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जेलों में सड़ने को अभिशप्त हैं मुस्लिम युवा

आतंक के नाम पर व्यवस्था एक समुदाय विशेष को प्रताड़ित करने के लिए कौन-कौन से तौर-तरीके अपना सकती है, वह हाल की कुछ घटनाओं से समझा जा सकता है। आतंकी घटनाओं के नाम पर पुलिस ने थोक के भाव मुस्लिम युवको की गिरफ्तारी की। पुलिस व सत्ता का यह उत्पीड़न यहीं नहीं रूका बल्कि एक सोची-समझी साजिश के तहत उन पर इतने केस लाद दिए गए ताकि वह जीवन भर जेल में सड़ने पर मजबूर हों। अगस्त 2009 में उर्दू मासिक पत्रिका अफकार-ए-मिल्ली में अबु जफर आदिल आजमी का एक महत्वपूर्ण लेख प्रकाषित हुआ। इसका अंग्रेजी अनुवाद मुमताज आलम फलाही ने किया है. प्रस्तुत है उसका हिंदी रूपान्तरण-

यह सच है कि अन्याय व दुहारे मापदंडों के साथ कोई भी समाज बहुत दिन तक नहीं चल सकता। दुर्भाग्य से भारत तेजी से इन्हीं मापदंडों की ओर बढ़ रहा है। आंतकवाद के मामले में मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी व न्याय में पुलिस, प्रशासन व न्यायापालिका का दुहरा मापदंड साफ नजर आता है।
2008 में देश में कई विध्वंसकारी धमाकों में सैकड़ों लोग मारे गए और घायल हुए। फलस्वरू, सैकड़ों मुस्लिम युवाओं को आतंकी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी का आंकड़ा हर साल बढ़ रहा है। 2007 में उत्तर प्रदेश की अदालतों में हुए धमाके के बाद गिरफ्तारी की प्रक्रिया में तेजी आई है। मुस्लिम युवकों के खिलाफ चल रहे मामलों को देखे तो ऐसा लगता है कि पुलिस व प्रषासन जानबूझ कर इन केस पर केस थोप रही हैं। इन मामलों के सुनवाई की जो गति है उससे यह तय है कि ये सभी कभी भी बाहर नहीं आ सकेगें।
आतंकवाद के मामले में पुलिस की जांच प्रक्रिया पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं, लेकिन हाल में मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी के बाद उन पर जैसे 40-40, 50-50 केस थोपे गए हैं यह एक बड़े शडयंत्र का हिस्सा लगता है। आतंक के मामले में बहुत से मुस्लिम युवकों पर पुलिस आरोप साबित नहीं कर सकी और अदालतों ने उन्हें मुक्त भी कर दिया। लेकिन षड़यंत्र के तहत उन्हें हाल के विस्फोटों में फिर से फंसाया गया।
जुलाई 2008 में अहमदाबाद श्रृंखलाबद्ध विस्फोट व सूरत से दर्जनों जिंदा बमों की बरामदगी के मामले में सूरत पुलिस ने 35 मामलों में 102 लोगों को दोशी माना। इसमें से 52 को गिरफ्तार किया गया और लगभग सभी मामलों में दोशी बताया गया। मई 2008 में जयपुर धमाकों के बाद 8 मामलों में 11 लोगों को दोशी बताया गया। चार की गिरफ्तारी हुई। सितम्बर 2008 में दिल्ली श्रृंखलाबद्ध विस्फ्ोट के बाद 8 मामले में 28 लोगों को दोषी बताया गया। इसमें 16 लोगों को गिरफ्तार किया गया। मुबंई पुलिस ने इंडियन मुजाहिद्दीन के सदस्य के नाम पर 21 लोगों को गिरफ्तार किया।
मुंबई पुलिस की अपराध शाखा ने सादिक शेख को देश के हालिया सभी विस्फोटों का मुख्य षड़यंत्रकारी बताया। पुलिस ने मैकेनिकल इंजीयर 38 वर्षीय सादिक शेख इंडियन मुजाहिदीन का संस्थापक सदस्य बताया। उसने अपने पाकिस्तानी मित्र आमीर रजा की मदद से देश में विस्फ्ोटों का षड़यंत्र रचा। पुलिस के अनुसार शेख 2005 के बाद देश में हुए सभी धमाकों में संलिप्त था। उसने 2001 में पाकिस्तान जाकर हथियार चलाने का प्रषिक्षण लिया तथा मुबंई व आजमगढ़ के कई युवाओं को इस प्रषिक्षण के लिए पाकिस्तान भेजा। उस पर अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता व मुबंई धमाकों के मामले में 52 मुकदमें कायम किए गए। उसे 11 अन्य के साथ 11 जुलाई को मुबंई की लोकल ट्नों में हुए धमाकों के मामले में भी दोषी माना गया। उसे मकोका में गिरफ्तार किया गया। उसने टीवी चैनलों के सामने इन सभी मामलों में अपनी संलिप्तता कबूल की। जिसके बाद मुंबई अपराध शाखा ने इस केस को एटीएस के हवाले कर दिया। एटीएस ने मामले को हाथ में लेते ही कोर्ट से टीवी चैनलों पर दिखाए जा रहे उसके कबूलनामे पर तुरंत रोक लगाने की मांग की। अदालत ने एटीएस की अपील कबूल कर ली। अपनी जांच में एटीएस ने सादिक शेख को क्लीनचिट दे दी और मकोका कोर्ट में उसके 11 जुलाई को मुबंई की लोकल टे्न धमकों के मामले में किसी भी तरह की संलिप्तता से इंकार किया। एटीएस के अनुसार शेख ने इस मामले में शेख ने बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए अतीफ अमीन के दबाव में आकर इस ब्लास्ट में खुद को षामिल होना बताया था। हालांकि एटीएस इस बात का जवाब नहीं दे सकी कि अतीफ ने कब और क्यों उस पर दबाव दिया जबकि इंडियन मुजाहिदी में वह शेख से जूनियर था।
इस धमाकों में मुहम्मद सैफ को भी मुख्य दोषी बताया गया। आजमगढ़ के संजरपुर गांव के सैफ ने दिल्ली से इतिहास में एमए किया था। वह अंग्रेजी व कम्प्यूटर साफ्टवेयर का भी कोर्स कर रहा था। बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद पुलिस ने सैफ को उसके फ्लैट से गिरफ्तार किया था। 23 वर्शीय सैफ पर दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद और सूरत विस्फोट के मामलें में 45 केस लगाए। उस पर आरोप था कि उसने इन शहरों में बम रखे। उधर, उत्तर प्रदेश पुलिस ने उसे अदालतों में विस्फोट मामले में भी संलिप्त बताया। पुलिस ने उसे संकट मोचन मंदिर व बनारस रेलवे स्टेशन पर हुए विस्फोट मामलों में पूछताछ के लिए कई दिनों तक पुलिस अभिरक्षा में रखा लेकिन अभी तक इस मामले में कोई चार्जषीट नहीं दे सकी।
मंसूर असगर को इंडियन मुजाहिद्दीन के नाम से मेल भेजने के आरोप में पुणे से गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी से केवल एक माह पहले मंसूर ने 19 लाख रूपए सलाना पैकेज पर याहू में मुख्य इंजीनियर के पद पर ज्वाइन किया था। उस पर मुंबई, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली व हैदराबाद विस्फोटों के षडयंत्र रचने व साइबर अपराध के मामले में 40 से ज्यादा केस दर्ज किए गए।
