 137 लोकसभा सीटों में से 17 सदस्य गंवा दिए हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सभी 24 सदस्य हुआ करते थे। अब वे घटकर मात्र पांच रह गए हैं।

देशबंधु से साभार

आतंक, राशिद और इन्‍फोसिस

जयपुर में विस्‍फोट के कुछ दिनों बाद ही पुलिस ने कुछ लोगों को पकड़ा और दावा किया कि साजिश का पर्दाफाश हो गया है। हर पकड़ा गया शख्‍स मास्‍टरमाइंड था। इन्‍हीं में से थे- राशिद हुसैन। बिहार के रहने वाले। पेशे से इंजीनियर। इन्‍फोसिस में नौकरी। इनकी खता क्‍या थी। यह कभी सिमी से जुड़े थे, जब उस पर पाबंदी नहीं थी। लेकिन जो चीज उन्‍हें शक के दायरे में लाई- वह था सेवा करने का जज्‍बा। विस्‍फोट के बाद, राशिद उन चंद लोगों में शामिल थे, जो घायलों की मदद के लिए पहुँचे थे। पुलिस का दिमाग देखिए, उसे लगा ‘राशिद’ नामधारी व्‍यक्ति सेवा करने कैसे पहुँचा। जरूर दाल में काला है। और राशिद हो गए ‘आतंकी’। किसी तरह छूटे। इससे आगे की कहानी, अपूर्वानन्‍द बता रहे हैं। उनकी यह रिपोर्ट जनसत्ता और द टेलीग्राफ ने प्रकाशित की है.

राशिद हुसैन के स्वर में कड़वाहट नहीं थी. होना स्वाभाविक होता. आख़िर राजस्थान पुलिस ने उसे नौ दिन गैरकानूनी तरीके से बंद कर रखा था और लगातार यह कोशिश की थी कि उसे यह मानने पर मजबूर कर दिया जाए कि उसके ताल्लुकात ‘सिमी’ नामक संगठन के साथ हैं. उस मानसिक यंत्रणा को झेल कर भी राशिद टूटा नहीं. पुलिस से बच जाने के बाद जब राशिद ने अपनी कंपनी ‘इन्फोसिस’ में वापस काम पर जाना चाहा जहाँ वह इंजिनियर था तो उसे कुछ दिन आराम करने को कहा गया. आराम कि यह अवधि एक बार और बढाई गई. फिर जब वह अपने परिवार से मिलने पटना गया तो इन्फोसिस ने उसे एक अंदरूनी पैनल से बात करने को वापस जयपुर बुलाया. वहाँ उससे कहा गया कि कम्‍पनी के बाहर की उसकी गतिविधियों में कम्‍पनी की दिलचस्पी नहीं है और वह सिर्फ़ दो मामलों में उसकी सफाई चाहती है. उसने नौकरी माँगते समय यह बताया था कि वह पटना के एक कॉलेज में दो साल पढा चुका है जब कि कम्‍पनी ने यह पता किया है कि दरअसल यह अवधि तीन साल की थी. दूसरे, उसने जिस एक और कम्‍पनी में काम का अनुभव बताया था, उसका वहाँ कोई वजूद ही नहीं है.
राशिद ने बताया कि उसने कॉलेज में तीन साल पढाया था पर इन्फोसिस को सिर्फ़ दो साल का अनुभव बताया जो कि कम है, ज़्यादा नहीं. अगर वह बढ़ा कर बताता तो जुर्म हो सकता था पर एक साल के अनुभव का उल्लेख न करना तो कोई दुर्भावना नहीं. वह अपने काम का स्वरूप बदलना चाहता था इसलिए उसने अध्यापन के अनुभव से एक साल कम करके जिस दूसरी फर्म में वह साथ-साथ काम कर रहा था, उसके एक साल के तजुर्बे का उल्लेख अधिक प्रसांगिक समझ कर ऐसी जानकारी दी. दूसरी जिस फर्म में वह काम कर रहा था, मुमकिन है की इस बीच उसका किसी और बड़ी फर्म के साथ विलय हो गया हो.
लेकिन क्या यह सच नहीं की इन्फोसिस ने राशिद को नौकरी देने से पहले उसके द्वारा दी गई हर जानकारी की जाँच-परख करा ली थी? क्या उस वक्त उस फर्म से इन्फोसिस ने पता नहीं किया था की राशिद नाम का कोई व्यक्ति वहाँ काम करता है या नहीं, क्या इन्फोसिस अपने रिकॉर्ड से ख़ुद इसकी सच्चाई का पता नहीं कर ले सकती? अगर अभी वह कंपनी नही है तो इसमें राशिद क्‍या कर सकता है.
