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पत्रकारिता के एक युग का अंत



अम्बरीश कुमार

जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी नहीं रहे .जनसत्ता जिसने हिंदी पत्रकारिता की भाषा बदली तेवर बदला और अंग्रेजी पत्रकारिता के बराबर खडा कर दिया .उसी जनसत्ता को बनाने वाले प्रभाष जोशी का कल देर रात निधन हो गया । दिल्ली से सटे वसुंधरा इलाके की जनसत्ता सोसाईटी में रहने वाले प्रभाष जोशी कल भारत और अस्ट्रेलिया मैच देख रहे थे । मैच के दौरान ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा । परिवार वाले उन्हें रात करीब 11.30 बजे गाजियावाद के नरेन्द्र मोहन अस्पताल ले गए , जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया । प्रभाष जोशी की मौत की खबर पत्रकारिता जगत के लिए इतनी बड़ी घटना थी कि रात भर पत्रकारों के फोन घनघनाते रहे । उनकी मौत के बाद पहले उनका पार्थिव शरीर उनके घर ले जाया गया फिर एम्स । इंदौर में उनका अंतिम संस्कार किया जाना तय हुआ है , इसलिए आज देर शाम उनका शरीर इंदौर ले जाया जाएगा ।
प्रभाष जोशी जनसत्ता के संस्थापक संपादक थे।मालवा प्रभाष जोशी ने नई दुनिया से पत्रकारिता की शुरुआत की थीऔर जनसत्ता में देशज भाषा का नया प्रयोग भी उन्होंने किया । पत्रकार राजेन्द्र माथुर और शरद जोशी उनके समकालीन थे। नई दुनिया के बाद वे इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े और उन्होंने अमदाबाद और चंडीगढ़ में स्थानीय संपादक का पद संभाला। 1983 में दैनिक जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसने हिन्दी पत्रकारिता की भाषा और तेवर बदल दिया ।जनसत्ता सिर्फ अखबार नहीं बना बल्कि ९० के दशक का धारदार राजनैतिक हथियार भी बना। पहली बार किसी संपादक की चौखट पर दिग्गज नेताओ को इन्तजार करते देखा। यह ताकत हिंदी मीडिया को प्रभाष जोशी ने दी ,वह हिंदी मीडिया जो पहले याचक मुद्रा में खडा रहता था । इसे कैसा संयोग कहेंगे की ठीक एक दिन पहले लखनऊ में उन्होंने हाथ आसमान की तरफ उठाते हुए कहा -मेरा तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार ही घर बनेगा .इंडियन एक्सप्रेस से उनका सम्बन्ध कैसा था इसी से पता चल जाता है . प्रभाष जोशी करीब 3० घंटे पहले चार नवम्बर की शाम लखनऊ में इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर में जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों के बीच थे .आज यानी छह नवम्बर को तडके ढाई बजे दिल्ली से अरुण त्रिपाठी का फोन आया -प्रभाष जी नहीं रहे .मुझे लगा चक्कर आ जायेगा और गिर पडूंगा .चार नवम्बर को वे लखनऊ में एक कर्यक्रम में हिस्सा लेने आये थे .