मुफ्ती अबुल बशर को गुजरात पुलिस व यूपी एटीएस ने संयुक्त रूप से उसके गांव बीनापारा से 14 अगस्त, 2008 को गिरफ्तार किया। लेकिन उसकी गिरफ्तारी चारबाग रेलवे स्टेषन से दिखाई गई। उसे इंडियन मुजाहिद्दीन के मुखिया और अहमदाबाद विस्फोटों का मास्टरमाइंड बताया गया। आज उस पर अहमदाबाद, सूरत, हैदराबाद और बलगाम विस्फोट के मामले में 40 से अधिक केस चल रहे हैं।
कयामुद्दीन कपाड़िया को जनवरी 2009 में मध्यप्रदेश से गिरफ्तार किया गया। लेकिन उसके परिजनों का कहना है कि वह गिरफ्तारी के पांच माह पहले से ही लापता था। उस पर सिमी का वरिश्ठ सदस्य होने, गुजरात और केरल के जंगलों में प्रषिक्षण शिविर लगाने और अहमदाबाद, सूरत, और दिल्ली विस्फोटों में शामिल होने का आरोप लगाया गया। उस पर भी अलग-अलग राज्यों में 40 से अधिक केस चल रहे हैं।
आजमगढ. के असरोली गांव निवासी 38 वर्शीय आरिफ बदरूद्दीन शेख को मुबंई पुलिस ने बम बनाने का विषेशज्ञ बताया। उसे 2005 के बाद देश में हुए सभी धमाकों से जोड़ा गया। आरिफ के पिता मानसिक रूप से कमजोर थे। उसकी गिरफ्तारी के दो माह बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। आरिफ की अंधी मां अपनी बेटी की ससुराल में टूटी-फूटी झोपड़ी में दिन गुजार रही है। आरिफ पर भी मुबंई, दिल्ली, अहमदाबाद व सूरत धमाके के मामले में 41 केस चल रहे हैं।
सैफुर रहमान को मध्य प्रदेश एटीएस ने जबलपुर से अप्रैल 2009 में तब गिरफ्तार किया गया जब वह अपनी बहन को आजमगढ़ से उसकी ससुराल मुबंई लेकर जा रहा था। दोनों गोदान एक्सप्रेस में सफर कर रहे थे। एटीएस ने उसकी बहन को भी 12 घंटे हिरासत में अवैध तरीके से बिठाए रखा। सैफुर रहमान को अहमदाबाद और जयपुर विस्फोटों का दोषी बताया गया। उसने भोपाल में अदालत के सामने इन विस्फोटों में शामिल होना स्वीकार भी कर लिया, लेकिन जयपुर में मजिस्ट्ेट के सामने उसने इन विस्फोटों में षामिल होने से इंकार कर दिया। मजिस्टे्ट के सामने उसने कहा कि म प्र एटीएस ने उसे प्रताड़ित किया और उसकी बहन से बलात्कार करने की धमकी दी। एटीएस के दबाव में उसने अदालत में विस्फोेटो में अपनी संलिप्तता की बात कही थी। जयपुर एटीएस ने अदालत से उसके नार्को टेस्ट की अनुमति भी मांगी जिसे अदालत ने खारिज कर दिया।
इसके विपरित एक नाटकीय घटनाक्रम में जयपुर विस्फोटों के कथित आरोपी शाहबाज हुसैन ने अदालत में खुद को निर्दोश साबित करने के लिए नार्को व अन्य टेस्ट कराने की गुजारिश की। यह देष में अपनी तरह का पहला ऐसा मामला था जब एक कथित दोश्ज्ञी ने खुद ही नार्को टेस्ट की मांग की। अभियोजन पक्ष ने उसकी मांग का विरोध किया, जिसके आधार पर मजिस्ट्ेट ने उसकी मांग अस्वीकार कर दी।
ये हाल के बम विस्फोटों में गिरफ्तार 200 लोगों में से कुछ प्रमुख नाम हैं। इन केसों में अभी गिरफ्तार लोगों से कहीं ज्यादा फरार है। पुलिस और सरकार इन मामलों में जगह-जगह मानवाधिकार का हनन किया। मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी के बाद उन पर केस लाए गए। यह देश के इतिहास में अपनी तरह का दुर्लभ उदाहरण है। सादिक शेख पर 54 केस चल रहे हैं। इसमें अभी कई मामलों में उसे पुलिस ने रिमांड पर नहीं लिया है। अगर पुलिस उसे हर केस के लिए 14 दिन की रिमांड पर भी ले तो 2 वर्श उसे पुलिस रिमांड में ही गुजारने होंगे। दोशियों को एक से दूसरे राज्य ले जाने में जो समय लगेगा वो अलग है। अब कल्पना की जा सकती है, कि सुनवाई से पहले आरोप पत्र भरने में कितना समय लगेगा जो कि भारतीय कानून के मुताबिक किसी भी अपराधी की सुनवाई से पहले भरना जरूरी होता है।
कई ऐसी भी खबरें हैं जिसमें इन कथित दोशियों को पुलिस हिरासत के अलावा जेल में भी प्रताड़ित किया गया और उन पर केस लादे गए। गुजरात में साबरमती जेल में बंद आरोपियों पर चल रहे केसों में एक केस जेल में रहते हुए दर्ज किया गया। एक के बाद एक केस लगाए जा रहे हैं मुकदमों के संबंध में जामिया साॅलिडेरिटी गु्रप की नेता मनीशा सेठी कहती हैं कि सरकार केसों को जटिल बनाकर अपना पीछा छुड़ना चाहती है। आतंक के खिलाफ युद्ध जैसी आयातित अवधारणा को कांग्रेस बढ़ावा दे रही हैै और मुस्लिमों के खिलाफ उसे हथियार की तरह प्रयोग कर रही है। संजरपुर संघर्श समिति के अध्यक्ष मसीहुद्दीन कहते हैं कि अब इन लोगों को खुद को बेकसूर साबित करने के लिए यह जीवन भी कम पड़ेगा।
जमाते-उलेमा-ए-हिंद की तरफ से सादिक शेख का मुकदमा लड़ रहे वकील शाहीद आजमी के अनुसार यह षिक्षित मुस्लिम युवकों की जिंदगी जेलों में सड़ाने की साजिश है। यही तरीका नक्सलवादियों के खिलाफ भी अख्तियार किया जा चुका है। नक्सलवादियों में कई आज भी 30 सालों से जेलों में है और उन पर 70-80 से केस हैं। पीयूसीएल के उत्तर प्रदेश के संयुक्त सचिव राजीव यादव कहते हैं कि पुलिस व सरकार का यह तरीका अमरिका से आयातित है। वहां यही तरीका काले नीग्रो लोगों के खिलाफ अपनाया गया। वे या तो इतना केस लाद देना चाहते हैं जिसमें छुटना मष्किल हो या 200-250 सालों के जेल में डाल देना चाहते हैं।
गिरफ्तार युवकों के परिजन और संबंधी गूंगे बहरे की तरह केस की संख्या और जटिलता देखने पर मजबूर हैं।

आतंकी घटनाओं के संबंध में विभिन्न जगहों से गिरफ्तार आरोपियों पर दर्ज मुकदमे

नाम - अहमदाबाद - सूरत - दिल्ली - मुबंई - जयपुर - अन्य - योग
सदिक शेख - 20 - 15 - 5 - 1 - 0 - हैदराबाद/कोलकाता - 54
आरिफ बदर - - 20 - 15 - 5 - 1 - 0 - 41
म्सूर असगर - - 20 - 15 - 5 - 1 - 0 - 41
मो सैफ - 20 - 15 - 5 - 5 - 0 - 45
मुफ्ती अबुल बशर - 21 - 15 - 0 - 0 - 0 - बेलगाम/हैदराबाद - 40
सैफुर रहमान - 20 - 15 - 6 - 0 - 0 - 40
कयामुद्दीन कपाड़िया - 21 - 15 - 5 - 0 - 0 - इंदौर - 40
जावेद अहमद सागीर 21 - 15 - 0 - 0 - 0 - 36
गयासुद्दीन - 21 - 15 - 0 - 0 - 0 - 36
जाकिर शेख - 20 - 15 - 1 - - 36
साकिब निसार - 20 - 15 - 5 - 0 - 0 - 40
जीशान - 20 - 15 - 5 - 0 - 0 - 40

