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सरकार बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए युद्ध लड़ना चाहती है

देश में नक्सल समस्या से निपटने के नाम पर सरकार अब आदिवासी बहुल इलाकों में सेना व वायु सेना का प्रयोग करने पर विचार कर रही है। गृहमंत्री ने पिछले दिनों पत्रकारों से बातचीत में अपनी इस मंशा का खुलासा किया। कई मानवाधिकार संगठनों, लेखक, पत्रकार, छात्र व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर बहुराष्ट्रीय निगमों के पक्ष में नक्सलियों से युद्ध लड़ने का आरोप लगाया है। इसी मुद्दे पर बुधवार (21 अक्टूबर, 09) समाचार चैनल सीएनएन-आईबीएन पर एक बहस आयोजित की गई। इसमें सामाजिक कार्यकर्ता व लेखिका अरुंधति राॅय व झारखण्ड के सामाजिक कार्यकर्ता ग्लैडसन डंगडंग ने भाग लिया। प्रस्तुत है उसका हिंदी रूपान्तरण।

सीएनएन-आईबीएन - नक्सली नेता किशन जी का साफ कहना है कि वो और हिंसक होंगे। ऐसे हिंसक वातावरण में आप कैसे आशा करेंगी की भारत सरकार वहां नक्सलियों से बातचीत करे। जिसकी की अरूंधति राॅय व अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं। हिंसा छोड़ने के बारे में आपका क्या कहना है?

अरुंधति - मैने वो पत्र देखा है, जिसमें मिस्टर चिदम्बरम ने नागरिक समूहों से नक्सलियों से हिंसा छोड़ने के लिए उन्हें फुसलाने को कहा गया है। मुझे लगता है कि यह कपट है। क्योंकि एक दुहरा वातावरण रचा जा रहा है। एक तरफ नक्सली हैं और दूसरी तरफ सरकार है। बीच में मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। यह सरलीकरण बहुत ही जटिल तस्वीर है। मैं नहीं मानती की मानवाधिकार कार्यकर्ता कोई अलग समूह से संबंधित है। अहिंसक व लोकतांत्रिक प्रतिरोधों का एक पूरा दायरा है। जिसे नक्सल कहा जा रहा है और मोलभाव की उम्मीद की जा रही है। इसलिए यदि सरकार नक्सलियों से कोई बातचीत करना चाहती है, तो उसे केवल उन्हीं से बातचीत करनी चाहिए।

सीएनएन-आईबीएन - सरकार विशेषरूप से नागरिक समूहों से कह रही है कि वो सीपीआई माओवादी से बात करें और उन्हें मुख्यधारा की राजनीति में लाए। इसमें गलत क्या है?

अरुंधति - मैं नागरिक समूह नहीं हूं। मैं एक एक्टिविस्ट हूं।

सीएनएन-आईबीएन - लेकिन मंगलवार कल को आप एक नागरिक समूह के रूप में ही लोगों के सामने आई और सरकारी हिंसा बंद करने की मांग कर रही थी।

अरुंधति राॅय - बिल्कुल। आप इसे उस ऐतिहासिक संदर्भ में देखे कि ऐसा क्यों हुआ। छत्तीसगढ़ जैसी जगहों पर नक्सली 30 सालों से हैं। यह स्थिति अभी क्यों बनी। जैसे की आवाजों की कोई लहर बह रही हो। वास्तविकता यह है और जो मेरा विष्वास भी है कि सरकार जंगलों को साफ करने के लिए युद्ध लड़ना चाहती है। क्योंकि झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में वह कई सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर कर चुकी है और उनकी जरूरतों को पूरा करना चाहती है।

सीएनएन-आईबीएन - गृहमंत्री ने कुछ महीनों पहले सीएनएन-आईबीएन से कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब में कहा था कि सरकार उन क्षेत्रों में विकास कार्य चाहती है, लेकिन जब हम सड़कें बनाते हैं नक्सली उसे ध्वस्त कर देते हैं, हम स्कूल बनाते हैं नक्सली उसे ध्वस्त कर देते हैं। वह सब कुछ ध्वस्त कर देना चाहते हैं। वहां कोई विकास कार्य नहीं होने देना चाहते। आप इसे दोहरा कह सकती हैं, लेकिन यह चिकन या अंडे के कौर जैसी स्थिति है। आप भारत सरकार से क्या उम्मीद कर सकती हैं जब विरोधी ताकत हथियार उठाए हो, पुलिस का सिर कलम कर रही हो और हिंसा की आड़ ले रही हो?

अरुंधति - दांतेवाड़ा के हिमांशु कुमार ने मंगलवार को सूचना के अधिकार के तहत सरकार से पूछा कि नक्सलियों ने कितने आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, शिक्षकों व सामाजिक कार्यों में लगे लोगों की हत्या की। जवाब नहीं में था। क्या मिस्टर चिदम्बरम के विकास का मतलब वहां रह रहे लोगों के विकास से अलग है। मैं दांतेवाड़ा में थी और वहां सड़के बनते देखा। आप बताइए क्या वह सड़क नहीं है, जो आदिवासियों के चलने के लिए बनी है। लेकिन मैं सड़कों के लिए खनन के खिलाफ हूं।

सीएनएन-आईबीएन - तो क्या आप मानती हैं कि उस संदर्भ में हिंसा खत्म होनी चाहिए। वित्त मंत्री को साफ कहना है कि - जब तक माओवादियों के नियंत्रण वाले क्षेत्रों में हिंसा खत्म नहीं हो जाती बातचीत की बाधा दूर नहीं की जा सकती। अब अलबत्ता उन्हें हथियार छोड़ देना चाहिए।

अरुंधति - इसी को मैं कपट कह रही हूं। जब सरकारी बलों पर हमला होता है वह सरकारी बल जिसके पास सेना है, वायुसेना है को देष के सबसे गरीब लोगों का युद्ध मान लिया जाता है। यह कठिन है। लेकिन जब वह चीन से, पाकिस्तान से बात करना चाहते हैं उसका क्या। यह कैसी नीति है?

सीएनएन-आईबीएन -लेकिन हथियार किसके पास है? भारत सरकार कहती है कि नक्सली हथियारों से लैस हैं।

अरुंधति राॅय - सरकार के पास भी हथियार हैं।

सीएनएन-आईबीएन - तो नक्सली क्या करेंगे? वह तो पूरी तरह से हथियारों से लैस हैं।

अरुंधति राॅय - आप यह कैसे कह सकते हैं?

सीएनएन-आईबीएन - आप कह रही हैं कि गरीब लोग मारे जा रहे हैं। लेकिन नक्सली भी अपना नैतिक अधिकार 10-20 साल पहले ही खो चुके हैं, जब कि वो बच्चों की हत्याएं कर रहे थे, महिलाओं की हत्या कर रहे थे। कौन जिम्मेदार है इसके लिए?

अरुंधति राॅय- हिंसा के बारे में यह कोई भी नहीं कह सकती कि यह अचानक पैदा हो गई। दांतेवाड़ा में 644 गांव खाली करा लिए गए हैं। वर्श 2005 से साढ़े तीन लाख लोग गायब हैं।

सीएनएन-आईबीएन - एक हिंसा से दूसरी हिंसा को जायज नहीं ठहराया जा सकता है।

अरुंधति राॅय - बिल्कुल नहीं। लेकिन आप तुलना उनमें कर रहे हैं जहां एक तरफ कुछ के पास हवाई व नाभकिय ताकत है, सेना है, दूसरी तरफ कुछ गरीब लोग हैं।

सीएनएन-आईबीएन - अरुंधति राॅय का कहना है कि कोई आंगनबाड़ी कार्यकर्ता नहीं मारी जा रही, लेकिन हम जानते हैं कि 659 लोग मारे जा चुके हैं। इसमें 259 पुलिसकर्मी व 400 आम नागरिक हैं। तो ग्लैडसन अब अपने मूल प्रष्न पर लौटते हैं। क्या अब आपको कहीं दूर-दूर तक वापस बातचीत की मेज नजर आ रही है?

ग्लैडसन - अब हम सही मुद्दे पर आए हैं। सरकार झारखण्ड में क्यों चीख रही है? मेरा ही उदाहरण लें- मेरे माता-पिता की नृषंस हत्या कर दी गई। बांध के नाम पर 20 एकड़ जमीन ले ली गई लेकिन हमें मुआवजा नहीं दिया गया। अगर मैं नक्सली बन जाता तो इसके लिए कौन जिम्मेदार होता। आज भारत सरकार कल से आगे धावा बोलने जा रही है। सीआरपीएफ झारखण्ड के सबसे कम नक्सल प्रभावित क्षेत्र सिंहभूमि में प्रवेश के लिए तैयार है। वह सिंहभूमि से षुरूआत चाहते हैं। क्योंकि सरकार ने इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा 102 सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए हैं।

सीएनएन-आईबीएन - आप कहना चाह रहे हैं कि सरकार उन काॅरपोरेट व बहुराश्ट्ीय निगमों की ओर से खेल रही है जो खुला जंगल चाहते हैं?

ग्लैडसन - हां-हां।

सीएनएन-आईबीएन - शायद यह कुछ विषेश क्षेत्रों के लिए सही हो लेकिन उन क्षेत्रों के लिए सही नहीं जो छत्तीसगढ़ से पष्चिम बंगाल तक रेड काॅरिडोर तक फेला है।

अरुंधति राॅय - अगर आप इस कथित रेड काॅरिडोर में खनिज संपदा के संग्रहण को देखे तो इसे भी आप सही पाएंगे। जिंदल, टाटा व एसआर, सभी ने सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। जिस साल सलवा-जुडूम षुरू हुआ उसी साल इन सहमति पत्रों पर दस्तख्त किए गए।

सीएनएन-आईबीएन - लेकिन नक्सली लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेते हुए उन मुद्दों को क्यों नहीं उठाते? यही वह बिंदु है जिस पर गृहमंत्री और समय दे रहे हैं ताकि नक्सलियों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से फिर से जोड़ा जा सके। लेकिन यदि वह राज्य में कोई विष्वास ही नहीं रखते तो यह स्वाभाविक ही है कि भारतीय राजसत्ता उन्हें बलपूर्वक इसमें लाए।

अरुंधति राॅय - मैं दो बातें कहना चाहती हूं। एक तो हम 'नक्सली' शब्द का बहुत अगंभीरता से प्रयोग कर रहे हैं। सरकार ने साफ कह दिया है कि जो लोग सलवा जुडुम (जो कि एक रणनीतिक गांव है जिसका उपयोग वियतनाम युद्ध में हुआ था) के साथ हैं या सरकार के खिलाफ हैं।

सीएनएन-आईबीएन - सलवा जुडुम शायद पूर्ववर्ती सरकार की नीति थी। क्योंकि पिछले कुछ सालों से इसके बारे में नहीं सुना जा रहा है। उसी सरकार ने वर्श 2004 से नक्सलियों से बातचीत की दिशा में कदम बढाएं हैं।

अरुंधति राॅय - यही सच नहीं है। वो व्यक्ति जो सलवा जुडुम चल रहा है, वह कांग्रेस का आदमी है। एक नदी है इंद्रावती। उसकी दूसरी तरफ पाकिस्तान है। हम सभी से कहा जा रहा है कि अगर आप नदी पार करते हैं मार दिए जाएंगे।

सीएनएन-आईबीएन - मुख्य सवाल का जवाब दें। नक्सली लोकतांत्रिक प्रक्रिया में क्यों नहीं आना चाहते? हमे भूमि विस्थापन का मुद्दा उठाना चाहिए लेकिन लोकतांत्रिक बातचीत के जरिए।

अरुंधति राॅय - हमे यह देखना चाहिए कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया है क्या? भारतीय चुनाव अमरीकी चुनाव से मंहगा है। 99 प्रतिषत स्वतंत्र उम्मीदवार हार जाते हैं। अधिकतर सांसद करोड़पति हैं। अब आप किसी एक से जैसे ग्लैडसन से कहते हैं कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आइए। जबकि उसके पास मीडिया में जगह खरीदने के लिए धन नहीं है, उसके पास काॅरपोरेट का पैसा नहीं है।

सीएनएन-आईबीएन - आप को लगता है कि चुनावी प्रक्रिया में एक भी ऐसा नहीं है जो आपकी आवाज सुने। यदि वे बहुत लोकप्रिय हैं, उनके मुद्दे जैसे भूमि विस्थापन बहुत नाजुक है, तो वह चुनावी प्रक्रिया में क्यों नहीं आते?

ग्लैडसन - बहुत से विस्थापित लोगों ने पिछली सरकार से बातचीत करनी चाही थी। लेकिन न तो षिबु सोरेन ने न ही राज्यपाल ने उनकी बात सुनी।

सीएनएन-आईबीएन - मैं जानता हूं की गृहमंत्री यह कार्यक्रम देख रहे हैं, क्योंकि हम उनके बारे में बात कर रहे हैं। आप उनसे क्या कहना चाहेंगे।

ग्लैडसन - मैं यही कहना चाहूंगा कि अगर आप नक्सलवाद के मुद्दे को हल करना चाहते हैं तो आपको आदिवासियों के आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक गैरबराबरी को हल करना होगा। तब आप विकास की बात करें।

सीएनएन-आईबीएन - अब यदि मिस्टर चिदम्बरम यह कहे कि यदि आप इन मुद्दों व विकास की बात करते हैं तो बंदूक छोड़े। आइए पहले बंदूके छोड़े और बात करें।

अरुंधति राॅय - आप के पास हजारों की संख्या में सुरक्षाबल है, पूरे क्षेत्र में भारी हथियार है। आप ने कई सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए हैं। यदि आप भारत के नक्षे पर देखें कि खान, जंगल व आदिवासियों का ढेर कहां तो सभी को एक दूसरे के उपर पाएंगे। और यदि आप चैकस हैं, नागरिक सेना गांवों में बलात्कार करे, महिलाओं की हत्या करे, जैसा की सलवा जुडुम की नीति है। और आप कहें की पहले आप बंदूके छोड़ दो फिर हम आए और आपकी जमीनों का अधिग्रहण कर ले, तो इससे आप क्या दिखाना चाहते हैं।

सीएनएन-आईबीएन - तो हम किसी निश्कर्श पर नहीं पहुंचे। एक चल रही हिंसा का जवाब दूसरी हिंसा से दिया जा रहा है।

अरुंधति राॅय - मुझे लगता है कि लोगों से यह वादा किया जाना चाहिए कि कोई विस्थापन नहीं होगा, सभी सहमति पत्र जनता के अनुरूप होंगे। इस क्षेत्र के विकास के लिए एक साफ नीति होनी चाहिए और जिस पर जनता के बीच बहस होनी चाहिए। उनके सुझाव लिए जाने चाहिए जिनके पास कुछ नहीं है। तब कोई बात हो सकती है।

सीएनएन-आईबीएन - तो आप का जवाब सरकार की उस अपील के संबंध में जिसमें नागरिक समूहों से सीपीआई माओवादी को बातचीत के लिए राजी करने के कहा गया है ‘ना’ है?

अरुंधति राॅय - आप ऐसा कैसे कह सकते हैं, मैं ऐसा कहने वाली कौन हूं। इसके लिए सरकार जिम्मेदार है। ये समूह काफी जटिल हैं।

सीएनएन-आईबीएन - आप चाहती है कि सारी जिम्मेदारी खुद सरकार उठाए। नागरिक समूहों व एक्टिविस्टों की कोई जिम्मेदारी नहीं है?

अरुंधति राॅय - हमारी जिम्मेदारी है कि हम इन मुद्दों को उठाएं। लेकिन हम वह नहीं है जिसे जनता ने चुन कर भेजा है।

सीएनएन-आईबीएन - अंत में ग्लैडसन आप क्या कहना चाहेंगे?

ग्लैडसन - देखिए समस्या दो दषक पुरानी है। तब राजीव गांधी ने कहा था कि गरीबों तक सिर्फ 15 पैसा पहुंचता है, आज राहुल गांधी भी वही बात कह रहे हैं। मतलब की अभी तक कुछ नहीं हुआ है।

सीएनएन-आईबीएन - आप कह रहे हैं कि 25 सालों से देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया ठहर गई है?

ग्लैडसन- हां। दूसरी बात यह है कि जब प्रियंका गांधी राजीव गांधी के हत्यारों से मिलती हैं तो वह जनता की मसीहा जैसे पेश की जाती हैं, लेकिन जब कोई विनायक सेन आदिवासियों को इलाज करता है तो वह नक्सलियों का समर्थक बन जाता है। इसे न्यायपूर्ण कैसे कहा जा सकता?

