राजशाही की ओर बढ़ता राजस्थान

- लोकतंत्र का खोखलापन उजागर करता चुनाव

विजय प्रताप

हाल में राजस्थान की पृष्टभूमि पर बनी फिल्म गुलाल में एक संवाद है -‘‘गुलाल असली चेहरे को छिपा देता है’’। यह संवाद राजस्थान में पन्द्रहवी लोकसभा के चुनाव में चरितार्थ होते दिख रहा है। यहां लोकतंत्र के महापर्व में कई ऐसे उम्मीदवार हैं जिनके चेहरे ऐसे ही गुलाल से रंगे हैं। इनकी आस्था लोकतंत्र की बजाए राजतंत्र में है, जो कि अभी भी उन परंपराओं और मान्यताओं में विश्वास करते हैं, जिनमें प्रजा उन्हें देवता के समान मानती है। राजस्थान के लोकसभा चुनावों में इस बार करीब आधा दर्जन उम्मीदवार ऐसे हैं जो पुरानी रियासतों के राजघरानों से संबंध रखते हैं। इनमें से 4 को कांग्रेस व 2 को भारतीय जनता पार्टी ने टिकट दिया है। कांग्रेस से टिकट पाने वाले उम्मीदवार हैं कोटा-बूंदी संसदीय सीट से महाराव इज्यराज सिंह, जोधपुर से महाराजा गज सिंह की बहन चंद्रेष कुमारी, अलवर से महराज भंवर जितेन्द्र सिंह और जयपुर ग्रामीण से भरतपुर राजघराने के महाराज व पूर्व सांसद विष्वेन्द्र प्रताप सिंह की पत्नी दिव्या सिंह। भाजपा ने जिन राजघरानों को संसदीय प्रत्याषी बनाया है उसमें झालावाड़-बारां सीट से पूर्व मुख्यमंत्री व धौलपुर राजघराने की महारानी वसुंधरा राजे सिंधिया के पुत्र दुश्यंत सिंह व आदिवासी बहुल भीलवाड़ा सीट सीट से बढ़नौर ठिकाने के महाराज बृजेन्द्र पाल सिंह षामिल हैं। दुश्यंत सिंह पहले भी झालावाड़-बारां सीट से सांसद रह चुके हैं। लोकतंत्र में सभी को बराबर का दर्जा दिया गया है। यहां राजा व रंक को चुनने व चुने जाने दोनों का अधिकार मिला हुआ है। इस लिहाज से देखे तो इन राजा-रानियों की उम्मीदवारी कहीं से भी गलत नहीं। वैसे भी भारत में आजादी के बाद लोकतंत्र की जो अवधारणा सामने आई उसमें कमजोर तबके के लिए कोई स्थान नहीं था। जिसके पास ताकत है उसी का अधिकारों पर नियंत्रण होता है। वह चाहे बाहुबली हो, उद्योगपति हो या इनके वंश का अंश हो। इसके लिए लोकतंत्र के प्रति आस्था जैसी किसी तरह के षर्त की जरूरत नहीं। राजस्थान में राजघरानों की उम्मीदवारी कुछ ऐसी ही है। दरअसल इन राजाओं का वर्तमान व इतिहास देखे तो यह कहना कत्तई झूठ नहीं होगा की इनकी लोकतंत्र में न तो कभी आस्था रही है और न ही अभी है। इन्हें आज भी महाराज ;हिज हाइनेसद्ध से कम का संबोधन स्वीकार नहीं। इनके दिलो-दिमाग में भरी राजषाही ठसक इन्हें आज भी आम समाज से कोसों दूर किए हुए है। चुनाव लड़ना इनके लिए कोई जनप्रतिनिधित्व का माध्यम नहीं बल्कि अपने अहम को संतुश्ट करने व सत्ता नियंत्रण में भागीदारी का एक जरिया है। आजादी के साठ साल बाद भी राजस्थान में जब दोनों कथित राष्टवादी पार्टियों को ऐसे राजाओं को चुनाव लड़ाने की जरूरत महसूस हो रही है तो ऐसे में सहज ही समझा जाना चाहिए कि यह संघर्श के बाद मिले आधे-अधूरे लोकतंत्र किस दिषा में ले जाना चाहते हैं। वैसे तो राजस्थान में राजाओं के चुनाव लड़ने का इतिहास कोई नया नहीं है। आजादी के बाद अपनी रियासतें छिन जाने के बाद तो विभिन्न राजाओं ने बकायदा एक पार्टी भी गठित की। 1952 के पहले आम चुनावों में स्वतंत्र पार्टी से कई महाराजा चुनाव लड़े और संसद पहुंचे। ’60 के दषक में राजस्थान विधानसभा में भी एक समय ऐसा था जब यह कांग्रेस पर हावी थे। उस समय पूरे देष में भले ही कांग्रेस की लहर थी लेकिन राजस्थान में कौन जनता का प्रतिनिधित्व करेगा यह उस क्षेत्र की रियासत के राजा-महाराजा ही तय करते थे। राजनैतिक पार्टियांे के नेताओं के लिए अभी भी राजघरानों का आर्षीवाद मिल जाना जीत की गांरटी मानी जाती है। आजादी के 60 साल बाद भी दोनों दलों में राजाओं को अपनी ओर करने की होड़ मची है। जबकि विकास के नाम