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किस ओर जायेगी भाजपा

शाहनवाज आलम
पिछले दिनों भाजपा की कार्यकारिणी बैठक में लोकसभा चुनाव की समीक्षा पर जिस तरह की वैचारिक अराजकता दिखी उससे 14वें लोकसभा की हार के बाद उत्पन्न स्थितियों की यादें ताजा हो गई हैं। भाजपा इस बार भी पिछली बार की तरह ही अपनी हार की सही समीक्षा करने और भविष्य की दिशा तय करने में नाकाम साबित हुई है। इस बार भी उसके एक धड़े ने हार का कारण हिंदुत्व से विमुख होना माना और फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटने पर जोर दिया तो वहीं दूसरे धड़े ने हिंदुत्ववादी अपील को ही चुनावी हार की वजह बताते हुए हिंदुत्व से दूरी बनाने की वकालत कर डाली। इस तरह मु य विपक्षी दल की कार्यकारिणी बैठक में अपनी हार की वजहें और भविष्य की दिशा को लेकर दो धुर विरोधी व्या याओं के साथ समाप्त हुए। लेकिन क्या ये अंतरविरोधी व्या याएं भाजपा जैसी कथित अनुशासित पार्टी के अंदरूनी अराजकता और पार्टी पर सवोüच्च नेतृत्व की कमजोर पकड़ का परिणाम है या बदले हुए राजनीतिक सामाजिक परिदृश्य में यह उसकी नियति बन गई है। अगर पिछले एक दशक के भाजपा की राजनीति पर नजर दौड़ाई जाए तो दूसरा मूल्यांकन ही ज्यादा सटीक लगता है।दरअसल भाजपा आज दो तरह की पृष्ठभूमि और कार्यशैली वाले लोगों का मंच बन गई है। एक तरफ स्वप्न दास, सुधीर कुलकणीü, जसवंत सिंह और यशवंत सिन्हा जैसे गैर संघी पृष्ठभूमि से आने वाले नेता हैं। जो कई मुद्दों पर जिसके लिए संघ परिवार जाना जाता है, भिन्न मत रखते हैं और भाजपा को किसी भी दूसरी पार्टी की तरह ही भारतीय लोकतंत्र की एक और सामान्य पार्टी मानते हैं। तो दूसरी ओर खांटी संघी पृष्ठभूमि के लोग हैं जो भाजपा को संघ के हिंदूराष्ट्र के एजेंडे को लागू करने का राजनीतिक हथियार मानते हैं। कार्यकारिणी की बैठक से पहले चुनाव में हार की समीक्षा न होने का आरोप पार्टी नेतृत्व पर पहला धड़ा ही लगाता रहा है। उसी ने मीडिया में संघ और हिंदुत्व के एजेंडे को हार का सबब बताते हुए लेख और पत्र जारी किए। इस धड़े को विश्वास था कि किसी भी सामान्य पार्टी की तरह भाजपा में भी हार के कारणों पर ग भीर समीक्षा हो सकती है। जबकि दूसरा धड़ा इस तरह के किसी समीक्षा का न तो पक्षधर है और न ही इसे वो जरूरी मानता है क्योंकि उसकी ट्रेनिंग ही इस तरह हुई है कि वो हार-जीत से बिना विचलित हुए भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए खटते रहना अपना धर्म मानता है।यह दूसरा खांटी संघी धड़ा ही चुनाव समीक्षा की मांग करने या हिंदुत्व से दूरी बनाने की वकालत करने वालों पर भाजपा का कांग्रेसीकरण करने का आरोप लगाता रहा है। यहां कांग्रेसीकरण का मतलब गैर हिंदुत्ववादी या सेकुलर सवालों जैसे विकास आदि को उठाने से है। यह धड़ा जानता है कि अगर भाजपा इन मुद्दों को उठाएगी तो उसमें और कांग्रेस में फर्क मिट जाएगा जिसके बाद भाजपा का अस्तित्व खटाई में पड़ना तय है। कार्यकारिणी की बैठक में यही वैचारिक टकराव खुलकर सामने आ गया। जिसके चलते पार्टी न तो अपने वर्तमान का मूल्यांकन कर पाई और न ही भविष्य के एजेंडे को तय कर पाई कि उसे अगले पांच वर्ष तक विपक्ष में बैठकर करना क्या है। ठीक ऐसी ही ऊहापोह की स्थिति 2004 के चुनावों में हार के बाद भी उपजी थी। एक तरह से भाजपा पिछले पांच सालों में मानसिक तौर पर जहां की तहां पड़ी हुई है और यह उसकी नियति भी है, क्योंकि दोनों में से किसी एक धड़े के एजेंडे पर बढ़ना उसके लिए आत्मघाती होगा। अगर वो हिंदुत्व से विमुख होने की कोशिश करती है तो उसे अपने पार परिक जनाधार से हाथ धोना पड़ेगा और अगर शुद्ध हिंदुत्ववादी नारों की तरफ लौटती है तो उससे जुड़ा नया मध्यवर्ग भाग जाएगा।ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि भाजपा इस बार भी विपक्ष में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकती। दरअसल संसदीय प्रणाली जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की ही समान रूप से महत्वपूर्ण भूमिका होती है, भाजपा जैसी फासिस्ट पार्टी के मिजाज के ही अनुरूप नहीं है। इसलिए एनकेन प्रकारेण सत्ता में पहुंच कर वो अपने गुप्त एजेंडे को तो लागू कर सकती है लेकिन भाजपा के लिए विपक्ष की भूमिका, खासतौर से अगर सत्ता पक्ष गैर सा प्रदायिक मुद्दों और आम आदमी के साथ होने की ल फाजी कर सत्ता में आई हो तो और भी दुरुह हो जाती है। इसलिए हमने देखा कि 2004 में सत्ता से हटाए जाने के बाद भाजपा आम आदमी के रोजमर्रा के किसी भी मुद्दे पर संप्रग को सड़क या संसद में घेरने के बजाय राष्ट्रपति के सामने सरकार के खिलाफ ज्ञापनों की झड़ी लगाती रही। उसे मालूम था कि आम आदमी से जुडे़ और गैर हिंदुत्वादी मुद्दों पर बोलने से जनता उसके इर्द-गिर्द नहीं आने वाली क्योंकि उसके और उसके द्वारा तैयार की गई जनता के बीच के रिश्ते की बुनियाद ऐसे मुद्दे नहीं हैं। इसलिए उसने एक तरफ तो संसदीय लोकलाज के चलते महंगाई और किसानों की आत्महत्या जैसे मुद्दों पर ज्ञापन सौंपकर अपनी जि मेदारी से बच निकलने की कोशिश की तो वहीं दूसरी ओर अपनी प्रासंगिकता और जनाधार बनाए रखने के लिए उसने रामसेतु और श्राइन बोर्ड जैसे हिंदुत्ववादी एजेंडे पर सरकार को घेरने के लिए संसद और उसके बाहर नाकाम कोशिशें कीं।दरअसल एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका कैसे निभाई जा सकती है, भाजपा के पास न तो इसका कोई इतिहास है और न ही अनुभव। अगर उसके पूर्ववतीü संस्करण जनसंघ के इतिहास को भी खंगालें तो उसमें कभी विपक्ष में रहते हुए आम जनता के मुद्दों को उठाने के नजीर नहीं मिलेंगे। उस समय भी उसके लिए देश के सबसे ज्वलंत सवाल गो हत्या और मुसलमानों की बढ़ती आबादी ही थी। उनके अटल-आडवाणी सरीखे पितामह भी इस मामले में अनुभव शून्य हैं। ऐसे में अगर कार्यकारिणी की बैठक में सतह पर आ गई अराजकता और ऊहापोह की स्थिति भाजपा में स्थायी स्वरूप लेकर उसे अगले पांच वर्षों तक मु य विपक्षी दल के बतौर अप्रासंगिक बना दे तो आश्चर्य नहीं होगा।
शाहनवाज़ स्वतंत्र पत्रकार हैं।
कार्टून - अभिषेक

किले में लगती सेंध

संतोष सिंह
पन्द्रहवी लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के साथ ही मायावती के सोशल इंजीनियरिंग के दावे की पोल खुल गई कि जिस सर्वजन के सहारे वे दिल्ली की तैयारी कर रहीं थी महज उसने दो साल में उनका साथ छोड़ दिया। तो वहीं बहुजन का उनके कथित दलित आंदोलन जो मूर्तियों की स्थापना से लेकर दलित की बेटी को प्रधानमंत्री बनाने तक सीमित रह गया था, से उसका मोहभंग होने की शुरुआत इस चुनाव ने कर दी। जिसका खामियाजा सष्टांग दंडंवत होने वाले यूपी के नौकरशाहों को चुकाना पड़ रहा है। तो वहीं जिन बाहुबलियों को वे गरीबों का मसीहा बता रहंी थी उनको भी इस चुनावी दंगल में जनता ने नकार दिया। हालांकि आज उनकी ही हाथी की सवारी कर सबसे ज्यादा बाहुबली अबकी बार भी यूपी से संसद में पहुंचे। गौरतलब है कि मई 2007 विधान सभा चुनाव के बाद बसपा केंद्रिय सत्ता के मजबूत दावेदार के बतौर उभरी। लेकिन दो वर्षों के कार्यकाल में ही उनकी सत्ता की खामियां उजागर हो गई और चुनावी वादों की पोल खुल गयी। जिन गंुडों की छाती पर चढ़ने की बात वह कल तक कर रही थीं उन्हीं गंुडो को अपने हाथी का ऐसा महावत बना दिया कि उसकी पूछ थामे जनाधार ने उसे छोड़ दिया। पूर्वांचल में चुनाव जीतने व सपा को कमजोर करने के लिए मायावती ने अंसारी बंधुओं को चुनाव लड़ाकर मुस्लिम कार्ड खेलने का प्रयास किया। गणित तो ये थी कि सपा से मुस्लिमों को दूर कर दलित-मुस्लिम-ब्राहमण त्रिकोण बनाया जाय। पर पासा चैपट हो गया। जिसका फायदा भाजपा को पहुंचा, क्योंकि संघ ने इसको बडे़ पैमाने पर प्रचारित प्रसारित किया। और वोटों का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करवाया जिसका फायदा लोकसभा चुनाव में उसे मिला। पूर्वांचल के अंदर उभरे नये जातीय समीकरण ने जहां सपा की सिट्टी-पिट्टी बंद कर दी वहीं बसपा के खोखले दावों की हवा निकाल दी क्योंकि मायावती अपने वोटरों से पहले मतदान उसके बाद शादी विवाह के शिगूफे उनके बीच छोड़ती थी यानी दलित समाज के लोग वोट की कीमत पहचाने और बसपा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। लेकिन दलित समाज ने मायावती के इस नारे को शायद इस बार ठीक से समझा। जिनकी नाराजगी का पता उत्तर प्रदेश की सुरक्षित सीटों से हो जाता है जहां 17 लोकसभा सीटों में से दस पर सपा, दो-दो पर भाजपा- कांग्रेस और एक सीट पर रालोद का कब्जा हुआ यानी मायावती के खाते में सिर्फ दो सीटें गयी। दलित समाज जो बसपा का परंपरागत वोटर है उसने नए समीकरण में अपने को छला हुआ महसूस किया और धारा के विपरीत चलने की शुरुवात की।
द्वितीय चरण के चुनाव के दौरान जौनपुर लोकसभा क्षेत्र में इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रत्याशी बहादुर सोनकर की हत्या हो गयी। जिसका आरोप बसपा के बाहुबली प्रत्याशी धनंजय सिंह पर लगा। लेकिन सत्ता की हनक के कारण हत्या को आत्म हत्या में तब्दील करवा दिया गया। भले ही धनंजय ने सत्ता की हनक और गुंडई के बल पर जौनपुर सीट जीत ली। लेकिन इस हत्या से उभरे आक्रोश के कारण दलितों के एक बड़े वर्ग ने हाथी की सवारी छोड़ दी जिसका असर जौनपुर की आस-पास की सीटों जैसे मछलीशहर, इलाहाबाद, प्रतापगढ़, फतेहपुर, कौशाम्बी समेत दर्जनो सीटों पर पड़ा। इलाहाबाद सीट के करछना विधान सभा के भुंडा गांव में मतदान के दिन खटिकों को बसपा के पक्ष में मतदान करने के लिए दबाव डालने पर, प्रतिक्रिया स्वरुप खटिकों ने ब्राहमण भाईचारा समिति के अध्यक्ष अक्षयवर नाथ पाण्डे को पीट-पीट कर सूअर बाड़े में बंद कर दिया और नंगा कर भगा दिया। बहरहाल 90 के बाद जो अस्मितावादी राजनीति प्रमुखता से उभर कर सामने आई वह ब्राहमण-क्षत्रियों के समानांतर खड़े होेने की थी। विभिन्न जातियों के नेताओं ने अपनी-अपनी जातियों का प्रतिनिधित्व किया। मायावती की इस अस्मितावादी राजनीति में दलितों के भीतर एक खास जाति को प्रतिनिधित्व मिला। लेकिन दलितों के अंदर पासी, खटिक, कोल, धोबी आदि जातियों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला। जिसका असर बीते लोकसभा चुनाव में साफ दिखा कि सुरक्षित सीटों को भी बसपा नहीं जीत पायी।मायावती ने विधान सभा चुनाव में सर्वजन का शिगूफा छोड़ा था। इस चुनाव से उत्साहित मायावती लोकसभा चुनावों की तैयारियों में जुट गयीं और बड़े पैमाने पर ब्राहमण-मुस्लिम भाई-चारा कमेटियों का गठन किया। जो सत्ता से उपेक्षित जातियों को नागवार लगा। वहीं बसपा मंे जिन दलित जातियों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला वे प्रतिक्रिया स्वरुप कांग्रेसी खेमें में चली गयी। जिसका बसपा को लोकसभा चुनाव मंे खामियाजा भुगतना पड़ा।बहरहाल चुनावी पंडितों के सभी आकलन पर विराम लगाते हुए बसपा-सपा कांग्रेसी खेमें में शामिल हो गयीं। वजह साफ है दोनों को सीबीआई से अपने आप को बचाना है लेकिन दोनों पार्टियों के साथ जो तबका खड़ा है क्या वह इन पार्टियों के साथ खड़ा रहेगा अथवा और कहीं चला जाएगा यह यक्ष प्रश्न अभी बना हुआ है।

पंजाब में लगी आग : एक कड़वी सच्चाई


नवीन कुमार ‘रणवीर’

