जस्टिस हेगड़े की मजबूरी

विजय प्रताप

लोकपाल पर तमाम बहसों के बीच कर्नाटक के लोकपाल जस्टिस संतोष हेगड़े को अंततः कहना पड़ा कि कर्नाटक में खनन माफियाओं के खिलाफ उनकी रिपोर्ट पर सरकार से नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट से ही किसी कार्रवाई की उम्मीद है। जस्टिस हेगड़े का यह वक्तत्व लोकपालों की प्रकाष्ठा का प्रदर्शन है। भ्रष्टतंत्र के आगे उनकी हिम्मत बौनी साबित हो रही है।
दरअसल राज्य में अवैध खनन के मामले में जस्टिस हेगड़े द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट में मुख्यमंत्री वीएस येदुरप्पा सहित कई नेताओं को खनन माफियाओं को कटघरे में खड़ा किया गया है। हेगड़े का आरोप है कि उनके फोन भी टेप किए गए। इस रिपोर्ट के लीक होने के साथ ही कर्नाटक की राजनीति में उथलपुथल मची हुई है। भाजपा नेता उन पर दबाव डाल रहे हैं कि रिपोर्ट से मुख्यमंत्री का नाम अलग कर दिया जाए। खुद हेगड़े स्वीकार करते हैं कि भाजपा सांसद धनजंय कुमार उनके घर आकर येदुरप्पा का नाम हटाने को कह चुके हैं।
हजारों करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए यह राजनीतिक नाटक कोई नया नहीं है। पहले भी भ्रष्टाचार के मामलों में ऐसी उठापठक होती रही है और अधिक से अधिक उस मुख्यमंत्री की जगह कोई नया मुख्यमंत्री ले लेता है, लेकिन भ्रष्टाचार बदस्तूर जारी रहता है। इस मामले में कुछ गौर करने लायक है तो वह है लोकपाल की मजबूरी। निसंदेह कर्नाटक के लोकपाल जस्टिस हेगड़े अन्य राज्यों के लोकपालों की तरह अपने पद से चिपके रहने वाले जोंक नहीं है, बल्कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है। लेकिन अंतिम समय में उनकी यह मजबूरी की ‘हमें सरकार से कोई उम्मीद नहीं’, अंततः भ्रष्टाचार के आगे घुटने टेकती नजर आती है। उनका विधायिका से ज्यादा न्यायपालिका पर भरोसा करना भी कई सवाल खड़ा करती है। संसदीय प्रणाली में विधायिका को सर्वोच्च माना गया है। नए कानून बनाने या पुराने को जरुरत के मुताबिक फेरबदल करने का अधिकार विधायिका को मिला है। न्यायपालिका केवल उसकी संवैधानिकता तय करती है। यह दीगर बात है कि आज विधायिका से जस्टिस हेगड़े को कोई उम्मीद नहीं लेकिन इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि वो उसकी सर्वोच्चता को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट की शरण लें और जनतांत्रिक प्रणाली को चुनौती पेश करें।
अब अगर कोई लोकपाल ऐसा करता है तो उसकी मजबूरी को समझा जाना चाहिए। साथ ही एक ‘मजबूत लोकपाल’ पर हो रही तमाम बहसों को भी इसी आइनें में देखना चाहिए कि आखिर एक लोकपाल की प्रकाष्ठा क्या होगी? सरकार से हारकर सुप्रीम कोर्ट की शरण लेना? ेभारत में जब कोई समस्या राजनैतिक हो और विकराल रूप धारण कर चुकी हो तो सत्ता तुरंत उसका कानूनी हल ढूंढना शुरू कर देती है। राजनैतिक समस्याओं को कानूनी जाल में उलझा देना सत्ता की पुरानी चाल रही है। इससे समस्या हल होते दिखती भी है और अपना वजूद भी कायम रखती है। वर्तमान में इसे भ्रष्टाचार के संबंध में समझा जा सकता है। भ्रष्टाचार एक राजनैतिक-सामाजिक समस्या है। इसके बने रहने में राजनीतिक दलों और दबाव समूहों का फायदा है। अब चूंकि एक के बाद एक घोटालों के खुलासों ने भ्रष्टाचार की बहस को केन्द्र में ला दिया है, सत्ता फिर से इसका कानूनी हल ढूंढने का शिगूफा छोड़ रही है।