इन्फोसिस , जो कि नए भारत का एक लघु रूप ख़ुद को बताती है और जिसके साथ काम करने में किसी भी भारतीय नौजवान को फख्र का अनुभव होता है, जिसके मुखिया को भारत का राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक बनाने की चर्चा संचार माध्यमों में चलती रहती है, राशिद के इस उत्तर से प्रभावित नहीं. राशिद ने किया वह उसकी नैतिक संहिता के प्रतिकूल था, असत्य को वह सह नहीं सकती इसलिए उसने राशिद को बर्खास्त कर दिया. स्वयं को एक विशाल परिवार के रूप में प्रचारित करने वाली इस कमपनी ने नितान्त निर्वैयक्तिक ढंग से राशिद के एमबीए के इम्तहान के बीच बर्खास्तगी का यह आदेश भेज दिया.
जयपुर में बम धमाकों के बाद राशिद ने घायल लगों के बीच जाकर राहत का काम करने का निर्णय किया. वह पहले से एक छोटी स्वयं सेवी संस्था में काम करता है. इन्फोसिस के अपन काम के बीच वक्त निकाल कर उसने बम-धमाकों से प्रभावित लोगों का दुःख-दर्द बाँटने का निर्णय किया. हममें से ज़्यादातर ऐसा नहीं कर पाते. सेवा भारतीय संस्कृति में उतने रची- बसी नहीं है. एक जून को सुबह पाँच बजे स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप ने उसे घर से उठा लिया.
पुलिस को यह पता था की उसके सिमी से रिश्ते रहे हैं. राशिद ने बिना घबराए बताया की पैंतीस साल की उसके अब तक की जिंदागी में बंगलोर के डेढ़ साल सिमी से रिश्तों के थे. वह उस संगठन का पक्‍का सदस्य भी नहीं बन सका था. उसने कहा की सिमी की कई बातों से वह सहमत नहीं था. पटना में उसने कई संसदीय दलों के साथ काम किया था, इसलिए वह इस तर्क का कायल न था की भारत में मुसलमानों का हित इस व्यवस्था में सम्भव नहीं. वह भारतीय संविधान पर भी भरोसा रखता है. फिर 2001 के पहले सिमी से सम्बन्ध रखना कोई अपराध नहीं था क्योकि वह प्रतिबंधित संगठन न था. पाबंदी के बाद उसने सिमी से रिश्ता नहीं रखा.
पुलिस की पूछ ताछ के वक्त को याद करते हुए आप राशिद के स्वर में कटुता नहीं, एक उदासी का भाव लक्ष्य कर सकते हैं. उसने अपनी पूछ-ताछ में पाया की पुलिस महकमे में मुसलमानों के प्रति दुर्भावनापूर्ण पूर्वग्रह है. यह माना जाता है कि मुसलमान नौजवान का पढ़ा-लिखा होना और आधुनिक तकनीक में दक्ष होना उसके खतरनाक होने का सबूत है. आधुनिक तकनीक के सहारे वह बम बनने से लेकर न जाने क्या-क्या कर सकता है. अगर वह सर झुका कर अपने काम की जगह से घर नहीं जाता और सामाजिक या राजनीतिक रूप से सक्रिय नौजवान है, तो उसके खतरनाक होने की संभावनाएँ और बढ़ जाती हैं. इसका पता इस बात से चलता है की कहीं भी बम धमाके जैसी घटना होने बाद सबसे पहले मुसलमान इंजिनियर और डॉक्टर पकड़े जाते हैं. रशीद की घटना के बाद अभी फिर जयपुर में कुछ डाक्टर पकड़ लिए गए थे.
पुलिस और राज्य के मुसलमानों के प्रति इस पारंपरिक व्यवहार के साथ इन्फोसिस जैसी नए ढंग की कार्य संस्कृति का द्वावा करने वाली कंपनियों का बर्ताव मिल जाए तो फिर मुसलमान नौजवानों के लिए दरवाज्र बंद हो जाते हैं. इन्फोसिस क्या ईमानदारी से यह कह सकती है की राशिद को निकालने का फैसला राशिद के पकड़े जाने से नहीं जुडा है और वह किसी तरह उससे पल्ला नहीं छुडाना चाहती थी? क्या उसके मानव संस्थान प्रमुख श्री पाई ने यह नहीं कहा की जयपुर धमाके के बाद उन्होंने राशिद की पृष्ठभूमि की जाँच शुरू की ?
