आँख से हटती पट्टी

विजय प्रताप

कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी डी दिनकरण पर आय से अधिक संपत्ति रखने के आरोप ने न्यायापालिका पर एक बार फिर प्रष्नचिन्ह लगा दिया है। इससे पहले गाजियाबाद भविष्य निधि घोटाला मामले में उच्च न्यायालय के दस जजों सहित 32 जजों पर 23 करोड़ रूपए डकार जाने के आरोप लगे थे। हालांकि अभी तक सभी आरोपों पर अंतिम निर्णय आने बाकी हैं, लेकिन इन घोटालों ने आम जनता की नजरों में न्यायापालिका की छवि जरूर धूमिल की है।
भारत में जहां अभी तक लोग न्यायाधीशों को भगवान की तरह मानते थे, पिछले दो दशक में कई ऐसी घटनाओं ने इस अस्था को तोड़ा है। आजादी के बाद देश में जब लोकतंत्र और सहायक संस्थाओं का पुनर्गठन किया जा रहा था, उस समय किसी ने भी नहीं सोचा था कि न्याय करने वाला भी भ्रष्ट हो सकता है। इसीलिए संविधान में कार्यपालिका और विधायिका से जुड़े लोगों से संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने को कहा गया लेकिन न्यायापालिका को इससे अलग रखा गया। तब से अब तक के सफर में न्यायालयों के निर्णय तो कई बार बदले , एक ही नियम की अलग-अलग तरह से व्याख्या कर निर्णय सुनाए गए लेकिन इसमें कहीं भी यह आरोप नहीं लगा कि पिछला निर्णय किसी के दबाव में लिया गया था। यह सिलसिला नब्बे के दशक में तब टूटा जब पहली बार उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश पर महाभियोग लाने जैसी स्थिति बन गई। जस्टिस वी रामास्वामी जिन पर 1993 में लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया उन पर आरोप था कि उन्होंने पंजाब व हरियाणा में मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते हुए सरकार निधि का दुरूपयोग किया। कांग्रेस से उनकी नजदीकियों व दक्षिण भारतीय सांसदों के विरोध के चलते महाभियोग का प्रस्ताव पास नहीं हो सका, लेकिन बाद में रामास्वामी को इस्तीफा देना पड़ा। यह पहली घटना थी जिसने न्यायापालिका की शान पर बट्टा लगाया था। उसके बाद से न्यायापालिका पर ऐसे कई आरोप लग चुके हैं। यहां तक की पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस पी भरूच को यह स्वीकार करना पड़ा कि उच्चतम व उच्च न्यायालयों में 20 प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं। अब सवाल यह उठता है कि 20 प्रतिशत भ्रष्ट हैं तो क्या 80 प्रतिशत सौ फिसदी खरे हैं। अगर यह हाल उच्चतम व उच्च न्यायालयों का है तो निचली अदालतों का क्या हाल है। न्यायापालिका के गठन के समय उसे दूध का दूध व पानी का पानी करने वाली ईमानदार संस्था मानकर उसे जांच के दायरे से बाहर रखा गया था। न्यायापालिका पर लगातार उठते सवालों के बीच अब लोगों ने यह मांग करनी शुरू कर दी है कि जजों को भी संपत्ति घोषणा के दायरे में लाया जाए। न्यायाविद्ों की माने तो एक न्यायाधीश तभी तक न्यायाधीश होता है जब वह किसी दूसरे के मामले का फैसला कर रहा होता है। अपने मामले में किसी भी जज को फैसला करने का अधिकार नहीं है। जजों को दिया जाने वाला वेतन भी जनता के टैक्स से आता है, ऐसे में जनता को भी पूरा अधिकार है कि वह जान सके कि किस जज ने दूध से मलाई उड़ाई है।
जनता के इसी दबाव व न्यायापालिका की छवि को उज्ज्वल बनाए रखने के लिए सरकार को भी मजबूरन न्यायाधीश संपत्ति घोषणा व उत्तराधिकार अधिनियम 2009 लाना पड़ा। इस अधिनियम में भी सरकार पर अधिकार सम्पन्न जजों का दबाव साफ देखा जा सकता है। अधिनियम के उपनियम-6 में जजों को अपनी संपत्ति की जानकारी सरकार को देने का प्रावधान है। इसे सूचना अधिकार के दायरे से भी बाहर रखा गया है। मतलब साफ है कि सरकार की मंषा साफ नहीं है। यह स्थिति भी तब है जब जजों पर भ्रश्टाचार के आरोपों की सूची लगातार लंबी होती जा रही है। एक तरफ सरकार की यह स्थिति है तो दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने खुद पहल करते हुए जजों की संपत्ति की घोषणा जैसा प्रंशसनीय कदम उठाया है। जरूरत है कि देश के बाकी न्यायालय भी जनता का विश्वास जितने के लिए ऐसे कदम उठाए।

नवरात्र.....नख दंत विहीन नायिका का स्वागत है !

गीताश्री

शक्ति की पूजा-आराधना का वक्त आ गया है। साल में दस दिन बड़े बड़े मठाधीशों के सिर झुकते हैं..शक्ति के आगे। या देवि सर्वभूतेषु....नमस्तस्ये..नमो नम...। देवी के सारे रुप याद आ जाते हैं। दस दिन बाद की आराधना के बाद देवी को पानी में बहाकर साल भर के लिए मुक्ति पा लेने का चलन है यहां। फिर कौन देवी...कौन देवी रुपा.
ये खामोश देवी तभी तक पूजनीय हैं, जब तक वे खामोश हैं...जैसे ही वे साकार रुप लेंगी, उनका ये रुप हजम नही होगा..कमसेकम अपनी पूजापाठ तो वे भूल जाएं।
आपने कभी गौर किया है कि शक्ति की उत्पति शक्तिशाली पुरुष देवों के सौजन्य से हुई है। इसमें किसी स्त्री देवी का तेज शामिल नहीं है। शंकर के तेज से देवी का मुख प्रकट हुआ, यमराज के तेज से मस्तक के केश, विष्णु तेज से भुजाएं, चंद्रमा के तेज से स्तन, इंद्र के तेज से कमर, वरुण के तेज से जंघा, पृथ्वी(यहां अपवाद है) के तेज से नितंब, ब्रह्मा के तेज से चरण, सूर्य के तेज से दोनों पैरों की उंगलियां, प्रजापति के तेज से सारे दांत, अग्नि के तेज से दोनों नेत्र, संध्या के तेज से भौंहें, वायु के तेज से कान तथा अन्य देवताओं के तेज से देवी के भिन्न भिन्न् अंग बनें....।
कहने को इनमें तीन स्त्रीरुप हैं..अगर उनके पर्यायवाची शब्द इस्तेमाल करें तो वे पुरुषवाची हो जाएंगे। इसलिए ये भी देवों के खाते में...। ये पुरुषों द्वारा गढी हुई स्त्री का रुप है, जिसे पूजते हैं, जिससे अपनी रक्षा करवाते हैं, और काम निकलते ही इस शक्ति को विदा कर देते हैं। इन दिनों सारा माहौल इसी शक्ति की भक्ति के रंग में रंगा है...जब तक मू्र्ति है, खामोश है, समाज के फैसलों में हस्तक्षेप नहीं करती तब तक पूजनीया है। बोलती हुई, प्रतिवाद करती हुई, जूझती, लड़ती-भिड़ती मूर्तियां कहां भाएंगी।
हमारी जीवित देवियों के साथ क्या हो रहा है। जब तक वे चुप हैं, भली हैं, सल्लज है, देवीरुपा है, अनुकरणीय हैं, सिर उठाते ही कुलटा हैं, पतिता हैं, ढीठ हैं, व्याभिचारिणी हैं, जिनका त्याग कर देना चाहिए। मनुस्मृति उठा कर देख लें, इस बात की पुष्टि हो जाएगी।
किसी लड़की की झुकी हुई आंखें...कितनी भली लगती हैं आदमजात को, क्या बताए कशीदे पढे जाते हैं। शरमो हया का ठेका लड़कियों के जिम्मे...।
शर्म में डूब डूब जाने वाली लड़कियां सबको भली क्यों लगती है। शांत लड़कियां क्यों सुविधाजनक लगती है। चंचल लड़कियां क्यों भयभीत करती हैं। गाय सरीखी चुप्पा औरतों पर क्यों प्रेम क्यों उमड़ता है। क्योंकि उसे खूंटे की आदत हो जाती है, खिलाफ नहीं बोलती, जिससे वह बांध दी जाती है। जिनमें खूंटा-व्यवस्था को ललकारने की हिम्मत होती है वे भली नहीं रह जाती। प्रेमचंद अपनी कहानी नैराश्यलीला की शैलकुमारी से कहलवाते हैं..तो मुझे कुछ मालूम भी तो हो कि संसार मुझसे क्या चाहता है। मुझमें जीव है, चेतना है, जड़ क्योंकर बन जाऊं...।
आगे चलकर से.रा.यात्री की कहानी छिपी ईंट का दर्द की नायिका घुटने टेकने लगती है--हम औरतों का क्या है। क्या हम और क्या हमारी कला। हमलोग तो नींव की ईंट हैं, जिनके जमीन में छिपे रहने पर ही कुशल है। अगर इन्हें भी बाहर झांकने की स्पर्धा हो जाए तो सारी इमारत भरभरा कर भहरा कर गिर पड़े।...हमारा जमींदोज रहना ही बेहतर है .....।
लेकिन कब तक। कभी तो बोल फूटेंगे। बोलने के खतरे उठाने ही होंगे। बोल के लब आजाद हैं तेरे...। कभी तो पूजा और देवी के भ्रम से बाहर आना पड़ेगा। अपनी आजादी के लिए शक्ति बटोरना-जुटाना जरुरी है।
ताकतवर स्त्री पुरुषों को बहुत डराती है।
जिस तरह इजाडोरा डंकन के जीवन के दो लक्ष्य रहे है, प्रेम और कला। यहां एक और लक्ष्य जो़ड़ना चाहूंगी...वो है इन्हें पाने की आजादी। यहां आजादी के बड़े व्यापक अर्थ हैं। पश्चिम में आजादी है इसलिए तीसरा लक्ष्य भारतीय संदर्भ में जोड़ा गया है। एक स्त्री को इतनी आजादी होनी चाहिए कि वह अपने प्रेम और अपने करियर को पाने की आजादी भोग सके। यह आजादी बिना शक्तिवान हुए नहीं पाई जा सकती। उधार की दी हुई शक्ति से कब तक काम चलेगा। शक्ति देंगें, अपने हिसाब से, इस्तेमाल करेंगे अपने लिए..आपको पता भी नहीं चलेगा कि कब झर गईं आपकी चाहतें। ज्यादा चूं-चपड़ की तो दुर्गा की तरह विदाई संभव है। सो वक्त है अपनी शक्ति से उठ खड़ा होने का। पीछलग्गू बनने के दिन गए..अपनी आंखें..अपनी सोच..अपना मन..अपनी बाजूएं...जिनमें दुनिया को बदल देने का माद्दा भरा हुआ है।
इस बहस का खात्मा कुछ यूं हो सकता हैं।
सार्त्र से इंटरव्यू करते हुए एलिस कहती है कि स्त्री-पुरुष के शक्ति के समीकरण बहुत जटिल और सूक्ष्म होते हैं, और मर्दो की मौजूदगी में औरत बहुत आसानी से उनसे मुक्त नहीं हो सकती। जबाव में सार्त्र इसे स्वीकारते हुए कहते हैं, मैं इन चीजों की भर्त्सना और निंदा करने के अलावा और कर भी क्या सकता हूं।

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फिल्में आन्दोलन भी होती हैं !

- जसम का तीन दिवसीय लखनऊ फिल्म फेस्टिवल

फिल्में केवल मनोरंजन का साधन नहीं होती वे आन्दोलन भी होती है, राजनीत भी होती है. कुछ ऐसी ही फिल्मे पिछले दिनों जन सांस्कृतिक मंच की ओर से आयोजित लखनऊ फिल्म फेस्टिवल में देखने को मिलीं. इस तीन दिवसीय फिल्म फेस्टिवल को नाम दिया गया था "प्रतिरोध का सिनेमा".शालिनी वाजपेयी एक रपट.




