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सामूहिक कब्रों के देश में...



विजय प्रताप




अभी कश्मीर में सामूहिक कब्रें मिलने का मामला शांत ही नहीं हुआ था कि मेघायल में भी ऐसी कब्रें मिलने की खबर आ गई। यहां एक अलगाववादी संगठन गारो नेशनल लिबरेनश आर्मी ने दावा किया है तूरा और सामंद में अचिन्हित कब्रें हैं, जिसमें आम लोगों को दफन किया गया है। हालांकि इस अलगाववादी संगठन ने इसके लिए अपने प्रतिद्वंदी संगठन आचिक नेशनल वालिंटियर काउंसिल को जिम्मेदार ठहराया है, जो सरकार के साथ बातचीत में शामिल है।
भारत में सामूहिक कब्रें मिलने का यह कोई पहला मौका नहीं है। कश्मीर में कई बार सामूहिक कब्रें मिलने की खबरें आई हैं। हालांकि इस बार यह बात किसी अलगाववादी या सरकार विरोधी संगठन की बजाय खुद राज्य के मानवाधिकार संगठन ने उठाई है। कश्मीर के राज्य मानवाधिकार आयोग ने अपनी जांच में पाया कि 38 गैर सूचित कब्रों में 2156 शव दफन हैं। इसमें से 574 शवों को स्थानीय लोगों ने अपने परिचितों का होने का दावा किया है। इससे पहले वर्ष 2008 में भी एक ट्रिब्यूनल के सदस्य एडवोकेट परवेज इमरोज और अंगना बनर्जी ने बारामूला, कुपवाड़ा राजौरी, उरी और अन्य जिलों में एक हजार से अधिक कब्रें मिलने का दावा किया था। कश्मीर में पिछले दो दशकों से चल रहे अघोषित युद्ध में अभी तक हजारों लोग मारे जा चुके हैं। इसमें वो सभी शामिल हैं जो या तो सुरक्षा बलों की गोलियों से मारे गए या फिर अलगाववादियों के शिकार हुए। इन सभी लोगों को अघोषित कब्रों में दफना दिया जाता है, जिसका सरकारी आंकड़ों में कोई रिकार्ड नहीं होता। कई बार सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए आतंकियों के रूप में भी आम लोगों को इन कब्रों में दफना दिया जाता है, ताकि उनकी हत्या पर कोई सवाल न उठ सके। कश्मीर में अभी भी हजारों लोग गायब हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि वह सुरक्षा बलों के हाथों मारे जा चुके हैं और इन्हीं अज्ञात कब्रों में दफन कर दिए गए हैं।
दरअसल, ये कब्रें हमारी व्यवस्था की नाकामियों की प्रतीक हैं। एक लोकतांत्रिक देश में ऐसी कब्रों का मिलना पूरे व्यवस्था पर प्रश्न उठाती है। भले ही इसमें दफन लोग अलगाववादियों के हाथों मारे गए हों या सुरक्षा बलों का निशाना बने हों सवाल उठना वाजिब है। किसी लोकतांत्रिक देश में अब सत्ता को किसी समस्या से निपटने के लिए इस तरह के तरीकों का सहारा लेना पड़े कि उसके सैनिक लोगों का कत्लेआम करें, या फिर किसी देश में लोगों का गुस्सा इस कदर भड़क उठे कि वो हथियार लेकर बगावत पर उतर आए तो, ऐसे में उसके लोकतंात्रिक होने पर प्रश्न उठने ही चाहिए। कश्मीर से पहले एक दौर में पंजाब में भी ऐसी ही अचिन्हित कब्रें मिला करती थी। यह वो दौर था जब एक बड़ा पेड़ गिरा था और उसे गिराने वाले लोगों के समुदाय को सामूहिक रूप से दफन करने की अघोषित छूट मिल गई थी। तब घोषित तौर पर ऑपरेश ब्लू स्टार चलाकर हजारों सिखों की हत्या की गई। इन हत्याओं का नेतृत्व करने वाले पुलिस अधिकारी को बाद में सत्ता ने पुरस्कार के तौर पर कई विशिष्ठ पदों पर भी बैठाया। वर्ष 2008 में छत्तीसगढ़ भी अचिन्हित कब्रें मिली। पुलिस