24 मई 2009 रविवार को ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना में डेरा सचखंड बल्लां वाला के संत निरंजन दास और संत रामानंद पर हुए हमले की प्रतिक्रिया 25 मई को भारत के पंजांब, हरियाणा और जम्मू में दिखी। जिसका हर्जाना लगभग पूरे उत्तर भारत को उठाना पड़ा। पंजाब के रास्ते जानें वाले सभी मार्ग रेल और सड़क बंद, काम-धंधे बंद, कई जगह आगजनी, विरोध प्रदर्शन, तोड़-फोड़, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया गया, कई बसे, ट्रेनें यहां तक की एटीएम तक को आग भीड़ ने आग के हवाले कर दिया। टेलीविजन पर खबरें आ रही थी की विएना में एक गुरुद्वारे में हुए हमले के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं, लोग समझ रहें थे कि गुरुद्वारे पर हमला विएना (ऑस्ट्रिया) में हुआ है फिर ये लोग यहां क्यों प्रदर्शन कर रहे है? और एक बात प्रदर्शन करनें वालों में सिखों की संख्या का अनुपात भी कम नजर आ रहा था, कारण क्या है कुछ समझ में नहीं आ रहा था। शायद बात को मीडिया बंधु सही तरह से समझ नहीं पाए थे कि बात आखिर हुई क्या है। दरअसल ऑस्ट्रिया के विएना में जो गुरुद्वारा सचखंड साहिब है वो किस प्रकार अन्य गुरुद्वारों के भिन्न हैं, पंजाब के डेरों में डेरा सचखंड साहिब बल्लां रामदासियों और रविदासियों(आम भाषा में यदि हम कहें तो चमारों) का का डेरा कहा जाता है।डेरा सच खंड की स्थापना 70 साल पहले संत पीपल दास ने की थी। पंजाब में डेरा सच खंड बल्लां के करीब 14 लाख अनुयायी हैं।वैसे तो पंजाब में 100 से ज्यादा अलग-अलग डेरें हैं, पर डेरा सच के अनुयायियों में ज्यादा संख्या में दलित सिख और हिंदू है। पंजाब में दलितों की आबादी लगभग 34 प्रतिशत है। रविदासिए मतलब भक्तिकाल के महान सूफी संत रविदास के अनुयायी। जिन्होनें की जाति-व्यवस्था के विरुद्ध समाज की कल्पना की थी। सिख धर्म के कई समूह डेरा संस्कृति के खिलाफ रहे हैं। क्योकिं इन डेरों के प्रमुख खुद को गुरु दर्शाते हैं। फिर इनके डेरों में गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश क्यों होता है। यहां सवाल ये भी खड़ा होता हैं कि निरंकारी, राधा-स्वामी ब्यास, डेरा सच्चा सौदा और न जानें कितनें ही ऐसे डेरे हैं जहां के गुरु सिख ही हैं, और वे भी गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी को ही अपनें सत्संग में बाटंतें है। या शायद ऐसा हैं कि समाज में उच्च वर्गों के द्वारा चलाए जानें वाले डेरों से सिख के किसी समूह को परेशानी नहीं है लेकिन निम्न वर्गों जिन्हें कि सिख धर्म में तिरस्कार झेलना पड़ा हो, उनके डेरों से ही सिख धर्मावलंबियों को ऐतराज है। अब समझ में ये नहीं आता की ऐतराज सभी डेरों के प्रमुखों से है जो कि खुद को गुरु कहलाते हैं, या कि डेरा सच खंड से है? एक धड़े का ये भी मानना है कि वे संत रविदास को गुरु के रूप में मानते हैं इससे उन्हें ऐतराज है। सिख धर्म की स्थापना करते समय गुरु नानक देव जी ने सिख धर्म में जाति व्यवस्था कि कल्पना नहीं की थी, हिन्दू धर्म की कुरितियों से परे ही सिख एक अलग पंथ बना। परधर्मावलंबियों के आशीर्वाद से जातिवाद का दंश ऐसा बोया गया कि संत रविदास जैसों को जन्म लेना पड़ा। सिख धर्म में जातिवाद की टीस झेल रहे नीची जाति के सिखों रामदासिये, सिक्लीकर, बाटरें, रविदासिए सिख,मोगरे वाले सरदार,मजहबी सिख,बेहरे वाले,मोची,अधर्मी(आदि-धर्मी), रामगढ़िए, और न जाने कितनी दलित जातियों के लोगों को सिख धर्म ने भी वही कुछ दिया जो कि हिंदू धर्म में सवर्णों ने दलितों को दिया, सिर्फ यातना। क्यों जरूरत पड़ी की इतने डेरे खुले उसी पंजाब में जिसमें की अलग पंथ की नीव रखी गई थी इस उद्देश्य से, कि कोई ऐसा धर्म हो जो कि सभी लोगों को बराबरी का अधिकार दे, जिसमें वर्ण व्यवस्था का मनुवादी दंश न हो। जिसमें मूर्ति पूजा न हो, जिसमें गुरु वो परमात्मा है जो कि निराकार है, जिसका कोई आकार नहीं है। दस गुरुओं तक गद्दी चली दसेवें गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहां "सब सिख्खन को हुक्म है गुरु मानयों ग्रथ" मतलब अब कोई गुरु नहीं होगा गुरु ग्रथ साहिब ही गुरु होगी। लेकिन गुरुद्वारों में सिख जट्टों का वर्चस्व रहता देख, समाज के सबसे निचले वर्ग के लोगों को ने डेरों का सहारा लिया। कहनें को इन डेरों में सभी को समान माना जाता है। पर कई डेरों में पैसे वाले लोगों का वर्चस्व है और बहुतेरे ऐसे भी हैं जिनके अनुयायिओं में दलित और समाज में निम्न वर्ग के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। डेरा सच खंड भी उन्हीं में से एक है। सवाल अब भी वही है कि क्या डेरा सच खंड के प्रमुख संत निरंजन दास और उनके चेले संत रामानंद ने कोई ऐसा काम किया था जिससे की सिख धर्मावलंबियों को ऐतराज था ? क्या डेरा सच्चा सौदा सिरसा के प्रमुख गुरमीत राम-रहीम की भांति इन संतों के परिधानों में उन्हें गुरु गोबिंद सिंह की झलक दिखाई दे रही थी ? क्यों गोली मारी गई? क्या शिकायत थी? शायद विएना केगुरुद्वारे डेरा सचखंड बल्लां वाल में सिख गुरुद्वारों की तुलना में चढ़ावा अधिक आ रहा था। डेरा सच खंड बल्लां वाला के प्रमुख निरंजन दास आज तक घायल अवस्था में हैं औऱ उनके चेले और डेरे के उप-प्रमुख संत रामानंद की मृत्यु हो चुकी है। सिख के किसी समूह को शायद दलितों औऱ पिछड़ों के डेरों पर हमला करना आसान लगा होगा। या फिर जातिवाद के भयावह चेहरे में पंजाब की 34 प्रतिशत दलितों के आबादी का एक साथ होने की प्रतिक्रिया थी? जिन्हें की सिख समाज ने हमेशा तिरस्कृत किया चाहे वह भी सिख ही क्यों न हो। सवाल के पहलू क्या हैं ये सिख धर्म के पैरोकार जानते हैं और कोई नहीं।

जाएं तो जाएं कहां !

- दो राहे पर खड़ा राजस्थान का मुस्लिम मतदाता

- विजय प्रताप

राजस्थान में लोकसभा चुनावों टिकट बंटवारे से लेकर प्रचार तक में यहां के दोनों ही राष्ट्ीय दलों को जातिगत नेताओं के आगे नाक रगड़नी पड़ी। हांलाकि दलाल प्रवृत्ति के यह नेता अंततः राजनैतिक दलों से सौदेबाजी कर जनता के भरोसे व विश्वास की कीमत वसूल चुके हैं। पिछले वर्ष भाजपा के ‘ाासनकाल में हुए गुर्जर आंदोलन में 70 से अधिक गुर्जरों को पुलिस ने गोलियों से भून दिया। उस आंदोलन से चर्चा में आए कर्नल किरोडी लाल बैंसला आज उसी भाजपा की गोद में जा बैठे हैं। मीणा जाति के नेता किरोड़ी लाल मीणा भी अंत समय तक कांग्रेस से सौदे बाजी करते रहे। अन्ततः कांग्रेस ने उनके साथ के ज्यादातर विधायकों को अपनी तरफ मिला मीणा को ही अकेला छोड़ दिया।
इन सब के बीच राज्य का एक बड़ा वोट बैंक अल्पसंख्यक मुसलमान चुनाव के अंतिम क्षणों तक खामोश है। न तो उसकी तरफ से कोई ऐसा नेता निकल कर आया जो उसके लिए राजनैतिक दलों से मोलभाव करे और न ही इस समुदाय के बीच से कोई ऐसी आवाज उठी जो दोनों मुख्य दलों की नीतियों का विरोध करे। इस चुनाव में प्रदेश में कांग्रेस और बसपा को छोड़कर किसी भी राष्ट्ीय दल ने मुसलमान को टिकट नहीं दिया। प्रदेश के मुस्लिम हमेशा कांग्रेस के साथ रहे हंै, इसलिए कांग्रेस की भी मजबूरी है कि उसे खुश करने के नाम पर ही सही एक टिकट मुस्लिम उम्मीदवार को दे। सो उसने इस बार चुरू संसदीय सीट से रफीक मण्डेलिया को टिकट दिया है। बसपा ने नागौर से एक पूर्व कांग्रेसी मंत्री अब्दुल अजीज को टिकट दिया है। इसके अलावा दौसा आरक्षित सीट पर कश्मीरी गुर्जर मुसलमान नेता कमर रब्बानी चेची ने पर्चा भर कर वहां मुकाबला त्रिकोणात्मक कर दिया है। इन तीन सीटों के अलावा प्रदेश में कहीं भी कोई मुस्लिम उम्मीदवार मुकाबले में नहीं दिखता। साढ़े पांच करोड़ की आबादी वाले इस प्रदेश में मुसलमानों की आबादी करीब साढे़ आठ फीसदी है। बावजूद इसके चुनावांे में उसे हाशिए पर ढकेला जा चुका है। इसके पीछे कुछ अहम कारण हैं, जिनकी पड़ताल की जानी जरूरी है।
ऐसा नहीं की प्रदेश में मुसलमानों के पास कोई मुद्दा या सवाल नहीं। हां उनके मुद्दे पर सही ढं़ग से आवाज उठाने वाले नेताओं या संगठनों की कमी जरूर है। प्रदेश की द्विधु्रवीय राजनीति में यह विकल्पहीनता ही इस समुदाय को मजबूर करती है कि वो कांग्रेस या भाजपा में से किसी एक को चुन ले। ऐसे में मुसलमानों के सामने कांग्रेस के साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। इस लोकसभा चुनाव से भी ठीक पहले राज्य के 22 मुस्लिम संगठनों ने राजस्थान मुस्लिम फोरम के बैनर तले, संघ व उसकी सहोदर ‘ाक्तिओं को सत्ता से दूर रखने के नाम पर कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की है। हांलाकि कांग्रेस को समर्थन देने की मजबूरी को इस फोरम के नेता भी छुपा नहीं सके। फोरम के संयोजक कारी मोइनुद्दीन इसे मुश्किल किंतु राष्ट्हित का निर्णय बताते हैं। उनका कहना है कि प्रदेश में सांप्रदायिक तत्वों को सत्ता से दूर रखने का और कोई विकल्प नहीं है। कांग्रेस को बिना ‘ार्त समर्थन देने पर अपनी सफाई में कारी कहते हैं कि कांग्रेस को चुनने के पीछे कोई विशेष लगाव या कांग्रेस अच्छी पार्टी है जैसी कोई बात नहीं। हमारी कांग्रेस से भी लाखों शिकायते हैं। लेकिन उसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता इसलिए कांग्रेस को समर्थन देना एक राजनीतिक निर्णय है। फोरम में ‘ाामिल जामत-ए-इस्लामी हिंद के राज्य अध्यक्ष मोहम्मद सलीम इंजीनियर भी इसे ‘दर्दनाक खुशी’ कहते हैं। यह दर्द उभरे भी क्यों न। पिछले कुछ सालों में राज्य में भाजपा व संघ की सरकार ने उनके दिलों के घावों को और कुरेदा है। सलीम इंजीनियर बताते हैं कि ‘‘भाजपा ‘ाासनकाल में राज्य में 100 से अधिक छोटे-बड़े दंगे हुए। इस दौरान प्रदेश में न केवल मुसलमानों को बल्कि अल्पसंख्यक इसाई समुदाय को भी भय व असुरक्षा के साये में जीना पड़ा है। धर्म स्वातन्त्र बिल के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय की आजादी पर लगाम कसने की कोशिश की गई।’’ दरअसल राजस्थान में भी गुजरात की तर्ज पर भाजपा के माध्यम से राष्ट्ीय स्वयं सेवक संघ ने हर तरह से अपने एजेंडे को लागू करने की कोशिश की। संघ व उससे जुड़े संगठनों ने छोटी-छोटी घटनाओं को सांप्रदायिक रूप देकर अल्पसंख्यकों पर हमला किया। फरवरी 2005 में कोटा रेलवे स्टेशन पर आंध्र प्रदेश से किसी धार्मिक सभा में भाग लेकर लौट रहे 250 ईसाइयों पर बजरंग दल, भाजपा व संघ कार्यकत्र्ताओं ने हमला बोल दिया। इस घटना के बाद पीड़ितों की शिकायत दर्ज करने की बजाए पुलिस ने हमलावरों की तरफ से ही जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश का मामला दर्ज किया। उस समय राज्य के पुलिस महानिदेशक ए एस गिल के संघ से रिश्ते जगजाहिर थे। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले नवम्बर 2008 में जयपुर में श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने रही सही कसर पूरी कर दी। इसके बाद बड़े पैमाने पर मुसलमानों की गिरफ्तारियां हुई। जयपुर, कोटा, जोधपुर, सीकर, बूंदी व बारां जिलों से पचासों मुसलमान युवकों को एसटीएफ ने पूछताछ के नाम पर उठाया। उनके रिश्ते बांग्लादेशी संगठन हरकत-उल-जेहाद-ए-इस्लामी व इंडियन मुजाहिद्दीन के साथ बताए गए। पूछताछ के नाम पर उन्हें हफ्तों मानसिक प्रताड़ना दी गई। इसमें से करीब 27 युवक अभी भी जेल की सलाखों के पीछे अपना अपराध सिद्ध होने का इंतजार कर रहे हैं। जयपुर बम विस्फोट से पहले 2007 में अजमेर के ख्वाजा मुउनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के सामने हुए बम विस्फोट के मामले में भी पुलिस ने अपनी मानसिकता के अनुरूप कई मुस्लिम युवकों को उठाया। दो सालों तक संघ के साये में इसकी जांच चली। लेकिन कुछ दिन पहले ही यह खुलासा हुआ कि अजमेर विस्फोट में अभिनव भारत जैसे हिंदू आतंकवादी संगठन का हाथ था। राज्य की पुलिस ने अब इस दिशा में जांच ‘ाुरू कर दी है। संघ गुजरात के बाद राजस्थान को दूसरी प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किया। पिछले पांच सालों में राज्य में संघ ने अपना जबर्दस्त जाल फैलाया और वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से आदिवासी जातियों के बीच भी मुसलमानों व इसाई अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा का बीज बोया। मुसलमानों को यह सारी कसक रह-रह कर टीस देती है। इस दर्द को मुस्लिम मतदाताओं की बातों में भी महसूस किया जा सकता है। कोटा में रहने वाले राशीद वोट देने के सवाल पर कहते हैं कि ‘‘वोट देकर ही क्या होगा। कौन सी पार्टी मुसलमानों का भला चाहती है। चुनाव के समय हमे सभी अपना कहते हैं, लेकिन चुनाव बाद फिर से हमारे बेटों को आंतकवादी व पाकिस्तानी बताया जाने लगता है।’’ राशिद अपनी बातों में जयपुर बम धमाकों के बाद कोटा से उठाए गए लड़कों की तरफ इशारा कर रहे हैं। इन धमाकों के बाद कोटा से फर्जी गिरफ्तारियों पर यहां के मुस्लिम समुदाय प्रतिक्रियास्वरूप कई महीनों तक खुद को अलगाव में रखा। मुस्लिम धर्मगुरुओं ने मीडिया विशेषकर यहां के दो प्रमुख समाचार पत्रों का कई महीनों तक बहिष्कार किया। राज्य के अन्य जिलों में भी मुस्लमानों ने कुछ इस तरह अपना विरोध दर्ज कराया। जयपुर में बांग्लादेशी मजदूरों की गिरफ्तारियों व मुसलमानों को प्रताड़ित किए जाने पर जमात ए इस्लामी हिंद व अन्य संगठनों ने एक यात्रा निकालकर इस बंटवारे की राजनीति का विरोध किया। इस समय कांग्रेस का एक भी नेता खुलकर मुसलमानों के समर्थन में नहीं आया। अब जब कि चुनाव हो रहे हैं कांग्रेसी नेता इस बात को बेहतर तरीके से जानते हैं कि मुुसलमान उन्हें छोड़कर कहीं जा नहीं सकते, इसलिए उन्हें भी मुस्लिम हितों की कोई परवाह नहीं।
राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो राजस्थान का मुसलमान समुदाय उत्तर प्रदेश या बिहार की तरह खुशनसीब नहीं जो कांग्रेस या भाजपा से शिकायत होने पर किसी अन्य दल के साथ जाकर राजनीति में अपनी भागीदारी दर्ज करा सके या कुछ हासिल कर सके। राजस्थान के एक माक्र्सवादी नेता शिवराम कहते हैं कि यहां की परिस्थितियां इन राज्यों से भिन्न हैं। उत्तर प्रदेश या बिहार में मुस्लिम समुदाय के पास विकल्प है तो इसके मूल में वहां मंडल कमंडल आंदोलन का व्यापक प्रभाव है। इन दोनों राज्यों में बाबरी विध्वंस और उसके बाद पिछड़ी जातियों के आरक्षण आंदोलन ने न केवल मुसलमानों को बल्कि हिंदूओं के भी पिछड़े व दलित तबके को भाजपा व कांग्रेस की सांप्रदायिक व बंटाने वाली राजनीति से दूर ले गई। एक तरफ यह दूरी ऐसी जातियों को दूसरे विकल्पों की तलाश करने पर मजबूर किया तो दूसरी तरफ उनके और मुस्लिम समुदाय के बीच की दूरियों को भी कम कर दिया। इससे पहले तक भाजपाई व कांग्रेसी राजनीति का आधार हुआ मुसलमानों व हिंदूओं की बीच की यह दूरी ही सत्ता पाने की कुंजी हुआ करती थी। इसके बाद से इन राज्यों के मुस्लिम समुदाय के साथ भले ही छोटे दलों ने धोखा किया हो, लेकिन वह अभी भी कांग्रेस या भाजपा के साथ जाने पर मजबूर नहीं है।
मीडिया बार-बार कुछ धार्मिक मुस्लिम नेताओं के माध्यम से दिखाने की कोशिश करती है कि मुसलमानों के लिए बाबरी मस्जिद निर्माण या धार्मिक संरक्षण जैसे ही मुद्दे अहम हैं। लेकिन राजस्थान में आम मुसलमानों से बात करिए तो उनका यह कत्तई मुद्दा नहीं। उनके भी मुद्दे वही हैं जो एक हिंदू मतदाता का है न कि किसी कठमुल्ला मुस्लिम धर्मगुरू का। एक सेल्समैन का काम कर रहे 25 वर्षीय युवा आफताब कहते हैं कि उन्हें केवल उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार चाहिए। उनके लिए मस्जिद-मंदिर कोई मुद्दा नहीं है। बीबीए कर चुके आफताब को सेल्समैन का काम करना पड़ रहा है। वह चाहते हैं कि राज्य से बाहर दिल्ली या मुबंई जाकर किसी कंपनी में काम करे। लेकिन आतंकवादी घटनाओं के बाद धड़ाधड़ मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी से उनके माता-पिता आतंकित हैं। उनकी मां ‘ाबाना बेगम कहती हैं ‘‘ हम कम पैसों में भी गुजारा कर लेंगे। लेकिन अल्ला उसे सलामत रखे।’’ एक स्वयं सेवी संगठन में काम कर रहे अनवार अहमद कहते हैं कि ‘‘ सरकार किसी की भी बन जाए सभी हमे पिछड़ा ही रखना चाहते हैं। यही उनकी राजनीति का आधार है।’’ सच्चर कमेटी रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहते हैं कि उसमें हमारी सारी सच्चाई साफ हो गई। लोग कहते हैं हम मदरसों में इस्लामिक शिक्षा ले रहे हैं कितने मुसलमानों के बच्चे मदरसे जाते हैं? सरकारें तो हमें अनपढ़ ही रखना चाहती हैं ताकि वो आगे न बढ़ सके और उनके बारे में वह भ्रम फैलाती रहें। हांलाकि अच्छी सरकार के सवाल का उनके पास भी कोई विकल्प नहीं है। वह चाहते हैं सरकार चाहे जिसकी बने पिछड़े-गरीब तबकों को लाभ मिले क्योंकि गरीबी में हिंदू या मुस्लिम को कोई बंधन नहीं। कुल मिलाकर राज्य का मुस्लिम समुदाय दो राहे पर खड़ा है। एक रास्ता भाजपा व संघ के फासीवादी यातनागृह की ओर जा रहा है तो दूसरा रास्ता छद्म धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़े कांग्रेसी कैंप तक। यहां के मुस्लिम, उजले भविष्य का सपना संजोए वह अंधेरे रास्ते की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।