मुझे कार्यक्रम में न देख उन्होंने मेरे सहयोगी तारा पाटकर से कहा -अम्बरीश कुमार कहा है .यह पता चलने पर की तबियत ठीक नहीं है उन्होंने पाटकर से कहा दफ्तर जाकर मेरी बात कराओ .मेरे दफ्तर पहुचने पर उनका फोन आया .प्रभाष जी ने पूछा -क्या बात है ,मेरा जवाब था -तबियत ठीक नहीं है .एलर्जी की वजह से साँस फूल रही है .प्रभाष जी का जवाब था -पंडित मे खुद वहां आ रहा हूँ और वही से एअरपोर्ट चला जाऊंगा .कुछ देर में प्रभाष जी दफ्तर आ गये .दफ्तर पहली मंजिल पर है फिर भी वे आये .करीब डेढ़ घंटा वे साथ रहे और रामनाथ गोयनका ,आपातकाल और इंदिरा गाँधी आदि के बारे में बात कर पुराणी याद ताजा कर रहे थे. तभी इंडियन एक्सप्रेस के लखनऊ संसकरण के संपादक वीरेंदर कुमार भी आ गए जो उनके करीब ३५ साल पराने सहयोगी रहे है .प्रभाष जी तब चंडीगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे .एक्सप्रेस के वीरेंदर नाथ भट्ट ,संजय सिंह ,दीपा आदि भी मौजूद थी .
तभी प्रभाष जी ने कहा .वाराणसी से यहाँ आ रहा हूँ कल मणिपुर जाना है पर यार दिल्ली में पहले डाक्टर से पूरा चेकउप कराना है.दरअसल वाराणसी में कार्यक्रम से पहले मुझे चक्कर आ गया था .प्रभाष जोशी की यह बात हम लोगो ने सामान्य ढंग से ली .पुरानी याद तजा करते हुए मुझे यह भी याद आया की १९८८ में चेन्नई से रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जोशी से मिलने को भेजा था तब मे बंगलोर के एक अखबार में था ..पर जब प्रभाष जोशी से मिलने इंडियन एक्सप्रेस के बहादुर शाह जफ़र रोड वाले दफ्तर गया तो वहां काफी देर बाद उनके पीए से मिल पाया .उनके पीए यानि राम बाबु को मैंने बतया की रामनाथ गोयनका ने भेजा है तो उन्होंने प्रभाष जी से बात की .बाद बे जवाब मिला -प्रभाष जी के पास तीन महीने तक मिलने का समय नहीं है ..ख़ैर कहानी लम्बी है पर वही प्रभाष जोशी बुधवार को मुझे देखने दफ्तर आये और गुरूवार को हम सभी को छोड़ गए .
लखनऊ के इंडियन एक्सप्रेस की सहयोगियों से मैंने उनका परिचय कराया तभी मौलश्री की तरफ मुखातिब हो प्रभाष जोशी ने कहा था -मेरा घर तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार में ही है .हम सब कुछ समझ नहीं पाए .उसी समय भोपाल से भास्कर के पत्रकार हिमांशु वाजपई का फोन आया तो हमने कहा-प्रभाष जी से बात कर रहा हु कुछ देर बात फोन करना . काफी देर तक बात होती रही पर आज उनके जाने की खबर सुनकर कुछ समझ नहीं आ रहा .भारतीय पत्रकारिता के इस भीष्म पितामह को हम कभी भूल नहीं सकते .मेरे वे संपादक ही नहीं अभिभावक भी थे..यहाँ से जाते बोले -अपनी सेहत का ख्याल रखो .बहुत कुछ करना है.प्रभाष जी से जो अंतिम बातचीत हुईं उसे हम जल्द देंगे .प्रभाष जोशी का जाना पत्रकारिता के एक युग का अंत है .