पुलिस ने उनकी चार्जषीट को भी तोड़मरोड़ कर पेश किया। अहमदाबाद व सूरत के 35 मामलों में पुलिस ने 60 हजार पेजों की आरोप पत्र पेश किया। मुबंई अपराध ब्यूरो ने 18 हजार पेजों का आरोप पत्र पेष किया। इसी प्रकार जयपुर विस्फोट के मामले में 12 हजार पेजों का आरोप पत्र पेश किया गया। सभी आरोप पत्र हिंदी, मराठी व गुजराती में हैं, यदि यह मामले सुप्रीम कोर्ट तक जाते हैं तो आरोप पत्रों को अंग्रेजी में अनुवाद करने में और ज्यादा परिश्रम व समय की जरूरत होगी।


विभिन्न मामलों में दर्ज मुकदमे व आरोप पत्र

शहर - केसों की संख्या - आरोपी - गिरफ्तार - आरोप पत्र के पेज
अहमदाबाद/सूरत - 36 - 102 - 52 - 60000
मुंबई - 1 - 26 - 21 - 18009
जयपुर - 8 - 11 - 4 - 12000
दिल्ली - 7 - 28 - 16 - 10000

अभियोजन पक्ष इन सभी मामलों में चष्मदीदों की भीड़ भी जुटा चुका है। हर केस में 50-250 चष्मदीद गवाह हैं। अहमदाबाद व सूरत केस में तो कई दोशी विस्फोट के पहले से ही जेलों में हैं। उदाहरण के लिए सफदर नागौरी, षिब्ली, हाफिज, आमील परवेज सहित 13 अन्य को 27 मार्च 2008 को ही मध्य प्रदेश से गिरफ्तार किया गया था, लेकिन उन्हें अहमदाबाद व सूरत मामले का मुख्य आरोपी बताया गया। इसी तरह राजुद्दीन नासिर, अल्ला बक्ष और मिर्जा अहमद जून 2008 से कर्नाटक पुलिस की हिरासत में थे, लेकिन उन्हें भी अहमदाबाद व सूरत मामलों का दोशी बताया गया।
एडवोकेट शाहिद आजमी कहते हैं कि साजिश रचने का आरोप एक हथियार की तरह है जिसे पुलिस कभी भी किसी भी मामले में प्रयोग कर सकती है। आफकार-ए-मिल्ली से बातचीत में वह कहते हैं कि अफजल मुतालिब उस्मानी जिसे 24 सितम्बर को मुंबई से गिरफ्तार दिखाया गया, उसे वास्तव में 27 अगस्त को लोकमान्य टर्मिनल से पकड़ा गया था। वह अपने घर वह अपने घर से गोदान एक्सप्रेस पकड़ मुंबई पहुंचा था। हमने संबंधित अधिकारियों को तुरंत टेलीग्राम से इसकी सूचना दी लेकिन उन्होंने नजरअंदाज कर दिया। 28 अगस्त को उसे मेट्ोपोलिटीन मजिस्टे्ट के सामने पेश किया गया। लेकिन मुंबई अपराध ब्यूरो के अनुरोध पर मजिस्टे्ट ने उसकी गिरफ्तारी और रिमांड को रजिस्ट्र में दर्ज नहीं किया। इसी तरह सादिक शेख को 17 अगस्त को गिरफ्तार किया गया, लेकिन उसे 24 अगस्त को विस्फोटक, हथियारों व पांच अन्य के साथ गिरफ्तार दिखाया गया। विषेशों के अनुसार पकड़े गए आरोपियों के किसी भी मुकदमें का निस्तारण दो साल से कम समय में नहीं होगा। अलग-अलग मामलों में अलग-अलग जगहों से पकड़े गए आरोपियों के केस और लंबे खिचेंगे।
सवाल उठता है कि एक बूढ़ा पिता अपने बेटे को छुड़ाने के लिए कब तक लड़ेगा। गिरफ्तारी के एक साल बाद भी न तो आरोपियों पर आरोप तय हो सके हैं न ही मुकदमे षुरू हो सके हैं। उन्हें खुद को निर्दोष साबित करने में और कितना समय लगेगा? न्याय की धीमी गति को देखकर लगता है कि वह केस का अंत देख सकेंगे? यह सादिक शेख, अबुल बशर, मंसूर असगर, आरिफ बद्र या सैफुर रहमान के ही सवाल नहीं बल्कि उन 200 युवकों के सवाल भी हैं जो पिछले एक साल से जेलों में सड़ रहे हैं।

अनुवाद व प्रस्तुति- विजय प्रताप

बाटला हाउस के बाद आजमगढ़

13 सितंबर 08 को दिल्ली बम धमाकों में आजमगढ़ के लोगांें का नाम आने के बाद पूरे जिले में दहशत का माहौल हो गया। मीडिया द्वारा आ रही खबरों और बिना नंबर प्लेट की गाड़ियों में घूम रहे सादी वर्दी के एसटीएफ वालों ने ऐसे कई नाम लिए जिनको 19 सितंबर को हुए बाटला हाउस फर्जी एनकाउंटर के बाद भुला दिया गया। दिल्ली स्पेशल सेल ने इस एनकाउंटर में आजमगढ़ के साजिद और आतिफ अमीन को मुठभेड़ में मारने का दावा किया। इस कार्यवाई में मोहन चंद्र शर्मा की मौत और एक अन्य पुलिस कर्मी को गोली लगने की जानकारी पुलिस ने दी।
22 वर्षीय आतिफ अमीन पुत्र मो0 अमीन जामिया मीलिया में हयूमन रिसोर्स डैवलपमेंट में रिसर्च कर रहा था। वह कई सालों से दिल्ली में रह रहा था। संकट मोचन, गोरखपुर, अयोध्या, यूपी के कचहरीयों, अहमदाबाद, दिल्ली और जयपुर के धमाकों का उसे आरोपी बताया गया। पुलिस ने बताया की आतिफ इंडियन मुजाहिद्दीन के ही घटक गजनवी ब्रिगेड, जिसे बम धमाकों की जिम्मेदारी सौपी गई थी, का प्रमुख था।
संजरपुर के लोगांे को मीडिया से मालूम हुआ कि आतिफ और साजिद की हत्या और सैफ को गिरफ्तार किया गया है। आतिफ मूल रुप से संजरपुर का रहने वाला था लेकिन सरायमीर में उसके पिता ने कई साल पहले घर बनवा लिया था जहां उसका पूरा परिवार शिफ्ट हो गया था। गाव वालों के मुताबिक वह एक अच्छा एथलीट था और दिल्ली रहने के बावजूद गांव आया-जाया करता था। वहीं दूसरी ओर साजिद पुत्र डा0. अंसारुल हस्सान पहली बार आजमगढ़ से तीन महीने पहले जामिया में प्रवेश के लिए गया था पर प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण न कर पाने के कारण वह वापस आजमगढ़ लौट आया था। लेकिन महीने भर बाद ही वह फिर दिल्ली जाकर कम्प्यूटर और अग्रेंजी स्पीकिंग का कोर्स करने लगा। जिसको एक महीने बाद ही पुलिस ने बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ में मार दिया। जिस पर तमाम मानवाधिकार संगठनों ने सवाल उठाया। और अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी दिल्ली पुलिस को इस फर्जी मुठभंेड़ पर क्लीन चिट देकर अपनी प्रासंेगिकता और विश्वसनियता पर खुद प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
रिपोर्ट के अनुसार इस मुठभेड़ में आतिफ और साजिद को गाली लगी जिससे उनकी मौत हो गयी और मोहन चंद्र शर्मा और बलवंत सिंह को भी गोली लगी। मोहन चंद्र शर्मा को और दूसरे पुलिस कर्मी को अस्पताल ले जाया गया जहां देर शाम मोहन चंद्र शर्मा की मौत हो गयी।
जिशान पुत्र प्रो0 एहसान भीे इन लोगों के साथ रहता था और उस दिन परीक्षा देने गया था। जिशान को लौट के आने के बाद जब पता चला कि साजिद और आतिफ को पुलिस ने मार दिया है तो उसने अपने पिता प्रो0 एहसान को फोन किया। प्रो0 एहसान बताते हैं कि मैंने उससे तुरंत कहा कि तुम सरेंडर कर दो और उसने आज तक के आफिस जाकर सरेंडीर किया पर बाद में पुलिस वालों ने उसे भी गिरफतार करने का दावा किया। 21 सितंबर को साकिब निसार, जियाउर्रहमान और शकील को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
बाटला हाउस फर्जी एनकाउंटर के बाद पुलिस ने आजमगढ़ के दर्जनों युवकों का नाम देश में हुए बम धमाकों से जोड़ते हुए आरोपी बताया। इनकी गिरफतारियों के लिए पुलिस ने जगह-जगह छापे मारी की। 22 सितंबर 08 को साढे़ छह बजे के तकरीबन संजरपुर में छापेमारी शुरु की। पुलिस ने आरिफ, खालिद, सलमान, साजिद बड़ा, डा0 शाहनवाज जो बाटला हाउस से पकड़े गए सैफ के भाई हैं के घरों पर छापा डाला। छापे मारी के दौरान पुलिस का रवैया आपराधिक और सांप्रदायिक था। इसी छापे मारी ही नहीं बल्कि अनेक गिरफ्तारियों में देखा गया एसटीएफ के सिपाही बिना वर्दी के और बिना नंबर प्लेट की गाड़ियों से आते थे। छापे-मारी में महिलाओं के साथ अभद्रता और कुरान जैसे धार्मिक पुस्तकों फाड़ना फेकना और यह कहना कि इसी को पढ़ तुम्हारे बच्चे आतंकवादी बनते हैं आम बात हो गयी थी। एसटीएफ की बिना नंबर प्लेट की गाड़ियों और उसमें भारी मात्रा में असलहे और रस्सों की जब जानकारी स्थानीय थानाध्यक्ष कमलेश्वर सिंह को दी गयी तो उन्होंने कहा कि वो जो कर रहे हैं सही कर रहे हैं और ऐसा ही करना चाहिए। इसकी सूचना डीएम, एसपी, डीआईजी तक को दी गयी लेकिन इन लोगों ने भी कोई कायवाई का न आश्वासन दिया और न ही कोई एक्शन लिया और बल्कि इन बिना वर्दीधारी एसटीएफ वालों को ही संरक्षण दिया।