वर्तमान में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कई तरह के बिल संसद में पेश होने के लिए लंबित हैं। इसमें लोकपाल विधेयक, ब्हिसील ब्लोअर बिल और भ्रष्टाचार निरोधक कानून मुख्य हैं। जैसे-जैसे भ्रष्टाचार पर बहस तेज हो रही है सत्ता विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से बहसों को इन प्रस्तावित कानूनों के इर्द-गिर्द बहसों को सिमटा देना चाहती है। कानून बनाना और उन्हें लागू करना कत्तई गलत नहीं। लेकिन कानूनों का मकसद समस्याओं का समाधान करने के लिए उसे आम जनता और न्यायपालिका के बीच छोड़ देना कतई नहीं हो सकता। मौजूदा दौर में जितने भी तरह के नए कानून बन रहे हैं या पुराने कानूनों में संशोधन किया जा रहा है, उसका मकसद सरकार की भूमिका को सीमित करते हुए लोगों को न्यायपालिका के भरोसे छोड़ देना है। अगर किसी को कोई परेशानी है तो उसके लिए कानून बना है। वह न्यायपालिका के माध्यम से उस समस्या का समाधान तलाशता रहे। सत्ता की भूमिका कानून निर्माण तक सिमटा चुकी है। यहां तक कि जस्टिस हेगड़े भी यही कर रहे हैं।
जो लोग यह सोचते हैं कि लोकपाल बिल पास हो जाने से सरकारी भ्रष्टाचार पर लगाम कस सकता है, वह सत्ता की चक्करदार राजनीति के शिकार हैं। लोकतंत्र में कोई भी सरकारी पद राजनीति से अछूता नहीं हो सकता। अगर लोकपाल विधेयक पास भी हो गया तो राज्यों में लोकपाल उन्हें ही नियुक्त किया जाएगा जिसे विभिन्न राजनैतिक दल के सत्ता व विपक्ष में मौजूद प्रतिनिधि और उनके चहेते गैर सरकारी संगठनों के लोग चाहेंगे। मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में सत्ता में घूमफिर कर बने रहने वाले दलों में कोई बुनियादी अंतर मुश्किल है। ऐसे में इन दलों के प्रतिनिधि कतई नहीं चाहेंगे की कोई जस्टिस हेगड़े या तेजतर्रार व्यक्ति ऐसे पद पर पहुंचे, जिसे नियंत्रित करना उनके हाथ में न हो। अभी भी कई राज्यों में लोकपाल हैं, लेकिन उन्हें कोई नहीं जानता। भविष्य में भी लोकपाल जैसे पदों पर ऐसे ही जड़ाऊ लोग पसंद किये जाते रहेंगे।


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कानूनी जामा किसलिए ?


विजय प्रताप

भारत में जब कोई समस्या राजनैतिक हो और विकराल रूप धारण कर चुकी हो तो सत्ता तुरंत उसका कानूनी हल ढूंढना शुरू कर देती है। राजनैतिक समस्याओं को कानूनी जाल में उलझा देना सत्ता की पुरानी चाल रही है। इससे समस्या हल होते दिखती भी है और अपना वजूद भी कायम रखती है। वर्तमान में इसे भ्रष्टाचार के संबंध में समझा जा सकता है। भ्रष्टाचार एक राजनैतिक-सामाजिक समस्या है। इसके बने रहने में राजनीतिक दलों और दबाव समूहों का फायदा है। अब चूंकि एक के बाद एक घोटालों के खुलासों ने भ्रष्टाचार की बहस को केन्द्र में ला दिया है, सत्ता फिर से इसका कानूनी हल ढूंढने का शिगूफा छोड़ रही है।
वर्तमान में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कई तरह के बिल संसद में पेश होने के लिए लंबित हैं। इसमें लोकपाल विधेयक, ब्हिसील ब्लोअर बिल और भ्रष्टाचार निरोधक कानून मुख्य हैं। जैसे-जैसे भ्रष्टाचार पर बहस तेज हो रही है सत्ता विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से बहसों को इन प्रस्तावित कानूनों के इर्द-गिर्द बहसों को सिमटा देना चाहती है। कानून बनाना और उन्हें लागू करना कत्तई गलत नहीं। लेकिन कानूनों का मकसद समस्याओं का समाधान करने के लिए उसे आम जनता और न्यायपालिका के बीच छोड़ देना कतई नहीं हो सकता। मौजूदा दौर में जितने भी तरह के नए कानून बन रहे हैं या पुराने कानूनों में संशोधन किया जा रहा है, उसका मकसद सरकार की भूमिका को सीमित करते हुए लोगों को न्यायपालिका के भरोसे छोड़ देना है। अगर किसी को कोई परेशानी है तो उसके लिए कानून बना है। वह न्यायपालिका के माध्यम से उस समस्या का समाधान तलाशता रहे। सत्ता की भूमिका कानून निर्माण तक सिमटा चुकी है।
