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पीयूसीएल के नेताओं पर फर्जी मुकदमें

मानवाधिकार हनन के सबसे बड़े मरकज बन चुके आजमगढ़ में मानवाधिकार हनन का सवाल उठाने वाले एक बार फिर से पुलिस के निशाने पर आ गए हैं। पीपुल्स यूनियन फाॅर सिविलि लिबर्टीज़(पीयूसीएल) के प्रदेश संयुक्त मंत्री मसीहुद्दीन संजरी और तारीक शफीक पर शांति भंग, आगजनी समेत दर्जनों गैर जमानती मुकदमें लादकर मानवाधिकार हनन पर उठ रहे सवालों को एक बार फिर से आजमगढ़ प्रशासन दबाना चाहता है। 11 अगस्त 09 को भाजपा सांसद रमाकांत यादव और उलेमा काउंसिल के बीच हुयी झड़प जिसमें एक व्यक्ति की मौत और दो घायल हुए थे के बाद आजमगढ़ में कानून व्यवस्था की स्थिति नाजुक हो गयी थी। 12 अगस्त 09 को घटना के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों में पुलिस ने सैकड़ों लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है। इस घटना की आड़ में सरायमीर थाने के प्रभारी कमलेश्वर सिंह ने बदले की भावना से मानवाधिकार नेताओं पर उलेमा काउंसिल समर्थक बताते हुए मुकदमा कायम कर दिया। क्योंकि मानवाधिकार नेता शुरु से ही वहां की जा रही पुलिसिया ज्यादितीयों के खिलाफ मुखर रहे हैं। जबकि पीयूसीएल के इन दोनों नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर इस पूरी घटना को अपराधियों और कथित उलेमाओं के राजनीतिकरण का परिणाम बताते हुए उच्च स्तरीय जांच की मांग की थी।
इस पुलिसिया पटकथा का सबसे हास्यास्पद पहलू यह है कि तारिक शफीक जिन्हें घटना में शामिल बताया जा रहा है वो उस दौरान 6 अगस्त से लेकर 14 अगस्त तक मुबई में थे। तारिक वहां विभिन्न जेलों में बंद आजमगढ़ के लड़कों के मानवाधिकार उत्पीड़न के मामलों की छानबीन करने गए थे, और उनके पास अपनी यात्रा का टिकट भी है। पीयूसीएल के प्रदेश संयुक्त मंत्री मसीहुद्दीन ने बताया कि उन्हें शुरु से ही पुलिस प्रशासन अपनी औकात में रहने और बाहर से आने वाले मानवाधिकार संगठन के नेताओं और पत्रकारों को यहां न घुमाने-टहलाने की घमकी देती रही है। वहीं तारिक बताते हैं कि बाटला हाउस के बाद यहां आयोजित राष्ट्रीय स्तर के मानवाधिकार सम्मेलन के बाद से ही पुलिस उनसे खुन्नस खायी हुयी थी।
यहां गौरतलब है कि आजमगढ़ में मानवाधिकार नेताओं पर पुलिसिया दमन नया नहीं है और इससे पहले भी छ अक्टूबर 08 को पीयूसीएल द्वारा आयोजित ‘आजमगढ़-आतंक और मिथक’ गोष्ठी जिसमें पीयूसीएल के राष्ट्रीय संगठन सचिव चितरंजन सिंह, वरिष्ठ पत्रकार सुभाष गताड़े और इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के उपाध्क्ष जमील आजमी मौजूद थे, पर आतंकवादियों का कार्यक्रम कह कर पुलिस ने हमला बोल कर बैनर व माइक फेक दिया। तो वहीं वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय के सांप्रदायिकता विरोधी पर्चे को आतंकवादियों का पर्चा कह कर उन्हें बांटने वाले दो कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया था। आजमगढ़ में पीयूसीएल नेताओं पर फर्जी मुकदमें लादने को मानवाधिकारों के लिए उठ रहीं आवाजों को दबाने की कोशिश बताते हुए पीयूसीएल के प्रदेश संगठन मंत्री शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने कहा कि अगर मुकदमें नहीं हटाए जाते हैं तो इस पर आजमगढ़ में बड़ा आंदोलन शुरु किया जाएगा।

ग़ज़ा में युद्ध अपराध हुए: एमनेस्टी


अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा है कि इसराइल ने अपने ग़ज़ा अभियान के दौरान युद्ध अपराध किए.
ये अभियान 27 दिसंबर 2008 से लेकर 17 जनवरी 2009 तक चला था. इसमें लगभग 1400 फ़लस्तीनी और 13 इसराइली मारे गए थे.

रिपोर्ट में सैन्य अभियान के तीसरे हफ़्ते के बारे में संस्था ने कहा है कि अपनी तीव्रता में इसराइल के हमले अभूतपूर्व थे.

ये भी कहा गया है कि हमले के दौरान तोपों-टैंकों से घनी आबादी वाले इलाक़ों में जो गोलाबारी हुई वह सटीक नहीं थी.

उधर इसराइल ने ज़ोर देकर कहा है कि उसने केवल उन्हीं इलाक़ो को निशाना बनाया जहाँ चरमपंथी सक्रिय थे. उसका ये भी कहना है कि उसने अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन नहीं किया है.

रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि फ़लस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास भी युद्ध अपराध करने का दौषी है क्योंकि उसने दक्षिणी इसराइल के रिहायशी इलाक़ों में रॉकेट दागे और गोलीबारी की थी.

'मानव ढाल नहीं बनाया'
आजकल संयुक्त राष्ट्र की एक मानवाधिकार टीम ग़ज़ा में मानवाधिकारों के हनन और अंतरराष्ट्रीय क़ानून के उल्लंघन के आरोपों की जाँच करते हुए वहाँ सार्वजनिक तौर पर लोगों की शिकायतें सुन रही है.

एमनेस्टी के अनुसार 27 दिसंबर 2008 और 17 जनवरी 2009 के बीच 1400 फ़लस्तीनी मारे गए, जो फ़लस्तीनी आंकड़ों से भी मेल खाता है.

इन 1400 मृतक फ़लस्तीनियों में 300 बच्चों और 115 महिलाओं समेत 900 आम नागरिक थे.

इस साल मार्च में इसराइली सेना ने कहा था कि कुल 1166 फ़लस्तीनी मारे गए जिनमें से 295 आम नागरिक थे जिनका इस लड़ाई से कोई संबंध नहीं था.

एमनेस्टी की रिपोर्ट में कहा गया है कि कई सवालों के जवाब नहीं मिले हैं, जैसे कि छतों पर खेल रहे बच्चों और चिकित्सा कार्यों में जुटे मेडिकल कर्मचारियों को सटीक तरीके से लक्ष्य तक पहुँचने वाली मिसाइलों का निशाना क्यों बनाया गया.

एमनेस्टी की रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिले है कि फ़लस्तीनियों ने आम नागरिकों को मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल किया.

'ग़ज़ा के लोगों की निराश ज़िंदगी'


अंतरराष्ट्रीय रेड क्रॉस समिति ने ग़ज़ा में रह रहे लगभग पाँच लाख फ़लस्तीनियों को 'निराशा में फँसे' हुए लोग बताया है.
मंगलवार को जारी हो रही रेड क्रॉस की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इसकी सबसे बड़ी वजह इसराइली घेराबंदी है.

ये रिपोर्ट ग़ज़ा में इसराइली सैनिक कार्रवाई के छह महीने बाद आई है. उस कार्रवाई में लगभग 1100 फ़लस्तीनियों की मौत हो गई थी.

उस हमले को लेकर इसराइल का कहना था कि उसका उद्देश्य दक्षिणी इसराइल पर फ़लस्तीनी चरमपंथियों के रॉकेट हमले रोकना था.

रेड क्रॉस के मुताबिक़ ग़ज़ा के लोग उस हमले की वजह से बिखरी ज़िंदगी को समेट नहीं पा रहे हैं और लगातार निराशा में घिरते जा रहे हैं.

इसराइली हमलों में जो क्षेत्र नष्ट हुए हैं उनके पुनर्निर्माण के लिए सीमेंट या स्टील उपलब्ध ही नहीं है.
गंभीर रूप से बीमार मरीज़ों को ज़रूरी इलाज मुहैया नहीं हो पा रहा है.

पानी की आपूर्ति कभी रहती है कभी नहीं, साफ़-सफ़ाई की व्यवस्था तो लगभग ध्वस्त होने के कगार पर है.

रेड क्रॉस ने वहाँ ग़रीबी के स्तर को 'काफ़ी गंभीर' बताया है. वहाँ बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.

रेड क्रॉस के अनुसार ये सब ग़ज़ा की इसराइली घेराबंदी से जुड़े हुए मसले हैं.

ग़ज़ा पर दो साल पहले हमास ने नियंत्रण कर लिया था और उसके बाद से ही इसराइल ने उस इलाक़े की घेराबंदी कर रखी है.

इस रिपोर्ट के बाद इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यमिन नेतन्याहू के प्रवक्ता ने बीबीसी से कहा कि ग़ज़ा में आम लोग जिन मुश्किलों का सामना कर रहे हैं उसके लिए मुख्य रूप से हमास ज़िम्मेदार है.

साथ ही उनके मुताबिक़ ये बात विश्वास के लायक़ नहीं है कि अगर उस इलाक़े के लोगों को निर्माण कार्य के लिए चीज़ें दी जाएँगी तो वो सैनिक मशीनें बनाने के लिए हमास के पास नहीं पहुँच जाएँगी.


साभार

नायक जिसकी ट्रैजेडी नजर नहीं आती

प्रताप सोमवंशी

किसान हमारी अर्थव्यवस्था के असली नायक हैं। वित्त मंत्री की भूमिका में प्रणब मुखर्जी ने अंतरिम बजट पेश करते हुए जैसे ही यह कहा संसद में तालियां गूंज उठीं। प्रभारी वित्त मंत्री आगे के वक्तव्य में इन दिनों इश्तहार में आ रही योजनाओं के आंकड़ों को संसद के समक्ष रखते हैं। किसानों को श्रेष्ठ बताते हुए हर साल औसत एक करोड़ टन की दर से रिकॉर्ड उत्पादन बढ़ोतरी की बात जोड़ते हैं। वह बताते हैं कि अनाज उत्पादन 23 करोड़ टन पहुंच चुका है। सरकार ने वर्ष 2003 से 2008 के बीच कृषि पर बजट को 300 प्रतिशत बढ़ा दिया है। सहकारी ऋण ढांचे को मजबूत करने के लिए 13,500 करोड़ रुपये की विशेष वित्तीय सहायता दी गई है।
इस तरह खेती पर एक-एक करके वह सारे विवरण गिनाते हैं।सरकार की घोषणाएं किसानों के बारे में किए गए प्रयासों को बताने के साथ एक भ्रम भी फैलाती हैं, जैसे जाने किस-किस के हिस्से का पैसा किसानों को बांट दिया गया। बजट से यह पता ही नहीं चलता कि वित्त मंत्री का यह नायक कहानी के किस क्लाइमेक्स पर है। किस-किस तरह की ट्रैजेडी से उसे जूझना पड़ रहा है। खेती को लेकर गुजरे बरस में क्या नहीं हुआ, क्या गलत हुआ, इसे इंगित करने की जिम्मेदारी जिस विपक्ष पर होती है, उसका पूरा ध्यान मात्र इसी में रह गया कि एनडीए के समय में क्या हुआ था। अंतरिम बजट की आंख से देखें, तो देश के किसानों की कोई खास समस्या बची ही नहीं। हकीकत यह है कि सरकार किसी की भी रही हो, नेशनल सैंपल सवेü, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो, राष्ट्रीय किसान आयोग और दूसरे सरकारी तथ्यों की रोशनी में भी किसानों की समस्या को देखने की जरूरत नहीं समझी जाती। उद्यमी हो या कर्मचारी, उनसे जुड़े संगठन अपनी बातें समय-समय पर सरकार तक पहुंचाते रहते हैं। बजट से पहले वित्त मंत्री तरह-तरह के प्रतिनिधिमंडल से मिलते हैं। खेती की मुश्किलों का हर कोई जानकार हो जाता है, सो ऊपर-ऊपर ही सब कुछ तय कर लिया जाता है। ऐसे में बजट में सरकार इतने चमकीले पैकेट में आंकड़े पेश करती है कि बाहर से देखने वाले को सब कुछ हरा ही हरा नजर आता है। इस साल के अंतरिम बजट में भी वही हुआ। विरोधाभास आंकड़ों की तह के नीचे दबे पड़े हैं। अंतरिम बजट में 2003 से 2008 के बीच के तुलनात्मक विवरण पर सरकार ने सारे तथ्य दिए हैं। मीठा-मीठा गप के आंकड़े तो वहां मौजूद हैं, कड़वा-कड़वा जाने कहां थूक दिया गया है। बजट में खेती की विकास दर 2।6 की तुलना में 3।7 प्रतिशत का होना पाया गया। यहां साल के बेहतर मानसून से उत्पादन में आंशिक सुधार को भी सरकार ने अपने लाभ के खाते में गिन लिया। खाद के सवाल पर किसान पूरे साल रात-रात भर जागकर सहकारी समितियों में लाइन लगाते रहे। कालाबाजारी होती रही। सरकार ने इस बजट में भी उर्वरक सबसिडी के लिए कहा है कि पहले की भांति जारी रहेगी। इसके साथ वैकçल्पक व्यवस्था को प्रोत्साहित करते हुए आने वाले दिनों में खाद पर सबसिडी और कम की जाएगी। वैकçल्पक क्या होगा और कैसे, इसे पिछले किसी बजट में स्पष्ट नहीं किया जाता, भाषा अवश्य एक जैसी रहती है। फसल के लिए किसानों को तीन लाख रुपये तक के ऋण सात प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से अगले वर्ष भी जारी रखने की प्रतिबद्धता जताई गई है। किसान अरसे से रटते आ रहे हैं कि प्रोसेसिंग खर्च और रखरखाव के नाम पर लगभग दो प्रतिशत और रिटनü ब्याज लगता है, जो सरकार की ओर से आने पर खाते से çक्लयर किया जाता है। कुल मिलाकर, ब्याज 11 प्रतिशत बनता है। इसी तरह राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) की राशि में 88 प्रतिशत की बढ़ोतरी को तीसरी बड़ी उपलçब्ध बताया गया है। पहले इसे 596 जिलों में लागू किया गया था, अगले वित्त वर्ष से इसे सभी 623 जिलों में लागू किया जाना है। नरेगा के तहत शहरी क्षेत्र को शामिल किए जाने से लगभग डेढ़ गुना ज्यादा लोग कवर किए जाएंगे। नरेगा को देश में आर्थिक विषमता दूर करने के प्रयास की उस कड़ी में तो देखा जा सकता है, जिसमें अर्थशास्त्री जान मेनार्ड कींस कहते हैं कि गड्ढे खोदने और पाटने का काम भी किया जाए, तो उसे भी सरकार को करना चाहिए। लेकिन किसानों को मजदूर बनाकर किस तरह से खेती का उद्धार किया जा सकता है? बजट में नरेगा की सफलता के कसीदे पढ़े गए, पूरे साल कहा जाता रहा कि राज्य सरकारों की तरफ से अनुपालन में çढलाई बरतने के कारण वांछित नतीजे नहीं मिल पा रहे हैं। दोनों बातें एक साथ सही कैसे हो सकती हैं? नरेगा को लेकर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की बुंदेलखंड-यात्रा के बाद ही हजारों जॉब कार्ड की कलई खुली थी। वहां ज्यादातर लोगों को काम नहीं मिला और कई जगह जॉब कार्ड ग्राम प्रधान ने ही रख लिए थे। अंतरिम बजट में सबसे अधिक जिस उपलçब्ध पर सरकार अपनी पीठ ठोंक रही है, वह किसानों की ऋण माफी है। यह निश्चित है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के समय 15 हजार करोड़ रुपये की कर्ज माफी के बाद 65 हजार करोड़ रुपए की सबसे अधिक राशि इस मद में दी गई। लेकिन यह इस बार भी नहीं देखा गया कि इस ऋण माफी के बावजूद किसानों की आत्महत्याएं रुक क्यों नहीं रहीं? राष्ट्रीय किसान आयोग के अनुसार, 47 प्रतिशत लोग साहूकारों से कर्ज लेते हैं। 12 प्रतिशत लोग अपने परिजनों और परिचितों से। ऐसे में, बैंक ऋण का प्रतिशत 41 रहा। उसमें भी यह छूट उन्हें ही मिली, जो 31 मार्च, 2007 से पहले के पांच एकड़ से नीचे के जोत वाले कर्जदार थे। ऐसे में, बहुत सारे किसान बचे रह गए। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी ऋण माफी की शतोZ में संशोधन के लिए कहा था।आंकड़ों की सफेदी से कालिख ढकने की कोशिश की जगह होना यह चाहिए था कि राशि आबंटन के साथ योजनाओं की समीक्षा और अपेक्षित संशोधन को तवज्जो दी जाती। इस समझदारी पर भी भरोसा करने का साहस दिखाया जाता कि क्षेत्रवार योजनाओं का स्वरूप बदलकर लागू किया जाए। योजनाएं वहीं से आएं, जहां की दिक्कतें है, तो शायद आंकड़ों से ज्यादा गांव की खुशहाली बोलने लगे।
(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)

