संघलता का संघर्ष


विजय प्रताप 
दिल्ली में एक छात्रा के साथ बलात्कार की घटना की बाद देश में अपने-अपने तरह  की प्रतिक्रिया दिखाई दी। अपने गुस्से को लोगों ने तरह-तरह जाहिर किया। प्रदर्शन करने वालों ने कोटा में स्कूली छात्राओं को सीटी पकड़ा कर विरोध किया। उनका तर्क था कि छेड़खानी हो तो लड़कियां सीटी बजाकर आस-पास के लोगों को सहायता के लिए बुला सकती हैं। इसके अलावा सीसीटीव को भी एक इलाज के तौर पर पेश किया गया, जिसकी वकालत दिल्ली की एक मंत्री किरण वालिया करती दिखीं। यह नए दौर के प्रबंधन की पढ़ाई पढ़कर निकले लोगों के तकनीकी मैनेजमेंट है। जो तरीका वो एक मशीन के लिए आजमा देते हैं, उसी तकनीकी दिमाग से सामाजिक समस्याओं को सुलाझाने की कोशिश करते हैं। बहरहाल जिन्हें लगता है कि लड़कियों की सुरक्षा कोई तकनीकी मामला है उनको एक वाकया बताना जरूरी लगता है।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अन्तर्गत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मॉनिटरिंग सेंटर (ईएमएमसी) सभी चैनलों पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों की निगरानी करता है। वहां मॉनिटर के तौर पर काम करने वाले 3 महीने के ठेके पर रखे जाते हैं, और अधिकारियों की कोई नाराजगी ना हो तो आमतौर पर ठेके की अवधि बढ़ती रहती है। वहां काम करने वाली हमारी एक साथी संघलता ने अपने एक सहकर्मी पर कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए और इसकी लिखित शिकायत अपने कार्यालय में दर्ज कराई। सेंटर की निदेशक रंजना देव ने संघलता को अपने केबिन में बुलाया और इस बात के लिए जमकर डांट लगाई की वो इस तरह की शिकायत करने की हिम्मत कैसे की। निदेशक महोदया ने उनके परिवार पर भी दबाव बनाया। हालांकि महिला उत्पीड़न की शिकायत ईएमएमसी में कोई पहली घटना नहीं थी। पहले भी कई बार शिकायतें हुईं और संघलता ने जिस व्यक्ति के खिलाफ शिकायत की उस के खिलाफ और भी कई शिकायतें हैं। लेकिन उसी दफ्तर के कुछ बुजुर्ग कर्मचारी आरोपी को बचाने में लगे हैं सो उसका हौसला बढ़ता गया। कई लड़कियों ने मजबूरी में नौकरी ही छोड़ देना बेहतर समझा, तो कइयों को इसके लिए मजबूर कर दिया गया। दरअसल ईएमएमसी अपने बनने के बाद से ही अधिकारियों की मनमर्जी का शिकार हैं। किसी ने अपनी बहु और उनकी बहनों को नौकरी पर रख लिया तो किसी ने अपने दोस्त के बेटे को नौकरी में लगवा दिया। इसी मनमर्जी के चलते कुछ कर्मचारी अपने को किसी भी कानून से ऊपर समझने लगे।
लगातार प्रताड़ना के बाद भी संघलता अपनी बात पर अडी रही और उसने राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में भी अपनी शिकायत भेजी। कई दिनों तक उसे कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। इस दौरान उसे कार्यालय में लगातार प्रताड़ित किया जाता रहा गया। उसकी शिकायत जिस व्यक्ति के खिलाफ थी उसे भी उसी के साथ काम करने और एक ही गाड़ी में बिना किसी सुरक्षा के रात 12 बजे घर जाने को मजबूर किया जाता रहा। उसकी कई बार भागदौड़ के बाद महिला आयोग ने ईएमएमसी को एक औपचारिक नोटिस भेजकर जवाब मांगा। निदेशक महोदया जवाब में उल्टे संघलता को दोषी बताया। कहा कि वो उन्हें विश नहीं करती, वरिष्ठ अधिकारियों से ढ़ंग से बात नहीं करती, ऑफिस के खिलाफ षडयंत्र कर रही है और उसे इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया है। संघलता के लिए यह सबकुछ सहना आसान नहीं था। उसके शिकायत की कीमत उसे नौकरी गंवा कर चुकानी पड़ी। यह नौकरी उसके पूरे परिवार के लिए जरूरी थी। मैंने खुद तत्कालिन सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी को पत्र लिखकर ये शिकायत की लेकिन कार्रवाई तो दूर जवाब देना भी मुनासिब नहीं समझा।
