Screening & discussion on documentary film “SAFFRON WAR”


Date - 16 April 2011, Saturday
Time - 2: 4 PM
Venue - UP Press Club







Friends,
             The hindutva politics conducted  from the Gorakhnath Peeth has been attacking the communal harmony of our state for a long time. The fascist ideology of this politics has its manifestations in some of the dreaded terror blasts in Malegaon, Samjhauta Express, Mecca masjid, Ajmer shrine etc. ‘‘Saffron War’’ is an attempt to understand & analyse the various social, religious, historical & political aspects of this phenomenon, which tends to convert this land of Buddha, Gorakh & Kabir into the battlefield to wage a war against secular India .You all are invited in this discussion.

Realesed by- Md Shoaib, Sandeep Pandey, S.R Darapuri, Arundhati Dhuru, Ambreesh Kumar, Siddhartha Kalhans, Randheer Singh ‘Suman’. Ekta Singh, Ravi Shekhar.
Cotact- 09415012666] 09415022722] 09307140390] 09369444528

छत्तीसगढ़ में वापस लौटे ‘अंग्रेज’

केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने पिछले दिनों एक अधिसूचना जारी की। इसमें नक्सल प्रभावित जिलों में वन कानूनों में छूट देने की बात कही गई। वन संरक्षण अधिनियम, 1980 की धारा 2 में संशोधन के जरिये दी जाने वाली इस छूट से नक्सल प्रभावित इलाकों में पुलिस और सुरक्षा बलों को नई चौकियां स्थापित करने में मदद मिलेगी। अभी तक वन संरक्षण से जुड़े कानून पुलिस को वहां स्थायी चौकियां स्थापित करने की इजाजत नहीं देते थे। लेकिन पिछले दिनों से जैसे-जैसे नक्सल प्रभावित देश के मध्यवर्ती प्रदेशों में सुरक्षा बलों की आमदरफ्त बढ़ी
है, सुरक्षा बलों के लिए स्थायी चौकियों की जरुरत महसूस की जा रही थी।
सरकार का यह फैसला इतिहास का दुहराव है। आज जिन इलाकों को नक्सल प्रभावित के रूप में चिन्हित किया जा रहा है और वहां स्थायी पुलिस चौकियां स्थापित करने की मांग की जा रही है, ऐसी ही कोशिश डेढ़-दो सौ साल पहले भी इन इलाकों में अंग्रेजी हुकूमत ने की थी। तब छोटा नागपुर और सांथाल परगना के समृद्ध इलाकों का दोहन करने के लिए अंग्रेजों ने पहले बाहरी लोगों को इन इलाकों में भेजा। फिर उनके जरिये इन इलाकों का दोहन शुरू कर दिया, जिसके बाद आदिवासियों से उनके टकराव बढ़ने लगा। तब अंग्रेजों ने कानून व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर आदिवासी इलाकों में पुलिस चौकियां स्थापित करनी शुरू कर दी। आजाद ख्याल आदिवासियों को बाहरी लोगों की यह दखलंदाजी पसंद नहीं आई और उन्होंने इसका संगठित प्रतिरोध किया। परिणामस्वरूप आज इन इलाकों में सिद्धू-कानू, बिरसा मुंडा, चोट्टिी मुंडा और उन जैसे अनेक आदिवासी वीरों की कहानियां हमारे सामने हैं। मातृभूमि की रक्षा के लिए यह आदिवासी विद्रोहों के परम्परा की शुरुआत थी।