जंगल के बीच एक रात

विजय प्रताप

कोटा। दरा वन्यजीव अभयारण्य में एक बार फिर वन्यजीव गणना हुई। रविवार को खत्म हुई इस दो दिवसीय कार्रवाई में पैंथर और रीछ की मौजूदगी के संकेत मिले हैं। मांसाहारी जानवरों का कम दिखना हालांकि चिंता का मसला रहा, लेकिन जरख, जंगली सूअर, सियार, लोमडी, कबर बिज्जू, तीतर और जंगली बिल्ली के झुंड खूब नजर आए।वन विभाग ने बुद्ध पूर्णिमा की रात हुई वन्यजीव गणना में स्वयंसेवी संगठनों, शोध छात्रों व मीडिया को भी शामिल किया। इस पत्रिका संवाददाता ने पूरे दो दिन अभयारण्य में बिताने के बाद दिलचस्प मुहिम का लेखाजोखा खींचा। एक रिपोर्ट:

मैं शनिवार शाम 5 बजे तक दरा अभयारण्य में पहुंच गया था। 274 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले दरा अभयारण्य के 55 वॉटर पॉइंट्स (जहां जानवर पानी पीते हैं) पर वनकर्मी पहले ही "सेट" हो चुके थे। उप वन संरक्षक (वन्यजीव) अनिल कपूर ने क्षेत्रीय वन अधिकारी जयसिंह राठौड व कुछ अन्य पर्यावरण पे्रमियों के साथ दरा अभयारण्य में प्रवेश किया। इसी दल में मैं भी था। अधिकारियों ने पहले ही बता दिया था कि हर वॉटर पॉइंट पर दो वनकर्मी तैनात हैं। उन्हें अपने पॉइंट पर आने वाले जानवरों की संख्या व समय नोट करना था।

जंगल के कैसे-कैसे नियम

रास्ते में अनिल कपूर जंगली जानवरों के बारे में अहम बातें बताते रहे। मसलन पानी पीने के मामले में वन्यजीवन अघोषित "प्रोटोकॉल" का पालन करता है। शाम 5 से रात 8 बजे तक पहले शाकाहारी जानवर और उसके बाद मांसाहारी जीव पानी पीते हैं। शाम साढे पांच बजे हम बंदे की पाल पहुंचे। यहां कोई जानवर नहीं दिखा। 6-7 किलोमीटर चलने के बाद सांभर का झुंड नजर आया, जो गाडी की आवाज सुनते ही ओझल हो गया। इसके बाद जैसे-जैसे आगे बढे, चीतल, बंदर, मोर व नीलगाय के झुंड दिखते रहे। वॉटर पॉइंट से जरख, जंगली सूअर, सियार, लोमडी, कबर बिज्जू, तीतर व जंगली बिल्ली के झुंड देखे जाने की सूचनाएं मिलने लगीं। ... लेकिन हमारा मुख्य लक्ष्य तो पैंथर खोजना था!

एक गांव में एक निवासी

बंदे की पाल, झामरा चौकी होते हुए पथरीले रास्तों के बीच दल करीब 7 बजे लक्ष्मीपुरा चौक पहुंच गया। यहां वन विभाग के रेस्ट हाउस के पास जर्जर हालात में सात-आठ टापरियां नजर आइंü। पता चला कि इसी गांव को विस्थापित किया जाना है, तो उत्सुकतावश उन घरों में जा पहुंचा। 7 बजे ही यहां मानो रात पसर गई थी। आवाज लगाने पर 24 साल का एक युवक भोजराज बाहर आया। उसने बताया कि यहां के लगभग सभी परिवार दूसरे गांवों में जा चुके हैं। हालांकि मुआवजे की आस में उन्होंने अभी तक पुश्तैनी जमीन का कब्जा नहीं छोडा है।

सोया नहीं था सा"ब!

लक्ष्मीपुरा रेस्ट हाउस में चाय पीने के बाद हम रात करीब 8 बजे राम तलाई पहुंचे। गाडी की आवाज सुन कर एक वनरक्षक और एक लटधारी ग्रामीण आंखें मिचमिचाते हुए आए। डीसीएफ ने पूछा, "सो रहे थे क्याक्" जवाब मिला, "नहीं साब, जाग रहा था।" "कुछ दिखा क्याक्" "नहीं, अभी तो कुछ नहीं दिखा", वनरक्षक ने मुंह पोंछते हुए कहा। "सोओगे तो क्या दिखेगा", डीसीएफ बोले। "एक रात की बात है जगे रहो", डीसीएफ ने हिदायत दी और आगे बढ गए।पैंथर के निशान दिखेलक्ष्मीपुरा चौक रेस्ट हाउस पर कुछ घंटे रूकने के बाद सुबह का उजाला होने से पहले ही हम फिर रवाना हो चुके थे। सुंदरपुरा की चौक, बेवडा तलाई और राम सागर में वनरक्षकों ने भालू के पगमार्क दिखने की सूचना दी। सबसे सुखद खबर मिली कैथूनी कल्ला से। यहां वनरक्षक ने पैंथर का पगमार्क प्लॉस्टर ऑफ पेरिस पर जमा रखा था। कोलीपुरा रेंज के शेलजर से भी पैंथर के पगमार्क मिलने की सूचना मिली। रविवार शाम 5 बजे के बाद लौटे वनकर्मियों ने लक्ष्मीपुरा व मशालपुरा के बीच नारायणपुरा व गागरोन फोर्ट के पास गिद्ध कराई में भी पैंथर के पगमार्क दिखने की जानकारी दी।

ये जानवर दिखे

उप वन संरक्षक (वन्यजीव) अनिल कपूर ने बताया कि गणना समाप्त होने के बाद दरा व जवाहर सागर वन्यजीव अभयारण्य से 10 पैंथर, 13 भालुओं के अलावा 23 प्रजातियों के अन्य वन्यजीव देखे गए। इनमें चीतल, सांभर, काला हिरण, चिंकारा, भेडिया, लोमडी, जरख, जंगली बिल्ली व सूअर, गोह, गिद्ध, बंदर व मोर प्रमुख हैं।