फिल्में तो सभी ने देखी हैं, लेकिन फिल्में आंदोलन का एक माध्यम हैं, यह पिछले दिनों जन संस्कृति मंच की ओर से लखनऊ में आयोजित तीन दिवसीय फिल्म महोत्सव से बखूबी पता चला। हबीब तनवीर, तपन सिन्हा और इकबाल बानो पर केंद्रित यह फिल्म महोत्सव कुछ अलग तरह की फिल्में लोगों के सामने प्रस्तुत करता है।
जन संस्कृति मंच प्रतिरोध की संस्कृति का पक्षधर है... सा प्रदायिक, फासीवाद, साम्राज्यवाद, अंधराष्ट्रवाद और बाह्मणवादी पितृसत्तात्मक सामंती सोच का विरोध करता है। दमन व अन्याय के खिलाफ जनता के सभी न्यायपूर्ण संघर्ष का समर्थन करता है। यह जसम के संयोजक कौशल किशोर का कहना है। यह कहते हैं कि प्रतिरोध की संस्कृति जितनी बहुरंगी, बहुआयामी, बहुलतावादी होगी उतनी ही उसमें विविधता, सुंदरता व समरसता होगी। इसके लिए कलात्मक सृजन व विचार शाखाओं ही होड़ की राह पर चलना जरूरी है। यही इस फिल्मोत्सव में भी दिखा। दमन प्रतिरोध और सिनेमा को सही रूप में परिभाषित करने वाला जन संस्कृति मंच इस बात को सिद्ध करता है कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करती हैं बल्कि वह प्रतिरोध भी दर्ज कराती हैं व्यवस्था के खिलाफ।इस संदर्भ में जसम के संयोजक कौशल किशोर कहते हैं- प्रतिरोध की संस्कृति जितनी बहुरंगी, बहुआयामी, बहुलतावादी होगी, उतनी ही उसमें विविधता, सुंदरता व समरसता होगी। इसके लिए कलात्मक सृजन व विचार शाखाओं को होड़ की राह पर चलना जरूरी है। यही इस फिल्मोत्सव में भी दिखा। दमन प्रतिरोध और सिनेमा की थीम पर आधारित महोत्सव ने इस बात को सिद्ध किया कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करतीं, बल्कि प्रतिरोध भी दर्ज कराती हैं।

फिल्मोत्सव-2009 का उद्घाटन प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक आनंद पटवर्धन ने किया। आनंद के पूरे व्यक्तित्व से ही झलकता है कि उनके अंदर प्रतिरोध की कितनी क्षमता है। वे अपने संघर्षों को भी सभी के साथ साझा करते हैं। कार्यक्रम के मु य वक्ता वरिष्ठ कवि और फिल्म समीक्षक विष्णु खरे हर घर में फिल्म बनने की बात करते हैं। उनका मानना है कि फिल्म बनाना कुछ खास पूंजीपति किस्म के लोगों तक ही सीमित न रहे, बल्कि एक सामान्य व्यçक्त की भी फिल्म बनाने के साधनों तक पहुंच होनी चाहिए, ताकि आम आदमी की बात भी सभी तक पहुंच सके। दमन प्रतिरोध और सिनेमा स्मारिका और चित्त प्रसाद के चित्रों का लोकार्पण भी किया गया।
फिल्म महोत्सव की शुरुआत पटना की सांस्कृतिक संस्था हिरावल के गायन से हुई। हिरावल की टीम ने मुक्तबोध की "अंधेरे मेंं" कविता के कुछ अंशों की सांगीतिक प्रस्तुति की। इसके बाद दूसरा गीत फैज अहमद फैज की नज्म "हम देखेंगें" को प्रस्तुत किया गया।
फिल्मों की शुरुआत केपी शशि निर्देशित पांच मिनट की छोटी-सी फिल्म "गांव छोड़ब नाहींं" पलायनवादी विकास की कहानी कहती हैं। पूरी फिल्म गांव छोड़ब नाहीं, जंगल छोड़ब नाहींं गीत से ही जंगल-जमीन की जंग को बयां करती है।
फिर "जंग और अमनं" फिल्म की बारी आई। इस फिल्म का परिचय जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अजय कुमार ने दिया। अजय कुमार ने कहा कि डाक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए मशहूर आनंद पटवर्धन न सिर्फ एक विशिष्ट फिल्मकार हैं बल्कि सिद्धांतकार भी हैं। पटवर्धन ने ही मु बइया सिनेमा के सामने गोरिल्ला सिनमा जैसा कॉन्सेप्ट रखा। जंग और अमन फिल्म को भारतीय उपमहाद्वीप में परमाणु परीक्षणों के बाद के तीन वर्षों को भारत, पाकिस्तान, जापान और अमेरिका में फिल्माया गया है। फिल्म परमाणु शस्त्रों की होड़ को बहुत ही बारीकी से दिखाती है। फिल्म अन्यायपूर्ण अपमान, विकास, सैन्यवाद और नाभिकीय राष्ट्रवाद के खिलाफ है। इस फिल्म में सैन्य और हथियारों की होड़ को लेकर इन सब देशों में आम आदमी और नेताओं की प्रतिक्रिया को रेखांकित करती है। फिल्म की शुरुआत 1948 में महात्मा गांधी की हत्या से होती है। फिल्म हिरोशिमा क्षेत्र के लोगों की प्रतिक्रिया दिखाती है, जहां अमेरिका ने अगस्त 194भ् में अणु बम गिराया था। वहां के लोग अभी भी उसी दशहत में जी रहे हैं और अपनों के मारे जाने के सदमे को भूल नहीं पा रहे हैं। फिल्म दिखाती है कि किस तरह भारत और पाकिस्तान में बचपन से ही बच्चों में सैन्य शस्त्रों के विकास के प्रति गर्व और दुश्मन के प्रति आग भरी जाती है। किस तरह सरहद पार एक स्कूल की छोटी-सी बच्ची अपने भाषण में पाकिस्तान द्वारा भारत के जवाबी प्रतिक्रिया के रूप में परमाणु परीक्षण के प्रति गर्व महसूस करती है। उसके मन में कितनी घृणा है अपने पड़ोसी देश भारत के प्रति। जब उस बच्ची को बताया जाता है कि इन परीक्षणों और जंग से नतीजे क्या निकलेंगे, तब वह अपने विचारों के प्रति माफी मांगती है। राजस्थान से कुछ किलोमीटर की दूरी पर पोखरन में जहां परीक्षण किया जाता है, वहां पर प्रदूषित हो रहे वातावरण से स्थानीय लोगों को कैंसर जैसा रोग अपनी चपेट में ले रहा है। रेडियोऐक्टिव कचरे से स्थानीय लोगों में फैलने वाले रोगों को दिखाया जाता है। फिल्म दिखाती है कि भारतीय शिष्टमंडल के प्रतिनिधि जो शांति प्रयासों के लिए पैदल यात्रा करते हैं, पाकिस्तान के लोगों का भरपूर सहयोग मिलता है। फिल्म अमेरिका के भी कमोZ को दिखा देती है कि कैसे उग्र राष्ट्रवाद को बताते-बताते अमेरिका हमारा रोल मॉडल बन गया है। फिल्म का अंत गांधी की अहिंसावादी नीति को अपनाने के रूप में होता है।
दूसरे दिन के फिल्म महोत्सव की शुरुआत हिरावल की टीम द्वारा वीरेन डंगवाल की कविता "ये कैसा समाज रच डाला हमनें" के गायन से हुई। इसके बाद विक्टोरिया डी सिका निर्देशित फिल्म "बायसिकल थीफं" दिखाई गई, जिसका परिचय देते हुए विष्णु खरे ने कहा कि इस फिल्म को मैंने न जाने कितनी बार देखा है, लेकिन जब भी देखता हूं कुछ नया मिलता है। यह फिल्म द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के रोम की कहानी कहती है। फिल्म गरीबों के दर्द को बयां करती है। इसका अभिनेता एंतोनियो को नौकरी मिल रही होती है, लेकिन शर्त है- साइकिल। एंतोनियो यदि साइकिल का इंतजाम करे तभी उसे यह नौकरी मिलेगी, लेकिन साइकिल तो उसने गिरवी रखी है। नौकरियां आसानी से मिल नहीं रही हैं। तब उसकी पत्नी घर की चादरों को गिरवी रखकर साइकिल छुड़ाती है लेकिन दुभाüग्यवश नौकरी के पहले ही दिन एंतोनियो की साइकिल चोरी हो जाती है। वह उसे वापस पाने की आशा में अपने छोटे-से बेटे के साथ दिनभर शहर छानता है। लेकिन साइकिल मिलने की उसकी आशा अधूरी ही रह जाती है।
सिनेमा की दुनिया में यह कालजयी फिल्म है। इस फिल्म ने दुनियाभर के सिनेमा निर्देशकों को बहुत प्रभावित किया है। महान फिल्मकार सत्यजीत राय को भी इसी से फिल्में बनाने की प्रेरणा मिली थी।
इसके बाद ब्लड एंड ऑयल फिल्म दिखाई गई। निर्देशक माइकल टी क्लेरे हैं। यह फिल्म अमेरिका की ऑयल पॉलिसी पर बनी है। फिल्म दिखाती है 60 वर्षों से अधिक समय से अमेरिकी विदेश नीति के केंद्र में तेल ही रहा है। इस फिल्म में उसके उस समझौते को भी दिखाया गया है, जो तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूजवेल्ट और सऊदी अरब के शासक अब्दुल अजीज इब्न सौदा के बीच 194भ् में हुआ था। इस समझौते के तहत सऊदी अरब में विस्तृत तेल भंडारों तक अबाधित अमेरिकी पहुंच के बदले अमेरिका सऊदी अरब को सैनिक संरक्षण प्रदान करता है।
दोपहर के सत्र में लघु फिल्म पी (शिट)-निर्देशक अ युधन पी दिखाई गई। फिल्म मैला ढोने वाली महिला पर बनाई गई है। फिर गीतांजलि राव और राजेश चक्रवतीü द्वरा निर्देशित "प्रिंटेट रेनबों" दिखाई गई। यह एनीमेशन फिल्म है, जो बड़े शहर में एक छोटे-से घर में रहने वाली एक अकेली बूढ़ी औरत की कहानी को रेखांकित करती है। फिर फिल्म क्वजैसा बोओगे वैसा काटोगें दिखाई गई। फिल्म का निर्देशन अजय भारद्वाज ने किया है। इसी तरह क्वरिमे बरिंग इमरजेंसीं फिल्म इमरजेंसी की याद दिलाती है। यह फिल्म संजय प्रताप व अश्विनी फालनिकर ने बनाई है।
शाम के सत्र में पाकिस्तान में शास्त्रीय संगीत पर बनी यूसुफ सईद की फिल्म ख् याल दर्पणं दिखाई गई। शास्त्रीय संगीत की गुनगुनाहट कानों में डालती है। ये फिल्म सरहद पार की शास्त्रीय ध्वनियों को अपने कैमरे में कैद करती है। पहले हिंदुस्तान में शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता बिना किसी सा प्रदायिक भावना के मिलकर संगीत को आवाज देते थे। उसी का परिणाम था कि अलाउद्दीन खां मुसलमान होते हुए भी सरस्वती के बड़े उपासक थे और उनकी बेटियों के नाम भी हिंदू देवी-देवताओं पर थे। छोटी बेटी अन्नपूणाü थी जिसका विवाह रवि शंकर के साथ हुआ था। विभाजन के सा प्रदायिक शोर में बहुत से संगीतज्ञ पाकिस्तान चले गए और वहां पर भी उन्हें गैर मुस्लिम मानकर न तो उन्हें और न ही उनके संगीत को वह इज्जत मिली, जो मिलनी चाहिए थी। फिल्म उस समय के मुहाजिर कलाकारों की गजलों, कव्वाली, शास्त्रीय संगीत की तब से लेकर अब तक सारी ध्वनियों को कैमरे में कैद करती है। यह फिल्म दिखाती है कि पाकिस्तान को कम से कम सांस्कृतिक स्तर पर तो हिंदुस्तान से अलग नहीं ही किया जा सकता है।
इसके बाद आनंद पटवर्धन की "राम के नामं" फिल्म दिखाई गई। यह फिल्म आनंद ने मçस्जद के ढहने से पहले 1991 में पूरी की। सा प्रदायिकता किस तरह भारत में सत्ता हासिल करने का माध्यम है, इसे यह बखूबी बयां करती है। 16वीं शताब्दी में बनी हुई बाबरी मçस्जद को बताया जाता है कि यह राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई है, इसलिए अब बाबरी मçस्जद को तोड़कर ही राम का मंदिर बनना चाहिए। फिल्म राम के नाम को हर तरफ जाचंती है फिर विश्व हिंदू परिषद के राम को भी दिखाती है। आनंद उस सा प्रदायिकता के सच को उजागर काते हैं, जो सत्ता हासिल करने के लिए राम के नाम का प्रयोग करती हुई लाशों का ढेर लगाती है। फिल्म धार्मिक असहिष्णुता के खिलाफ मानवता को सामने रखती है। इसी के बाद हुए सा प्रदायिक दंगों में भ्000 से ज्यादा लोग धर्म की बलिबेदी पर चढ़ जाते हैं। फिल्म में एक तरफ आम आदमी से लेकर विहिप, बजरंग दल, भाजपा सहित सभी नेताओं और पुजारियों के वक्तव्य हैं, दूसरी तरफ मुस्लिम धर्म के लोगों की भी प्रतिक्रिया ली गई है। यह डेढ़ घंटे की फिल्म दर्शकों को बहुत ही आकर्षित करती है। यह आनंद पटवर्धन की अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। प्रसिद्ध फिल्मकार गिरीश कासवल्ली भी इसे एक श्रेष्ठ डाक्यूमेंट्री फिल्म मानते हैं।
तीसरे दिन की शुरुआत बच्चों के सत्र से हुई। सबसे पहले छोटी सी बच्चीरुनझुन बच्चों को एक गीत सुनाया। फिर फिल्में दिखाई गईं। इस दिन छोटे-छोटे बच्चों से भरा हाल यह बता रहा था कि बच्चे भी फिल्म जैसी विधा की कला का आनंद लेने में बड़ों से पीछे नहीं हैं बल्कि उनसे दो कदम आगे ही खड़े हैं। बच्चों के धैर्य को और न बढ़ाते हुए जल्द ही राजेश चक्रवतीü निर्देशित क्वहिप-हिप हुरेüं दिखाई गई। यह एनीमेशन फिल्म है। जावेद अ तर के लिखे गाने, सुनिधि चौहान और कविता कृष्णमूर्ति की सुरीली आवाज के चलते इस फिल्म से बच्चे ऐसे आकर्षित होते हैं जैसे रंग-बिरंगे फूलों को देखकर भौरे।
इसके बाद "हाथी का अंडां" फिल्म बच्चों की उत्सुक आंखों को एक और तसल्ली देती है। यह फिल्म अरुण खोपकर की है। 75 मिनट की यह फिल्म बच्चों को हिलने का मौका भी नहीं देती है। फिल्म में है कि बाबा और किंटो के बीच बड़ी ही अच्छी दोस्ती है। बाबा किंटो को पुस्तकालय की एक किताब "अलिफ लैलां" के बारे में बताते हैं। यह बाबा की पसंदीदा किताब होती है। बाबा किंटो को उसके रंगीन कवर के साथ अंदर की कहानी में बताते हैं कि यह कहानी कभी खत्म नहीं होती है। इसके बाद किंटो अपने दादा जी के घर जाता है। इžोफाक से उसे वहां पर एक फटी-पुरानी वही अलिफ लैलां किताब मिल जाती है। जब वह उसे पढ़ता है तो वही सब मिलता है जो उसे बाबा ने बताया था। अब किंटो सोचता है कि यह किताब यदि बाबा को दे दी जाए तो बाबा कितने खुश हो जाएंगे। बाबा ने किंटो को एक हाथी की कहानी भी सुनाई होती है। इसमें है कि एक हाथी अंडा देना चाहता है लेकिन वह लाख कोशिशों के बावजूद अंडा देने में कामयाब नहीं हो पाता है।
दोपहर के सत्र में राहुल ढोलकिया की फिल्म "परजानियां" दिखाई गई। यह फिल्म गुजरात में हुए गोधरा दंगों को बहुत ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है। अमेरिका का एलेन गांधी पर थीसेस लिखने के लिए भारत आता है। सायरस (नसीरुद्दीन शाह) से उसकी अच्छी मित्रता होती है। सायरस, उसकी पत्नी शेरनाज (सारिका), बेटा परजान (परजान दस्तर), बेटी दिलशाद (पलü बस्सील) पारसी धर्म के हैं। इनका जीवन खुशी से कट ही रहा था कि इसी बीच गोधरा की घटना हो जाती है। इसमें भ्8 हिंदू तीर्थ यात्रियों को मुस्लिमों द्वारा जिंदा जला दिए जाने की बात होती है। इसकी प्रतिक्रिया में सा प्रदायिक दंगे फैल जाते हैं, जिसमें सैकड़ों मुस्लिम बच्चों सहित गर्भवती महिलाओं तक को मार डाला जाता है। इन्हीं दंगों में सायरस का बेटा परजान कहीं खो जाता है। पूरा परिवार पागलों की तरह बेटे को सब जगह ढूंढ़ता है। इनका घर जल जाने के बाद एलेन इन्हें रहने के लिए अपना घर देता है। इन दंगा पीçड़तों की कहीं कोई सुनवाई होती है। फिर यह मानवाधिकार आयोग पहुंचते हैं, जो इनसे पुलिस द्वारा दंगाइयों से नहीं बचाए जाने की पूछताछ करता है। फिल्म इतने यथार्थपूर्ण चित्रों को दिखाती है कि दंगे के विभत्स दृश्यों को देखकर लोगों की आंखों में आंसू आ जाते हैं। उसमें भी बच्चों की दुर्दशा रोने पर मजबूर कर देती है। फिल्म देखने वाले लोग इतने उतावले थे कि वे जसम के राजेश कटियार द्वारा दिया जा रहा फिल्म का परिचय भी सुनने को तैयार नहीं थे।
वरिष्ठ कवि विष्णु खरे इस फिल्म के घोर प्रशंसक हैं। यह इस फिल्म में नसीरुद्दीन शाह के अभिनय की तारीफ करते नहीं थकते हैं।
इस फिल्म की तारीफ लोग कर ही रहे थे कि तभी सबा दीवान निर्देशित क्वद अदर सांगं शुरू हुई। यह वाराणसी, लखनऊ और मुज फरपुर (बिहार) सभी जगहों पर तवायफों के अतीत और वर्तमान को तलाशती है। यह फिल्म रसूलन बाई के उस ठुमरी की खोज पर बनी है, जिसे 193भ् में ग्रामोफोन में रिकॉर्ड किया गया था। इस ठुमरी के बोल थे- "लगत जोबनवां में चोट फूल गेंदा ना मार।ं" ऐसी ही उनकी एक और ठुमरी है "लगत करेजवा मा चोट फूल गेंदवा ना मार।ं 193भ् में यह ठुमरी पता नहीं कहां खो गई। अब इस ठुमरी की एक लाइन के आगे किसी को कुछ भी स्मरण नहीं। सबा दीवान इस ठुमरी को खोजती हुई सभी जगहों पर जाती हैं और तवायफों से संवाद करती हैं। यह तवायफों के अतीत और वर्तमान दोनों को रेखांकित करती हैं। यह फिल्म तवायफों के मर्म को बहुत ही गहरे से दिखाती है।
शाम के सत्र में कालाहांडी (उड़ीसा) में भूख से हुई मौतों पर नियामागिरि बचाओ आंदोलन पर बनी छोटी-छोटी छह फिल्मों को दिखाया गया। इसमें पहली फिल्म "नियामराजा का शोकगीतं" (डोंगरिया कोंध का गीत) है। यह फिल्म आदिवासी जाति डोंगरिया कोंध के लोगों के बड़े गांवों में खामबेसी गांव का एक लोक गायक प्रास्का है। ड बू प्रास्का अपने गीतों से लोगों के दुख-दर्द पर मरहम लगाता है। इस गीत में नियामागिरि पहाड़ को नियामराजा स बोधित किया जाता है। गीत में है कि नियामराजा की आत्मा जंगलों और पहाड़ों में बसती है। जिसे अब राज्य सरकार ने छीन लिया है और एक एल्युमिनियम की फैक्ट्री वेदांत को बेच दिया है।
दूसरी फिल्म कलिंग नगर में पर्यावरण प्रदूषणं पर है, जिसका निर्देशन नीला माधव नायक ने किया है। उड़ीसा के कलिंग नगर औद्योगिक क्षेत्र का विरोध कर रहे महिलाओं, बच्चों सहित चौदह लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाता है। यह लोग अपनी खेती की जमीन पर उद्योग लगाने का विरोध कर रहे थे। सरकार ने इसे लगाने से पहले तर्क दिया था कि इससे आदिवासियों का जीवन स्तर सुधरेगा लेकिन जीवन सुधरने के बजाय और बद्तर हो गया है। फिल्म इसी सच्चाई को दिखाती है।
तीसरी सूर्य शंकर दास निर्देशित फिल्म "मनुष्य का अजायबघरं" है। इसमें दिखाया गया है कि सरकार ने आदिवासियों के सारे संसाधनों पर कब्जा करके उन्हें अजायबघर में रख दिया गया है। दर्शक आते हैं और इन आदिवासियों को देखते हैं। फिल्म दिखाती है सबकुछ छीन लेने के बाद अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे आदिवासियों को सरकार दुनिया के सामने कैसे पेश करती है।
चौथी सूर्य शंकर दास द्वारा ही निर्देशित फिल्म "शहीदं" है। इसमें दिखाया गया है कि राष्ट्रीय, बहुराष्ट्रीय, अंतरराज्यीय क पनियों द्वारा अपने जल-जंगल-जमीन के छीने जाने पर आदिवासी किस तरह संघर्ष करते हैं और मारे जाते हैं। यह फिल्म उन्हीं शहीदों को श्रद्धांजलि देती है।
पांचवीं फिल्म विकास के नाम पर मारे गएं हैं। स्टील, एल्युमिनियम और लोहे की बड़ी क पनियों जैसे टाटा, जिंदल आदि ने भुवनेश्वर जैसी राजधानी की दीवारों पर चित्र बनवाए हैं। इसे इन्होंने सौरा जनजाति की पवित्र लोक कला- इडिटल के माध्यम से जनजातियों के तथाकथित जीवन को चित्रित कराने का दावा किया है। फिल्म यह दिखाती है कि किस तरह यह क पनियां आदिवासियों के वास्तविक जीवन को सामने न आने देने प्रयत्न करती हैं। यह एक मिनट की फिल्म है लेकिन बहुत कुछ बता देती है।
छठी फिल्म है "नोलिया साहीं"। इस फिल्म का निर्देशन मानस मुदुली और संजय राय ने किया है। नोलिया साही एक गांव है जिसे पोस्को स्टील प्रोजेेक्ट द्वारा तहस-नहस किया जाने वाला है। इस फिल्म के बनने का भी आदिवासी विरोध कर रहे थे। उन्हें लग रहा था कि फिल्मकार उनका विरोधी है। यह भी दस मिनट की फिल्म है। इन छोटी-छोटी 6 फिल्मों में सरकार की जनजातीय विरोधी नीतियों को दिखाया जाता है। ये 6 फिल्में उçड़या भाषा की हैं लेकिन अंग्रेजी में भी लिखकर आता है।
इस फिल्म महोत्सव का अंत हिरावल, पटना के गीतों से होता है। हिरावल, पटना की समता मजदूर द पति के जीवन संघर्ष पर गीत सुनाती हैं। इसके अंत में जसम के पत्रकार, लेखक अनिल सिन्हा सबको धन्यवाद देते हैं और कहते हैं कि जिस सिनेमा का कॉन्सेप्ट हम ला रहे हैं, वह प्रतिरोध की संस्कृति को जन्म देता है। अनिल सिन्हा यह भी कहते हैं कि जसम फिल्मोत्सव-2009 में यह कोशिश की गई है कि जसम के उद्देश्यों के आस-पास जो भी फिल्में दिखाई देती हैं और उन्हें हम हासिल कर पाए हैं उन्हें प्रस्तुत करें ताकि ब बई फिल्मों द्वारा समय व समाज की वास्तविकताओं से दूर जिस अपसंस्कृति व क्रूरता को समाज में फैलाने की कोशिश हो रही है उसके विरुद्ध सिनेमा खड़ा है। इस तथ्य को लोगों सामने लाया जा सके।