सीएनएन-आईबीएन - यह एक काफी जटिल मुद्दा है जिसे हल करने के लिए काफी समय चाहिए। गहरा अंधेरा है जिसके पार हमे देखने की जरूरत है। कुछ लोगों का मानना है कि यह दुहरा मुद्दा है, एक तरफ नक्सल हैं दूसरी तरफ राज्य है। अरुंधति राॅय जैसे लोगों को शायद गृहमंत्री चिदम्बरम से बातचीत करनी चाहिए। लेकिन इसमें भी निष्चितता की कोई भावना नहीं है। एक आशा है कि कोई समाधान निकलेगा। अब समाधान की जरूरत है लेकिन यह भी जरूरी है कि हिंसा दोनों तरफ से बंद हो।

अनुवाद व प्रस्तुति- विजय प्रताप

सीएनएन-आईबीएन पर बहस की वीडियो देखें Govt at war with Naxals to aid MNCs: Arundhati

हम विकास विरोधी नहीं: कोबाड गाँधी

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य कोबाड गाँधी को पिछले दिनों पुलिस ने दिल्ली से गिरफ्तार कर लिया। उनकी गिरफ्तारी की सूचना मीडिया में आने के बाद उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार गिराने की तैयारी में लगी दिल्ली पुलिस को अपना इरादा बदलना पड़ा। मुंबई के पारसी परिवार में जन्मे गाँधी उस उच्च वर्ग से आते हैं जिसने दून स्कूल, सेंट जेवियर काॅलेज और लन्दन से पढ़ाई की। लंदन से लौटने के बाद उन्होंने कमेटी फार प्रोटेक्षन आफ डेमोके्रटिक राइटस (सीपीडीआर) के माध्यम से बदलाव की राजनीति में कदम रखा। बीबीसी बांग्ला की संवाददाता सुवोजित बाग्ची ने पिछले साल उनका एक साक्षात्कार लिया था। प्रस्तुत है उस साक्षात्कार का हिंदी अनुवादः

क्या माओवादी छत्तीसगढ़ में खुद को आगे बढ़ाने के लिए आदिवासियों को शिक्षित करने में जुटे हैं?
हम मोबाइल स्कूल के माध्यम से आदिवासियों को प्राथमिक शिक्षा देने की कोशिश कर रहे हैं। बच्चों को प्राथमिक स्तर पर विज्ञान, गणित व स्थानीय भाषा सीखा रहे हैं। हमारे लोग पिछड़े लोगों के लिए विशेष कोर्स तैयार करने में लगे हैं जिससे वह जल्दी सीख सकते हैं। हम स्वास्थ्य सेवाओं के विकास पर भी जोर दे रहे हैं। आदिवासियों को पानी उबाल कर पीने की सलाह देते हैं। इससे 50 प्रतिशत बीमारियां खुद ही कम हो जाती हैं। कई और गैर सरकारी संगठन भी ऐसा कर रहे हैं। महिलाओं के स्तर में सुधार के प्रयास किए हैं जिससे शिशु मृत्यु दर में कमी आई है। इस क्षेत्र में विकास का स्तर सब सहारन अफ्रीका की तरह है।

तो क्या आप यह कह रहे हैं कि माओवादी लोगों की हत्या की बजाए उनकी मदद करते हैं?
हां। लेकिन हमारे देश के प्रधानमंत्री हमे मौत का कीड़ा (डेडलीस्ट वायरस) मानते हैं।

आप ऐसा क्यों सोचते हैं?
विकास के बारे में हमारी बिल्कुल साफ अवधारणा है। हमारा मानना है कि भारतीय समाज अर्ध सामंती व अर्ध औपनिवेषिक राज्य है और इसे लोकतांत्रिक बनाने की जरूरत है। इसके लिए पहला कदम होगा कि जमीन जरूरतमंद को मिले। इसलिए हमारी लड़ाई भूमि हथियाने व गरीबों का शोषण करने वालों से है। हमारा विशेष ध्यान ग्रामीण भारत पर है।

छत्तीसगढ़ में आप लोगों को इतने संगठित रूप में कैसे जोड़े रखते हैं?
इसका एक मुख्य कारण है हम श्रम के सम्मान की बात करते हैं। उदाहरण के लिए यहां ग्रामीण बीड़ी बनाने के लिए तेंदू पत्ता इकट्ठा करते हैं। करोड़ों डाॅलर में यह उद्योग चल रहा है। हमारे यहां आने से पहले आदिवासियों की दैनिक मजदूरी 10 रुपए से भी कम थी। यहां भारत सरकार द्वारा तय दैनिक मजदूरी दूर की कौड़ी थी। हमने ठेकेदारों को मजबूर किया कि वह मजदूरी बढ़ाएं। हमने मजदूरी 3 से 4 गुना बढ़वाई। इसलिए लोग हमें पसंद करते हैं।

लेकिन इसका कारण यह भी है कि आपके पास सशस्त्र बल है?
मैं उसके बारे में कुछ ज्यादा नहीं बता सकता। क्योंकि मैं उस शाखा से नहीं जुड़ा हूं और उनके सदस्यों को भी नहीं जानता।

आप विकास की बात कर रहे हैं। क्या आप अपने प्रभाव वाले क्षेत्र में सरकारी विकास कार्यों के लिए छूट देंगे?
क्यों नहीं। हम विकास कार्यों का विरोध नहीं करते। उदाहरण के लिए हमने कुछ स्कूलों के निर्माण का विरोध नहीं किया। लेकिन यदि स्कूल सैन्य छावनी में बदलने के लिए बनाए जा रहे हैं तो हम इसका विरोध करते हैं। भारत में ऐसा कई बार हो चुका है।

आप बंदूक के बल पर राजनीति करते रहेंगे?
बंदूक कोई मुद्दा नहीं है। उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे राज्यों के कई गांवों में इतनी बंदूके हैं, जितना पूरे देश मे माओवादियों के पास नहीं होंगी। सरकार और कुछ वर्ग हमारी विचारधारा से डरते हैं इसलिए हमें अपराधी की तरह पेश किया जाता है।

क्या माओवादियों के खिलाफ राज्य प्रायोजित हमले से आपके गढ़ का सुरक्षित रहना संभव है?
लड़ाई मुष्किल है। पूंजीवाद व सत्ता एक दूसरे में घुले-मिले हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था आर्थिक संकट के दौर से गुजर रही है और शोषण के मामलों में वृद्धि हो रही है। हम इसे संगठित करने में लगे।

आप कभी मुख्यधारा की राजनीति में भाग लेंगे?
नहीं। क्योंकि हम ऐसे लोकतंत्र में विष्वास करते हैं जो लोगों का सम्मान करे और उसे स्थापित करना इस देश में संभव नहीं।

साक्षात्कार को मूल रूप में पढ़ने के लिए क्लिक करें कोबाड गाँधी

अनुवाद व प्रस्तुति : विजय प्रताप

आँख से हटती पट्टी

विजय प्रताप

कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी डी दिनकरण पर आय से अधिक संपत्ति रखने के आरोप ने न्यायापालिका पर एक बार फिर प्रष्नचिन्ह लगा दिया है। इससे पहले गाजियाबाद भविष्य निधि घोटाला मामले में उच्च न्यायालय के दस जजों सहित 32 जजों पर 23 करोड़ रूपए डकार जाने के आरोप लगे थे। हालांकि अभी तक सभी आरोपों पर अंतिम निर्णय आने बाकी हैं, लेकिन इन घोटालों ने आम जनता की नजरों में न्यायापालिका की छवि जरूर धूमिल की है।
भारत में जहां अभी तक लोग न्यायाधीशों को भगवान की तरह मानते थे, पिछले दो दशक में कई ऐसी घटनाओं ने इस अस्था को तोड़ा है। आजादी के बाद देश में जब लोकतंत्र और सहायक संस्थाओं का पुनर्गठन किया जा रहा था, उस समय किसी ने भी नहीं सोचा था कि न्याय करने वाला भी भ्रष्ट हो सकता है। इसीलिए संविधान में कार्यपालिका और विधायिका से जुड़े लोगों से संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने को कहा गया लेकिन न्यायापालिका को इससे अलग रखा गया। तब से अब तक के सफर में न्यायालयों के निर्णय तो कई बार बदले , एक ही नियम की अलग-अलग तरह से व्याख्या कर निर्णय सुनाए गए लेकिन इसमें कहीं भी यह आरोप नहीं लगा कि पिछला निर्णय किसी के दबाव में लिया गया था। यह सिलसिला नब्बे के दशक में तब टूटा जब पहली बार उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश पर महाभियोग लाने जैसी स्थिति बन गई। जस्टिस वी रामास्वामी जिन पर 1993 में लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया उन पर आरोप था कि उन्होंने पंजाब व हरियाणा में मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते हुए सरकार निधि का दुरूपयोग किया। कांग्रेस से उनकी नजदीकियों व दक्षिण भारतीय सांसदों के विरोध के चलते महाभियोग का प्रस्ताव पास नहीं हो सका, लेकिन बाद में रामास्वामी को इस्तीफा देना पड़ा। यह पहली घटना थी जिसने न्यायापालिका की शान पर बट्टा लगाया था। उसके बाद से न्यायापालिका पर ऐसे कई आरोप लग चुके हैं। यहां तक की पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस पी भरूच को यह स्वीकार करना पड़ा कि उच्चतम व उच्च न्यायालयों में 20 प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं। अब सवाल यह उठता है कि 20 प्रतिशत भ्रष्ट हैं तो क्या 80 प्रतिशत सौ फिसदी खरे हैं। अगर यह हाल उच्चतम व उच्च न्यायालयों का है तो निचली अदालतों का क्या हाल है। न्यायापालिका के गठन के समय उसे दूध का दूध व पानी का पानी करने वाली ईमानदार संस्था मानकर उसे जांच के दायरे से बाहर रखा गया था। न्यायापालिका पर लगातार उठते सवालों के बीच अब लोगों ने यह मांग करनी शुरू कर दी है कि जजों को भी संपत्ति घोषणा के दायरे में लाया जाए। न्यायाविद्ों की माने तो एक न्यायाधीश तभी तक न्यायाधीश होता है जब वह किसी दूसरे के मामले का फैसला कर रहा होता है। अपने मामले में किसी भी जज को फैसला करने का अधिकार नहीं है। जजों को दिया जाने वाला वेतन भी जनता के टैक्स से आता है, ऐसे में जनता को भी पूरा अधिकार है कि वह जान सके कि किस जज ने दूध से मलाई उड़ाई है।
जनता के इसी दबाव व न्यायापालिका की छवि को उज्ज्वल बनाए रखने के लिए सरकार को भी मजबूरन न्यायाधीश संपत्ति घोषणा व उत्तराधिकार अधिनियम 2009 लाना पड़ा। इस अधिनियम में भी सरकार पर अधिकार सम्पन्न जजों का दबाव साफ देखा जा सकता है। अधिनियम के उपनियम-6 में जजों को अपनी संपत्ति की जानकारी सरकार को देने का प्रावधान है। इसे सूचना अधिकार के दायरे से भी बाहर रखा गया है। मतलब साफ है कि सरकार की मंषा साफ नहीं है। यह स्थिति भी तब है जब जजों पर भ्रश्टाचार के आरोपों की सूची लगातार लंबी होती जा रही है। एक तरफ सरकार की यह स्थिति है तो दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने खुद पहल करते हुए जजों की संपत्ति की घोषणा जैसा प्रंशसनीय कदम उठाया है। जरूरत है कि देश के बाकी न्यायालय भी जनता का विश्वास जितने के लिए ऐसे कदम उठाए।

विचारों की सरहदें

अपूर्वानंद
धारा 377 अब स्वेच्छा से यौन संबंध बनाने वाले समलैंगिकों पर लागू नहीं होगी। दिल्ली उच्च न्यायालय के इस निर्णय ने भारतीय समाज की नैतिकता की परिभाषाओं की चूल हिला दी है। फैसला आने के बाद हिन्दू, मुस्लिम और अन्य धार्मिक समूहों के कई नेताओं ने इसे खतरनाक बताया है और इसके खिलाफ उच्चतम न्यायालय तक जाने की धमकी दी है। सरकार को भी कहा जा रहा है कि वह इस फैसले को चुनौती दे। अब तक के सरकार के रुख से ऐसा कुछ नहीं लग रहा कि वह इस दबाव के आगे झुकेगी।
फैसला ऐतिहासिक है। इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह एक विशेष संविधान को स्वीकार करके अपने-आपको एक राष्ट्र-राज्य के रूप में गठित करने वाले जन-समुदाय के रहने-सहने और जीने के तौर-तरीकों को निर्णायक रूप से उसके पहले के सामाजिक आचार-व्यवहार से अलगाता है। यह आकस्मिक नहीं है कि न्यायाधीश ने अपने फैसले के लिए जिन राष्ट्रीय नेताओं के दृष्टिकोण को आधार बनाया, वे हैं जवाहरलाल नेहरू और भीमराव अम्बेडकर। नेहरू औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद एक नए भारत के लिए आवश्यक नैतिक और सांस्कृतिक बुनियादी तर्क खोजने की कोशिश कर रहे थे। इस खोज में सब कुछ साफ–साफ दिखाई दे रहा हो, ऐसा नहीं था और हर चीज़ को वे सटीक रूप से व्याख्यायित कर पा रहे हैं, ऐसा उनका दावा भी नहीं था। नेहरू के जिस वक्तव्य को फैसले में उद्धृत किया गया है, उसमें भी शब्दों की जादुई ताकत के उल्लेख करने के साथ यह भी कहा गया है कि वे पूरी तरह से एक नए समाज की सारी आकांक्षाओं को व्यक्त कर पाने में समर्थ नहीं। वे निश्चितता से भिन्न विचार और मूल्यों के एक आभासी लोक की कल्पना करते हैं। राजनेता का विशेष गुण माना जाता है, फैसलाकुन व्यवहार। नेहरू, इसके बावजूद कि एक तानाशाह बन जाने के लिए उनके पास सारी स्थितियां थीं, हमेशा इससे बचते रहे कि चीज़ों को साफ-साफ और अलग-अलग खाचों में डाल दिया जाए।नेहरू और उन जैसे कुछ और नेताओं को इसका तीखा एहसास था कि लोकतंत्र मानव-जगत की एक नई खोज है और यह दुविधाओं और अनिश्चितताओं को नकारात्मक नहीं मानता। किसी भी चीज़ को, और इसमें मानवीय आचार-व्यवहार शामिल है, हमेशा के लिए तय मान लेना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। इसीलिए वह लगातार आपको अपना मत चुनने के लिए अवसर उपलब्ध कराता है। इसके पीछे यह धारणा है कि आप अपना पिछला मत बदल सकते हैं और ऐसा करते हुए आपको शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं। विचारों की सरहदें आखिरी तौर पर नहीं बन जातीं, वैसे ही जैसे जीवन तयशुदा सरहदों के भीतर नहीं पनपता। यह भी नहीं कि सरहदें होती नहीं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि वे उतनी ठोस नहीं होतीं, तरलता उनका विशेष गुण है। कई बार दो बिल्कुल विपरीत दिखाई पडने वाली चीज़ों की पड़ताल करने पर यह मालूम होता है उन्होंने एक दूसरे को अपने नज़दीक की चीज़ों के मुकाबले अधिक बदला है या प्रभावित किया है।
मनुष्य के इस स्वभाव की इस तरलता की समझ लोकतंत्र की जीवंतता के लिए अनिवार्य है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के पहले की सामाजिक संरचनाएं इस तरलता को नहीं मानतीं। पूर्ववर्ती व्यवस्थाओं के अलावा लोकतंत्र की समकालीन अन्य व्यवस्थाएं भी तरलता की जगह स्थिरता को मनुष्य और समाज को पारिभाषित करने के लिए आधार बनाती हैं। इसीलिए किसी एक धार्मिक विचार या किसी एक विचारधारा-विशेष को माननेवाली व्यवस्थाएं इसमें खासी दिलचस्पी लेती हैं कि व्यक्तियों के निजी आचरण के लोक में भी सामान्य माने जानेवाले व्यवहार से विचलन न दिखाई दें। यौन आचरण इन सबके लिए ऐसा क्षेत्र है जिसे नियंत्रित करना सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। आश्चर्य नहीं कि चाहे वह स्टालिन का समाजवाद हो या हिटलर का रक्त-शुद्धि पर आधारित फासिस्ट समाज, दोनों में स्त्री-पुरुष के बीच के यौन संबंध के अतिरिक्त किसी और यौन संबंध क़ो असामान्य और इसी वजह से समाज के लिए खतरनाक माना गया। हिटलर ने जिन समुदायों को ख़त्म करना तय किया, उनमें समलैंगिक भी शामिल थे और यही स्टालिन के सोवियत संघ में भी राज्य का रुख था। हमारे अपने समकालीन इरान में समलैंगिकता जुर्म है और इसके लिए मौत तक की सजा है।
भारत में कानून का राज कायम करने वाले अंग्रेज़ी साम्राज्य ने व्यक्ति के यौन आचरण को नियमित करने के लिए धारा 377 का प्रावधान किया। इसमें एक प्राकृतिक यौन व्यवहार की कल्पना की गई और माना गया कि पुरुष और स्त्री के यौन संबंध के अलावा कोई भी अन्य यौन संबध अप्राकृतिक है और इसी कारण दंडनीय है। यह विक्टोरियाई नैतिक धारणा मात्र नहीं। इसमें यह समझ छिपी है कि कोई भी आचरण या संबध, जो उत्पादक नहीं है, उचित नहीं है और इसी लिए न सिर्फ यह कि उसे प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि उसे वर्जित मान कर यत्न पूर्वक उसे जड़ से उखाड़ दिया जाना चाहिए। उत्पादकता और उपयोगिता को जो वैचारिक संरचना एकमात्र आधार बनाती है, वह यौन संबंध को मानव समाज की अभिवृद्धि का साधन मात्र मानती हैं। न सिर्फ यौन संबंध के मामले में, बल्कि बेकारों और अशक्त लोगों को लेकर ऐसे समाज में अधीरता देखी जाती है। हर किसी को लगातार कुछ न कुछ उत्पादित करते रहना है, वरना वह अनुपयोगी और फिर फालतू माना जाएगा और उसे कूडे़दान में फेंक दिया जा सकता है। धार्मिक व्यस्थाओं में दया तो है पर ऐसे लोगों के साथ बराबरी और इज्जत के लिए जगह नहीं है।
हमारे देश में ही नेहरू के गुरु गांधी के लिए भी संतानोत्पत्ति से अलग यौन संबंध की कोई वैधता नहीं थी। इस तरह वे धारा 377 के पीछे की अवधारणा के अधिक नजदीक पड़ते हैं। नेहरू इस मामले में अपने गुरु से भिन्न नजरिया अपनाते हुए दीखते हैं, इसलिए हर चीज़ का आकलन उत्पादकता या उपयोगिता की कसौटी पर नहीं करते। आनंद उनके लिए अतिरिक्त और इसी वजह से त्याज्य नहीं। यौन संबंध उत्पादन का ही नहीं, आनंद के सौंदर्य के संधान से भी जुडा है, इस वजह से उसमें विविधता की गुंजाइश भर की बात नहीं, वह अनियार्यत: वहां है। मानव समाज की यह अपेक्षकृत नई समझ है और इसीलिए इसकी नजीर हम पहले के समाज से खोजें तो दूसरे खतरों से हमें जूझना होगा।
साभार मोहल्ला लाइव

धारा-377...ऐसा देस है मेरा!