बाटला हाउस के बाद सभी प्रदेशों की पुलिस ने इसका श्रेय लेने की होड़ में कई नाम लिए। मुबई पुलिस कई साल पहले के बाम्बे ट्रेन ब्लास्ट के कई आरोपियों का नाम 24 सितंबर को लेना शुरु किया और इनको गिरफ्तार करने का दावा किया। जिनमें आरिफ बदर, सादिक शेख जाकिर शेख और अफजल उस्मानी को जो मऊ का रहने वाला था को गिरफ्तार किया। जिनमें आरिफ बदर को दिल्ली और अहमदाबाद विस्फोटों में भी दिखा दिया गया। वहीं जाकिर शेख को संकट मोचन और उत्तर प्रदेश की कचहरियों में हुए धमाकों का आरोपी बताया गया। यहां गौर करने की बात है कि कई घटनाओं में चार्ज शीट और सजा होने के बाद बाटला हाउस प्रकरण में पकड़े गए लोगों पर पुनः आरोप लगाया गया। ऐसा करने से एक-एक वयक्ति पर पचास-पचास मुकदमें दर्ज हैं। इन पकडे़ गये नौजवानों की औसत आयु 22-23 वर्ष के आस-पास हैं जिसमें अधिकांश उच्चशिक्षा में अध्यनरत थे या फिर कोई तकनीकी काम करते थे।
‘गायब’ होने वालों में अबू राशिद भी हैं जो संजरपुर के ही हैं और मुंबई में आप्टीशियन की दुकान पर काम करता है। उसकी तलाश में पुलिस उसके घर गयी। लेकिन उस दौरान अबू राशिद अपने पैतृक गांव संजरपुर आए हुए थे इसलिए पुलिस ने उनके भाई अबू तालिब और उनके चाचा से ही पूछताछ की। पुलिस ने उन पर दबाव बनाया कि वो अपने भाई को बिना यूपी की पुलिस और किसी अन्य को बताए मुबंई बुला ले। 23 सितंबर को मीडिया वालों की मौजूदगी जिसमें आज तक भी था के सामने अबू राशिद ने बताया कि उसके भाई और परिवार वालों को मुबई पुलिस परेशान कर दबाव डाल रही है कि वो मुझे मुंबई बुला लें इसलिए मैं जा रहा हूं। इसके बाद अबू राशिद ने घर बताया कि वह वाराणसी जाकर गाड़ी पकड़ेगा मुंगई के लिए। उसके बाद से अबू राशिद का पता नहीं चला। अबू राशिद के मुंबई न पहुंचने पर पुलिस ने उसके भाई अबू तालिब को आजमगढ़ ले आयी। अब अबू तालिब अपना करोबार छोड़ डर व दरहशत में मुंबई नहीं जा रहे हैं। गांव वाले व परिवार वालों का मानना है कि जिस पुलिस ने उनके घरों पर पहरा डाल दिया है उसी ने उसे उठा लिया है और कभी भी किसी घटना में गिरफतार करने का मार गिराने का दावा करेगी। क्योंकि अगर अबू राशिद को भागना होता तो वह मीडिया वालों के सामने क्यों आता चोरी से भाग जाता। आजमगढ़ में ऐसे दर्जनों अबू राशिद हैं जिनमें कुछ को तो मानवाधिकार संगठनों व आम नागरिकों की सक्रियता के चलते चिन्हित कर लिया गया है जो पुलिस की गैर कानूनी हिरासत में हैं जिन्हें कभी भी कहीं भी दिखाया जा सकता है। लेकिन डर व दहशत के माहौल में कई लोगों ने अपनों के गायब होने की जानकारी देने से बचते हैं। हम यहां आजमगढ़ में अब तक कितने गिरफ्तार, कितने गायब और कितने पुलिस की गोली के शिकार हुए की एक सूची जारी कर रहे हैं।

पुलिस की गोली के शिकार

1-आतिफ अमीन पुत्र मो0 अमीन, ग्राम संजरपुर दिल्ली, 52 मुकदमें, अहमदाबाद, जयपुर, बनारस संकटमोचन, यूपी कचहरी ब्लास्ट
2-साजिद पुत्र डा0 अनसारुल हस्सान, ग्राम संजरपुर, 52 मुकदमें, अहमदाबाद, जयपुर, बनारस संकटमोचन, यूपी कचहरी ब्लास्ट