संघर्ष की रेखाएं और आकृतियां
प्रसिद्ध चित्रकार चित्त प्रसाद के नाम पर आयोजन स्थल का नाम चित्त प्रसाद परिर रखा गया है। चित्त प्रसाद बंगाल के अकाल के समय के प्रसिद्ध चित्रकार थे। चित्त प्रसाद सहित कुछ अन्य चित्रकारों की चित्रकारी पर प्रसिद्ध चित्रकार और लेखक अशोक भौमिक व्या यान देते हैं। भौमिक अपने व्या यान में बताते हैं कि बंगाल की कला के सामने भारतीय चित्रकार की कला कुछ भी नहीं है। भौमिक कहते हैं कि भारत के चित्रकारों की चित्रकारी सेकुलर नहीं है। भारतीय चित्रकारों की चित्रकारी में नारी के शरीर, उसके कपड़े, उसकी लज्जा विशेष रूप से थी। चित्रकारी में नारी केंद्र में थी। भौमिक अपने व्या यान की शुरुआत हेमेंदु मजूमदार (1894-1948) से करते हैं। इनकी कला का शिल्प विदेशों से आयातित है। यहां भी नारी प्रधानता ही चित्रों में दिखती है। इसके बाद रबींद्र नाथ टैगोर (1871-19भ्1) के चित्रों की विशेषताओं को बताते हुए कहते हैं कि इनका सबसे प्रसिद्ध भारत माता का चित्र है। इस चित्र में भारतमाता के सभी हाथों में अलग-अलग चीजें हैं। इसी से पता चलता है कि चित्रों में धर्म भी मु य एक विषय हुआ करता था। इसके बाद नंनलाल बोस (1893-1966), अमृता शेरगिल (1913-1941), बी प्रसाद (1933-2001) और जमीनी रॉय (1887-1972) यह कुछ प्रसिद्ध चित्रकार हुए हैं। जमीनी रॉय के चित्रों से ही पुनरावृçत्त का सिद्धांत जन्म लेता है। चूंकि इनके चित्र यूरोपियन चित्रों से भिन्न थे, इसलिए अंग्रेजों को बहुत पसंद आए। इसी कारण इन चित्रों की मुंह मांगी कीमत मिलती थी। इसी वजह से जमीनी रॉय ने अपने सारे चित्र एक ही प्रकार के बनाए। इनके किसी भी चित्र में बिल्कुल भिन्नता नहीं है। यह पहले ऐसे चित्रकार थे, जिसने चित्रकारी में व्यावसायीकण को जन्म दिया था। इसके बाद प्रोग्रेसिव आटिüस्ट ग्रुप बना। इसके बाद सूजा, सोमनाथ होर (1921-2006), जैनुल आबेदीन (1914-1976) और चित्त प्रसाद (191भ्-1978) ये सब चित्रकार प्रोग्रसिव आटिüस्ट ग्रुप बनने के बाद चर्चा में आए। इसमें सोमनाथ होर की चित्रकारी काफी सराहनीय है। इन्होंने तेलंगाना, तेभागा इन सब आंदोलनों की बहुत ही अच्छी चित्रकारी की है। इनके अधिकतर चित्र किसानों पर हैं। यह किसान आंदोलन बहुत ही सुंदरता से रखांकित करते हैं। जैनुल आबेदीन का एक चित्र बाढ़ पर है। जिसमें एक बच्चा, दो आदमी और एक औरत है। इस चित्र में एक तरफ पानी-पानी और दूसरी तरफ एक आदमी है जो अपने घर को पीछे मुड़कर देख रहा है कि उसका आशियाना इस पानी में बह गया। उसकी भावनाओं से लगता है कि उसे अब प्रकृति से कोई उ मीद नहीं है। दूसरा आदमी है जो आसमान की तरफ देख रहा है। वह देखता है कि आसमान में काले-काले बादल हैं यह कब जाएंगे जब वह दोबारा यहां अपने आशियाने की तरफ लौटकर आएगा। तीसरा जो आदमी है वह सामने देखकर अपने पथ की ओर बढ़े जा रहा है। उसमें जो भावनाएं बनाई गई हैं उससे पता चलता है कि उसके अंदर अथाह विश्वास है कि यह पानी जल्द ही बंद होगा और वह वापस अपने घर आएगा। इन सबकी भावनाओं की रेखाएं ही इस चित्र की खासियत हैं। चित्त प्रसाद ने बंगाल के अकाल के समय पर अकाल के बहुत से चित्र बनाए हैं। इनके इन चित्रों से ही अकाल की विभत्सता को देखा जा सकता है। जसम फिल्मोत्सव के पोस्टर पर जो चित्र बना है, उसमें एक बूढ़ा आदमी है, जिसकी सारी हडि्डया दिख रही हैं, वह एक हाथ से पत्थर उठाए है और दूसरे में एक गहरा बर्तन गिलास या गहरा कटोरा कह सकते हैं पकड़े हुए है। इस चित्र को देखकर लगता है कि एक कोई भी भिखारी नहीं और न ही वह पैसे मांगने की प्लेट पकड़े हुए है। वह गहरा बर्तन हाथ में लिए हुए चावल के माड़ को मांग रहा है। उसके दूसरे हाथ में पत्थर विद्रोह की भावना को प्रदर्शित करता है।
>इनका एक और प्रसिद्ध चित्र है चाइल्ड लेबर पर। वैसे चाइल्ड लेबर पर इन्होंने बहुत से चित्र बनाए हैं। इसी में से एक चित्र है जिसमें दिखाया गया है कि एक होटल पर काम करने वाले छोटे से बच्चे के सामने ढेर सारे गंदे बर्तन पड़े हैं, देर रात का समय है, कुत्ता भौक रहा है, दिए की लौ टेढ़ी हो चुकी है। बच्चा बर्तन धुल रहा है, उसके आस-पास जमीन में खूब सारे तिलचट्टे घूम रहे हैं। इस छोटे से चित्र में काफी कुछ दिखाने का प्रयास चित्त प्रसाद ने किया है। इन्होंने फल-सब्जी बेचने वाली महिलाओं के भी बहुत से चित्र बनाए हैं लेकिन इनके चित्रों में महिलाओं के कामों के प्रति जो स मान है वह और कहीं नहीं मिलता है। चित्त प्रसाद ने सभी चित्र काली रेखाओं से बनाए हैं। यह रबर प्रिंट से ही अपने चित्रों को भाषा और खूबसूरती देते हैं। अशोक भौमिक का मानना है कि कविता और चित्रों में आपस में बहुत समानता है। चित्रकार चाहे कविता लिखे या नहीं लेकिन वह कवि Nदय होता है। भौमिक यह भी कहते हैं कि कोई पेंटिंग बहुत महंगी बिकती है तो उसका मतलब यह नहीं है कि इस पेंटिंग में अच्छी चित्रकारी है। यह मानते हैं कि कोई भी सरकारी संस्था या कला अकादमी चित्रकार नहीं बना सकती है, हां कुछ लोगों को नौकरी जरूर दे सकती है। इनका तो रोल बहुत ही हास्यास्पद है।

