सामूहिक कब्रों के देश में...
विजय प्रताप
अभी कश्मीर में सामूहिक कब्रें मिलने का मामला शांत ही नहीं हुआ था कि मेघायल में भी ऐसी कब्रें मिलने की खबर आ गई। यहां एक अलगाववादी संगठन गारो नेशनल लिबरेनश आर्मी ने दावा किया है तूरा और सामंद में अचिन्हित कब्रें हैं, जिसमें आम लोगों को दफन किया गया है। हालांकि इस अलगाववादी संगठन ने इसके लिए अपने प्रतिद्वंदी संगठन आचिक नेशनल वालिंटियर काउंसिल को जिम्मेदार ठहराया है, जो सरकार के साथ बातचीत में शामिल है।
भारत में सामूहिक कब्रें मिलने का यह कोई पहला मौका नहीं है। कश्मीर में कई बार सामूहिक कब्रें मिलने की खबरें आई हैं। हालांकि इस बार यह बात किसी अलगाववादी या सरकार विरोधी संगठन की बजाय खुद राज्य के मानवाधिकार संगठन ने उठाई है। कश्मीर के राज्य मानवाधिकार आयोग ने अपनी जांच में पाया कि 38 गैर सूचित कब्रों में 2156 शव दफन हैं। इसमें से 574 शवों को स्थानीय लोगों ने अपने परिचितों का होने का दावा किया है। इससे पहले वर्ष 2008 में भी एक ट्रिब्यूनल के सदस्य एडवोकेट परवेज इमरोज और अंगना बनर्जी ने बारामूला, कुपवाड़ा राजौरी, उरी और अन्य जिलों में एक हजार से अधिक कब्रें मिलने का दावा किया था। कश्मीर में पिछले दो दशकों से चल रहे अघोषित युद्ध में अभी तक हजारों लोग मारे जा चुके हैं। इसमें वो सभी शामिल हैं जो या तो सुरक्षा बलों की गोलियों से मारे गए या फिर अलगाववादियों के शिकार हुए। इन सभी लोगों को अघोषित कब्रों में दफना दिया जाता है, जिसका सरकारी आंकड़ों में कोई रिकार्ड नहीं होता। कई बार सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए आतंकियों के रूप में भी आम लोगों को इन कब्रों में दफना दिया जाता है, ताकि उनकी हत्या पर कोई सवाल न उठ सके। कश्मीर में अभी भी हजारों लोग गायब हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि वह सुरक्षा बलों के हाथों मारे जा चुके हैं और इन्हीं अज्ञात कब्रों में दफन कर दिए गए हैं।
दरअसल, ये कब्रें हमारी व्यवस्था की नाकामियों की प्रतीक हैं। एक लोकतांत्रिक देश में ऐसी कब्रों का मिलना पूरे व्यवस्था पर प्रश्न उठाती है। भले ही इसमें दफन लोग अलगाववादियों के हाथों मारे गए हों या सुरक्षा बलों का निशाना बने हों सवाल उठना वाजिब है। किसी लोकतांत्रिक देश में अब सत्ता को किसी समस्या से निपटने के लिए इस तरह के तरीकों का सहारा लेना पड़े कि उसके सैनिक लोगों का कत्लेआम करें, या फिर किसी देश में लोगों का गुस्सा इस कदर भड़क उठे कि वो हथियार लेकर बगावत पर उतर आए तो, ऐसे में उसके लोकतंात्रिक होने पर प्रश्न उठने ही चाहिए। कश्मीर से पहले एक दौर में पंजाब में भी ऐसी ही अचिन्हित कब्रें मिला करती थी। यह वो दौर था जब एक बड़ा पेड़ गिरा था और उसे गिराने वाले लोगों के समुदाय को सामूहिक रूप से दफन करने की अघोषित छूट मिल गई थी। तब घोषित तौर पर ऑपरेश ब्लू स्टार चलाकर हजारों सिखों की हत्या की गई। इन हत्याओं का नेतृत्व करने वाले पुलिस अधिकारी को बाद में सत्ता ने पुरस्कार के तौर पर कई विशिष्ठ पदों पर भी बैठाया। वर्ष 2008 में छत्तीसगढ़ भी अचिन्हित कब्रें मिली। पुलिस का दावा था कि इसमें मुठभेड़ों में मारे गए नक्सलियों के शव दफन हैं। हालांकि नक्सलियों का कहना था कि इसमें ज्यादातर दफन लोग आदिवासी हैं, जो पुलिस ज्यादतियों का शिकार हुए। मेघालय की घटना से जाहिर है कि उत्तर-पूर्व में भी ऐसा ही चल रहा है। उत्तर-पूर्व के आठों राज्य फिलहाल अलगाववाद से जूझ रहे हैं। वहां सैकड़ों ऐसे गुट हैं जो अपनी-अपनी अस्मिता का समाधान बंदूक से चाहते हैं। सत्ता और इन गुटों के अस्मिता संघर्ष की लड़ाई में यहां भी हजारों लोग मारे जा चुके हैं।
दावे चाहे जो हों लेकिन सवाल हमारी व्यवस्था पर ही उठते हैं। आखिर 65 सालों के कथित सफल लोकतंत्र में क्या हमने यही हासिल किया है। विकास के तमाम दावों के बीच अगर हमारे अपने ही लोग अज्ञात मौतें मरने को विवश हों तो क्या हमारे लिए सामूहिक शर्म की बात नहीं होनी चाहिए। हमे याद है कि कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने अपने ऐतिहासिक तौर पर हुई पुरानी गलतियों के लिए सार्वजनिक माफी मांगी। क्या हमारे देश के प्रधानमंत्री यह जिम्मेदारी अपने पर लेंगे कि उनके देश में अघोषित कब्रों में दफन हजारों लोगों के साथ अन्याय हुआ है, और देश इसके लिए शर्मसार है। मुझे पक्का विश्वास है कि हमारे देश के रहनुमाओं में इतनी ताकत नहीं है कि वो अपनी गलतियों को स्वीकार करें। इसके लिए उन्हें मजबूर करना होगा। सामूहिक कब्रों के मिलने का सिलसिला बंद होना चाहिए। जैसा की कश्मीर के मानवाधिकार आयोग ने कहा कि इन सभी की जांच होनी चाहिए क्यों न एक राष्ट्रीय नीति बनाकर देश में जहां कहीं सामूहिक कब्रे हैं उसकी जांच की जाए। इन कब्रों में दफन किए गए लोगों की डीएनए जांच कराई जाए और उनकी हत्या के लिए दोषी लोगों को चिन्हित किया जाए। चाहे ये लोग सेना के हों या आतंकी संगठनों के सजा सभी को मिलनी चाहिए।
संप्रति - पत्रकार
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