साभार राजस्थान पत्रिका

आम चुनाव ऊर्फ ऐसा देश है मेरा

दुष्यंत

नहीं, ये किसी विशेषज्ञ की राय नहीं है, राजनीतिक राय तो हरगिज नहीं. आप चाहें तो इसे एक आम आदमी के नोट्स मान सकते हैं.बुनियादी परन्तु सतही बात से शुरू करुं तो राजस्थान में लोकसभा की 25 सीटें हैं, जिन पर 7 मई को मतदान होगा.पिछले लोकसभा चुनाव में 21 पर भाजपा जीती थी तो 4 पर कांग्रेस. इस बार भाजपा और कांग्रेस हर बार की तरह सभी सीटों पर चुनाव लड़ रहें हैं. बसपा की हवा इसलिए निकली हुई है कि सभी 6 विधायकों ने सत्तारूढ कांग्रेस में जाने का हाल ही में निर्णय ले लिया.खैर ये तो हुई सामान्य बात, अब कुछ अलग ढंग से देखा जाये, अपनी चार यात्राओं का सन्दर्भ लूंगा. एक महीने में अपने गृह क्षेत्र की दो यात्रायें, एक यात्रा मारवाड़-पाली क्षेत्र की और एक साल भर पहले की दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र की.मेरा गृह क्षेत्र है उत्तरी राजस्थान यानी गंगानगर और हनुमानगढ़ ..पाकिस्तान की सीमा से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर अपने खेतों को छूने की हसरत से गया. कोई पिछले ढाई दशक से जब से होश संभाला है, इस गाँव और खेत के मंजर को देखते आया हूँ. लोग कहते हैं बहुत कुछ बदला है. मुझे पता है, बदला तो बहुत कुछ...ऊँटों की जगह ट्रेक्टर आ गए. पहले फोन घरों में आये फिर हाथों में मोबाइल आ गए. पढी लिखी बहुंए आ गयी, हर घर में कम से कम एक दोपहिया फटफटिया ज़रूर है. कोई साढे तीन दशक पहले मेरे गाँव से तीन किलोमीटर दूर के पृथ्वीराजपुरा रेलवे स्टेशन से जो अंग्रेजों के जमाने का है; से मेरी मां दुल्हन के रूप में ट्रेन से उतरकर ही इस गांव तक आयी थी. मेरे बचपन में गाँव तक शहर से बस जाती थी, कोई पांच बसें. यही पांच वापिस लौटती थीं, सब की सब बंद हो गयी हैं. अब सिर्फ टेंपो चलता है, बिना किसी तय वक्त के, जब भर दिया तो चल दिया...! बचपन में जहां मेरे गाँव में बीड़ी और हुक्के के अलावा कोई चार पांच लोग शराब पीते होंगे, अब तरह-तरह के नशे युवाओं की जिन्दगी में शामिल हैं, जिन्होंने उन शराबियों को तो देवता-सा बना दिया दिया है. और ये हालत कमोबेश आसपास के हर गाँव की है. हमने तरक्की के कितने ही रास्ते तय किये हैं! मेरे पिता गाँव के जिस सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़े थे दसेक साल पहले वो मिडिल हो गया था. पर अब उसमें बच्चे नाम को हैं. मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आने वाले दो चार सालों में वो बंद हो जाये. सुना है उसमें मास्टर सरप्लस हैं. ये भी तरक्की है कि नाम के अंग्रेजी या पब्लिक स्कूलों में कम पढ़े-लिखे मास्टरों के पास बच्चों को भेजकर गाँव खुश है.
नरेगा है पर गाँव में भूख भी है। स्कूल है, पढाई है पर बेरोजगारी भी है। नयी पीढी ने खेत में हाथ से काम करना बंद कर दिया है , तीजिये चौथिये पान्चिये से ही काम होता है. भारत चमकता है जब सफ़ेद झक्क कुरते पायजामे में पूरे गाँव के लोग दिखते हैं. किसी की इस्त्री की क्रीज कमजोर नहीं है॥अद्भुत अजीब से आनंद हैं ॥ कागजी से ठहाके हैं...भविष्य कुछ भी नहीं पता. एक और बदलाव आते देखा है छोटे किसानों की ज़मीनों को कर्ज निपटाने के लिए बिकते और फिर उनको मजदूर बनते भी देखा है.. मुहावरे में कहूं तो कर्ज निपटाने में जमीन निपट गई और अब खुद भी कब निपट जाए, कौन जानता है? कर्ज से मुक्ति की चमक उनकी ऑंखों में ज्यादा है या कि ऑंखों के कोरों से कभी आंसू बनके टपकता अपनी ज़मीन जाने का दर्द बड़ा है ..मैं सोचता रहता हूँ.. वो भी आजादी का मतलब ढूंढते हैं शायद.मध्य राजस्थान का मारवाड़ का इलाका यूँ तो बिजी जैसे लेखक के कारण स्मृतियों में है पर इन सालों में कई बार जाना हुआ है... पाली के एक इंटीरियर इलाके में किसी पारिवारिक कारण से जाता हूँ. दूर तक हरियाली का नामों निशान नहीं. चीथड़ों में लोग दीखते हैं. जीप का ड्राईवर कहता है- साब यहाँ का हर गरीब सा दिखने वाला करोड़पति है..विश्वास नहीं होता. वो कहता है-हर घर से कोई न कोई मुंबई, सूरत या बैंगलोर नौकरी करता है...यहाँ खेती तो है नहीं साहब...! मुझे उसकी बात कम ही हजम होती है..क्योंकि मुनव्वर राणा का शेर कभी नहीं भूलता कि बरबाद कर दिया हमें परदेश ने मगर, मां सबसे कह रही है बेटा मजे में है दूर तक..या तो ये ड्राइवर उसी थव से कह रहा है या कि अपने लोगों की बेचारगी-मुफलिसी का मजाक नहीं बनने देता. दरअसल सच तो ये ही है ना कि दूर तक बियाबान है. किसी हड्डी की लकड़ी-सी काया पर ऊपर रखी हुई लोगों की आंखें किसी परदेसी की जीप का शोर सुनकर चमकती है..मैं उसमें साठ साल की आजादी का मतलब ढूंढता हूँ. जिस नज़दीक के रेलवे स्टेशन मारवाड़ जंक्शन पर उतरता हूँ और फिर जहाँ से वापसी में जोधपुर के लिए ट्रेन लेता हूँ, उसके अलावा कोई साधन नहीं है, ये भी बताया जाता है. कुल मिलाकर एक अलग भारत पाता हूँ.. जो जयपुर में बैठकर सचिवालय में टहलते, कॉफी हाउस में अड्डेबाजी करते, मॉल्स में शॉपिंग करते, हर हफ्ते एक न एक फिल्मी सितारे को शूटिंग, रिबन काटने, किसी की शादी या अजमेर की दरगाह के लिए जाते हुए की खबर पढते हुए सर्वथा अकल्पनीय है.
एक साल पहले बांसवाड़ा के घंटाली गाँव में आदिवासी संसार को देखने के अभिलाषा में गया था। सामाजिक कार्यकर्ता और कम्युनिस्ट नेता श्रीलता स्वामीनाथन मेरी होस्ट थीं.
इलाका जितना खूबसूरत लोग उतने ही पतले दुबले मरियल... अल्पपोषण के शिकार...खेती नाममात्र को॥आय का कोई जरिया नहीं..भाई आलोक तोमर की किताब एक हरा भरा अकाल के सफे जैसे एक-एक कर ऑंखों के सामने खुल रहे थे..कालाहांडी का उनका शब्दचित्र अपने राजस्थान में सजीव होते पाया। हरियाली वाह...अति सुन्दर पर लोगों का जीवन...बेहद मुश्किल .. हालाँकि जीने की आदत डाल लेना इंसानी खासियत भी है और मजबूरी भी, इंसान इन क्षणों में भी मुस्कुराने के अवसर खोज लेता है.
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विरासत बचने में जुटी वसुंधरा

विजय प्रताप
राजस्थान लोकसभा चुनाव में इस बार पूर्व मुख्यमंत्री और झालावाड़ लोकसभा सीट से पांच बार सांसद रह चुकी महारानी वसंुधरा राजे को अपनी परंपरागत सीट बचाए रख पाना मुश्किल हो रहा है। इस सीट से महारानी के पुत्र दुष्यंत चुनाव लड़ रहे हैं। दुष्यंत पिछली लोकसभा में भी अपनी मां की परंपरागत सीट से ही चुनाव जीत कर संसद पहुंचे थे, लेकिन इस बार परिस्थितियां कुछ बदली हैं। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को जबर्दस्त हार का मुंह देखना पड़ा था। इस पृष्टभूमि में हो रहे चुनाव में महारानी खुद दिन रात एक कर किसी भी कीमत पर यह सीट बचाए रखना चाहती हैं। उनकी परेशानी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है वह अपने बेटे को चुनाव जीताने के लिए पुराने दुश्मनों से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं। पिछले दिनों महारानी ने भाजपा के बागी गुर्जर नेता प्रहलाद गुंजल को वापस भाजपा में लाकर एक बड़ी सफलता प्राप्त की। हांलाकि वापसी से पहले गुंजल का राजनैतिक सफर भाजपा विरोध पर ही टिका था। गुर्जर आरक्षण आंदोलन के समय गुर्जरों पर गोली चलाए जाने की घटना से नाराज गुजंल ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। जिसके बाद मुख्यमंत्री वसंुधरा राजे ने उन्हें ज्यादा दिन बर्दास्त करने की बजाए उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। उसके बाद से प्रहलाद गुंजल अपनी हर सभा में भाजपा के लिए आग उगलते देखे गए। पिछले विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने भाजपा को हराने के लिए लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी का गठन कर कई नेताओं को चुनाव लड़ाया था। जीत एक भी सीट पर नहीं मिली लेकिन भाजपा को कई सीटों पर जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया। लोकसभा चुनावों में पहले उन्हें कांग्रेस ने कोटा लोकसभा सीट स से टिकट देने का भरोसा दिलाया। लेकिन प्रतिद्वंदी प्रत्याशी को देखकर कांग्रेस को अपना निर्णय बदलना पड़ा और टिकट मिला कोटा के पूर्व महाराज इज्यराज सिंह को। हर तरफ से ठुकराए जाने के बाद भी गुंजल ने हार नहीं मानी और तीसरे मोर्चे से भी टिकट की संभावनाएं तलाश की। लेकिन इससे पहले ही महारानी वसंुधरा राजे ने सही समय भांपकर उनके घावों पर मरहम लगाने उनके घर पहुंच गई। और दो साल से चल रहे गुंजल के इस ड्ामे का अंत ‘‘राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता’’ जुमले के साथ हुआ।आखिर महारानी को इतना पसीना क्यों बहाना पड़ रहा है, जबकि उनके बेटे के सामने एक कांग्रेस ने एक नौसिखिया नेता उर्मिला जैन को मैदान में उतारा है। दरअसल वसुंधरा राजे की तरह जैन के पीछे उनके पति प्रमोद जैन भाया की इज्जत दांव पर लगी है। यहां चुनाव जनता के मुद्दों पर नहीं बल्कि इज्जत और विरासत बचाने के नाम पर लड़ा जा रहा है। ऐसे में वसुंधरा की मुश्किल के कुछ ठोस कारण भी हैं। एक तो पिछले पांच सालों में यहां से सांसद दुष्यंत सिंह ने कोई भी ऐसा काम नहीं किया जिसे लेकर वह जनता के बीच जा सके। इस संबंध मंे दुष्यंत सिंह का कहना है कि केन्द्र में कांग्रेस सरकार ने दुर्भावना के चलते कोई ठोस विकास कार्य नहीं कराने दिया। लेकिन राज्य में भाजपा की सरकार के होते हुए भी यहां किसानों व आदिवासियों की समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुई है। झालावाड़ व बारां के बड़े हिस्से में अफीम की खेती होती रही है। लेकिन पिछले कुछ सालों से नारकोटिक्स ब्यूरो ने मनमाने तरीके से किसानों के पट्टे निरस्त किए जिसके चलते हजारों किसानों को बेरोजगार होना पड़ा। इसे लेकर किसानों में एक स्वाभाविक रोष बना हुआ है। कहने को तो यह जिला राज्य की मुख्यमंत्री का क्षेत्र रहा है लेकिन जिले के सहरिया आदिवासियों के गांवों में मूलभूत सुविधाएं भी नहीं पहुंच सकी है। इसी के चलते विधानसभा चुनावों में भी सहरियाओं ने भाजपा को हराकर अपनी समाज की निर्मला सहरिया को विधायक चुना। इन सब का लाभ कांग्रेस को ही मिलने जा रहा है। दूसरी तरफ उर्मिला जैन के पति प्रमोद जैन भाया ने पिछले विधानसभा चुनावों में बारां जिले की चार विधानसभा सीटों पर व झालावाड़ की दो सीटों पर अपने पसंद के उम्मीदवारों को जीत दिला कर भाजपा ही नहीं बल्कि कांग्रेसी नेताओं के भी होश उड़ा दिए हैं। भाया की इस ‘ाानदार जीत पर ही उन्हें प्रदेश सरकार में सार्वजनिक निर्माण मंत्री जैसे महत्वपूर्ण विभाग से नवाजा गया। लोकसभा चुनावों में भी झालावाड़-बारां सीट से भाया की पत्नी के अलावा कोई योग्य उम्मीदवार नजर नहीं आया। कांग्रेस के भी कई नेता भाया के बढ़ते कद से असहज महसूस कर रहे हैं। वसंुधरा राजे की असल परेशानी भी हाड़ोती के इन दो जिलों में भाया का छाया यह जलवा है। परिसीमन से झालावाड़ लोकसभा सीट में आया बदलाव, महारानी की मुश्किले और बढ़ा दिया है। परिसीमन के बाद बारां जिले का बड़ा हिस्सा झालावाड़ लोकसभा सीट के साथ जुड़ गया है। इसका नाम भी बदल कर झालावाड़-बारां कर दिया गया है। ऐसे में इस पूरे लोकसभा सीट की आठ विधानसभा सीटों में से 6 पर कांग्रेस का कब्जा है। इस लिहाज से झालावाड़ से कांग्रेस का दावा काफी मजबूत दिख रहा था। लेकिन अंत समय में वसुंधरा ने गुंजल का समर्थन हासिल कर अपने लंबे राजनैतिक अनुभव का परिचय दिया है। इस सीट पर गुर्जर मतदाताओं की संख्या एक लाख से भी ज्यादा है। और पिछले लोकसभा चुनावों में इसमें से ज्यादातर वोट कांग्रेस को मिले थे, क्योंकि कांग्रेस ने यहां से गुर्जर समाज के ही संजय गुर्जर को टिकट दिया था। इस बार उनका टिकट काटने से भी गुर्जरों में कांग्रेस को लेकर कुछ नाराजगी पहले से है। अगर यह सभी कारण मिलकर गुर्जर मतदाताओं को भाजपा की ओर मोड़ देते हैं तो परिस्थितियां कुछ बदल सकती हैं नही ंतो यहां से वसुंधरा राजे की विरासत ढहना तय माना जा रहा है।

वंशवाद की छाँव तले लोकतंत्र का तमाशा

पंजाब की पूरी राजनीति पर है 6 परिवारों का कब्जा

इस बार का लोकसभा चुनाव कई मायनों में अहम् है। वैसे तो हर चुनावों में लोगों को प्रत्याशिओं के नाम पर ऐसे लोगों को चुनना होता था जिसका जनहित से दूर तक कोई रिश्ता नहीं होता है। लेकिन इस बार के चुनाव में कुछ नए ट्रेंड देखने को मिले हैं. लोकतंत्र के इस तमाशे में जहाँ राजस्थान में दोनों राष्ट्रिय पार्टियों ने चुनाव मैदान में ऐसे राजाओं को उतारा है जिनका इतिहास ही गद्दारी का रहा है तो दूसरी ओर उससे लगे पंजाब में लोकतंत्र वंशवाद की छाँव तले दम घोंट रहा है. जंतर मंतर में अभी तक आपने पढ़ा कैसे राजस्थान राजशाही की ओर बढ़ रहा है, अब पढी पंजाब के वंशवाद पर एक रिपोर्ट. यह रिपोर्ट है द सन्डे पोस्ट के पत्रकार प्रदीप सिंह की. - संपादक

प्रदीप सिंह

विश्व के लोकतंत्रिक इतिहास में भारत ऐसा देश है, जहां परिवारवाद की जड़ें गहरी धंसी हुई है। यहां एक ही परिवार के कई व्यक्ति लंबे समय से प्रधानमंत्री और केन्द्रीय राजनीति की धुरी रहे हैं। आजादी के तुरंत बाद शुरू हुई वंशवाद की यह अलोकतानात्रिक परंपरा अब काफी मजबूत रुप ले चुकी है। राष्ट्रिय राजनीति के साथ-साथ राज्य और स्थानीय स्तर पर इसकी जड़े इतनी जम चुकी है कि देश का प्रजातंत्र परिवारतंत्र नजर आता है। इस परिवारतंत्र को कितना लोकतांत्रिक कहा जा सकता है, यह सवाल दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।