पर जयपुर, जोधपुर, उदयपुर व कोटा जैसे कुछ बड़े षहर फिल्मों व चित्रों में भले ही बड़े लुभावने लगते हैं, यहां का ग्रामीण जीवन आज भी उतना ही कठिन है। ग्रामीण क्षेत्रों में पानी जैसी मूलभूत जरूरत के लिए सरकारी गोलियों को अपने सीने में उतराना पड़ता है। मंदी की मार में राजस्थान की हैण्डीक्राफ्ट की एक हजार से ज्यादा इकाईयां बंद पड़ी हैं। उद्योग नगरी के नाम से जाना जाने वाला कोटा में पिछले दो दषक से सैकड़ों कारखानों में ताले लग चुके हैं। अब यहां गिने चुने उद्योग ही बचे हैं। पिछले दो सालों गुर्जर आरक्षण आंदोलन में करीब सौ लोगों ने अपनी जान गंवाई है। इस पृश्टभूमि में राजस्थान में पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनाव काफी महत्वपूर्ण हो गए हैं। इस बार के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस राजाओं को टिकट देने में सबसे आगे रही है। लेकिन उसके उम्मीदवारों की पृश्टभूमि पर गौर करे तो उनमें से ज्यादातर का इतिहास ही कांग्रेस विरोध के इर्दगिर्द रहा है। जोधपुर रियासत से षुरू करे तो यहां के राजा षुरू से ही कांग्रेस के विरोधी रहे हैं। हांलाकि यहां की उसकी प्रत्याषी चंद्रेष कुमारी काफी समय से कांग्रेस में सक्रिय हैं। इससे पहले वह हिमाचल प्रदेष में मंत्री भी रह चुकी है। उनके बड़े भाई के महाराजा गज सिंह जो आज उनके लिए प्रचार करते घूम रहे हैं, भाजपा के करीबी माने जाते हैं। पूर्व विदेष मंत्री जसंवत सिंह कभी गजसिंह के निजी सहायक हुआ करते थे। बाद में जसवंत सिंह ने ही महाराज को राजनीति में लाया। अलवर से कांग्रेसी उम्मीदवार महाराजा भंवर जितेन्द्र सिंह भी एक दषक पहले तक कांग्रेस के कट्टर विरोधी थे। उनकी उम्मीदवारी से कांग्रेस कार्यकत्र्ता भी हतप्रभ थे। जयपुर ग्रामीण सीट से उम्मीदवार दिव्या सिंह भरतपुर राजघराने की महारानी हैं। इससे पहले वह एक बार भाजपा के टिकट पर भी संसद पहुंच चुकी हैं। उनके पति विष्वेन्द्र सिंह ने पिछले ही विधानसभा चुनाव में भाजपा से बगावत कर कांग्रेस का दामन थामा था। इससे पहले विष्वेन्द्र, पूर्व मुख्यमंत्री वसंुधरा राजे के राजनीतिक सलाहकार थे। कोटा का राजघराना पिछले कई दषक से राजनीतिक तटस्थता बनाए था। जानकारों की माने तो इन राजाओं की कांग्रेस से खुन्नस कोई नई बात नहीं है। आजादी के बाद से ही इन्हें लगता है कि कांग्रेस ने ही उनके राजपाट और अधिकार छिने है। इनमें से ज्यादातर राजा वैचारिक रूप से संघ व हिंदू महासभा जैसे कट्टर हिंदूवादी संगठनों के करीबी रहे हैं। आज भी यह संगठन राजाओं की राजतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन करते हैं। 1947 में विभाजन के वक्त हजारों मुसलमानों को यहां राजाओं के इसी हिंदूवादी विचारधारा, कांग्रेस से खुन्नस व रियासत छिनने के आक्रोष का निषाना बनना पड़ा। जोधपुर, अलवर, धौलपुर व भरतपुर रियासत के राजाओं ने हजारों हिंदू महासभा से मिलकर हजारों मुसलमानों का कत्ल कराया। वैसे भी राजस्थान में राजतंत्र की जडे़, लोकतंत्र से कहीं ज्यादा पुरानी हैं। यहां राजतंत्र और सामंतषाही की जकड़न अभी भी कमजोर नहीं हुई है। फिलहाल एक बदलाव जो गौर करने लायक है वह 1947 से पहले यहां के राजा कभी अंग्रेजों के तो कभी मुगल षासकों के कदमों तले रहे, लेकिन आजादी मिलने के बाद आज तक लोकतंत्र और राजनैतिक पार्टियां इन राजाओं के कदमों तले अपनी सार्थकता तलाष रही हैं।‘‘ऐसे लोगों को टिकट देने के कारणों की खोज करने के लिए हमें ज्यादा दूर जाने के जरूरत नहीं पड़ेगी। इसे केवल 60 साल के लोकतंत्र की सफलता-असफलता में तलाषा जा सकता है।’’ यह कहना है राजस्थान के वरिश्ठ साहित्य-संस्कृतिकर्मी षिवराम का। वह कहते हैं कि राजस्थान में अभी तक कोई ऐसी पार्टी या नेता नहीं उभर सका है जो जनआकांक्षाओं को समझ सके। यह अभाव ही वर्तमान में पार्टियों को जनता से दूर राजाओं की चैखट तक ले जा रहा है। जोधपुर विष्वविद्यालय के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष डाॅ सूरज पालीवाल कहते हैं कि 60 से यहां लोकतंत्र व राजतंत्र का चोली दामन का साथ बना है, लेकिन 3 करोड़ मतदाताओं को आज पेट भर रोटी, कपड़ा, मकान नसीब नहीं हो सका। हर चुनावों में उन्हें दो विकल्प मिलता है जिसमें से एक चुनते हैं लेकिन वास्तव में वह उनका नेता नहीं होता। पालीवाल हाल के विधानसभा चुनावों का उदाहरण देते कहते हैं कि इस बार भाजपा ने बीकानेर सीट से राजघराने की राजकुमारी सिद्ध को अपना उम्मीदवार बनाया। राजकुमारी इससे पहले कभी महलों से बाहर नहीं निकली थीं। बीकानेर के लोगों के पास कोई विकल्प नहीं था। लोगों ने उन्हें ‘अहो भाग्य’ की तरह स्वीकारा, उनकी आरती उतारी और उन्हें जिता कर विधानसभा भेज दिया। वहीं दातारामगढ़ सीट से किसान नेता अमराराम को चुनाव जिताया। इस सीट पर भाजपा व कांग्रेस दोनों को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा। यहां दोनों ही तरह के उदाहरण है। इसलिए यह कहना कि राजा लोकप्रिय हैं इसलिए चुनाव जीत जाते हैं ठीक नहीं होगा।’’ वरिश्ठ पत्रकार व भारतीय जनसंचार संस्थान के एसोसिएट प्रोफेसर आनंद प्रधान का कहना है कि दो दषक से चुनावों में ऐसे उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी है जिनका पहले कभी राजनीति में कोई सीधा हस्तक्षेप नहीं रहा है। वह अपने-अपने क्षेत्र के नामी ;जरूरी नहीं की लोकप्रिय होंद्ध रहे हैं। इसमें महाराजाओं से लेकर उद्योगपति, फिल्मी सितारे, खिलाड़ी ;विषेशकर क्रिकेट केद्ध को टिकट देने का चलन सा चल गया है। राजस्थान भी इन बदलावों से दूर नहीं है। यहां की राजनीति दिन ब दिन आम जन से दूर होती जा रही है। राजनीतिक दलों के पास ऐसा नेता नहीं है जिन्हें आम जनता अपना मान सके। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि पार्टियां ऐसे लोगों को चुनाव में पेष करे जिनका राजनीति से दूर तक का कोई रिष्ता नहीं हो। उनको लेकर आम जन कोई सवाल नहीं खड़ा कर सके। इसी राजनीति के तहत इस बार के चुनावों में बड़े पैमाने पर राजाओं, फिल्मी सितारों व खिलाड़ियों को टिकट दिया गया है। संभव है राजस्थान में चुनाव लड़ रहे सभी राजा चुनाव जीते जाए क्योंकि इन सीटों पर उनके लिए कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। इस विकल्पहीनता का ही फायदा देष में सत्ता चलाने वाले व पूंजीपति मिलकर उठा रहे हैं। इस विकल्पहीनता के लिए जरूरी है कि कोई जनतांत्रिक आंदोलन खड़ा ही न हो इसके लिए नीतिनिर्धारकों को ऐसे ही राजाओं की जरूरत होगी जो उनके अनुसार काम कर सके। जरूरत पड़े तो महारानी वसुंधरा राजे की तरह छोटी-छोटी मांगों को लेकर उठने वाली आवाज को गोली से दबा सके।

3 comments:

आनंद प्रधान said...

Bahut hi achi report hai...shukriya...aapse bhavishya me bhi aisi hi reports ki ummid rahegi.

नवीन कुमार 'रणवीर' said...

इसमें कोई दो राय नहीं है की राजस्थान के लोगों में अपनी राजनीतिक सोच आज तक जागरूक नहीं हो पाई है। यदि भारत के संविधान में आरक्षण का प्रावधान न होता तो आप आज जिन सीटों पर दलित आदिवासी सांसद है,वहां भी राजे-रजवाड़ों का राज होता। राजस्थान में आज भी सामंतवादी सोच बहुसंख्य लोगों में हैं और वे लोग ही राजनीति हिस्सेदारी पानें में सक्षम हो जाते है। क्योंकि नेता बननें के लिए अपनी आवाज को उठाना आवश्यक है और यहां आवाज उठती ही राजे-रजवाड़ों, सामंती दबंगों की है, और ऐसे में राजनीतिक दल हारने का जोखिम उठाना नहीं चाहते।

Randhir Singh Suman said...

good.suman'lokshangharsha