का दावा था कि इसमें मुठभेड़ों में मारे गए नक्सलियों के शव दफन हैं। हालांकि नक्सलियों का कहना था कि इसमें ज्यादातर दफन लोग आदिवासी हैं, जो पुलिस ज्यादतियों का शिकार हुए। मेघालय की घटना से जाहिर है कि उत्तर-पूर्व में भी ऐसा ही चल रहा है। उत्तर-पूर्व के आठों राज्य फिलहाल अलगाववाद से जूझ रहे हैं। वहां सैकड़ों ऐसे गुट हैं जो अपनी-अपनी अस्मिता का समाधान बंदूक से चाहते हैं। सत्ता और इन गुटों के अस्मिता संघर्ष की लड़ाई में यहां भी हजारों लोग मारे जा चुके हैं।
दावे चाहे जो हों लेकिन सवाल हमारी व्यवस्था पर ही उठते हैं। आखिर 65 सालों के कथित सफल लोकतंत्र में क्या हमने यही हासिल किया है। विकास के तमाम दावों के बीच अगर हमारे अपने ही लोग अज्ञात मौतें मरने को विवश हों तो क्या हमारे लिए सामूहिक शर्म की बात नहीं होनी चाहिए। हमे याद है कि कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने अपने ऐतिहासिक तौर पर हुई पुरानी गलतियों के लिए सार्वजनिक माफी मांगी। क्या हमारे देश के प्रधानमंत्री यह जिम्मेदारी अपने पर लेंगे कि उनके देश में अघोषित कब्रों में दफन हजारों लोगों के साथ अन्याय हुआ है, और देश इसके लिए शर्मसार है। मुझे पक्का विश्वास है कि हमारे देश के रहनुमाओं में इतनी ताकत नहीं है कि वो अपनी गलतियों को स्वीकार करें। इसके लिए उन्हें मजबूर करना होगा। सामूहिक कब्रों के मिलने का सिलसिला बंद होना चाहिए। जैसा की कश्मीर के मानवाधिकार आयोग ने कहा कि इन सभी की जांच होनी चाहिए क्यों न एक राष्ट्रीय नीति बनाकर देश में जहां कहीं सामूहिक कब्रे हैं उसकी जांच की जाए। इन कब्रों में दफन किए गए लोगों की डीएनए जांच कराई जाए और उनकी हत्या के लिए दोषी लोगों को चिन्हित किया जाए। चाहे ये लोग सेना के हों या आतंकी संगठनों के सजा सभी को मिलनी चाहिए।

संप्रति - पत्रकार
संपर्क - सी-2, प्रथम तल,
पीपलवाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन
दिल्ली-42
मो - 8826713707

सेना का प्रयोग या मानवाधिकारों की हत्या

- विजय प्रताप
पिछले दिनों भारत में कनाडा के उच्चायोग्य ने कई सैन्य व खुफिया सेवा के अधिकारियों को अपने देश का वीजा देने से मना कर दिया। उच्चायोग्य का कहना था कि कुछ भारतीय सैन्य, अर्द्धसैन्य व खुफिया एजेंसियां मानवाधिकारों के हनन व चुनी सरकारों के खिलाफ काम कर रही हैं। उच्चायोग्य की इस टिप्पणी पर विदेश मंत्रालय ने कड़ी आपत्ति जाहिर की। लेकिन अभी हाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी जम्मू-कश्मीर की यात्रा के दौरान अपरोक्ष रूप से यह स्वीकार किया कि इस सीमावर्ती राज्य में सेना मानवाधिकारों का हनन कर रही है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।’
प्रधानमंत्री को यह बयान उन परिस्थितियों में देना पड़ा जब कि सेना पर कई फर्जी मुठभेड़ों में निर्दोष कश्मीरियों की हत्या के आरोप लग रहे हैं और वहां की जनता उद्वेलित है। कश्मीर के माछिल इलाके में तीन निर्दोष युवकों को आतंकी बताकर मार दिया गया। काफी दबाव व प्रधानमंत्री की कश्मीर यात्रा को देखते हुए सेना ने आरोपी सैन्य अधिकारियों पर मुकदमा दर्ज करने की अनुमति दी। इससे पहले शोपियां में दो महिलाओं के साथ बलात्कार व हत्या की घटना को भी सेना ने दबाने की कोशिश की थी। जम्मू-कश्मीर में ऐसी फर्जी मुठभेड़ें या सेना द्वारा मानवाधिकारों का हनन नई बात नहीं है। ऐसे में क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि सेना को माओवादियों से निपटने के काम में लगाया जाए तो परिणाम क्या होंगे।