देश के समृद्वतम राज्य पंजाब भी इससे अछूता नहीं है। या यूं कहें विभिन्न राज्यों की तुलना में पंजाब की राजनीति में सबसे ज्यादा परिवारवाद हावी रहा है तो गलत नहीं होगा। यहां शुरू से अब तक छह परिवारों (कैरो, बादल, बरार, मजीठिया, पटियाला राजघराना और बेअंत सिंह परिवार) का हीं दबदबा कायम है। इसी छह परिवारों के माननीय सदस्य अघिकतम समय तक पंजाब के मुख्यमंत्री पद को सुशोभित करते रहे है। इसके साथ ही मान और भट्ल परिवार इस सरकारी कुनबे में गलबहियां डाले नजर आता है। सत्ता और संगठन की कंुजी इसी परिवार में से किसी के पास रहती है। बाकी के सारे नेता, मंत्री दरबारी की हैसियत से ज्यादा कुछ नजर नहीं आते हैं। इन परिवारों की आपसी समझ,राजनीति और आपस में एक दूसरे के यहां रिश्तेदारियों का समिश्रण अनूठा है। इस दिलचस्प राजनीतिक रसायन का एक उदाहरण सामने है।
आदेश प्रताप सिंह कैरों पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों के पौत्र एवं सुरिंदर सिंह कैरों के पुत्र कांग्रेस से कई बार सांसद रहे हैं। ये वर्तमान मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के दामाद और पूर्व मुख्यमंत्री हरचरण सिंह बराड़ के भांजे है। आदेश प्रताप सिंह कैरों के भाई गुर प्रताप सिंह कैरों भी राजनीति के पाठशाला में दाखिल है।
पंजाब सरकार के कैबिनेट की तस्बीर इस बात को पुष्ट करने के लिए काफी है। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाली सरकार में उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल उप मुख्यमंत्री, मनप्रीत सिंह बादल (भतीजा) वित्तमंत्री, आदेश प्रताप सिंह कैरों (दामाद एवं पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों के पौत्र) खाद्य आपूर्ति मंत्री, जनमेजा सिंह (बादल के करीबी रिश्तेदार) सिचाई मंत्री है।बिक्रमाजीत सिंह मजीठिया (सुखबीर सिंह बादल का साला) कुछ दिनों पहले ही मंत्री पद से इस्तीफा दिए है। अब वह शिरोमणि अकाली दल युवा शाखा के प्रदेश प्रधान है। प्रकाश सिंह बादल की पत्नी सुरिंदर कौर अकाली दल महिला शाखा की संरक्षक हैं। बादल की बहू हरसिमरत कौर की चर्चा यदि न की जाये तो इस समय पंजाब की राजनीति के मर्म को नहीं समझा जा सकता है। कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ जनजागरण अभियान से राजनीति की शुरुआत करने वाली हरसिमरत कौर बीबी जी के नाम से मसहूर है। भटिंडा से वह लोकसभा का चुनाव अपनी पारिवारिक पार्टी अकाली दल की उम्मीदवार है। इसी सीट पर पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और पटियाला राजघराने के वारिस कै अमरिंदर सिंह के बेटे रणइंदर सिंह कांग्रेस के प्रत्याशी है। इस सीट पर दोनों परिवारों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। हरसिमरत कौर बादल की बहू होने के साथ ही जवाहर लाल नेहरु के मंत्रिमंडल के सदस्य रह चुके सत्यजीत सिंह मजीठिया की पुत्री है। दोनों परिवारों के दर्जनों सदस्य इस समय पंजाब की राजनीति में सक्रिय है। बिक्रमजीत सिंह मजीठिया कहते है कि हमारा परिवार महाराजा रणजीत सिंह के समय से जनता की निस्वार्थ सेवा कर रहा है। आजादी के पहले और अजादी के बाद पंजाब की जनता की सेवा और पंजाबियत की रक्षा करता रहा है हम पार्टी के वफादार और ईमानदार सेवक है। गौरतलब है कि अब बिक्रमजीत सिंह अकाली दल में है। इनकी पिछली पीढ़ी के लोग कांग्रेस के वफादार सेवक रहे है।
पटियाला राजपरिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों की राजनीति में सक्रियता काफी लंबे समय से है। देश भर में इस राजपरिवार के लगभग एक दर्जन लोग सत्ता का आनंद लोकतंत्र की सेवा करके ले रहे है। कै अमरिंदर सिंह वर्तमान में विधायक है। उनकी पत्नी महारानी परणीत कौर निवर्तमान लोकसभा में सांसद है। इस आम चुनाव में पटियाला संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस की प्रत्याशी है। बेटा रणइंद्र सिंह भठिंडा से लोकसभा का चुनाव लड़ रहा है। कै0 अमरिंदर की चाची और पूर्व सांसद बीबा अमरजीत कौर इस चुनाव में अकाली दल का दामन थाम चुकी है। संसद में कृपाण के साथ प्रवेश करने की जिद करने वाले सिमरनजीत सिंह मान कै अमरिंदर सिंह के साढ़ू है। फिलहाल वे और उनका कृपाण इस समय संसद के बाहर है। पूर्व विदेश मंत्री कुं नटवर सिंह, उनके विधायक बेटे जगत सिंह, हिमांचल प्रदेश की राजनीति के जाने पहचाने चेहरे कुं अजय बहादुर सिंह का इस परिवार से रिश्ता राजनीति में भी फायदा पहंुचाता रहा।
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के पुत्र तेज प्रकाश सिंह कंाग्रेस से विधायक है। उनके पौत्र रवनीत सिंह विट्टू राहुल गांधी के युवा मंडली के सदस्य और आनंदपुर साहिब लोकसभा से उम्मीदवार है। बेटी गुरकंवल कौर भी चुनाव लड़ चुकी है।


पूर्व मुख्यमंत्री हरचरण सिंह बरार के कई सदस्य राजनीति में अपना भाग्य अजमा चुके है। कुछ को सफलता मिली और कुछ जनता द्वारा नजरअंदाज कर देने पर भी सेवा करने को लालायित है। जगबीर सिंह बरार अकाली दल से विधायक है। दूसरे बेटे सन्नी बरार और बहू करन बरार कई चुनावों में भाग्य अजमा चुके है। बेटी कंवरजीत कौर बरार (बबली) और बेअंत सिंह की पत्नी गुरबिंदर कौर भी सक्रिय रही है। कांग्रेस नेत्री रजिंदर कौर भट्टल पिछले कई चुनावों से राजनीति में अपने परिवार का वंशवृक्ष रोपने की कोशिस में लगी है।विगत विधानसभा चुनाव में वह अपने भाई कुलदीप सिंह भट्टल को टिकट दिलाने और चुनाव जिताने में सफल रही है। अकाली दल ने पिछले चुनाव में पूर्व राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला के पुत्र गगनदीप सिंह बरनाला, चरनजीत सिंह अटवाल के पुत्र इंदर इकबाल सिंह अटवाल ,अकाली जगदेव सिंह के पुत्ररंजीत सिंह तलवंडी एसजीपीसी के अध्यक्ष गुरचरण सिंह टोहड़ा के सुपुत्र हरमेल सिंह टोहड़ा को विधानसभा में भेजने की तैयारी की थी। लेकिन चुनाव के दंगल में राजपुत्रों की योजना फलीभूत नहीं हो सकी। जनता ने सबको करारी शिकस्त दी।

पंजाब की राजनीति, जमीन और अर्थव्यवस्था पर एक तरह से जाटो का कब्जा है। खेती की सर्वाधिक जमीन पर इसी समुदाय का स्वामित्व है।समाजिक पायदान पर सबसे ज्यादा सम्मान जाट सिखों का ही है। इसी तरह राजनीतिक धरातल पर भी इस समुदाय ने अपना वर्चस्व बना रखा है। पंजाब की राजनीति में दलितो की अच्छी भूमिका हो सकती है। लेकिन यहां पर मायावती का बहुजन हासिए पर है।
राजनीति में वंशवाद की विस बेल अब विशाल वट वृक्ष का रुप ले चुकी है। कांग्रेस से लेकर भाजपा,सपा और क्षेत्रिय दलों तक में यह बीमारी आम है। राजनेताओं के परिजनों का राजनीति में इस तरह का पदार्पण लोकतंत्र के लिए कितना सुखद है। यह तो समय बताएगा।


भाकपा-माले के राज्य सचिव राजबिंदर सिंह राणा कहते है कि छात्र आंदोलनों और जनसंघर्षों को भावी राजनीति की नर्सरी कहा जाता था।शासक पार्टियों के लिए अब इसका कोई अर्थ नहीं रह गया है। साजिस के तहत ऐसे जन आंदोलनों से निकले लोगों की जगह नेताओं के पुत्र-पुत्रियों को स्थापित किया गया। पंजाब की हालत तो और बुरी है।वंश वाद के संक्रमण से पंजाब की राजनीति लाइलाज बन चुकी है। विराट पंजाबी जनता के भाग्य का निर्णय चंद परिवारों के हाथ में कैद है। सत्ता से लेकर संगठन तक के पद इन्हीं पारिवारिक सदस्यों को रेवड़ी की तरह बांटी जा रही है।

संगरुर से चुनाव लड रहे पूर्व विधायक तरसेम जोधा कहते हैं कि वंशवाद की छाया में राजनीतिक दलों के सारे आदर्श और सिद्वांत तिरोहित हो चुकी है। कांग्रेस की वंशवाद तो समाजवादियों से लेकर जनसंघ तक के लिए आलोचना का विषय था। लेकिन पूरे देश की राजनीति में वंशवाद की काली छाया जिस तरह से अपना पांव पसार रही है। उससे यही लगता है कि अपने परिजनों को राजनीति में स्थापित करने के सवाल पर बामपंथी पार्टियों को छोड़ कर सारी पार्टियां एक राय रखती है।



पंजाब की राजनीतिक वंशावली



कैरों परिवार-

कैरों परिवार-
प्रताप सिंह कैरों - पूर्व मुख्यमंत्री
सुरिंदर सिंह कैरों - पुत्र, सांसद
आदेश प्रताप सिंह कैरों - पौत्र, वर्तमान में अकाली - भाजपा सरकार में मंत्री

गुरप्रताप सिंह कैरों - पौत्र,युवा अकाली नेता

बादल परिवार-

प्रकाश सिंह बादल - मुख्यमंत्री पंजाब सरकार
सुखबीर सिंह बादल - पुत्र, उप मुख्यमंत्री
मनप्रीत सिंह बादल - भतीजा, वित्त मंत्री
हरसिमरत कौर - (बहू बादल परिवार और पुत्री मजीठिया परिवार) भटिंडा से लोकसभा की उम्मीदवार जनमेजा सिंह - करीबी रिश्तेदार, सिचाई मंत्री
सुरिंदर कौर बादल - पत्नी, अकाली दल (महिला शाखा की संरक्षक)
बिक्रमजीत सिंह मजीठिया- साला, पूर्व मंत्री, युवा अकाली दल का प्रदेश अध्यक्ष
सत्यजीत सिंह मजीठिया- पूर्व केद्रिय मंत्री

पटियाला राजघराना


महाराजा यादबिंदर सिंह - पूर्व राज्य प्रमुख पेप्सू,राजदूत,कुलपति
कै अमरिंदर सिंह- पूर्व मुख्यमंत्री

परणीत कौर - पत्नी, सांसद

बीबा अमरजीत कौर- चाची, पूर्व सांसद
रणइंदर सिंह- पुत्र, भटिंडा से का्रग्रेस उम्मीदवार

बरार परिवार


हरचरण सिंह बरार - पूर्व मुख्यमंत्री

जगबीर सिंह बरार - पुत्र, विधायक
गुरबिंदर कौर - पत्नी, राजनीति में सक्रिय
सन्नी बरार - पुत्र, चुनावी राजनीति में सक्रिय
करन बरार - बहु, चुनावी राजनीति में सक्रिय
कवरजीत कौर बरार - पुत्री, चुनावी राजनीति में सक्रिय

बेअंत सिंह परिवार

बेअंत सिंह - पूर्व मुख्यमंत्री
तेज प्रकाश सिंह - पुत्र, कांग्रस विधायक
रवनीत सिंह बिट्टू - नाती, आनंदपुर साहिब से क्रांगेस प्रत्याशी
गुरकवंल कौर (बेटी) और परिवार के कई सदस्य चुनावी राजनीति में सक्रिय

भट्टल परिवार

राजिंदर कौर भट्टल - पूर्व मुख्यमंत्री
कुलदीप सिंह भट्टल - भाई- विधायक
सुरजीत सिंह बरनाला - पूर्व मुख्यमंत्री, राज्यपाल, केंद्रिय मंत्री
गगनदीप सिंह बरनाला - पुत्र- सक्रिय राजनीति में। चुनावों में असफलता