गिरफ्तार किए गए

1-हकीम तारिक कासमी पुत्र रियाज अहमद, ग्राम सम्मोपुर, यूपी कचहरी धमाकों का आरोप
2-अबुल बसर पुत्र अबू बकर, ग्राम बीनापारा, अहमदाबाद 19 धमाके, एक गांधी नगर, 15 सूरत में जो बम पकडे़ गए उसमें
3-सरवर पुत्र मो हनीफ, ग्राम चादपटटी, 8 मुकदमें जयपुर
4-सैफउर्रहमान पुत्र अब्दुल रहमान, शहर आजमगढ,आरोप ़ अहमदाबाद, जयपुर धमाकों का
5-मो0 सैफ पुत्र शादाब अहमद ग्राम संजरपुर, 52 मुकदमें -दिल्ली, जयपुर, अहमदाबद ,कर्नानटका में संभवित
6-आरिफ पुत्र मिर्जा नशीम अहमद, ग्राम संजरपुर, 36 मुकदमें-
लखनऊ, अहमदाबद
7-साकिब निसार पुत्र निशार अहमद पूरा परिवार दिल्ली में रहने लगा है मुकदमें दिल्ली, अहमदाबाद
8-हाकिम पुत्र अब्दूल करीम, रहमत नगर, मुकदमें 9-दिल्ली 9-जीशान पुत्र प्रो0 एहसान, मुकदमें 35- दिल्ली, अहमदाबाद
10-सादिक हुसैन पुत्र मो0 अमीन अंसारी, ग्राम पुराबाग मुबारकपुर, आरोप मुबई से आजमगढ़ के लिए हथियार लाने का
11-खलीलुर्रहमान पुत्र मतीउलला, ग्राम नया पुरा मुबारकपुर,आरोप मुबई से आजमगढ़ के लिए हथियार लाने का
12-मासूम रज़ा पुत्र रियाजुल हसन,ग्राम पुरा रानी मुबारकपुर,आरोप मुबई से आजमगढ़ के लिए हथियार लाने का
13-नजरे आलम पुत्र जफर आलम मपुरारानी,आरोप मुबई से आजमगढ़ के लिए हथियार लाने का
14-आरिफ बदर पुत्र बदरुददृीन,ग्राम इसरौली आजमगढ़, अहमदाबाद, दिल्ली मुबई टेन सीरियल ब्लास्ट
15-सादिक शेख पुत्र इसरार अहमद, मुंबई टेªन ब्लास्ट, अहमदाबाद, यूपी संकटमोचन, कलत्ता अमेरिकन सेंटर पर आतंकवादी हमले में शामिल
16-जाकिर शेख, ग्राम कवरा गहनी सरायमीर, अहमदाबाद, बाम्बे सीरियल ब्लास्ट
17-अफजल उस्मान, ग्राम ढैलही फिरोजपुर, बाम्बे सीरियल ब्लास्ट, अहमदाबाद

‘गायब’
1-डा0 शाहनवाज पुत्र शादाब अहमद, ग्राम संजरपुर, दिल्ली, अहमदाबाद, बाम्बे सीरियल ब्लास्ट
2-साजिद बड़ा पुत्र कुरैश अहमद, ग्राम संजरपुर, 52 मुुकदमें-दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर
3-खालिद पुत्र सगीर अहमद, ग्राम संजरपुर, 52 मुकदमें-जयपुर, अहमदाबाद, दिल्ली
4-सलमान पुत्र सकील अहमद, ग्राम संजरपुर, 52 मुकदमें-दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद
5-अबू राशिद पुत्र एकलाक अहमद, ग्राम संजरपुर, बांबे सीरियल ब्लास्ट
6-मो0 आरिज पुत्र जफर आलम, शहर आजमगढ,़ दिल्ली,अहमदाबाद, जयपुर और बाटला हाउस एनकाउंटर के दौरान पुलिस पर फायरिंग करते हुए भाग गए।
7-मिर्जा शादाब बेग पुत्र मिर्जा एहतेशाम, शहर आजमगढ़ 52 मुकदमें-दिल्ली, अहमदाबद, जयपुर
8-शहजाद पुत्र शेराज, आजमगढ़, दिल्ली धमाके और बाटला हाउस एनकाउंटर के दौरान पुलिस पर फायरिंग करते हुए भाग गए।
9-असदउल्ला अख्तर पुत्र डा0 जावेद, मोहल्ला गुलामी का पुरा,दिल्ली धमाकों का आरोप
10-हबीब फलाही पुत्र अबुल जैश, ग्रामबारी खास, आरोप अहमदाबाद धमाकों का
11-वासिक मीयर, ग्राम फरिहां, आरोप अहमदाबाद धमाकों का

ग़ज़ा में युद्ध अपराध हुए: एमनेस्टी


अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा है कि इसराइल ने अपने ग़ज़ा अभियान के दौरान युद्ध अपराध किए.
ये अभियान 27 दिसंबर 2008 से लेकर 17 जनवरी 2009 तक चला था. इसमें लगभग 1400 फ़लस्तीनी और 13 इसराइली मारे गए थे.

रिपोर्ट में सैन्य अभियान के तीसरे हफ़्ते के बारे में संस्था ने कहा है कि अपनी तीव्रता में इसराइल के हमले अभूतपूर्व थे.

ये भी कहा गया है कि हमले के दौरान तोपों-टैंकों से घनी आबादी वाले इलाक़ों में जो गोलाबारी हुई वह सटीक नहीं थी.

उधर इसराइल ने ज़ोर देकर कहा है कि उसने केवल उन्हीं इलाक़ो को निशाना बनाया जहाँ चरमपंथी सक्रिय थे. उसका ये भी कहना है कि उसने अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन नहीं किया है.

रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि फ़लस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास भी युद्ध अपराध करने का दौषी है क्योंकि उसने दक्षिणी इसराइल के रिहायशी इलाक़ों में रॉकेट दागे और गोलीबारी की थी.

'मानव ढाल नहीं बनाया'
आजकल संयुक्त राष्ट्र की एक मानवाधिकार टीम ग़ज़ा में मानवाधिकारों के हनन और अंतरराष्ट्रीय क़ानून के उल्लंघन के आरोपों की जाँच करते हुए वहाँ सार्वजनिक तौर पर लोगों की शिकायतें सुन रही है.

एमनेस्टी के अनुसार 27 दिसंबर 2008 और 17 जनवरी 2009 के बीच 1400 फ़लस्तीनी मारे गए, जो फ़लस्तीनी आंकड़ों से भी मेल खाता है.

इन 1400 मृतक फ़लस्तीनियों में 300 बच्चों और 115 महिलाओं समेत 900 आम नागरिक थे.

इस साल मार्च में इसराइली सेना ने कहा था कि कुल 1166 फ़लस्तीनी मारे गए जिनमें से 295 आम नागरिक थे जिनका इस लड़ाई से कोई संबंध नहीं था.

एमनेस्टी की रिपोर्ट में कहा गया है कि कई सवालों के जवाब नहीं मिले हैं, जैसे कि छतों पर खेल रहे बच्चों और चिकित्सा कार्यों में जुटे मेडिकल कर्मचारियों को सटीक तरीके से लक्ष्य तक पहुँचने वाली मिसाइलों का निशाना क्यों बनाया गया.

एमनेस्टी की रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिले है कि फ़लस्तीनियों ने आम नागरिकों को मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल किया.

'ग़ज़ा के लोगों की निराश ज़िंदगी'


अंतरराष्ट्रीय रेड क्रॉस समिति ने ग़ज़ा में रह रहे लगभग पाँच लाख फ़लस्तीनियों को 'निराशा में फँसे' हुए लोग बताया है.
मंगलवार को जारी हो रही रेड क्रॉस की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इसकी सबसे बड़ी वजह इसराइली घेराबंदी है.

ये रिपोर्ट ग़ज़ा में इसराइली सैनिक कार्रवाई के छह महीने बाद आई है. उस कार्रवाई में लगभग 1100 फ़लस्तीनियों की मौत हो गई थी.

उस हमले को लेकर इसराइल का कहना था कि उसका उद्देश्य दक्षिणी इसराइल पर फ़लस्तीनी चरमपंथियों के रॉकेट हमले रोकना था.