भ्रष्टाचार की समस्या को हल करने के लिए कुछ संगठन सत्ता के इशारों पर संसद में लंबित लोकपाल विधेयक, भ्रष्टाचार निरोधक कानून और व्हिसील ब्लोअर बिल को पास करने की मांग तेज कर दिये हैं। ऐसे में नए विधेयकों और कानूनों को समझने की कोशिश जरूरी है। लोकतंत्र की अन्य संकल्पनाओं की तरह लोकपाल या अंग्रेजी के ‘ऑम्बुड्समैन’ की अवधारणा पश्चिमी देशों की देन है। किसी राज्य में लोकपाल की जिम्मेदारी सरकार से अलग स्वतंत्र रूप से उसके कामकाज पर निगरानी रखने और गलत कार्यों का जांच कर अपनी रिपोर्ट देने की रही है। एक तरह से देखें तो लोकपाल बहुत ही सशक्त और जिम्मेदार पद दिखता है। जिसका पास भ्रष्टाचार की किसी भी तरह की शिकायतों या सूचनाओं पर स्वतंत्र जांच का अधिकार होता है। हालांकि लोकपाल की रिपोर्टों पर कार्रवाई करना या न करना राज्य पर निर्भर करता है। भारत में भी कई प्रदेशों ने लोकपाल नियुक्त कर रखे हैं। हालांकि कर्नाटक के लोकपाल जस्टिस संतोष हेगड़े को छोड़कर ज्यादातर लोकपालों के बारे में लोगों कोे कोई जानकारी नहीं होती। पिछले दिनों कर्नाटक के लोकपाल संतोष हेगड़े प्रदेश के खनन माफिया और सरकार में सशक्त मंत्री जर्नादन रेड्डी और उनके भाइयों के खिलाफ वैध खनन से संबंधित अपनी रिपोर्ट से चर्चा में आए। उन्होंने खनन के मामलों में अपनी जांच रिपोर्ट में कर्नाटक की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री वी एस येदुरप्पा सहित कई नेताओं को कटघरे में खड़ा कर दिया है। सरकार से टकराव के चलते एक बार उन्हें अपने पद से इस्तीफे की पेशकश भी करनी पड़ी। भारत में सक्रिय लोकपाल की यह प्रकाष्ठा है।
जो लोग यह सोचते हैं कि लोकपाल एक स्वतंत्र पद है और वह सरकारी भ्रष्टाचार पर लगाम कस सकता है, वह सत्ता की चक्करदार राजनीति के शिकार हैं। लोकतंत्र में कोई भी सरकारी पद राजनीति से अछूता नहीं हो सकता। अगर लोकपाल विधेयक पास भी हो गया तो राज्यों में लोकपाल उन्हें ही नियुक्त किया जाएगा जिसे विभिन्न राजनैतिक दल के सत्ता व विपक्ष में मौजूद प्रतिनिधि और उनके चहेते गैर सरकारी संगठनों के लोग चाहेंगे। मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में सत्ता में घूमफिर कर बने रहने वाले दलों में कोई बुनियादी अंतर मुश्किल है। ऐसे में इन दलों के प्रतिनिधि कतई नहीं चाहेंगे की कोई निष्पक्ष या तेजतर्रार व्यक्ति ऐसे पद पर पहुंचे, जिसे नियंत्रित करना उनके हाथ में न हो। अभी भी कई राज्यों में लोकपाल हैं, लेकिन उन्हें कोई नहीं जानता। यह ऐसे ही लोग होते हैं, जो सत्ता द्वारा पद की शोभा बढ़ाने के लिए नियुक्त किये जाते हैं। ऐसे में लोकपालों से भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की उम्मीद बेमानी ही साबित होगी। इस समय लोकपाल विधेयक के लिए संघर्ष करने वाले संगठन और लोग या तो भोल हैं या फिर सत्ता के एहसानों का कर्ज चुकाने के लिए उसके इशारों पर जनमत तैयार कर रहे हैं।