क्या अब निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ भारत की सुरक्षा एजेसियों को अपने यहाँ काम करने वाले मुस्लिम नौजवानों की जानकारी उपलब्ध कराने का काम भी कर रही हैं? क्या मुसलामानों के आर्थिक अलगाव का यह एक नया दौर शुरू हो रहा है? क्या तकनीकी क्षेत्र का हिन्दूकरण आरम्भ हो गया है, जैसे पहले से ही पुलिस और अन्य सुरक्षा एजेसियों का रहा है? क्या उन्हें यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि उन्हें आज्ञाकारी शहरियों की तरह काम से काम रखना चाहिए? क्या राजनितिक और सामाजिक रूप से सक्रिय मुसलमानों में यह राज्य सिर्फ़ अतीक, शहाबुद्दीन, मुख्तार जैसे चेहरों को ही स्वीकार करेगा या मुख्तार अब्बास नकवी और शानावाज़ हुसैन जैसे मुसलमानों को? क्या राशिद जैसे नौजवानों को अपनी राजनीतिक खोज बीन करने का हक नहीं रहेगा?
राशिद के स्वर में कड़वाहट नहीं थी, इसके लिए मैं पूरे हिन्दुस्तान की ओर से उसके प्रति शुक्रगुजार हुआ. उसने अपनी बर्खास्तगी के ख़िलाफ़ इन्फोसिस जैसी कमपनी से कानूनी लड़ाई लड़ने का फैसला किया, इसके लिए भी. उसने चुप रह कर, पिछले दरवाजे से पैरवी करके, हाथ पैर जोड़ कर नौकरी वापस लेने की कोशिश नहीं की, यह इसका सबूत है की बावजूद प्रतिकूल माहौल के मुसलमान इस मुल्क पर अपना हक समझते हैं और अपना दावा बिना झिझक पेश कर सकते हैं. क्या हम सब इस दावेदारी को और मजबूत करने को तैयार है?

दुनिया का सबसे बडा पब्लिक रिलेशन स्कैम है

भारत को विश्र्व का सबसे पसंदीदा लोकतंत्र बनाना : अरुंधती राय
परमाणु करार पर हुई पूरी नाटकबाजी और तमाशे के दौरान यह भी हुआ-संसद में वह बात सबके सामने ला दी गयी, जो ढंके छुपे अरसे से होती रही है। हम संसद के प्रति इसलिए आभारी हैं की उसने एक बार फिर, और इस बार बिना किसी छिपाव के, अपने को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया। हमने लोकतंत्र को एक बार फिर एक बेहद मंहगे तमाशे के रूप में घटित होते देखा। एक ऐसा लोकतंत्र, जिसमे देश को गुलामी की कुछ और सीढियां चढानेवाले समझौते पर उस देश की तथाकथित सर्वोच्च संस्था-ख़ुद संसद को ही कुछ कहने-करने का अधिकार नहीं है। और दूसरी बात यह की, भले संसद को कुछ करने का अधिकार भी होता, फिर भी क्या एक ऐसी व्यवस्था स्वीकार्य हो सकती है, जिसमें वोट खरीद लिए जाते हों और इस आधार पर संसद चलती हो? इस पर आगे भी कुछ आयेगा, अभी हंस के अप्रैल अंक में छपे अरुंधती राय के इंटरव्यू, जिसे पुण्य प्रसून वाजपेयी ने लिया

प्रसून वाजपेयी : सबसे पहले यही जानना चाहेंगे...जो कुछ हमारे इर्द-गिर्द हो रहा है...अचानक एक बडा सवाल आ गया है कि देश बांटा जा रहा है भाषा के नाम पर, रोजगार के नाम पर...देश बांटा जा रहा है अपनी राजनीति के अस्तित्व के नाम पर कि हम हैं...यह कैसा संकट...?