अब जिन्हें लगता है कि लड़कियों की सुरक्षा किसी सीटी बजाने या सीसीटीवी कैमरे से हो सकती है, उन्हें संघलता जैसी लड़कियों की जमीनी हकीकत और संघर्ष को भी जानने की जरूरी है। महिलाओं के लिए अलग महिला थाने और महिला पुलिस की बात होती है। पुरुषवादी सत्ता के ढांचे में रची बसी ईएमएमसी की निदेशक रंजना देव, महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा और तत्कालिन सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी, किसी ने संघलता की शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया। फिर अलग महिला थाने या महिला पुलिस से क्या उम्मीद की जा सकती। संघलता अब तक महिला आयोग के चक्कर लगा रही, लेकिन उसकी शिकायत पर आगे कोई कार्रवाई नहीं हुई। दिल्ली वाली घटना के बाद अखबारों में पढ़ने को मिला की सोनिया गांधी महिला आयोग को कड़े शब्दों में कार्रवाई करने चेतावनी दी है। खबर पढ़कर मुझे संघलता का महिला आयोग के चक्कर लगाता चेहरा याद आया। आयोग के चक्कर लगाने के बाद जब लौटती तो हमें बताती कि कैसे वहां के कर्मचारी कोई प्रतिक्रिया नहीं देते या ये कहते हैं कि आपका ही केस नहीं है, यहां सैकड़ों फाइलें पड़ी हैं। मैंने कल्पना की कि वही कर्मचारी सोनिया गांधी को भी वही जवाब दे रहे हैं कि, एक आपका ही केस थोड़े है, ढेर सारी फाइलें पड़ी हैं।” 

सीसीटीवी में कैद समाज


विजय प्रताप
दिल्ली में एक छात्रा के साथ हुई बलात्कार की घटना के बाद वहां की महिला और बाल विकास मंत्री किरण वालिया ने सभी बसों में कैमरे लगवाने की घोषणा की। मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ जिले के एक गांव सारंग में ग्रामीणों ने चोरी की वारदात रोकने के लिए 90 सीसीटीवी कैमरे लगाने का फैसला किया। वहां की ग्राम सुरक्षा समिति इसके लिए चंदा करके 5 लाख रुपये जुटाएगी। इसी तरह सिरसा के आरएसडी कॉलोनी में एक संस्था ने आपराधिक वारदातों को रोकने के लिए 40 कैमरे लगाना तय किया। ऐसे ढेरों सारी घटनाएं हैं, मसलन भोपाल में तय हुआ कि यात्रियों की सुरक्षा के लिए ट्रेनों के जनरल डब्बों में कैमरे लगेंगे, हिमाचल प्रदेश के मंडी में राजकीय तकनीकी कॉलेजों में, दिल्ली में हिंदूराव अस्पताल में बच्चा चोरी की घटनाओं के बाद निगम अस्पतालों में सीसीटीवी लगाने तय किए गए। इस तरह की घटनाओं का अंत नहीं है और सब के पीछे एक ही तरह होता है कि अपराध पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। लेकिन किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि क्या अपराधियों के नहीं पकड़े जाने से ही अपराध बढ़ रहे हैं? समाज में अपराध को बढ़ावा देने वाली परिस्थितियों पर सीसीटीवी कैसे रोक लगा सकता है। सीसीटीवी को समाज में ऐसी परिस्थितियों पर रोक के विकल्प के रूप में उतारा गया है।