नवीन कुमार"रणवीर"

2 जुलाई 2009 दिल्ली हाईकोर्ट नें समलैंगिक संबंधों को लेकर सालों से चले
आ रहे बवाल पर कानूनी मोहर लगाते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट नें
समलैंगिक संबंधों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 से बाहर माना है।
कोर्ट का कहना हैं कि समलैंगिकों पर धारा 377 के तहत कार्यवाही करना
भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान की धारा 14, 15 और 21 द्वारा दिए गए
मौलिक अधिकारों का हनन है। अब सवाल उठता है की आईपीसी की धारा 377 क्या
है, इस धारा के तहत किसी भी व्यक्ति( स्त्री या पुरुष) के साथ
अप्राकृतिक यौन संबध बनानें पर या किसी जानवर के साथ यौन संबंध बनानें पर
उम्र कैद या 10 साल की सजा व जुर्मानें का प्रावधान है। जिससे कि बहुतेरे
समलैंगिक जोड़ो (विशेषकर पुरुषों) को प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी।
गैरकानूनी होनें की वजह से इन जोड़ों के साथ रह कर जीवन-यापन करनें को
समाज और प्रशासन गलत मानता रहा है। हालांकि अब भी यह कहना मुश्किल होगा
कि प्यार के इस रूप को समाज स्वीकार करता है या नहीं लेकिन कानून तो अब
प्यार और विश्वास के इस अनूठे संगम में अवरोध नहीं बन सकता। क्योंकि
कानून के मुताबिक इस धारा(377) के तहत ही समलैंगिकों की इस अभिव्यक्ति पर
विराम लगा था। कुछ थे जो खुलकर अपनें समलैंगिक होनें की बात को स्वीकार
करते लेकिन कानूनी दांव पेंच के आगे वे भी हाथ उठा लेते। समलैंगिकों के
अधिकारों के लिए समय-समय पर कई गैर सरकारी संगठन आगे आए और काफी हद उनके
अधिकारों की लड़ाई लड़ी गई। और आज ऐसे ही एक गैर सरकारी संगठन "नाज़
फाउंडेशन" की मुहिम रगं लाई औऱ कोर्ट को ये मानना पड़ा कि 1860 में बनीं
धारा 377 को वास्तविक परिवेश में केवल नाबालिग के साथ अप्राकृतिक यौन
संबंध बनानें और जानवरों के साथ यौन संबध बनानें के लिए ही उचित समझा
जाए, एक लिंग के दो व्यक्ति जो कि बालिग हो अपनी मर्जी से साथ रह सकते
हैं। अब सवाल आता है विरोध औऱ मान्यता का? विरोध तो कल भी हुआ था औऱ आगे
भी होगा, क्योकिं कानूनी मान्यता के आधार पर भी भारत में ऐसे संगठनों की
कमी नहीं है जो खुद को भारतीय संस्कृति के पैरोकार मानते हैं औऱ खुद आज
तक पता नहीं कितनी बार कानून की धज्जियां उड़ा चुके हैं। ऐसे संगठन है जो
यह जानते हैं कि देश का संविधान हमें धर्म लिगं, क्षेत्र, जाति के नाम
पर अलग नहीं करता हैं, जो जनाते है कि देश धर्मनिरपेक्ष है लेकिन फिर भी
किसी मस्जिद-गिरजाघर को तोड़ देते हैं, जो ट्रेन जला देते हैं, जो अपनें
ही देश में रोटी कमानें-खानें के लिए आए मज़दूरों को सड़क पर दौड़ा-दौड़ा
कर पीटते है, जो सदियों से सामंतवाद और जातिवाद की चोट से ग्रस्त लोगों
के घरों में आग लगा कर उनसे जीनें के अधिकार को भी छीन लेना चाहते हैं,
जो किसी महिला को मजबूर कर देते हैं कि वह अपनें हक़ के लिए बंदूक उठा ले
और डाकू फूलन देवी बन जाए...ये तो बानगी भी नहीं है दोस्तों...ऐसा देस
है मेरा!
अब देखते हैं कि समाज के इस नए पहलू को किन-किन प्रतिक्रियाओं से गुजराना
होगा, क्या ऐसे समाज से आप आशा करते हैं कि वो इस सब पर खुलकर सामनें
आएगा और इसे स्वीकार करेगा, कानून आपनी जगह सही हो सकता है। नैतिकता के
माएनें लेकिन खुद ही सीखनें होते हैं। मैनें आपको बता दिया है कि किस
प्रकार कानून का अमल किया गया है इस देश में। न्याय प्रक्रिया तक बात को
पहुचानें के लिए भी तो आवाज चाहिए औऱ आवाज के माध्यम किसके पास है और वे
किस सोच से इत्तीफ़ाक़ रखते हैं ये भी मायनें रखता है। आज देश में हमारे
पत्रकारों की सोच सभी विषयों पर उदारवादी दिखती है कुछ संघी पत्रकारों को
छोड़कर, लेकिन क्या इस विषय पर कोई पत्रकार सही और गलत परिभाषित करेगा?
क्या कोई पत्रकार समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिलानें की मांग को सही
ठहाराऐगा ? मैनें देखा कि ब्लॉग पर भी लोग इस विषय पर कुछ लिखनें से डर
रहे है, और जो लिख रहे है वो केवल कोर्ट के फैसले की पुष्टि भर के लिए
अपनी उदारवादी सोच की उपस्थिति भर दर्शा रहे हैं। शायद उन्हें भी डर है
कि कहीं जब हम कोई धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो लोग समझ लेते हैं
कि हम कम्यूनिस्ट या कांग्रेसी है उसी प्रकार यदि हम इस विषय पर लिखे तो
शायद हमें भी लोग इसी श्रेणी में ले आएंगे। खैर ये तो सोच है अपनी-अपनी
लेकिन सोच संवैधानिक हो ये संभव नहीं? एक सोच का वर्णन तो मैनें इस लेख
में कर ही दिया है । अब देखना है कि यही समाज इस नए नियम को किस प्रकार
लेता है, देखना दिलचस्प होगा, वैसे उम्मीद तो वही है (विरोध) जो कि पहले
बताया गया है । लेकिन अब मामला ये देखना पड़ेगा की यहां पर कोई क्षेत्र,
जाति, धर्म, बोली-भाषा, अमीरी-गरीबी का दंश जो भारतीय समाज में प्यार के
आड़े आता रहा है, शायद वो केवल ये माननें भर से कम हो जाए कि लिंग तो
समान नहीं है ना, बाकि सारी विषमताएं एक मान ली जाएंगी शायद...।

भविष्य के पत्रकारों का सामान्य (अ)ज्ञान

आनंद प्रधान

क्या आपको मालूम है कि बांग्लादेश की सम्मानित प्रधानमंत्री शेख हसीना का
अंडरवर्ल्ड से ताल्लुक है। वे अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहीम की छोटी बहन हैं ? या
ये कि वे पाकिस्तान की बड़ी नेता हैं और अपने नाम के मुताबिक वाकई हसीन हैं? या फिर यह कि वे विश्व सुंदरी हैं। और यह भी कि वे श्रीलंका की राष्ट्रपति हैं?
..... आपका सर चकरा दनेवाली ये जानकारियां किसी बेहूदा मजाक या चुटकुले का हिस्सा नहीं हैं। ये वे कुछ उत्तर है जो देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया प्रशिक्षण संस्थान में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में पी जी डिप्लोमा की प्रवेश परीक्षा में शेख हसीना और उन जैसी ही कई और चर्चित हस्तियों के बारे में दो-तीन वाक्यों में लिखने के जवाब में आए।
लेकिन यह तो सिर्फ एक छोटा सा नमूना भर है। ऐसा जवाब देनवाले प्रवेशार्थियों की संख्या काफी थी जिन्हें महिंदा राजपक्से, रामबरन यादव, अरविंद अडिगा,हैरोल्ड पिंटर आदि के बारे में पता नहीं था। सबसे अधिक अफसोस और चिंता की बात यह थी कि इन छात्रों को जो पत्रकार बनना चाहते हैं, प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस जी एन रे और दक्षिण एशियाई पत्रकारों के संगठन साफमा के बारे में कुछ भी पता नहीं था। ऐसे छात्रों की संख्या उंगलियों पर गिनी जाने भर थी जिन्होने जस्टिस जी एन रे और साफमा के बारे में सही उत्तर दिया। हिंदी पत्रकारिता में प्रवेश के इच्छुक अधिकांश छात्रों ने लगता है कि नई दुनिया के संपादक और जाने-माने पत्रकार आलोक मेहता का नाम कभी नहीं सुना था।
नतीजा यह कि प्रवेशार्थियों ने अपने काल्पनिक और सृजनात्मक ष्सामान्य (अ) ज्ञानष् से इन प्रश्नों के ऐसे-ऐसे उत्तर दिए हैं कि उन्हें पढ़कर हंसी से अधिक पीड़ा और चिंता होती है। हैरत होती है कि इन छात्रों ने ग्रेजुएशन की परीक्षा कैसे पास की होगी? यह सचमुच अत्यधिक चिंता की बात है कि पत्रकारिता की प्रवेश परीक्षा में बैठनेवाले छात्रों का न सिर्फ सामान्य ज्ञान बहुत कमजोर है बल्कि उनकी भाषा और अभिव्यक्ति क्षमता का हाल तो और भी दयनीय है। वर्तनी, लिंग और वाक्य संरचना संबंधी अशुद्धियों के बारे में तो कहना ही क्या? इन छात्रों की भाषा पर पकड़ इतनी कमजोर है कि वे अपने विचारों को भी सही तरह से प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं।
यह ठीक है कि इनमें से बहुतेरे छात्रों की भाषा, अभिव्यक्ति क्षमता, तर्कशक्ति और सामान्य ज्ञान का स्तर बाकी की तुलना में बहुत बेहतर और संतोषजनक था। इससे संभव है कि संस्थान को छान और छांटकर जरूरी छात्र मिल जाएं लेकिन बाकी छात्र कहां जाएंगे ? जाहिर है कि बचे हुए छात्रों की बड़ी संख्या दूसरे विश्वविद्यालयों और निजी पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों में दाखिला पा जाएगी। उनमें से काफी बड़ी संख्या में छात्र डिग्रियां लेकर पत्रकार बनने के पात्र भी बान जाएंगे। संभव है कि पत्रकारिता पाठ्क्रम में प्रशिक्षण के दौरान उनमें संधार हो लेकिन आज अधिकांष विश्वविद्यालयों और निजी संस्थानों में प्रशिक्षण और अध्यापन का जो हाल है, उसे देखकर बहुत उम्मीद नहीं जगती है।
निश्चय ही, समाचार माध्यमों के लिए अच्छी खबर नहीं है। अधिकांश समाचार माध्यमों और मीडिया उद्योग के लिए यह चिंता की बात है। वे पहले से ही प्रतिभाशाली मीडियाकर्मियों की कमी से जूझ रहे हैं। इसके कारण समाचार मीडिया उद्योग का न सिर्फ विस्तार और विकास प्रभावित हो रहा है बल्कि उसकी गुणवत्ता पर भी बुरा असर पड़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में समाचार मीडिया उद्योग का जिस तेजी से विस्तार हुआ है, उसके अनुसार उपयुक्त प्रतिभाओं के न मिलने के कारण समाचारपत्रों और चैनलों के बीच वेतनमानों से लेकर सेवा शर्तों तक में बहुत विसंगतियां पैदा हो गयी हैं।
ऐसे में, समाचार मीडिया उद्योग के स्वस्थ विकास के लिए जरूरी है कि बेहतर प्रतिभाएं मीडिया प्रोफेशन में आएं। लेकिन इसके लिए समाचार मीडिया उद्योग के साथ-साथ देश के प्रमुख मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों को मिलकर कोशिश करनी होगी। समाचार मीडिया उद्योग को मीडियाकर्मियों की भर्ती की प्रक्रिया को तार्किक, पारदर्शी, व्यवस्थित और आकर्षक बनाना होगा और दूसरी ओर, प्रशिक्षण संस्थानों को बेहतर छात्रों को आकर्षित करने और उन्हें श्रेष्ठ प्रशिक्षण देने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने के बारे में तुरंत सोचना होगा। यह एक चुनौती है जिसे अब और टालना समाचार मीडिया उद्योग के साथ-साथ पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थानों के लिए बहुत घातक हो सकता है।

फास्ट फूडडिया प्रेम पर एक टिपण्णी

प्रदीप कुमार सिंह
दुनियां जितनी खुल रही है, प्रेम उतना ही संकीर्ण होता जा रही है। पता नहीं कब कौन जला भुना आत्मलीन प्रेमी चेहरे पर तेजाब फेक दे य गोली मार कर हत्या कर दे। धैर्य के अभाव में आज की युवा पीढ़ी वह सब कुछ कर दे रही है,जो वह करना चाहती है। अभी हाल में जो घटना सुनने को मिली उसमें यही कहां जा सकता है कि इस तरह के प्रेम में न तो परिपक्वता होती है और न प्रेम की समझ। ऐसी धटनाओं के अध्ययन से यह बात देखने को मिलती है कि ऐसे युवा अपने भावनाओं को न तो अपनी प्रेमिका के पास तक पहुंचा पाते है और न तो अपने घर परिवार, दोस्तों को ही बताते है। धीरे धीरे वह आत्मलीन हो जाता है। इस किस्म के लोग यह समझने लगते है कि समाज उनके हिसाब से चलना चाहिएं। इसलिए यह विकृति मनोरोग बन जाता है। उनकी दबी हुई भावना अंततः उसे हिंसा की तरफ उन्मुख कर देती है। इस तरह के मामलों में एक समय ऐसा आता है जब प्रेमी एकदम अकेला हो जा ता है। उसके सोचने समझने की क्षमता समाप्त हो जाती है। दूसरा सबसे बड़ा कारण पुरूष वर्चस्व और मानसिकता का है। सदियों से पुरूष महिलाओं को दबा कर रखा है। पुरूषों के अंदर यह भावना है कि वह तो सदियों से महिलाओं को देता आया है। प्रेम जैसी नायाब तोहफा वह अपने प्रेमिका को देना चाहता है, इसकी ये मजाल की लेने से इंकार कर रही है। आज की युवा पीढ़ी प्रेम को फास्ट फूड की तरह चाहती है। हाईप्रोफाइल टीवी धारावाहिकों ने इस प्रवृत्ति को और बढ़ा दिया है। यदि गहराई से देखा जाए तो इसका एक सामाजिक कारण है। समाज और संस्कृति के निर्माण की जो प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है,वह एक स्थान पर आकर रूक गई है। विगत वर्षो में हमारे समाज पर पाश्चात्य संस्कृति का बहुत गहरा प्रभाव पड़ां। आज हमारा समाज न तो पूरी तरह पश्चिमी संस्कृति को अपना पाया है। और न तो अपने पुराने नैतिक मूल्यों पर ही खड़ा है। संयुक्त परिवारों के टूटने और व्यक्ति के अपने काम से ही मतलब रखने से स्थितियां और भयंकर हो गई है। युवा वर्ग का असहिष्णु होना इस बात का द्योतक है कि नई पीढ़ी के निर्माण में आत्मविश्वास और सामुदायिकता का बोध नहीं है। हमारा युवा आत्मकेंद्रित,अक्रामक,धैर्यहीन और असहिष्णु हो गया है। यह सब अधूरे समाजीकरण का नतीजा है। यदि आत्मविश्वास नहीं है तो धैर्य भी नहीं होगा। इसके अभाव में लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में संयम से काम नहीं ले पाते है। जल्दी आपा खो देते है। वह धैर्य ही है जो सभ्य और असभ्य के बीच अंतर को स्पष्ट करता है। युवाओं म ंअहंकार,आत्मकेंद्रीयता और में हूं, मेरा कोई क्या कर लेगा,जैसे भाव अपनी सुदृढ़ जगह बनाते जा रहे है। इसके आलोक में मनुष्य की राक्षसी प्रवृति साधुता पर हावी होती जा रही है। सामाजिक विद्रूपता का एक कारण समाज में बहुत तेजी के साथ नवदौलतियां वर्ग का उभरना भी है। नव धनाड्य वर्ग में अपनी संतान का लालन पालन का तरीका बिल्कुल भिन्न है। उसमें समाज की जगह बहुत सिकुड़ी हुई है । सामाजिक सारोकारों से ऐसी संतानों का वास्ता सीमित है। कानून व्यवस्था के बारे में यही समझ विकसित होती चली जा रही है कि रसूख और पैसे के प्रभाव में कुछ भी किया जा सकता है। अपराधी छूट सकते है और छोटे मोटे अपराध की सजा से निजात पाई जा सकती है। इससे युवा के भीतर न तो कोई सामाजिक भय है और नही अपने दायित्व। तब फिर वह अपने प्रेमिका के शादी से मना कर देने पर तेजाब फेक दे रहा है,या गोली मार देने की घटनाओं को अंजाम देने से नहीं चूक रहा है। ठेठ उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में तो प्रेम करने पर जान से हाथ धेना पड़ता है। खुद परिवार वाले वहशियाने तरीके से इस क्रूरता को अंजाम देते है। वहां प्रेम विवाह करने वाले पति पत्नी को भाई बहन बना दिया जाता है। प्रेम,विवाह, समाज और कानून जब तक अपने संबंधों को की स्पष्ट सीमा रेखा का विभाजन नहीं कर लेते है। तब तक इस समस्या का कोई सार्थक हल नहीं निकल सकता है। भावना का यह रिस्ता कितने लोगों के लिए खेल है। प्यार जैसे नाजुक रिश्तों पर अति आधुनिक आदमी भी दोहरा मानदंड रखता है। जब तक इस पर स्वस्थ बहस और एक मानदंड नहीं तय होगा तब तक ऐसी विकृतिया जन्म लेती रहेगी।

किले में लगती सेंध

संतोष सिंह
पन्द्रहवी लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के साथ ही मायावती के सोशल इंजीनियरिंग के दावे की पोल खुल गई कि जिस सर्वजन के सहारे वे दिल्ली की तैयारी कर रहीं थी महज उसने दो साल में उनका साथ छोड़ दिया। तो वहीं बहुजन का उनके कथित दलित आंदोलन जो मूर्तियों की स्थापना से लेकर दलित की बेटी को प्रधानमंत्री बनाने तक सीमित रह गया था, से उसका मोहभंग होने की शुरुआत इस चुनाव ने कर दी। जिसका खामियाजा सष्टांग दंडंवत होने वाले यूपी के नौकरशाहों को चुकाना पड़ रहा है। तो वहीं जिन बाहुबलियों को वे गरीबों का मसीहा बता रहंी थी उनको भी इस चुनावी दंगल में जनता ने नकार दिया। हालांकि आज उनकी ही हाथी की सवारी कर सबसे ज्यादा बाहुबली अबकी बार भी यूपी से संसद में पहुंचे। गौरतलब है कि मई 2007 विधान सभा चुनाव के बाद बसपा केंद्रिय सत्ता के मजबूत दावेदार के बतौर उभरी। लेकिन दो वर्षों के कार्यकाल में ही उनकी सत्ता की खामियां उजागर हो गई और चुनावी वादों की पोल खुल गयी। जिन गंुडों की छाती पर चढ़ने की बात वह कल तक कर रही थीं उन्हीं गंुडो को अपने हाथी का ऐसा महावत बना दिया कि उसकी पूछ थामे जनाधार ने उसे छोड़ दिया। पूर्वांचल में चुनाव जीतने व सपा को कमजोर करने के लिए मायावती ने अंसारी बंधुओं को चुनाव लड़ाकर मुस्लिम कार्ड खेलने का प्रयास किया। गणित तो ये थी कि सपा से मुस्लिमों को दूर कर दलित-मुस्लिम-ब्राहमण त्रिकोण बनाया जाय। पर पासा चैपट हो गया। जिसका फायदा भाजपा को पहुंचा, क्योंकि संघ ने इसको बडे़ पैमाने पर प्रचारित प्रसारित किया। और वोटों का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करवाया जिसका फायदा लोकसभा चुनाव में उसे मिला। पूर्वांचल के अंदर उभरे नये जातीय समीकरण ने जहां सपा की सिट्टी-पिट्टी बंद कर दी वहीं बसपा के खोखले दावों की हवा निकाल दी क्योंकि मायावती अपने वोटरों से पहले मतदान उसके बाद शादी विवाह के शिगूफे उनके बीच छोड़ती थी यानी दलित समाज के लोग वोट की कीमत पहचाने और बसपा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। लेकिन दलित समाज ने मायावती के इस नारे को शायद इस बार ठीक से समझा। जिनकी नाराजगी का पता उत्तर प्रदेश की सुरक्षित सीटों से हो जाता है जहां 17 लोकसभा सीटों में से दस पर सपा, दो-दो पर भाजपा- कांग्रेस और एक सीट पर रालोद का कब्जा हुआ यानी मायावती के खाते में सिर्फ दो सीटें गयी। दलित समाज जो बसपा का परंपरागत वोटर है उसने नए समीकरण में अपने को छला हुआ महसूस किया और धारा के विपरीत चलने की शुरुवात की।
द्वितीय चरण के चुनाव के दौरान जौनपुर लोकसभा क्षेत्र में इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रत्याशी बहादुर सोनकर की हत्या हो गयी। जिसका आरोप बसपा के बाहुबली प्रत्याशी धनंजय सिंह पर लगा। लेकिन सत्ता की हनक के कारण हत्या को आत्म हत्या में तब्दील करवा दिया गया। भले ही धनंजय ने सत्ता की हनक और गुंडई के बल पर जौनपुर सीट जीत ली। लेकिन इस हत्या से उभरे आक्रोश के कारण दलितों के एक बड़े वर्ग ने हाथी की सवारी छोड़ दी जिसका असर जौनपुर की आस-पास की सीटों जैसे मछलीशहर, इलाहाबाद, प्रतापगढ़, फतेहपुर, कौशाम्बी समेत दर्जनो सीटों पर पड़ा। इलाहाबाद सीट के करछना विधान सभा के भुंडा गांव में मतदान के दिन खटिकों को बसपा के पक्ष में मतदान करने के लिए दबाव डालने पर, प्रतिक्रिया स्वरुप खटिकों ने ब्राहमण भाईचारा समिति के अध्यक्ष अक्षयवर नाथ पाण्डे को पीट-पीट कर सूअर बाड़े में बंद कर दिया और नंगा कर भगा दिया। बहरहाल 90 के बाद जो अस्मितावादी राजनीति प्रमुखता से उभर कर सामने आई वह ब्राहमण-क्षत्रियों के समानांतर खड़े होेने की थी। विभिन्न जातियों के नेताओं ने अपनी-अपनी जातियों का प्रतिनिधित्व किया। मायावती की इस अस्मितावादी राजनीति में दलितों के भीतर एक खास जाति को प्रतिनिधित्व मिला। लेकिन दलितों के अंदर पासी, खटिक, कोल, धोबी आदि जातियों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला। जिसका असर बीते लोकसभा चुनाव में साफ दिखा कि सुरक्षित सीटों को भी बसपा नहीं जीत पायी।मायावती ने विधान सभा चुनाव में सर्वजन का शिगूफा छोड़ा था। इस चुनाव से उत्साहित मायावती लोकसभा चुनावों की तैयारियों में जुट गयीं और बड़े पैमाने पर ब्राहमण-मुस्लिम भाई-चारा कमेटियों का गठन किया। जो सत्ता से उपेक्षित जातियों को नागवार लगा। वहीं बसपा मंे जिन दलित जातियों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला वे प्रतिक्रिया स्वरुप कांग्रेसी खेमें में चली गयी। जिसका बसपा को लोकसभा चुनाव मंे खामियाजा भुगतना पड़ा।बहरहाल चुनावी पंडितों के सभी आकलन पर विराम लगाते हुए बसपा-सपा कांग्रेसी खेमें में शामिल हो गयीं। वजह साफ है दोनों को सीबीआई से अपने आप को बचाना है लेकिन दोनों पार्टियों के साथ जो तबका खड़ा है क्या वह इन पार्टियों के साथ खड़ा रहेगा अथवा और कहीं चला जाएगा यह यक्ष प्रश्न अभी बना हुआ है।