भविष्य के पत्रकारों का सामान्य (अ)ज्ञान

आनंद प्रधान

क्या आपको मालूम है कि बांग्लादेश की सम्मानित प्रधानमंत्री शेख हसीना का
अंडरवर्ल्ड से ताल्लुक है। वे अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहीम की छोटी बहन हैं ? या
ये कि वे पाकिस्तान की बड़ी नेता हैं और अपने नाम के मुताबिक वाकई हसीन हैं? या फिर यह कि वे विश्व सुंदरी हैं। और यह भी कि वे श्रीलंका की राष्ट्रपति हैं?
..... आपका सर चकरा दनेवाली ये जानकारियां किसी बेहूदा मजाक या चुटकुले का हिस्सा नहीं हैं। ये वे कुछ उत्तर है जो देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया प्रशिक्षण संस्थान में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में पी जी डिप्लोमा की प्रवेश परीक्षा में शेख हसीना और उन जैसी ही कई और चर्चित हस्तियों के बारे में दो-तीन वाक्यों में लिखने के जवाब में आए।
लेकिन यह तो सिर्फ एक छोटा सा नमूना भर है। ऐसा जवाब देनवाले प्रवेशार्थियों की संख्या काफी थी जिन्हें महिंदा राजपक्से, रामबरन यादव, अरविंद अडिगा,हैरोल्ड पिंटर आदि के बारे में पता नहीं था। सबसे अधिक अफसोस और चिंता की बात यह थी कि इन छात्रों को जो पत्रकार बनना चाहते हैं, प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस जी एन रे और दक्षिण एशियाई पत्रकारों के संगठन साफमा के बारे में कुछ भी पता नहीं था। ऐसे छात्रों की संख्या उंगलियों पर गिनी जाने भर थी जिन्होने जस्टिस जी एन रे और साफमा के बारे में सही उत्तर दिया। हिंदी पत्रकारिता में प्रवेश के इच्छुक अधिकांश छात्रों ने लगता है कि नई दुनिया के संपादक और जाने-माने पत्रकार आलोक मेहता का नाम कभी नहीं सुना था।
नतीजा यह कि प्रवेशार्थियों ने अपने काल्पनिक और सृजनात्मक ष्सामान्य (अ) ज्ञानष् से इन प्रश्नों के ऐसे-ऐसे उत्तर दिए हैं कि उन्हें पढ़कर हंसी से अधिक पीड़ा और चिंता होती है। हैरत होती है कि इन छात्रों ने ग्रेजुएशन की परीक्षा कैसे पास की होगी? यह सचमुच अत्यधिक चिंता की बात है कि पत्रकारिता की प्रवेश परीक्षा में बैठनेवाले छात्रों का न सिर्फ सामान्य ज्ञान बहुत कमजोर है बल्कि उनकी भाषा और अभिव्यक्ति क्षमता का हाल तो और भी दयनीय है। वर्तनी, लिंग और वाक्य संरचना संबंधी अशुद्धियों के बारे में तो कहना ही क्या? इन छात्रों की भाषा पर पकड़ इतनी कमजोर है कि वे अपने विचारों को भी सही तरह से प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं।
यह ठीक है कि इनमें से बहुतेरे छात्रों की भाषा, अभिव्यक्ति क्षमता, तर्कशक्ति और सामान्य ज्ञान का स्तर बाकी की तुलना में बहुत बेहतर और संतोषजनक था। इससे संभव है कि संस्थान को छान और छांटकर जरूरी छात्र मिल जाएं लेकिन बाकी छात्र कहां जाएंगे ? जाहिर है कि बचे हुए छात्रों की बड़ी संख्या दूसरे विश्वविद्यालयों और निजी पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों में दाखिला पा जाएगी। उनमें से काफी बड़ी संख्या में छात्र डिग्रियां लेकर पत्रकार बनने के पात्र भी बान जाएंगे। संभव है कि पत्रकारिता पाठ्क्रम में प्रशिक्षण के दौरान उनमें संधार हो लेकिन आज अधिकांष विश्वविद्यालयों और निजी संस्थानों में प्रशिक्षण और अध्यापन का जो हाल है, उसे देखकर बहुत उम्मीद नहीं जगती है।
निश्चय ही, समाचार माध्यमों के लिए अच्छी खबर नहीं है। अधिकांश समाचार माध्यमों और मीडिया उद्योग के लिए यह चिंता की बात है। वे पहले से ही प्रतिभाशाली मीडियाकर्मियों की कमी से जूझ रहे हैं। इसके कारण समाचार मीडिया उद्योग का न सिर्फ विस्तार और विकास प्रभावित हो रहा है बल्कि उसकी गुणवत्ता पर भी बुरा असर पड़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में समाचार मीडिया उद्योग का जिस तेजी से विस्तार हुआ है, उसके अनुसार उपयुक्त प्रतिभाओं के न मिलने के कारण समाचारपत्रों और चैनलों के बीच वेतनमानों से लेकर सेवा शर्तों तक में बहुत विसंगतियां पैदा हो गयी हैं।
ऐसे में, समाचार मीडिया उद्योग के स्वस्थ विकास के लिए जरूरी है कि बेहतर प्रतिभाएं मीडिया प्रोफेशन में आएं। लेकिन इसके लिए समाचार मीडिया उद्योग के साथ-साथ देश के प्रमुख मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों को मिलकर कोशिश करनी होगी। समाचार मीडिया उद्योग को मीडियाकर्मियों की भर्ती की प्रक्रिया को तार्किक, पारदर्शी, व्यवस्थित और आकर्षक बनाना होगा और दूसरी ओर, प्रशिक्षण संस्थानों को बेहतर छात्रों को आकर्षित करने और उन्हें श्रेष्ठ प्रशिक्षण देने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने के बारे में तुरंत सोचना होगा। यह एक चुनौती है जिसे अब और टालना समाचार मीडिया उद्योग के साथ-साथ पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थानों के लिए बहुत घातक हो सकता है।