मंदी के बहाने बेनकाब हिंदी मीडिया

अभिषेक श्रीवास्तव

ऐसा शायद भारतीय हिंदी मीडिया के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था. चाहे वे अखबार हों, पत्रिकाएं या खबरिया चैनल, छंटनी का अभियान चारों और धड़ल्‍ले से जारी है. जाहिर है पिछले एक दशक के दौरान भारत ने मीडिया का उभार बड़े पैमाने पर विदेशी पूंजी की खाद के सहारे होते देखा है. वही दौर बाजार में उछाल का गवाह भी रहा है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उदारीकरण के दौर में जो निजी मीडिया अस्तित्‍व में आया, वह पूरी तरह बाजार से संचालित होता रहा है. लेकिन मीडिया के स्‍वयंभू झंडाबरदार खुद पर सवाल न लगे, इस कारण से इस तथ्‍य को झुठलाते रहे हैं.
अमेरिका के वॉल स्‍ट्रीट से शुरू हुई तथाकथित वैश्विक आर्थिक मंदी ने इस प्रस्‍थापना को सिद्ध कर दिया है कि मुख्‍यधारा का मीडिया पूरी तरह बाजार पर आधारित है और इसके कंटेंट से लेकर रूप तक सब कुछ बाजारू ताकतों के हितों को पुष्‍ट करता है. इस बात को समझने के लिए एक नजर पिछले आठ साल यानी 2000 से लेकर 2008 तक भारत में मुख्‍यधारा के मीडिया के विकास पर डाल लें और उसके बाद पिछले तकरीबन तीन-चार महीनों में यहां हुई छंटनी की वारदातों के बरअक्‍स रख कर देखें.
बात शुरू होती है पिछले साल अक्‍टूबर से, जब 'सियार आया-सियार आया' की तर्ज पर भारत में मंदी के आने का एलान किया गया. किसी को तब तक उम्‍मीद नहीं थी कि विनिर्माण और निर्यात के क्षेत्र को छोड़ कर बहुत बड़ा असर किसी अन्‍य उत्‍पादक या सेवा क्षेत्र पर पड़ेगा. लेकिन कम ही लोग यह समझ पा रहे थे कि तीन-चार साल पहले टाइम्‍स समूह द्वारा प्राइवेट ट्रीटी में निवेश का जो खेला शुरू किया गया था, उसकी मार अब दिखाई देगी. उस वक्‍त तमाम लोगों ने टाइम्‍स समूह के इस कदम की आलोचना की थी कि उसने निजी कंपनियों और निगमों में पूंजी निवेश के लिए एक कंपनी का निर्माण किया है, हालांकि कई ने यह भी कहा था कि भारतीय मीडिया में ट्रेंड सेटर तो यही प्रतिष्‍ठान रहा है और आगे चल कर कई अन्‍य मीडिया प्रतिष्‍ठान इसी की राह पकड़ेंगे. लिहाजा, बड़ी चोट टाइम्‍स समूह के कर्मचारियों को लगी जब टाइम्‍स जॉब्‍स डॉट कॉम और इस समूह के अन्‍य पोर्टल से करीब 500 लोगों से चुपके से इस्‍तीफा लिखवा लिया गया और खबर कानों-कान किसी तक नहीं पहुंची. इसके बाद दिल्‍ली के मीडिया बाजार में हल्‍ला हुआ कि यह समूह 1400 पत्रकारों की सूची तैयार कर रहा है जिनकी छंटनी की जानी है. यह महज शुरुआत थी. तब तक अन्‍य मीडिया प्रतिष्‍ठानों में छंटनी की कोई घटना नहीं हुई थी. अचानक पत्रकारों को नौकरी से निकाले जाने के मामलों की बाढ़ आ गई. अमर उजाला ने पंजाब में कई संस्‍करण बंद कर डाले. एक दिन रोजाना की तरह सकाल टाइम्‍स के करीब 70 कर्मचारी जब दिल्‍ली के आईटीओ स्थित अपने दफ्तर पहुंचे, तो उन्‍हें दीवार पर तालाबंदी की पर्ची चस्‍पां मिली. दैनिक भास्‍कर ने कई पत्रकारों को इधर-उधर कर दिया और जंगल की आग की तरह खबर फैल गई कि सियार आ चुका है. मंदी का सियार नवभारत टाइम्‍स में तब से लेकर अब तक करीब दस पत्रकारों को निगल चुका है. काफी जोश-खरोश से फरवरी 2008 में शुरू किए गए हिंदी के इकनॉमिक टाइम्‍स में आठ लोगों की सूची तैयार कर दी गई और तीन को बख्‍शते हुए पांच को उनके घरों का रास्‍ता दिखा दिया गया. ये सारे ऐसे डेस्‍क पर काम करने वाले नए पत्रकार थे जिनका वेतन शुरुआती पांच अंकों में था।
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साभार रविवार डॉट कॉम

उफ़ ये गलाकाट प्रतिस्पर्धा

ये त्रासदी ही कही जाएगी कि जिस सूचना प्रौद्योगिकी के बल पर हमारी सरकारें भारत को 21 वीं सदी में दुनिया का सिरमौर बनाने का दावा कर रही हैं, वहीं के छात्रों में अपने जीवन को समाप्त कर लेने की प्रवत्ति दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। अभी पिछले दिनों तीन जनवरी को देश के कुल सात सूचना प्रौद्योगिकी संस्थानों में अव्वल माने जाने वाले कानपुर आईआईटी के छात्र जी. सुमन की हास्टल के कमरे में फांसी लगाकर की गयी आत्महत्या इसका ताजा उदाहरण है। आंध्र प्रदेश के नेल्लूर जिले के रहने वाले सुमन एमटेक द्वितीय वर्ष में इलेक्टिकल इंजीनियरिंग के छात्र थे। आईआईटी के निदेशक प्रो0 संजय गोविंद धांडे के अनुसार सुमन कैम्पस में प्लेसमेंट के लिए आयीं बहुरास्ट्रीय कम्पनियों द्वारा चयनित न होने के कारण तनाव में था। गौरतलब है कि सुमन की आत्महत्या पिछले दो सालों में यहाँ की सातवीं घटना है। ये घटनाएं जहाँ इन संस्थानों की शिक्षा पद्धति पर सवालिया निशान खड़ा करती हैं तो वहीं देश के सबसे मेधावी छात्रों के जीवन में झांकने पर भी मजबूर करती हैं। जहां हताशा, तनाव और गला काट प्रतिस्पद्र्धा के कारण हमेशा पिछड़ जाने का डर सालता रहता है। यह अकारण नहीं है कि पिछले 5 नवंबर 07 को यहीं के छात्र अभिलाष ने आत्महत्या से पूर्व सुसाइड नोट में लिखा-‘मैं जीवन से हार चुका हूं, मैं दुनिया और जीवन का सामना नहीं कर सकता। हारने वाले भगोड़े होते हैं और मैं उन्हीं में से एक हॅूं।’ इसी संस्थान के छात्र रहे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आईटी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर प्रशांत शुक्ल बताते हैं कि "इन परिसरों में एकेडमिक दबाव इतना ज्यादा रहता है कि छात्र एडमिशन के कुछ दिनों बाद ही किसी न किसी तरह के तनाव का शिकार हो जाते हैं और धीरे-धीरे अवसाद की स्थिति में पहंुॅचने लगते हैं।" दरअसल तनाव और अवसाद की स्थिति उत्पन्न होने के अधिकतर कारण इन संस्थानों की आंतरिक संरचना और माहौल में ही मौजूद होते हैं जो छात्रों में जीवन के प्रति नकारात्मक सोच उत्पन्न कर देता है। यहाॅं मेधा का मूल्याकंन इससे होता है कि कौन कितने उॅंचे वेतन पर और किस विकसित देश में काम करता है। ऐसे माहौल के कारण छात्र हमेशा एक काल्पनिक भय मे जीता है कि कहीं वह दूसरों से पिछड़ न जाए। बाजार में अपने आप आपको साबित करने के इस दबाव के कारण ही छात्र समाज की मुख्यधारा से भी कटते जाते हैं और अपनी एक कृत्रिम दुनिया बना लेते हैं जिसका आधार एक दूसरे पर विश्वास और सहयोग करना नहीं बल्कि एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पद्र्धा होती है। इसी प्रतिस्पद्धाॅ में जब कोई छात्र खुद को पिछड़ा हुआ मानने लगता है तब वो आत्महत्या जैसे कदम उठा लेता है। क्योंकि उसकी इस कृत्रिम दुनिया में हारने वालों के लिए कोई जगह नहीं होती। आईआईटी कानपुर में ही मैकनिकल इंजीनियरिंग के प्राध्यापक रहे मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडे कहते हैं कि इन संस्थानों का पूरा माहौल मानवीय मूल्यों के विपरीत होता है। वहां के छात्रों के बीच का रिश्ता शु़द्ध प्रोफेशनल होने के कारण आपस में सुख-दुख बांटने,साथी की मदद करने और किसी समस्या पर सामूहिक रुप से काम करने की मानवीय प्रवृतियों का ह्रास होने लगता हैं। जिसके कारण छात्रों के व्यतित्व में कई तरह की विकृतियां आने लगती हैं। अपने स्कूल के दिनों में सबके साथ सहयोग करने और एक दूसरे का टिफिन छीन कर खाने वाले ये छात्र धीरे-धीरे अकेला महसूस करने लगते हैं जहां वो किसी से अपनी कोई समस्या बांट नहीं पाते। इस अकेलेपन कि साथ ही अपने परिवार वालों को उम्मीदों पर खरे नहीं उतरने और सहपाठियों से पिछड़ जाने के डर के कारण ये छात्र भीतर ही भीतर घुटने लगते हैं। संदीप कहते हैं ‘‘ऐसे माहौल में यदि कोई छात्र आत्महत्या करता है तो आश्चर्यजनक नहीं है।‘’ ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ हमारे देश के सूचना प्रौद्यगिकी का ही संकट है। इस क्षेत्र में सबसे अग्रणी माने जाने वाले अमेरिका में भी आईटी संस्थानों की यही स्थिति है। पिछले दिनों कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय द्वारा इन संस्थानों के छात्रों में बढ़ रहे अवसाद और आत्महत्या की घटनाओं पर किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि ऐसे संस्थाओं में 58 प्रतिशत छात्र नियमित रूप से किसी न किसी तनाव से ग्रस्त हैं। और उनमें आत्महत्या करने की प्रवृति में तेजी से वृद्धि हुई। जो मौजूदा आर्थिक मंदी के दौर में और भी भयावह रुप ले चुका है। दरअसल इन संस्थाओं में आत्महत्या की घटनाएं एक प्रवृति के बतौर पिछले तीन-चार सालों में ही उभरी है।इससे पहले इस तरह की घटनाएं इका-दुका ही हुआ करती थी जिसके कारण अधिकतर व्यतिगत या पारिवारिक समस्याएं ही होती थी। लेकिन इधर जितनी भी घटनायें हुई हैं उनमें मुख्य कारण कैरियर की दौड़ में पिछड़ जाने का डर ही रहा है। देखा जाए तो नयी आर्थिक नीतियों के कारण जिस तरह प्रौघोगिकी के क्षेत्र में संभावनाएं बढ़ी हैं उसी अनुपात में छात्रों पर कैरियरिज्म का दबाव भी बढ़ा है, जिसमें टिके रहना एक सामान्य छात्र के लिए बहुत मुश्किल होता है। प्रो0 प्रशांत शुक्ल कहते हंै ‘ये आत्महत्याएं बाहरी पूंजी द्वारा सामूहिकता और मेलजोल के माहौल में पले-बढ़े हमारे छात्रों पर किए जा रहे निर्मम हमले को दर्शाता है, जिसका सामना सभी नहीं कर पाते।‘ सच्चाई तो यह है कि इन आत्महत्याओं को नई आर्थिक नीतियों से काटकर नहीं समझा जा सकता। जब से ये नीतियां लागू हुई हैं तब से इन कैंपसों में अंदरुनी माहौल में काफी परिवर्तन आया है। अपने दिनों को याद करते हुए संदीप पांडे कहते हैं कि पहले यहां कई सामजिक मंच हुआ करते थे जिसके माध्यम से विज्ञान के सामाजिक उपयोगों पर काम होते थे या सांस्कृतिक जीवन को दर्शाने वाले नाटक इत्यादि होते थे जिससे छात्रों में अध्ययन के साथ-साथ अपने समाज को समझने और उससे एकाकार होने की प्रवृति विकसित होती थी, वहीं वैश्वीकरण के बाद उपजे कैरियरिज्म की होड़ के कारण यह सब बंद हो गया और छात्रों का समाज से कटाव होने लगा। वो आत्मकेंद्रित जीवन जीने को मजबूर होते गए और उनके अंदर किसी भी समस्या को हल करने के सामूहिक प्रयास के मानवीय प्रवृति का भी क्षरण होता गया। इन संस्थानों में छात्र संघों या ऐसे ही किसी छात्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले मंचों का न होना भी अवसाद और अकेलेपन जैसी समस्याओं को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाता है। इनके अभाव में जहां छात्र अपनी व्यतिगत या सामूहिक समस्याओं कों न तो प्रशासन के सामने रख पाते हैं और न ही इन मंचों से जो इनमें सामूहिकता की भावना पनपती है उसी का विकास हो पाता है। बीएचयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रोफेसर आंनद प्रधान कहते हंै कि राजनीति छात्रों कों दुनिया और समाज से जोड़ती है। उनमें दुनिया को बदलने, बेहतर बनाने के सपने बोती है। जिसके कारण छात्रों में व्यतिगत के बजाए सामूहिकता की भावना विकसित होती है और वे आशावादी बनते हैं। लेकिन ऐसे मंचों के अभाव में छात्रों में कोई सामाजिक सपना नहीं विकसित हो पाता और वो बहुत जल्दी निराश और हताश होने लगते हैं। दरअसल इन संस्थानों के इसी शैक्षणिक माहौल और उससे उपजे आत्मकेन्द्रित सोच के कारण ही हम अपनी इन प्रतिभावों के पलायन को भी नहीं रोक पाते और यहां से निकलने वाले ज्यादातर छात्र विदेशों का रुख कर लेते हैं। इन छात्रों के विदेश पलायन की प्रवृति और यहां हो रही आत्महत्याओं में गहरा संबंध है। क्योंकि जो छात्र बाहर नहीं जा पाते उनमें हीनभावना आ जाती है और वो भारत में ही रह जाने को अपनी असफलता मानने लगते हैं। जिसकी परिणति आत्महत्याओं में भी होती है। संदीप पांडेय इन संस्थानों के शिक्षण पद्धति पर ही सवाल उठाते हुए कहते हैं ‘जब यहां देश के सबसे मेधावी छात्र ही आते हैं तब उनका परीक्षण लेने का क्या औचित्य है, ऐसा करके तो हम उनमें एक दूसरे से आगे बढ़ने कर गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा को ही बढ़ावा देते हैं, जिसकी परिणति आत्मकेन्द्रित सोच में होती है।‘ वे आगे कहते हैं कि इस प्रतिस्पद्र्धा आधारित परीक्षा के बजाए अगर उनमें सामूहिक रुप से किसी प्रोजेक्ट पर काम करने की प्रवृति को विकसित किया जाए तो ये आत्महत्याऐं भी रुक सकती हैं और विदेश पलायन भी। बहरहाल, सूचना प्रौद्योगिकी को विदेशी म्रुदा देने वानी कामधेनु समझने वाली हमारी सरकारें यहां के छात्रों को उनकी जिंदगी की कीमत पर दुहना छोड़ देंगी इसकी उम्मीद भी कैसे की जा सकती है।
- शाहनवाज़ स्वतंत्र पत्रकार व एक्टिविस्ट हैं। इनसे 09415254919 या shahnawaz.media@gmail.com संपर्क कर सकते हैं