आरक्षण और सरकार

ऋषि कुमार सिंह

भारतीय संविधान सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए राज्य को विशेष उपाय करने की जिम्मेदारी सौपता है। लेकिन धूमिल होती राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के चलते इस विशेष उपाय यानी आरक्षण को सामाजिक-आर्थिक न्याय का एक मात्र साधन मान लिया गया है। जिसके चलते समय-समय पर महिलाओं,गरीब सवर्णों और गैर आरक्षित श्रेणी की जातियों को आरक्षण के दायरे में लाने की मांग उठती रहती हैं। यहीं पर आरक्षण-व्यवस्था को निष्प्रभावी बनाने की कोशिशें भी हो रही है। जिसमें अनुपयुक्त उम्मीदवारों के न उपलब्ध होने और प्रशासनिक खर्च में कटौती के नाम पर सरकारी ढांचे में खाली पदों को नहीं भरा जा रहा है। जब भर्ती की ही नहीं जायेगी तो आरक्षण की बात ही कहां से आयेगी। रही कामकाज चलाने की बात तो इसके लिए आउटसोर्सिंग का सहारा ले लिया जायेगा। गौरतलब है कि भारत सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय महत्वपूर्ण मंत्रालयों में शामिल किया जाता है। केवल इसी मंत्रालय में भारतीय सूचना सेवा के आरक्षित वर्ग के कुल 88 पद कई सालों से खाली पड़े हुए हैं। मंत्रालय के सभी रिक्त पदों में कुछ को सीधी भर्ती के जरिए तो कुछ पदोन्नति से भरे जाने हैं। मंत्रालय ने सूचना अधिकार के तहत दी गई सूचना में भारतीय सूचना सेवा के खाली पदों की भर्ती के लिए कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग जिम्मेदार बताया है। इस बावत कार्मिक विभाग से पत्राचार किये जाने का ब्यौरा भी दिया है। साथ ही यह भी सूचना उपलब्ध कराई गई है कि कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को इन रिक्तियों के बावत लगातार सूचित किया गया है। बावजूद इसके कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग आरक्षित श्रेणी के पदों को भरने के लिए कोई कदम नहीं उठा रहा है। जबकि मंत्रालय ने पदोन्नति से भरे वाले पदों के बारे में साफ तौर पर यह जानकारी दी है कि इसके लिए उपयुक्त उम्मीदवारों की कमी है। इस मंत्रालय तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के खाली पदों को मिला लेने पर आरक्षित श्रेणी के रिक्त पदों का आंकड़ा सैकड़ा पार कर जायेगा। अकेले फिल्म विभाग में आरक्षित वर्ग के 64 पद खाली हैं,जिसमें ‘ग’ और ‘घ’ श्रेणी के खाली पदों की संख्या 51 है। फिल्म प्रभाग इसके पीछे फिडर कैडर के लिए पात्र कर्मचारियों और अधिकारियों के न उपलब्ध होने की जानकारी दी है। साथ में यह भी बताया है कि मंत्रालय में सीधी भर्ती पर रोक होने के कारण ‘ग’ और ‘घ’ श्रेणी की भर्ती काफी समय से नहीं हुई है। जबकि पत्र सूचना कार्यालय(पीआईबी) ने डाटा एंट्री आपरेटर और सफाई कर्मचारियों के आउटसोर्सिंग की जानकारी दी है।
सूचना-आवेदन का जवाब देते हुए मंत्रालय और उसकी अनुषंगी इकाईयों ने बार-बार दोहराया कि हमारे यहां सीधी भर्ती पर रोक लगी हुई है। तथ्य है कि इसी को आधार बनाते हुए केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी ने भी डीएवीपी यानी दृश्य-श्रव्य प्रसारण विभाग को आउटसोर्सिंग करने की छूट दे दी। तर्क दिया गया कि डीएवीपी सरकार का मुख्य संचार माध्यम है और हाल के दिनों में इसकी जिम्मेदारियों में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। कार्मिकों की कमी के चलते आउटसोर्सिंग को विकल्प के रूप में चुना गया है। अब मंत्री महोदया यह पूछना लाजमी हो जाता है कि जो काम आउटसोर्सिंग के जरिए कराया जायेगा क्या वह काम नियमित कर्मचारियों की भर्ती करके नहीं कराया जा सकता था ? लेकिन बदलते राजनीतिक आदर्शों और उद्देश्यों के बीच गलत को जायज ठहराने की कोशिशें तेज हैं। निजी पूंजी से चलने वाली आउटसोर्सिंग एजेंसियां आरक्षण जैसी किसी भी संवैधानिक जिम्मेदारी से बाहर हैं। सरकारी कामकाज में आउटसोर्सिंग जैसे फैसले आरक्षण-व्यवस्था पर ही नहीं बल्कि राज्य के बेहतर नियोक्ता होने पर भी सवालिया निशान है। क्योंकि कम लागत पर काम पूरा करने के चक्कर में आउटसोर्सिंग एजेंसियां सीधे तौर पर कार्मिक हितों और श्रम मानकों का उल्लंघन करती हैं। सरकारी कामकाज में ऐसी एजेंसियों की भागीदारी के बाद सरकार का यह नैतिक आधार कमजोर पड़ने लगता है कि वह निजी क्षेत्र पर श्रम मानकों को मानने का दबाव डाले।
कुल मिलाकर निजी आउटसोर्सिंग एजेंसियों की भागीदारी से नुकसान तय है। ऐसे में सरकारी आउटसोर्सिंग एजेंसी बेसिल (ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कंसल्टेंट इंडिया लिमिटेड) के बारे में मिली जानकारियों से नाजुक हालात पता चलता है। बेसिल प्रमुख रूप से प्रसार-भारती और मंत्रालय की नवगठित इलेक्ट्रानिक मीडिया मॉनिटरिंग सेल के लिए कार्मिकों की आउटसोर्सिंग करता है। बेसिल कॉंन्ट्रेक्ट के आधार पर भर्तियां करता है। बेसिल सूचना और प्रसारण सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन सार्वजनिक क्षेत्र की आईएसओ 9001-2000 प्रमाणित कम्पनी है। जिसे हाल ही में मिनी रत्न का दर्जा दिया गया है। इसके बावजूद खुद को आरक्षण की जिम्मेदारियों से मुक्त समझती है। क्योंकि एक सूचना-आवेदन के लिखित जवाब में कहा कि इस तरह के डॉटा को तैयार नहीं करता है यानी आरक्षित वर्ग के कितने कार्मिकों की भर्ती की गई है,इसका ब्यौरा नहीं रखता है। जिसका सीधा मतलब निकलता है कि वह भर्ती के समय आरक्षण जैसी संवैधानिक व्यवस्था लागू ही नहीं करता है। नहीं तो कोई वजह नहीं बनती है कि वह इसको सिद्ध करने वाले दस्तावेजों को तैयार नहीं करे। ऐसे माहौल में किसी निजी कम्पनी से सामाजिक न्याय की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।
आउटसोर्सिंग के जरिए कल्याणकारी राज्य के साथ जो कुछ भी हो रहा है,उसे लोक प्रशासन में ‘रोल बैक थ्यौरी ऑफ द स्टेट’ नाम दिया गया है। इसे राजनीति विज्ञान के ‘कम-शासन,बेहतर शासन’ यानी स्वायत्त शासन का समर्थन करने सिद्धान्त की संकुचित व्याख्या के साथ भी जोड़ने के तर्क पेश किये जा रहे हैं। नव उदारवादी आर्थिक प्रक्रियाओं से सहमत सरकारें निजी क्षेत्र के पक्ष में अपने कार्य-व्यापार को समेटते हुए खुद को केवल मुआवजा बांटने की घोषणाओं में व्यस्त करने में लगी हुई हैं। ऐसी हालत में सरकारी स्तर पर आरक्षण-व्यवस्था को लागू करने से जुड़ी हकीकत और मंशा को समझने में कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। स्वतंत्र भारत की साठ साल से ऊपर की राजनीति में उपयुक्त उम्मीदवारों का न होना आरक्षण-व्यवस्था के साथ हुए अन्याय की कहानी है। इससे यह भी पता चलता है कि संवैधानिक जिम्मेदारियों को कितनी संजीदगी से निभाया गया है।

{सूचना एवं प्रसारण विभाग में लगाई गई आरटीआई के जवाब में दिये गये तथ्यों पर आधारित है।आंकडे दिये गये जवाब के आधार पर दुरस्त हैं-ऋषि कुमार सिंह}