माओवाद के खतरे से निपटने के लिए देश में सुनियोजित तरीके से सैन्य बलों के प्रयोग का माहौल तैयार किया जा रहा है। सरकारी तंत्र हर माओवादी घटना के बाद कुटनीतिक तरीके से ‘सेना के प्रयोग न करने’ की बात कहता है और मीडिया का एक खेमा सेना का प्रयोग न करने पर सरकार की आलोचना करता है। लेकिन इस पूरी बहस में ऐसे अभियानों में सेना या अर्द्धसैनिक बलों के कलंकित इतिहास को छोड़ दिया जाता है। क्या हम पंजाब को भूल गए हैं, जहां खालिस्तानी उग्रवादियों से निपटने के लिए सेना के प्रयोग का दंश अभी भी वहां की जिंदगी का हिस्सा है। या कि हम मणिपुर की ओर देखना नहीं चाहते जहां की बूढ़ी महिलाओं भारतीय सेना को बलात्कार करने के लिए निमंत्रित कर चुकी हैं। जम्मू कश्मीर को हम जानबूझ कर भूल जाते हैं क्योंकि हमें लगता है कि उसे सेना के माध्यम से ही अपने कब्जे में रखा जा सकता है। लेकिन यहीं हम वहां के नागरिकों के दर्द को महसूस नहीं कर पाते जो कभी-कभी हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद मीडिया की सुर्खियां बनती हैं। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि क्या माओवाद से निपटने के नाम पर आधे देश को सेना के बूटों तले रौंदे जाने की छूट दी जा सकती है।
कई मौकों पर प्रधानमंत्री खुद नक्सलवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार देश के 19 राज्य माओवाद से प्रभावित हैं। सेना के नागरिक क्षेत्रों में कलंकित इतिहास को देखते हुए इन राज्यों में सेना के प्रयोग की संभावनाओं पर व्यापक विरोध हो रहे है। सेना के अधिकारी खुद भी अपने ही देश में किसी व्यापक विध्वंसात्मक ऑपरेशन से नहीं जुड़ना चाहते है। सेना पर मानवाधिकारों के उल्लघंन को भी इसी आलोक में देखना चाहिए। अशांत क्षेत्रों में जहां सेना व अन्य सुरक्षा एजेंसियों पर लगातार यह दबाव रहता है कि वो कुछ ऐसा कर दिखाए जिससे वहां उनके होने की उपयोगिता सिद्ध हो और दहशत कायम रहे। 1984 के दौर में अशांत पंजाब में सेना व खुफिया एजेंसियों ने अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए राजनीतिक इशारों पर हजारों सिक्ख युवकों का कत्लेआम किया। इसके निशान अभी भी पंजाब की धरती में गड़े मिल जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में सेना कश्मीरी मुस्लिम युवकों की हत्याओं के लिए बदनाम है। सेना व सुरक्षा एजेंसियों के इस इतिहास को कनाडा उच्चायोग्य के सवालों की तरह खारिज नहीं किया जा सकता। सच्चाई यही है कि हमारी सेना नागरिक क्षेत्रों में अपने ही देश के नागरिकों की हत्या करने से नहीं चूकती। यह अलग बात है कि हर दौर में इन हत्याओं के लिए अलग-अलग राजनीतिक कारण जिम्मेदार होते हैं। नागरिक क्षेत्रों में सेना का दमन शुद्ध रूप से राजनैतिक घटना होती है, इसके लिए अकेले सेना को दोषी नहीं करार दिया जा सकता। समय-समय पर अपने खिलाफ उठने वाले सवालों व जनआक्रोश से निपटने के लिए सत्ता सेना को पालतू कुत्ते की तरह इस्तेमाल करती है। माओवाद का हौव्वा खड़ा करने और फिर सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों के प्रयोग के पीछे भी सत्ता का यही मकसद काम कर रहा है। खजिन संपदा वाले राज्य झारखण्ड, छत्तीसगढ, पं बंगाल, उड़ीसा व आंध्र प्रदेश में करीब 70 हजार अर्द्धसैनिक बल लगाया जा चुका है। वहां खजिन बहुल इलाकों से आदिवासियों को उजाड़कर सरकारी कैम्पों में बसाया जा रहा है। बहुराष्ट्ीय कम्पनियों के लिए पहली बार इतने बड़े पैमाने पर अर्द्धसैनिक बलों का प्रयोग किया गया। हालांकि यह सबकुछ माओवाद हिंसा से निपटने के नाम पर किया जा रहा है, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक कारणों को उन सवालों की तरह नजरअंदाज किया जा सकता जो कनाडाई उच्चायोग्य ने मानवाधिकार हनन के संबंध में भारतीय सैन्य एजेंसियों पर उठाए थे। दरअसल ऐसा भी नहीं है कि केवल भारतीय सेना ही मानवाधिकारों का हनन करती है या कनाडा-अमेरिका की सेना नागरिक क्षेत्रों में मानवाधिकारों का सम्मान करती है। बल्कि किसी भी देश के नागरिक क्षेत्रों में सेनाओं का यही इतिहास रहा है कि वो मानवाधिकारों की हत्या के बल पर ही वहां कथित शांति स्थापित करती हैं। संदेह के आधार पर निर्दोष लोगों की जान ले लेना उनके कार्यपद्धति का हिस्सा है। कई ऐसे काले कानून बकायदे उन्हें ऐसी हत्याओं की इजाजत भी देते हैं।

चुनाव जितने की भाजपाई राजनीति


प्रफुल्ल बिदवई
जम्मू जल रहा है। पिछले सात हफ्तों से यह क्षेत्र, जिसमें 30 लाख लोग बसते हैं बेहद कट्टरपंथी, साफतौर पर साम्प्रदायिक और निष्ठुर हिंसा से भरपूर अशांति का गवाह रहा है। यह अशांति श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड को 100 एकड़ भूमि हस्तांतरित किए जाने से संबंधित सरकारी आदेश के रद्द किए जाने के परिणाम स्वरूप फूट पड़ी थी। इस अशांति ने जम्मू को कश्मीर के डोगरों को अन्य जातीय समूहों के विरुध्द और हिंदुओं को मुसलमानों के विरुध्द इस तरीके से ला खड़ा किया है, जिसकी संभावना पहले कभी नहींदिखाई दी थी।

इस अशांति ने बहुत ही गंदा राजनीतिक रूप धारण कर लिया है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी इसका इस्तेमाल बहुत ही विद्वेषपूर्ण ढंग से कर रही है। उसके समर्थकों ने जम्मू-कश्मीर पर आंशिक नाकाबंदी शुरू कर दी। जिसकी वजह से जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग कई हफ्तों तक बंद रहा। इसके परिणाम स्वरूप हर किस्म के सामान का लाना ले जाना बंद हो गया और जनता को अकथनीय कष्ट उठाने पड़े।जम्मू में असहिष्णुता के विस्फोट का सीधा असर आइने में अक्स की तरह कश्मीरवादी में देखने को मिला, जहां मुख्यधारा की पार्टियों ने अलगाववादियों के साथ मिलकर मुजफ्फराबाद की तरफ मार्च करना शुरू कर दिया। इस मार्च का जाहिराना तौर पर उद्देश्य था, नष्ट होने वाले फल को पाकिस्तानी कश्मीर में बेचकर नाकाबंदी को तोड़ना। इस मार्च को रोकने के लिए पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई में पांच लोग मारे गए। एक साथ चल रहे दो अशांति आंदोलन से जम्मू-कश्मीर की एकता और उसके