अब भी बेसहारा हैं सहरिया

विजय प्रताप
बारां जिले के सहरिया आदिवासियों को जब पिछले साल यह खबर मिली कि नये वन कानून के अनुसार उन्हें जंगल की ज़मीन पर बने रहने के लिये स्थायी पट्टा मिलेगा तो उन्हें उम्मीद थी कि अब उनके दिन भी फिरेंगे. लेकिन इन सहरिया आदिवासियों को सरकार का यह कानून कोई सहारा नहीं दे सका.
जाहिर है, केन्द्र की यूपीए सरकार ने पिछले साल जब अनुसूचित जनजाति व परंपरागत वन निवासी अधिनियम 2006 यानी वन अधिकारों की मान्यता कानून को मंजूरी दी थी तो सरकार ने यह नहीं सोचा होगा कि यह कानून भी आदिवासियों के शोषण का एक जरिया बन जाएगा. आज हालत ये है कि भारत की आदिम जनजातियों में से एक सहरिया जनजाति के लोगों को इस कानून के तहत अपनी जमीन का पट्टा बनवाने के लिए वकीलों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं. उन्हें बताया जा रहा है कि “ मामला जमीन का है इसलिए खर्च किए बिना कागज कैसे बनेगा.”यह कागज बनवाने के लिए ही बारां जिले के सांवरा को आजकल कुछ ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है. वह एक वकील की फीस के लिए पैसा बचाना चाहता है. कचहरी के एक वकील ने उससे कागज बनाने के लिए तीन सौ रुपए फीस मांगी है. लेकिन रोज की मजदूरी से इतना ही पैसा मिल पाता है कि वह अपने परिवार का पेट पाल सके. उपर से हथकढ़ यानी कच्ची शराब पीने की बुरी लत अलग से है. आखिरकार उसने किशनगंज तहसील के बाहर की एक फोटोस्टेट की दुकान से 15 रुपए में खरीदी गई खाली फार्म को अपनी टापरी में सहेज कर रख दिया है. आज की तारीख में सहरिया जनजाति राजस्थान के दक्षिण पूर्वी भाग के बारां जिले में सिमट कर रह गई हैं. हालांकि यहां उनकी जनसंख्या करीब 75 हजार है, लेकिन आस-पास के जिलों कोटा, बूंदी व झालावाड़ में इनकी संख्या केवल तीन से पांच सौ तक रह गई है. बारां के किशनगंज व शाहाबाद तहसील में इस जाति के लोग बहुतायत हैं. परंपरागत रूप से जंगल में रहने वाली यह जाति वन संपदा पर ही निर्भर है. जंगलों में रहने के कारण ही इन्हें 'सहरिया' कहा जाता है, जिसका अरबी भाषा में अर्थ है, जंगलों में रहने वाला.कई सौ सालों से जंगलों में रहते आ रहे इन लोगों को पिछले साल जब यह बताया गया कि वह जहां रहते हैं, सरकार उस भूमि को हमेशा के लिए उनके नाम करने वाली है; तो इनकी खुशी देखने लायक थी. आखिर हर बार वनों से बेदखल किये जाने की सरकारी धमकी और वन अधिनियम के तहत उनके खिलाफ लादे गये मुकदमों से भी तो उन्हें छुटकारा मिल जाता. लेकिन इस बात से खुश होने वालों को कुछ ही महीनों के भीतर दुख और निराशा ने घेर लिया.
सच तो ये था कि कानून बनने के कई महीनों बाद तक जिले के आला अधिकारियों तक को इसकी ठीक से जानकारी नहीं थी। लोगों ने कुछ एक गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर इसे लागू कराने के लिए धरना प्रदर्शन शुरु किया, तब कहीं जाकर अधिकारियों को होश आया. किशनगंज के भैरवलाल बताते हैं कि “ असल परेशानी तभी से शुरु हुई.”वन अधिकार कानून के अनुसार प्रत्येक आवेदक को इसके लिए नि:शुल्क फार्म उपलब्ध कराया जाना है. इसके लिए राज्य के जनजाति कल्याण विभाग के निदेशक ने एक आदेश जारी कर हर जिले में ऐसे फार्म छपवा कर नि:शुल्क वितरित करने के आदेश दिए हैं. इसके उलट बारां जिले में प्रशासनिक अधिकारी भी यह स्वीकार करते हैं कि यहां फार्म छपवाया ही नहीं गया.आज भी जिले में यह फार्म कचहरियों के बाहर फोटोस्टेट की दुकानों पर दस से पन्द्रह रुपए लेकर बेचे जा रहे हैं. साथ ही प्रशासन की तरफ से आवेदन पत्र के साथ 5-6 तरीके के अलग से प्रमाण-पत्र संलग्न करने के लिए भी कहा गया है. आखिर में विवश हो कर इन आदिवासियों को वकील और दलालों की शरण में जाना पड़ रहा है.आदिवासियों को इस तरह परेशान किये जाने से नाराज़ एकता परिषद के सौरभ जैन कहते हैं- “ वनअधिकार कानून में यह साफ लिखा है कि ग्राम स्तर की वन अधिकार समिति को केवल सादे कागज पर आवेदन देना है. यह समिति ही मौके पर जाकर पंचनामा तैयार करेगी और उस दावे को खण्डस्तर की वनअधिकार समिति के पास भेजेगी. लेकिन यहां उस कानून की धज्जी उड़ा रही है.”

जैन का कहना है कि सरकारी लोग इस कानून को भी आदिवासियों के शोषण का हथियार बना रहे हैं.वन अधिकार कानून को लेकर कमोबेश ऐसे ही हालात प्रदेष के हर उस जिले में है, जहां वनभूमि पर सदियों से आदिवासी काबिज हैं और जिन्हें दावा पत्र मिलना है. वनवासियों को अधिकार पत्र देने के लिए बना कानून समितियों और नौकरशाही के बीच उलझ कर रह गया है.
अधिनियम के अनुसार 10-15 सदस्यों वाली वनाधिकार समिति में एक तिहाई अनुसूचित जनजाति व इतनी ही महिलाओं को शामिल किया जाना जरुरी है. इसका अध्यक्ष अनुसूचित जनजाति का सदस्य होगा. लेकिन सच्चाई कुछ और ही है. कोटा में वन भूमि पर रह रहे भील जाति के लोगों को मालूम ही नहीं कि वन अधिकार समिति कहां है, कौन लोग इसके सदस्य हैं. वनाधिकार समिति गठित करते समय भी ग्राम पंचायत की कोई औपचारिक बैठक नहीं बुलाई गई. कोटा से बीस किलोमीटर दूर के एक गांव डोल्या की दाखू बाई कहती हैं “ पंचायत की बैठक नहीं बुलाई. हमें यह भी नहीं पता है कि फार्म कहां से मिलेगा.” आदिवासी जनजाति अधिकार मंच के संरक्षक प्रतापलाल मीणा बताते हैं “ कई गांवों में समिति गठित करते समय कोई बैठक नहीं हुई. सरपंच ने खुद ही लोगों के नाम लिख उसे खण्ड स्तर पर भेज दिया. कहीं भी कानून के अनुसार समिति गठित नहीं की गई है. कई सरपंचों ने तो खुद को ही समिति का अध्यक्ष बना लिया है.”हालांकि इलाके के विकास अधिकारी नरेश बडवाना कहते हैं कि यहां सभी आवेदकों को नि:शुल्क फार्म उपलब्ध कराया जाएगा. लेकिन यह कब होगा, यह बताने वाला कोई नहीं है. कई गांवों में जनजाति अधिकार मंच फार्म छपवाकर लोगों से उनका दावा पत्र भरवा रहा है. ऐसे गांवों में आदिवासियों को काफी सहुलियत हो रही है. लेकिन पूरे प्रदेश में हालात ऐसे नहीं हैं.पिछली राज्य सरकार के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में अभी तक 1179 दावों का निस्तारण हुआ है. राज्य के उदयपुर, डूंगरपूर, सिरोही, बासंवाड़ा, भीलवाड़ा, प्रतापगढ़ चित्तौड़गढ़, बारां, बूंदी, कोटा, झालावाड़, पाली, राजसंमद आदि जिलों में ही ऐसे ज्यादातर आदिवासी हैं जो वनभूमि पर काबिज है. उदयपुर संभाग में आदिवासियों के बीच कई गैर सरकारी संगठनों की मौजूदगी के बावजूद वहां अभी तक दावे ही लिए जा रहे हैं.
जनजाति कल्याण विभाग का आकंड़ा बताता है कि उदयपुर में किसी भी आदिवासी के दावे का निस्तारण नहीं हो सका है। ऐसी ही हालात पाली, राजसमंद व कोटा जिलों में भी है. प्रदेश में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 12.56 प्रतिशत है. कई बड़े दिग्गज नेता आदिवासी समुदाय से आते हैं. बावजूद इसके अभी तक राज्य भर में इन मुद्दों को उठाने वाला कोई नेता नहीं है. पिछले साल अक्टूबर में राहुल गांधी ने तो बजाप्ता बारां में सहरिया आदिवासियों के साथ रह कर उनकी समस्याओं को जानने की कोशिश की थी. लेकिन वन अधिकार कानून के मामले में वे अपनी सरकार को नहीं जगा पाये.आदिवासी जनजाति अधिकार मंच के प्रतापलाल मीणा का मानना है कि नेता केवल दावे करते हैं लेकिन जमीन हकीकत कुछ और ही है. मीणा कहते हैं- “आदिवासियों को लेकर प्रशासन कभी गंभीर नहीं रहा है, इसलिए बार-बार हमें आंदोलन की राह अख्तियार करनी पड़ती है.”बारां जिले की किशनगंज सुरक्षित सीट से नवनिर्वाचित विधायक निर्मला सहरिया आदिवासियों के साथ ऐसे बर्ताव को स्वीकार करती हैं. वह कहती हैं कि “ बारां में करीब तीन सौ दावा पत्र तैयार हो चुका है, जो जल्द ही वितरित कर दिया जाएगा. साथ इन कार्यों में तेजी लाने के लिए यह बात विधानसभा में भी उठाउंगी.”हालांकि उनके दावे पर यकिन करने वालों की संख्या कम ही है क्योंकि किशनगंज के आदिवासी इससे पूर्व के विधायक हेमराज मीणा के ऐसे दावों को भूले नहीं हैं. देखने लायक बात ये होगी कि ‘अपने समाज’ से विधायक बनाई गईं निर्मला सहरिया कोई नया इतिहास लिखेंगी या फिर वे भी हेमराज मीणा के रास्ते का ही अनुसरण करेंगी.