कम्पनी बाग में देसी फूल

साथियों,

आज पत्रकारिता के निजीकरण विरोधी आंदोलन का पहला चरण समाप्त हुआ दूसरे चरण की शुरुआत होने के साथ ही आन्दोलन को तोड़ने वाले तत्व और अधिक सक्रिय हो गए हैं। साथियों ऐसे दौर में जब हमारे कुलपति एक तरफ गांधीवादी होने का ढिढोरा पीटते हैं तो दूसरी तरफ विश्वविद्यालय को दुकान में तब्दील करने में लगे लोगों की हर संभव मदद कर रहें हो तो ऐसे में हमारे वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव का अमर उजाला में अगस्त 2000 में छपा लेख ‘कंपनी बाग में देसी फूल’ आज फिर प्रासंगिक हो उठा है। लेख वैसे तो सालों पुराना है फिर भी आज विश्वविद्यालय और इस पूरे पूर्वांचल और बुन्देलखंड से आए लाखांे छात्रों की आकंाक्षाओं को अभिव्यक्त करता है। पर विश्वविद्यालय को कुछ लोग अचार की दुकान में तब्दील करना चाहतें है. साथियों यह कोई जुमला नही है। प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर हमारे सम्मानित महोदयों ने अचार ही नही रेडिमेड़ कपड़ों की फैक्टरी भी खोल ली है इसी ओवरकांफिडेंस में अब वे कैमरामैन और रिपोर्टर की फैक्टरी खोल रहे हैं। ये सही है कि अपना धंधा बढाने का सबको सवैधानिक अधिकार है पर विश्वविद्यालय को तो बक्श ही देना चाहिए था। पता नही किस ‘‘भावना’’ से फेरी वाले यूनिवर्सिटी में चक्कर नही लगाते। हमारे सम्मानित मास्टरों को तो इस भावना का तो ख्याल रखते हुए फेरी वालो से ही सीख लेनी चाहिए। इसी भावना का आदर करते हुए हमारे फुटपाथ के दुकानदार भाई यूनिवर्सिटी के बाहर सड़को पर दुकान लगाते है।
ऐसे में जब कुलपति जैसा पढ़ा-लिखा व्यक्ति मानसिक रुप से दिवालिया होकर पूरे विश्ववि़द्यालय को बंेच-खाने पर उतारु हो तो हम चाहते हैं कि आप इस बीमार व्यक्ति को ‘‘जादू की झप्पी’’ देकर ‘‘गेट वेल सून मेंटली’’ बोले।
लेकिन सावधान! इस बीमार के बारे में यहां बताना जरुरी होगा कि ये फोन करने पर एफआईआर की धमकी देने की ब्लैकमेंलिग भी करते हैं और बात बढ़ जाने पर कर भी देते हैं। एक सूचना के मुताबिक पिछले दिनों विश्वविद्यालय में छात्रों को मुर्गा बनाने की घटना पर जब जनसत्ता के पत्रकार राघवेंद्र प्रताप सिंह ने इनसे पूछा तो इन्होंने बताया कि मैं राज्यपाल का प्रतिनिधि हू. मुझसे बात नहीं कर सकते मैं मुकदमा कर दूंगा और दूसरे दिन इस बीमार व्यक्ति ने राघवेंद्र पर मुकदमा भी कर दिया। इन्हें यह भी बताना होगा कि वो राज्यपाल नहीं बल्कि राष्ट्रपति के प्रतिनिधि हैं। और जितनी भी हमें जानकारी है उसके अनुसार कुलपति से सार्वजनिक तौर पर कोई भी व्यक्ति बात कर सकता है और पत्रकार के ऊपर अगर वो मुकदमा करते हैं तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है।
खैर बात जो भी हो कुलपति महोदय के विश्वविद्यालय में पद ग्रहण करने के बाद से साल दर साल पदभ्रष्ट हुए हैं। अंदरखाने की ख़बर है कि कुलपति विश्वविद्यालय में सक्रिय शिक्षा माफियाओं के दबाव में काम कर रहें है।
हम कुलपति महोदय का मेल और फोन नंबर सार्वजनिक करते हुए कंपनी बाग में देसी फूल लेख को भी प्रस्तुत कर रहे हैं।

मोबाइल नं0 - 09935354578
rgharshe@gmail.com
rgharshe@sify.com



कम्पनी बाग में देसी फूल

अनिल यादव

उन्हे यहां देखकर अनायास पीटर्सबर्ग में पढ़ने वाले दोस्तोवस्की के आत्मपीड़ा में डूबे छात्र याद आते हैं। प्रयाग में खड़े होकर पीटर्सबर्ग को याद करने की वजह कोई बौद्धिक चोंचलापन नहीं है, सीधी सी बात यह है कि सड़कों पर और गलियों में सबसे अधिक वही दीखते हैं, फिर भी अपने साहित्य में कहीं नजर नहीं आते यह हिन्दी के बाबू टाइप के लेखकों का मोतियाबिन्द है, उसकी वजह से दोस्तोवस्की और चेखव से उधार मांग कर काम चलाना पड़ता है। साहित्य ही क्यों वे नाटकों , फिल्मों, अखबारों में भी नजर नहीं आते। हिन्दी में छात्रों के नाम पर अक्सर गुनाहों का देवता मार्का ‘चंदर’ ही नजर आते हैं जो भूरे रंग की सैंडिल पहनते हैं, जिनके माथे पर बालों की एक लट लापरवाही से झूलती रहती हैं और जिनकी मोहनी मुस्कान पर लड़कियां निसार हुयी रहती हैं। जिन्दगी भर दलिद्दर भोगने के बावजूद हिन्दी का लेखक पता नहीं क्यों यर्थात् से मुंह चुराते हुए हाय चंदर हाय चंदर करता रहता है । सोने से दिल और लोहे के हाथों वाले ये लड़के कभी कभार फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों मे जुगनु की तरह चमक उठते हैं फिर अंधियारे में खो जाते हैं, बहुत ढूंढने पर एक काशीनाथ सिंह मिले, जिन्होनें ‘अपना मोर्चा’ में ‘ज्वान’ के जरिए विश्वविद्यालय को लेकर एक फंतासी बयान की है। ‘अपना मोर्चा’ शायद हिन्दी का अकेला दुबला-पतला उपन्यास है जिसमें ऐसे छात्रों की कहानी कही गयी है, जो जब एडमिशन लेने आते थे तो उनके बालों में भूसे के तिनके फंसे होते थे और घुटनों पर बैलों की दुलत्ती के निशान पाये जाते थे। जो सड़क पर गुजरते बैलों को ‘सोकना’ और ‘धौरा’ कहकर पहचानते थे, जो घर से सतुआ, पिसान और गुड़ लाते थे और जिनकी जांघें लंगोट की काछ से बरसात के दिनों में कट जाया करती थीं। उपन्यासों और कहानियांे से बेदखल हो कर वे कहीं गये नहीं, वे यहीं हैं, हमारे अगल-बगल और पड़ोस में, वे इन दिनों भी डिग्री वाले विश्वविद्यालय से लेकर जीवन के टेढ़े मेढ़े गलियारों तक अपने अस्तित्व की पीड़ा भरी खामोश लड़ाई लड़ रहे हैं। हो यह रहा है कि बाजार, कंपनियां, विश्वविद्यालय, सरकार और मीडिया इन दिनों छात्रों की जो चिकनी-चिकनी प्यारी-प्यारी छवियों बेच रहें हैं, उनकी चकाचैंध में धूप से पक कर कांसा हुए चेहरों वाले ये लड़के कहीं किनारे भकुआए खड़े रह जाते हैं, उन पर किसी की नजर नहीं जाती।

उनसे मिलना है तो आजकल किसी दिन दुपहरिया में कंपनी बाग आइए, विक्टोरिया टाॅवर के पास किसी झुरमुट में तीन छल्ले की झूलन सीट और चैड़े कैरियर वाली इक्का दुक्का साइकिलें दिखेंगी, गियर वाली डिजाइनर छरहरी साइकिलों के बीच वे चैड़ी हड्डियों वाले मजबूत देहाती की तरह लगती हैं। इन्हें वे गांव से अपने साथ लायें हैं। किसान परिवार में और एक जोड़ा मेहनती हाथ जोड़ने की जरूरत के चलते वे बहुत कम उम्र में ब्याह दिये जाते हैं। इन दिनों सरकार यह कह रही है कि धनी परिवारों के छात्र ही विश्वविद्यालय में पढ़ने आते हैं इसलिए उच्च शिक्षा के सस्ते होने का कोई औचित्य नहीं है। यह महान सूत्र खोजने वाले जड़ जमीन से कटे नेताओं और बाबूओं को जान लेना चाहिए कि जिन्हे अब भी दहेज में यह साइकिल, चपटे माॅडल वाली एचएमटी सोना घड़ी और बाजा मिलता है, वे इन्ही विश्वविद्यालयों में पढ़ते है और उनकी तादात बहुत ज्यादा है। उनका किसी बैंक में कोई खाता नहीं है, जिसमें उनके मां बाप के भेजे चेक जमा होते हांे। वे हर महीने गांव जाते हैं और अनाज बेचकर पढ़ाई का खर्चा लाते हैं। वे औने पौने अनाज बेचने की तकलीफ जानते हैं इसीलिए घरों से शहर वापस लौटते हुए जेब भरी होने के बावजूद गुमसुम रहतेे हैं। वे हमारे गांवों के सबसे होनहार लोग हैं जो बहुत ही क्रूर और सघन सामाजिक चयन से गुजरकर यहां पहुंचते हैं। वे अपने घर और ससुराल के आशाओं के केन्द्र हैं। वे खिड़कियां हैं जो सपनों की आधुनिक दुनिया में खुलती हैं। इन्ही सपनों में झूलते ढेर सारे गांव जीते हैं।
वे यहां कंपनी बाग की मुलायम अभिजन दूब पर बैठकर उंचे रुतबे की नौकरियों के लिए हर साल होने वाली प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी करते हैं कलेक्टर, कत्तान या मुंसिफ होना उनके लिए बहुत दूर का सपना है। इस सपने की बात छाड़िये, उनका पीछा करने में ही बड़ा थ्रिल है। वे इसी रोमांच में जीते है। कंपनी बाग के रुमानी झुरमुटों में किताबों के साथ होना भी उनके लिए बड़ी बात चीज है क्योंकि वे सस्ते किराए की जिन कोठरियोें में रहते हैं पकाते है, वहां हवा और रोशनी आने की मनाही है। वहां काइयां और लोलुप मकान मालिकों की पाबंदियां और नखरे है। चालीस वाॅट से ज्यादा पाॅवर का बल्ब जलाने पर कोई बल्ब फोड़ देता है तो कोई रात में पाखाने में ताला लगाकर सोता है।ये लड़के किरासिन तेल की तलाश में जेब में परिचय पत्र और हाथ में कनस्तर लिए लाइनों में लगते हैं खर्च चलाने के लिए ट्यूशन पढ़ाते हैं। सेकेंड हैंड किताबें और किलो के भाव बिकने वाली काॅपियां तलाशते हैं। शहर की इन अंधेरी कोठरियों और क्लास में टिके रहने की जद्दोजहद ही इनमें से कइयों को इतना थका डालती है कि उनकी टहनियों पर कमीजंे लटकती मिलती हैं।
किताबों के इर्दगिर्द उंहे देखकर यह नतीजा निकालना कत्तई गलत होगा कि ये लड़के बहुत मेधावी हैं और उन सबमें ज्ञान की अदम्य पिपासा है। इनमें से ज्यादातर के लिए शिक्षा हंसिए जैसा कोई औजार है जिसमें वे अपने भविष्य के रास्ते पर उगे झाड़-झंखाड़ की निराई करते हैं। अगर उनकी मेधा जाननी है तो उंहे लार्ड मैकाले के नही किसी और पैमाने पर जांचिए। आप इनमें किसी को अंगे्रजी में सोशियोलाॅजी लिखने को कहें और वह सुशीला जी लिख दे तो हंसिए मत, वे आपको आधुनिक वर्णाश्रम और जातिवाद की सामाजिक इंजिनियरी कई दिनों तक लगातार पढ़ा सकते हैं क्योंकि इसे उन्होने पढ़ा और सुना नही, भोगा और जिया हैै।
अभी-अभी ग्राम पंचायतों के चुनाव बीते हैं, उसमें वे गले-गले डूबे थे। जातिवाद राजनीति का एक-एक पेंच वे जानते हैं आने वाले दिनों में इस चुनाव से उपजे नए दोस्ती और दुश्मनी के समीकरणांे का दंश भी वे झेलेंगे। इनमें से कितने ऐसे हैं जो जर-जमीन के झगड़ों की तारीखों पर हर तीसरे महीने मुफस्सिल की कचहरियों में जाते है उंहे भारतीय यथार्थ की गहरी समझ है लेकिन उनके पास प्रोफेसरों के बौद्धिक लटक-झटके और अदांए नही हैं कि वे उसे वातानुकूलित सभागारों में बयान कर सकें। कभी-कभी इलीट और काॅमनर के बीच की चैड़ी सांस्कृतिक खाई और कभी-कभी तो हमारी शिक्षा पद्धति ही चीन की दीवार बन जाती है।
यथार्थ की इस समझदारी और समाज से उनके गहरे सरोकारों की वजह से ही वे हमेशा संघर्षाें के बीच फंसे नजर आते हैं। याद कीजिए आपने आखिरी बार जो छात्रों का जूलूस देखा था उसके सबसे अधिक चेहरे कैसे थे? यही हैं वे जो लाठी चार्ज के बाद अस्पताल में और गिरफ्तारी के बाद जेलों में सबसे अधिक पाए जाते हैं।वे चुपचाप लड़ते हैं और इस संघर्ष का कभी प्रतिदान नही मांगते और न ही शहरी बाबुओं की तरह ‘आई हेट पालिटिक्स’ जैसे जुमले बोलकर नकली हंसी हंसते हैं।
उनके बारे में इतनी बातचीत का सबब, एक अध्यापक का वो बयान है जिसमंे उन्होने कहा है कि उच्चशिक्षा सरकार का संवैधानिक दायित्व नही है। यह अध्यापक संयोग से भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री भी हैं इधर देश की सरकार दुकानदार जैसा सलूक कर रही है जो शिक्षा को उन्हीं लोगों के हाथों बेंचना चाहता है, जो उसकी ज्यादा क़ीमत दे सकें। यही वजह है कि फीसें धुआधार बढ़ी हैं। और विश्वविद्यालय में सीटें कम हो रही हैं। ऐसे पाठ्यक्रमों को प्रात्साहित किया जा रहा है जिंहे पढ़कर अधकचरी जानकारी वाले आपरेटर, सेल्समैन और मैनेजर पैदा होतें हैं। इनका अपने ध्ंाधे और पैसे के अलावा और किसी चीज से सरोकार नही होता। इस कठिन समय में गांवों के ये लड़के कहां जायेंगे? क्योंकि उनके पास पैसा ही नही है, बाकी सब कुछ है। कोई ताज्जुब नही कि आने वाले दिनों में आपको विश्वविद्यालय परिसरों में से लड़के न दिखाई पड़े। वे कंपनी बाग के खिले देशी फूल हैं। उन्हे जी भरकर देख लीजिए।क्या पता कल रहें न रहें

(साभार अमर उजाला, 17 अगस्त 2000 को प्रकाशित)

सब बेच डालिए, आपको पूरा अधिकार है!