डॉ बिनायक सेन को मिली ज़मानत : बीबीसी

सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ की जेल में बंद नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले डॉ विनायक सेन को आज जमानत दे दी.
डॉ सेन पिछले दो वर्षों से छत्तीसगढ़ की जेल में बंद थे और राज्य सरकार ने उन पर माओवादियों की मदद करने का आरोप लगाया था.
न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू और दीपक वर्मा की खंडपीठ ने अपने फ़ैसले में कहा कि डॉ वर्मा को निजी मुचलके पर स्थानीय अदालत से ज़मानत दे दी जाए.
नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले बिनायक सेन सेन की दुनिया भर में साख है. पेशे से डॉक्टर बिनायक सेन की रिहाई के लिए दुनिया के कई नोबल पुरस्कार विजेताओं ने भी राज्य सरकार को पत्र लिखा था.
डॉक्टर बिनायक सेन शुरु से राज्य सरकार के आरोपों का खंडन करते रहे हैं और कहते रहे हैं कि वो नक्सलियों का साथ नहीं देते लेकिन वो साथ ही राज्य सरकार की ज्यादतियों का भी विरोध करते रहे हैं.
पिछले दो वर्षों से डॉ सेन बार बार सुनवाई की अपील करते रहे हैं और आखिरकार उन्हें सुप्रीम कोर्ट से ही राहत मिल सकी है।

कौन हैं डॉ बिनायक सेन?

खादी का बिना प्रेस किया हुआ कुर्ता-पाजामा, लंबी बढ़ी दाढ़ी और पैरों में साधारण स्पोर्ट्स शू पहने 57 वर्षीय डॉक्टर बिनायक सेन को देखकर अक्सर उनके समूचे व्यक्तित्व का पता नहीं चल पाता.
कुछ लोग उन्हें सीधे-सादे सामाजिक कार्यकर्ता के रुप में जानते हैं तो कुछ एक बौद्धिक चिंतक के रुप में और अब पुलिस उन्हें नक्सलियों का सहयोगी बताती है.
छत्तीसगढ़ की शहरी आबादी भले ज़्यादा न जानती रही हो लेकिन वहाँ के दूरस्थ इलाक़ों के गाँव वाले और आदिवासी उन्हें अपने हितचिंतक के रुप में जानते रहे हैं.
पेशे से चिकित्सक डॉ बिनायक सेन छात्र जीवन से ही राजनीति में रुचि लेते रहे हैं.
उन्होंने छत्तीसगढ़ में समाजसेवा की शुरुआत सुपरिचित श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी के साथ की और श्रमिकों के लिए बनाए गए शहीद अस्पताल में अपनी सेवाएँ देने लगे.
इसके बाद वे छत्तीसगढ़ के विभिन्न ज़िलों में लोगों के लिए सस्ती चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के उपाय तलाश करने के लिए काम करते रहे.
डॉ बिनायक सेन सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता तैयार करने के लिए बनी छत्तीसगढ़ सरकार की एक सलाहकार समिति के सदस्य रहे और उनसे जुड़े लोगों का कहना है कि डॉ सेन के सुझावों के आधार पर सरकार ने ‘मितानिन’ नाम से एक कार्यक्रम शुरु किया.
इस कार्यक्रम के तहत छत्तीसगढ़ में महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता तैयार की जा रहीं हैं.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनके योगदान को उनके कॉलेज क्रिस्चन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर ने भी सराहा और पॉल हैरिसन अवॉर्ड दिया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य और मानवाधिकार के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए जोनाथन मैन सम्मान दिया गया.
डॉ बिनायक सेन मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की छत्तीसगढ़ शाखा के उपाध्यक्ष भी हैं.
इस संस्था के साथ काम करते हुए उन्होंने छत्तीसगढ़ में भूख से मौत और कुपोषण जैसे मुद्दों को उठाया और कई ग़ैर सरकारी जाँच दलों के सदस्य रहे.
उन्होंने अक्सर सरकार के लिए असुविधाजनक सवाल खड़े किए और नक्सली आंदोलन के ख़िलाफ़ चल रहे सलमा जुड़ुम की विसंगतियों पर भी गंभीर सवाल उठाए.
सलवा जुड़ुम के चलते आदिवासियों को हो रही कथित परेशानियों को स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया तक पहुँचाने में भी उनकी अहम भूमिका रही.
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाक़े बस्तर में नक्सलवाद के ख़िलाफ़ चल रहे सलवा जुड़ुम को सरकार स्वस्फ़ूर्त जनांदोलन कहती है जबकि इसके विरोधी इसे सरकारी सहायता से चल रहा कार्यक्रम कहते हैं. इस कार्यक्रम को विपक्षी पार्टी कांग्रेस का भी पूरा समर्थन प्राप्त है.
छत्तीसगढ़ की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने 2005 में जब छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा अधिनियम लागू करने का फ़ैसला किया तो उसका मुखर विरोध करने वालों में डॉ बिनायक सेन भी थे.
उन्होंने आशंका जताई थी कि इस क़ानून की आड़ में सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को परेशानी का सामना करना पड़ सकता है.
उनकी आशंका सही साबित हुई और इसी क़ानून के तहत उन्हें 14 मई 2007 को गिरफ़्तार कर लिया गया.
छत्तीसगढ़ पुलिस के मुताबिक़ बिनायक सेन पर नक्सलियों के साथ साठ-गांठ करने और उनके सहायक के रूप में काम करने का आरोप है.
हालांकि वे ख़ुद इसे निराधार बताते हैं और पीयूसीएल इसे सरकार की दुर्भावना के रुप में देखती है.
दुनिया भर से अपील
डॉ बिनायक सेन पिछले एक साल से जेल में हैं और उनकी रिहाई के लिए देश के बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता अपील करते रहे हैं.
अब दुनिया भर के 22 नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने डॉ बिनायक सेन की रिहाई की अपील की है.
नोबेल पुरस्कार विजेता चाहते हैं कि उन्हें जोनाथन मैन सम्मान लेने के लिए अमरीका जाने की अनुमति दी जाए.
पिछले एक साल में बहुत सी कोशिशों के बाद भी डॉ सेन को ज़मानत नहीं मिल सकी है.
उनकी गिरफ़्तारी के एक साल पूरा होने पर 14 मई को देश भर में विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई जा रही है.
डॉ बिनायक सेन की पत्नी डॉ इलीना सेन भी जानीमानी सामाजिक कार्यकर्ता हैं और वे डॉ सेन को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रही
बीबीसी हिंदी डॉट कॉम