रेड क्रॉस के मुताबिक़ ग़ज़ा के लोग उस हमले की वजह से बिखरी ज़िंदगी को समेट नहीं पा रहे हैं और लगातार निराशा में घिरते जा रहे हैं.

इसराइली हमलों में जो क्षेत्र नष्ट हुए हैं उनके पुनर्निर्माण के लिए सीमेंट या स्टील उपलब्ध ही नहीं है.
गंभीर रूप से बीमार मरीज़ों को ज़रूरी इलाज मुहैया नहीं हो पा रहा है.

पानी की आपूर्ति कभी रहती है कभी नहीं, साफ़-सफ़ाई की व्यवस्था तो लगभग ध्वस्त होने के कगार पर है.

रेड क्रॉस ने वहाँ ग़रीबी के स्तर को 'काफ़ी गंभीर' बताया है. वहाँ बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.

रेड क्रॉस के अनुसार ये सब ग़ज़ा की इसराइली घेराबंदी से जुड़े हुए मसले हैं.

ग़ज़ा पर दो साल पहले हमास ने नियंत्रण कर लिया था और उसके बाद से ही इसराइल ने उस इलाक़े की घेराबंदी कर रखी है.

इस रिपोर्ट के बाद इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यमिन नेतन्याहू के प्रवक्ता ने बीबीसी से कहा कि ग़ज़ा में आम लोग जिन मुश्किलों का सामना कर रहे हैं उसके लिए मुख्य रूप से हमास ज़िम्मेदार है.

साथ ही उनके मुताबिक़ ये बात विश्वास के लायक़ नहीं है कि अगर उस इलाक़े के लोगों को निर्माण कार्य के लिए चीज़ें दी जाएँगी तो वो सैनिक मशीनें बनाने के लिए हमास के पास नहीं पहुँच जाएँगी.


साभार

चुनाव आयोग का सावरकरवादी एजेंडा !


धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढे "सर्व धर्म सम्भाव" का दिखावा करने वाले इस देश में अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले दोयम दर्जे के बर्ताव को उजागर करने वाली एक शाहनवाज़ की सनसनीखेज़ रिपोर्ट. रिपोर्ट में हाल में लोकसभा चुनाव से पहले कैसे सोची समझी रणनीत के तहत मुसलमानों के नाम मतदाता सूचियों से काटा गया. सिर्फ आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र में ही लगभग पचहत्तर हजार मुस्लिम मतदाता बनने की शर्तें पूरी होने के बावजूद मताधिकार से वचित हैं। आवामी काउंसिल फाॅर डेमोक्रेसी एण्ड पीस नाम के गैरसरकारी संस्था ने एक सर्वे के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की है - संपादक