अरुंधति राय : इसके बीज बहुत पहले ही हमने जमीन में गाड दिये थे...हमने से मतलब हमारे बडे सरकारी लोग...उसका पूरा परिणाम अब सामने आ रहा है...लेकिन 1990 में जब मनमोहन सिंह ने उदारीकरण की तैयारी शुरू की, उसी समय 1989 में राजीव गांधी ने बाबरी मसजिद का ताला खोल दिया...इसी समय से ये दोनों साथ-साथ चले आ रहे हैं...और अब उसका नतीजा बहुत ही पास आ गया है...उदारीकरण का परिणाम यह हुआ कि हमारा अपर कास्ट और मिडिल एंड अपर क्लास भारत से अलग हो गया...उनका अपना एक पूरा यूनिवर्स बन गया...उसमें अपना मीडिया, अपनी कहानी, अपनी अर्थव्यवस्था, अपना सुपर मार्केट, अपना मॉल, अपनी ट्रेजेडी और अपना आंदोलन भी है...जैसे यूथ फॉर इक्वलिटी जैसे संगठन...जो समझते हैं कि निचली जातियों के लोग ऊंची जातियों को दबा रहे हैं...या जस्टिस फॉर जेसिका जैसा आंदोलन जो इंडिया गेट पर मोमबत्तियां जला कर अपना विरोध दर्ज कराता है...तो इनकी एक अलग दुनिया बन गयी है...वहीं बाकी लोग एक दूसरी तरह की लडाई लड रहे हैं. इनमें मतभेद भी हैं. जैसे गांधीवादी आंदोलन, नक्सलवादी व माओवादी आंदोलन...इनमें बहस चल रही है. कुछ साल पहले मैं संयुक्त राष्ट्र के एक कार्यक्रम में गयी थी. मैंने उनसे कहा कि पिछले दिनों भारत में लाखों लोग विस्थापित हुए हैं. तो उन्होंने कहा कि आप इंडिया के बारे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ न कहें...क्योंकि यह विश्र्व का पसंदीदा लोकतंत्र है...मुझे लगता है कि जो सबसे बडा एक पब्लिक रिलेशन स्कैम हुआ है...वह इस बात का प्रचार है कि दुनिया में इंडिया ही एकमात्र वह देश है, जहां सबसे जीवंत लोकतंत्र है...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : आपने एक अच्छी बात कही है कि लोकतंत्र के पैमाने से संयुक्त राष्ट्र भी मानता है और दुनिया भी...कि सबसे बेहतरीन लोकतांत्रिक देश भारत है...आपने मनमोहन सिंह का नाम लिया...राजीव गांधी और अयोध्या मुे का जिक्र किया...आपको नहीं लगता कि भारत की संसदीय राजनीति में उस क्लास का भी प्रतिनिधित्व है...फिर उसमें गडबडी कहां पर आ रही है....वह भी उसी राजनीति का हिस्सा बनना चाहता है, जिस राजनीति में आप बता रही हैं कि अपर और मिडिल क्लास की एक अलग दुनिया हो चली है...और दूसरी ओर लोअर क्लास है, जिसकी दुनिया बिल्कुल अलग है...उसके इरादे अलग हैं...
अरुंधति राय : नहीं...पर इनको मैनेज करने का तरीका निकाला है...जो लोअर क्लासेज हैं...जैसे आप इतिहास में देखें...तो उपनिवेशवाद क्या था...जब यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई...तो रॉ मेटेरियल निकालने अफ्रीका और अमेरिका गये...जहां पर बडे-बडे जेनोसाइड (नरसंहार) हुए...इंडिया में दूसरे तरह से एक तरह का रिवोल्यूशन हो रहा है...यहां पर जो क्लास आगे बढा है, वह ऊपर आसमान से नीचे देख रहा है...कि हमारा बॅक्साइट, हमारा आयरन, हमारा पानी...और जब आप यह सब निकालोगे तो जो लोग वहां रह रहे हैं...वे इस इकोनॉमी के काम के नहीं है...क्योंकि पूरा मेकैनाइजेशन चल रहा है...जितना ग्रोथ है, उतना रोजगार का ग्रोथ नहीं है...अभी हाल ही में एक अर्थशास्त्री बता रहे थे कि टाटा आर्थिक रूप से पांच गुना बडा हो गया है, लेकिन काम करनेवालों की तादाद आधी हो गयी...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : न्यू इकोनॉमी को पूरी दुनिया में इसी रूप में डिफाइन किया जा रहा है.