अमरीकी संप्रभुता पर पड़े जूते

जूते चलाने वाले पत्रकार की 'पिटाई'
अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के ऊपर जूते फेंकने वाले पत्रकार मुंतज़िर ज़ैदी के भाई का कहना है कि हिरासत में उन्हें पीटा गया है.
ज़रगाम ज़ैदी ने कहा है कि उनके भाई मुंतज़िर का हाथ और पसलियाँ टूट गई हैं, एक आँख पर गंभीर चोट आई है और उन्हें आंतरिक रक्तस्राव भी हुआ है.
मुंतज़िर ज़ैदी ने जॉर्ज बुश को 'कुत्ता' कहते हुए उनके ऊपर जूते फेंके थे, इसके बाद उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया.
बीबीसी ने इस मामले में इराक़ के शीर्ष सुरक्षा अधिकारियों से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन कोई बात करने को तैयार नहीं हुआ.
इस बीच जॉर्ज बुश के ऊपर फेंके गए जूते को ख़रीदने के लिए ऊँची बोलियाँ लगाई जा रही हैं. इराक़ी फुटबॉल टीम के पूर्व कोच इन जूतों के लिए एक लाख डॉलर देने को तैयार हैं तो एक सऊदी नागरिक ने एक करोड़ डॉलर की बोली लगा दी है.
इराक़ में मुंतज़िर ज़ैदी के समर्थन में ज़ोरदार रैलियाँ निकाली गई हैं और उनकी रिहाई की माँग की जा रही है.
लीबिया के शासक मुअम्मर गद्दाफ़ी की बेटी ने कहा है कि उनकी चैरिटी मुंतज़िर ज़ैदी का सम्मान करेगी क्योंकि उन्होंने बहादुरी का परिचय दिया है.
ज़रगाम ज़ैदी ने बीबीसी को बताया कि उन्हें लगता है कि अब उनके भाई को अमरीकी सैनिक अस्पताल में ले जाया गया है, उन्होंने कहा कि अभी तक मुंतज़िर को किसी वकील से नहीं मिलने दिया गया है.
इराक़ी अधिकारियों ने कहा है कि मुंतज़िर ज़ैदी के ख़िलाफ़ इराक़ी क़ानून के तहत कार्रवाई की जाएगी, 28 वर्षीय पत्रकार के ख़िलाफ़ क्या आरोप लगाए जाएँगे यह नहीं बताया गया है.
इराक़ी वकीलों का कहना है कि ज़ैदी के ख़िलाफ़ विदेशी मेहमान के अपमान का आरोप लगाया जा सकता है जिसमें अधिकतम दो वर्ष की सज़ा का प्रावधान है.
मुंतज़िर ज़ैदी काहिरा स्थित टीवी चैनल अल बग़दादिया के रिपोर्टर हैं और जूते चलाने की घटना के बाद अरब जगत में उनकी छवि एक हीरो जैसी हो गई है.
जूते फेंकते वक़्त ज़ैदी ने कहा, "कुत्ते, इराक़ी जनता की ओर से ये रहा आख़िरी सलाम." ज़रगाम ज़ैदी ने कहा कि मुंतज़िर ने इस काम के लिए नए इराक़ी जूते ख़रीदे थे.
ऐसा नहीं है कि इराक़ में सभी लोग उनकी वाहवाही ही कर रहे हों, बग़दाद में इराक़ी पत्रकार एसोसिएशन ने मुंतज़िर की हरकत को 'ग़ैर-पेशेवराना और अजीबोगरीब' बताया है लेकिन प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी से अपील की है कि उनके साथ नरमी से पेश आएँ.
पत्रकार एसोसिएशन के प्रमुख मुयाद अल लामी ने कहा, "अगर उससे ग़लती हो भी गई तो सरकार और न्यायपालिका को उनकी रिहाई पर विचार करना चाहिए क्योंकि वे एक पारिवारिक व्यक्ति हैं."
मुंतज़िर ज़ैदी पिछले तीन वर्षों से अल बग़दादिया के पत्रकार रहे हैं, उनके चैनल के प्रमुख ने कहा, "ज़ैदी एक खुद्दार अरब और खुले दिमाग़ वाले नौजवान हैं. उनका पिछले शासक से कोई संबंध नहीं है, बल्कि सद्दाम हुसैन के कार्यकाल में उनके परिवार को गिरफ़्तार किया गया था."
पिछले साल नवंबर में ज़ैदी का अपहरण कर लिया गया था, तीन दिन बाद उन्हें अपहर्ताओं ने बिना किसी फिरौती के छोड़ दिया था.
अपहर्ता कौन थे यह पता नहीं चल सका, उन्होंने उनसे लगातार पूछताछ की और उनकी पिटाई भी की.
अमरीकी सैनिक अधिकारी भी इससे पहले उनसे एक बार लंबी पूछताछ कर चुके हैं
बीबीसी हिन्दी सेवा