शाहनवाज आलम

वैधानिक संस्थाओं में सांप्रदायिकता कितनी गहराई तक जड़ जमा चुकी है और कितने संस्थाबद्ध तरीके से काम करती है, मतदाता सूची और परिसीमन इसके ताजा उदाहरण हैं। जहां देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के एक खासे हिस्से को मतदान के उसके वैधानिक अधिकार से उसे वंचित कर दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। और यह सब हुआ है लोकतांत्रिक प्रणाली को पारदर्शी और चुस्त-दुरुस्त बनाए रखने की जिम्मेदारी उठाने वाले चुनाव आयोग की सरपरस्ती में।
दरअसल मुस्लिमों के एक खासे हिस्से को राजनैतिक तौर पर ‘अनागरिक’ बनाने के इस सांप्रदायिक साजिश का खुलासा तब हुआ जब आवामी काउंसिल फाॅर डेमोक्रेसी एण्ड पीस नाम के गैरसरकारी संस्था ने आजमगढ़ और मऊ जिलों में लगभग डेढ़ लाख मुस्लिमों के नाम मतदाता सूची से बाहर होने के मुद्दे पर इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की। जिस पर मुख्य न्यायाधीश हेमंत गोखले ने चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली पर तल्ख टिप्पणी करते हुए इसे तत्काल सुधारने का निर्देश दिया था। लेकिन बावजूद इसके चुनाव आयोग ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया।
आवामी काउंसिल ने ये याचिका अपने छः महीने के सर्वे के बाद किया था जिसमें उसके कार्यकर्ताओं ने आजमगढ़ और मऊ जिलों के मुस्लिम आबादी के दरवाजे-दरवाजे जाकर मतदाता बनने से वंचित रह गए लोगों की संख्या इकठ्ठी की और उन्हें मतदाता बनने के लिए भरे जाने वाले फार्म 6 को भरवाया था। इस सर्वे के नतीजे चैंकाने वाले तो थे ही, वैधानिक संस्थाओं में किस तरह अल्पसंख्यक विरोधी मानसिकता गहरी पैठ कर चुकी है इसका भी अफसोसनाक खुलासा हुआ। जब पाया गया कि सिर्फ आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र में ही लगभग पचहत्तर हजार मुस्लिम मतदाता बनने की शर्तें पूरी होने के बावजूद मताधिकार से वचित हैं। जो आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र के कुल मुस्लिम मतदाताओं का 44 प्रतिशत है। तो वहीं घोसी लोकसभा क्षेत्र में लगभग अस्सी हजार मुस्लिमों के नाम मतदाता सूची से गायब है। घोसी के मामले में तो पीस पार्टी आॅफ इंडिया (पीपीआई) ने चुनाव आयोग के विरुद्ध उच्च न्यायालय में रिट दायर किया हुआ है।
जब सिर्फ दो लोकसभा क्षेत्रों में ही डेढ़ लाख मुस्लिम मतदाता सूची से बाहर हैं तो फिर पूरे प्रदेश की क्या स्थिति होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। अवामी काउंसिल के महासचिव असद हयात जिन्होंने आजमगढ़ और मऊ की आंख खोल देने वाले आकड़ों के बाद पूरे प्रदेश के एक-एक बूथ के मतदाता सूची के गहन पड़ताल के बाद उच्च न्यालय का दरवाजा खटखटाया है का दावा है कि पूरे प्रदेश में लगभग बावन लाख पच्चीस हजार छः सौ तिरासी मुसलमान मतदाता सूची से बाहर हैं।
दरअसल अल्पसंख्कों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हैसियत का आकलन करने के लिए संप्रग सरकार द्वारा गठित सच्चर कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों खास कर मुसलमानों के नाम मतदाता सूचियों से गायब होने पर चिंता जाहिर करते हुए कहा था ‘ऐसा होने से न केवल मुसलमान राजनैतिक तौर पर कमजोर हो रहे हैं बल्कि सरकारी विकास योजनाओं से भी महरुम हो रहे हैं।’ लेकिन मनमोहन सरकार के लिए सच्चर कमेटी की सिफारिशें कितना महत्व रखतीं हैं यह उसके दो साल बीत जाने के बाद भी ठंडे बस्ते में पड़े रहने से समझा जा सकता है। वैसे भी हमारे यहां ऐसी रिपोर्टो (मंडल कमीशन) को डेढ़-डेढ़ दशक तक सीट के नीचे दबाकर बैठने का चलन है।
उत्तर प्रदेश में 2001 में हुए जनगणना और उसके आधार पर बने मतदाता सूची के मुताबिक प्रदेश में कुल जनसंख्या सोलह करोड़ इकसठ लाख सत्तानबे हजार नौ सौ इक्कीस है जिसमें मुस्लिम तीन करोड़ चैहत्तर लाख एक सौ अट्ठावन है जो कुल जनसंख्या का 18.5 प्रतिशत है। वहीं गैर मुस्लिम आबादी तेरह करोड़ चैव्वन लाख सत्तावन हजार सात सौ तिरसठ है जो कुल जनसंख्या का 81.5 प्रतिशत है। तो वहीं पूरे प्रदेश में 2007 में संपन्न विधान सभा चुनावों में प्रयुक्त मतदाता सूची के मुताबिक कुल मतदाता संख्या ग्यारह करोड़ चैतिस लाख उन्तालिस हजार आठ सौ तिहत्तर है। यानि 2001 के जनगणना की 68.25 प्रतिशत जनता 2007 में मतदाता बन गयी। इसमें मुस्लिम मतदाताओं की संख्या एक करोड़ सत्तावन लाख साठ हजार छः सौ तिरानबे है जो कि कुल मतदाताओं का 13.89 प्रतिशत है। जबकि गैर मुस्लिमों की संख्या नौ करोड़ छिहत्तर लाख उन्यासी हजार एक सौ अस्सी है जो कुल मतदाताओं का 86.10 प्रतिशत है।
यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर जब कुल जनगणना के हिसाब से मुस्लिम आबादी 18.5 प्रतिशत है तो फिर मतदाता सूची में यही आकड़ा घट कर कैसे 13.89 प्रतिशत हो गया। जबकी दोनों को एक समान होना चाहिए। वहीं दूसरी ओर गैर मुस्लिम आबादी अपने जनगणना का 81.5 प्रतिशत है लेकिन मतदाता सूची में यह आंकड़ा बढ़ कर 86.10 प्रतिशत हो गया है। यानि जहां एक ओर गैरमुस्लिम अपनी 2001 की घोषित आबादी के मुकाबले आश्चर्यजनक रुप से 5.05 प्रतिशत (5728713) अधिक मतदाता बन गए। वहीं इसके उलट सैतालिस लाख उन्नीस हजार अटठानवे मुस्लिम नागरिक अपनी आबादी से 4.16 प्रतिशत कम हो कर मतदाता बनने से वंचित रह गए।
मुस्लिमों और गैर मुस्लिमों के मतदाता बनने के इस असमानता को एक दूसरे दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है। 2001 के जनगणना में कुल मुस्लिम आबादी तीन करोड़ चैहत्तर लाख एक सौ अट्ठावन है। जिसमें से सिर्फ 51.27 प्रतिशत यानि एक करोड़ सत्तावन लाख छः हजार तिरानबे लोग ही मतदाता हैं। वहीं गैर मुस्लिमों की कुल आबादी तेरह करोड़ चैव्वन लाख सत्तावन हजार सात सौ तिरसठ में से नौ करोड़ छिहत्तर लाख उन्यासी हजार एक सौ अस्सी लोग मताधिकारी हैं। जो अपनी आबादी का 72.11 प्रतिशत है। इसका मतलब कि मुसलमानों की मतदाता बनने की दर गैर मुसलमानों के मुकाबले 20.84 प्रतिशत कम रही। जबकि इसे भी 72.11 प्रतिशत होनी चाहिए थी क्योंकि मतदाता बनने की दर समान होनी चाहिए। इस प्रकार मुस्लिम मतदाताओं की संख्या दो करोड़ इक्कीस लाख छाछठ हजार दो सौ अठहत्तर होनी चाहिए थी जबकि यह है सिर्फ एक करोड़ सत्तावन लाख छिहत्तर हजार छः सौ तिरानबे। यानि चैसठ लाख छः हजार पैतिस मुसलमान मतदाता बनने से वंचित कर दिए गए हैं।
बहरहाल यह तो चुनाव आयोग के हेरा-फेरी की सिर्फ सतह है जिसके नीचे और भी कई चैंकाने वाले तथ्य दबे हैं। मसलन 1981 के जनगणना के मुताबिक उत्तर प्रदेश में कुल मुस्लिम आबादी एक करोड़ छिहत्तर लाख सत्तावन हजार सात सौ पैंतिस और गैर मुस्लिम आबादी नौ करोड़ बत्तीस लाख चार हजार दो सौ अठहत्तर बतायी गई है। लेकिन 2007 के मतदाता सूची से पता चलता है कि मुस्लिम मतदाताओं की कुल तादात एक करोड़ सत्तावन लाख साठ हजार छः सौ तिरानवे है जो उनकी 1981 की जनसंख्या से भी लगभग बीस लाख कम है। यानि 2007 तक प्रदेश में मुसलमान उतनी संख्या में भी मतदाता नहीं बन पाए जितनी सत्ताइस साल पहले उनकी आबादी थी। जबकि दूसरी ओर गैर मुस्लिम इसी समयावधि में अपने 1981 के जनगणना से 104 प्रतिशत ज्यादा यानि नौ करोड़ छिहत्तर लाख उन्यासी हजार एक सौ अस्सी मतदाता बन गए।
इन हतप्रभ कर देने वाले तथ्यों के आलोक में यह जानना भी दिलचस्प होगा कि आखिर चुनाव आयोग जैसे वैधानिक संस्था के देख-रेख में बनाए जाने वाली मतदाता सूचियों में आखिर ये घोर सांप्रदायिक और राष्ट्र विरोधी कृत्य कैसे अंजाम दिया जाता है। आजमगढ़ के मुबारकपुर कस्बे के पचपन वर्षीय रियाज अहमद जिनका नाम वोटर लिस्ट से गायब है कहते हैं कि सरकारी अधिकारी सघन और गंदी मुस्लिम बस्तियों में जाने से कतराते हैं जिसके पीछे कभी उनकी सांप्रदायिक मानसिकता काम करती है तो कभी लापरवाही और उदासीनता। वहीं मऊ के मुस्लिम मोहल्ले डोमनपुरा की पैतालिस वर्षीय हाजरा बेगम बताती हैं कि मुस्लिम लड़कियों का नाम तो एक सिरे से मतदाता सूची में इस तर्क के आधार पर शामिल ही नहीं किया गया कि शादी के बाद वे अपने पति के घर चली जाएंगी। इस तरह अविवाहित लेकिन बालिग मुस्लिम युवतियां तो एक सिरे से मताधिकार से वंचित हो गई हैं। मुस्लिम महिलाओं में प्रचलित पर्दा प्रथा भी कई बार उनके खिलाफ हथियार के बतौर इस्तेमाल होता है। मऊ के शाही मस्जिद मोहल्ले की रुबीना, यास्मीन बीबी और फातिमा बेगम के मुताबिक उनका नाम इस आधार पर मतदाता सूची में शामिल ही नहीं किया गया कि अधिकारियों ने यह मानने से इनकार कर दिया कि वे अपनी सही पहचान बता रही हैं। तो वहीं एक खासे तबके को लखनऊ, कानपुर और फैजाबाद में बांग्लादेशी होने के संदेह में मतदाता सूची में शामिल नहीं किया गया।