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सर्वजन हत्याय

औरैया से बसपा विधायक शेखर तिवारी और उनके दो समर्थकों ने कल देर रात मुख्यमंत्री मायावती के जन्मदिन 15 जनवरी के लिए मांगी गई भारी भरकम राशि देने से इनकार करने पर लोक निर्माण विभाग के अधिशासी अभियंता मनोज कुमार गुप्ता की पीट-पीट कर हत्या कर दी। इसके विरोध में लोकनिर्माण विभाग के अभियंता प्रदेशव्यापी हड़ताल पर चले गए हैं। वहीं अधिशासी अभियंता की हत्या के मामले में नामजद प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी के बसपा विधायक शेखर तिवारी को आज कानपुर देहात के रनिया क्षेत्र से गिरफ्तार कर लिया गया, जबकि उनके दो अन्य साथियों की तलाश अभी जारी है।
बसपा विधायक ने अभियंता मनोज गुप्ता को पीट-पीट कर मार डाला
इंजीनियर की हत्या के मामले में बसपा विधायक गिरफ्तार
लोनिवि के प्रदेश भर के अभियंता हड़ताल पर गएदिव्यापुर पुलिस थाने पर इंजीनियर एमके गुप्ता की पत्नी शशि गुप्ता की तरफ से दर्ज कराई गई प्राथमिकी के हवाले से बताया गया है कि कल देर रात शेखर तिवारी अपने दो साथियों मनोज त्यागी और किसी भाटिया के साथ उनके गेल विहार कॉलोनी स्थित मकान में जबरन घुस आए और उन्हें बाथरूम में बंद करने के बाद उनके पति को मारना शुरू कर दिया। विधायक तिवारी और उनके साथी गुप्ता को गम्भीर रूप से घायल अवस्था में दिव्यापुर पुलिस थाने पर यह कहते हुए छोड़ गए कि यह आदमी सड़क पर गुंडई कर रहा था और इसे गिरफ्तार कर लिया जाए। गुप्ता को घायल अवस्था में अस्पताल भेजा गया, जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। दिव्यापुर पुलिस थाने के प्रभारी होशियार सिंह ने बताया कि बसपा विधायक और उनके साथियों के विरूद्ध धारा 302 सहित विभिन्न धाराओं में मुकदमा दर्ज कर लिया गया है। गुप्ता की पत्नी शशि गुप्ता का आरोप है कि बसपा विधायक ने मुख्यमंत्री मायावती के जन्म दिन पर चंदा देने के लिए इंजीनियर से 50 लाख रूपए की मांग की थी और राशि न दे पाने पर पिटाई करके उनकी हत्या कर दी।वहीं उत्तर प्रदेश लोक निर्माण विभाग इंजीनियर संघ के सचिव एसएस निरंजन ने बताया कि इस घटना के विरोध में आज से ही पूरे प्रदेश के इंजीनियर हड़ताल पर जा रहे हैं। इंजीनियर संघ ने घटना के आरोपी बसपा विधायक शेखर तिवारी को तत्काल गिरफ्तार कर उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई किए जाने के साथ-साथ श्री गुप्ता के परिजनों को 25 लाख का मुआवजा तथा फील्ड में काम कर रहे अभियंताओं को सुरक्षा दिए जाने की मांग की है। निरंजन ने कहा कि जब तक मुख्यमंत्री मायावती और लोक निर्माण मंत्री संघ की मांगों को पूरा नहीं करते तब तक अभियंता हड़ताल जारी रखेंगे।दूसरी ओर पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह ने आज यहां एक संवाददाता सम्मेलन में बताया कि तिवारी जब कानपुर से औरैया जा रहे थे तब उन्हें रनिया कस्बे के पास गिरफ्तार कर लिया गया और अकबरपुर थाने ले जाकर रखा गया है। उन्होंने कहा कि हत्याकांड में नामजद दो अन्य आरोपियों की तलाश जारी है और उन्हें जल्द ही गिरफ्तार कर लिया जाएगा। श्री सिंह ने बताया कि इंजीनियर की हत्या वाले क्षेत्र दिबियापुर थाने के थानाध्यक्ष होशियार सिंह को निलम्बित कर दिया गया है। उन्होंने कहा कि तिवारी से पूछताछ की जाएगी और मामले में दोषी किसी व्यक्ति को बख्शा नहीं जाएगा। उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। उन्होंने कहा कि बसपा विधायक से अकबरपुर थाने में पूछताछ की जाएगी। वहीं प्रदेश के कैबिनेट सचिव और डीजीपी विक्रम सिंह ने आज यहां पत्रकार वार्ता में कहा कि बसपा विधायक सहित अन्य लोगों के विरूद्ध मुकदमा दर्ज कर कार्रवाई की जा रही है। इस सम्बंध में शासन और प्रशासन आरोपियों के विरूद्ध कोई कोताही नहीं बरतेगा। शीघ्र ही गिरफ्तारियां कर ली जाएगी। सरकार ने मृतक की पत्नी को पांच लाख रूपए की आर्थिक सहायता और सरकारी नौकरी के साथ-साथ सुरक्षा प्रदान किए जाने की घोषणा की है। उन्होंने कहा कि इंजीनियर हत्याकांड एक गम्भीर आपराधिक घटना है। इसे अन्य घटना से जोड़कर राजनीतिक रंग देना उचित नहीं है। सरकार और प्रशासन हत्याकांड में लिप्त किसी भी आरोपी के प्रति नरमी नहीं बरतेगी। श्री सिंह ने कहा कि जब भी किसी भी घटना में सत्तारूढ़ दल से जुड़े मंत्री, सांसद अथवा विधायक का नाम सामने आया और जांच में भी उसकी लिप्तता पाई गई तो उसके विरूद्ध सख्त कार्रवाई की गई है।

जल्लादों की बस्ती में हिफाजत की बातें...!

यह वैसे ही है जैसे फांसी घर से जीने की उम्मीदें रखना या हिफाजत की बातें जल्लादों से करना॥उत्तर प्रदेश में बसपाई सत्ता मदांध में हैं और नौकरशाही पट्टा बांधे पालतू पशु से भी गई बीती। ...और हम आप कायर भेंड़ों से बदतर। एक इंजीनियर की हत्या का वहशियाना तौर-तरीका खुद ही यह चीख-चीख कर बता रहा है कि धन वसूली का हवस कितनी घिनौनी शक्ल ले चुका है। इस हवस और मुंबई में हमला करने वाले आतंकियों के हवस में क्या कोई फर्क पाते हैं आप? सत्ता व्यवस्था पर काबिज नेता एक इंजीनियर को पीट-पीट कर महज इसलिए मार डाले कि उसने 'उपहार-बंदोबस्त’ में कोताही क्यों की, तो क्या यह देश में बाहर से सेंध लगा रहे आतंकियों से ज्यादा घातक नहीं है? प्रदेश भर में विधायक और नौकरशाह मिल कर 'बर्थ-डे गिफ्ट’ के लिए जो वसूली का आपराधिक अभियान चलाए बैठे हैं, वह जिस हवस का परिणाम है, क्या आप उसे देशद्रोही वहशियों से कहीं अधिक नुकसानकारी नहीं मानते?बसपा के विधायक शेखर तिवारी ने एक इंजीनियर को किस तरह मारा, समाचार चैनलों पर मरहूम इंजीनियर की लाश की बुरी दशा देखकर उसका अंदाजा लग गया होगा। इसी हत्याकांड पर बसपा के प्रवक्ता बन कर गुर्रा रहे काबीना सचिव शशांक शेखर सिंह या पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह या दूसरे नौकरशाहों की टीवी पर पोर पोर दिख रही वफादार नस्ल भी तो व्यवस्था की दुर्दशा की ही अभिव्यक्ति दे रही है! मुख्यमंत्री मायावती के इन वफादारों के चेहरों पर किसी विधायक द्वारा बर्बरतापूर्वक एक इंजीनियर को मार डाले जाने की चिंता नहीं थी बल्कि वे इस चिंता में लगातार सफाई दे रहे थे कि यह हत्या मुख्यमंत्री के जन्मदिन पर उपहार पहुंचाने की माफियाई परम्परा निभाने की विवशता में नहीं हुई। प्रदेश में शासन चलाने के नाम पर मुख्यमंत्री का भांड गायन करने वाले ये छद्म नौकरशाह यह बताते हुए तनिक शर्माते भी नहीं कि विधायक उस इंजीनियर को मरी हुई हालत में थाने पर छोड़ गया। यह एक बात शासन-प्रशासन के बड़े लोगों के रखैलिएपन की सनद देती है। बात बहुत कटु लग सकती है। तो क्या अब भी कटु न लगे? चरम अराजकता की स्थितियों की स्वीकार्यता न केवल ऐसे सियासी और नौकरशाही वेशधारी असामाजिक तत्वों के सिर उठाते चले जाने की आजादी देता है बल्कि नागरिकों के कायर-क्लीव होने की भी तो घोषणा करता है! यही तो फर्क है मुंबई वालों और उत्तर प्रदेश वालों में... कि मुंबई वालों पर फर्क पड़ता है और उत्तर प्रदेश वालों पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता! देश समाज के अंदर घुसे छिपे बैठे भितरघातियों के खिलाफ उठ खड़े होना नागरिकों के अधिक साहसी होने की मांग करता है... या यह कहें कि अब वक्त की भी यही मांग है। मुंबई-जन-प्रतिक्रिया ने यह संदेश तो दिया ही है कि नागरिकों की मुट्ठी में ही असली ताकत है। लेकिन इसका अहसास बड़ी बात है। जो उत्तर प्रदेश और उसकी राजधानी लखनऊ के लोगों में बिल्कुल नहीं है। लोक और लोकतंत्र की यह अजीबोगरीब चारित्रिक हकीकत है उत्तर प्रदेश की। पूरी व्यवस्था सियासत के इर्द-गिर्द परिक्रमा-रत है और पूरी सियासत अपराध-रत। इसका प्रतिबिंब पूरा प्रदेश देख रहा है, भुगत रहा है, पर मौन है। यह जो मारा जा रहा है और यह जो मौन साधे बैठा है... वह मतदाता है...। जो मनोवैज्ञानिक विकृतियों और आपराधिक चरित्रों की गिरोहबंदी को बहुमत देता है और खुद उसका शिकार हो जाता है। ठीक वैसे ही कि जैसे राक्षस आता है और हर दिन किसी को अपना शिकार बनाता है... और हम समझते हैं कि हम सुरक्षित हैं। यही मनोविज्ञान हमें कायर और भेंड़ बना रहा है। ऐसे मतदाता से नैतिक साहस की उम्मीद कैसी जिसने चुनाव में सही जनप्रतिनिधि को कभी चुना नहीं, अपनी जाति को चुना, अपने धर्म को चुना या पैसे पर बिक जाना चुना।महात्मा गांधी से लेकर जयप्रकाश नारायण तक यह बोलते चले गए कि जनप्रतिनिधियों को वापस बुला लेने का जनता को संवैधानिक अधिकार होना चाहिए। मुंबई हादसे की उत्तरकालिक जन-प्रतिक्रियाओं में भी एक बार फिर यह बात उभरी। लेकिन जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार पर होने वाली बहस आज तक बकवास ही साबित हुई है। हालांकि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार की वकालत बेमानी ही है। जिस दिन मतदाता को नैतिक मूल्यों को सामने रख कर अपना प्रतिनिधि चुनना आ जाएगा उसी दिन जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार पर बहस अप्रासंगिक हो जाएगी...

फिर मास्टर माइंड, फिर आजमगढ़...