अरुंधति राय : इस नयी इकोनॉमी के लिए ये लोग फालतू हैं, ये उसके किसी काम के नहीं हैं. अब इनका किया क्या जाये. बहुत-सी चीजें हैं. प्राथमिक स्तर पर उनको, उनकी जमीन, उनके संसाधनों से बेदखल कर गांवों से शहरों की ओर विस्थापित कर दिया जाये.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : आपने इन चीजों को सामाजिक नजरिये से बहुत देखा है...राजनीतिक नजरिये से हम समझना चाह रहे हैं. आज अचानक नजर आ रहा है बीजेपी और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां फेल हो रही हैं. क्षेत्रीय पार्टियां अचानक आगे बढ रही हैं. और देश में गंठबंधनवाला पहलू भी सामने आता है. क्या यही सारी गडबडियां हैं. जिस दिशा में आप ले जा रही हैं...जो एक बडी वजह है कि जो क्षेत्रीय पार्टियां हैं, उनमें से मायावती निकल कर आती हैं, पासवान और लालू निकल कर आते हैं, उधर करुणानिधि निकल कर आते हैं...नरेंद्र मोदी भी एक झटके में नेशनल बजट को खारिज करते हैं और वे इसकी बात करते हैं कि यह राज्य का बजट है...स्टेट डेवलपमेंट का पहलू यह है...केंद्र से वित्त मंत्री जाते हैं और बोलते हैं कि मोदी जो गुजरात को दिखा रहे हैं, वह फेक है. असल विकास तो केंद्र ने किया है. तो जो टकराव शुरू हुआ है...उसकी वजह क्या है?
अरुंधति राय : ये जो पूरे संसाधनों पर कब्जा हो रहा है...उसका नतीजा यह होगा कि बहुत तरह की क्षेत्रीयता उभर कर सामने आयेगी. गुजरात को देखें तो नर्मदा की लडाई और वहां पर फासीवाद का उभर कर सामने आना...यह अकस्मात नहीं हुआ...आप कह सकते हैं कि मुझे पूरे देश से मतलब नहीं...हमें तो केवल इससे मतलब है. और हमें अधिकार है कि हम यह हासिल करेंगे. तो यह जो पूरा विभाजन हो रहा है, उसमें रिजनल पार्टियां एक लेवल पर, हिंदू-मुसलिम का सवाल दूसरे लेवल पर...जातियों का विभाजन, माओवादियों की लडाई सब शामिल हैं...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : नर्मदा की लडाई जो लडते हैं, वे सरकार की नजर में माओवादी भी हो गये थे. लेकिन अलग-अलग आंदोलन जहां भी चल रहे हैं, आपको क्या लगता है. आपके कई अस्पेक्ट हमने देखे हैं...आपके लेखों में आता है कि जहां भी आंदोलन हो रहा है, उसको स्टेट डिफाइन करता है आतंकवाद के पहलू से...आंतरिक सुरक्षा के नाम पर आतंकवादी भी हो जाते हैं...नक्सलवादी भी हो जाते हैं...क्या यह पॉवर्टी है? यदि आपके साथ पॉवर्टी जुडी है, तो आपको आतंकवादी के तौर पर लिया जा सकता है.
अरुंधति राय : अभी तक आतंकवाद को इसलामिक आतंकवाद के लिए प्रयोग किया जाता रहा है. लेकिन अब स्थिति यह आ गयी है कि केवल इसलामिक आतंकवाद का नाम लेने से काम नहीं चलेगा. क्योंकि किसी को आतंकवादी कहने के लिए उसका मुसलमान होना जरूरी है...अब जब आप किसी को माओवादी कहते हैं तो वह कोई भी हो सकता है. मैं भी हो सकती हूं, आप भी हो सकते हैं. जैसे पूरी तरह से गलत आरोप लगा कर विनायक सेन को जेल में रखा गया है. ये जो एक्सटैक्टिव/डिस्टैक्टिव इकोनॉमी है, जिस दिन टाटा और एस्सार ने छत्तीसगढ सरकार के साथ एमओयू साइन किया...उसके अगले दिन सलवा जुडूम घोषित हो गया. और अभी हमने सुना कि एक कानून आनेवाला है कि अगर आपने दो साल तक अपने खेत में खेती नहीं की तो इस जमीन को गैर कृषि कार्य के लिए डाइवर्ट कर दिया जायेगा...