युवा पत्रकार सौम्या विश्वनाथन का हत्यारा कौन!

आखिरी सलाम..... ऋषि कुमार सिंह

25 वर्षीय युवा पत्रकार सौम्या विश्वनाथन की हत्या काफी दुखद है। यह हत्या राजधानी के सुरक्षा इंतजामों पर कई प्रश्न खड़े करती है। देश की राजधानी में ही महिलाएं सुरक्षित नहीं तो देश के सुदूर इलाकों महिलाओं की सुरक्षा की बात बेईमानी सी जान पड़ती है। महिलाओं से जुड़े अपराधों के लगातार होने के बावजूद पुलिस ने कोई खास कदम नहीं उठाए। जैसे कि खबरें आ रही हैं कि एक रिक्शा चालक ने पुलिस को फोन कर सड़क दुर्घटना की जानकारी दी थी। जबकि देर रात पुलिस की पेट्रोलिंग वैन कहां का दौरा कर रही थी। बसंत कुंज इलाके में साढ़े तीन बजे ऐसा कोई ट्रैफिक नहीं रहता। अगर जरा सी सावधानी रखी जाए हर आने जाने वाली गाड़ियों पर नजर न रखी जा सकती है। गौरतलब है कि बसंत कुंज जाने वाला रास्ता काफी सुनसान सा रहता है। दरअसल दिल्ली पुलिस इतनी लापरवाह हो चुकी है कि इस पर चाहे आतंक से सबक सीखने की जिम्मेदारी हो या महिलाओं की सुरक्षा के लिए चौकस रहने की बात,अब कोई असर नहीं पड़ता। रही दोषियों को सजा दिलाने की बात तो इस देश की पुलिस को जिस तरीके भर्ती किया जाता है और प्रशिक्षण दिया जाता है,उसके बल पर यह सिर्फ कहानियां सुनाकर झूठे मुजरिमों को पैदा कर सकती है। 1861 के मैन्युअल के आधार पर गठित भारतीय पुलिस बदलते समाज की जरूरतें पूरी नहीं कर सकती है। यही कारण है कि पुलिस से दोषी छूटते हैं और ऐसे दोषी अपने पीछे कई लोगों को वैसा ही अपराध करने के लिए प्रेरित करते हैं। पुलिस जांच के दौरान कितनी मुस्तैदी दिखाती है,दोषियों को सजा मिलने के साथ ही तय हो पाएगा। भले ही इस देश ने महिला राष्ट्रपति तो चुन लिया हो,चांद पर पहुंचने की तैयारी में हो लेकिन यह देश की अपनी आधी आबादी को सुरक्षित जीवन देने में नाकाम रहा है।पनिहारन की तरफ से अपने इस युवा पत्रकार के खोने पर शोक व्यक्त करता हूँ। और न्याय दिलाने के लिए संघर्ष का साथी बनने का भरोसा दिलाता हूँ।
सौम्या के हत्यारों को गिरफ्तार करो ! - रितेश
मित्रों,
सौम्या विश्वनाथन नहीं रहीं. ईमका के ग्रुप मेल पर कभी-कभार जूनियरों का उत्साह बढ़ाने वाले उनके मेल ही यादों के नाम पर मेरे पास हैं.
पता नहीं, किन हालातों में उनकी हत्या की गई लेकिन पुलिस की लापरवाही का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि पोस्टमार्टम से पहले तक उसे पता ही नहीं चला कि सौम्या जी को गोली मारी गई है.
जिस समाचार संगठन में वो काम करती थीं, उसने दूसरे समाचार संगठनों के साथियों को बुलाकर हत्या का सच सामने लाने की कोशिश करने की बजाय उस खबर को तब तक दबाए रखने की कोशिश की जब तक कि दूसरे चैनल ने उसे "ब्रेक" नहीं कर दिया.