दिल्ली एक बार फिर धमाकों से दहल गया. 21 लोगों की जान गई और जाने कितने हजार लोगों के सपनों का कत्ल हो गया. अब फिर से इन धमाकों के 'मास्टर माइन्ड' की तलाश होगी और हफ्ते दो हफ्ते बाद उसकी गिरफ्तारी का दावा. फिर कुछ दिनों बाद कोई नई वारदात. हर बार सवाल यही उठता है कि आखिर खानापूर्ति के लिए कथित मास्टर माइंडों की गिरफ्तारी कब तक होती रहेगी और असली अपराधी कब तक गिरफ्त से बाहर रहेंगे?आजमगढ़ में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो दिल्ली पर नज़र लगाए हुए पूछ रहे हैं- अबकी मास्टर माइंड कौन ?
अब अबू बशर को ही लें।“ बाबू कुछ गुण्डा बशर के घरे से अगवा कइ लेनन तब हम पुलिस के इत्तेला कइली त पुलिस हम लोगन से कहलस की आपो लोग खोजिए अउर हमों लोग खोजत हई मिल जाए। पर एक दिन बाद उहय पुलिस साम के बेला आइके हमरे घरे में जबरदस्ती घुसके पूरे घर के तहस नहस कइ दिहिस।” आजमगढ़ के गाँव बीनापारा, सरायमीर के निवासी अबु बकर बेहद परेशान स्वर में जब अपनी दास्तान सुनाते हैं तो उनकी बात पर यकिन करना मुश्किल होता है। असल में यकिन तो कोई नहीं करना चाहता. आजमगढ़ की पुलिस भी नहीं, लखनऊ की पुलिस भी नहीं और अहमदाबाद की पुलिस तो कतई नहीं. अबु बकर बताते हैं कि जिस पुलिस के पास उन्होंने अपने बेटे के अपहरण की सूचना दी, वही पुलिस एक दिन बाद हमारे घर पर आ कर हमें आतंकवादी ठहरा गई.
लेकिन जब आप अबु बकर की बातों के तार जोड़ने लगें तो आपके लिए अबु की बात पर यकिन नहीं करने का कोई कारण नजर नहीं आएगा. अबु यानी अबु बकर और अब पुलिस रिकार्ड में अहमदाबाद बम धमाकों के 'मास्टर माइंड' मुफ्ती अबुल बशर कासमी इस्लाही के पिता अबु बकर !अबु बकर बताते हैं कि जिस पुलिस के पास उन्होंने अपने बेटे के अपहरण की सूचना दी, वही पुलिस एक दिन बाद हमारे घर पर आ कर हमें आतंकवादी ठहरा गई. हमारे घर की तलाशी ले कर बशर की पत्नी के गहने और थोड़े से पैसे उठा कर ले गई और हमसे सादे कागज पर दस्तखत भी करवा लिया. यह तो हमें बाद में पता चला कि हमारे बेटे को पुलिस ने अहमदाबाद ब्लास्ट का मास्टर माइंड बता कर गिरफ्तार किया है.अहमदाबाद बम धमाकों के आरोपी 'मास्टर माइंड' मुफ्ती अबुल बशर कासमी इस्लाही के पिता अबु बकर ये बताते हुए घर के हालात की तरफ इशारा करते हैं- “ इस टूटे-फूटे जर्जर घर में सात बेटों-बेटियों और अपाहिज पत्नी के साथ रहता हूँ. डेढ़ साल से ब्रेन हैमरेज के कारण अब हमसे कुछ भी नहीं हो पाता, एक बशर के सहारे पूरा घर था.”
बशर की सात साल की बहन साईना बताती है कि घर में चार दिन से चूल्हा नहीं जला और न खाने के लिए कुछ है. पड़ोसियों के घर से जो कुछ आता है, उसी से गुजारा होता है।
आजमगढ़ बनाम आतंकवादीगढ़
राहुल सांकृत्यायन, कैफी आजमी, शिब्ली नोमानी और हरिऔध जैसे लोगों की धरती आजमगढ़ कथित आतंकवादियों की स्थली के रुप में अक्सर चर्चा में बना रहता है. देश के किसी भी हिस्से में कोई आतंकवादी घटना होती है तो सबसे पहले उसके तार आजमगढ़ से ही जुड़ते हैं और शुरु होता है तरह-तरह के दावों का दौर. लेकिन महीने दो महीने के भीतर ये सारे दावे और सारे तार हकिकत में तार-तार हो जाते हैं.पिछले साल उत्तर प्रदेश की कचहरियों में हुए बम धमाकों के आरोप में इसी जिले से तारिक कासमी को एसटीएफ ने 12 दिसम्बर को पकड़ा और 10 दिनों तक हिरासत में रखने के बाद दावा किया कि उसे 22 दिसम्बर को बाराबंकी से गिरफ्तार किया गया है. लेकिन यह दावा कुछ ही दिनों में गलत साबित हो गया.अबुल बशर को भी उसके गाँव बीनापारा, सरायमीर से 14 अगस्त को साढ़े ग्यारह बजे पुलिसवालों ने उठाया और 16 अगस्त को लखनऊ चारबाग इलाके से गिरफ्तार करने का दावा किया है. ये और बात है कि 15 अगस्त को विभिन्न अखबारों में छपी खबरें एसटीएफ और एटीएस की इस 'बहादुराना उपलब्धि' को झूठा साबित करने के लिए काफी हैं. पुलिस ने अहमदाबाद विस्फोटो में सिमी का हाथ होने का पुख्ता प्रमाण मिलने का दावा करते हुए कहा है कि मुफ्ती अबुल बशर धमाकों का ‘मास्टर माइंड’ और सिमी का सक्रिय है. गुजरात के पुलिस महानिदेशक पीसी पांडेय के अनुसार अबुल बशर सूरत, जयपुर समेत यूपी की कचहरियों में हुए बम धमाकों की ईमेल द्वारा जिम्मेवारी लेने वाले इंडियन मुजाहिद्दीन(आइएम) का राष्ट्रीय अध्यक्ष है, जो प्रतिबंधित संगठन सिमी की ही शाखा है.लेकिन आजमगढ़ क़े ही रहने वाले प्रतिबंधित स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया यानी सिमी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शाहिद बद्र फलाही इस बात से पूरी तरह इंकार करते हैं. फलाही कहते हैं- “ अबुल बशर सिमी का कभी भी सदस्य नहीं रहा है और न ही सिमी ने प्रतिबंध के बाद कोई सदस्यता अभियान चलाया है.”आइएम के बारे में वे बताते हैं कि सिमी पर प्रतिबंध बरकरार रखने के लिए पिछले सात सालों में तमाम 'कागजी आतंकी तंजीमा' से सिमी का नाम जोड़ा गया है और अब आइएम भी उसी फेहरिस्त का हिस्सा है. वहीं आजमगढ़ पुलिस की मानें तो 2001 में सिमी पर प्रतिबंध के बाद 19 लोग गिरफ्तार किए गए थे औऱ तब से किसी नए व्यक्ति के सिमी का सदस्य बनने का कोई प्रमाण नहीं मिला है. पीयूसीएल के राष्ट्रीय संगठन मंत्री चितरंजन सिंह सूरत में 27 जिंदा बमों के पाये जाने और उनकी चिप खराब होने वाली घटना को मोदी सरकार का ड्रामा बताते हुए कहते हैं कि जिस पीसी पाण्डेय को अल्पसंख्यकों के खिलाफ हुए राज्य प्रायोजित गुजरात नरसंहार में सक्रिय भूमिका निभाने के एवज में डीजीपी बनाया गया हो उनकी बात पर यकिन करने का कोई कारण नजर नहीं आता।
सिंह कहते हैं- “गुजरात के डीजीपी का साम्प्रदायिक चेहरा उजागर हो गया है और स्टिंग ऑपरेशनों ने उनकी कलई खोल दी है. जिस प्रदेश में जाहिरा शेख से लेकर सोहराबुद्दीन तक को न्याय नही मिला उस प्रदेश की पुलिस ब्रीफिंग पर पूरे हिन्दुस्तान में हुई आतंकी घटनाओं के खुलासे पर कैसे विश्वास किया जा सकता है. पुलिस को बताना चाहिए कि नवी मुम्बई से जिस अमेरिकी नागरिक केन हेवुड की आईडी से मेल किया गया था उसे क्यों भारत से बाहर जाने दिया गया और किस आधार पर एटीएस ने उसे क्लीन चिट दे दी.”विभिन्न आतंकी घटनाओं की जांच कर रहे पीयूएचआर नेता शाहनवाज आलम बताते है कि अबुल बशर प्रकरण में जावेद नाम का एक व्यक्ति मार्च 08 से ही बशर के घर आता था जो कभी बशर से मिलता था तो कभी बशर के पिता अबु बकर से और खुद को कम्प्यूटर का व्यवसायी बताता था और वह बिना नम्बर प्लेट की गाड़ी से आता-जाता था. जावेद, बशर के भाई अबु जफर के बारे में पूछता था और कहता था कि जफर को कम्प्यूटर बेचना है. अबु बकर ने बताया है कि बशर को अगवा किए जाने के बाद जावेद 16 अगस्त 08 की शाम छापा मारने वाली पुलिस के साथ भी आया था.
पुलिस या...
बांस की टोकरी बनाने वाले पड़ोसी कन्हैया बताते है कि 14 अगस्त को बशर को अगवा किया गया तो अगवा करने वालों में दो व्यक्ति (पुलिसकर्मी) जो सिल्वर रंग की पैशन प्लस से थे, वे गाँव में महीनों से आया जाया करते थे और वे इस बीच बशर के बारे में पूछते थे. सवाल यही उठता है कि जब महीनों से पुलिस बशर पर निगाह रखे था तो उसने कैसे घटनाओं को अंजाम दे दिया.
आजमगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार सुनील कुमार दत्ता कहते हैं कि जिले से आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए किसी भी व्यक्ति पर आज तक आतंकी होने का आरोप सही नहीं पाया गया है, फिर भी आजमगढ़ को आतंकवादियों की नर्सरी के बतौर प्रचारित करने में मीडिया का अहम रोल है.
पीयूएचआर नेता कहते हैं कि पिछले दिनों मड़ियाहूँ जौनपुर से उठाये गए खालिद प्रकरण में भी आईबी ने इसी तरह छ: महीने पहले से ही खालिद को चिन्हित किया था। आतंकवाद के नाम पर की जा रही गिरफ्तारियों में देखा गया है कि कुछ मुस्लिम युवकों को आईबी पहले से ही चिन्हित करती है और घटना के बाद किसी को किसी भी घटना का मास्टर माइंड कहना बस बाकी रहता है. बीनापारा गाँव के प्रधान मो शाहिद बताते हैं कि पिता के ब्रेन हैमरेज के बाद बशर पर ही घर की पूरी जिम्मेदारी आ गई थी. इसीलिए वह कमाने के लिए आजमगढ़ के ही अब्दुल अलीम इस्लाही के हैदराबाद स्थित मदरसे में पढ़ाने चला गया था. बशर जनवरी 08 में गया था और फरवरी 08 में वापस आ गया था क्योंकि वहाँ 1500 रूपए मिलते थे, जिससे उसका व उसके घर का गुजारा होना मुश्किल था. दूसरा पिता की देखरेख करने वाला भी घर में कोई बड़ा नहीं था. इस बीच वह गाँव के बेलाल, राजिक समेत कई बच्चों को टयूशन पढ़ाता था. अबुल बशर के चाचा रईस बताते हैं कि 14 अगस्त 08 को 11 बजे के तकरीबन दो आदमी मोटर साइकिल से आए और बशर के भाई जफर की शादी की बात करने लगे. बशर घर में मेहमानों की सूचना देकर उनसे बात करने लगा. बात करते-करते वे बशर को घर से कुछ दूर सड़क की तरह ले गए, जहाँ पहले से ही एक मारूती वैन खड़ी थी. मारूती वैन से 5-6 लोग निकले और बशर को अगवा कर लिया. अगवा करने वालों की स्कार्पियो, मारूती वैन और पैशन प्लस मोटर साइकिल पर कोई नम्बर प्लेट नहीं लगा था. इसकी सूचना हम लोगों ने थाना सरायमीर को लिखित दी. नेलोपा नेता तारिक शमीम कहते हैं कि अबुल बशर ने जिन लोगों के बच्चों को पढ़ाया और गाँव के जिन लोगों के साथ उठता बैठता था सबने हलफनामा दिया है. ऐसे में पुलिस की यह बात झूठी साबित होती है कि बशर ने बम धमाके किए. क्योंकि इस बात के सैकड़ो गवाह हैं कि 13 मई 08 के जयपुर बम धमाके हों या 25-26 जुलाई 08 के हैरदाबाद और अहमदाबाद के बम धमाके, इस दौरान बशर गाँव में ही था और अपनी अपाहिज माँ और ब्रेन हैमरेज से जूझ रहे पिता का इलाज करा रहा था.
मीडिया बनाम अफवाह
आजमगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार सुनील कुमार दत्ता कहते हैं कि जिले से आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए किसी भी व्यक्ति पर आज तक आतंकी होने का आरोप सही नहीं पाया गया है, फिर भी आजमगढ़ को आतंकवादियों की नर्सरी के बतौर प्रचारित करने में मीडिया का अहम रोल है. और जहाँ तक हवाला कारोबार का सवाल है तो वह जिले का ऐसा 'कुटीर उद्योग' है जिसे धर्मनिरपेक्ष भाव से हिन्दू-मुसलमान दोनों करते हैं. वे कहते हैं कि पिछले दिनों जिस तारिक कासमी को हुजी का प्रदेश अध्यक्ष बताया जा रहा था. उसकी चार्ज शीट में हुजी या किसी आतंकी संगठन से उसके किसी भी जुड़ाव का कोई जिक्र नही है फिर भी मीडिया आज भी उसे हुजी का प्रदेश अध्यक्ष बता रही है और अब आजमगढ़ को आईएम का कार्यक्षेत्र बता पुलिस ने पूरे जिले में आतंक का महौल व्याप्त कर दिया है. वरिष्ठ प्रवक्ता बद्रीनाथ श्रीवास्तव कहते हैं कि जनता में दंगों के प्रति आई परिपक्व समझदारी नें दंगों की राजनीति को पीछे ढकेल दिया है. ऐसे में आतंकवाद के नाम पर फर्जी गिरफ्तारियां कर साम्प्रदायिक ताकतों के ही एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश की जा रही है, जिसे हम आजमगढ़ में हुए पिछले उप चुनाव में साफ देख सकते है. पूरा चुनाव आतंकवाद के मुद्दे पर लड़ा गया. ऐसा आजमगढ़ में पहली बार हुआ और जनता के मूलभूत सवाल पीछे चले गए.