अब 640 गांवों को खाली करके लोगों को पुलिस कैंप में रखा गया है. कहा गया, या तो आप हमारे साथ सलवा जुडूम में हैं...नहीं तो आप माओवादी हैं...जिन गांवों को खाली कराया गया है, वहां आयरन ओर के लिए मल्टीनेशनल्स की निगाहें बॅक्साइट की खानों पर हैं...लोगों को वहां घरों से निकाला जा रहा है...अब क्या होगाङ्क्ष किसी भी प्रतिरोध को आप कहेंगे कि आतंकवाद है...कहा जा रहा है कि या तो आप हमारे साथ हैं, नहीं तो विरोध में...तो आप ऐसी स्थिति के लिए मजबूर कर रहे हैं...उसके बाद आप खतरनाक कानून पास कर रहे हैं...जैसे छत्तीसगढ स्पेशल सेक्योरिटी एक्ट...जिसके आधार पर हर व्यक्ति को अपराधी ठहराया जा सकता है...सरकार को केवल यह तय करना है कि किसको गिरफ्तार करना है...इस एक्ट में कोई भी नहीं बच सकता...इसमें यह साबित नहीं करना होगा कि अरुंधति राय माओवादी हैं...आप किसी को भी उठा सकते हैं...किसी को मृत्युदंड दे सकते हैं...सात साल की जेल भी दे सकते हैं...यहां तक कि स्टेट के खिलाफ सोचना भी अपराध है इस एक्ट में...तो एक ऐसा माहौल आ गया है कि किसी भी तरह के प्रतिरोध को माओवादी आतंकवाद कहके आपलोगों को बंद करा सकते हैं...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : हमने जहां से बात शुरू की है कि भारत में लोकतंत्र दुनिया देखती है...और हिंदुस्तान में जिस रूप में संसद बनती है...उसमें तो आमलोगों की भागीदारी होती है...क्या यह पूरा फेक प्रोसेस है...
अरुंधति राय : हम यह नहीं कह सकते कि सब कुछ फेक है...यह बहुत ही एक्स्ट्रीम पोजीशन होगी...पर मैं सोचती हूं कि 1970 में लैटिन अमेरिका में जब यूएस सरकार ने डेमोक्रेसी को ध्वस्त किया...तो उस समय उसको रियल डेमोक्रेसी से डर था...अब सबने सीख लिया कि डेमोक्रेसी की जो पूरी संस्था है, उसको खोखला कैसा किया जा सकता है...जैसे जब हमलोग छोटे थे तो खेत में जाकर एक बार मैंने पूरी गाजर खींच कर निकाल दी और ऊपर का डंठल वापस डाल दिया तो लग रहा था कि खेत में गाजर है...पर नहीं, पानी भी दो तो कुछ नहीं होगा...तो ऐसा ही हो गया है हमारा लोकतंत्र...जो कोर्ट है, मीडिया है, जो चुनावी प्रक्रिया है, सबको खोखला कर दिया गया है...तो अभी डेमोक्रेसी से कोई डर नहीं है...चुनाव से मायावती और लालू जैसी ताकतें आगे आ रही हैं, यह अच्छी बात है...कम से कम निचली जातियों के लोग आगे आकर प्रतिनिधित्व कर रहे हैं...पर वास्तविक पावर शिफ्ट नहीं हुआ है...यह ऊपर से दिखाई देता है...अंदर से खोखलापन कहीं ज्यादा इसी दौर में बढा है.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : मतलब क्या यह इकोनॉमिक टेररिज्म है...जो स्टेट को लगातार चला रहा है?
अरुंधति राय : यह इस्ट्रैटिक्टव कैपिटलिज्म की प्रक्रिया है...जहां कुछ को अधिक...और अधिक मिलता रहेगा वहीं एक बडे तबके से सब कुछ छिनता जायेगा.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : यानी सरकार किसी को लेकर कुछ परिभाषित कर सकती है...चाहे वह नर्मदा की बात हो, चाहे इंटरनल सेक्योरिटी के मेनजर...आम जरूरत के लिए जो लडाई लड रहे हैं...उनकी बात हो या फिर रह मुे की...मतलब आप विरोध करेंगे तो स्टेट को बरदाश्त नहीं होगा...