मीडिया में इतिहास और अनुपात बोध का एनीमिया

आनंद प्रधान


क्या समाचार मीडिया को इतिहास और अनुपात बोध का एनीमिया (रक्ताल्पता) हो गया है? क्या वह, विवेक और तर्क के बजाय भावनाओं से अधिक काम लेने लगा है? खासकर टी वी समाचार चैनलों में इतिहास और अनुपात बोध की अनुपस्थिति कुछ ज्यादा ही संक्रामक रोग की तरह फैलती जा रही है। समाचार चैनल इस कदर क्षणजीवी होते जा रहे हैं कि लगता ही नहीं है कि उस क्षण से पीछे और आगे भी कुछ था और है। समाचार चैनलों की स्मृति दोष की यह बीमारी अखबारों को भी लग चुकी है।
आम चुनाव 2009 और उसके नतीजों को ही लीजिए। पहली बात यह है कि बिना किसी अपवाद अधिकांश समाचार चैनलों और अखबारों के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण, एक्जिट पोल, चुनावी भविष्यवाणियां और पूर्वानुमान एक बार फिर मतदाता के मन को भांपने मे नाकामयाब रहें। लेकिन इसके लिए खेद जाहिर करने और नतीजों की तार्किक व्याख्या करने के बजाय चुनाव नतीजों को एक चमत्कार की तरह पेश किया गया। ऐसा लगा जैसे कांग्रेस को अकेले दम पर बहुमत मिल गया हो और भाजपा से लेकर वामपंथी पार्टियों और क्षेत्रीय दलों का पूरी तरह से सफाया हो गया हो।
सच है कि सफलता से ज्यादा सफल कुछ नही होता है और सफलता के अनेकों साथी होते है। चैनलों और अखबारों के पत्रकारों और विश्लेषकों पर ये दोनों बातें सबसे अधिक लागू होती है। चुनाव नतीजों का बारीकी से विश्लेषण करने के बजाय कांग्रेस की जीत और भाजपा और तीसरे मोर्चे के हार के लिए ज्यादातर अति-सरलीकृत कारण गिनाये गए जिनमें सामान्य इतिहास और अनुपात बोध का स्पष्ट अभाव था। इस इतिहास बोध के अभाव के कारण चुनावी नतीजों का विश्लेषण और जनादेश की व्याख्या इतनी भावुक, आत्मगत, पक्षपातपूर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त और एकतरफा थी कि जिसे इतिहास का ज्ञान नही होगा, उसे लगेगा जैसे कोई क्रांति हो गयी हो।
जाहिर है कि समाचार मीडिया कांग्रेस की जीत के उन्माद और आनंदोत्सव में ऐसे डूबा हुआ है कि किसी विश्लेषक को कांग्रेस की चुनाव रणनीति और अभियान मे कोई कमी नही दिख रही है। उसके मुताबिक, कांग्रेस इस जीत के साथ एक ऐसी पार्टी बन चुुकी है जिसमें कोई कमी नही है। यही नहीं, कांग्रेस अचानक ऐसा पारस पत्थर बन गयी जिसे छूकर ममता बैनर्जी से लेकर करूणानिधि तक मामूली पत्थर से सोना बन गए हैं। राहुल राग का तो खैर कहना ही क्या?
दूसरी ओर, समाचार मीडिया को एनडीए खासकर भाजपा और तीसरे मोर्चे मे माकपा की चुनावी रणनीति और अभियान में ऐसा कुछ नही दिखा जो सही था। यह साबित करने की कोशिश की गयी कि अब क्षेत्रीय दलों का जमाना गया, वामपंथी दल इतिहास बन जाएंगे और तीसरे-चैथे मोर्चे के सत्तालोलुप नेताओ को कूडेदान मे फेक दिया है। इसके अलावा भी बहुत कुछ और कहा गया जो विश्लेषण कम और भावोद्वेग अधिक था।
यहां इतिहास को याद करना बहुत जरूरी है। कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकारों का एक इतिहास रहा है और एक वर्तमान भी है। बहुत दूर न भी जाएं तो 1984 में मिस्टर क्लीन राजीव गांधी आज से कही ज्यादा भारी बहुमत और उससे भी अधिक उम्मीदों के साथ सत्ता में पहुंचे थे। उसके बाद क्या हुआ,वह बहुत पुराना इतिहास नही है। यही नही, कांग्रेस को इसबार लालू-मुलायम-मायावती और जयललिता जैसों की बैसाखी से भले मुक्ति मिल गयी हो लेकिन खुद कांग्रेसी इनसे कम नहीं हैं।
कांग्रेस खुद एक गठबंधन है जिसमे सत्ता के त्यागी, संत और सेवक कम और सत्ता के आराधक ज्यादा हैं। कांग्रेस मे सत्ता की मलाई में अपने-अपने हिस्से के लिए खींचतान कोई नई बात नही है। इसे देश ने पहले भी देखा है और आगे भी देखेगा। अगर रातों-रात ममता बैनर्जी और करूणानिधि बदल न गये हों तो देश उनके नखरे, रूठने और मनाने के नाटक आगे भी देखेगा।
याद रखिए, कांग्रेस का एक चरित्र है, एक संस्कृति है और एक इतिहास भी है। इसी तरह, सत्ता का भी अपना एक चरित्र, इतिहास और संस्कृति है। आमतौर पर इसमें रातो-रात बदलाव नही आता। लेकिन मीडिया इसे जानबूझकर अनदेखा कर रहा है। इसके कारण धीरे-धीरे यह स्मृति दोष की बीमारी बनती जा रही है। इस बीमारी ने उसे न सिर्फ दूर तक देख पाने में अक्षम बना दिया है बल्कि उसे निकट दृष्टि दोष की समस्या का भी सामना करना पड़ रहा है।

वाम-वाम-वाम दिशा...


शालिनी बाजपेयी

1925 से अपनी यात्रा शुरू कने वाला वामपंथ आज विचारों के उन दो राहों पर खड़ा है जहां से वामपंथ को पाने के बहुत कुछ है और अब शायद खोने के लिए कुछ भी नहीं। 15वीं लोकसभा के चुनावों में वामपंथ को मिले जनता के सहयोग से पता चलता है कि जनता इनके नवउदारवादी विचारों से प्रसन्न नहीं है। जो वामपंथ कल तक गरीबों, मजलूमों और मजदूरों का कहा जाता था वह आज टाटा का हो गया है। इस बदलाव को पश्चिम बंगाल की रचना ने नकार दिया है। पश्चिम बंगाल या भारत की गरीब जनता को लखटकिया कार नहीं बल्कि सोने के लिए खटिया और खाने के लिए दाल रोटी-रोटी चाहिए। इन्हीं सवालों को बुद्धदेव नहीं समझ रहे हैं और ममता इनकी इस बुद्धिहीनता का फायदा उठा रही हैं।
वामपंथी पाटिüयों में विशेषकर माकपा माक्र्सवाद सिद्धांत के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से भटक रहा है। यह अपने आपको माक्र्सवादी कहता तो है लेकिन माक्र्स के सिद्धांतों पर ही चलना नहीं चाहता है। पश्चिम बंगाल की जनता को वही वामपंथ चाहिए जो उसके सवालों को समझ सके। जो वामपंथ 14वीं लोकसभा में काफी अधिक सीटें लेकर गांधियों के पास सरकार बनाने पहुंचा था वही आज अकेले विपक्ष में भी बैठने के काबिल नहीं बचा है। इसका जि मेदार भी वह स्वयं है। यही कारण है कि यूपीए की लगाम खींचकर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून और किसानों की ऋण माफी का सारा श्रेय यूपीए ले गया और वामपंथी क्वटाटां करते रह गए। इन्हीं दो उपलçब्धयों को कांग्रेस ने जनता में खूब भुनाया और वोट बटोरे तथा वामपंथी तीसरा मोर्चा बनाते रह गए। इसके तीसरे मोर्चे के गठन ने ही इससे सबकुछ छीन लिया। इनकी छवि तो उसी दिन दागदार हो गई थी जिस दिन ये नवीन पटनायक, मायावती, जयललिता और करुणानिधि के साथ खडे़ हुए थे। जनता इनके तीसरे मोर्च से ही इनके वैचारिक भटकाव को समझ गई थी।
ये वामपंथी अहम की उस चोटी पर पहुंच गए थे जहां से इन्होंने नंदीग्राम और सिंगूर को आवाज लगाई थी। इसी सिंगूर और नंदीग्राम में न जाने कि तने गरीब किसानों को मौत के घाट उतार दिया गया, न जाने कितने बच्चों को अनाथ किया गया। इसी वामपंथ से दुखी होकर महाश्वेता देवी जैसी वामपंथी लेखिका ने भी इसके खिलाफ विरोध के स्वर तेज किए, लेकिन महाश्वेती देवी जैसे ममता की अति पर जाकर तारीफ करती हैं तो वह यह कैसे भूल जाती हैं कि ये कल तक जिन सा प्रदायिक ताकतों के साथ मजबूती से खड़ी थीं आज उनसे पूरी तरह व्यावहारिक रूप से कैसे अलग हो सकती हैं। ममता ने काफी कुछ अच्छा किया होगा लेकिन इनके राजनीतिक साथियों की छवि को देखकर इन्हें बहुत महान नहीं कहा जा सकता। जो प्रकाश करात ने कल किया था कांग्रेस के साथ जाकर वही तो ममता कर रही हैं। यह सत्ताई राजनीति की भूख को नकारकर भी उसी की तरफ बढ़ रही हैं। यह कैसा विरोधाभास है। इन्हें वास्तव में यदि जनता की राजनीति करनी थी जैसा कि महाश्वेता देवी से इन्होंने कहा है तो फिर कांग्रेस के साथ जाने की क्या जरूरत थी। ऐसी राजनीति तो ममता अकेले रहकर भी कर सकती हैं। जिस तरह से यूपीए के कुकृत्यों के लिए वामपंथियों को भी जि मेदार ठहराया जाता था, उसी तरह आज फिर यपीए के गलत-सही सभी कामों के लिए ममता को भी दोषी ठहराया जाएगा। इसलिए महाश्वेता देवी को एकतरफा होकर तारीफके पुल नहीं बांधने चाहिए। तारीफ इनकी उस दिन होगी जिस दिन ये यूपीए के साथ रहकर भी उसकी किसान विरोधी और नवउदारवादी नीतियों जो हमेशा आम जनता के कष्टों का कारण रही है, के खात्मे में अपनी भूमिका निभाएंगी।
वास्तव में देखा जाए तो महाश्वेता देवी ही क्यों वामपंथियों कुकृत्यों (सिंगूर-नंदीग्राम) पर स्वयं वामपंथ के अंदर से भी विरोध की तलवारें खींची गईं। इसका कारण साफ है कि यह भाजपा और कांग्रेस नहीं है जो अपनी बुराइयों पर पदाü डालते फिरे बल्कि यह वामपंथ है जिसमें अपनी आत्मालोचना का बड़ा महत्व है लेकिन दुभाüग्य इस बात का है कि यह सब वामपंथी अनुशासन ये माकपा कहां तज आई है।
लालगढ़ में तृणमूल की जीत ममता की जीत नहीं बल्कि वामपंथ की हार है। ममता भी जिस विरोध की राजनीति से जनता को बरगलाने में कामयाब हुईं उससे यह कब तक अपना दामन बचा पाएंगी क्योंकि केंद्र में यह जिनके साथ खड़ी हैं वह तो खुला इन्हीं लक्ष्यों को हासिल करने की बात करते हैं। वह तो अपनी उस नवउदारवादी आर्थिक नीति को जिसमें वामपंथियों ने हमेशा अड़ंगा लगाया है, अब स्वतंत्र होकर सफलतापूर्वक अंजाम देंगे। इस उदारवादी व्यवस्था का जिसका नाम उदारवादी है लेकिन यह बहुत ही जुल्मी है। जुल्मी इस अर्थ में कि इसने न जाने कितने युवाओं से उनके रोजगार छीने हैं, न जाने कितने आईआईटी छात्रों से उनका भविष्य छीना है। इसी उदारवाद में एसईजेड (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) जैसे क्षेत्र भी आते हैं जिनका ममता विरोध करती आई हैं। उदारवाद में टाटा की लटखटिया भी आती है। यही उदारवाद सत्यम जैसे दानवों को भी पैदा करता है, जो एक बार अपना मुंह खोलता है और हजारों लोगों के भविष्य को अपने पेट रख लेता है। मनमोहन सिंह का उदारवाद अंधाधुंध सरकारी संस्थाओं का निजीकरण है। इसी ने मंदी जैसे आर्थिक सुनामी को जन्म दिया है। और जितना हमें किसानों और सरकारी संस्थाओं ने बचाया है उन्हें भी अब उसी सायनाइड में बदल दिया जाएगा। यही है उदारवाद।
अगर बुद्धदेव ने गलत किया है तो ममता भी दूध की धुली नहीं हैं, यह भी उसी भीड़ से निकलकर आई हैं जहां से बुद्धदेव जैसे नेता। पश्चिम बंगाल की जनता ने ममता को इन बुद्धदेव और कि सान विरोधी नीतियों से अलग कैसे समझ लिया। दरअसल वहां की जनता भी तो इस समय भटकाव के रास्तों पर खड़ी है क्योंकि ये नेता तो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं वह किसे अच्छा समझे और किसे बुरा।
बुद्धदेव को अगर पश्चिम बंगाल में विकास करना ही था तो क्या यह विकास टाटा और सलेम ग्रुप के साथ मिलकर ही किया जा सकता है। यह विकास तो वर्षों से बंद पड़े कारखानों की मशीनों में नई जान डालकर भी किया जा सकता है। यदि पश्चिम बंगाल के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि कोलकाता सबसे समृद्ध और औद्योगिक नगरी के रूप में जाना जाता था। कोलकता की समृद्धता और आधुनिकता ने ही अंग्रेजों को कोलकाता को भारत की राजधानी बनाने के लिए प्रेरित किया था। पहले भारत में दूर-दूर से लोग कोलकता में रोजगार ढूंढ़ने आते थे लेकिन अब तो यह अपने क्षेत्र के युवाओं को ही रोजगार नहीं दे पा रहा है तो और राज्यों के लिए कैसे गिले-शिकवे। बुद्धदेव को उन बंद पड़े कारखानों को फिर से उस तरह से चलाने होंगे जैसे पहले चलते थे और कोलकाता की अपनी पहचान वापस लानी होगी। विकास की ओर बढ़ने के लिए पहले पायदान पर तो खेती आती है। भारत की लगभग 60 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष रूप से और 40 प्रतिशत अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर आçश्रत है फिर खेती-किसानी के साथ इतना सौतेला व्यवहार क्यों? पश्चिम बंगाल वैसे भी जूट, चाय बागान और चावल के लिए मु य रूप से जाना जाता है, इसकी इन मु य फसलों को और बढ़ावा देना चाहिए ताकि खेती पर आçश्रत जनता को कम से कम भूखों न मरना पड़े और मौका पड़ने पर इन उदारवादी समर्थकों को डूबने से भी बचाने के लिए तिनका बन सके। वामपंथी पश्चिम बंगाल में आए भी अपने इन्हीं कुछ सवालों को लेकर थे मसलन- औद्यागिक विकास, सामाजिक न्याय और किसान मजदूरों के सवाल। वामपंथियों ने ऑपरेशन बरगा भी चलाया था भूमि सुधार के लिए, लेकिन यह सब अब कहां छू-मंतर हो गया है। यह जिस सामाजिक न्याय की बात करते थे वह भी तो बंगाल में सिरे से गायब है। कहा जाता है कि बंगाल में तो अल्पसं यकों की स्थिति और भी खराब है। समूचे भारत में जिस तरह अल्पसं यकों को आतंकवाद के नाम उत्पीçड़त किया जा रहा है, बंगाल इससे अछूता नहीं है। वहां पर भी अल्पसं यकों की यही दशा है। इसी का नतीजा था कि इस बार अल्पसं यकों ने भी वामपंथियों को किनारे लगाया है।
ममता बनर्जी जो कभी भाजपा का पल्लू पकड़े थीं आज कांग्रेस के साथ खड़ी हैं। यह पश्चिम बंगाल में कोई चमत्कार तो कर नहीं देंगीं। ऐसा भी नहीं है कि बंगाल में ममता के सत्ता में आ जाने से कोई क्र ांतिकारी बदलाव हो गया है बल्कि स्थितियां वही हैं। यह तो नई बोतल में पुरानी शराब परोसने जैसा है। मतलब चेहरे अलग-अलग हैं लेकिन विचार वही हैं। कोेलकाता की जनता भी इस बात को समझ रही है। यदि वह न समझती होती तो इतने दशकों से वह वामपंथियों का साथ न दे रही होती। वहां की जनता ने ही तो लाल झंडों को इतना ऊंचे उठाया है। वहां का बुद्धजीवी वर्ग भी विचारों की राजनीति पर ही बल देता है। कोलकाता का माहौल भी भारत की और जगहों से बिल्कुल अलग है।
वामपंथ के पास अब भी समय है। वह जनता से अपने कुकृत्यों यानी सिंगूर और नंदीग्राम के लिए माफी मांगे और वामपंथी अनुशासन के तहत अपनी आत्मालोचना करे। इसे अपनी इस सत्ताई राजनीति को छोड़कर जन संघर्षों की राजनीति करनी चाहिए। और इन जन संघर्षों की राजनीति में सांसदों की सं या मायने नहीं रखती है। इस माकपा को इस बात को समझना चाहिए कि अभी भी भारत में वामपंथी ही ऐसी पाटिüयां हैं जिनमें मजबूत जनसंगठनों की ताकत है। मौका पड़ने पर यह करोड़ों की सं या में जनता को जन मुद्दों के लिए सड़कों पर उतार सकती हैं और इतिहास जानता है कि कई बार ऐसा हुआ भी है। इसलिए वामपंथी पाटिüयों को इस कुर्सी की राजनीति से इतर हटकर अपने पुराने रोल में वापस आना होगा। भाकपा-माकपा-भाकपा माले ये तीनों एक होकर इस राजनीतिक मंच को जनसंघर्षों का मंच बनाएं। और संसद में अपनी विपक्षी भूमिका को जनता के हित में ईमानदारी से निभाते हुए समय-समय पर कांग्रेस को बेकाबू होने से रोकें।