विजय प्रताप

...तो मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल जी के पास भी इस बात का जवाब नहीं की इलाहबाद में पत्रकारिता की शिक्षा का नीजिकरण सही है या गलत. गुरुवार को नई दिल्ली में एक प्रेस कोंफ्रेंस में दैनिक जागरण के पत्रकार ने इलाहाबाद के पत्रकारिता विभाग के छात्रों का मुद्दा उठाया तो वह बगले झांकने लगे. मंत्री ने गोलमोल सा जवाब दिया "सभी को साथ लेकर चलने की जरूरत है।"
इसका क्या अर्थ लगाया जाना चाहिए. आन्दोलन कर रहे छत्र सभी को साथ लेकर चलने को तैयार हैं. क्या कपिल सिब्बल जी हमारे साथ चलेंगे? क्या उनकी सरकार अपने नुमाइन्दे कुलपति से यह पूछ सकती है की वह छत्रहितों के खिलाफ यह निजीकरण क्यों कर रहे हैं? क्या वह ये भी नहीं पूछ सकते की मीडिया को जो नया पाठ्यक्रम शुरू करने जा रहे हैं क्या वह यूजीसी के नियमों को पूरा करता है?
साथियों, इसका जवाब सिर्फ 'नहीं' होगा. क्योंकि यह वही कपिल सिब्बल साहब हैं जिन्होंने अभी थोड़े दिन पहले प्राथमिक शिक्षा को दूकान का माल बनाने के लिए "सबको शिक्षा का अधिकार" का नारा दिया. नीजि कम्पनिया भी कुछ ऐसा ही नारा दिया करती हैं. क्योंकि उनको पता है की इस "सब" का मतलब केवल उन्हीं से है जिनकी जेब में पैसा है. मुरली मनोहर जोशी के बाद निजी कंपनियों और पूंजीपति घरानों ने अब कपिल जी को अपना निजीकरण का रथ हांकने का ठेका दिया है. और कपिल सिब्बल उनकी उम्मीदों पर खरे उतरने की बखूबी कोशिश कर रहे हैं. इसलिए यह जानकर की इलाहाबाद में उनके चेलों ने उनके रथ से दो कदम आगे चलते हुए, पहले ही निजीकरण शुरू कर दिया है, तो वह नाराज कतई नहीं होंगे. यह जरुर है की सामने जनता हो तो वह कुलपति को दो-चार बातें सुना दें, उनके चाटुकार जी.के. राय को इतने छोटे स्तर पर निजीकरण करने के लिए हटा दे. लेकिन मकसद उनका भी कुछ ऐसा ही है. वह शायद इससे बड़े स्तर पर निजीकरण की आश लगाये हों.
मुख्य धारा की मीडिया भी आज यही चाहती है की समाज की बात करने वाले जीवजन्तु उससे सौ कोस दूर रहे. इसलिए वह खुद के मीडिया संसथान खोल रही है. वहां आप थैले भर पैसा लेकर जाईए, वह आपको सनसनाते हुए एक डिग्री पकडा देगें. अब यह आप पर है की उसके बाद अपना पैसा कैसे वसूल करते हैं. आप चाहे सनसनी बेचिए, आप अखबारों में खबरे बेचिए, लोगों की अस्मत बेचिए, उनके आंसू, बेडरूम-बाथरूम के सीन बेचिए और इससे भी दिल नहीं भरे तो पूरा अखबार या चैनल बेच दीजिये. आपको पूरा अधिकार है, आपने इतने पैसे खर्च कर डिग्री जो खरीदी है.
हालाँकि इलाहाबाद के छात्र आन्दोलन को देख ये साफ़ है की कुछ लोग हैं जो इस खरीद बेच के सौदे से दूर असल पत्रकारीता के लिए लड़ रहे हैं. यह छात्र आन्दोलन इस बात की तस्दीक है की, निजीकरण के इस रथ को रोकने का हौसला केवल यही युवा पीढी कर सकती है. वैसे भी इलाहाबाद की धरती ऐसे कई आंदोलनों का गवाह बन चुकी है. यहाँ के आन्दोलनों ने हर बार बदलाव की कहानी लिखी है. इस बार इस आन्दोलन की डोर समाज के सबसे सजग माने जाने वाले तबके ने संभाली है. इसे मिल रहे जनसमर्थन को देख ऐसा लगता है, की इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन की अपने फैसले पर पछतावा हो रहा होगा, वह लगातार आन्दोलनरत छात्रों को डरा धमका उन्हें तोड़ना चाहता है. लेकिन यकीं मानिए ऐसे हौसलों के दम पर ही दुनिया टिकी है.

वक्त बदल गया है, आप भी बदलिए !

दिलीप मंडल

प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव,
मेरे करीबी रिश्तेदारों में कई जातियों के लोग हैं। ब्राह्मण से लेकर कायस्थ और नायर से लेकर दलित तक। ये सभी सभी परिवार प्रेम से रह रहे हैं। आपके परिवारों में भी लोगों ने प्रेम किया होगा और कई ने जाति से बाहर शादियां भी की होंगी। अब आप जाति पर अपने शर्मसार करने वाले विचारों को अपने रिश्तेदारों पर लागू करके देखिए और हिसाब लगाइए कि कौन सी बच्ची या बच्चा कवि बनेगा और कौन कहानीकार और कौन आत्मकथा बेहतर लिखेगा। या हिसाब लगाइए इस बात का कि कौन बैटिंग करेगा और कौन बॉलिंग और कौन टिक कर खेलेगा और कौन टिक कर नहीं खेलेगा या फिर कौन बेहतर नेतृत्व क्षमता दिखाएगा और कौन नहीं दिखाएगा। आपको अपने ही विचारों से शायद नफरत होने लगे और आप अपने बच्चों और पोते-पोतियों से माफी मांगने के अलावा कुछ और नहीं कर पाएं। बड़े लोग जब इस तरह अश्लील और समाज में नफरत फैलाने वाली बातें करने लगें, तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है।

मैं ये सोचने की कोशिश कर रहा हूं कि ये दोनों बुज़ुर्ग बीमार क्यों हैं। इसका एक कारण तो मुझे समझ में आ रहा है। इन्हें दुनिया की शायद खबर ही नहीं है। प्रभाष जोशी इंटरनेट नहीं देखते। वो ऑर्कुट पर नहीं हैं। वो फेसबुक में भी नहीं हैं। मुझे नहीं मालूम कि उनके पास ई-मेल आईडी है या नहीं। कुछ समय पहले तक उनके पास मोबाइल फोन भी नहीं था। एसएमएस पता नहीं वो करते हैं या नहीं। वो ट्विटर पर ट्विट भी नहीं करते। उनका कोई ब्लॉग भी नहीं है। राजेंद्र यादव का भी कमोबेश यही हाल है। वैसे तो इस गरीब देश के ज्यादातर लोगों की प्रोफाइल नेटवर्किंग साइट पर नहीं हैं, वो ईमेल भी नहीं करते, न ही कंप्यूटर से उनका कोई वास्ता है। देश में इस समय लगभग 6 करोड़ लोग ही इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं (देखें मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी की सालाना रिपोर्ट)। तो अगर राजेंद्र यादव या प्रभाष जोशी देश के छह करोड़ कनेक्टेड लोगों में नहीं हैं तो क्या फर्क पड़ता है?

फर्क पड़ता है। इसलिए क्योंकि ये दोनों कम्युनिकेशन यानी संवाद के धंधे में हैं। और ऐसे लोग अगर दीन-दुनिया से अपडेट न रहें तो फर्क पड़ता है। ये बेखबर लोग अगर अपनी बात खुद तक ही रखें तो हमें धेले भर की परवाह नहीं। लेकिन वो बोल रहे हैं और बेहद बेतुका और बेहूदा बोल रहे हैं। ये दोनों लोग ऐसी बातें बोल रहे हैं, जो उनके चेलों के अलावा हर किस को अखर रही है। मैं एक भी ऐसे आदमी को नहीं जानता, जो जातिवाद के समर्थन में उनके विचारों का कम से कम सार्वजनिक तौर पर समर्थन करें। इन दोनों महान लोगों के चेलों के पास भी बचाव में देने को कोई तर्क नहीं हैं। आखिर इनके चेलों में से भी कई ने जाति से बाहर शादी की है। उन्हें मालूम है कि उनकी अगली पीढ़ी क्या करने वाली है। हर जाति के लोगों को ये लेखन आउटडेटेड और सड़ा हुआ लग रहा है। 21वीं सदी के लगभग 10 साल बीतने के बाद ये अज्ञानी लेखन हमारी देवभाषा में ही संभव है। इस समय पश्चिम में आप कल्पना नहीं कर सकते कि कोई जाति या वर्ण या नस्ल या रंग के आधार पर श्रेष्ठता का ऐसा खुल्लमखुल्ला और अश्‍लील समर्थन करे। उसे पूरा देश दौड़ा लेगा।

बहरहाल ये इस बात का प्रमाण है कि ये दोनों लोग दुनिया में चल रहे आधुनिक विमर्श से वाकिफ ही नहीं हैँ। ये महानगर में रहते हैं। आर्थिक रूप से समर्थ हैं। लेकिन नेट पर नहीं हैं। पता नहीं की-बोर्ड पर काम करना इन्हें आता भी है या नहीं। ऐसे में दोनों को पता ही कैसे चलेगा कि नॉम चॉमस्की ने अपने ब्लॉग पर ताजा क्या लिखा है या फिर फ्रांसिस फुकोयामा के बारे में ब्लॉग में क्या चल रहा है। उन्हें पता ही नहीं कि दुनिया कितनी बदल गयी है। नहीं, ये एलीट होने या जेब में ढेर सारे पैसे होने की बात नहीं है। 10 रुपये में कोई भी आदमी आधे से लेकर एक घंटे तक इंटरनेट कैफे में कनेक्ट हो सकता है। प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव भी ये कर सकते हैं। वो ऐसा नहीं करते, इस वजह से उनका अपने पाठकों की दुनिया से जबर्दस्त डिस्कनेक्ट है।

भारत में इतने हमलावर आये हैं (उनमें से ज्यादातर अपने साथ परिवार लेकर नहीं आये) और समाज व्यवस्था में इतनी उथल-पुथल हुई है कि रक्त शुद्धता की बात कोई कूढ़मगज इंसान ही कर सकता है। हिमालय के किसी बेहद दुर्गम गांव में या किसी द्वीप या किसी बीहड़ जंगल में बसी बस्ती के अलावा रक्त अब शायद ही कहीं शुद्ध बचा होगा। ऐसे में कोई ये कहे कि कोई खास जाति किसी खास काम को करने में इसलिए ज्यादा सक्षम और समर्थ है कि उसका जन्म किसी खास जाति में हुआ है, तो इस पर आप हंसने के अलावा क्या कर सकते हैं। आप रो भी सकते हैं कि जिन लोगों को हिंदी भाषा ने नायक कह कर सिर पर बिठाया है, उनकी मेधा का स्तर ये है।

प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव,
क्या आपको अपने घरों में नयी पीढ़ी की हंसी की आवाज़ सुनाई दे रही है? पता लगाइए कि कहीं वो आप पर तो नहीं हंस रहे हैं।
प्रभाष जोशी तो खुद को ब्राह्मण ही मानते होंगे। उनमें वो सारे गुण होंगे, जिनका जिक्र उन्होंने ब्राह्मणों के बारे में अपने इंटरव्यू में किया है। अगर उनका जन्म मिथिलांचल या मालवा के किसी बेहद गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ होता, तो भी क्या ये तय था कि वो संपादक ही बनते। इस बात की काफी संभावना है कि वो पटना या इंदौर के किसी सरकारी दफ्तर में चपरासी होते और लोगों को पानी पिला रहे होते। राजेंद्र यादव किस जातीय गुण की वजह से संपादक बन गये?