अरुंधति राय : और फिर बाकी चीजें भी हैं जैसे रोजगार गारंटी योजना...एक तरह से आप देखेंगे कि यह बहुत अच्छी चीज है...लाखों लोगों को रोजगार का अधिकार मिला...लेकिन वास्तव में हो क्या रहा है...कुछ जगहों को छोड दिया जाये, जहां अरुणा राय जैसे कमिटेड एक्टिविस्ट काम कर रहे हैं. बडे औद्योगिक घरानों ने कहा था कि हमें लाइसेंस राज नहीं चाहिए. पर सारे गरीबों को आप लाइसेंस राज के हाथों धकेल देते हैं. रोजगार गारंटी योजना क्या है...100 दिन के पैसों के लिए पूरे साल लडना पडता है फिर भी संभावना यही कि वह नहीं मिलता...और उसकी डील क्या है? अपनी जमीन...अपनी जिंदगी...अपना पानी सब कुछ स्टेट को दे दीजिए...उसके बदले आपको पत्थर तोडने का हक मिला 100 दिन के लिए...और जो आपको मिलेगा नहीं...पूरे भ्रष्टाचार में यह योजना फंस गयी है...गरीबों को देने के लिए पूरी तरह स्टेट को कंट्रोल और अमीरों व पूंजीपतियों के लिए पूरी तरह मुक्त इकोनॉमी, जहां वह स्टेट के सहयोग से सब कुछ कर सकते हैं... अपना सेज बनाने के लिए स्टेट के सहयोग से वे जमीन भी छीन सकते हैं...आमलोगों की कोई सुननेवाला नहीं है. केवल यही विकल्प बचता है कि वे हथियार उठा लें...यह हल नहीं है, पर सरकार केवल यही रास्ता छोड रही है.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : भूमि सुधार सबसे ज्यादा बंगाल में शुरुआती दौर में हुआ...लेकिन अब उसी राज्य में सब कुछ पलटा जा रहा है...इसका मतलब क्या है...?
अरुंधति राय : ये गलत है. सबसे ज्यादा कश्मीर में हुआ...शेख अबदुल्ला ने कश्मीर में रैडिकल लैंड रिफार्म किया था...इसके बाद बंगाल और केरल का नंबर आता है...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : लेकिन एक समय के बाद स्टेगनेंसी (जडता) आयी. हमारा कहना है कि संसदीय सिस्टम में भी एक स्टेगनेंसी आयी है...
अरुंधति राय : स्टेगनेंसी नहीं कह सकते, क्योंकि जो सेज हो रहा है वह पूरे भूमि सुधार कार्यक्रम को रिवर्स (पलट) कर रहा है.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : इसके विकल्प क्या बचेंगे...ऐसे में चाहे वह राइट हो या लेफ्ट?
अरुंधति राय : लेफ्ट हो, राइट हो या फिर सेंटर, सभी ने सेज को मंजूर कर लिया है...जहां तक विकल्प की बात है, यदि आप कई सालों में लिये गये निर्णयों की निर्णय प्रक्रिया को नहीं समझते...तो कोई विकल्प नहीं दे सकते...विकल्प यही है कि आप बडे डैम न बनायें...आप सेज न बनायें...विकल्प हैं पर हमारी सरकारों ने सबसे खराब विकल्प को चुना है...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : संसदीय सिस्टम का विकल्प क्या है...क्योंकि संसदीय राजनीति की जरूरत है सेज...संसदीय राजनीति की जरूरत है कैपिटलिज्म...संसदीय राजनीति की जरूरत है कि वह सोसाइटी को विभाजित करे...राजनीतिक दल इसी रूप में काम कर रहे हैं...इसका मतलब यह है कि क्या राजनीति अपने आपको बनाये रखने के लिए इस पूरे स्ट्रक्चर को अपना रही है...
अरुंधति राय : यह सही है कि कम लोग ही समझते हैं कि यह जो विभाजित करने की राजनीति है...यह लोकतंत्र की वजह से है...यह राजनेताओं का बिजनेस है...अपनी कंस्टीट्यूएंसी को बनाने के लिए...ये जो हमारे देश का जातिवाद है, यह हमारी संसदीय राजनीति का हार्ट है. इसको दूर नहीं किया गया. इसको पूरा एक इंजन बना दिया गया...इस सिस्टम को समझना होगा कि हाऊ डू यू हैव अ पार्लियामेंट, डेमोक्रेसी ह्वेयर द इंजर ऑफ इट इज नाट डिसीसिव पॉलिटिक्स.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : लेकिन यह नहीं लगता कि सारी चीजें जो ऑक्सीजन दे रही हैं, इस सोसाइटी को...इस सोसाइटी में उसके पास अपने विकल्प नहीं बच रहे हैं...जितने भी आंदोलन चल रहे हैं...या जहां पर आंदोलन हुए हैं...वे अपने खास स्पेस में विकल्प नहीं दे पाये कि वहां इकोनॉमी को वे उसी रूप में डेवलेप कर लें...बस्तर के इलाके को लेकर कहा जाता है कि वहां पर माओवादियों ने अपने स्तर पर समानांतर सरकार गठित की...पर इकोनॉमी अपने अनुकूल हो पाये यह प्रयोग तेलंगाना, छत्तीसगढ, झारखंड- कहीं नजर नहीं आता...इसकी वजह फिर क्या है...
अरुंधति राय : अपने आपको बचाने में ही ज्यादा समय लग जाता है...इनकी अपने इलाके को बचाने में ही पूरी ऊर्जा जा रही है...आपका हेलीकॉप्टर ऊपर चल रहा है...आर्मी ऊपर आ रही है...आप अपना विकास कैसे करेंगे?
पुण्य प्रसून वाजपेयी : नहीं हमारा सवाल था...हम नेपाल देख रहे थे...नेपाल में एक परिवर्तन आया...इसके मेनजर यहां पर जितने भी अल्ट्रा लेफ्ट संगठन थे, उनके लगातार बयान सामने आये...और उसके जरिये वे हिंदुस्तान की तसवीर देखने लगे...कि इस तरह हम संसदीय राजनीति का चेहरा बदल सकते हैं...हमारा कहना है कि क्या जो नेपाल में हो रहा था...वह बहुत जल्दबाजी थी...तमाम बातचीत होने लगी थी उस दौर में...लेकिन ये तसवीर जो उभर कर सामने आ रही है...यह हम इसलिए कह रहे हैं कि नेपाल में एक प्रक्रिया चली...हिंदुस्तान में भी वो शुरुआती दौर में चली...सत्तर, अस्सी और नब्बे तक एक प्रक्रिया नजर आती है...लेकिन क्या लग रहा है कि वे स्टैगनेंसी (गतिहीनता) वहां भी आयी है...?
अरुंधति राय : हो सकता है, क्योंकि आप जहां पर भी देखें...जैसे कश्मीर जहां मैंने काफी समय बिताया है...मुझे पता है जैसे छत्तीसगढ और झारखंड में अभी हो रहा है...जब कन्फ्लिक्ट (टकराहट) होता है तो फिर दोनों तरफ एक स्टैगनेंसी आती है, यथास्थिति बनाये रखने के लिए. क्योंकि कन्फ्लिक्ट में ही बहुत पैसा बन जाता है...फिर अभी एक स्थिति है. कश्मीर में अगर आतंकवाद खत्म हो जाये और आर्मी को वहां से निकलना पडे तो वे आतंकवाद को फिर से खडा कर देंगे. यह अब पैसा बनाने का व्यापार बन गया है.
पुण्य प्रसून वाजयेपी : हमारे देश में जो साहित्य लिखा जा रहा है...रचा जा रहा है...शायद सरोकारों से कटता जा रहा है...इसलिए आज भी लोग प्रेमचंद का नाम बोल देते हैं...कि एक प्रेमचंद थे...फणीश्वरनाथ रेणु को याद कर लेते हैं...लगता क्या है कि साहित्यकार, लेखक भी समाज से कट रहे हैं...
अरुंधति राय : हां कट तो रहे हैं...महाश्वेता देवी हैं जो नहीं कटीं...साथ में चलती हैं...पर दिक्कतें बहुत हैं, क्योंकि मुझे लगता है कि 'गॉड ऑफ स्माल थिंग्स' के बाद पिछले 10 साल मैंने बहुत कुछ लिखा...पर अब उसका भी शायद अलग वक्त आ गया है...10 साल पहले मैंने लिखा कि हमारा काम है...दुश्मन की पहचान करना...कि यह ग्लोबलाइजेशन है क्या...हमारा शत्रु है कौन...ऐसा नहीं कि पहले अंगरेज थे....जो खराब थे, उनको भगा दिया...अब स्थितियां बहुत ही जटिल हैं...अभी तक लेखकों और कलाकारों का काम था स्थितियों को सामने लाने का...अब चीजें साफ हो गयी हैं...जिसको जानना था उसने जान लिया है और अपना पक्ष भी चुन लिया है...अब मुझे यह नहीं लगता कि मैं लोगों से यह कह सकती हूं कि वे कैसे लडें...मैं छत्तीसगढ के आदिवासियों को नहीं बोल सकती कि आप उपवास पर बैठो...गांधीवादी बनो या माओवादी...यह निर्णय वे खुद लेंगे...मैं नहीं कह सकती...मैं नहीं बता सकती...यह मेरा काम नहीं है...मैं सिर्फ लिख सकती हूं....कोई सुने या न सुने...मैं वही कर सकती हूं...वही करूंगी....क्योंकि मैं कुछ और नहीं कर सकती.
हंस, अप्रैल, 2008 से साभार