धीरे-धीरे एक तरह से पूरा समाज कैमरों की जद में समाता जा रहा है। जिंदगी का कैमरों में कैद होना केवल निजता का मामला नहीं है। यह समाज में फैल रही असुरक्षा बोध और राज्य के अपनी जिम्मेदारियों से लगातार पीछे हटने से भी जुड़ा मामला है। अपराध पर अंकुश के लिए तकनीक को हथियार के रूप में पेश करके सरकारें और प्रशासन एक तरह से अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ा लेना चाहते हैं। तभी कई शहरों में पुलिस सभी महत्वपूर्ण व्यापारिक प्रतिष्ठानों, सार्वजनिक स्थानों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने के आदेश देती है। मुंबई में पुलिस ने सभी सिमकार्ड डीलरों को दुकानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के निर्देश दिए हैं। छोटे-छोटे शहरों में सीसीटीवी कैमरों के अपराध कम करने के इलाज के तौर पर पेश किया जाने लगा है। इस तरह के प्रचार को मीडिया अपनी खबरों के जरिये न केवल वैधता देता है, बल्कि बढ़ावा भी देता है। कहीं चोरी या लूट होने पर सीसीटीवी कैमरे न लगे होने को एक चूक की तरह पेश किया जाता है। जबकि सीसीटीवी लगने के बाद ऐसी घटनाओं में कोई निर्णायक कमी आएगी इसका दावा ना तो पुलिस कर सकती है ना ही राज्य सरकारें। दरअसल ऐसा दावा किया भी जाता है तो वो सफेद झूठ होता है, क्योंकि कई सारे मामलों में कैमरे में कैद होने के बाद भी न तो अपराधी पकड़े गए ना ही अपराध कम हो रहा है। हां इतना जरूर है कि असुरक्षा बोध और सत्ता के अपनी जिम्मेदारियों से पलायन ने ऐसे कैमरे बनाने वाली कंपनियों और उनके दलालों को कमाई का अच्छा मौका दे दिया है। कोई महालेखा परीक्षक जैसी संस्थाएं इन कैमरों के गुणवत्ता की जांच कर लें तो घोटालों की संख्या में जरूर इजाफा हो जाएगा।
अपराध के समाजशास्त्र पर बात करने की बजाए झटपट समाधान तलाश करने के लिए तकनीक का सहारा लेकर अपराध की जड़ नहीं काटी जा सकती। सरकारें और प्रशासन जनता के तात्कालिक आक्रोश को कम करने के लिए अपराधियों को पकड़ भर लेना चाहती हैं, जिसमें तकनीक उसके लिए मददगार साबित होती है। सरकार की मंशा समाज को अपराधमुक्त करने की नहीं है। एक कल्याणकारी राज्य में सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य की होती है। भारतीय संविधान में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को स्वीकार किया गया है। जिसका मतलब है कि सरकार अपने नागरिकों के हर तरह की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेती है। उसी संविधान में नागरिकों को निजता का अधिकार भी मिला हुआ है। सुरक्षा के नाम पर समाज को सीसीटीवी में कैद कर देना दरअसल संविधान के दोनों प्रावधानों का माखौल उड़ाता है। क्योंकि ना तो सीसीटीवी से नागरिकों को सुरक्षा मिल सकी है ना ही उनकी निजता बची रह गई है। एक तरफ राज्य अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुरा रहा है और तो दूसरी तरफ सीसीटीवी जैसी तकनीकों के बल पर नागरिकों के बीच अपनी विश्वसनीयता बरकार रखने की कोशिश कर रहा है। सीसीटीवी एक तकनीक है जो उसके सामने गुजर रही घटनाओं को कैद कर सकता है, लेकिन वो अवांछित घटनाओं को रोक सकने में सक्षम नहीं है और ना ही ऐसी घटनाओं का संबंध अपराधियों के खुले घूमते रहने से है। सत्ता ने अपनी नीतियों से समाज को खोखला बनाया है। मानवीय