पंजाब में लगी आग : एक कड़वी सच्चाई


नवीन कुमार ‘रणवीर’

24 मई 2009 रविवार को ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना में डेरा सचखंड बल्लां वाला के संत निरंजन दास और संत रामानंद पर हुए हमले की प्रतिक्रिया 25 मई को भारत के पंजांब, हरियाणा और जम्मू में दिखी। जिसका हर्जाना लगभग पूरे उत्तर भारत को उठाना पड़ा। पंजाब के रास्ते जानें वाले सभी मार्ग रेल और सड़क बंद, काम-धंधे बंद, कई जगह आगजनी, विरोध प्रदर्शन, तोड़-फोड़, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया गया, कई बसे, ट्रेनें यहां तक की एटीएम तक को आग भीड़ ने आग के हवाले कर दिया। टेलीविजन पर खबरें आ रही थी की विएना में एक गुरुद्वारे में हुए हमले के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं, लोग समझ रहें थे कि गुरुद्वारे पर हमला विएना (ऑस्ट्रिया) में हुआ है फिर ये लोग यहां क्यों प्रदर्शन कर रहे है? और एक बात प्रदर्शन करनें वालों में सिखों की संख्या का अनुपात भी कम नजर आ रहा था, कारण क्या है कुछ समझ में नहीं आ रहा था। शायद बात को मीडिया बंधु सही तरह से समझ नहीं पाए थे कि बात आखिर हुई क्या है। दरअसल ऑस्ट्रिया के विएना में जो गुरुद्वारा सचखंड साहिब है वो किस प्रकार अन्य गुरुद्वारों के भिन्न हैं, पंजाब के डेरों में डेरा सचखंड साहिब बल्लां रामदासियों और रविदासियों(आम भाषा में यदि हम कहें तो चमारों) का का डेरा कहा जाता है।डेरा सच खंड की स्थापना 70 साल पहले संत पीपल दास ने की थी। पंजाब में डेरा सच खंड बल्लां के करीब 14 लाख अनुयायी हैं।वैसे तो पंजाब में 100 से ज्यादा अलग-अलग डेरें हैं, पर डेरा सच के अनुयायियों में ज्यादा संख्या में दलित सिख और हिंदू है। पंजाब में दलितों की आबादी लगभग 34 प्रतिशत है। रविदासिए मतलब भक्तिकाल के महान सूफी संत रविदास के अनुयायी। जिन्होनें की जाति-व्यवस्था के विरुद्ध समाज की कल्पना की थी। सिख धर्म के कई समूह डेरा संस्कृति के खिलाफ रहे हैं। क्योकिं इन डेरों के प्रमुख खुद को गुरु दर्शाते हैं। फिर इनके डेरों में गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश क्यों होता है। यहां सवाल ये भी खड़ा होता हैं कि निरंकारी, राधा-स्वामी ब्यास, डेरा सच्चा सौदा और न जानें कितनें ही ऐसे डेरे हैं जहां के गुरु सिख ही हैं, और वे भी गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी को ही अपनें सत्संग में बाटंतें है। या शायद ऐसा हैं कि समाज में उच्च वर्गों के द्वारा चलाए जानें वाले डेरों से सिख के किसी समूह को परेशानी नहीं है लेकिन निम्न वर्गों जिन्हें कि सिख धर्म में तिरस्कार झेलना पड़ा हो, उनके डेरों से ही सिख धर्मावलंबियों को ऐतराज है। अब समझ में ये नहीं आता की ऐतराज सभी डेरों के प्रमुखों से है जो कि खुद को गुरु कहलाते हैं, या कि डेरा सच खंड से है? एक धड़े का ये भी मानना है कि वे संत रविदास को गुरु के रूप में मानते हैं इससे उन्हें ऐतराज है। सिख धर्म की स्थापना करते समय गुरु नानक देव जी ने सिख धर्म में जाति व्यवस्था कि कल्पना नहीं की थी, हिन्दू धर्म की कुरितियों से परे ही सिख एक अलग पंथ बना। परधर्मावलंबियों के आशीर्वाद से जातिवाद का दंश ऐसा बोया गया कि संत रविदास जैसों को जन्म लेना पड़ा। सिख धर्म में जातिवाद की टीस झेल रहे नीची जाति के सिखों रामदासिये, सिक्लीकर, बाटरें, रविदासिए सिख,मोगरे वाले सरदार,मजहबी सिख,बेहरे वाले,मोची,अधर्मी(आदि-धर्मी), रामगढ़िए, और न जाने कितनी दलित जातियों के लोगों को सिख धर्म ने भी वही कुछ दिया जो कि हिंदू धर्म में सवर्णों ने दलितों को दिया, सिर्फ यातना। क्यों जरूरत पड़ी की इतने डेरे खुले उसी पंजाब में जिसमें की अलग पंथ की नीव रखी गई थी इस उद्देश्य से, कि कोई ऐसा धर्म हो जो कि सभी लोगों को बराबरी का अधिकार दे, जिसमें वर्ण व्यवस्था का मनुवादी दंश न हो। जिसमें मूर्ति पूजा न हो, जिसमें गुरु वो परमात्मा है जो कि निराकार है, जिसका कोई आकार नहीं है। दस गुरुओं तक गद्दी चली दसेवें गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहां "सब सिख्खन को हुक्म है गुरु मानयों ग्रथ" मतलब अब कोई गुरु नहीं होगा गुरु ग्रथ साहिब ही गुरु होगी। लेकिन गुरुद्वारों में सिख जट्टों का वर्चस्व रहता देख, समाज के सबसे निचले वर्ग के लोगों को ने डेरों का सहारा लिया। कहनें को इन डेरों में सभी को समान माना जाता है। पर कई डेरों में पैसे वाले लोगों का वर्चस्व है और बहुतेरे ऐसे भी हैं जिनके अनुयायिओं में दलित और समाज में निम्न वर्ग के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। डेरा सच खंड भी उन्हीं में से एक है। सवाल अब भी वही है कि क्या डेरा सच खंड के प्रमुख संत निरंजन दास और उनके चेले संत रामानंद ने कोई ऐसा काम किया था जिससे की सिख धर्मावलंबियों को ऐतराज था ? क्या डेरा सच्चा सौदा सिरसा के प्रमुख गुरमीत राम-रहीम की भांति इन संतों के परिधानों में उन्हें गुरु गोबिंद सिंह की झलक दिखाई दे रही थी ? क्यों गोली मारी गई? क्या शिकायत थी? शायद विएना केगुरुद्वारे डेरा सचखंड बल्लां वाल में सिख गुरुद्वारों की तुलना में चढ़ावा अधिक आ रहा था। डेरा सच खंड बल्लां वाला के प्रमुख निरंजन दास आज तक घायल अवस्था में हैं औऱ उनके चेले और डेरे के उप-प्रमुख संत रामानंद की मृत्यु हो चुकी है। सिख के किसी समूह को शायद दलितों औऱ पिछड़ों के डेरों पर हमला करना आसान लगा होगा। या फिर जातिवाद के भयावह चेहरे में पंजाब की 34 प्रतिशत दलितों के आबादी का एक साथ होने की प्रतिक्रिया थी? जिन्हें की सिख समाज ने हमेशा तिरस्कृत किया चाहे वह भी सिख ही क्यों न हो। सवाल के पहलू क्या हैं ये सिख धर्म के पैरोकार जानते हैं और कोई नहीं।

जाएं तो जाएं कहां !

- दो राहे पर खड़ा राजस्थान का मुस्लिम मतदाता

- विजय प्रताप

राजस्थान में लोकसभा चुनावों टिकट बंटवारे से लेकर प्रचार तक में यहां के दोनों ही राष्ट्ीय दलों को जातिगत नेताओं के आगे नाक रगड़नी पड़ी। हांलाकि दलाल प्रवृत्ति के यह नेता अंततः राजनैतिक दलों से सौदेबाजी कर जनता के भरोसे व विश्वास की कीमत वसूल चुके हैं। पिछले वर्ष भाजपा के ‘ाासनकाल में हुए गुर्जर आंदोलन में 70 से अधिक गुर्जरों को पुलिस ने गोलियों से भून दिया। उस आंदोलन से चर्चा में आए कर्नल किरोडी लाल बैंसला आज उसी भाजपा की गोद में जा बैठे हैं। मीणा जाति के नेता किरोड़ी लाल मीणा भी अंत समय तक कांग्रेस से सौदे बाजी करते रहे। अन्ततः कांग्रेस ने उनके साथ के ज्यादातर विधायकों को अपनी तरफ मिला मीणा को ही अकेला छोड़ दिया।
इन सब के बीच राज्य का एक बड़ा वोट बैंक अल्पसंख्यक मुसलमान चुनाव के अंतिम क्षणों तक खामोश है। न तो उसकी तरफ से कोई ऐसा नेता निकल कर आया जो उसके लिए राजनैतिक दलों से मोलभाव करे और न ही इस समुदाय के बीच से कोई ऐसी आवाज उठी जो दोनों मुख्य दलों की नीतियों का विरोध करे। इस चुनाव में प्रदेश में कांग्रेस और बसपा को छोड़कर किसी भी राष्ट्ीय दल ने मुसलमान को टिकट नहीं दिया। प्रदेश के मुस्लिम हमेशा कांग्रेस के साथ रहे हंै, इसलिए कांग्रेस की भी मजबूरी है कि उसे खुश करने के नाम पर ही सही एक टिकट मुस्लिम उम्मीदवार को दे। सो उसने इस बार चुरू संसदीय सीट से रफीक मण्डेलिया को टिकट दिया है। बसपा ने नागौर से एक पूर्व कांग्रेसी मंत्री अब्दुल अजीज को टिकट दिया है। इसके अलावा दौसा आरक्षित सीट पर कश्मीरी गुर्जर मुसलमान नेता कमर रब्बानी चेची ने पर्चा भर कर वहां मुकाबला त्रिकोणात्मक कर दिया है। इन तीन सीटों के अलावा प्रदेश में कहीं भी कोई मुस्लिम उम्मीदवार मुकाबले में नहीं दिखता। साढ़े पांच करोड़ की आबादी वाले इस प्रदेश में मुसलमानों की आबादी करीब साढे़ आठ फीसदी है। बावजूद इसके चुनावांे में उसे हाशिए पर ढकेला जा चुका है। इसके पीछे कुछ अहम कारण हैं, जिनकी पड़ताल की जानी जरूरी है।
ऐसा नहीं की प्रदेश में मुसलमानों के पास कोई मुद्दा या सवाल नहीं। हां उनके मुद्दे पर सही ढं़ग से आवाज उठाने वाले नेताओं या संगठनों की कमी जरूर है। प्रदेश की द्विधु्रवीय राजनीति में यह विकल्पहीनता ही इस समुदाय को मजबूर करती है कि वो कांग्रेस या भाजपा में से किसी एक को चुन ले। ऐसे में मुसलमानों के सामने कांग्रेस के साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। इस लोकसभा चुनाव से भी ठीक पहले राज्य के 22 मुस्लिम संगठनों ने राजस्थान मुस्लिम फोरम के बैनर तले, संघ व उसकी सहोदर ‘ाक्तिओं को सत्ता से दूर रखने के नाम पर कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की है। हांलाकि कांग्रेस को समर्थन देने की मजबूरी को इस फोरम के नेता भी छुपा नहीं सके। फोरम के संयोजक कारी मोइनुद्दीन इसे मुश्किल किंतु राष्ट्हित का निर्णय बताते हैं। उनका कहना है कि प्रदेश में सांप्रदायिक तत्वों को सत्ता से दूर रखने का और कोई विकल्प नहीं है। कांग्रेस को बिना ‘ार्त समर्थन देने पर अपनी सफाई में कारी कहते हैं कि कांग्रेस को चुनने के पीछे कोई विशेष लगाव या कांग्रेस अच्छी पार्टी है जैसी कोई बात नहीं। हमारी कांग्रेस से भी लाखों शिकायते हैं। लेकिन उसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता इसलिए कांग्रेस को समर्थन देना एक राजनीतिक निर्णय है। फोरम में ‘ाामिल जामत-ए-इस्लामी हिंद के राज्य अध्यक्ष मोहम्मद सलीम इंजीनियर भी इसे ‘दर्दनाक खुशी’ कहते हैं। यह दर्द उभरे भी क्यों न। पिछले कुछ सालों में राज्य में भाजपा व संघ की सरकार ने उनके दिलों के घावों को और कुरेदा है। सलीम इंजीनियर बताते हैं कि ‘‘भाजपा ‘ाासनकाल में राज्य में 100 से अधिक छोटे-बड़े दंगे हुए। इस दौरान प्रदेश में न केवल मुसलमानों को बल्कि अल्पसंख्यक इसाई समुदाय को भी भय व असुरक्षा के साये में जीना पड़ा है। धर्म स्वातन्त्र बिल के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय की आजादी पर लगाम कसने की कोशिश की गई।’’ दरअसल राजस्थान में भी गुजरात की तर्ज पर भाजपा के माध्यम से राष्ट्ीय स्वयं सेवक संघ ने हर तरह से अपने एजेंडे को लागू करने की कोशिश की। संघ व उससे जुड़े संगठनों ने छोटी-छोटी घटनाओं को सांप्रदायिक रूप देकर अल्पसंख्यकों पर हमला किया। फरवरी 2005 में कोटा रेलवे स्टेशन पर आंध्र प्रदेश से किसी धार्मिक सभा में भाग लेकर लौट रहे 250 ईसाइयों पर बजरंग दल, भाजपा व संघ कार्यकत्र्ताओं ने हमला बोल दिया। इस घटना के बाद पीड़ितों की शिकायत दर्ज करने की बजाए पुलिस ने हमलावरों की तरफ से ही जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश का मामला दर्ज किया। उस समय राज्य के पुलिस महानिदेशक ए एस गिल के संघ से रिश्ते जगजाहिर थे। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले नवम्बर 2008 में जयपुर में श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने रही सही कसर पूरी कर दी। इसके बाद बड़े पैमाने पर मुसलमानों की गिरफ्तारियां हुई। जयपुर, कोटा, जोधपुर, सीकर, बूंदी व बारां जिलों से पचासों मुसलमान युवकों को एसटीएफ ने पूछताछ के नाम पर उठाया। उनके रिश्ते बांग्लादेशी संगठन हरकत-उल-जेहाद-ए-इस्लामी व इंडियन मुजाहिद्दीन के साथ बताए गए। पूछताछ के नाम पर उन्हें हफ्तों मानसिक प्रताड़ना दी गई। इसमें से करीब 27 युवक अभी भी जेल की सलाखों के पीछे अपना अपराध सिद्ध होने का इंतजार कर रहे हैं। जयपुर बम विस्फोट से पहले 2007 में अजमेर के ख्वाजा मुउनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के सामने हुए बम विस्फोट के मामले में भी पुलिस ने अपनी मानसिकता के अनुरूप कई मुस्लिम युवकों को उठाया। दो सालों तक संघ के साये में इसकी जांच चली। लेकिन कुछ दिन पहले ही यह खुलासा हुआ कि अजमेर विस्फोट में अभिनव भारत जैसे हिंदू आतंकवादी संगठन का हाथ था। राज्य की पुलिस ने अब इस दिशा में जांच ‘ाुरू कर दी है। संघ गुजरात के बाद राजस्थान को दूसरी प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किया। पिछले पांच सालों में राज्य में संघ ने अपना जबर्दस्त जाल फैलाया और वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से आदिवासी जातियों के बीच भी मुसलमानों व इसाई अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा का बीज बोया। मुसलमानों को यह सारी कसक रह-रह कर टीस देती है। इस दर्द को मुस्लिम मतदाताओं की बातों में भी महसूस किया जा सकता है। कोटा में रहने वाले राशीद वोट देने के सवाल पर कहते हैं कि ‘‘वोट देकर ही क्या होगा। कौन सी पार्टी मुसलमानों का भला चाहती है। चुनाव के समय हमे सभी अपना कहते हैं, लेकिन चुनाव बाद फिर से हमारे बेटों को आंतकवादी व पाकिस्तानी बताया जाने लगता है।’’ राशिद अपनी बातों में जयपुर बम धमाकों के बाद कोटा से उठाए गए लड़कों की तरफ इशारा कर रहे हैं। इन धमाकों के बाद कोटा से फर्जी गिरफ्तारियों पर यहां के मुस्लिम समुदाय प्रतिक्रियास्वरूप कई महीनों तक खुद को अलगाव में रखा। मुस्लिम धर्मगुरुओं ने मीडिया विशेषकर यहां के दो प्रमुख समाचार पत्रों का कई महीनों तक बहिष्कार किया। राज्य के अन्य जिलों में भी मुस्लमानों ने कुछ इस तरह अपना विरोध दर्ज कराया। जयपुर में बांग्लादेशी मजदूरों की गिरफ्तारियों व मुसलमानों को प्रताड़ित किए जाने पर जमात ए इस्लामी हिंद व अन्य संगठनों ने एक यात्रा निकालकर इस बंटवारे की राजनीति का विरोध किया। इस समय कांग्रेस का एक भी नेता खुलकर मुसलमानों के समर्थन में नहीं आया। अब जब कि चुनाव हो रहे हैं कांग्रेसी नेता इस बात को बेहतर तरीके से जानते हैं कि मुुसलमान उन्हें छोड़कर कहीं जा नहीं सकते, इसलिए उन्हें भी मुस्लिम हितों की कोई परवाह नहीं।
राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो राजस्थान का मुसलमान समुदाय उत्तर प्रदेश या बिहार की तरह खुशनसीब नहीं जो कांग्रेस या भाजपा से शिकायत होने पर किसी अन्य दल के साथ जाकर राजनीति में अपनी भागीदारी दर्ज करा सके या कुछ हासिल कर सके। राजस्थान के एक माक्र्सवादी नेता शिवराम कहते हैं कि यहां की परिस्थितियां इन राज्यों से भिन्न हैं। उत्तर प्रदेश या बिहार में मुस्लिम समुदाय के पास विकल्प है तो इसके मूल में वहां मंडल कमंडल आंदोलन का व्यापक प्रभाव है। इन दोनों राज्यों में बाबरी विध्वंस और उसके बाद पिछड़ी जातियों के आरक्षण आंदोलन ने न केवल मुसलमानों को बल्कि हिंदूओं के भी पिछड़े व दलित तबके को भाजपा व कांग्रेस की सांप्रदायिक व बंटाने वाली राजनीति से दूर ले गई। एक तरफ यह दूरी ऐसी जातियों को दूसरे विकल्पों की तलाश करने पर मजबूर किया तो दूसरी तरफ उनके और मुस्लिम समुदाय के बीच की दूरियों को भी कम कर दिया। इससे पहले तक भाजपाई व कांग्रेसी राजनीति का आधार हुआ मुसलमानों व हिंदूओं की बीच की यह दूरी ही सत्ता पाने की कुंजी हुआ करती थी। इसके बाद से इन राज्यों के मुस्लिम समुदाय के साथ भले ही छोटे दलों ने धोखा किया हो, लेकिन वह अभी भी कांग्रेस या भाजपा के साथ जाने पर मजबूर नहीं है।
मीडिया बार-बार कुछ धार्मिक मुस्लिम नेताओं के माध्यम से दिखाने की कोशिश करती है कि मुसलमानों के लिए बाबरी मस्जिद निर्माण या धार्मिक संरक्षण जैसे ही मुद्दे अहम हैं। लेकिन राजस्थान में आम मुसलमानों से बात करिए तो उनका यह कत्तई मुद्दा नहीं। उनके भी मुद्दे वही हैं जो एक हिंदू मतदाता का है न कि किसी कठमुल्ला मुस्लिम धर्मगुरू का। एक सेल्समैन का काम कर रहे 25 वर्षीय युवा आफताब कहते हैं कि उन्हें केवल उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार चाहिए। उनके लिए मस्जिद-मंदिर कोई मुद्दा नहीं है। बीबीए कर चुके आफताब को सेल्समैन का काम करना पड़ रहा है। वह चाहते हैं कि राज्य से बाहर दिल्ली या मुबंई जाकर किसी कंपनी में काम करे। लेकिन आतंकवादी घटनाओं के बाद धड़ाधड़ मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी से उनके माता-पिता आतंकित हैं। उनकी मां ‘ाबाना बेगम कहती हैं ‘‘ हम कम पैसों में भी गुजारा कर लेंगे। लेकिन अल्ला उसे सलामत रखे।’’ एक स्वयं सेवी संगठन में काम कर रहे अनवार अहमद कहते हैं कि ‘‘ सरकार किसी की भी बन जाए सभी हमे पिछड़ा ही रखना चाहते हैं। यही उनकी राजनीति का आधार है।’’ सच्चर कमेटी रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहते हैं कि उसमें हमारी सारी सच्चाई साफ हो गई। लोग कहते हैं हम मदरसों में इस्लामिक शिक्षा ले रहे हैं कितने मुसलमानों के बच्चे मदरसे जाते हैं? सरकारें तो हमें अनपढ़ ही रखना चाहती हैं ताकि वो आगे न बढ़ सके और उनके बारे में वह भ्रम फैलाती रहें। हांलाकि अच्छी सरकार के सवाल का उनके पास भी कोई विकल्प नहीं है। वह चाहते हैं सरकार चाहे जिसकी बने पिछड़े-गरीब तबकों को लाभ मिले क्योंकि गरीबी में हिंदू या मुस्लिम को कोई बंधन नहीं। कुल मिलाकर राज्य का मुस्लिम समुदाय दो राहे पर खड़ा है। एक रास्ता भाजपा व संघ के फासीवादी यातनागृह की ओर जा रहा है तो दूसरा रास्ता छद्म धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़े कांग्रेसी कैंप तक। यहां के मुस्लिम, उजले भविष्य का सपना संजोए वह अंधेरे रास्ते की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।