आतंकवाद के मोहरे या बलि के बकरे

अहमदाबाद धमाकों के बाद एक मौलाना की संदिग्ध गिरफ्तारी तो केवल बानगी भर है. तीन महीने की गहन पड़ताल के बाद ऐसे ही तमाम मामलों पर रोशनी डालती अजित साही की रिपोर्ट.
हर शुक्रवार की तरह 25 जुलाई को भी मौलाना अब्दुल हलीम ने अपना गला साफ करते हुए मस्जिद में जमा लोगों को संबोधित करना शुरू किया. करीब दो बजे का वक्त था और इस मृदुभाषी आलिम (इस्लामिक विद्वान) ने अभी-अभी अहमदाबाद की एक मस्जिद में सैकड़ों लोगों को जुमे की नमाज पढ़वाई थी. अब वो खुतबा (धर्मोपदेश) पढ़ रहे थे जो पड़ोसियों के प्रति सच्चे मुसलमान की जिम्मेदारी के बारे में था. गंभीर स्वर में हलीम कहते हैं, “अगर तुम्हारा पड़ोसी भूखा हो तो तुम भी अपना पेट नहीं भर सकते. तुम अपने पड़ोसी के साथ हिंदू-मुसलमान के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकते.”
तीस घंटे बाद, शनिवार को 53 लोगों की मौत का कारण बने अहमदाबाद बम धमाकों के कुछ मिनटों के भीतर ही पुलिस मस्जिद से सटे हलीम के घर में घुस गई और भौचक्के पड़ोसियों के बीच उन्हें घसीटते हुए बाहर ले आई. पुलिस का दावा था कि हलीम धमाकों की एक अहम कड़ी हैं और उनसे पूछताछ के जरिये पता चल सकता है कि आतंक की इस कार्रवाई को किस तरह अंजाम दिया गया. पुलिस के इस दावे के आधार पर एक स्थानीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें दो हफ्ते के लिए अपराध शाखा की हिरासत में भेज दिया.
त्रासदी और आतंक के समय हर कोई जवाब चाहता है. हर कोई चाहता है कि गुनाहगार पकड़े जाएं और उन्हें सजा मिले. ऐसे में चुनौती ये होती है कि दबाव में आकर बलि के बकरे न ढूंढे जाएं. मगर दुर्भाग्य से सरकार इस चुनौती पर हर बार असफल साबित होती रही है. उदाहरण के लिए जब भी धमाके होते हैं सरकारी प्रतिक्रिया में सिमी यानी स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया का नाम अक्सर सुनने को मिलता है. ज्यादातर लोगों के लिए सिमी एक डरावना संगठन है जो घातक आतंकी कार्रवाइयों के जरिये देश को बर्बाद करना चाहता है.
मगर सवाल उठता है कि ये आरोप कितने सही हैं?
एक न्यायसंगत और सुरक्षित समाज बनाने के संघर्ष में ये अहम है कि असल दोषियों और सही जवाबों तक पहुंचा जाए और ईमानदारी से कानून का पालन किया जाए. इसके लिए ये भी जरूरी है कि झूठे पूर्वाग्रहों और बनी-बनाई धारणाओं के परे जाकर पड़ताल की जाए. इसीलिए तहलका ने पिछले तीन महीने के दौरान भारत के 12 शहरों में अपनी तहकीकात की. तहकीकात की इस श्रंखला की ये पहली कड़ी है.
हमने पाया कि आतंकवाद से संबंधित मामलों में, और खासकर जो प्रतिबंधित सिमी से संबंधित हैं, ज्यादातर बेबुनियाद या फिर फर्जी सबूतों पर आधारित हैं. हमने पाया कि ये मामले कानून और सामान्य बुद्धि दोनों का मजाक उड़ाते हैं. इस तहकीकात में हमने पाया कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के पूर्वाग्रह, राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव और सनसनी का भूखा व आतंकवाद के मामले पर पुलिस की हर कहानी को आंख मूंद कर आगे बढ़ा देने वाला मीडिया, ये सारे मिलकर एक ऐसा तंत्र बनाते हैं जो सैकड़ों निर्दोष लोगों पर आतंकी होने का लेबल चस्पा कर देता है. इनमें से लगभग सारे मुसलमान हैं और सारे ही गरीब भी.
अहमदाबाद के सिविल अस्पताल, जहां हुए दो धमाकों ने सबसे ज्यादा जानें लीं, का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना था, “हम इस चुनौती का मुकाबला करेंगे और मुझे पूरा भरोसा है कि हम इन ताकतों को हराने में कामयाब होंगे.” उन्होंने राजनीतिक पार्टियों, पुलिस और खुफिया एजेंसियों का आह्वान किया कि वे सामाजिक ताने-बाने और सांप्रदायिक सद्भावना को तहस-नहस करने के लिए की गई इस कार्रवाई के खिलाफ मिलकर काम करें. मगर निर्दोषों के खिलाफ झूठे मामलों के चौंकाने वाले रिकॉर्ड को देखते हुए लगता है कि अक्षम पुलिस और खुफिया एजेंसियां कर बिल्कुल इसका उल्टा रही हैं. मौलाना अब्दुल हलीम की कहानी इसका सुलगता हुआ उदाहरण है.
पिछले रविवार से ही मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उनमें पुलिस के हवाले से हलीम को सिमी का सदस्य बताया जा रहा है जिसके संबंध पाकिस्तान और बांग्लादेश स्थित आतंकवादियों से हैं. गुजरात सरकार के वकील ने मजिस्ट्रेट को बताया कि आतंकवादी बनने का प्रशिक्षण देने के लिए हलीम मुसलमान नौजवानों को अहमदाबाद से उत्तर प्रदेश भेजा करते थे और इस कवायद का मकसद 2002 के नरसंहार का बदला लेना था. वकील के मुताबिक इन तथाकथित आतंकवादियों ने बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई दूसरे नेताओं को मारने की योजना बनाई थी. पुलिस का कहना था कि इस मामले में आरोपी नामित होने के बाद हलीम 2002 से ही फरार चल रहे थे.
इस मौलाना की गिरफ्तारी के बाद तहलका ने अहमदाबाद में जो तहकीकात की उसमें कई अकाट्य साक्ष्य निकलकर सामने आए हैं. ये बताते हैं कि फरार होने के बजाय हलीम कई सालों से अपने घर में ही रह रहे थे. उस घर में जो स्थानीय पुलिस थाने से एक किलोमीटर दूर भी नहीं था. वे एक सार्वजनिक जीवन जी रहे थे. मुसलमानों को आतंकवाद का प्रशिक्षण देने के लिए भेजने का जो संदिग्ध आरोप उन पर लगाया गया है उसका आधार उनके द्वारा लिखी गई एक चिट्ठी है. एक ऐसी चिट्ठी जिसकी विषयवस्तु का दूर-दूर तक आतंकवाद से कोई लेना-देना नजर नहीं आता.
दिलचस्प ये भी है कि शनिवार को हुए बम धमाकों से पहले अहमदाबाद पुलिस ने कभी भी हलीम को सिमी का सदस्य नहीं कहा था. ये बात जरूर है कि वह कई सालों से 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के पीड़ितों की मदद में उनकी भूमिका के लिए उन्हें परेशान करती रही है. हलीम के परिजन और अनुयायी ये बात बताते हैं. इस साल 27 मई को पुलिस थाने से एक इंस्पेक्टर ने हलीम को गुजराती में एक पेज का हस्तलिखित नोटिस भेजा. इसके शब्द थे, “मरकज-अहले-हदीस (इस्लामी पंथ जिसे हलीम और उनके अनुयायी मानते हैं) ट्रस्ट का एक दफ्तर आलीशान शॉपिंग सेंटर की दुकान नंबर चार में खोला गया है. आप इसके अध्यक्ष हैं...इसमें कई सदस्यों की नियुक्ति की गई है. आपको निर्देश दिया जाता है कि उनके नाम, पते और फोन नंबरों की सूची जमा करें.”
कानूनी नियमों के हिसाब से बनाए गए एक ट्रस्ट, जिसके खिलाफ कोई आपराधिक आरोप न हों, से की गई ऐसी मांग अवैध तो है ही, साथ ही इस चिट्ठी से ये भी साबित होता है कि पुलिस को दो महीने पहले तक भी सलीम के ठिकाने का पता था और वह उनसे संपर्क में थी. नोटिस में हलीम के घर—2, देवी पार्क सोसायटी का पता भी दर्ज है. तो फिर उनके फरार होने का सवाल कहां से आया. हलीम के परिवार के पास इस बात का सबूत है कि पुलिस को अगले ही दिन हलीम का जवाब मिल गया था.
एक महीने बाद 29 जून को हलीम ने गुजरात के पुलिस महानिदेशक और अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त को एक टेलीग्राम भेजा. उनका कहना था कि उसी दिन पुलिस जबर्दस्ती उनके घर में घुस गई थी और उनकी गैरमौजूदगी में उनकी पत्नी और बच्चों को तंग किया गया. हिंदी में लिखे गए इस टेलीग्राम के शब्द थे,“हम शांतिप्रिय और कानून का पालन करने वाले नागरिक हैं और किसी अवैध गतिविधि में शामिल नहीं रहे हैं. पुलिस गैरकानूनी तरीके से बेवजह मुझे और मेरे बीवी-बच्चों को तंग कर रही है. ये हमारे नागरिक अधिकारों का उल्लंघन है.”
जैसा कि संभावित था, उन्हें इसका कोई जवाब नहीं मिला. अप्रैल में जब सोशल यूनिटी एंड पीस फोरम नाम के एक संगठन, जिसके सदस्य हिंदू और मुसलमान दोनों हैं, ने एक बैठक का आयोजन किया तो लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत के लिए संगठन ने पुलिस को चिट्ठी लिखी. इस चिट्ठी में भी साफ जिक्र किया गया था कि बैठक में हलीम मुख्य वक्ता होंगे. ये साबित करने के लिए कि हलीम इस दौरान एक सामान्य जीवन जीते रहे हैं, उनका परिवार उनका वो ड्राइविंग लाइसेंस भी दिखाता है जिसका अहमदाबाद ट्रांसपोर्ट ऑफिस द्वारा 28 दिसंबर, 2006 को नवीनीकरण किया गया था. तीन साल पहले पांच जुलाई 2005 को दिव्य भास्कर नाम के एक गुजराती अखबार ने उत्तर प्रदेश के एक गांव की महिला इमराना के साथ उसके ससुर द्वारा किए गए बलात्कार के बारे में हलीम का बयान उनकी फोटो के साथ छापा था.
हलीम की रिहाई के लिए गुजरात के राज्यपाल से अपील करने वाले उनके मित्र हनीफ शेख कहते हैं, “ये आश्चर्य की बात है कि हमें मौलाना हलीम की बेगुनाही साबित करनी है.” नाजिर, जिनके मकान में हलीम अपने परिवार के साथ किराये पर रहा करते थे, कहते हैं, “मैं मौलाना को सबसे करीब से जानता हूं. वे धार्मिक व्यक्ति हैं और उनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं रहा है.” हलीम की पत्नी भी कहती हैं कि उनके पति आतंकवादी नहीं हैं और उन्हें फंसाया जा रहा है.हलीम को जानने वालों में उनकी गिरफ्तारी को लेकर हैरत और क्षोभ है. 27 वर्षीय अहसान-उल-हक कहते हैं, “मौलाना हलीम ने सैकड़ों लोगों को सब्र करना और हौसला रखना सिखाया है.” ये साबित करने के लिए कि हलीम फरार नहीं थे, हक अपना निकाहनामा दिखाते हैं जो हलीम की मौजूदगी में बना था और जिस पर उनके हस्ताक्षर भी हैं.
उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले 43 वर्षीय अब्दुल हलीम 1988 से अहमदाबाद में रह रहे हैं. वे अहले हदीस नामक एक इस्लामी संप्रदाय के प्रचारक हैं जो इस उपमहाद्वीप में 180 साल पहले अस्तित्व में आया था. ये संप्रदाय कुरान के अलावा पैगंबर मोहम्मद द्वारा दी गई शिक्षाओं यानी हदीस को भी मुसलमानों के लिए मार्गदर्शक मानता है. सुन्नी कट्टरपंथियों से इसका टकराव होता रहा है. मीडिया में लंबे समय से खबरें फैलाई जाती रही हैं कि अहले-हदीस एक आंतकी संगठन है जिसके लश्कर-ए-तैयबा से संबंध हैं. पुलिस दावा करती है कि इसके सदस्य 2006 में मुंबई में हुए ट्रेन धमाकों सहित कई आतंकी घटनाओं में आरोपी हैं. करीब तीन करोड़ अनुयायियों वाला ये संप्रदाय इन आरोपों से इनकार करता है और बताता है कि दो साल पहले जब इसने दिल्ली में अपनी राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की थी तो गृह मंत्री शिवराज पाटिल इसमें बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए थे.
14 साल तक अहमदाबाद में अहले हदीस के 5000 अनुयायियों का नेतृत्व करने के बाद हलीम तीन साल पहले इस्तीफा देकर एक छोटी सी मस्जिद के इमाम हो गए. अपनी पत्नी और सात बच्चों के परिवार को पालने के लिए उन्हें नियमित आय की दरकार थी और इसलिए उन्होंने कबाड़ का व्यवसाय शुरू किया.
हलीम की मुश्किलें 2002 की मुस्लिम विरोधी हिंसा के बाद तब शुरू हुईं जब वे हजारों मुस्लिम शरणार्थियों के लिए चलाए जा रहे राहत कार्यों में शामिल हुए. उस दौरान शाहिद बख्शी नाम का एक शख्स दो दूसरे मुस्लिम व्यक्तियों के साथ उनसे मिलने आया था. कुवैत में रह रहा शाहिद अहमदाबाद का ही निवासी था. उसके साथ आए दोनों व्यक्ति उत्तर प्रदेश के थे जिनमें से एक फरहान अली अहमद कुवैत में रह रहा था. दूसरा व्यक्ति हाफिज़ मुहम्मद ताहिर मुरादाबाद का एक छोटा सा व्यापारी था. ये तीनों लोग 2002 की हिंसा में अनाथ हुए बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा और देखभाल का इंतजाम कर उनकी मदद करना चाहते थे. इसलिए हलीम उन्हें चार शरणार्थी कैंपों में ले गए. एक हफ्ते बाद एक कैंप से जवाब आया कि उसने ऐसे 34 बच्चों को खोज निकाला है जिन्हें इस तरह की देखभाल की जरूरत है. हलीम ने फरहान अली अहमद को फोन किया जो उस समय मुरादाबाद में ही था और उसे इस संबंध में एक चिट्ठी भी लिखी. मगर लंबे समय तक कोई जवाब नहीं आया और योजना शुरू ही नहीं हो पाई. महत्वपूर्ण ये भी है कि किसी भी बच्चे को कभी भी मुरादाबाद नहीं भेजा गया.
तीन महीने बाद अगस्त 2002 में दिल्ली पुलिस ने शाहिद और उसके दूसरे साथी को कथित तौर पर साढ़े चार किलो आरडीएक्स के साथ गिरफ्तार किया. मुरादाबाद के व्यापारी को भी वहीं से गिरफ्तार किया गया और तीनों पर आतंकी कार्रवाई की साजिश के लिए पोटा के तहत आरोप लगाए गए. दिल्ली पुलिस को इनसे हलीम की चिट्ठी मिली. चूंकि बख्शी और हलीम दोनों ही अहमदाबाद से थे इसलिए वहां की पुलिस को इस बारे में सूचित किया गया. तत्काल ही अहमदाबाद पुलिस के अधिकारी डी जी वंजारा(जो अब सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में जेल में हैं) ने हलीम को बुलाया और उन्हें अवैध रूप से हिरासत में ले लिया. घबराये परिवार ने उनकी रिहाई के लिए गुजरात हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की. उनके परिवार के वकील हाशिम कुरैशी याद करते हैं, “जज ने पुलिस को आदेश दिया कि वह दो घंटे के भीतर हलीम को कोर्ट में लाए.” पुलिस ने फौरन हलीम को रिहा कर दिया. वे सीधा कोर्ट गए और अवैध हिरासत पर उनका बयान दर्ज किया गया जो अब आधिकारिक दस्तावेजों का हिस्सा है.
जहां दिल्ली पुलिस ने उत्तर प्रदेश के दोनों व्यक्तियों और शाहिद बख्शी के खिलाफ आरडीएक्स रखने का मामला दर्ज किया वहीं अहमदाबाद पुलिस ने इन तीनों के खिलाफ मुस्लिम युवाओं को मुरादाबाद में आतंकी प्रशिक्षण देने के लिए फुसलाने का मामला बनाया. अहमदाबाद के धमाकों के बाद पुलिस और मीडिया इसी मामले का हवाला देकर हलीम पर मुस्लिम नौजवानों को आतंकी प्रशिक्षण देने का आरोप लगा रहे हैं. हलीम द्वारा तीस नौजवानों को प्रशिक्षण के लिए मुरादाबाद भेजने की बात कहते वक्त गुजरात सरकार के वकील सफेद झूठ बोल रहे थे. जबकि मामले में दाखिल आरोपपत्र भी किसी को अहमदाबाद से मुरादाबाद भेजने की बात नहीं करता.