संबंधों पर तकनीक और संवेदनाओं पर सनसनी हावी हुई है। तकनीक ने हर तरफ तेजी लायी है। इससे कामकाज के तौर-तरीके जितने आसान हुए हैं, मानवीय संबंध और संवेदनाएं उतनी ही ज्यादा कुंठित हुईं हैं। कामकाज में तेजी का संबंध फायदे से है जो समाज में सबको बराबर नहीं मिल सकता। ज्यादा फायदा उसी के हिस्से में जाएगा जिसका उत्पादन के साधनों पर मालिकाना हक है और जाहिर सी बात है ऐसे चंद लोग हैं। बाकी समाज ने तकनीक की इस तेजी में अपनी आपसी संबंधों को न केवल कमजोर किया है, बल्कि खुद को आपराधिक प्रवृत्ति का भी बनाया है। समाज को सीसीटीवी में कैद करने की कोशिश की जाएगी तो जाहिर सी बात है कि इससे अपराध कम होने से ज्यादा अपराधियों की बेशर्मी बढ़ेगी।
यह एक तरह से असुरक्षाबोध का बाजारीकरण है। उदारीकरण ने बाजार को यह मौका दिया है कि वो इंसान की हर तरह की संवेदनाओं को उत्पाद के रूप में बदल दे और उसकी कीमत लगाए। उदारीकरण के दौर में खुशी, दुख, डर, प्यार, दुलार, घृणा, ईष्या सब कुछ बिकने योग्य है, इसमें सरकारों की जिम्मेदारी केवल इतनी भर है कि वो संवेदनाओं को बेचने लिए निविदाएं मंगाए और उसका ठेका निजी कंपनियों को देती रहे। सीसीटीवी में कैद आपराधिक वारदातें समाज में ऐसी घटनाओं को कम करने की बजाय उसे देखने की एक प्रतिरोधी क्षमता पैदा करेंगी और धीरे-धीरे अपराधियों का डर खत्म होता चला जाएगा। तब शायद कोई नई तकनीक सीसीटीवी की जगह ले लेगी लेकिन इस तरह से जो कुछ समाज खोएगा उस ना बाजार भर सकेगा ना तकनीक।
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संप्रतिः लेखक शोध पत्रिका जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं।
संपर्कः सी-2, पीपलवाला मोहल्ला
बादली एक्टसेंशन
दिल्ली-110042
मो-9015201208

शिक्षक भर्ती में लूट की छूट


विजय प्रताप

उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार ने प्राथमिक स्कूलों में 72,825 शिक्षकों की भर्ती की प्रक्रिया शुरू की है। राज्य में हो रही इस भर्ती की आड़ में डिग्रीधारी बेरोजगार युवाओं से कई तरह से बेलगाम लूट की जा रही है। मेरे अपने कई साथियों इस तरह के अनुभव बयां किए की नौकरी की गारंटी करने के लिए वो सभी 75 जिलों में आवेदन भेज रहे हैं जिसमें हर एक जिले के लिए 500 रुपए का बैंक चालान लगाना पड़ रहा है। अन्य स्तरों पर भी इस भर्ती की प्रक्रिया लूट की खुली छूट देने वाली है।
पढ़े-लिखे और बकायदे प्रशिक्षित युवाओं का बेरोजगार होना अपने आप में एक सामाजिक अभिशाप की तरह है। चुनावों के दौरान सभी राजनीतिक पार्टियां युवाओं की इन भावनाओं को कुरेदती हैं और नौकरी के वादे देकर अपने तरफ खिंचती हैं। हालांकि की जो जिम्मेदारी एक कल्याणकारी राज्य की होनी चाहिए उसे यहां के राजनीतिक दल एक सौदेबाजी की तरह पेश करते हैं। इस सौदेबाजी को चुनावी घोषणापत्रों में नौकरियों के वादे के रूप में देखा जा सकता है। सरकार बनने के बाद कुछ युवाओं को नौकरियां देकर सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी उसे अपनी उपलब्धि के बतौर पेश करती है। इस उपलब्धि और बेरोजगार युवाओं की नौकरी की गारंटी की होड़ में खुली लूट को वैधता मिल गई है। हालात ये हैं कि बैंकों में चालान बनवाने के लिए युवाओं की लंबी लाईन लग रही है। 