भगत सिंह और यंगिस्तान

शालिनी वाजपेयी
23 मार्च 1931 को एक 23 वर्ष के युवा क्रांतिकारी ने बिना किसी ईश्वरीय सत्ता का ध्यान किए हंसते हुए फांसी के फंदे को चूम लिया था। यह क्रांतिकारी जिस इंकलाब की बात करता था उसकी तलवार किसी बम और पिस्तौल से नहीं बल्कि विचारों की सान पर तेज होती है। वही विचार जो पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के नाश की बात करते हैं। यह युवा क्रांतिकारी जो अपने जीवन भर एक ऐसे भारत के निर्माण का सपना देखता रहा जिसमें कोई मनुष्य किसी मनुष्य का शोषण न करे, सभी को सामान अधिकार प्राप्त हों, लेकिन क्या मिला इस शहादत से सब कुछ वही हो रहा है जिसके खात्में की बात भगत सिंह और उनके साथी किया करते थे। उन्होंने जिस साम्राज्यवाद के नाश की बात की थी वही आज हमारे युवाओं से उनकी रोजी-रोटी छीन रहा है, वही साम्राज्वाद किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रहा है और मजदूरों से उनके अधिकार छीन रहा है लेकिन हम उसी साम्राज्यवाद की चौखट पर अपना मत्था टेक रहे हैं। इसी मत्था टेकने के फल में हमें परमाणु करार, आर्थिक मंदी और भारत-अमेरिका सह सैनिक युद्धा यास मिल रहा है। जो हमारे खात्मे के लिए ही विकसित किया जा रहा है, खात्मा उस आम जनता और संघर्षशील युवाओं का।
इस १५ वें लोकसभा चुनाव में सत्तर फीसदी के लगभग युवा अपने देश के भविष्य को चुनने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। युवा मतदाताओं की अधिकता के कारण सभी चुनावी दल अपनी पार्टी से युवा नेताओं को हिस्सेदार बना रहे हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि ये युवा नेता मसलन राहुल गांधी, वरुण गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलेट जो अपने मुंह में चांदी का च मच लेकर पैदा हुए हैं और अपनी विरासती जमीन पर अपने पुरखों की लहलहाती फसल को काटने की तैयारी में लगे हुए हैं, ये इन संघर्षशील युवाओं के दर्द को समझ सकेंगे? ये समझ सकेंगे उस आईआईटी छात्र के दर्द को जो इतनी मेहनत के बाद भी बेरोजगारी की भूलभुलैया में खोया हुआ है। ये समझ सकेंगे उन छात्रों को जो बेरोजगारी की पीड़ा न सहन करने के कारण अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। ये उस छात्र को समझ सकेंगे जो विवि और कॉलेजों की महंगी शिक्षा की वजह से ही अशिक्षित रह जाता है। चंद दलितों के घर खाना ख लेने से, उनके घर पर रात बिता लेने से इन गरीब दलितों की समस्याएं खत्म नहीं हो जाएंगी। इनकी समस्याएं अभी भी पहाड़ की तरह इनके सामने खड़ी हैं तब जरूरत है ऐसी नीतियों की, ऐसे निर्णयों की जो इनकी जिंदगी खुशहाल बना सकें और रोके इन दलितों होने वाले शोषण को जो अभी भी सामंतों के द्वारा इन पर किया जा रहा है। रोके सामाजिक शोषण को जिसके बोझ से ये अभी भी उबर नहीं पा रहे हैं।
जब इतनी सारी समस्याएं खड़ी हैं, तो सवाल उठता है कि है किसी युवा नेता में इतनी दम जो इन सारी समस्याओं को हल कर सके। जब इतनी मुश्किलों की बात आती है तो बस एक ही युवा नेता का नाम याद है वह है भगत सिंह की विरासत को स भालने वाला और इनके विचारों पर चलने वाला कोई नेता। ऐसे समय में भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने क्9 अक्टूबर क्9ख्9 को लाहौर के छात्रों के लिए जो पत्र लिखा था उसके शŽद अभी भी गूंज रहे हैं और इतने ही प्रासंगिक हैं जितने कल थे, `इस समय पर हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएं लेकिन राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कंधों पर बहुत बड़ी जि मेदारी आ पड़ेगी। यह सच है कि स्वतंत्रता के इस युद्ध में अगि्रम मोर्चे पर विद्यार्थियों ने मौत से टक्कर ली है। क्या परीक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचाएंगे? नौजवानों को क्रांति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है, करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है जिससे आजादी आएगी और तब तक मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण अस भव हो जाएगा।ं
भगत सिंह की ऐसी क्रांति की इच्छा अभी पूरी नहीं हुई है। नौजवानों ने देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और बलिदान दिए हैं, लेकिन इन कठिन क्षणों में नौजवानों के ऊपर बड़ी जि मेदारी है। इन नौजवानों को भगत सिंह के सपनों के भारत के लिए अभी लड़ना है। जरूरत है इसी तरह की क्रांति की, इसी तरह के बदलाव की जिसकी बात भगत सिंह और उनके साथी किया करते थे। अपनी इसी जि मेदारी के साथ युवाओं को भगत सिंह की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए भगत सिंह जैसे नेता को चुनना होगा। वर्तमान नेताओं से मांग करनी होगी ऐसे ही व्यçक्त की जो इतने बदलाव ला सके, जो इतने सारे सवालों को हल कर सके। जब इतनी सं या में युवा मतदान करने जा रहे हैं तो उन्हें अपनी इस भूमिका को और मजबूती से साबित करना है, यही मौका है जब बदलाव की ज्वला जलाई जा सकती है। इन युवा मतदाताओं को बाहर आना होगा अपने मनोरंजन की दुनिया से, आहर आना होगा एसी और सोफों से ताकि मजदूर किसान के दर्द को समझ सकें और उन्हें उनकी जीत का आश्वासन दे सकें। चुनावी खेल में शामिल होकर अपनी ताकत इन झूठे और मक्कार नेताओं को दिखानी होगी। युवा वर्ग ही ऐसा होता जिसमें कुछ कर दिखाने की क्षमता होती है, अपनी इसी क्षमता को सिद्ध करना है।
मीडिया भी युवा नाम को बहुत प्रचारित करता है मगर अपने स्वार्थरूप में न कि वास्तविक छवि में? उसके लिए यंगिस्तान वही है जो `पेप्सीं से अपनी प्यास बुझाता है। उसके युवा धोनी एंड ग्रुप पेप्सी पीकर कहते हैं कि ये है यंगिस्तान मेेरी जान, लेकिन यंगिस्तान ये नहीं है। यंगिस्तान वह है जो लोक सभा के चुनावों में अपनी ताकत दिखाएगा और अपने देश का बेहतर भविष्य चुनेगा। इस समय मीडिया को भी इस छद्म यंगिस्तान को भूलकर वास्तविक यंगिस्तान की ओर अपना रुख करना होगा। मीडिया को भगत सिंह के विचारों को प्रचारित करना होगा। फिल्में भी भगत सिंह को हमारे युवाओं से जोड़कर दिखाने का प्रयास करें जिससे युवा इस `पेप्सीं जैसे घटिया पेय से प्यास बुझाने वाले यंगिस्तान की असलियत जान सकें और इसे ठोकर मार कर बाहर निकाल सकें, क्योंकि यही तो है जो हमारे युवाओं को छल रहा है।
भगत सिंह ने कहा था- `क्रांति से हमारा प्रयोजन अंततज् एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसको इस प्रकार के घातक खतरों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुता को मान्यता दी जाए और एक विश्व संघ मानव जाति को पूंजीवाद के बंधन से तथा युद्ध से बबाüदी और मुसीबत से बचा सके।ं
हमें इसी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद से बचना है जो हमारे किसानों, युवाओं को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रहा है। हमें इसी सम्राज्यवाद से बचना है जो गरीबों के हाथ से रोटी छीन रहा है और हमारे बच्चों को कुपोषण की गुफा में ढकेल रहा है। तो आह्वान है ऐसी ही युवा क्रांति का जो भगत सिंह की विरासत को आगे बढ़ा सके, और बो सके ऐसी बंदूकें जो पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का नाश कर सकें और सर्वहारा की सत्ता लाकर समाजवाद को स्थापित कर सकें।
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बदलेगी ब्लाग की परिपाटी

शाहनवाज आलम

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में केरल के एक ब्लागर की रिट खारिज कर दी। याचिकाकर्ता ने अपने उपर एक राजनैतिक पार्टी द्वारा लगाए गए अपराधिक धमकी और किसी समुदाय के विश्वास को ठेस पहुचाने जैसे गंभीर आरोपों को खारिज करने की अपील की थी। उसका तर्क था की ब्लाग पर लिखे गए उसके शब्द सार्वजनिक नहीं थे बल्कि ब्लागर समुदाय के लिए लिखे गए थे। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद ब्लागर्स की दुनिया के एक हिस्से में जहां हड़कम्प मच गया है वहीं दूसरी ओर इसकी दिशा और दशा पर भी गंभीर बहस शुरु हो गई है।

दरअसल एक सशक्त वैकल्पिक मीडिया के बतौर उभर सकने वाले जनसंचार के इस नए अवतार पर हमारे यहां शुरु से ही अगंभीर और कुंठित लोगों ने कब्जा जमा लिया था। जिनके लिए ब्लाग सिर्फ अपनी निजी कुंठाएं परोसने और तू तू-मैं मैं करने का मंच बन गया। नहीं तो जिस ब्लागिंग ने अमरीकी साम्राज्यवादी मंसूबों और उसके अफगानिस्तान और इराक के मानव सभ्यता को नष्ट करने की नीति के खिलाफ जनता के बीच सबसे ज्यादा जनमत तैयार किया। यहां तक कि उसे सड़क पर उतरने तक को मजबूर कर दिया। उसमें अपने देश में भी जनता के सरोकारों से जुड़ने की असीम संभावना थी। हालांकि कुछ ब्लागर आम जनता से जुड़े सवालों को अपने यहां जरुर तरजीह देते हैं लेकिन उनके नितान्त व्यक्तिगत और गैरराजनैतिक दृष्टिकोण के चलते वो वैसा राजनैतिक-सामाजिक स्वरुप अख्तियार नहीं कर पा रहे हैं जैसा कि उनके अमरीकी और यूरोप के ब्लागर साथी कर रहे हैं। हालांकि इस समस्या को हम सिर्फ ब्लागिंग की समस्या मान कर इसे नहीं समझ सकते। हमें इसे व्यापक पत्रकारिता के संकटों से ही इसे जोड़ कर देखना होगा। क्योंकि यह उसी की उपज है। ऐसा इस लिए कि आज जितने भी ब्लागर्स हैं उनमें ज्यादातर पेशेवर पत्रकार हैं। जो इस दुहाई के साथ ब्लागिंग शुरु करते हैं कि वे अपने संसथान में मनमुताबिक काम नहीं कर पाते। लेकिन जब वे ब्लागिंग करने बैठते हैं तब भी मुख्यधारा की मीडिया की मनोदशा से बाहर नहीं आ पाते और उनका पूरा लेखन सतही और व्यक्ति केन्द्रित कुण्ठा का नमूना बन जाता है। इसी वजह से आज तक हमारे यहां कोई भी ब्लाग किसी सार्थक बहस की वजह से कभी चर्चा में नहीं आया। उपर से टीआरपी मानसिकता भी उन्हें ब्लागिंग को एक छछले और फूहड़ टैबलाइट के रुप में ही स्थापित करने को प्रेरित करती है। जिसके चलते गंभीर और राजनैतिक महत्व के मुद्दों पर बहस चलाने वाले ब्लागर्स ब्लाग की मुख्यधारा में नहीं आ पाते। वहीं ऐसे लोगों की एक बड़ी जमात अपने को इस फूहड़पने के चलते ब्लाग से दूर रहने में ही अपनी इज्जत समझता है।

इस रोशनी में देखा जाय तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूरगामी महत्व का है जिसका भविष्य की पत्रकारिता पर सकारात्मक असर पड़ना तय है। क्यों कि आने वाला दौर वेब मीडिया का ही है जिसकी साख का आधार उसके मुख्यधारा की मीडिया के सतहेपन के समानांतर खड़ा होना ही होगा।

इस नीलामी के बड़े मायने हैं

शाहनवाज़ आलम

पिछले दिनों न्यूयार्क में जिस तरह मशहूर शराब व्यापारी विजय माल्या ने जीवनपर्यन्त शराबबन्दी की मुहिम चलाने वाले महात्मा गांधी के सामानों के सबसे उंची बोली लगा कर खरीदा और उनकी स्वदेश वापसी करायी क्या वो एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना मात्र थी या वो एक खास तरह की सचेत कवायद जो इधर भूमंडलीकरण के दौर के साथ शुरु हुई है उसी का एक और सफल प्रयोग था। जिसका केंद्रीय विमर्श राज्य का सिर्फ एक फेसिलिटेटर होना और बाह्य विमर्श जनता द्वारा चुनी गई सरकार बनाम काॅरपोरेट है। यह पूरा प्रकरण इस कवायद का हिस्सा इसलिए भी लगता है कि हमारी सरकार के पास नौ करोड़ रूपयों का टोटा तो नहीं ही हो सकता था जिसके चलते वो नीलामी में खुद नहीं पहुंच पाई।

दरअसल पिछले दो दशकों से सुनियोजित और चरणबद्ध तरीके से राज्य को अक्षम साबित करने की जो मुहिम चल रही है उसी के तहत ऐसी घटनाओं को अन्जाम दिया जाता है। जिसमें किसी घटना विशेष के समय ऐसा माहौल बना दिया जाता है जिससे जनता को लगने लगे कि अगर विजय माल्या जैसे काॅरपोरेट नहीं रहते तो सरकार तो हमारी नाक ही कटवा देती। ऐसा करके जहां एक ओर काॅरपोरेट निगमों और उनके मालिकों को राष्ट्र उद्धारक के बतौर प्रस्तुत होने का मौका दिया जाता है वहीं सरकार की निकम्मी और अपने प्रतिस्पर्धी यानि निजी क्षेत्र के बड़े पूंजीपतियों के मुकाबले कमजोर और राष्ट्रीय अस्मिता के प्रति संवेदनहीन दिखने वाली छवि भी निर्मित की जाती है। इस सिलसिले में हम मीडिया खासकर इलेक्ट्रनिक चैनलों की भाषा, फुटेज और एंकर का सरकार के प्रति हिकारती उपमाओं भरा सम्बोधन और माल्या के प्रति देश को एक महान विपत्ति से निकाल लाने वाले महापुरूष वाले शाष्टांगी भावों को जैसे माल्या ने बचाई देश की लाज या माल्या नहीं होते तो क्या होता को याद कर सकते हैं।