ठेंगे का लोकतंत्र


लोकतंत्र को अंगूठा दिखता एक आन्दोलन

राजीव यादव

द्वापर युग के एकलव्य की कहानी एक बार फिर से सोनांचल में लोकतंत्र के चैकीदारों ने दोहरायी। पूर्वी यूपी के सोनभद्र जिले की राबर्टसगंज लोकसभा सीट पर तेरह दलित-आदिवासी प्रत्याशियों का नामांकन अगंूठा निशान के चलते खारिज कर दिया गया। तो वहीं दूसरी तरफ 2001 की जनगणना के आधर पर हुए नए परिसीमन ने 2003 में अनुसूचित जाति का दर्जा पाने वाली आदिवासी जातियों से उनके चुनाव लड़ने का अधिकार पहले ही छीन लिया था। बहरहाल एकलव्य के वारिसों ने युगों से चली आ रही उनके अंगूठे की साजिश के खिलाफ समानांतर बूथ चलाकर ‘लोकतंत्र के हत्यारों पर चोट है, अंगूठा निशान ही हमारा वोट है’ का सिंघनाद कर चुनावों बहिस्कार कर दिया।
सोनांचल के चुनावी कुरुक्षेत्र में नामांकन खारिज होने के बाद भाकपा माले के ‘अंगूठा लगाओ, लोकतंत्र बचाओ’ समानांतर चुनाव आंदोलन ने अनपढ़ गरीबों को उनके चुने जाने के मौलिक अधिकार से वंचित करने वाले लोकतंत्र विरोधी तंत्र की नीद हराम कर दी है। माले के उम्मीदवार जीतेन्द्र कोल कहते हैं ‘हमारे दोनों महिला प्रस्तावकों ने अंगूठा निशान सहायक निर्वाचन अधिकारी के सामने लगाया था ऐसे में सहायक निर्वाचन अधिकारी की जवाबदेही बनती थी की वे अंगूठा निशान को अभिप्रामिणित करते।’ इस बाबत सोनभद्र के जिला निर्वाचन अधिकारी की भूमिका अदा कर रहे जिलाधिरी पंधारी यादव का कहना है कि खुद उन्हें भी अंगूठा निशान प्रमाणित करवाने के नए प्रावधान की पहले से जानकारी नहीं थी। नामांकन खारिज किए गए प्रत्याशियों ने जब विरोध करते हुए उन्हें जिम्मेदार ठहराया तो पन्धारी यादव ने धमकी भरे लहजे में कहा कि जो करना हो कर लो हाई कोर्ट ही जाओगे न, मेरा कुछ नहीं बिगड़ने वाला। इस स्वीकरोक्ति के बाद जहां होना तो ये चाहिए था कि जिलाधिकारी के विरुद्ध कार्यवाई हो पर उल्टे कार्यवाई प्रत्याशियों का नामांकन खारिज करने की हुई। इस पूरे क्षेत्र में कानूनी-गैरकानूनी का कोई मानक नहीं रह गया है। बगल की मिर्जापुर सीट पर हुए नामांकन में अंगूठा निशान को वैधता दी गयी है। आदिवासियों को सत्ता से दूर रखने की यह कोई नयी कवायद नहीं है। पांच लाख आदिवासी होने के बावजूद यहां कोई सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित नहीं है। उत्राखंड के निर्माण के बाद राजनाथ सरकार ने कहा कि जो भी अनुसूचित जन जाति के लोग थे वे चले गए। आदिवासियों के असंतोष को देखते हुए 2003 की मुलायम सरकार ने गोड़, खरवार, चेरो, बैगा, पनिका, भुइया को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया। जबकि कोल, मुसहर, बियार, धांगर, धरिकार, घसिया जनजाति के आरक्षण की व्यस्था से महरुम रह गए। पिछले 2005 के पंचायत चुनाव में बहुतायत होने के बावजूद एक भी आदिवासी सीट आरक्षित नहीं की गयी थी। इस राजनैतिक चाल के चलते ये सभी जनजातियां चुनाव लड़ने से वंचित कर दी गयीं जिन्हें आदिवासी का दर्जा मिला था। उस दौर में भी समानांतर बूथ आंदोलन चलाकर आदिवासियों ने चुनाव बहिस्कार किया। कई गावों में तो दस-दस वोट पड़े। दुद्धी विधानसभा में बेलस्थी गांव में तो मात्र सात वोट पड़े जिसके आधार पर प्रधान से लेकर बीडीसी चुने गए। बहरहाल वही चाल मौजूदा सरकार भी चल रही है। 2001 की जनगणना के आधार पर 2008 में हुए नए परिसीमन में सुरक्षित सीट के चलते फिर से 2003 में अनुसूचित जनजाति का दर्जा पायी आदिवासी चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। ऐसे में देखा जाय तो अब 2011 की जनगणना के आधार पर 2028 में होने वाले परिसीमन तक ये चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। अब सरकारों की मंशा पर है कि वे कब इन पर ‘मेहरबान’ होंगी और विशेष पहल कर इनके लोकतांत्रिक अधिकारों को सुरक्षित करेंगी। आदिवासियों में सरकार के खिलाफ काफी रोष है कि अगर कोई बाहर से दस्तख़त कर के ले आए तो उसकी जांच नहीं की जाती और उनके लोगों का अंगूठा निशान अधिकारियों के सामने लगाने पर भी नहीं मान्य होता। मगरदहां की पुष्पा कहती हैं ‘जब हम अंगूठा छाप लोगों का वोट सरकार ले सकती है तो फिर हमारे लोगों को चुनाव लड़ने से क्यों रोकती है।’ घोरावल के बागपोखर समानांतर बूथ पर कड़ी लू भरी दुपहरिया में वोट देने आए शीतला गोड़ पूछने से पहले ही झल्लाते हुए कहते हैं कि हमरा अंगूठा लगवाकर हमारे बाप-दादा के जमाने की जमीन-जायदाद हमसे छीनने का अधिकार सरकार के पास है पर वही अंगूठा लगाने पर हमारे नेता का पर्चा खारिज कर देते हैं। साहब अगर अंगूठा निशान गलत है तब हमारे लोगों की जमीन सरकार और हराम खोर सूदखोरों को छोड़ देनी चाहिए। सोनांचल के इस इलाके में जहां-तहां ‘ये जमीन सरकारी है’ के बोर्ड दिख जाएंगे तो वहीं सामंत और सूदखोर मरने के बाद भी अंगूठा लगवा लेते है। जिसका ब्याज पीढ़ी दर पीढ़ी ये आदिवासी चुकाते हैं। पूरे लोकसभा क्षेत्र के तीन सौ से अधिक गांवों में चल रहे समानांतर बूथ आंदोलन के शबाब पर चढ़ते ही पुलिस ने सैकड़ो घरों पर छापेमारी और गिरफ्तारी शुरु कर दी। खरवांव, मगरदहां, तकिया, भवना, समेत दर्जनों गावों में सैकड़ो घरों पर छापेमारी के दौरान पुलिस ने खुलेआम आदिवासियों और दलितों को सरकार के पक्ष में वोट डालने का दबाव बनाया। पर्चा-वर्चा खारिज करना नाटक है कहते हुए मगरदहां के विजय कोल कहते हैं ‘सरकार चाहती है कि उसके पक्ष में वोट पड़े ऐसे में दलित- आदिवासियों के चुनाव लड़ने से उसके वोट बैंक में संेध लग रही थी तो उन्होंने पर्चा खारिज करवा दिया। अब अपने गुण्डों और पुलिस को भेज हमको धमकाया जा रहा है कि हम उनको वोट दें, नहीं तो नक्सलाइट कह कर हमारा एनकाउंटर कर देंगे। इस बात की चर्चा पूरे सोनभद्र में है क्योंकि संासद घूस काण्ड में बसपा के सांसद के पकड़े जाने के बाद हुए उपचुनाव में बसपा मात्र तीन सौ वोटों से जीती थी। जनप्रतिनिधियों और नक्सलवाद के नाम पर हो रही प्रशासनिक लूट के खिलाफ गुस्से को बढ़ता देख सरकार को यह अंदेशा था कि वह चुनाव हार जाएगी। चुनाव के नाम पर ऐसे हथककण्डे अपनाकर सरकार जनता के सवालों पर लड़ने वालों को रास्ते से हटाकर अपने खिलाफ उठ रही आवाजों को नक्सलाइट घोषित कर दमन करने की फिराक में है। सोनांचल में उपजे इस अंगूठा विवाद ने लोकतंत्र के कई स्याह पहलुओ से पर्दा उठाया है और नक्सल उन्मूलन के नाम पर पल-बढ़ रहेे सामंती नौकरशाहों का चेहरा बेनकाब किया है। ओबरा, राबर्टसगंज समेत पूरे क्षेत्र में पिछले दिनों पुलिस वाले गावों-गावों में जाकर आदिवासियों को शिक्षा से लाभ और नक्सलवाद से सचेत रहने का अभियान चलया था, इस अभियान में एसपी राम कुमार भी शामिल थे। ऐसे अभियान कितने कागजी होते हैं यह खुद-ब-खुद सामने आ रहा है कि जो सरकार लोगों को दस्तख़त करना नहीं सिखा सकती वो और क्या करेगी। सरकार के नक्शे में सोनभद्र के 266 गांव नक्सल प्रभावित हैं, जो हर पैकेज और प्रमोशन के बाद बढ़ते ही गए। सबसे हास्यास्पद बात तो ये है कि जिन्हें नक्सलाइट कहा जा रहा है उनका पूरा आंदोलन इसी पर टिका है कि जो पैकेज इस क्षेत्र के विकास के लिए आ रहा है वो कहां गायब हो रहा है। नक्सल उन्मूलन के नाम पर आ रहे पैसों की बंदर-बांट में तमाम सरकारी अधिकारी और नेता लिप्त हैं। बिना किसी जांच के, इनके ऐशो आराम को देख अनुमान लगाया जा सकता है कि आदिवासियों का विकास क्यों नहीं हो रहा है।
दरअसल इस पूरे इलाके में लोकतांत्रिक ढ़ग से चल रही आदिवासियों की जल-जंगल-जमीन की लड़ाई हमारी सरकारों की नजर में ‘देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरनाक है।’ क्योंकि वे किसी भी कीमत पर अपनी जमीन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले नहीं करेंगे। इनकी लंबे समय से मांग है कि गुलामी के दौर के 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को राष्ट्रीय अपराध घोषित किया जाय। ऐसे में इस शोषित तबके से जब कोई स्वतःस्फूर्त नेतृत्व उभरता है तो वह सरकारों के लिए असहनीय हो जाता है। बहरहाल आदिवासियों का अंगूठा आंदोलन सरकार की हर दबंगई को ठेंगा दिखा रहा है।

राजस्थान में चुनाव लड़ रहे राजाओं का इतिहास तो देखें

1857 से 1947: गद्दारी का इतिहास

विजय प्रताप

राजस्थान से लोकसभा चुनाव लड़ रहे राजपरिवारों के इतिहास पर एक सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो देश से गद्दारी के अलावा कोई अच्छा उदाहरण देखने को ही नहीं मिलता। इस चुनावों में समाज सेवा की पीड़ा को लेकर उतरे राजाओं का इतिहास यही कहता है, कि इन्होंने समाज सेवा के नाम पर यह समाज का केवल शोषण किया है। अपने से बड़े शासकों के सामने घुटने टेकना व उनके जनविरोधी नीतियों को लागू कर उन्हें खुश रखना ही इनकी संपत्ति रही है। एक नजर डालते हैं विभिन्न रियासतों के महाराजाओं के 1857 से लेकर 1947 तक के संक्षिप्त इतिहास पर -
1857 में उत्तर भारत के अन्य रियासतों के साथ ही जोधपुर रियासत में भी क्रांति का बिगुल बजा था। यहां एरिनापुर छावनी में अंग्रेजी सेना के भारतीय सिपाहियों ने सर्वप्रथम विद्रोह का झंडा बुलंद किया। आउवा के सामंत कुशल सिंह ने सिपाहियों को नेतृत्व प्रदान किया। क्रांतिकारियों ने ‘चलो दिल्ली मारो फिरंगी’ का नारा लगाते हुए दिल्ली की ओर कूच कर दिया। जोधपुर में नियुक्त अंग्रेजों के पाॅलिटीकल एजेंट मोंक मेसन का सिर कलम कर दिया गया। यह घटना आज भी जोधपुर के लोकगीतों में कुछ इस तरह से दर्ज है-‘‘ ढोल बाजे चंग बाजे, भालो बाजे बांकियो। एजेंट को मार कर दरवाजे पर टांकियो।’’ उस समय यहां के महाराजा तख्त सिंह ने क्रांतिकारियों का साथ देने की बजाए उन्हें रोकने के लिए अंग्रेजों को दस हजार सेना व 12 तोपों की सहायता मुहैया कराई। भीषण संघर्श में क्रांतिकारियांें के नेता कुषल सिंह को जान गंवानी पड़ी। हजारों क्रांतिकारी माने गए और राजपरिवार की गद्दारी के चलते आंदोलन दबा दिया गया। जोधपुर की तरह ही कोटा में भी 15 अक्टूबर 1857 में विद्रोह की ज्वाला भड़की थी। यहां क्रांतिकारियांे ने अंग्रेजों को खदेड़ कर उनके पिट्ठू महाराज रामसिंह द्वितीय को 6 महीने तक उन्हीं के महल में कैद रखा। अंग्रेजों के पाॅलिटिकल एजेंट मेजर बर्टन की हत्या कर उसके सिर को पूरे शहर में घुमाया गया। बाद में करौली रियासत के राजा ने अपनी फौज यहां अंग्रेजों की सहायता के लिए भेजी जिसकी मदद से विद्रोह दबाया गया। हजारों विद्रोहियों को पेड़ों पर लटका दिया गया। झालावाड़ जिले में स्थित गागरोन का किला अभी भी इस बात का गवाह है।अलवर और धौलपुर में भी प्रथम स्वाधीनता संग्राम के सिपाहियों ने अंग्रेजों व गद्दार राजाओं के छक्के छुड़ा दिए थे। धौलपुर में क्रांतिकारियों ने पूरे दो महीने तक वहां के महाराजा भगवंत सिंह के महल पर कब्जा किया रखा। उस समय धौलपुर के राजा ने अंग्रेजों से अपनी वफादारी की मिसाल के लिए आगरा के किले में क्रांतिकारियों से घिरे अंग्रेजों को बचाने के लिए अपनी सेना भेजी। लेकिन क्रांतिकारियों ने इस सेना को भी अछनेरा से पहले ही ढेर कर दिया। कुछ ऐसा ही इतिहास डूंगरपुर, जयपुर व मेवाड़ आदि रियासतों में भी रहा। किसी भी रियासत के राजा ने इस जनविद्रोह का साथ नहीं दिया। और इन्हीं राजाओं की सहायता से पूरे देश में आजादी के सूरज को उगने से पहले ही अस्त कर दिया गया।

आजादी मिलने के बाद यहां के रियासतदारों ने एक बार फिर अपनी गद्दारी का सबूत पेश किया। वह भारत में रहने की बजाए खुद को स्वतंत्र रखना चाहते थे। राजाओं ने देखा कि लोकतंत्र में उनकी दाल नहीं गलने वाली तो अपनी सौ वर्षों की चापलूसी व वफादारी के एवज में अंग्रेजों से खुद को स्वतंत्र रखने का अधिकार प्राप्त कर लिया। आज जो राजघराने भारत की सेवा करने को राजनैतिक मैदान में हैं वही कभी खुद को भारत से अलग रखना चाहते थे। जोधपुर के महाराजा तो एक कदम आगे जाते हुए जनआंकाक्षाओं के विपरित अपनी रियासत को पाकिस्तान में विलय के लिए राजी हो गए थे। इसमें भोपाल नरेश हमिदुल्ला खां व धौलपुर के महाराजा ने उसका साथ दिया। इन राजाओं ने यहां के महाराज हुनंवत सिंह की मोहम्मद अली जिन्ना से भी मुलाकात कराई। जब इसकी भनक कांग्रेस के नेताओं को लगी तो सरदार पटेल ने वी पी मेनन को जोधपुर की भारत में विलय की जिम्मेदारी सौंपी। मेनन ने हुनंवत सिंह को कई तरह का लालच देकर भारत में विलय को राजी करा लिया। वायसराय के सामने विलय पत्र पर दस्तख्त के बाद हुनवंत सिंह को लगा कि उसे ठग लिया गया है तो उसने मेनन पर पेन पिस्टल तान दी। हुनवंत सिंह ने विलय पत्र पर दस्तख्त भी पेन पिस्टल से ही किए थे। अलवर, भरतपुर व धौलपुर के राजा हिंदू महासभा के ज्यादा करीबी थे। अलवर के महाराज ने आजादी के बाद डाॅ बी एन खरे को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। खरे महात्मा गांधी की हत्या के षडयंत्र में भी षामिल था। उसकी इस भूमिका के चलते ही भारत सरकार को अलवर में हस्तक्षेप का मौका मिला और उसे हटाकर वी एन वेंकटाचार्य को यहां का प्रशासक नियुक्त किया गया। उधर भरतपुर का राजा जनसंघ का ज्यादा करीबी था। उसने 15 अगस्त 1947 में भरतपुर में आजादी की खुशियाँ न मनाने का ऐलान किया। भारत सरकार से हुई संधि का उल्लंघन करते हुए उसने भरतपुर में बडे़ पैमाने पर अस्त्र शस्त्र के कारखाने शुरू किए और वहां निर्मित हथियारों का प्रयोग जाटों व जनसंघ कार्यकत्र्ताओं के माध्यम से मुसलमान विरोधी दंगों में किया गया।

राजस्थान के राजाओं की गद्दारी का यह केवल नमूना भर है। इस लोकसभा चुनाव में राजस्थान की जनता ऐसे राजघरानों के हाथों में अपनी बागडोर सौंपने जा रही है जिनका पूरा इतिहास ही जनविरोधी रहा है।