सौम्या जी नहीं लौट सकतीं. लेकिन सच सामने लाने के पेशे से जुड़े लोगों के सामने वो एक सवाल तो छोड़ ही गई हैं कि अगर वो किसी कॉल सेंटर की कर्मचारी होतीं या किसी दूसरे पेशे से जुड़ी होतीं तो क्या खबरों की दुनिया उनकी हत्या को इतने हल्के से ही लेता. ये सिर्फ दुखद और सदमा नहीं है, अफसोसजनक भी है.
ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दे और पुलिस को इतनी बुद्धि दे कि वो आपके हत्यारों को पकड़ सके।

पत्रकारों व गैर पत्रकारों को ३० प्रतिशत अंतरिम राहत

डा.मान्धाता सिंह

अखबारों व समाचार एजंसियों के पत्रकारों व गैर पत्रकारों को ३० प्रतिशत अंतरिम राहत को न्यायमूर्ति के। नारायण कुरूप की अगुवाई वाले वेजबोर्ड ने मंजूरी दे दी है। न्याय मूर्ति कुरूप की अध्यक्षता में शनिवार २८ जून को हुई बैठक यह फैसला काफी जद्दोजहद के बाद आमराय से नहीं बल्कि मतदान के जरिए हुआ। इस संस्तुति के मुताबिक मूल वेतन का ३० प्रतिशत अंतरिम राहत के तौर पर दिया जाएगा जो ८ जनवरी २००८ से लागू माना जाएगा। अब इसे केंद्रीय श्रम व रोजगार मंत्रालय को सौंपा जाएगा। मतदान में कर्मचारियों के प्रतिनिधियों और स्वतंत्र सदस्यों ने ३० प्रतिशत अंतरिम दिए जाने के पक्ष में मत दिया। एक प्रतिनिधि बैठक से नदारद था।

जो संस्तुति वेजबोर्ड ने दी है उससे भी ट्रेड यूनियन नेता खुश नहीं हैं। ट्रेड यूनियन नेताओं ने इसमें और वृद्धि किए जाने की मांग करते हुए ३० प्रतिशत अंतरिम दिए जाने को अपेक्षा से कम बताया है। ट्रेडयूनियन नेता एमएस यादव और सुरेश अखौरी की दलील है मंहगाई ११।४२ प्रतिशत पर पहुंच चुकी है और इससे पत्रकार व गैर पत्रकार भी परेशान हैं। अंतरिम में वृद्धि के लिए ट्रेड यूनियन कंफेडरेशन के नेता जल्द ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, केंद्रीय श्रममंत्री आस्कर फर्नांडीज और वामपंथी नेताओं से मिलेंगे। नेताओं ने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय बछावत वेतन बोर्ड ने ७।५ प्रतिशत अंतरिम के मंजूरी दी थी जिसे बढ़ाकर १५ प्रतिशत किया गया था। इसी तरह मणिसाना बोर्ड ने २० प्रतिशत अंतरिम की मंजूरी दी थी जिसमें १०० रुपए अतिरिक्त जोड़ा गया। इसी आधार और बढ़ती मंहगाई के मद्देनजर अंतरिम में वृद्धि की मांग की गई है। ट्रेड यूनियन कंफेडरेशन में इंडियन जर्नलिस्ट यूनियन, आल इंडिया न्यूजपेपर इंप्लाइज फेडरेशन, नेशनल यूनियन आफ जर्नलिस्ट (आई), दी फेडरेशन आफ पीटीआई इंप्लाइज यूनियन और यूएनआई वर्कर्स यूनियन शामिल हैं। (स्रोत-पीटीआई व हिंदू समाचार पत्र से साभार)