एक ही साथ सरकार के अक्षम होने और काॅरपोरेट मालिकों के राष्ट्र उद्धारक होने की जो छवि निर्मित होती है उसमें एक ऐसा सामाजिक-राजनीतिक माहौल बनता है जिसमें नवउदारवादी एजेंडा एक झटके में ही काफी आगे बढ़ जाता है। मसलन अगर इसी प्रकरण में देखे तो जो विजय माल्या राजनीति और क्रिकेट में निवेश के बावजूद अपनी सुरा और सुंदरी प्रेम के चलते समाज के एक बड़े हिस्से में स्वीकार्य नहीं थे आज इस नीलामी के बाद अचानक राष्ट्रभक्ति के प्रतीक बन गए हैं। नवउदारवाद ऐसे ही राष्ट्रीय प्रतीक गढ़ना चाहता है, उसकी राजनीति इन्हीं प्रतीकों के सहारे आगे बढ़ती है।

लेकिन यहां गौर करने वाली और नवउदारवाद की कार्यनीति को समझने वाली बात यह है कि इस पूरे खेल को सरकार खुद रचती और अपने ही खिलाफ अपने कमजोर और अक्षम होने की छवि निर्मित करती है। ऐसा उसे रणनीतिक तौर पर इसलिए करना होता है ताकि वो अपने को काॅरपोरेट से तुलनात्मक रूप से कमजोर दिखाए और जनमत के एक बड़े हिस्से को जो अभी भी सरकार की तरफ हर मुद्दे पर उम्मीद भरी नजर से देखता है में अपने खिलाफ बहस खड़ी करके दूसरे पाले में सरकने का बाध्य कर दे।

इस पूरे प्रकरण में सरकार की इस रणनीति को साफ-साफ देखा जा सकता है। सरकार को बहुत पहले से मालूम था कि गांधी जी के सामानों की नीलामी होने वाली है, जिसका प्रचार पूरे जोर-शोर से इंटरनेट पर कई दिनों से चल रहा था। बावजूद इसके सरकार चुप्पी साधी रही और विजय माल्या जिनको आजकल देशभक्त बनने का दौरा चढ़ा हुआ है जिसके तहत उन्होंने कुछ सालों पहले ही इंग्लैंड की किसी संस्था से टीपू सुल्तान की तलवार भी खरीदी है को पूरा मौका दे दिया। नहीं तो क्या जो सरकार जनता की घोर नाराजगी के बावजूद अमेरिका से नैतिक-अनैतिक सम्बंध बनाने पर तुली हो उसके लिए इस नीलामी को अपने राष्ट्रहित में रूकवाना या अपने उच्चायोग के माध्यम से उसमें शामिल होना कोई मुश्किल काम था। दरअसल सरकार शुरु से ही इस खेल में माल्या को वाकओवर देने की रणनीति बना चुकी थी। जिसकी तस्दीक निलामी करने वाली एंटीएक्वेरियम आॅक्शन कम्पनी द्वारा औपचारिक तौर पर जारी बयान है कि भारत सरकार ने इन वस्तुओं की नीलामी रोकने का कोई अनुरोध नहीं किया था जिस आशय का ईमेल पत्र तुषार गांधी के पास सुरक्षित है। बावजूद इसके सरकार ने संस्कृति मंत्री से यह कहलवाकर अपनी और किरकिरी करवाई कि विजय माल्या उसी के कहने पर नीलामी में शामिल हुए हैं। जिससे विजय माल्या ने साफ इनकार करते हुए इस नूरा कुश्ती में सरकार को चित कर दिया। इस पूरे खेल में सबसे गौर करने वाली बात यह रही कि पक्ष-विपक्ष किसी भी राजनीतिक दल की तरफ से चुनावी मौसम होने के बावजूद सरकार के रवैये पर उंगली नहीं उठाई गई। ये करिशमा इसलिए संभव हुआ कि सभी पार्टियां इस नए तरह के सामाजिक-राजनीतिक चेतना को तैयार करने और उसके लिए राष्ट्रभक्ति का प्रतीक गढ़ने पर एकमत हैं। जिसके तहत उन सब ने मिलजुल कर विजय माल्या समेत उन जैसे कई प्रतीकों को बहुत पहले ही संविधान में संशोधन कर पिछले दरवाजे से संसद में बुला लिया है। इस पूरी प्रक्रिया से जो चेतना निर्मित होती है वो घोर अराजनीति और हर मसले के हल के लिए काॅरपोरेट की तरफ निहारने वाली होती है। जिसमें पूरे राजनीतिक व्यवस्था को नकारने की प्रवृत्ति कभी भी वीभत्स रूप अख्तियार कर सकती है। जैसा कि हम मुम्बई के ताज होटल पर हुए आतंकी हमले की प्रतिक्रिया में देख चुके हैं। जब मध्यवर्ग के एक प्रभावशाली तबके ने अपनी असुरक्षाबोध का ठीकरा सरकार पर फोड़ने के बजाय पूरे राजनैतिक ढांचे पर ही प्रश्नचिन्ह् लगाते हुए चुनाव में वोट न डालने की धमकी दे डाली।

विजय माल्या के राष्ट्र उद्धारक बनने की परिघटना इस प्रवृत्ति को और मजबूत करेगी। जिसकी परिणति जैसा कि कई देशों में हुआ है, एक ऐसे राज्य के स्वरूप में होगी जहां यह समझ पाना मुश्किल होगा कि उसे कोई सरकार चली रही है या काॅरपोरेट। दरअसल सरकार और काॅरपोरेट यही चाहते भी हैं।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बहाने बाटने की राजनीति

भले ही भाजपा नेता वरुण गांधी की अल्पसंख्यक विरोधी भाषण पर चुनाव आयोग ने थोड़ी बहुत खानापूर्ति कर ली हो लेकिन सांसद योगी आदित्यनाथ के घोर सांप्रदायिक विद्वेश फैलाने वाले भाषणों की सीडी जेयूसीएस के मानिटरिंग सेल द्वारा 20 मार्च 09 को निर्वाचन आयोग को भेजे जाने के बाद और चैनलों पर उसके दिखाए जाने के वावजूद भी निर्वाचन आयोग खानापूर्ती तो दूर इस पर जबान खोलने को तैयार नहीं है। जिसके चलते पूर्वांचल के दर्जनो जिलों में योगी का सांप्रदायिक फासिस्ट प्रयोग जिसका वैचारिक बिन्दु मुस्लिम नरसंहार और भारत को घोषित हिन्दू राष्ट् बनाना है बदस्तूर जारी है।
पूर्वांचल में रहना है तो योगी योगी कहना है, जो योगी जी नहीं कहेगा वो पूर्वांचल में नहीं रहेगा, यूपी अब गुजरात बनेगा-पूर्वांचल शुरुआत करेगा, जब कटुए काटे जाएंगे तब राम-राम चिल्लाएंगे, हर-हर महादेव गोधरा बना देव, देखो-देखो कौन आया हिंदू राष्ट् का शेर आया जैसे नारों के साथ जो धमकी अधिक लगते हैं का प्रयोग धड़ल्ले से चल रहा है जिसे सरकारी मशीनरी यहां तक कि चुनाव आयोग भी नजरअंदाज करता है। पिछले दिनों आजमगढ़ उपचुनाव में बसपा से भाजपा में आए बाहुबली रमाकांत यादव के प्रचार में योगी ने जिस लहजे में जहर उगला वो कहीं से भी किसी सांसद तो छोड़िए जिम्मेदार नागरिक की भी भाषा नहीं हो सकती थी। जिस अखबारों ने भी टिप्पड़ी की लेकिन चुनाव आयोग के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। जेयूसीएस के शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने इस पर बयान देकर मांग की थी कि चुनाव आयोग रमाकांत यादव की उम्मीदवारी निरस्त करे लेकिन आयोग के रवैये के चलते ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिसकी परिणति आगे चलकर अगस्त 2008 में योगी के लोगों के द्वारा प्रायोजित दंगे में हुयी। जेयूसीएस के इन नेताओं द्वारा पिछले तीन सालों से योगी की गतिविधियों की वीडियो रिकार्डिंग जिसमें उनके चुनावी भाषण भी हैं में योगी का सांप्रदायिक और फासिस्ट चेहरा साफ दिखता है। मसलन, आजमगढ़ उपचुनाव के प्रचार अभियान के अंतिम दिन 10 अप्रैल 08 को नगर पालिका चैराहा आजमगढ़ पर हुयी सभा में योगी ने कहा कि अभी हाल ही में हाईकोर्ट ने एक फैसले में चिंता जाहिर की है कि यूपी में सर्वाधिक हिन्दू लड़कियां मुसलमानों के साथ जा रही हैं। इस कल्पित हाईकोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए योगी आगे कहते हैं कि हमने गोरखपुर में एक नयी परंपरा शुरु की है जहां मुस्लिम लड़कियों को हिंदू रख रहे हैं। इस तरह हम नस्ल शुद्धि कर रहे हैं जिससे हम एक नयी जाति निर्माण करेंगे। योगी आगे कहते हैं यह परंपरा आजमगढ़ में भी शुरु होगी अगर कोई एक हिंदू लड़की मुस्लिम के यहां जाती है तो हम उसके बदले सौ मुस्लिम लड़कियों को ले आएंगे। योगी यहां उपस्थित जनता को उकसा कर उनसे अपनी बात पर हामी भी भरवाते हुए कहतें हैं कि अगर वे एक हिंदू को मारेंगें,तो इसके जवाब में जनता उनके साथ दोहराती है कि वो सौ को मारेंगे। इसी भाषण में योगी बाहुबली प्रत्याशी रमाकांत यादव को हनुमान बताते हुए कहते हैं कि देश सिर्फ माला जपने से नहीं चलता इसके लिए भाला चलाने वालों की भी जरुरत है। और भाला वही चलाएगा जिसकी भुजाओं में दम होगा, शिखंडी और नपुसंक लोगों के बूते ये लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। इस बात के बाद मुसलमानों को केंद्रित करते हुए योगी कहते हैं कि इन अरब के बकरों को काटने के लिए तैयार हो जाइए। जो काम अब तक छुप कर होता था वो अब खुलेआम होगा। इसी सभा में योगी कहते हैं कि आजमगढ़ का नाम किसी मुस्लिम के नाम पर होना शर्मनाक है, इसका नाम हमें आर्यमगढ़ करना है। योगी अपनी धार्मिक छवि की आड़ में अपने फासिस्ट एजेण्डे को शस्त्र और शास्त्र का मिश्रण बताकर इसे हिंदुओ की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति बताते हैं।
गौरतलब है कि आजमगढ़ को आतंकगढ़ कई सालों से योगी कहते आ रहे हैं जिसे बाद में मीडिया भी धड़ल्ले से इस्तेमाल करने लगी। यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि गोरखपुर ,महराजगंज, पडरौना, देवरिया में जहां लंबे समय से चल रहे फासिस्ट प्रयोंगो के तहत कई मुहल्लों के नाम जिसमें उर्दू टच दिखता है को बदल दिया गया है। मसलन, उर्दू बाजार को हिंदी बाजार, अली नगर को आर्य नगर, शेखपुर को शेषपुर, मियां बाजार को माया बाजार, अफगान हाता को पाण्डे हाता, काजी चैक को तिलक चैक समेत दर्जनों नाम हैं।
जेयूसीएस की माॅनीटरिंग टीम जो मानवाधिकार से जुड़े विभिन्न पहलुओं, सांप्रदायिकता और आतंकवाद की राजनीति पर लम्बे समय से मानिटरिंग कर रही है ने पाया कि योगी आदित्यनाथ के जमीनी प्रयोग एक ऐसी नस्ल तैयार करने में लगे हैं जो विशुद्ध फासिस्ट हो, जिसका इतिहासबोध हद दर्जे तक मुस्लिम विरोधी मिथकों पर टिका हो और जो किसी भी तरह के गैर हिंदू प्रतीकों को बर्दास्त न करता हो। जिसको हम उनके प्रयोग स्थलों पर साफ देख सकते हैं। जैसे महराजगंज के भेड़िया बकरुआ गांव में योगी के स्टाॅर्मट्ूपर्स हिंदू युवा वाहिनी के लोगों ने कब्रस्तानों को ट्ैक्टर्स से जुतवा दिया। 2007 में पडरौना में मुस्लिम दुकानदारों की दुकानों को जला कर उनकी जगह प्रशासन के सहयोग से रातों रात हिंदू दुकानदारों को बसा दिया। जिसे शासन प्रशासन दंगो की फेहरिस्त में भी नहीं मानता लेकिन इस पूर्व नियोजित इस दंगे की संभावना महीने भर पहले ही कोतवाली में स्वयं पुलिस द्वारा दर्ज है।
बहरहाल उसी दिन यानी 10 अप्रैल 08 को ही एक अन्य सभा में बिलरियागंज आजमगढ़ में योगी ने कहा कि जो लोग हमारे हिंदुत्व के संकल्प से सहमत नहीं हैं उन्हें शाम तक आजमगढ़ छोड़ देने की तैयारी कर लेनी चाहिए। इस सभा में योगी की उपस्थिती से उत्साहित भाजपा नेताओं ने जहां मुस्लिमों को देश के खाद्यान संकट के लिए जिम्मेदार बताते हुए कहा कि मुसलमान सूअर के पिल्ले की तरह बच्चे पैदा करके उन्हें आतंकवादी बनने के लिए छोड़ देते हैं। वहीं योगी ने मस्जिदों की मीनारों को बाबरी ढ़ाचे की तरह तोड़ने का आह्वान किया।
योगी अपने भाषणों में किसी दूर-दराज इलाके के हिंदुओं के उत्पीड़न की मनगढ़ंत कहानियां सुनाकर स्थानीय स्तर पर मुसलमानों से बदला लेने के लिए हिंदू भीड़ को उकसाते हैं। मसलन इसी सभा में वे कहते हैं कि मेरठ में हिंदुओं के साथ मुसलमान आतंकी व्यवहार करते हैं जिसके चलते हिंदू लड़कियों की पढ़ाई -लिखाई छूट गई है। अधिकतर हिंदू परिवारों ने अपनी बेटियों को रिश्तेदारों के यहां भेज दिया है क्योंकि मुसलमान उनको उठा ले जाते हैं और उनके साथ सामूहिक दुराचार करते हैं और उन पर तेजाब डाल देते हैं। इन सभी सभाओं में चुनाव आयोग से लेकर स्थानीय प्रशासन के आला अधिकारी मौजूद रहे लेकिन किसी को भी योगी की बातें ऐसी नहीं लगी जिसके खिलाफ कार्यवाई होनी चाहिए।
मानीटरिंग करने वाले राजीव यादव और शाहनवाज आलम का कहना है कि सिर्फ चुनाव आचार संहिता के लागू रहने के समय ही किसी के भाषणों की सरकारी स्कैनिंग दर्शाती है कि ऐसा सिर्फ चुनावी फायदे नुकसान की दृष्टि से किया जाता है। वे आगे कहते हैं कि ऐसा करके आप किसी भी सांप्रदायिक नेता कोखुली वैधता दे देते हैं कि वो गैर चुनावी समय में अपने सांप्रदायिक भाषणों से माहौल बिगाड़ता रहे। वे आगे कहते हैं कि उनके पास फरवरी 2008 में बस्ती के भारत भारी गांव में आयोजित हिंदू चेतना रैली की वीडियो रिकार्डिंग है जिसमें योगी के लोगों ने खुलेआम कहा कि भारत को हिंदू राष्ट् बनाने के लिए मुसलमानों का वोट देने का अधिकार छीन कर उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया जाएगा। उनकी मस्जिदों की मीनारों पर भगवा झण्डे लगाकर शंखनाद किया जाएगा और उसमें सूअर पालन किया जाएगा। एक वक्ता ने तो यहां तक कहा कि कब्रस्तानों से मुस्लिम महिलाओं के कंकाल निकाल कर उनसे बलात्कार किया जाएगा। लेकिन चुनाव आचार संहिता से बाहर होने के कारण वो किसी के लिए सवाल नहीं है।
गौरतलब है कि योगी जिस पीठ के उत्तराधिकारी हैं वहां लंबे समय से उग्र हिंदुत्व खास कर सावरकर लाइन की पकड़ है। जहां माले गांव विस्फोटों में लिप्त अभिनव भारत की नेता और सावरकर की बहू और गांधी जी के हत्यारे गोडसे बेटी हिमानी सावरकर का आना-जाना रहता है। दरअसल योगी का हिंदुत्व वादी एजेण्डा सावरकर और गोडसे की हिंदू महासभा की ही ब्लूप्रिंट है। जिसकी तस्दीक इस तथ्य से भी होता है कि गांधी जी की हत्या में प्रयुक्त रिवाल्वर इसी गोरक्षपीठ की थी जिसमें तत्कालीन महंत दिग्विजय नाथ जो हिंदू महासभा के नेता थे और गांधी जी की हत्या के षड़यंत्र में जेल में भी थे। यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि योगी की कार्यशैली और उसके उद्देश्य पूरी तरह से मालेगांव अभियुक्तों के खिलाफ आयी चार्जशीट से मेल खाती है। जैसे पुरोहित, प्रज्ञा इत्यादि गंगा के मैदानी भाग में सशस्त्र हिंदू विद्रोह करना चाहते थे तो ठीक उसी तरह योगी भी इसी भू-भाग में जिसे वे पुण्यांचल कहते हैं में सशत्र हिंदू प्रतिरोध की बात खुलेआम करते हैं। वैसे योगी के लोग लंबे समय से आतंकी गतिविधियों में लिप्त पकड़े गए हैं। अभी पिछले साल ही पूर्व भाजपा सांसद और कथित संत राम विलास वेदांती जो एक टीवी चैनल के स्टिंग आपरेशन में काले धन को सफेद करने में पकड़े जा चुके हैं, को सिमी की तरफ से धमकी मिली थी। जिसके खिलाफ हिंदू युवा वाहिनी समेत पूरे भगवा कुनबे ने धरना प्रदर्शन शुरु कर दिया था। लेकिन जब पुलिस ने छान-बीन की तो इस पूरे प्रकरण के मास्टर माइंड स्थानीय हिंदू युवा वाहिनी के नेता ही निकले जो स्वयं धरने प्रदर्शन की अगुवाई कर रहे थे। जिस खुलासे के बाद वेदांती ने एफआइआर वापस ले ली। ठीक इसी तरह अगस्त 2008 के आजमगढ़ के प्रायोजित दंगे में जिसमें योगी के लोगों ने फायरिंग करके एक मुस्लिम नौजवान की हत्या कर दी और जिसे योगी ने अपने उपर हमला बताया था में भी इंण्डियन मुजाहिदीन की तरफ से योगी पर हमला करने वालों को बधाई भरा मेल मिला। जो इस भगवा ब्रिगेड के इस कथित आतंकी संगठन से रिश्ते पर सवाल उठाता है। जबकि पूरा शहर जानता है कि यह दंगा योगी के लोगों ने ही किया था। वहीं अभी पिछले साल पुलिस द्वारा जारी पूर्वांचल के सबसे सांप्रदायिक और अपराधी लोगों में भी योगी आदित्यनाथ शीर्ष पर थे।