राजशाही की ओर बढ़ता राजस्थान

- लोकतंत्र का खोखलापन उजागर करता चुनाव

विजय प्रताप

हाल में राजस्थान की पृष्टभूमि पर बनी फिल्म गुलाल में एक संवाद है -‘‘गुलाल असली चेहरे को छिपा देता है’’। यह संवाद राजस्थान में पन्द्रहवी लोकसभा के चुनाव में चरितार्थ होते दिख रहा है। यहां लोकतंत्र के महापर्व में कई ऐसे उम्मीदवार हैं जिनके चेहरे ऐसे ही गुलाल से रंगे हैं। इनकी आस्था लोकतंत्र की बजाए राजतंत्र में है, जो कि अभी भी उन परंपराओं और मान्यताओं में विश्वास करते हैं, जिनमें प्रजा उन्हें देवता के समान मानती है। राजस्थान के लोकसभा चुनावों में इस बार करीब आधा दर्जन उम्मीदवार ऐसे हैं जो पुरानी रियासतों के राजघरानों से संबंध रखते हैं। इनमें से 4 को कांग्रेस व 2 को भारतीय जनता पार्टी ने टिकट दिया है। कांग्रेस से टिकट पाने वाले उम्मीदवार हैं कोटा-बूंदी संसदीय सीट से महाराव इज्यराज सिंह, जोधपुर से महाराजा गज सिंह की बहन चंद्रेष कुमारी, अलवर से महराज भंवर जितेन्द्र सिंह और जयपुर ग्रामीण से भरतपुर राजघराने के महाराज व पूर्व सांसद विष्वेन्द्र प्रताप सिंह की पत्नी दिव्या सिंह। भाजपा ने जिन राजघरानों को संसदीय प्रत्याषी बनाया है उसमें झालावाड़-बारां सीट से पूर्व मुख्यमंत्री व धौलपुर राजघराने की महारानी वसुंधरा राजे सिंधिया के पुत्र दुश्यंत सिंह व आदिवासी बहुल भीलवाड़ा सीट सीट से बढ़नौर ठिकाने के महाराज बृजेन्द्र पाल सिंह षामिल हैं। दुश्यंत सिंह पहले भी झालावाड़-बारां सीट से सांसद रह चुके हैं। लोकतंत्र में सभी को बराबर का दर्जा दिया गया है। यहां राजा व रंक को चुनने व चुने जाने दोनों का अधिकार मिला हुआ है। इस लिहाज से देखे तो इन राजा-रानियों की उम्मीदवारी कहीं से भी गलत नहीं। वैसे भी भारत में आजादी के बाद लोकतंत्र की जो अवधारणा सामने आई उसमें कमजोर तबके के लिए कोई स्थान नहीं था। जिसके पास ताकत है उसी का अधिकारों पर नियंत्रण होता है। वह चाहे बाहुबली हो, उद्योगपति हो या इनके वंश का अंश हो। इसके लिए लोकतंत्र के प्रति आस्था जैसी किसी तरह के षर्त की जरूरत नहीं। राजस्थान में राजघरानों की उम्मीदवारी कुछ ऐसी ही है। दरअसल इन राजाओं का वर्तमान व इतिहास देखे तो यह कहना कत्तई झूठ नहीं होगा की इनकी लोकतंत्र में न तो कभी आस्था रही है और न ही अभी है। इन्हें आज भी महाराज ;हिज हाइनेसद्ध से कम का संबोधन स्वीकार नहीं। इनके दिलो-दिमाग में भरी राजषाही ठसक इन्हें आज भी आम समाज से कोसों दूर किए हुए है। चुनाव लड़ना इनके लिए कोई जनप्रतिनिधित्व का माध्यम नहीं बल्कि अपने अहम को संतुश्ट करने व सत्ता नियंत्रण में भागीदारी का एक जरिया है। आजादी के साठ साल बाद भी राजस्थान में जब दोनों कथित राष्टवादी पार्टियों को ऐसे राजाओं को चुनाव लड़ाने की जरूरत महसूस हो रही है तो ऐसे में सहज ही समझा जाना चाहिए कि यह संघर्श के बाद मिले आधे-अधूरे लोकतंत्र किस दिषा में ले जाना चाहते हैं। वैसे तो राजस्थान में राजाओं के चुनाव लड़ने का इतिहास कोई नया नहीं है। आजादी के बाद अपनी रियासतें छिन जाने के बाद तो विभिन्न राजाओं ने बकायदा एक पार्टी भी गठित की। 1952 के पहले आम चुनावों में स्वतंत्र पार्टी से कई महाराजा चुनाव लड़े और संसद पहुंचे। ’60 के दषक में राजस्थान विधानसभा में भी एक समय ऐसा था जब यह कांग्रेस पर हावी थे। उस समय पूरे देष में भले ही कांग्रेस की लहर थी लेकिन राजस्थान में कौन जनता का प्रतिनिधित्व करेगा यह उस क्षेत्र की रियासत के राजा-महाराजा ही तय करते थे। राजनैतिक पार्टियांे के नेताओं के लिए अभी भी राजघरानों का आर्षीवाद मिल जाना जीत की गांरटी मानी जाती है। आजादी के 60 साल बाद भी दोनों दलों में राजाओं को अपनी ओर करने की होड़ मची है। जबकि विकास के नाम पर जयपुर, जोधपुर, उदयपुर व कोटा जैसे कुछ बड़े षहर फिल्मों व चित्रों में भले ही बड़े लुभावने लगते हैं, यहां का ग्रामीण जीवन आज भी उतना ही कठिन है। ग्रामीण क्षेत्रों में पानी जैसी मूलभूत जरूरत के लिए सरकारी गोलियों को अपने सीने में उतराना पड़ता है। मंदी की मार में राजस्थान की हैण्डीक्राफ्ट की एक हजार से ज्यादा इकाईयां बंद पड़ी हैं। उद्योग नगरी के नाम से जाना जाने वाला कोटा में पिछले दो दषक से सैकड़ों कारखानों में ताले लग चुके हैं। अब यहां गिने चुने उद्योग ही बचे हैं। पिछले दो सालों गुर्जर आरक्षण आंदोलन में करीब सौ लोगों ने अपनी जान गंवाई है। इस पृश्टभूमि में राजस्थान में पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनाव काफी महत्वपूर्ण हो गए हैं। इस बार के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस राजाओं को टिकट देने में सबसे आगे रही है। लेकिन उसके उम्मीदवारों की पृश्टभूमि पर गौर करे तो उनमें से ज्यादातर का इतिहास ही कांग्रेस विरोध के इर्दगिर्द रहा है। जोधपुर रियासत से षुरू करे तो यहां के राजा षुरू से ही कांग्रेस के विरोधी रहे हैं। हांलाकि यहां की उसकी प्रत्याषी चंद्रेष कुमारी काफी समय से कांग्रेस में सक्रिय हैं। इससे पहले वह हिमाचल प्रदेष में मंत्री भी रह चुकी है। उनके बड़े भाई के महाराजा गज सिंह जो आज उनके लिए प्रचार करते घूम रहे हैं, भाजपा के करीबी माने जाते हैं। पूर्व विदेष मंत्री जसंवत सिंह कभी गजसिंह के निजी सहायक हुआ करते थे। बाद में जसवंत सिंह ने ही महाराज को राजनीति में लाया। अलवर से कांग्रेसी उम्मीदवार महाराजा भंवर जितेन्द्र सिंह भी एक दषक पहले तक कांग्रेस के कट्टर विरोधी थे। उनकी उम्मीदवारी से कांग्रेस कार्यकत्र्ता भी हतप्रभ थे। जयपुर ग्रामीण सीट से उम्मीदवार दिव्या सिंह भरतपुर राजघराने की महारानी हैं। इससे पहले वह एक बार भाजपा के टिकट पर भी संसद पहुंच चुकी हैं। उनके पति विष्वेन्द्र सिंह ने पिछले ही विधानसभा चुनाव में भाजपा से बगावत कर कांग्रेस का दामन थामा था। इससे पहले विष्वेन्द्र, पूर्व मुख्यमंत्री वसंुधरा राजे के राजनीतिक सलाहकार थे। कोटा का राजघराना पिछले कई दषक से राजनीतिक तटस्थता बनाए था। जानकारों की माने तो इन राजाओं की कांग्रेस से खुन्नस कोई नई बात नहीं है। आजादी के बाद से ही इन्हें लगता है कि कांग्रेस ने ही उनके राजपाट और अधिकार छिने है। इनमें से ज्यादातर राजा वैचारिक रूप से संघ व हिंदू महासभा जैसे कट्टर हिंदूवादी संगठनों के करीबी रहे हैं। आज भी यह संगठन राजाओं की राजतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन करते हैं। 1947 में विभाजन के वक्त हजारों मुसलमानों को यहां राजाओं के इसी हिंदूवादी विचारधारा, कांग्रेस से खुन्नस व रियासत छिनने के आक्रोष का निषाना बनना पड़ा। जोधपुर, अलवर, धौलपुर व भरतपुर रियासत के राजाओं ने हजारों हिंदू महासभा से मिलकर हजारों मुसलमानों का कत्ल कराया। वैसे भी राजस्थान में राजतंत्र की जडे़, लोकतंत्र से कहीं ज्यादा पुरानी हैं। यहां राजतंत्र और सामंतषाही की जकड़न अभी भी कमजोर नहीं हुई है। फिलहाल एक बदलाव जो गौर करने लायक है वह 1947 से पहले यहां के राजा कभी अंग्रेजों के तो कभी मुगल षासकों के कदमों तले रहे, लेकिन आजादी मिलने के बाद आज तक लोकतंत्र और राजनैतिक पार्टियां इन राजाओं के कदमों तले अपनी सार्थकता तलाष रही हैं।‘‘ऐसे लोगों को टिकट देने के कारणों की खोज करने के लिए हमें ज्यादा दूर जाने के जरूरत नहीं पड़ेगी। इसे केवल 60 साल के लोकतंत्र की सफलता-असफलता में तलाषा जा सकता है।’’ यह कहना है राजस्थान के वरिश्ठ साहित्य-संस्कृतिकर्मी षिवराम का। वह कहते हैं कि राजस्थान में अभी तक कोई ऐसी पार्टी या नेता नहीं उभर सका है जो जनआकांक्षाओं को समझ सके। यह अभाव ही वर्तमान में पार्टियों को जनता से दूर राजाओं की चैखट तक ले जा रहा है। जोधपुर विष्वविद्यालय के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष डाॅ सूरज पालीवाल कहते हैं कि 60 से यहां लोकतंत्र व राजतंत्र का चोली दामन का साथ बना है, लेकिन 3 करोड़ मतदाताओं को आज पेट भर रोटी, कपड़ा, मकान नसीब नहीं हो सका। हर चुनावों में उन्हें दो विकल्प मिलता है जिसमें से एक चुनते हैं लेकिन वास्तव में वह उनका नेता नहीं होता। पालीवाल हाल के विधानसभा चुनावों का उदाहरण देते कहते हैं कि इस बार भाजपा ने बीकानेर सीट से राजघराने की राजकुमारी सिद्ध को अपना उम्मीदवार बनाया। राजकुमारी इससे पहले कभी महलों से बाहर नहीं निकली थीं। बीकानेर के लोगों के पास कोई विकल्प नहीं था। लोगों ने उन्हें ‘अहो भाग्य’ की तरह स्वीकारा, उनकी आरती उतारी और उन्हें जिता कर विधानसभा भेज दिया। वहीं दातारामगढ़ सीट से किसान नेता अमराराम को चुनाव जिताया। इस सीट पर भाजपा व कांग्रेस दोनों को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा। यहां दोनों ही तरह के उदाहरण है। इसलिए यह कहना कि राजा लोकप्रिय हैं इसलिए चुनाव जीत जाते हैं ठीक नहीं होगा।’’ वरिश्ठ पत्रकार व भारतीय जनसंचार संस्थान के एसोसिएट प्रोफेसर आनंद प्रधान का कहना है कि दो दषक से चुनावों में ऐसे उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी है जिनका पहले कभी राजनीति में कोई सीधा हस्तक्षेप नहीं रहा है। वह अपने-अपने क्षेत्र के नामी ;जरूरी नहीं की लोकप्रिय होंद्ध रहे हैं। इसमें महाराजाओं से लेकर उद्योगपति, फिल्मी सितारे, खिलाड़ी ;विषेशकर क्रिकेट केद्ध को टिकट देने का चलन सा चल गया है। राजस्थान भी इन बदलावों से दूर नहीं है। यहां की राजनीति दिन ब दिन आम जन से दूर होती जा रही है। राजनीतिक दलों के पास ऐसा नेता नहीं है जिन्हें आम जनता अपना मान सके। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि पार्टियां ऐसे लोगों को चुनाव में पेष करे जिनका राजनीति से दूर तक का कोई रिष्ता नहीं हो। उनको लेकर आम जन कोई सवाल नहीं खड़ा कर सके। इसी राजनीति के तहत इस बार के चुनावों में बड़े पैमाने पर राजाओं, फिल्मी सितारों व खिलाड़ियों को टिकट दिया गया है। संभव है राजस्थान में चुनाव लड़ रहे सभी राजा चुनाव जीते जाए क्योंकि इन सीटों पर उनके लिए कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। इस विकल्पहीनता का ही फायदा देष में सत्ता चलाने वाले व पूंजीपति मिलकर उठा रहे हैं। इस विकल्पहीनता के लिए जरूरी है कि कोई जनतांत्रिक आंदोलन खड़ा ही न हो इसके लिए नीतिनिर्धारकों को ऐसे ही राजाओं की जरूरत होगी जो उनके अनुसार काम कर सके। जरूरत पड़े तो महारानी वसुंधरा राजे की तरह छोटी-छोटी मांगों को लेकर उठने वाली आवाज को गोली से दबा सके।