तो प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव,

बात सिर्फ इतनी सी है कि किसी को कितना मौका मिला है। बात अवसर की है। ये न होता तो आप अपने बच्चों को किसी गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ाते। फिर हम भी देखते धारण क्षमता का चमत्कार। यादव जी का ये कहना गलत है कि “ब्राम्हणों में कुछ चीज़ें से अभ्यास आयी हैं जैसे कि अमूर्तन पर विचार-मनन और इसीलिए कविताई में उनका वर्चस्व है। इन्हीं वजहों से विश्वविद्यालयों और अकादमियों में भी वे काबिज़ हैं।” वो वहां काबिज इसलिए हैं, क्योंकि उन्हें वहां तक पहुंचने का मौका मिला है। पढ़ाई-लिखाई को लेकर चेतना अलग-अलग जातियों और समूहों में कुछ जादू नेटवर्किंग का भी है। नरेंद्र जाधव और बीएल मुणगेकर को मौका मिला तो दलित होते हुए भी वो पुणे और मुंबई जैसे बड़े विश्वविद्यालयों में कुलपति बन गये। कोई भी बन सकता है।

किसी जाति में कोई अलग गुण नहीं होता। कुछ पुरानी बातें अब लागू नहीं होतीं। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने गीता का भाष्य करते हुए 18वें अध्याय में यही कहा है। पढ़ लीजिएगा। 21वीं सदी में जातीय श्रेष्ठता की बात करेंगे तो घृणा के नहीं हंसी के पात्र बनेंगे।
रिजेक्टमाल से

कुलपति (?) के नाम पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों का खुला पत्र

महोदय,

आज से चंद साल पहले जब विश्वविद्यालय की प्रवेश परी़क्षा के पेपर लीक होने के सवाल पर आपने प्रशासन के लोगों को साथ लेकर गांधी भवन तक मार्च किया था, विश्वविद्यालय की अस्मिता और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए तब केवल विश्वविद्यालय में चंद शिक्षक और कुछ ही प्रशासन के नुमाइंदे ही आपके साथ थे।
आज जब पत्रकारिता विभाग की अस्मिता और प्रतिष्ठा पर आंच आ रही है और तो वहां के शिक्षक अपने सभी विद्याथर््ीिओं के साथ उसी तरह गांधी भवन जाते हैं। ये संकल्प लेने के लिए की हम अपने मान सम्मान और विचारों पर अडिग रहेंगे तो आप उस विभाग के सात साल विभागाध्यक्ष रहे सुनील उमराव को नोटिस थमाते हैं कि वो परिसर में अराजकता फैला रहे हैं और वीसी के कथित मानसम्मान को ठेस पहुंचा रहे हैं। क्या आज वीसी का मानसम्मान एक विभाग या शिक्षक से अलग होता है? क्या विश्वविद्यालय जैसी अकादमिक संस्थाओं में विचारों को भैंस की तरह जंजीरों में बांधा जा सकता है। जब श्री राजेन हर्षे वीसी की कुर्सी की गरिमा को बनाये नही रख पा रहें है तो उस कुर्सी की गरिमा को यह कार्य कैसे आघात पहुंचा सकता है। सीनेट हाल में बच्चों की तरह पूरे विश्वविद्यालय के अध्यापकों द्वारा अपने को ‘‘हैप्पी बर्थडे टु यू’’ गवाकर विश्वविद्यालय की ऐतिहासिक गरिमा को ध्वस्त कर नया अध्याय लिखा है। क्या एक शिक्षक को अपने पदोन्नति और प्रशासनिक पदों की भूख इतनी वैचारिक अकाल पैदा करती है कि सभी एक सुर में हैप्पी बर्थ डे प्रायोजित करते है। यह विश्वविद्यालय में किस प्रकार की परिपाटी स्थापित करने की कोशिश की जा रही है।
राजेन हर्षे के कुलपति बनने के बाद हर मंच पर खड़े होकर यहां पर अकादमिक स्तर को बढाने की दुहाई देते रहे हैं और विश्वविद्यालय के ज्यादातर अध्यापकों पर न पढाने का आरोप लगाते रहे है परंतु व्यवहार में क्लास न लेने वाले शिक्षकों के इर्दगिर्द घिरे रहे है। और उनकी सलाह से विश्वविद्यालय में पढाई के बजाय ठेकेदारी की प्रवृत्ति को बढावा दिया है। एक ऐसे शिक्षक को जो वाइस चांसलर के आने के पहले विभाग आता हो और आपके जाने के बाद विभाग छोड़ता हो उसे शिक्षक दिवस के मौके पर नोटिस दी जाती है कि वो छात्रों-छात्राओं और अध्यापकों को भडका रहे हैं। क्या विश्वविद्यालय के अध्यापकों का चरित्र इतना कमजोर है कि इतनी जल्दी उनको प्रभावित कर सकता है। जबकि वो शिक्षक केवल कंपाउण्डर है, ‘‘डाक्टर’’ भी नही। इतने बड़ी-बड़ी डिग्रियां और किताबे लिखने वाले अध्यापकगणों को कंपाउण्डर बहका सकता है तो इन शिक्षकों पर सवाल ही खडे होतें है। और उनके द्वारा लिखी गयी किताबों पर सवाल उठता है। क्या विश्वविद्यालय केवल पेपर लिखने वाले पेपरमैनों (जिनके पास कोई चरित्र की विश्वसनीयता न हो)का गिरोह है? हमें बताने की जरुरत नही है कि शिक्षा चरित्र निर्माण एवं अपने विचारों पर चलने की एक पद्वति ही है। यही सोच ने हम विद्यार्थियों को हमारे गुरु के नेतृत्व में यात्रा करने को मजबूर किया है।
विश्वविद्यालय में छात्रों को आंदोलित करके अर्दब में लेने का कुछ चंद शिक्षको का एक बड़ा इतिहास रहा है जो परिसर में छिपकर ठेके और कमाई के धंधे को पनपाने के लिए ऐसा करते रहे है। वे कभी सामने नही आते पर पेशे और धन के बल पर अपना आंदोलन चलाते है। वही हमारे शिक्षक हमारा नेतृत्व कर एक बहादुर और चरित्रवान शिक्षक होने परिचय दिया है कि कोई भी लड़ाई हम मिलकर लड़ेगे और अपनी नौकरी और जानमाल को इन तथाकथित मठाधीशों से लड़ने में लगा देंगे। ये समय ही बतायेगा की वीसी के सरकारी लाव-लश्कर हमारे विचारों को जंजीरों को बांध पायेगे। इनकी पदोन्नति और सेलेक्शन कमेटी का लालच कितना हमको तोड़ पायेगा। परिसर में आज भी अधिकतर अध्यापक और विधार्थी ईमानदार और निष्ठावान हैं, जिनके बल पर हम निजीकरण के खिलाफ सै़द्धांतिक लड़ाई लडने का हौंसला कर पाये।
ये विश्वविद्यालय का ऐतिहासिक मौका था जब शिक्षक खुद आंदोलन का नेतृत्व करने को निकला था। प्रशासन ने ‘‘पीस जोन’’ की ‘‘मर्यादा’’ भंग करने के लिए अध्यापक को ही नोटिस दी हम छात्रों को क्यों नही? क्या हमारे अध्यापक इतने लल्लू हैं? क्या आप हमसे डरते हैं? क्या आपके अंदर नैतिक बल का आभाव है? आप राजनीति शास्त्र के ही प्रोफेसर हैं? आज हम देखेंगे कि आप की राजनीति हमारे नैतिक आंदोलन को किस हद तक तोड़ पाती है। आप विचारों के शिक्षक हैं व्यवहार के नही। आप एक आतंकवादी हैं जो अपनी कुर्सी और पद का आतंक दिखा कर लोगों को अपने विचारों पर अडिग रहने से रोकना चाहते हैं। हम लोग मिलकर दिखाएंगे की हम बिकाऊ नहीं हैं। जिन्हें आपके जैसे शिक्षा के तथाकथित मठाधीश और ठेकेदार खरीदकर तोड़ सकते हैं। देखेंगे जीत हमारे नैतिक बल की होगी या संगीनों के साये में जीने वाले आप जैसे तथाकथित शिक्षक की।
जब चार दिनों से सैकड़ों लड़के-लड़कियां सड़कों पर खुली धूप और गर्मी में अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। वहीं आप हमारे परिवार के मुखिया होकर वातानुकूलित चैंबर में जीके राय के साथ घंटों बैठकर राय मशविरा कर रहे है। आपको चार साल के कार्यकाल में शायद न मालुम हो पाया हो कि जीके राय वे अध्यापक हैं जिन्होंने जिंदगी भर कभी क्लास नहीं ली। इस सच को विश्वविद्यालय में सभी लोग जानते हैं। हमारे वो चार साल पहले वाले वीसी साहब कहां हैं जो हर मंच पर चढ़कर आदर्श टीचर बनने की दुहाई देते थे। चार साल में इतना विरोधाभास क्यूं?
ये सब हम ‘‘नादान बच्चों’’ को दिखता है तो हम बोलते हैं लेकिन शायद शिक्षक इसलिए नहीं बोलते हैं क्योंकि वो हमसे ज्यादा समझदार और दुनिंयादार हैं। क्यों आप जैसे ज्ञानी-विज्ञानी महापुरुषों को दिखाई नहीं देता। आप महाभारत के धृतराष्ट्र की तरह सत्ता के नशे में इतने चूर न हो जायें कि पांडवों को हस्तिनापुर के बीस गांव न देने की जिद के बाद अपने सौ पुत्रों और राज्य को स्वाहा कर दिया।
पत्रकारिता विभाग छोटा हो सकता है, भले वहां केवल एक शिक्षक हो, परन्तु हम विद्यार्थियों के हौसले इतने बुलंद है और हममे वो नैतिक बल है कि इस जीके राय की इस्टीट्यूट प्रोफेशनल स्टडीज की सोने की लंका को जलाकर खाक कर डालने का दम है। आप अपनी राजनीति की गोट खेलते रहे हम अपनी लड़ाई लड़ते रहेंगे। आप अपने षडयंत्र रचिए, विजय तो योद्वाओं की ही होगी। हम वो लोग हैं जो अपने माथे पर काले कफन डालकर अपने विचारों और सिद्वातों के लिए खड़े हैं न कि आपके पैरों पर लोटने वाले विश्वविद्यालय के वो अध्यापक जो लाख टका की तनख्वाह होने के बावजूद विश्वविद्यालय की ईंट खाते हैं, सीमेंट फंाकतें है, कम्प्यूटर चबाते है और सब कुछ हजम करने के बाद चटनी-अचार-मुरब्बा खिलाकर व्यवहार बनाते हैं। ये लगभग सवा़ सौ साल पुराना विश्वविद्यालय शिक्षा का केंद्र है न कि व्यवसायिक केंद्र। यहां न्याय और अधिकारों की आयत पढ़ी जाती है और इंसाफ के मंत्रो का जाप होता है।
कुलपति महोदय, आपसे विनम्र निवेदन है कि शिक्षक को अपनी जायज मांगें उठाने के लिए नोटिस देकर अपना वैचारिक दिवालियापन दिखाने के बजाय हमारे मुद्दे पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे। आप हमें बतांए कि आखिर किस अधिकार के तहत समानान्तर कोर्स को एक्जीक्यूटिव काउंसिल से पास किए बिना मीडिया स्टडीज का पाठ्यक्रम कैसे चालू कर रहे हैं। क्योंकि एक्जीक्यूटिव काउंसिल से पास न होने के चलते ही एमए (मास कम्यूनिकेशन) विभाग दो साल तक बंद रहा। आखिर आप हमारे साथ इतना सौतेला व्यवहार क्यों कर रहे हैं। आपका इसमें क्या निजी हित और राजनीति है? कृपया यह राजनीति के प्रोफेसर बताएं।