जेयूसीएस मांग करती है कि-

1-सांसद योगी आदित्यनाथ की संसद सदस्यता रद् करते हुए उनका नामांकन रद् किया जाय और भविष्य में भी बाल ठाकरे की तरह चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित किया जाय।
2-योगी आदित्यनाथ पर सांप्रदायिक विद्वेश फैलाने का मुकदमा दर्ज किया जाय।
3-मउ, गोरखपुर, आजमगढ़,पडरौना,श्रावस्ती समेत पूरे पूर्वाचल के दंगों में लिप्त योगी और उनके संगठन हिंदू युवा वाहिनी पर तत्काल प्रतिबंध लगाते हुए संलिप्तता की उच्चस्तरीय जांच की जाय।
4-योगी के विवादित भाषणों के समय मौजूद रहे जिले के अधिकारियों और निर्वाचन अधिकारियों पर मुकदमा चलाया जाय।
जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) द्वारा जारी
चितरंजन सिंह (पीयूसीएल) ,अनिल चमाड़िया (स्वतंत्र पत्रकार), सुभाष गताडे (स्वतंत्र पत्रकार), शाहनवाज आलम,राजीव यादव, विजय प्रताप, ऋषि सिंह, अतुल चैरसिया उपमंत्री अयोध्या प्रेस क्लब, मोहम्मद शोएब (एडवोकेट), असद हयात (एडवोकेट), फरमान नकवी (एडवोकेट), के के राय (एडवोकेट), जमील अहमद आजमी (उपाध्यक्ष हाईकोर्ट बार एसोसिएशन इलाहाबाद), विनोद यादव, बलवंत यादव, महंत जुगल किशोर शास्त्री, प्रबुद्ध गौतम, लक्ष्मण प्रसाद, अलका सिंह, ए बी सालोमन, तारिक शफीक, मसीहुद्दीन, अरविंद सिंह, प्रदीप सिंह, अखिलेश सिंह,अरूण उरांव, पंकज उपाध्याय, विवेक मिश्रा, शशिकांत सिंह परिहार, विनय जयसवाल, राजकुमार पासवान, अरविंद शुक्ला, शरद जयसवाल,शालिनी बाजपेयी, राघवेंद्र प्रताप सिंह, अविनाश राय, पीयूष तिवारी, अर्चना मेहतो, प्रिया मिश्रा, राहुल पांडे, वगीश पांडे, ओम प्रताप सिंह, अरूण वर्मा,शैलेष पाण्डे।
संपर्क सूत्र- 09415254919,09452800752,09982664458,09911848941

चुनाव आयोग में नहीं लिया संज्ञान, मीडिया में बनाया मुद्दा

गोरखपुर से भाजपा प्रत्याशी योगी आदित्य नाथ के सांप्रदायिक भाषणों की सीडी के सम्बन्ध में जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी के पत्र का चुनाव आयोग में ४ दिन बीत जाने के बाद भी संज्ञान नहीं लिया। हांलाकि एनडीटीवी इंडिया ने इस मसले पर २५ मार्च को अपने समाचारों में प्रमुखता से उठाया है। इसमे योगी की उम्मीदवारी निरस्त करने व उनके खिलाफ सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की कोशिश पर एडवोकेट असद हयात से बातचीत प्रसारित की गई। चुनाव आयोग को भेजी गई सीडी में योगी के सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाले भाषण के आधार पर उनके खिलाफ ऍफ़ आई आर दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार करने की मांग की गयी है. जेयूसीएस इस सीडी के आधार पर भाजपा से अपनी स्थिति साफ़ करने को कहा है. जेयूसीएस ने फिर एक बार चुनाव आयोग से पत्र व सीडी के आधार पर योगी आदित्य नाथ के खिलाफ मामला दर्ज करने की मांग की है.
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सेवा में,

श्रीमान मुख्य चुनाव आयुक्त,

भारत निर्वाचन आयोग,

अशोक रोड, नई दिल्ली।

विषयः

दिनांक 10 अप्रैल, 08 को आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव में चुनाव प्रचार के अंतिम दिन भाजपा सांसद श्री आदित्य नाथ योगी एवं भाजपा प्रत्याशी श्री रमाकांत यादव व अन्य वक्ताओं द्वारा चुनाव आचार संहिता एवं सेक्शन 125 रिप्रजेन्टेशन आफ पिपुल एक्ट 1951 के उल्लंघन के सम्बन्ध में।

महोदय,

उपरोक्त विषय में आपसे निम्न निवेदन करना हैः-

1- यह कि प्रार्थीगण नम्बर 1 व 2 जर्नलिस्ट्स यूनियन फार सिविल सोसाइटी नामक संगठन के राष्ट्ीय कार्यकारिणी सदस्य है तथा प्रार्थी नं0 4 आवामी कोंसिल फार डेमोक्रेसी एंड पीस संगठन का जनरल सेक्रेट्ी है। यह दोनों संगठन, भारतीय नागरिक समाज में लोकतांत्रिक, सामाजिक न्याय व धर्म निरपेक्षता के सिद्धांतों की रक्षा के साथ-साथ अशिक्षित, कमजोर, पिछड़े, दलित व अक्षम वर्गों के नागरिकों के हितों के लिए कार्य करते हैं।

2- यह कि गोरखपुर सांसद आदित्य नाथ योगी हिन्दू युवा वाहिनी नामक संगठन के मुखिया हैं। सांसद श्री योगी एवं उनके संगठन का उद्देश्य भारतीय नागरिक समाज में हिन्दू राष्ट्वाद की आड़ में सांम्प्रादायिकता का जहर पैदा करना तथा समाज का साम्प्रादयिकता सद्भाव बिगाड़ना रहा है, जिससे इनके राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति होती है। ऐसा करके वे हिन्दू मतदाताओं का ध्रुवीकरण अपने व भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों के पक्ष में करते रहे हैं एवं मुस्लिम मतदताओं के मन में अपना भय बिठाते रहे हैं।

3- यह कि दिनांक 10 अप्रैल, 08 को आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र के लिए हो रहे उपचुनाव में चुनाव प्रचार का अंतिम दिन था, इस चुनाव प्रचार के अंतिम दिन भाजपा प्रत्याशी श्री रमाकांत यादव के पक्ष में श्री आदित्यनाथ योगी ने ताबड़तोड़ चुनावी जनसभाएं कर हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को दूषित साम्प्रदायिकता का रूप देकर उन्हें अंदर तक झकझोरा और मुसलमानों के प्रति नफरत पैदा करने वाले तथा हिन्दू मुस्लिमों के बीच वैमनस्यता पैदा करने वाले, भाईचारे व साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने वाले शब्दों का प्रयोग कर अपना भाषण दिया। इन भाषणों के दौरान मंच पर श्री रमाकांत यादव व अन्य व्यक्ति उपस्थित रहे। सभाओं में रमाकांत यादव व अन्य वक्ताओं ने भी इसी प्रकार के भाषण दिए।

4- यह कि श्री आदित्यनाथ योगी, श्री रमाकांत यादव एवं उनके सहयोगी अन्य वक्ताओं ने उक्त 10 अप्रैल 2008 को दिन के समय जनपद आजमगढ़ के सिकरौर, बिलरियागंज, कप्तानगंज, अतरौलिया तथा सिविल लाइन शहर आजमगढ़ में अपनी जनसभाएं आयोजित की और उक्त भाषण दिए। इन चुनावी सभाओं में प्रत्येक में कम से कम 5-5 हजार की संख्या में जन समुदाय उपस्थित था।

5- यह कि प्रार्थीगण ने इन सभाओं में श्री आदित्यनाथ योगी एवं अन्य वक्ताओं द्वारा दिए गए भाषणों की वीडियों रिकार्डिंग की जो कि जैसी रिकार्ड हुई उसी रूप में आपकों इस ज्ञापन के साथ ई-मेल की जा रही है। इसकी मूल प्रति प्रार्थीगण के पास है जिसे सुनवाई के समय आपके समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।

6- यह कि इन चुनावी सभाओं में जिनकी रिकार्डिंग प्रार्थीगण ने की और जिनकी प्रति आपको प्रस्तुत की जा रही है, योगी आदित्यनाथ ने कहा कि हिन्दुओं के शस्त्र व शास्त्र दोनों मिलाकर राष्ट् की व्यवस्था को चलाना है। इसलिए नारा लगाने के साथ-साथ भाला चलाना भी आना चाहिए। योगी आदित्यनाथ ने अजीत राय हत्याकांड, सुन्नर यादव हत्याकांड व गोकशी के कथित मामलों को संदर्भ लेते हुए अपने भाषण में कहा कि यह सब इसलिए हुआ क्योंकि हिन्दू मौन रहे इसलिए अब अगर एक हिन्दू की हत्या होगी तो हम सौ मुसलमानों की हत्या करेंगे और ब्याज सहित इसकी अदायगी की जाएगी। लेकिन इसको वही कर पाएगा जिसकी भुजाओं में ताकत होगी और शिखंडी व हिजड़े नहीं लड़ सकते। जिसमें लड़ने का जज्बा हो वही लड़ पाएगा और हमें एक लड़ने वाला रमाकांत यादव मिल गया है। योगी आदित्यनाथ ने मुसलमानों को कत्ल करने की अपनी दूषित विचारधारा के अनुसार बोलते हुए कहा कि अरबी बकरों ;मुसलमानोंद्ध को काटने ;हाथ से काटने का इशारा करते हुएद्ध की तैयारी भी करनी चाहिए। आदित्यनाथ योगी ने हिन्दू लड़कियों को मुसलमानों युवकों से प्रेम प्रसंगों का हवाला देते हुए कहा कि उन्हें उच्च न्यायालय के एक आदेश की चिंता हो रही है जिसमें न्यायालय ने राज्य सरकार से कहा कि हिन्दू लड़कियां क्यों मुसलमान लड़कों के साथ भाग जाती हैं। योगी आदित्यनाथ ने इस संदर्भ में अपने भाषण में कहा कि अगर एक हिन्दू लड़की किसी मुसलमान के साथ भागे तो सौ मुसलमान लड़कियों को हिन्दू लड़कों को भगाना चाहिए यानि कि अनुचित शारीरिक सम्बंध बनाने चाहिए। उन्होंने कहा जो मुसलमान धर्म परिवर्तन कर हिन्दू बनेगा उसको हम स्वीकार करेंगे और एक नई जाति बना देंगे। योगी आदित्यनाथ ने अपने भाषण की शुरूआत में कहा कि जब होंगे बजरंगबली तो नहीं आ सकता कोई अली वली। उनके भाषण के समय उन्होंने जनता से हर हर महादेव, गऊ माता की जय, राम जन्म भूमि की जय, कृष्ण जन्म भूमि की जय, कांशी विश्वनाथ की जय, शंखनाद जैसे नारे के उद्घोष कराए और हिन्दू धर्म विधान के अनुसार उपस्थित जन समुदाय को संकल्प दिलाया। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि आजमगढ़ की पहचान किसी गजनवी, गौरी, बाबर या किसी आजम से हो यह उचित नहीं है। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि आजमगढ़ का आर्यमगण होना चाहिए। उन्होंने कहा कि हम ऐसे उम्मीदवार का समर्थन करते हूए जो हिन्दू राष्ट्रवाद का समर्थक हो। जिसका अर्थ है कि उन्होंने भारतीय संविधान मेें अनी अनास्था व्यक्त की, कयोंकि भारतीय संविधान किसी हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा का स्वीकृति नहीं देता और धर्म निरपेक्षता पर आधारित है लेकिन श्री आदित्य नाथ ने अपने भाषण में कहा कि हम ऐसे उम्मीदवार ;रमाकांत यादवद्ध का समर्थन करते हे जो हिन्दू राष्ट्रवाद का समर्थक है। उन्होंने कहा कि आज हिन्दू समाज प्रताड़ित हो रहा हे तथा उसके समक्ष पहाचान का संकट हैं उन्होंने कहा कि आम मुसलमाान किसी मुख्तार अंसारी, किसी खान या पठान का समर्थन करता है तो हम क्यों नहीं हिन्दू राष्ट्रवाद के समर्थक रमाकांत यादव का समर्थन कर सकते।

7- यह कि अपने भाषणों में श्री योगी आदित्य नाथ ने मुसलमानों को दो पहिया जानवर कहा उन्होंने कि पैदावार धान, गन्ने की बढ़े ते अच्छी बाात होती है लेकिन मुसलमानों की बढ़ती पैदावर को बन्द करने के लिए आगे आना पड़ेगा । इसी से प्रेरित होकर एक वकता द्वारा (योगी आदित्य नाथ वाश्री रमाकांत यादव की उपस्थिति में) आपने भाषण मेें कहा कि देष के खाद्यान्य समास्या की वजह मुसलमान हैं क्योंकि मुसलमानों की आबादी आठ गुना बढ़ गयी है और मुसलमान सुअर के पिल्लों की तरह बच्चे पैदा करता है और सड़कों पर छोड़ देता है। इन सभाओं में जो नारे लगे उनमें यूपी भी गुजरात बनेगा, आजमगढ़ शुरूआत करेगा, जैसे नारे प्रमुख हैं। जिसका अर्थ है कि वे हिन्दू जनता को मुसलमानों के विरूद्ध नफरत पैदा करके उन्हें भड़का रहे थे तथा मुसलमानों में डर बैठा रहे थे। उक्त भाषणों का प्रभाव जनमानस पर यही हुआ।

8- यह कि उक्त जनसभाओं में जो अन्य भाषण दिए गए हैं वे संलग्न सीडी में देखे व सुने जा सकते हैं। यह समस्त भाषण, विचार जो चुनाव जन सभा के दौरान व्यक्त किए गए हैं वे धारा 125 रिप्रजेन्टेशन आफ पीपुल एक्ट का सीधा उल्लंघन है। इसके अतिरिक्त धारा 153-ए, 171-ए, 171-सी, 188, 505 आईपीसी एवं अन्य विधिक प्राविधानों का उल्लंघन है।

9- यह कि यह आश्चर्य का विषय है कि जिला चुनाव अधिकारी आजमगढ़ द्वारा कोई कार्यवाही उक्त विषैले भाषण देने के पाश्चात् आज तक श्री आदित्यनाथ योगी व श्री रमाकांत यादव एवं अन्य वक्ताओं के विरूद्ध नहीं की गई और न ही भारत चुनाव आयोग द्वारा आज तक इनके विरूद्ध कोई कार्यवाही हुई जिसका अर्थ है कि जिला प्रशासन आजमगढ़ एवं भारत चुनाव आयोग श्री आदित्यनाथ एवं सहयोगियों को कानून से ऊपर मानता है।

10- यह कि उक्त भाषणों की मूल टेप प्राथर््ीगण के पास है जिसे सुनवाई के समय प्रस्तुत किया जाएगा। जैसी टेप रिकार्ड है उसी रूप में ज्ञापन के साथ ई-मेल द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है।

11- यह कि वर्तमान लोकसभा चुनाव के दौरान योगी आदित्यनाथ और भाजपा के अनेक उम्मीदवार का समर्थक इसी प्रकार की शब्दावली व भाषण विशेषकर बस्ती, गोरखपुर, आजमगढ़, वाराणसी मण्डलों के जनपदों के अंतर्गत आने वाले लोकसभा क्षेत्रों में दे रहे हैं और वैमनस्यता पैदा कर रहे हैं जो भारतीय नागरिक समाज में सामाजिक सद्भाव के लिए घातक है। इन वक्ताओं में श्री आदित्यनाथ योगी, रमाकांत यादव (आजमगढ़ से भाजपा प्रत्याशी), वाई डी सिंह (बस्ती से भाजपा प्रत्याशी), श्री पंकज (महराजगंज से भाजपा प्रत्याशी), श्री विनय दूबे, (पडरौना से भाजपा प्रत्याशी), श्री सुनील सिंह एवं राघवेंद्र सिंह पदाधिकारीगण हिन्दू युवा वाहिनी इनके प्रमुख सहयोगी वक्ता हैं।
प्रार्थना

अतः इन परिस्थितियों में आपसे प्रार्थना है कि--

1- यह कि उपरोक्त विषय में श्री योगी आदित्य नाथ, श्री रमाकांत यादव उक्त के विरूद्ध अंतर्गत धारा 125 रिप्रजेन्टेशन आफ पीपुल एक्ट 1951 एवं अन्य विधिक प्राविधानों के अंतर्गत एफआईआर दर्ज कराई जाए एवं मामले को दबाने वाले दोषी जिला अधिकारियों के विरूद्ध भी कार्यवाही की जाए।2- यह कि वर्तमान लोकसभा चुनाव के दौरान विशेषकर श्री आदित्यनाथ योगी, रमाकांत यादव, वाई डी सिंह, विनय दूबे, श्री पंकज एवं अन्य इनके सह वक्ताओं के भाषणों की रिकार्डिंग कराई जाए।

3- एवं अन्य कार्यवाही जनहित व न्यायहित में की जाए जिसका किया जाना आवश्यक है।

प्रार्थीगण

1- राजीव कुमार यादव पु़त्र श्री इंद्रदेव यादव निवासी ग्राम घिन्हापुर, पोस्ट गोपालपुर, थाना मेहनगर आजमगढ़

2- शाहनवाज आलम पुत्र मोहम्मद इलियास, निवासी बहेरी बलिया

3- राजकुमार पुत्र राम अचल, निवासी पचदेवरा, कछराना इलाहाबाद

4- मोहम्मद असद हयात एडवोकेट जनरल सेक्रेटरी आवामी कौंसिल फार डेमोक्रेसी एंड पीस,

द्वारा जनाव फरमान अहमद नकवी एडवोकेट समीप दरगाह दरियाबाद, इलाहाबाद

दिनांक 20-03-२००९

प्रतिलिपि- जानकारी एवं आवश्यक कार्यवाही के निवेदन के साथ प्रस्तुत है (संलग्न उक्त भाषण ई-मेल के साथ)

1- श्री मुख्य चुनाव अधिकारी, उत्तर प्रदेश, चैथी मंजिल, विकास भवन, जनपथ मार्केट लखनऊ।

जारीकर्ता- जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) व आवामी कौंसिल फाॅर डेमोक्रेसी एंड पीसचितरंजन सिंह (पीयूसीएल) ,अनिल चमाड़िया (स्वतंत्र पत्रकार), सुभाष गताडे (स्वतंत्र पत्रकार), मोहम्मद शोएब (एडवोकेट), असद हयात (एडवोकेट), फरमान नकवी (एडवोकेट), के के राय (एडवोकेट), जमील अहमद आजमी (उपाध्यक्ष हाईकोर्ट बार एसोसिएशन इलाहाबाद), विनोद यादव, बलवंत यादव, महंत जुगल किशोर शास्त्री, विजय प्रताप, प्रबुद्ध गौतम, लक्ष्मण प्रसाद, ऋषि सिंह, अलका सिंह, ए बी सालोमन, तारिक शफीक, मसीहुद्दीन, अरविंद सिंह, प्रदीप सिंह, अखिलेश सिंह, अतुल चैरासिया (उप मंत्री अयोध्या प्रेस क्लबद्ध), अरूण उरांव, पंकज उपाध्याय, विवेक मिश्रा, शशिकांत सिंह परिहार, विनय जयसवाल, राजकुमार, अरविंद शुक्ला, शरद जयसवाल, राघवेंद्र प्रताप सिंह, अविनाश राय, पीयूष तिवारी, अर्चना मेहतो, प्रिया मिश्रा, राहुल पांडे, वगीश पांडे, ओम प्रताप सिंह, अरूण वर्मा।