अब जरा उन डेढ़-दो सौ साल पहले के आदिवासी विद्रोहों को आज के संदर्भों में रखकर देखें। छोटा नागपुर, सांथाल परगना के इलाके झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के नाम से आज भी मौजूद हैं। आज उन जंगलों में फिर नए सिरे से पुलिस चौकियां स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन अब यह काम अंग्रेजी सरकार नहीं बल्कि भारतीय सरकार कर रही है। यह वही भारतीय सरकार है जो समय-समय पर आदिवासियों को ‘अपना’ कहती है। आदिवासियों के समक्ष भी यह दुहरी चुनौती है। पहले जो अंग्रेज आये उनका चरित्र साफ था। वह बाहरी थे और उनके खिलाफ आदिवासी क्षेत्र के बाहर भी आक्रोश था। यहां सरकार आदिवासियों को ‘अपना’ तो कहती है, लेकिन काम वही अंग्रेजों जैसा कर रही है। अंग्रेजों की तरह भारत सरकार भी आदिवासियों के समृद्ध इलाकों का दोहन करने के लिए उन्हंे अपने जमीन से उखाड़ देना चाहती है। एक तरफ वन अधिकार कानून के जरिये उन्हें वन भूमि पर अधिकार देने की बात की जाती है, तो दूसरी तरफ सलवा जुडूम के नाम पर उन्हें उनके गांवों से निकाल कर अस्थायी कैम्पों में बसाया जा रहा है। हास्यास्पद यह कि राज्य सरकार द्वारा इसे ‘विकास’ का नाम दिया जा रहा है। कुछ वैसा ही विकास जैसा की अंग्रेज मिशनरियां आदिवासियों को अपने मिशन में भर्ती कर उन्हें ‘सभ्य’ करने की कोशिश करती रही हैं। आदिवासियों के प्रति अंग्रेजी सरकार या भारत सरकार के चरित्र में कोई मूलभूत अंतर नहीं है।
दरअसल यही ऐतिहासिक कारण है कि भारत सरकार को इन इलाकों में और अधिक पुलिस चौकियां स्थापित करने की जरुरत महसूस हो रही है। आदिवासियों को ‘अपना’ कहने वाली सरकारों ने कभी भी उन्हें वनभूमि पर वास्तविक कब्जा दिलाने में ऐसी तत्परता नहीं दिखायी, जैसा की वह पुलिस चौकियां स्थापित करने के कानूनों में परिवर्तन कर रही हैं। ऐसे इलाकों में पुलिस या सुरक्षा बलों के संबंद्ध में यह बात किसी से छिपी नहीं है कि वह जब जंगल के भीतर आदिवासी गांवों में प्रवेश करती है तो कैसा कहर ढाती है। सत्ता, उन्हें जिस दुविधा और असुरक्षा भरे माहौल में रखती है, वह आम ग्रामीण और हथियारबंद माओवादी में अंतर नहीं कर पाते। उनको जंगलों में बसा हर आदिवासी खतरनाक माओवादी या उसका मुखबिर लगता है। आदिवासी महिलाओं-बच्चों को जलील करना, उनके अनाजों में किरोसीन तेल मिला देना या उनकी मुर्गियां-पशु चुरा ले जाना सुरक्षा बलों की जांच का आम तरीका है।
नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकारें पहले भी शांति स्थापना के नाम पर स्कूल, अस्पतालों और सरकारी भवनों को सैन्य छावनी के रूप में प्रयोग करती रही हैं। इसीलिए इन इलाकों में ऐसे भवन नक्सली या माओवादियों के निशाने पर होते हैं। उनका इरादा स्कूल या अस्पताल को ढहाना नहीं होता, बल्कि वह इसके नाम पर छावनी में तब्दील कर दिये गए भवनों को नष्ट करते हैं। अब सरकार सीधे वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन करके आदिवासियों के प्रति अपने हिंसक मंसूबों को एक बार फिर जाहिर कर चुकी है। यह सबकुछ इन इलाकों को माओवादियों से मुक्त करने और यहां शांति स्थापित करने के नाम पर किया जा रहा है। जबकि इतिहास गवाह है कि पुलिस चौकियां या सैन्य छावनियां बनाने से नहीं बल्कि इन्हें हटाने से ही ऐसे इलाकों में शांति स्थापित हो सका है। शांति स्थापना के इस खेल में पुलिस चौकियांे का बनना और आदिवासियों का प्रतिरोध दोनों ही इतिहास का दुहराव है।

विजय प्रताप

स्वतंत्र पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता. इनसे vijai.media@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.