यही स्थिति युवाओं की भी है। जो मताधिकार से वंचित मुस्लिम नागरिकों की कुल संख्या के लगभग पच्चीस प्रतिशत हैं। इनमें से अधिकतर की उम्र 18 से 24 वर्ष के बीच है। जिन्हें बहुत ही हास्यास्पद और कमजोर बहानों से ‘अनागरिक’ बना दिया गया है। मसलन जिन युवाओं के पास स्कूली शिक्षा के अभाव के चलते जन्म तिथि प्रमाण पत्र नहीं है उन्हें यह कहते हुए मतदाता सूची में शामिल नहीं किया गया कि अभी इनकी उम्र मतदाता बनने की नहीं लगती। दूसरी ओर अशिक्षा के चलते एक बड़ा तबका मतदाता बनने के लिए अनिवार्य फार्म-6 को पढ़कर उसमें मांगी गई जानकारी को उल्लिखित कर पाने में असमर्थ होने के चलते मताधिकारी नहीं बन पाते। यहां गौरतलब है कि मुस्लिम आबादी में बावन प्रतिशत लोग निरक्षर हैं। वहीं फार्म-6 के उर्दू में नहीं प्रकाशित होने के चलते सिर्फ उर्दू जानने वाले नागरिक भी मतदाता बनने से वंचित रह जाते हैं।
बहरहाल मतदाता सूची तैयार करने वाले चुनाव आयोग के अधिकारियों का सांप्रदायिक रवैया तो कई बार फूहड़ रुप में सामने आ जाता है। मसलन अभी सम्पन्न हुए लोकसभा चुनावों में जहां जौनपुर में लेखपाल मुस्लिम नागरिकों के सैकड़ो मतदाता फार्म के बंडल जलाते हुए रंगे हाथ पहड़े गए जिसके खिलाफ लोगों ने शिकायत भी दर्ज कराई। तो वहीं आजमगढ़ के बदरका मोहल्ले में मुस्लिम मतदाताओं के फोटो पहचान पत्र कूड़े में फेंके मिले।
बहरहाल मुस्लिमों के साथ हुए इस भेदभाव के लिए चुनाव आयोग तो जिम्मेदार है हि, राजनैतिक दल भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। क्योंकि जनता के बीच जाकर वैध लोगों के नाम मतदाता सूचियों में शामिल कराना चुनाव आयोग के साथ-साथ उनकी भी जिम्मेदारी है। खास कर अपने को मुस्लिम हितैषी बताने वाले राजनैतिक दलों की तो यह प्राथमिकता होनी चाहिए थी। आजमगढ़ के सरायमीर के मसीउद्दीन संजरी कहते हैं ‘मुस्लिम राजनैतिक दल भावनात्मक मुद्दों पर ज्यादा राजनीति करते हैं क्योंकि इससे उन्हें चंदा और कैडर आसानी से मिल जाते हैं। घर-घर जाकर मतदाता बनाने के लिए फार्म भरवाना उनके एजेंडे में नहीं होता क्योंकि इसमें खुद अपना पैसा खर्च करना पड़ेगा।’ मुस्लिम राजनीतिक दलों का यह दिवालियापन इस चुनाव में भी दिखा जब बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ कांड मुद्दे पर गठित उलेमा काउंसिल ने अपने चुनावी अभियान में इस पर एक बार भी नहीं बोला।
मुस्लिम नागरिकों के मतदाता बनाने में चुनाव आयोग के इस सांप्रदायिक और भेदभावपूर्ण रवैये को हम सीटों के परिसीमिन में भी देख सकते हैं। जहां ऐसी कई सीटों को जिस पर मुस्लिमों की तादाद अनुसूचित जाति की आबादी से अधिक होते हुए भी सुरक्षित कर दी गई है। दरअसल सच्चर कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए पेज-225 पर लिखा है- ‘एक अधिक विवेकशील सीमांकन प्रक्रिया अधिक अल्पसंख्यक आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्रों को अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित न कर, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिमों के लिए संसद और विधानसभाओं के लिए चुनाव लड़ने और चुने जाने के अवसर को बढ़ा देगी। समिति इस विषमता को खत्म करने की संस्तुति करती है।’
लेकिन बावजूद आयोग के इस संस्तुति के सरकार ने इसे नजरअंदाज कर दिया जिसके चलते कई ऐसी सीटें जहां मुस्लिम आबादी दलितों से अधिक है, सुरक्षित कर दी गयी हंै। मसलन, बहराइच लोकसभा क्षेत्र में मुसलमानों की तादाद कुल आबादी की चैतिस प्रतिशत है जबकि दलित सिर्फ 18 प्रतिशत हैं। बावजूद इसके इसे सुरक्षित घोषित कर दिया गया है। इसी तरह बिजनौर को तोड़कर बनाई गयी नगीना लोकसभा सीट आरक्षित कर दी गई है जबकि यहां मुस्लिम आबादी 40 फीसद है। इसी तरह बुलंद शहर में मुस्लिम आबादी दलितों से अधिक है लेकिन इसे भी सुरक्षित कर दिया गया है। दरअसल मुस्लिमों के जनप्रतिनिधि बनने के अधिकार के मामले में यह भेद-भाव सिर्फ लोकसभा और विधानसभाओं जैसे ऊपरी स्तर पर ही नहीं है बल्कि ग्रामपंचायत जैसे लोकतंत्र के शुरुआती पायदानों पर भी दिखता है। मसलन आजमगढ़ के फूलपुर ब्लाक का लोहनिया डीह ग्राम सभा सुरक्षित है जबकि यहां सिर्फ दो दलित परिवार ही रहते हैं।
नए परिसीमन में अल्पसंख्यक मतदाताओं के साथ भाषाई स्तर पर भी भेद-भाव साफ देखा जा सकता है। मसलन 1976 के आाधार पर परिसीमित विधानसभा/लोकसभा क्षेत्रों में 134 विधानसभा क्षेत्रों की मतदाता सूचियां उर्दू में प्रकाशित होती थीं जिनमें मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक बताई गई थी। लेकिन नए परिसीमन के बाद सिर्फ 48 विधानसभा क्षेत्रों में ही उर्दू में मतदाता सूची प्रकाशित की जा रही है। यह आश्चर्य का विषय है कि यह संख्या 134 से घटकर 48 कैसे हो गई और किस तरह जहां पहले 134 विधानसभा क्षेत्रों में उर्दू मतदाताओं की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक थी वो अब कैसे घटकर 48 हो गई।
बहरहाल, चुनाव आयोग के खिलाफ रिट दर्ज होने और उस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा सख्त निर्देश के बावजूद आयोग अपनी गड़बड़ियों को सुधारने के लिए तैयार नहीं दिखता। उप मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी पूछने पर यह तो मानते हैं कि मामला बहुत गंभीर है और सर्वे करने वालों ने प्रशंसनीय काम किया है। लेकिन वे 2005 में चुनाव आयोग द्वारा बनाए गए उस नियम का हवाला देते हैं जिसमें उसने राजनैतिक दलों और संस्थाओं से थोक में मतदाता फार्म लेने पर रोक लगा दिया है। श्री कुरैशी कहते हैं कि कई बार राजनैतिक दल थोक में फर्जी मतदाताओं का फार्म अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए दे देते हैं। ऐसे में उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। वहीं दूसरी ओर सुप्रिम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रशांत भूषण निर्वाचन आयोग के इस प्रतिबंध को न केवल मतदाता बनने से वंचित अशिक्षित, असुरक्षित नागरिकों के राजनैतिक स्वतंत्रता से जुड़े अधिकारों पर कुठाराघात मानते हैं बल्कि इसे संविधान विरोधी भी बताते हैं। प्रशांत भूषण कहते हैं ‘प्रत्येक फार्म में मतदाता बनने की प्रार्थना की जांच उसके जमा होने के पश्चात मतदाता पंजीकरण अधिकारियों द्वारा की जाती है। लिहाजा थोक में फार्म जमा करने पर प्रतिबंध लगाने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि फार्म जमा होना कोई अंतिम रुप से आवेदन के प्रार्थना को स्वीकार कर लेना नहीं होता और इसके बाद भी जांच का विषय रह जात है। इसलिए थोक में मतदाता फार्म जमा कराये जाने में निर्वाचन आयोग को कोई संकोच नहीं होना चाहिए।’
दरअसल चुनाव आयोग का यह मुस्लिम विरोधी रवैया सिर्फ उनको चुनावी प्रक्रिया से अलग-थलग काटकर रखने वाला ही नहीं है। बल्कि मुसलमानों के उस भावनात्मक और ऐतिहासिक निर्णय पर कुठाराघात है जब उन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के निर्माण के लिए पृथक निर्वाचन मंडल और पृथक प्रतिनिधित्व के सिद्वांत का त्याग किया था। लेकिन ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग की प्रतिबद्वता भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने के बजाय सावरकर के काल्पनिक हिंदू राष्ट्र के प्रति है जिसने अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के लिए उन्हें मतदान के अधिकार से वंचित रखने का फार्मूला गढ़ा था।