दिल्ली में दर्ज मामले में जहां हलीम को गवाह नामित किया गया तो वहीं अहमदाबाद के आतंकी प्रशिक्षण वाले मामले में उन्हें आरोपी बनाकर कहा गया कि वो भगोड़े हैं. कानून कहता है कि किसी को भगोड़ा साबित करने की एक निश्चित प्रक्रिया होती है. इसमें गवाहों के सामने घर और दफ्तर की तलाशी ली जाती है और पड़ोसियों के बयान दर्ज किए जाते हैं जो बताते हैं कि संबंधित व्यक्ति काफी समय से देखा नहीं गया है. मगर अहमदाबाद पुलिस ने ऐसा कुछ नहीं किया. हलीम के खिलाफ पूरा मामला उस पत्र पर आधारित है जो उन्होंने सात अगस्त 2002 को फरहान को लिखा था. इस पत्र में गैरकानूनी जैसा कुछ भी नहीं है. ये एक जगह कहता है, “आप यहां एक अहम मकसद से आए थे.” कल्पना की उड़ान भर पुलिस ने दावा कर डाला कि ये अहम मकसद आतंकी प्रशिक्षण देना था. हलीम ने ये भी लिखा था कि कुल बच्चों में से छह अनाथ हैं और बाकी गरीब हैं. पत्र ये कहते हुए समाप्त किया गया था, “मुझे यकीन है कि अल्लाह के फज़ल से आप यकीनन इस्लाम को फैलाने के इस शैक्षिक और रचनात्मक अभियान में मेरी मदद करेंगे.” आरडीएक्स मामले में दिल्ली की एक अदालत के सामने हलीम ने कहा था कि उनसे कहा गया था कि मुरादाबाद में बच्चों को अच्छी तालीम और जिंदगी दी जाएगी. उन्हें ये पता नहीं था कि बख्शी और दूसरे लोग बच्चों को आतंकी प्रशिक्षण देने की सोच रहे हैं.पिछले साल दिल्ली की एक अदालत ने “आरडीएक्स मामले” में बख्शी और फ़रहान को दोषी करार दिया और उन्हें सात-सात साल कैद की सज़ा सुनाई. बावजूद इसके कि तथाकथित आरडीएक्स की बरामदगी के चश्मदीद सिर्फ पुलिस वाले ही थे, कोर्ट ने पुलिस के ही आरोपों को सही माना. फरहान का दावा था कि उसे हवाई अड्डे से तब गिरफ्तार किया गया था जब वो कुवैत की उड़ान पकड़ने जा रहा था और उसके पास इसके सबूत के तौर पर टिकट भी थे. लेकिन अदालत ने इसकी अनदेखी की.
बख्शी और फरहान ने इस सज़ा के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की जिसने निचली अदालत द्वारा दोषी करार देने के बावजूद उन्हें ज़मानत दे दी. वहीं गुजरात हाई कोर्ट ने उन्हें “आतंकी प्रशिक्षण” मामले में ज़मानत देने से इनकार कर दिया जबकि उन पर आरोप सिद्ध भी नहीं हुआ था. गुजरात क्राइम ब्रांच भी ये मानती है कि इस मामले में उनका अपराध सिर्फ षडयंत्र रचने तक ही सीमित हो सकता है.
सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता. मुरादाबाद के ताहिर को आरडीएक्स मामले में बरी कर दिया गया था. वो एक बार फिर तब भाग्यशाली रहा जब गुजरात हाई कोर्ट ने जून 2004 में उसे आतंकवाद प्रशिक्षण मामले में ज़मानत दे दी. अदालत का कहना था, “वर्तमान आरोपी के खिलाफ कुल मिलाकर सिर्फ इतना ही प्रमाण है कि वो अहमदाबाद आया था और कैंप का चक्कर भी लगाया था, ताकि उन बच्चों की पहचान कर सके और उनकी देख रेख अच्छे तरीके से हो सके और इसे किसी तरह का अपराध नहीं माना जा सकता.”
बख्शी और फरहान पर भी बिल्कुल यही आरोप थे, लिहाजा ये तर्क उन पर भी लागू होना चाहिए. लेकिन गुजरात हाई कोर्ट के एक अन्य जज ने उन्हें ज़मानत देने से इनकार कर दिया और दोनों को जेल में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस बीच ताहिर अहमदाबाद आकर रहने लगा क्योंकि गुजरात हाई कोर्ट ने उसकी ज़मानत के फैसले में ये आदेश दिया था कि उसे हर रविवार को अहमदाबाद क्राइम ब्रांच ऑफिस में हाजिरी देनी होगी. 26 जुलाई को हुए धमाकों के बाद अगली सुबह रविवार के दिन डरा सहमा ताहिर अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के ऑफिस पहुंचा. ताहिर ने तहलका को बताया, “उन्होंने चार घंटे तक मुझसे धमाके के संबंध में सवाल जवाब किए. उस वक्त मुझे बहुत खुशी हुई जब उन्होंने मुझे जाने के लिए कहा.” आतंकी प्रशिक्षण मामले की सुनवाई लगभग खत्म हो चुकी है. अब जबकि हलीम भगोड़े नहीं रहे तो ये बात देखने वाली होगी कि उसके खिलाफ इस मामले में अलग से सुनवाई होती है या नहीं. इस बीच हलीम के परिवार को खाने और अगले महीने घर के 2500 रूपए किराए की चिंता सता रही है। हलीम की पत्नी बताती है है कि उनके पास कोई बचत नहीं है. हलीम की कबाड़ की दुकान उनका नौकर चला रहा है.
दुखद बात ये है कि मौलाना अब्दुल हलीम की कहानी कोई अकेली नहीं है. 15 जुलाई की रात हैदराबाद में अपने पिता के वर्कशॉप से काम करके वापस लौट रहे मोहम्मद मुकीमुद्दीन यासिर को सिपाहियों के एक दल ने गिरफ्तार कर लिया. दस दिन बाद 25 जुलाई को जब बंगलोर में सीरियल धमाके हुए, जिनमें दो लोगों की मौत हो गई, तो हैदराबाद के पुलिस आयुक्त प्रसन्ना राव ने हिंदुस्तान टाइम्स को एक नयी बात बताई. उनके मुताबिक पूछताछ के दौरान यासिर ने ये बात स्वीकारी थी कि गिरफ्तारी से पहले वो आतंकियों को कर्नाटक ले गया था और वहां पर उसने उनके लिए सुरक्षित ठिकाने की व्यवस्था की थी. मगर जेल में उससे मिलकर लौटीं उसकी मां यासिर के हवाले से तहलका को बताती हैं कि पुलिस झूठ बोल रही है, और पुलिस आयुक्त जिसे पूछताछ कह रहे हैं असल में उसके दौरान उनके बेटे को कठोर यातनाएं दी गईं. वो कहती हैं, “उसे उल्टा लटका कर पीटा जा रहा था.”
हालांकि पुलिस के सामने दिये गए बयान की कोई अहमियत नहीं फिर भी अगर इसे सच मान भी लें तो ये हैदराबाद पुलिस के मुंह पर एक ज़ोरदार तमाचा होगा. आखिर यासिर सिमी का पूर्व सदस्य था, उसके पिता और एक भाई आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद हैं. उसके पिता की जमानत याचिका सुप्रीम कोर्ट तक से खारिज हो चुकी है. ये जानते हुए कि उसके भाई और बाप खतरनाक आतंकवादी हैं हैदराबाद पुलिस को हर वक्त उसकी निगरानी करनी चाहिए थी, और जैसे ही वो आतंकियों के संपर्क में आया उसे गिरफ्तार करना चाहिए था.
पुलिस ने न तो यासिर के बयान पर कोई ज़रूरी कार्रवाई की जिससे बैंगलुरु का हमला रोका जा सकता और न ही वो यासिर द्वारा कर्नाटक में आतंकियों को उपलब्ध करवाया गया सुरक्षित ठिकाना ही ढूंढ़ सकी. इसकी वजह शायद ये रही कि उसने ऐसा कुछ किया ही नहीं था. तहलका संवाददाता ने हैदराबाद में यासिर की गिरफ्तारी के एक महीने पहले 12 जून को उससे मुलाकात की थी. उस वक्त यासिर अपने पिता द्वारा स्थापित वर्कशॉप में काम कर रहा था. उसका कहना था, “मेरे पिता और भाई को फंसाया गया है.” ऐसा लगता है कि अंतर्मुखी यासिर फर्जी मामलों का शिकार हुआ है. 27 सितंबर 2001 को सिमी पर प्रतिबंध लगाए जाने के वक्त वो सिमी का सदस्य था. (तमाम सरकारी प्रचार के बावजूद देश की किसी अदालत ने अभी तक एक संगठन के रूप में सिमी को आंतकवाद से जुड़ा घोषित नहीं किया है) यासिर ने देश भर में फैले उन कई लोगों की बातों को ही दोहराया जिनसे तहलका ने मुलाकात की थी. उसने कहा कि सिमी एक माध्यम था जो धर्म में गहरी आस्था और आत्मशुद्धि का प्रशिक्षण देता था और इसका आतंकवाद या फिर भारत विरोधी साजिशों से कोई नाता नहीं था। “सिमी चेचन्या से लेकर कश्मीर तक मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों की बात करता था”, यासिर ने बताया. “उसने कभी भी बाबरी मस्जिद का मुद्दा नही छेड़ा और इसी चीज़ ने हमें सिमी की तरफ आकर्षित किया”, वो आगे कहता है.
सिमी पर जिस दिन प्रतिबंध लगाया गया था उसी रात हैदराबाद में यासिर और सिमी के कई प्रतिनिधियों को ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. अगले दिन उन्हें ज़मानत मिल गई. एक दिन बाद ही पुलिस ने तीन लोगों को सरकार के खिलाफ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. दो लोगों को फरार घोषित कर दिया गया जिनमें यासिर भी शामिल था. उन्होंने कोर्ट में आत्मसमर्पण किया और उन्हें जेल भेज दिया गया. यहां यासिर को 29 दिनों बाद ज़मानत मिली. इस मामले में सात साल बीत चुके हैं, लेकिन सुनवाई शुरू होनी अभी बाकी है.
यासिर के पिता की किस्मत और भी खराब है. इस तेज़ तर्रार मौलाना की पहचान सरकार के खिलाफ ज़हर उगलने वाले के रूप में थी, विशेषकर बाबरी मस्जिद और 2002 के गुजरात दंगो के मुद्दे पर इनके भाषण काफी तीखे होते थे. तमाम फर्जी मामलों में फंसाए गए मौलाना को हैदराबाद पुलिस ने नियमित रूप से हाजिरी देने का आदेश दिया था.
इसी तरह अक्टूबर 2004 को जब मौलाना पुलिस में हाजिरी देने पहुंचे तो अहमदाबाद से आयी एक पुलिस टीम ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनके ऊपर गुजरात में आतंकवादी साजिश रचने और साथ ही 2003 में गुजरात के गृह मंत्री हरेन पांड्या की हत्या की साजिश रचने का आरोप था।
मौलाना के साथ पुलिस स्टेशन गए स्थानीय मुसलमानों ने वहीं पर इसका विरोध करना शुरू कर दिया। इस पर गुजरात पुलिस के अधिकारी नरेंद्र अमीन ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर निकाल कर फायर कर दिया जिसमें एक प्रदर्शनकारी की मौत हो गई। इसके बाद तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा। नसीरुद्दीन के समर्थकों ने अमीन के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग को लेकर मृत शरीर को वहां से ले जाने से इनकार कर दिया। अंतत: हैदराबाद पुलिस ने दो एफआईआर दर्ज कीं। एक तो मौलाना की गिरफ्तारी का विरोध करने वालों के खिलाफ और दूसरी अमीन के खिलाफ।
अमीन के खिलाफ दर्ज हुआ मामला चार साल में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा है। हैदराबाद पुलिस को उनकी रिवॉल्वर जब्त कर मृतक के शरीर से बरामद हुई गोली के साथ फॉरेंसिक जांच के लिए भेजना चाहिए था। उन्हें अमीन को गिरफ्तार करके मजिस्ट्रेट के सम्मुख पेश करना चाहिए था। अगर गोली का मिलान उनके रिवॉल्वर से हो जाता तो इतने गवाहों की गवाही के बाद ये मामला उसी समय खत्म हो जाता। पर ऐसा कुछ नहीं किया गया।
अमीन, मौलाना नसीरुद्दीन को साथ लेकर अहमदाबाद चले गए और उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर फाइलों में दब कर रह गई। अमीन ही वो पुलिस अधिकारी हैं जिनके ऊपर कौसर बी की हत्या का आरोप है। कौसर बी गुजरात के व्यापारी सोहराबुद्दीन की बीवी थी जिसकी हत्या के आरोप में गुजरात पुलिस के अधिकारी वंजारा जेल में है। अमीन भी अब जेल में हैं।
इस बीच अमीन के खिलाफ हैदराबाद शूटआउट मामले में शिकायत दर्ज करने वाले नासिर के साथ हादसा हो गया। नासिर मौलाना नसीरुद्दीन का सबसे छोटा बेटा और यासिर का छोटा भाई है। इसी साल 11 जनवरी को कर्नाटक पुलिस ने नासिर को उसके एक साथी के साथ गिरफ्तार कर लिया। जिस मोटरसाइकिल पर वो सवार थे वो चोरी की थी। पुलिस के मुताबिक उनके पास से एक चाकू भी बरामद हुआ था। पुलिस ने उनके ऊपर ‘देशद्रोह’ का मामला दर्ज किया।
आश्चर्यजनक रूप से पुलिस ने अगले 18 दिनों में दोनों के 7 कबूलनामें अदालत में पेश किए। इनमें से एक में भी इस बात का जिक्र नहीं था कि वो सिमी के सदस्य थे। इसके बाद पुलिस ने आठवां कबूलनामा कोर्ट में पेश किया जिसमें कथित रूप से उन्होंने सिमी का सदस्य होना और आतंकवाद संबंधित आरोपों को स्वीकार किया था। 90 दिनों तक जब पुलिस उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल करने में नाकाम रही तो नासिर का वकील मजिस्ट्रेट के घर पहुंच गया, इसके बाद क़ानून के मुताबिक उसे ज़मानत देने के अलावा और कोई चारा नहीं था। लेकिन तब तक पुलिस ने नासिर के खिलाफ षडयंत्र का एक और मामला दर्ज कर दिया और इस तरह से उसकी हिरासत जारी रही। इस दौरान यातनाएं देने का आरोप लगाते हुए उसने पुलिस द्वारा पेश किए गए कबूलनामों से इनकार कर दिया।
दोनों को पुलिस हिरासत में भेजने वाले मजिस्ट्रेट बी जिनाराल्कर ने तहलका को एक साक्षात्कार में बताया:
“जब मैं उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजने के लिए जरूरी कागजात पर दस्तखत कर रहा था तभी अब्दुल्ला (दूसरा आरोपी) मेरे पास आकर मुझसे बात करने की विनती करने लगा।” उसने मुझे बताया कि पुलिस उसे खाना और पानी नहीं देती है और बार-बार पीटती है। वो नासिर के शरीर पर चोटों के निशान दिखाने के लिए बढ़ा। दोनों लगातार मानवाधिकारों की बात कर रहे थे और चिकित्सकीय सुविधा मांग रहे थे”।
“मुझे तीन बातों से बड़ी हैरानी हुई—वो अपने मूल अधिकारों की बात बहुत ज़ोर देकर कर रहे थे। वो अंग्रेज़ी बोल रहे थे और इस बात को मान रहे थे कि उन्होंने बाइक चुराई थी। मेरा अनुभव बताता है कि ज्यादातर चोर ऐसा नहीं करते हैं।”
जब एक पुलिस सब इंस्पेक्टर ने मजिस्ट्रेट को फोन करके उन्हें न्यायिक हिरासत में न भेजने की चेतावनी दी तब उन्होंने सबसे पहले सबूत अपने घर पर पेश करने को कहा। “उन्होंने मेरे सामने जो सबूत पेश किए उनमें फर्जी पहचान पत्र, एक डिजाइनर चाकू, दक्षिण भारत का नक्शा जिसमें उडुपी और गोवा को चिन्हित किया गया था, कुछ अमेरिकी डॉलर, कागज के दो टुकड़े थे जिनमें एक पर www.com और दूसरे पर ‘जंगल किंग बिहाइंड बैक मी’ लिखा हुआ था।
जब मैंने इतने सारे सामानों को एक साथ देखा तो मुझे लगा कि ये सिर्फ बाइक चोर नहीं हो सकते। बाइक चोर को फर्जी पहचान पत्र और दक्षिण भारत के नक्शे की क्या जरूरत? उनके पास मौजूद अमेरिकी डॉलर से संकेत मिल रहा था कि उनके अंतरराष्ट्रीय संपर्क हैं। कागज पर www.com से मुझे लगा कि वे तकनीकी रूप से दक्ष भी हैं। दूसरे कागज पर लिखा संदेश मुझे कोई कूट संकेत लगा जिसका अर्थ समझने में मैं नाकाम रहा। इसके अलावा जब मैंने दक्षिण भारत के नक्शे का मुआयना शुरू किया तो उडुपी को लाल रंग से चिन्हित किया गया था। शायद उनकी योजना एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान उडुपी में हमले की रही हो।”
“मुझे लगा कि इतने सारे प्रमाण नासिर और अब्दुल्ला को पुलिस हिरासत जांच को आगे बढ़ाने के वास्ते हिरासत में भेजने के लिए पर्याप्त हैं।”
तो क्या मौलाना हलीम, मुकीमुद्दीन यासिर, मौलाना नसीरुद्दीन, और रियासुद्दीन नासिर के लिए कोई उम्मीद है? यासिर और नासिर की मां को कोई उम्मीद नहीं है। वे गुस्से में कहती हैं, “क्यों नहीं पुलिस हम सबको एक साथ जेल में डाल देती है।” फिर गुस्से से ही कंपकपाती आवाज़ कहती है, “और फिर वो हम सबको गोली मार कर मौत के घाट उतार दें।”
साभार : तहलका हिन्दी