बहुलवादी, बहुसंस्कृतिक और बहुधार्मिक स्वरूप के लिए एक अभूतपूर्व खतरा पैदा हो गया है। दो महीने से भी कम अवधि में भाजपा जम्मू-कश्मीर के दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भावनात्मक जातीय-धार्मिक और राजनीतिक दरार पैदा करने में कामयाब हो गई है। ऐसा काम पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर जिहादी अलगाववादी आजादी आंदोलन फूट पड़ने के बाद पिछले लगभग 20 वर्षो में भी नहीं कर पाए थे।

दोनों आंदोलन अपने-अपने क्षेत्र में जोर पकड़ते चले गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप जम्मू-कश्मीर का ध्रुवीकरण हो गया है। जैसा कि सरकार ने खुद स्वीकार किया है कि इससे हुरियत और हिंदुत्व ताकतें, दोनों ही मजबूत हुई हैं। केंद्र तो बहुत देर तक इंतजार करता रहा और उसने समस्या को और भी उग्र रूप लेने का मौका दे दिया। वह देश के कानून को वहां लागू करके जम्मू-श्रीनगर राज्य मार्ग को खुलवाने में नाकाम रही। 18 सदस्यों वाली सर्वदलीय समिति का गठन करके उसने इतनी देर से इस स्थिति को शांत करने की जो कोशिश की है, उससे कुछ बात बन नहीं पाई। केंद्र ने श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड की नाजायज मांग को मानते हुए तीन समिति सदस्यों को-जो कि तीनों ही वादी से थे-बैठक में शामिल नहींकिया। बोर्ड द्वारा अपनी मांग का कारण यह बताया गया कि ये तीनों सदस्य समस्या का हिस्सा थे, न कि समाधान के। (हालांकि समाधान ठूंढने के लिए बातचीत उन्हींसे ही की जानी चाहिए जो समस्याएं पैदा करते हैं।) लेकिन उससे भी कोई काम नहींबना। श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड, जो कि 28 समूहों का तंत्र है, पूरी तरह से संघ परिवार का ही उद्यम है। उसके तीन शीर्ष नेताओं-संयोजक लीलाकरण शर्मा, ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) सुचेत सिंह और तिलक राज शर्मा- की पक्की आरएसएस की पृष्ठ भूमि है और जम्मू कश्मीर नेशनल फ्रंट के साथ उनके निकट संबंध हैं, जिसकी यह मांग है कि राज्य के तीन हिस्से किए जाएं-जिनमें से जम्मू और कश्मीर को अलग-अलग राज्य बना दिया जाए और लद्दाख को संघ शासित क्षेत्र का दर्जा दिया जाए। इस मांग का तर्काधार है धार्मिक पहचान, जो घृणास्पद रूप से सामुदायिक तर्काधार है।यह समझना मुश्किल है कि धार्मिक आधार पर जम्मूृ-कश्मीर का बटवारा कश्मीर वादी को भारत से अलग करने का नुस्खा है। इससे दो अलग-अलग पहचानें कायम हो जाएंगी, जिनमें एक दूसरे के प्रति कठोरता पैदा होती चली जाएगी और अंतत: एक कभी न मिटाई जा सकने वाली हकीकत बन जाएगी। और ये दो पहचानें होंगी-मुस्लिम कश्मीर और हिंदू जम्मू। वादी में मौजूद सैयद अली शाह जैसे पाकिस्तानी परस्त अलगाववादियों जो कि कश्मीर के लिए एक बहुलवादी, धर्मनिरपेक्ष गैर धार्मिक पहचान के खिलाफ है, के मकसद को इससे बेहतर कोई मदद हासिल नहींहो सकती। जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सों में बांटने की किसी भी मांग से पाकिस्तानी कट्टरपंथी तत्वों को बैठे बिठाए एक मुद्दा हाथ लग जाएगा और पाकिस्तान और भारत के बीच सरहदों को फिर से तय किए बगैर कश्मीर समस्या के समाधान के लिए दोनों देशों के बीच चल रही अनौपचारिक