- आपके अपने
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के विद्यार्थी

बाटला हाउस के बाद आजमगढ़

13 सितंबर 08 को दिल्ली बम धमाकों में आजमगढ़ के लोगांें का नाम आने के बाद पूरे जिले में दहशत का माहौल हो गया। मीडिया द्वारा आ रही खबरों और बिना नंबर प्लेट की गाड़ियों में घूम रहे सादी वर्दी के एसटीएफ वालों ने ऐसे कई नाम लिए जिनको 19 सितंबर को हुए बाटला हाउस फर्जी एनकाउंटर के बाद भुला दिया गया। दिल्ली स्पेशल सेल ने इस एनकाउंटर में आजमगढ़ के साजिद और आतिफ अमीन को मुठभेड़ में मारने का दावा किया। इस कार्यवाई में मोहन चंद्र शर्मा की मौत और एक अन्य पुलिस कर्मी को गोली लगने की जानकारी पुलिस ने दी।
22 वर्षीय आतिफ अमीन पुत्र मो0 अमीन जामिया मीलिया में हयूमन रिसोर्स डैवलपमेंट में रिसर्च कर रहा था। वह कई सालों से दिल्ली में रह रहा था। संकट मोचन, गोरखपुर, अयोध्या, यूपी के कचहरीयों, अहमदाबाद, दिल्ली और जयपुर के धमाकों का उसे आरोपी बताया गया। पुलिस ने बताया की आतिफ इंडियन मुजाहिद्दीन के ही घटक गजनवी ब्रिगेड, जिसे बम धमाकों की जिम्मेदारी सौपी गई थी, का प्रमुख था।
संजरपुर के लोगांे को मीडिया से मालूम हुआ कि आतिफ और साजिद की हत्या और सैफ को गिरफ्तार किया गया है। आतिफ मूल रुप से संजरपुर का रहने वाला था लेकिन सरायमीर में उसके पिता ने कई साल पहले घर बनवा लिया था जहां उसका पूरा परिवार शिफ्ट हो गया था। गाव वालों के मुताबिक वह एक अच्छा एथलीट था और दिल्ली रहने के बावजूद गांव आया-जाया करता था। वहीं दूसरी ओर साजिद पुत्र डा0. अंसारुल हस्सान पहली बार आजमगढ़ से तीन महीने पहले जामिया में प्रवेश के लिए गया था पर प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण न कर पाने के कारण वह वापस आजमगढ़ लौट आया था। लेकिन महीने भर बाद ही वह फिर दिल्ली जाकर कम्प्यूटर और अग्रेंजी स्पीकिंग का कोर्स करने लगा। जिसको एक महीने बाद ही पुलिस ने बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ में मार दिया। जिस पर तमाम मानवाधिकार संगठनों ने सवाल उठाया। और अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी दिल्ली पुलिस को इस फर्जी मुठभंेड़ पर क्लीन चिट देकर अपनी प्रासंेगिकता और विश्वसनियता पर खुद प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
रिपोर्ट के अनुसार इस मुठभेड़ में आतिफ और साजिद को गाली लगी जिससे उनकी मौत हो गयी और मोहन चंद्र शर्मा और बलवंत सिंह को भी गोली लगी। मोहन चंद्र शर्मा को और दूसरे पुलिस कर्मी को अस्पताल ले जाया गया जहां देर शाम मोहन चंद्र शर्मा की मौत हो गयी।
जिशान पुत्र प्रो0 एहसान भीे इन लोगों के साथ रहता था और उस दिन परीक्षा देने गया था। जिशान को लौट के आने के बाद जब पता चला कि साजिद और आतिफ को पुलिस ने मार दिया है तो उसने अपने पिता प्रो0 एहसान को फोन किया। प्रो0 एहसान बताते हैं कि मैंने उससे तुरंत कहा कि तुम सरेंडर कर दो और उसने आज तक के आफिस जाकर सरेंडीर किया पर बाद में पुलिस वालों ने उसे भी गिरफतार करने का दावा किया। 21 सितंबर को साकिब निसार, जियाउर्रहमान और शकील को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
बाटला हाउस फर्जी एनकाउंटर के बाद पुलिस ने आजमगढ़ के दर्जनों युवकों का नाम देश में हुए बम धमाकों से जोड़ते हुए आरोपी बताया। इनकी गिरफतारियों के लिए पुलिस ने जगह-जगह छापे मारी की। 22 सितंबर 08 को साढे़ छह बजे के तकरीबन संजरपुर में छापेमारी शुरु की। पुलिस ने आरिफ, खालिद, सलमान, साजिद बड़ा, डा0 शाहनवाज जो बाटला हाउस से पकड़े गए सैफ के भाई हैं के घरों पर छापा डाला। छापे मारी के दौरान पुलिस का रवैया आपराधिक और सांप्रदायिक था। इसी छापे मारी ही नहीं बल्कि अनेक गिरफ्तारियों में देखा गया एसटीएफ के सिपाही बिना वर्दी के और बिना नंबर प्लेट की गाड़ियों से आते थे। छापे-मारी में महिलाओं के साथ अभद्रता और कुरान जैसे धार्मिक पुस्तकों फाड़ना फेकना और यह कहना कि इसी को पढ़ तुम्हारे बच्चे आतंकवादी बनते हैं आम बात हो गयी थी। एसटीएफ की बिना नंबर प्लेट की गाड़ियों और उसमें भारी मात्रा में असलहे और रस्सों की जब जानकारी स्थानीय थानाध्यक्ष कमलेश्वर सिंह को दी गयी तो उन्होंने कहा कि वो जो कर रहे हैं सही कर रहे हैं और ऐसा ही करना चाहिए। इसकी सूचना डीएम, एसपी, डीआईजी तक को दी गयी लेकिन इन लोगों ने भी कोई कायवाई का न आश्वासन दिया और न ही कोई एक्शन लिया और बल्कि इन बिना वर्दीधारी एसटीएफ वालों को ही संरक्षण दिया।

बाटला हाउस के बाद सभी प्रदेशों की पुलिस ने इसका श्रेय लेने की होड़ में कई नाम लिए। मुबई पुलिस कई साल पहले के बाम्बे ट्रेन ब्लास्ट के कई आरोपियों का नाम 24 सितंबर को लेना शुरु किया और इनको गिरफ्तार करने का दावा किया। जिनमें आरिफ बदर, सादिक शेख जाकिर शेख और अफजल उस्मानी को जो मऊ का रहने वाला था को गिरफ्तार किया। जिनमें आरिफ बदर को दिल्ली और अहमदाबाद विस्फोटों में भी दिखा दिया गया। वहीं जाकिर शेख को संकट मोचन और उत्तर प्रदेश की कचहरियों में हुए धमाकों का आरोपी बताया गया। यहां गौर करने की बात है कि कई घटनाओं में चार्ज शीट और सजा होने के बाद बाटला हाउस प्रकरण में पकड़े गए लोगों पर पुनः आरोप लगाया गया। ऐसा करने से एक-एक वयक्ति पर पचास-पचास मुकदमें दर्ज हैं। इन पकडे़ गये नौजवानों की औसत आयु 22-23 वर्ष के आस-पास हैं जिसमें अधिकांश उच्चशिक्षा में अध्यनरत थे या फिर कोई तकनीकी काम करते थे।
‘गायब’ होने वालों में अबू राशिद भी हैं जो संजरपुर के ही हैं और मुंबई में आप्टीशियन की दुकान पर काम करता है। उसकी तलाश में पुलिस उसके घर गयी। लेकिन उस दौरान अबू राशिद अपने पैतृक गांव संजरपुर आए हुए थे इसलिए पुलिस ने उनके भाई अबू तालिब और उनके चाचा से ही पूछताछ की। पुलिस ने उन पर दबाव बनाया कि वो अपने भाई को बिना यूपी की पुलिस और किसी अन्य को बताए मुबंई बुला ले। 23 सितंबर को मीडिया वालों की मौजूदगी जिसमें आज तक भी था के सामने अबू राशिद ने बताया कि उसके भाई और परिवार वालों को मुबई पुलिस परेशान कर दबाव डाल रही है कि वो मुझे मुंबई बुला लें इसलिए मैं जा रहा हूं। इसके बाद अबू राशिद ने घर बताया कि वह वाराणसी जाकर गाड़ी पकड़ेगा मुंगई के लिए। उसके बाद से अबू राशिद का पता नहीं चला। अबू राशिद के मुंबई न पहुंचने पर पुलिस ने उसके भाई अबू तालिब को आजमगढ़ ले आयी। अब अबू तालिब अपना करोबार छोड़ डर व दरहशत में मुंबई नहीं जा रहे हैं। गांव वाले व परिवार वालों का मानना है कि जिस पुलिस ने उनके घरों पर पहरा डाल दिया है उसी ने उसे उठा लिया है और कभी भी किसी घटना में गिरफतार करने का मार गिराने का दावा करेगी। क्योंकि अगर अबू राशिद को भागना होता तो वह मीडिया वालों के सामने क्यों आता चोरी से भाग जाता। आजमगढ़ में ऐसे दर्जनों अबू राशिद हैं जिनमें कुछ को तो मानवाधिकार संगठनों व आम नागरिकों की सक्रियता के चलते चिन्हित कर लिया गया है जो पुलिस की गैर कानूनी हिरासत में हैं जिन्हें कभी भी कहीं भी दिखाया जा सकता है। लेकिन डर व दहशत के माहौल में कई लोगों ने अपनों के गायब होने की जानकारी देने से बचते हैं। हम यहां आजमगढ़ में अब तक कितने गिरफ्तार, कितने गायब और कितने पुलिस की गोली के शिकार हुए की एक सूची जारी कर रहे हैं।

पुलिस की गोली के शिकार

1-आतिफ अमीन पुत्र मो0 अमीन, ग्राम संजरपुर दिल्ली, 52 मुकदमें, अहमदाबाद, जयपुर, बनारस संकटमोचन, यूपी कचहरी ब्लास्ट
2-साजिद पुत्र डा0 अनसारुल हस्सान, ग्राम संजरपुर, 52 मुकदमें, अहमदाबाद, जयपुर, बनारस संकटमोचन, यूपी कचहरी ब्लास्ट

गिरफ्तार किए गए

1-हकीम तारिक कासमी पुत्र रियाज अहमद, ग्राम सम्मोपुर, यूपी कचहरी धमाकों का आरोप
2-अबुल बसर पुत्र अबू बकर, ग्राम बीनापारा, अहमदाबाद 19 धमाके, एक गांधी नगर, 15 सूरत में जो बम पकडे़ गए उसमें
3-सरवर पुत्र मो हनीफ, ग्राम चादपटटी, 8 मुकदमें जयपुर
4-सैफउर्रहमान पुत्र अब्दुल रहमान, शहर आजमगढ,आरोप ़ अहमदाबाद, जयपुर धमाकों का
5-मो0 सैफ पुत्र शादाब अहमद ग्राम संजरपुर, 52 मुकदमें -दिल्ली, जयपुर, अहमदाबद ,कर्नानटका में संभवित
6-आरिफ पुत्र मिर्जा नशीम अहमद, ग्राम संजरपुर, 36 मुकदमें-
लखनऊ, अहमदाबद
7-साकिब निसार पुत्र निशार अहमद पूरा परिवार दिल्ली में रहने लगा है मुकदमें दिल्ली, अहमदाबाद
8-हाकिम पुत्र अब्दूल करीम, रहमत नगर, मुकदमें 9-दिल्ली 9-जीशान पुत्र प्रो0 एहसान, मुकदमें 35- दिल्ली, अहमदाबाद
10-सादिक हुसैन पुत्र मो0 अमीन अंसारी, ग्राम पुराबाग मुबारकपुर, आरोप मुबई से आजमगढ़ के लिए हथियार लाने का
11-खलीलुर्रहमान पुत्र मतीउलला, ग्राम नया पुरा मुबारकपुर,आरोप मुबई से आजमगढ़ के लिए हथियार लाने का
12-मासूम रज़ा पुत्र रियाजुल हसन,ग्राम पुरा रानी मुबारकपुर,आरोप मुबई से आजमगढ़ के लिए हथियार लाने का
13-नजरे आलम पुत्र जफर आलम मपुरारानी,आरोप मुबई से आजमगढ़ के लिए हथियार लाने का
14-आरिफ बदर पुत्र बदरुददृीन,ग्राम इसरौली आजमगढ़, अहमदाबाद, दिल्ली मुबई टेन सीरियल ब्लास्ट
15-सादिक शेख पुत्र इसरार अहमद, मुंबई टेªन ब्लास्ट, अहमदाबाद, यूपी संकटमोचन, कलत्ता अमेरिकन सेंटर पर आतंकवादी हमले में शामिल
16-जाकिर शेख, ग्राम कवरा गहनी सरायमीर, अहमदाबाद, बाम्बे सीरियल ब्लास्ट
17-अफजल उस्मान, ग्राम ढैलही फिरोजपुर, बाम्बे सीरियल ब्लास्ट, अहमदाबाद

‘गायब’
1-डा0 शाहनवाज पुत्र शादाब अहमद, ग्राम संजरपुर, दिल्ली, अहमदाबाद, बाम्बे सीरियल ब्लास्ट
2-साजिद बड़ा पुत्र कुरैश अहमद, ग्राम संजरपुर, 52 मुुकदमें-दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर
3-खालिद पुत्र सगीर अहमद, ग्राम संजरपुर, 52 मुकदमें-जयपुर, अहमदाबाद, दिल्ली
4-सलमान पुत्र सकील अहमद, ग्राम संजरपुर, 52 मुकदमें-दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद
5-अबू राशिद पुत्र एकलाक अहमद, ग्राम संजरपुर, बांबे सीरियल ब्लास्ट
6-मो0 आरिज पुत्र जफर आलम, शहर आजमगढ,़ दिल्ली,अहमदाबाद, जयपुर और बाटला हाउस एनकाउंटर के दौरान पुलिस पर फायरिंग करते हुए भाग गए।
7-मिर्जा शादाब बेग पुत्र मिर्जा एहतेशाम, शहर आजमगढ़ 52 मुकदमें-दिल्ली, अहमदाबद, जयपुर
8-शहजाद पुत्र शेराज, आजमगढ़, दिल्ली धमाके और बाटला हाउस एनकाउंटर के दौरान पुलिस पर फायरिंग करते हुए भाग गए।
9-असदउल्ला अख्तर पुत्र डा0 जावेद, मोहल्ला गुलामी का पुरा,दिल्ली धमाकों का आरोप
10-हबीब फलाही पुत्र अबुल जैश, ग्रामबारी खास, आरोप अहमदाबाद धमाकों का
11-वासिक मीयर, ग्राम फरिहां, आरोप अहमदाबाद धमाकों का