आतंक, राशिद और इन्‍फोसिस

जयपुर में विस्‍फोट के कुछ दिनों बाद ही पुलिस ने कुछ लोगों को पकड़ा और दावा किया कि साजिश का पर्दाफाश हो गया है। हर पकड़ा गया शख्‍स मास्‍टरमाइंड था। इन्‍हीं में से थे- राशिद हुसैन। बिहार के रहने वाले। पेशे से इंजीनियर। इन्‍फोसिस में नौकरी। इनकी खता क्‍या थी। यह कभी सिमी से जुड़े थे, जब उस पर पाबंदी नहीं थी। लेकिन जो चीज उन्‍हें शक के दायरे में लाई- वह था सेवा करने का जज्‍बा। विस्‍फोट के बाद, राशिद उन चंद लोगों में शामिल थे, जो घायलों की मदद के लिए पहुँचे थे। पुलिस का दिमाग देखिए, उसे लगा ‘राशिद’ नामधारी व्‍यक्ति सेवा करने कैसे पहुँचा। जरूर दाल में काला है। और राशिद हो गए ‘आतंकी’। किसी तरह छूटे। इससे आगे की कहानी, अपूर्वानन्‍द बता रहे हैं। उनकी यह रिपोर्ट जनसत्ता और द टेलीग्राफ ने प्रकाशित की है.

राशिद हुसैन के स्वर में कड़वाहट नहीं थी. होना स्वाभाविक होता. आख़िर राजस्थान पुलिस ने उसे नौ दिन गैरकानूनी तरीके से बंद कर रखा था और लगातार यह कोशिश की थी कि उसे यह मानने पर मजबूर कर दिया जाए कि उसके ताल्लुकात ‘सिमी’ नामक संगठन के साथ हैं. उस मानसिक यंत्रणा को झेल कर भी राशिद टूटा नहीं. पुलिस से बच जाने के बाद जब राशिद ने अपनी कंपनी ‘इन्फोसिस’ में वापस काम पर जाना चाहा जहाँ वह इंजिनियर था तो उसे कुछ दिन आराम करने को कहा गया. आराम कि यह अवधि एक बार और बढाई गई. फिर जब वह अपने परिवार से मिलने पटना गया तो इन्फोसिस ने उसे एक अंदरूनी पैनल से बात करने को वापस जयपुर बुलाया. वहाँ उससे कहा गया कि कम्‍पनी के बाहर की उसकी गतिविधियों में कम्‍पनी की दिलचस्पी नहीं है और वह सिर्फ़ दो मामलों में उसकी सफाई चाहती है. उसने नौकरी माँगते समय यह बताया था कि वह पटना के एक कॉलेज में दो साल पढा चुका है जब कि कम्‍पनी ने यह पता किया है कि दरअसल यह अवधि तीन साल की थी. दूसरे, उसने जिस एक और कम्‍पनी में काम का अनुभव बताया था, उसका वहाँ कोई वजूद ही नहीं है.
राशिद ने बताया कि उसने कॉलेज में तीन साल पढाया था पर इन्फोसिस को सिर्फ़ दो साल का अनुभव बताया जो कि कम है, ज़्यादा नहीं. अगर वह बढ़ा कर बताता तो जुर्म हो सकता था पर एक साल के अनुभव का उल्लेख न करना तो कोई दुर्भावना नहीं. वह अपने काम का स्वरूप बदलना चाहता था इसलिए उसने अध्यापन के अनुभव से एक साल कम करके जिस दूसरी फर्म में वह साथ-साथ काम कर रहा था, उसके एक साल के तजुर्बे का उल्लेख अधिक प्रसांगिक समझ कर ऐसी जानकारी दी. दूसरी जिस फर्म में वह काम कर रहा था, मुमकिन है की इस बीच उसका किसी और बड़ी फर्म के साथ विलय हो गया हो.
लेकिन क्या यह सच नहीं की इन्फोसिस ने राशिद को नौकरी देने से पहले उसके द्वारा दी गई हर जानकारी की जाँच-परख करा ली थी? क्या उस वक्त उस फर्म से इन्फोसिस ने पता नहीं किया था की राशिद नाम का कोई व्यक्ति वहाँ काम करता है या नहीं, क्या इन्फोसिस अपने रिकॉर्ड से ख़ुद इसकी सच्चाई का पता नहीं कर ले सकती? अगर अभी वह कंपनी नही है तो इसमें राशिद क्‍या कर सकता है.
इन्फोसिस , जो कि नए भारत का एक लघु रूप ख़ुद को बताती है और जिसके साथ काम करने में किसी भी भारतीय नौजवान को फख्र का अनुभव होता है, जिसके मुखिया को भारत का राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक बनाने की चर्चा संचार माध्यमों में चलती रहती है, राशिद के इस उत्तर से प्रभावित नहीं. राशिद ने किया वह उसकी नैतिक संहिता के प्रतिकूल था, असत्य को वह सह नहीं सकती इसलिए उसने राशिद को बर्खास्त कर दिया. स्वयं को एक विशाल परिवार के रूप में प्रचारित करने वाली इस कमपनी ने नितान्त निर्वैयक्तिक ढंग से राशिद के एमबीए के इम्तहान के बीच बर्खास्तगी का यह आदेश भेज दिया.
जयपुर में बम धमाकों के बाद राशिद ने घायल लगों के बीच जाकर राहत का काम करने का निर्णय किया. वह पहले से एक छोटी स्वयं सेवी संस्था में काम करता है. इन्फोसिस के अपन काम के बीच वक्त निकाल कर उसने बम-धमाकों से प्रभावित लोगों का दुःख-दर्द बाँटने का निर्णय किया. हममें से ज़्यादातर ऐसा नहीं कर पाते. सेवा भारतीय संस्कृति में उतने रची- बसी नहीं है. एक जून को सुबह पाँच बजे स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप ने उसे घर से उठा लिया.
पुलिस को यह पता था की उसके सिमी से रिश्ते रहे हैं. राशिद ने बिना घबराए बताया की पैंतीस साल की उसके अब तक की जिंदागी में बंगलोर के डेढ़ साल सिमी से रिश्तों के थे. वह उस संगठन का पक्‍का सदस्य भी नहीं बन सका था. उसने कहा की सिमी की कई बातों से वह सहमत नहीं था. पटना में उसने कई संसदीय दलों के साथ काम किया था, इसलिए वह इस तर्क का कायल न था की भारत में मुसलमानों का हित इस व्यवस्था में सम्भव नहीं. वह भारतीय संविधान पर भी भरोसा रखता है. फिर 2001 के पहले सिमी से सम्बन्ध रखना कोई अपराध नहीं था क्योकि वह प्रतिबंधित संगठन न था. पाबंदी के बाद उसने सिमी से रिश्ता नहीं रखा.
पुलिस की पूछ ताछ के वक्त को याद करते हुए आप राशिद के स्वर में कटुता नहीं, एक उदासी का भाव लक्ष्य कर सकते हैं. उसने अपनी पूछ-ताछ में पाया की पुलिस महकमे में मुसलमानों के प्रति दुर्भावनापूर्ण पूर्वग्रह है. यह माना जाता है कि मुसलमान नौजवान का पढ़ा-लिखा होना और आधुनिक तकनीक में दक्ष होना उसके खतरनाक होने का सबूत है. आधुनिक तकनीक के सहारे वह बम बनने से लेकर न जाने क्या-क्या कर सकता है. अगर वह सर झुका कर अपने काम की जगह से घर नहीं जाता और सामाजिक या राजनीतिक रूप से सक्रिय नौजवान है, तो उसके खतरनाक होने की संभावनाएँ और बढ़ जाती हैं. इसका पता इस बात से चलता है की कहीं भी बम धमाके जैसी घटना होने बाद सबसे पहले मुसलमान इंजिनियर और डॉक्टर पकड़े जाते हैं. रशीद की घटना के बाद अभी फिर जयपुर में कुछ डाक्टर पकड़ लिए गए थे.
पुलिस और राज्य के मुसलमानों के प्रति इस पारंपरिक व्यवहार के साथ इन्फोसिस जैसी नए ढंग की कार्य संस्कृति का द्वावा करने वाली कंपनियों का बर्ताव मिल जाए तो फिर मुसलमान नौजवानों के लिए दरवाज्र बंद हो जाते हैं. इन्फोसिस क्या ईमानदारी से यह कह सकती है की राशिद को निकालने का फैसला राशिद के पकड़े जाने से नहीं जुडा है और वह किसी तरह उससे पल्ला नहीं छुडाना चाहती थी? क्या उसके मानव संस्थान प्रमुख श्री पाई ने यह नहीं कहा की जयपुर धमाके के बाद उन्होंने राशिद की पृष्ठभूमि की जाँच शुरू की ?
क्या अब निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ भारत की सुरक्षा एजेसियों को अपने यहाँ काम करने वाले मुस्लिम नौजवानों की जानकारी उपलब्ध कराने का काम भी कर रही हैं? क्या मुसलामानों के आर्थिक अलगाव का यह एक नया दौर शुरू हो रहा है? क्या तकनीकी क्षेत्र का हिन्दूकरण आरम्भ हो गया है, जैसे पहले से ही पुलिस और अन्य सुरक्षा एजेसियों का रहा है? क्या उन्हें यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि उन्हें आज्ञाकारी शहरियों की तरह काम से काम रखना चाहिए? क्या राजनितिक और सामाजिक रूप से सक्रिय मुसलमानों में यह राज्य सिर्फ़ अतीक, शहाबुद्दीन, मुख्तार जैसे चेहरों को ही स्वीकार करेगा या मुख्तार अब्बास नकवी और शानावाज़ हुसैन जैसे मुसलमानों को? क्या राशिद जैसे नौजवानों को अपनी राजनीतिक खोज बीन करने का हक नहीं रहेगा?
राशिद के स्वर में कड़वाहट नहीं थी, इसके लिए मैं पूरे हिन्दुस्तान की ओर से उसके प्रति शुक्रगुजार हुआ. उसने अपनी बर्खास्तगी के ख़िलाफ़ इन्फोसिस जैसी कमपनी से कानूनी लड़ाई लड़ने का फैसला किया, इसके लिए भी. उसने चुप रह कर, पिछले दरवाजे से पैरवी करके, हाथ पैर जोड़ कर नौकरी वापस लेने की कोशिश नहीं की, यह इसका सबूत है की बावजूद प्रतिकूल माहौल के मुसलमान इस मुल्क पर अपना हक समझते हैं और अपना दावा बिना झिझक पेश कर सकते हैं. क्या हम सब इस दावेदारी को और मजबूत करने को तैयार है?