5-5 सौ के 70-75 चालान बनवाने के लिए अभ्यर्थी बैंकों में अलग से घूस भी दे रहे हैं। वहीं 10-15 रुपये घंटे के हिसाब से चार्ज करने वाले साइबर कैफे संचालक ऑनलाइन आवेदकों से 200-300 रुपये ऐंठ रहे हैं। इस भर्ती की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार का यह सिलसिला शुरुआत भर है क्योंकि इसके बाद आवेदकों को कई स्तरों पर बाबूओं-अधिकारियों को पैसे देने होंगे। भ्रष्टाचारी इस अधिकार से पैसे मांगते हैं जैसे वही नौकरी दे रहे हों। उस समय युवा की अपनी प्रतिभा ऐसे घिग्गी बांधे खड़ी होती है कि इसको पैसा नहीं देंगे तो नौकरी नहीं मिलेगी और फिर भविष्य अंधकारमय बन रह जाएगा। कदम-कदम पर उसका आत्मविश्वास डोलता नजर आने लगता है। नौकरी की प्रक्रिया को इस कदर जटिल, महंगी और अमानवीय बना दिया गया है कि शिक्षक की नौकरी मिलने से पूर्व या तो युवा थक हार कर बैठ जाएगा या फिर अपने सारे नैतिक ज्ञान ताक पर रख चुका होंगे।
उत्तर प्रदेश में शिक्षकों की नौकरी की यह सारी कवायद वंचितों को और वंचित करने के उद्देश्य से भी काम कर रही है। सत्ताधारी समाजवादी पार्टी ने चुनाव के दौरान ही अपने इरादे जता दिए थे कि वह सत्ता में आने के बाद वंचित जातियों की बजाय अपने चुनावी आधार वाली जातियों को प्राथमिकता देगी। इसे प्रमोशन में अनुसूचित जातियों/जनजातियों को आरक्षण के फैसले में देखा जा सकता है। यह बात किसी से छिपी नहीं कि वंचित जातियों और ग्रामीण पृष्ठभूमि के युवा अगर पढ़-लिख गए हैं तब भी वो तकनीकी ज्ञान और संसाधन के स्तर पर अन्य वर्गों की बराबरी नहीं कर सकते। ना तो उन्हें इंटरनेट प्रयोग करने का अनुभव होता है ना ही उससे आवेदन करने का पर्याप्त ज्ञान। इन संसाधनों का उनकी पहुंच में होना तो दूर की बात है। ऐसे में ढेर सारे युवा अपनी काबिलियत के बादजूद जटिल प्रक्रियाओं के जरिये वंचित कर दिए जाते हैं।
सरकारें एक तरफ नौकरियों के लिए आवेदन मांगाकर वाह-वाही बटोरती हैं तो दूसरी तरफ प्रक्रियाओं को जटिल बनाकर ढेर सारे काबिल युवाओं को हतोत्साहित और वंचित करती हैं। खाली शिक्षक के पदों की भर्ती के लिए उत्तर प्रदेश की पूर्ववर्ती सरकार ने भी आवेदन मांगए थे, लेकिन वह प्रक्रिया पूरी नहीं की जा सकी। उस समय आवेदन के लिए जो फीस वसूली गई थी उसे भी नहीं लौटाया गया। इस तरह की लूट को सरकारें या समाज कभी भी लूट के रूप में नहीं देखता। जबकि ऐसी प्रक्रियाओं के जरिये बेरोजगार युवाओं से करोड़ों रूपयों लूटे जाते हैं। इस तरह की लूट के खिलाफ जब तक न्यायपालिका कोई दखल ना दे, समाज में कहीं कोई आवाज भी सुनाई नहीं देती। कुछ छात्रसंगठनों के सीमित विरोध को छोड़कर चुनावों में युवाओं को लुभाने वाले सभी दल इस पर मौन हैं। इसी तरह तकनीक और प्रक्रियागत जटिलताओं के चलते वंचित होने को भी कोई राजनीतिक हलचल या असंतोष नहीं देखा जाता। कुल मिलाकर इसे युवाओं की कमजोरी और तकनीक न जानने के दुष्परिणाम को बतौर चिन्हित कर दिया जाता है। वंचित जातियों की राजनीति करने वाले भी ऐसे मुद्दों पर मौन रहते हैं, जबकि यह नए दौर की वंचनाएं हैं।

विजय प्रताप
संप्रतिः लेखक शोध पत्रिका जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं।
संपर्कः सी-2, पीपलवाला मोहल्ला
बादली एक्टसेंशन, दिल्ली-110042
मो. 9015201208