इसी तरह मौजूदा समय में जब भ्रष्टाचार संगठित उद्योग बन चुका है, ‘व्हिसील ब्लोअर बिल’ के जरिये भ्रष्टाचार से संघर्ष करने वाले व्यक्तियों को सुरक्षा और बढ़ावा दे पाना संभव नहीं लगता। भ्रष्टाचार के संबंध में कुछ भी ऐसा नहीं होता जिसकी जानकारी सरकार या सरकारी अधिकारियों को नहीं होती। वह लगातार इसके जरिये फायदा उठाते रहते हैं। लेकिन ईमानदार लोगों व नौकरशाहों को लगता है कि शायद उनकी कोशिशों से किसी खास क्षेत्र में फैला भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। इसी चक्कर में उन्हें भ्रष्टाचार माफियों से टकराना भी पड़ता है और अपनी जान से हाथ भी धोना पड़ता है। महाराष्ट्र के अपर जिला कलक्टर यशवंत सोनवणे इसके ताजा उदाहरण हैं। उनसे पहले भी सत्येन्द्र दुबे, मंजुनाथ षडमुगम और सूचना अधिकार कार्यकर्ता सुशील शेट्टी व अमित जेठवा को इसी चक्कर में अपनी जान गंवानी पड़ी। सत्ता अपनी साफ छवि और खुद को भ्रष्टाचार विरोधी साबित करने के लिए अब ‘व्हिसील ब्लोअर बिल’ के माध्यम से ऐसे लोगों की सुरक्षा का शिगूफा छोड़ रही है। इससे वह जताना चाहती है कि भ्रष्टाचार से लड़ने वाले लोगों को लेकर वह कितनी चिंतित है। लेकिन यहां भी वही सवाल उठता है कि क्या इस बिल के पारित हो जाने के बाद वास्तव में भ्रष्टाचार में कोई गुणात्मक कमी आएगी या भ्रष्टाचारियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे लोगों की हत्याएं रूक पाएंगी? ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था के बीच यह उम्मीद करना कि भ्रष्टाचारी कानून से डरेंगे, संभव नहीं। भ्रष्टाचार रोकने के लिए भारतीय संविधान और भारतीय दंड संहिता में पहले से ही कई धाराएं मौजूद हैं। बावजूद इसके हत्याएं नहीं रुक रहीं तो नए कानूनों से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि उसके लागू होते ही भ्रष्टाचारी डर जाएंगे।
इस तरह के विधेयकों पर बहस से पूर्व हमें ये सोचना होगा कि कानूनों के इस जाल में हमें कौन और क्यों उलझा रहा है? भ्रष्टाचार से संबंधित कानून जब भारत में पहले से ही मौजूद हैं और अभी तक उन्हीं के आधार पर भ्रष्टाचारियों को सजा होती आई है तो नए-नए कानूनों की जरुरत किसे है? सरकार से एक सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि वह भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कानूनी समाधान ही क्यों तलाश रही है? जबकि इसका सबसे बड़ा स्रोत वे नीतिगत बदलाव हैं जो ट्रिकल डाउन थ्यिोरी पर आधारित है।
पिछले कुछ दशकों में नई आर्थिक नीतियों के चलते उपजी समस्याओं से सत्ता लगातार अपना पीछा छुड़ाने की कोशिश करती रही है। चूंकि यह उसी की नीतियों की उपज होती हैं और इन्हें हल करना उन नीतियों से द्वंद पैदा करता है, ऐसे में सत्ता का टालू रवैया ही उसके लिए हितकर रहा है। इस टालू रवैये के रूप में ही उसने नए कानूनों को अपना हथियार बना लिया है। मसलन अगर नई नीतियों के चलते बालश्रम बढ़ रहा है तो पुराने बालश्रम कानून को नया जामा पहना दिया गया। महिलाओं पर हिंसा एक सामाजिक समस्या है, लेकिन उसे हल करने के लिए कोई सामाजिक हल ढूंढने की बजाय, नए घरेलू महिला हिंसा अधिनियम के जाल में उलझा दिया गया। अब महिलाओं पर कोई हिंसा होती है तो वह खुद न्यायपालिका की शरण ले और सालों साल केस लड़ती रहे। यहां यह बहस का विषय हो