बातचीत से जितनी भी अब तक प्रगति हो पाई है, उस पर सारा पानी फिर जाएगा। ये कट्टरपंथी तत्व 'बंटवारे के अधूरे मुद्दों' के हिस्से के तौर पर कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनाए जाने के रुढ़िवादी परिप्रेक्ष्य को अपनाते हुए अपना पुराना राग अलापने लगेंगे। भाजपा ने इतना खतरनाक रास्ता क्यों अपनाया है? इसका एक ही जवाब है। वह अपनी कमजोर पड़ती हुई संभावनाओं में सुधार लाने के लिए कोई भी ऐसा मुद्दा हथियाने के लिए दुस्साहस पर उतर आई है जिस पर उसे कुछ समर्थन मिल सके। यही कारण है कि उसने अमरनाथ मुद्दे को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन करने का निर्णय लिया है। इतना ही नहीं, भाजपा से इस बात से भी इनकार करती है कि जम्मू-कश्मीर में आर्थिक नाकाबंदी हुई है। पार्टी के महासचिव अरुण जेटली ने इसे एक 'मिथक' करार दिया है और उनका तो यहां तक कहना है कि जम्मू में चल रहा आंदोलन पूर्णत: शांतिपूर्ण है। जब कि हकीकत यह है कि जम्मू के लड़ाकू प्रदर्शनकारियों ने जो अब देखने में और अपनी रणनीति में 2002 में गुजरात के स्वसैनिकों जैसे लगते हैं। सरकार के अनुसार जिसे किसी भी आधार पर जम्मू विरोधी नहींकहा जा सकता, अमरनाथ मुद्दे को लेकर 10513 विरोध प्रदर्शन किए गए हैं, जिनमें हिंसा की 359 गंभीर घटनाएं घट चुकी हैं। इन घटनाओं में 28 सरकारी इमारतों, 15 पुलिस वाहनों और 118 निजी वाहनों को क्षति पहुंचाई गई है। सांप्रदायिक हिंसा के 80 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 20 व्यक्ति घायल हुए 72 गाुरघरों को जला दिया गया, 22 वाहन क्षतिग्रस्त हुए और जरूरी सामान ले जा रहे कई ट्रकों को लूट लिया गया। इस हिंसापूर्ण आंदोलन की योजना तैयार करने और उसे अमली जामा पहनाने में भाजपा का जबरदस्त हाथ रहा है। उसके नेता अपने मूल तत्वों पर फिर से लौट आए हैं और वे हैं अपने प्रकृत रूप में हिंदुवादी तत्व, जिनसे वे भली भांति परिचित हैं और जो उन्हें बहुत सुहाते है। भाजपा निराशा के कारण इतने दुस्साहस पर क्यों उतर आई है? अभी एक ही महीना पहले कई राज्य विधानसभा चुनावी जीतों के बाद उसने खुद को उस ढंग से पेश किया मानों उसको यह पूरा विश्वास हो कि अगले आम चुनाव में जीत उसकी ही होगी। यहां तक कि उसने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा करनी शुरू कर दी जिससे कि वे अपने चुनावी प्रचार की योजना तैयार कर सकें। लेकिन विश्वासमत के दौरान भाजपा की इस ख्याली उड़ान में जबरदस्त रुकावट पड़ गई। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद विजयी बनकर सामने आए और अपने स्वभाव के विपरीत आक्रमक डॉ। मनमोहन सिंह को 'भारत का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री' करार नहीं दिया जा सकता था। विश्वासमत में भाजपा की छवि धूमिल होकर सामने आई। व्हिप की अवहेलना करने वाले सबसे ज्यादा सांसद भाजपा के ही थे। पैसे के बदले सवाल घोटाले, मानव व्यापार कांड और हालिया अनुशासहीनताओं के कारण भाजपा ने अपनी मूल 137 लोकसभा सीटों में से 17 सदस्य गंवा दिए हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सभी 24 सदस्य हुआ करते थे। अब वे घटकर मात्र पांच रह गए हैं।

देशबंधु से साभार