बग्गा जी कहते हैं उर्फ़ रियल पत्रकार की छवि

मैं जिस संस्थान में काम करता हूँ वहाँ एक बग्गा जी हैं जितेन्द्र बग्गा। क्राइमरिपोर्टर हैं . मेरे बारे में अक्सर वह कहतें हैं की विजय रियल पत्रकार लगता है. बिल्कुल दबा कुचला, पैर में चप्पल पहने जनता की बात कराने वाला. वो ये बात मेरे लिए क्यों कहतें हैं मुझे पता है और यह मेरे लिए नया भी नहीं है. इससे पहले मैं भाषा में भी कुछ दिन रहा. वंहा के संपादक कुमार आनंद को भी मेरी यह छवि पसंद नहीं आई. उन्हों ने इसे कस्बाई पत्रकाओं वाली छवि करार दिया. उनके सामने भी जब मैं पहली बार गया था तो बिल्कुल उसी गेट अप जैसे मैं हमेशा रहता हूँ. शर्ट बाहर किए, पैर में चप्पल पहने और पार्टी कांग्रेस में मिला जुट वाला बैग लिए हुए. संपादक महोदय ने इसे कस्बाई छवि वाला पत्रकार का नाम दिया और साथ ही हिदायत भी की यह नही चलेगा. खैर मेरी यह छवि संसद मार्ग पर बने उस बड़े से आफिस से बिल्कुल ही मेल नहीं खाता था. लेकिन हरकतों में बहुत बदलाव नहीं आया और मुझे वंहा आगे काम कराने का मौका भी नहीं मिला. मौजूदा संस्थान के संपादक से मैं पहली दफा बिल्कुल उसी गेट अप में मिला बात करते करते वह कई बार मुझे ऊपर से निचे तक देखें. मेरे झोले को देखें. इसलिए जब बग्गा जी यह बात कहते हैं तो मुझे कतई यह बुरा नहीं लगता. बस कुछ सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ की वास्तव में रियल पत्रकार की छवि क्या उसके कपडे और चप्पलें तय करतीं हैं. फ़िर मैं आपने ब्लॉग को खोलकर उन पत्रकारों की कहानी पढता हूँ जिन्हें पुलिस माओवादी बता कर गिरफ्तार किया है. क्या उनकी भी यही छवि रही होगी. आख़िर आज आदमी का गेट अप क्यों यह तय कराने लगा है की वह कैसा होगा. आज जब हम आम आदमी की बात करतें हैं तो आधिकंश लोगों इसे आजिब तरह से लेतें हैं. इस बने बनाये खाके से अलग हट कर कुछ करना चाहों तो यह व्यवस्था तुरंत आपको मावोवादी या नक्सली करार देती हैं. मीडिया में आकर कई अच्छे लोग भी मज़बूरी में या व्यवस्था से न लड़ पाने के कारन उसी के होकर रह जातें हैं. लेकिन अभी भी कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस व्यवस्थ में रह कर भी इससे लड़ रहें हैं और ख़ुद को जिंदा रखें हैं. मेरे सामने एक इसे भी पत्रकार का उदाहरण हैं. अनिल चमडिया ऐसे ही एक पत्रकार हैं जो शायद आने वाली पीढ़ी के हम जैसे युवा पत्रकारों का आदर्श बन सकतें हैं. जो ख़ुद भी ऐसे तमाम अनुभवों से गुजारें हैं. उनके यह अनुभव ही मुझमे यह सहस भरतें हैं की व्यवस्था से लड़ना कठिन तो है नामुमकिन नहीं. इसके लिए बस तय करना होगा की आप किस तरफ़ बहना चाहतें हैं नदी के साथ या उसके विपरीत.