सकता है कि बदलते माहौल में कानूनों में बदलाव जरूरी है। लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि उसका उद्देश्य क्या है? हमें यह समझना होगा कि राजनीतिक-सामाजिक समस्याओं को कानूनी तरीके से हल नहीं किया जा सकता। ऐसी समस्याओं का समाधान राज्य की मुट्ठी में होता है। इसमें कई समस्याओं को सामाजिक गैरबराबरी खत्म करके दूर किया जा सकता है। लेकिन यह सब भारतीय राजनीति के चुनावी दलों के एजेण्डे से बाहर की बहस है। ऐसी बहसों से दूर रहने के लिए ही सत्ता कानूनों का सहारा लेती है। जैसे की वह फिलहाल भ्रष्टाचार की बहसों से बचने के लिए फिर से ऐसी कोशिशों में जुटी दिख रही है।

संप्रति: स्वतंत्र पत्रकार
संपर्क: प्रथम तल, सी-2
पीपलवाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन
दिल्ली-42

‘आस्था’ की राजनीति

विजय प्रताप

बचपन में हम लोग किसी को विश्वास दिलाने के लिए झठ से भगवान की कसमें खा लिए करते थे। तब एक डर था कि भगवान की झूठी कसम खाने से जरूर कुछ अनिष्ठ होगा। समय के साथ यह धारणा बदलती गई। विज्ञान ने तर्क दिए और फिर भगवान की कसमों से डर खत्म हो गया। लेकिन अभी भी लोग समय-समय पर भगवान का सहारा अपनी विश्वसनीयता साबित करने के लिए लेते रहते हैं।
जमीन के मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा ने अपनी विश्वसनीयता सिद्ध करने के लिए भगवान की शरण में पहुंच गए हैं। उन्होंने अपने पर आरोप लगाने वाले विपक्षी पार्टी जनता दल सेक्युलर के नेता कुमारास्वामी को खुली चुनौती दे डाली की ‘उनकी ईश्वर में थोड़ी सी भी आस्था है तो वह जमीन के मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों को वह मंदिर में दुहरा दें।’ सीधा साधा कोई ईश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति होता तो ऐसी खुली चुनौती से एकबरगी सही होते हुए भी डर जाता। लेकिन कुमारास्वामी भी ठहरे राजनीतिज्ञ, उन्होंने येदुरप्पा की चुनौती स्वीकार कर ली है। जनता द्वारा चुने गए ये प्रतिनिधि अब भगवान के दरबार में अपने को पाक साफ साबित करने की कोशिश करेंगे। हांलाकि इसमें कोई भ्रम नहीं की मंदिर में आरोप को दोहराने या न दोहराने से येदुरप्पा पाक साफ साबित नहीं होने जा रहे। लेकिन एक ‘आस्थावान’ नेता के रूप में अपनी छवि को जरूर मजबूत करेंगे।
अब सवाल ये है कि चुने प्रतिनिधियों या आमजन के नाम पर राजनीति करने वाले विभिन्न पार्टियों के नेताओं का इस तरह का व्यवहार कहां तक उचित है? संवैधानिक रूप से भारत एक धर्मनिरपेक्ष, पंथनिरपेक्ष, समाजवादी राज्य है। इसका सीधा मतलब है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा बल्कि यह लोगों की निजी मामला होगा। राज्य या राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति का सार्वजनिक जीवन में धर्म और आस्था से कोई मतलब नहीं होगा। बी.एस. येदुरप्पा एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं और उनकी इस तरह की गतिविधि का सीधा मतलब है कि वो राज्य के अन्य समुदाय के लोगों के विश्वास को ठेस पहुंचा रहे हैं। उनकी यह गतिविधी न केवल पक्षपातपूर्ण बल्कि गैरसंवैधानिक भी है। उन पर लगे आरोप कोई अमूर्त नहीं है, बल्कि उसका ठोस आधार है। इसका फैसला करने के लिए संविधान में न्यायपालिका का प्रावधान है, लेकिन मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर रहते हुए भी संविधान का माखौल उड़ाते हुए वह ईश्वर के दरबार में अपने को पाक साबित करना चाहते हैं।
कहा जाता है ‘जैसा राजा, वैसी प्रजा’। एक मुख्यमंत्री के बतौर वह राज्य के लोगों के लिए मार्गदर्शक की तरह हैं। उनके दिखाए रास्तों पर ही राज्यमशीनरी काम करती है। मुख्यमंत्री के बतौर उनके इस प्रयोग का नतीजा कर्नाटक में पिछले कुछ वर्षों में साफ देखा-सुना जा सकता है। उनके आने के बाद से कर्नाटक में साम्प्रदायिक दंगों में इजाफा हुआ है। साम्प्रदायिक शक्तियों से यहां के ईसाइ और मुस्लिम समुदाय आतंकित है। श्रीराम सेना जैसे संगठन सांस्कृतिक पुलिसिंग के तहत युवाओं को क्या करें, क्या नहीं करें के संबंध में निर्देश दे रहे हैं।
धर्म और राजनीति के बीच घालमेल राज्य को फासीवादी की तरफ ले जाता है। ऐसा नहीं है कि यह फासीवादी रुझान केवल कर्नाटक में देखने को मिल रहा है, बल्कि भाजपा शासित अन्य राज्य भी ऐसे ही साम्प्रदायिक माहौल में फलफूल रहे हैं। गुजरात, मध्य प्रदेश, उतराखंड और छत्तीसगढ़ में धर्म और राज्य की भूमिका एक दूसरे में समाहित हो गई है। विकास की आड़ में गुजरात में राज्य की साम्प्रदायिकता को वैधता दिलाने की लगातार कोशिश हो रही है। मध्यप्रदेश में यह प्रयोग निचले स्तर से जारी है। स्कूलों और संघ की शाखााओं में होने वाली गतिविधियों के बीच का अंतर समाप्त हो रहा है। वहां ‘भगवा बिग्रेड’ जैसी संस्थाएं खुलेआम ‘हिंदू योद्धाओं’ की भर्ती कर रही हैं, जिनका स्वाभाविक प्रयोग दूसरे धर्म और सम्प्रदाय के लोगों के खिलाफ किया जाता रहा है। म. प्र. में छोटे-छोटे साम्प्रदायिक दंगों व तनावों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। उत्तराखंड में हिंदू धर्म से जुड़े ज्यादातर कार्यक्रमों में न केवल मुख्यमंत्री-मंत्री मौजूद रहते हैं बल्कि एक कार्यक्रम में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितीन गडकरी को मुख्यअतिथि के बतौर बुलाया गया और इसके लिए सभी बड़े अखबारों में पूरे पेज का विज्ञापन जारी किया गया। सवाल है कि गडकरी किस संवैधानिक पद पर हैं, जिन्हें किसी सरकारी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनाया गया और सरकारी मद से विज्ञापन दिया गया?
धर्म और राजनीति के बीच घालमेल का एकाधिकार भाजपा या उसके नेताओं तक सीमित नहीं है। कांग्रेस और दूसरी अन्य पार्टियां भी कमोबेश उसी रास्ते पर हैं। अभी हाल में पुट्टपर्थी में सत्य साईं बाबा के निधन पर कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी सहित सभी राजनैतिक दलों के नेताओं का वहां तांता लगा रहा। इन सबके बीच ये सवाल गुम हो गया कि बाबा के पास करोड़ों रुपए का सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात कहां से आए? उनको गुमनाम दान करने वाले कौन लोग होते हैं? मामला चूंकि एक बाबा का था और वहां भी ‘आस्था’ हावी थी, इसलिए भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने वाली सिविल सोसाइटी और दूसरे बाबा भी इस पर मौन साधे रहे।
धर्म और आस्था, चूंकि एक बड़े जनसमुदाय के निहायत निजी मामलों में से एक है, इसलिए सभी राजनैतिक दल कहीं न कहीं अपने आपको सबसे बड़ा धार्मिक या आस्थावान साबित करने में लगे रहते हैं। ताकि लोगों का जनमत हासिल किया जा सके। वर्तमान में ‘आस्था’ ऐसा आवरण हो गई है, जिसकी आड़ में सबकुछ माफ है।

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