ऐसे तो मोर्चा नहीं बनेगा कामरेड

राजीव यादव

कभी हिन्दुस्तान का लेनिनग्राद कहे जाने वाले पूर्वी यूपी में एक बार फिर से लाल झण्डे की ताकतें एक साथ मैदान में दिख रहीं हैं। लम्बे अरसे बाद ही सही कम्युनिस्ट पार्टियों के चुनाव में आ जाने से सांप्रदायिकता और अपराधीकरण से जूझ रही जनता को एक विकल्प मिल गया है। पर सीटों के तालमेल और चुनावी रणनीति को देख ऐसा नहीं लगता की ये अपने पुर्ननिर्माण के लिए आत्मालोचना करने को तैयार हैं। घूम फिर कर वही सवाल कामरेड तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?आगामी लोकसभा चुनाव में भाकपा 8, माकपा 2, भाकपा माले 12, आरएसपी 2 और फारवर्ड ब्लाक ने भी 2 उम्मीदवार अब तक घोषित किए हैं। जनसंघर्ष मोर्चा जिसे कुछ नीतियों और प्रयोगों के मतभेद के आधार पर भाकपा माले से अलग होकर अखिलेन्द्र सिंह ने बनाया था उसने अब तक कोई स्पष्ट उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है। इस बामपंथी गठजोड़ का पहला विवाद घोसी और गाजीपुर सीट को लेकर भाकपा और भाकपा माले के बीच पैदा हुआ। घोसी से अपनी दावेदारी वापस लेते हुए गाजीपुर सीट पर दोस्ताना संघर्ष की बात करते हुए भाकपा माले के पोलित ब्यूरो सदस्य व राज्य प्रभारी रामजी राय कहते हैं कि यूपी के बाहर भी जहां हमने सीटों का ताल-मेल किया है वहां भी कई जगह दोस्ताना संघर्ष की स्थित है जिस पर सभी तैयार हैं। ऐसे में हमें गाजीपुर में दोस्ताना संघर्ष करते हुए यूपी में भी एक साथ रहना चाहिए। दोस्ताना संघर्ष को नकारते हुए भाकपा के पूर्व सांसद विश्वनाथ शास्त्री कहते हैं कि हम जनता में कम्युनिस्ट पार्टियों के आपसी टकराव का कोई संदेश नहीं देना चाहते। और जहां तक गाजीपुर सीट का सवाल है तो वहां कई बार सरजू पाण्डे सांसद रहे और मैं खुद 95 तक यहां से सांसद था।गाजीपुर सीट ने कम्युनिस्टों के पूरे ताल-मेल को बिखेर कर रख दिया है। जहां भाकपा अपने सुनहरे अतीत को लेकर लड़ रही है तो वहीं दूसरी तरफ भाकपा माले अपने वर्तमान को लेकर मैदान में है। तो वहीं राबर्टसगंज और चन्दौली में भाकपा माले और जनसंघर्ष मोर्चा आमने सामने हैं। राबर्टसगंज और चन्दौली जहां नक्सल उन्मूलमन के नाम पर चल रहे दमन के खिलाफ लम्बे अरसे से लाल झण्डे की ताकतें लड़ रहीं थी। इन क्षेत्रों में माकपा और भाकपा का एक बड़ा जनाधार है जो चुनावों में भी दिखता है तो वहीं भाकपा माले ने पिछले एक दशक में अपने लिए यहां जमीन तलाशी है। ऐसे में भाकपा माले से अलग हुए जनसंघर्ष मोर्चा जिसका आधार क्षेत्र भी यही है, के चुनाव में आ जाने से दोनों आमने-सामने हैं। इन दोनों सीटों पर माकपा का जनसंघर्ष मोर्चा को दिए गए समर्थन की वजह से भाकपा माले काफी नाराज दिख रही है। उनका यहां तक मानना है कि अगर माकपा सचमुच लाल झण्डे की एकता चाहती तो वह ऐसा नहीं करती। फिलहाल माकपा इस समर्थन की बात को नहीं मान रही है। इन दोनों ही सीटों के विवाद का असर किसी दूसरी सीट पर नहीं दिख रहा है। माकपा केन्द्रिय कमेटी सदस्य और पूर्व सासंद सुभाषनी अली यूपी में सांम्प्रदायिक, आपराधिक गठजोड़ के खिलाफ वामपंथी एकता की वकालत करती हैं। लम्बे अरसे बाद आजमगढ़ से माकपा ने इसी रणनीति के चलते अरुण कुमार सिंह को मैदान में उतारा है तो वहीं भाकपा माले ने गोरखपुर में राजेश साहनी को मैदान में उतारा है। गोरखपुर के सांसद योगी आदित्य नाथ के खिलाफ लम्बे अरसे बाद प्रत्याशी उतार कर भविष्य में एक वामपंथी विकल्प देने की कवायद को साफ देखा जा सकता है। आजमगढ़ संसदीय सीट से लड़ रहे माकपा प्रत्याशी अरुण कुमार सिंह पूर्वाचल में कम्युनिस्टों के धरातल के खिसकने के लिए पार्टी की नीतियों को ही जिम्मेवार ठहराते हुए आत्मालोचना के अंदाज में कहते हैं कि सपा जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन और चुनावों में खुद न लड़ना कम्युनिस्टों के लिए आत्मघाती साबित हुआ। आजमगढ़ जो आतंकवाद को लेकर पिछले दिनों राष्ट्ीय-अंतराष्टीय स्तर पर चर्चा में रहा की छवि को जिस तरह से बिगाड़ा गया वो एक सोची समझी साजिस थी। वे आगे कहते हैं कि जो लोग और जो पार्टियां इसे आतंकगढ़ के रुप में प्रचारित कर रहीं हैं उनको इस चुनाव में हम बेनकाब करेंगे।गौर किया जाय तो इस वामपंथी राजनैतिक गणित में माकपा के रणनीतिकारों ने अपने को काफी समयानुकूल बना लिया है। एक तो उन्होंने कम सीटों का चयन किया, जिससे भाकपा, भाकपा माले, जनसंघर्ष मोर्चा समेत लगभग सभी का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन उसे हासिल है। पर चुनावों में केवल दो सीटों पर ही माकपा प्रत्याशी को उतरना यह सन्देश साफ दे रहा है कि वह यूपी में आगामी लोकसभा चुनावों में अपने पुर्ननिर्माण को लेकर गम्भीर नहीं है और बंगाल के लाल दुर्ग से बाहर आने को बहुत उत्सुक भी नहीं दिखते। भाकपा और भाकपा माले का अधिक से अधिक और महत्वपूर्ण सीटों पर उम्मीदवार उतारना, उनके ठोस और दूरगामी रणनीति को दिखाता है। इस पूरे क्षेत्र में घोसी लोकसभा क्षेत्र कई पहलुओं से काफी महत्वपूर्ण है। यह पूरा क्षेत्र मउ के जिला बनने से पहले आजमगढ़ में ही था। वामपंथी नेता जय बहादुर सिंह और झारखण्डे राय के जमाने में यह लाल दुर्ग अभेद्य था। तकरीबन 62 से लेकर 84 तक इनका एकाधिकार रहा। आजादी के बाद जय बहादुर सिंह ने किसानों, मजदूरों, छात्रों और युवाओं की मजबूत गोलबंदी कर इस पूरे क्षेत्र को हिन्दी पट्टी का तेलंगाना बनाने का निर्णय लिया था। यही वजह है कि यहां की राजनीति ने कभी सांप्रदायिक ताकतों को उभरने का मौका नहीं दिया। जिसकी कोशिश लगातार भगवा ब्रिगेड ने यूपी गुजरात बनेगा, पूर्वांचल शुरुवात करेगा के नारों के साथ कर रहा है जिसे आजमगढ़ और मउ में बखूबी देखा जा सकता है। प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव जय प्रकाश धूमकेतु का कहना है कि चाहे वह आजमगढ़ हो या मउ इस धरती पर लोगों ने इतना वैचारिक कीचड़ होने ही नहीं दिया कि यहां कमल खिल पाए। लखनउ विश्वविद्यालय के चर्चित छात्र संघ अध्यक्ष रहे व घोसी से भाकपा के उम्मीदवार अतुल कुमार अंजान कहते हैं कि दरअसल इस पूरे क्षेत्र की आर्थिक रीढ़ जो बुनकरी पर टिकी है, जिसमें दोनों ही समुदायों के लोग एक दूसरे पर निर्भर है के टूटने से जो बेरोजगारों की फौज उपजी है उसे सांप्रदायिक शक्तियां सांम्प्रदायिक आधार पर मिलिटेंट बना कर राजनीति करना चाहती हैं, जिसकी खिलाफत वामपंथी एकजुटता करेगी। गौरतलब है कि ये पूरा क्षेत्र एक दौर में छात्रों-युवाओं के प्रगतिशील आन्दोलन का गढ़ था, जहां पर विश्वविद्यालयों के पढ़े लिखे उच्च शिक्षित नौजवान अपना कैरियर छोड़कर समाज परिवर्तन के आदर्श के साथ किसानों-मजदूरों के साथ धूल फांकते थे। लेकिन बावजूद इसके इन आन्दोलनों को नेतृत्व देने वाली वामपंथी पार्टियां कुछ तो अपनी रणनीतिक गलतियों और कुछ सांगठनिक कमजोरियों के चलते अपने पूरे जनाधार को कथित समाजवादियों को बटाई पर दे दिया, जिस पर बाद में उन्होंने कब्जा जमा लिया। लेकिन आज फिर से उस राजनैतिक जमीन की कीमत उन्हें समझ में आ रही है। बावजूद इसके अभी भी वो अपने को सांगठनिक रुप से सुदृढ़ करने और जनता से एकाकार होने के बजाय सिर्फ चुनावी दांव पेंच से ही अपनी मिल्कियत साबित करने में लगे हैं।बहरहाल भाकपा जो हाल-फिलहाल के दशकों में पूर्वांचल की जमीन से उखड़ी थी ने अपने ठोस जनाधार जहां वो पिछले चुनावों में ज्यादा लड़ाई में थी वहीं की सीटों का चुनाव उसकी राजनैतिक सूझ-बूझ को भी दर्शाता है। भाकपा माले जिसका आधार क्षेत्र इन्हीं पुरानी कम्युनिस्ट पार्टियों के क्षेत्र में ही है वो सीटों के ताल-मेल में भले एक साथ दिख रही पर वो इस चुनावी गणित में ‘फीलगुड’ नहीं महसूस कर रही है। एक तरफ जनसंघर्ष मोर्चा उसके सर का दर्द बना है तो वहीं दूसरी तरफ जब पुश्तैनी जमीन की बात हावी हो तो उसमें अपने को बनाए रखना भाकपा माले के लिए चुनौती है। इस पूरे वामपंथी चक्रव्यूह में निचले स्तर पर जहां लोग साथ दिखाई दे रहे हैं तो वहीं नेतृत्वकारी भूमिका के नेता इस ताल-मेल को लेकर स्पष्ट नहीं हैं। स्पष्टता न होने के चलते एक सीट को लेकर इस एकता का टूटना दिखाता है कि इस कथित मोर्चे की नींव में लगी ईटों में अभी भी अविश्वास की बहुत दरारें हैं। जिसकी तस्दीक भाकपा के वरिष्ठ नेता डा0 गिरीश करते हुए कहते हैं कि दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां धड़क रहा है, कोई वहां धड़क रहा है, जिसे जोड़ने के लिए एक अच्छे सर्जन की जरुरत है।

विरासत का चुनाव

शाहनवाज आलम
यदि साल भर पहले हुए उपचुनाव को छोड़ दिया जाए तो पिछले तीन दशकों में बलिया का यह पहला लोकसभा चुनाव है जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर प्रत्याशी नहीं हैं। लेकिन बावजूद इसके पूरा चुनाव चंद्रशेखरमय ही लगता है। चट्टी-चैराहों की आम जनता की बहस मुबाहिसों से लेकर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के नेताओं यहां तक कि प्रत्याशियों की जबान पर भी चंद्रशेखर ही हैं। जहां जनता हर उम्मीदवार का कद चंद्रशेखर के मुकाबले आंक रही है वहीं हर उम्मीदवार खुद को चंद्रशेखर का असली वारिस होने का दावा कर रहे हैं।

दरअसल बलिया का चुनाव हमेशा चंद्रशेखर केन्द्रित ही रहा है। जहां इस लोकतंत्र के उत्सव का मतलब उन्हें दुबारा संसद में भेजना होता था। लेकिन चूंकि इस बार उनके न रहने पर कई लोग उनका फोटोकाॅपी होने के दावे के साथ मैदान में उतरे हैं इसलिए इस बार ये सीट कई मायनों में महत्तवपूर्ण हो गई है। अव्वल तो ये कि परिसीमन के चलते उपजे नए भूगोल ने इस सीट के राजनीतिक समीकरण को बदल दिया है। वहीं लगभग तीन दशकों से वीआईपी सीट होने के कारण सभी राजनैतिक दल चंद्रशेखर की मृत्यु के बाद उपजे खाली शून्य को भरने की कोशिश में लगे हुए हैं। नए परिसीमन में इसमें जहां एक ओर अब तक गाजीपुर लोकसभा का हिस्सा रहे जहूराबाद और मोहम्मदाबाद विधानसभा सीट जुड़ गई हैं वहीं बांसडीह विधानसभा उससे कटकर सलेमपुर लोकसभा का हिस्सा हो गया है। जहूराबाद और मोहम्मदाबाद विधानसभा सीट जो जातिगत दृष्टि से भूमिहार बनाम मुस्लिम, पिछड़े और दलित वोटों में विभाजित हैं में अब तक मुख्य लड़ाई भाजपा और उस पार्टी के बीच रहा है जिसमें बाहुबली अंसारी बन्धु मुख्तार और अफजाल रहे हैं। लेकिन अब चंूकि ये पूरा क्षेत्र बलिया लोकसभा का हिस्सा बन गया है इसलिए अंसारी बन्धुओं का कोई प्रत्यक्ष हित इस सीट नहीं जुड़ा है। लेकिन चंूकि भाजपा ने पूर्व सांसद मनोज सिन्हा को अपना प्रत्याशी बनाया है जो बाहुबली विधायक कृष्णानन्द राय के करीबी रहे हैं और जिनकी हत्या में अंसारी बन्धू आरोपी हैं, इसलिए बाहरी होते हुए भी इस सीट पर उनकी प्रतिष्ठा और अहम् दांव पर लगा है। ऐसे में अगर उनका प्रभाव चला तो बसपा प्रत्याशी संग्रामसिंह यादव भारी पड़ सकते हैं। जिन्हें पार्टी का परम्परागत दलित वोट के साथ ही थोक मुस्लिम वोट मिल सकता है। लेकिन चूंकि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की छवि अल्पसंख्यकों में एक अग्रिम पंक्ति की धर्मनिरपेक्ष और उनके बेटे सपा प्रत्याशी अभी इस राह से विचलित नहीं दिखते इसलिए इधर के मुस्लिम वोटर दो बाहुबलियों के वर्चस्व की लड़ाई में मोहरा बनने के बजाय नीरज शेखर के साथ आ जाए इसकी संभावना भी उतनी ही प्रबल है। वहीं दूसरी ओर भाजपा प्रत्याशी मनोज सिन्हा जहूरबाद और मोहम्मदाबाद के सजातीय भूमिहार वोटरों के साथ ही बलिया के गाजीपुर से लगे गंगा के मैदानी क्षेत्रों जहां भूमिहार अच्छी तादात में हैं के भरोसे ताल ठोंक रहे हैं। लेकिन चूंकि भाजपा बलिया में अपनी कोई खास जमींन नहीं बना पाई है और चंद्रशेखर को भूमिहार मत भी लगभग एकतरफा मिलता रहा है। इसलिए चंद्रशेखर के इर्दगिर्द ही केन्द्रित चुनाव में यह समीकरण बदलेगा ऐसी संभावना कम ही है।

इस लिहाज से देखें तो सपा प्रत्याशी नीरज शेखर का मुख्य मुकाबला बसपा से ही दिखता है। जिसने पूर्व विधायक और अतीत में भी साईकिल और हाथी दोनों की सवारी कर चुके संग्राम यादव को प्रत्याशी बनाकर सपा के जातिगत आधार में सेंध मारने की कोशिश की है। हालांकि उसका यह प्रयोग नया नहीं है और उसने 2004 के चुनाव में भी चंद्रशेखर के खिलाफ एक कम चर्चित कपिलदेव यादव को लड़ाया था जिसे मुलायम सिंह यादव के चंद्रशेखर के पक्ष में जनसभाएं करने के बावजूद लगभग एक लाख मत मिले थे। वैसे सदर और द्वाबा ;अब बैरिया विधानसभाद्ध बसपा के कब्जे में है जहंा से मंजू सिंह और सुभाष यादव विधायक हैं। लेकिन चूंकि चंद्रशेखर स्वयं विधानसभा सीटों के उनके विरोधी दलों के पाले में होने के बावजूद आसानी से लोकसभा में पहुंचते रहे हैं। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि उनके उत्तराधिकारी को रोकने में मायावती की सोशल इंजीनियरिंगग कहां तक कामयाब होती है। बहरहाल चुनाव के पूरी तरह चंद्रशेखर केन्द्रित होने के चलते जनता के वास्तिवक मुद्दे चर्चा से बाहर हो गए हैं। जबकि यह जिला पिछले दिनों कई अहम सवालों के चलते चर्चा में रहा जिस पर राजनीतिक दल चुप्पी साधे हुए हैं। मसलन द्वाबा क्षेत्र के सैकड़ों गांवों की लाखों आबादी आरसेनिक युक्त पानी पीने को अभिषप्त हैं जिसके चलते महामारी की स्थिति पैदा हो गई है। लेकिन यह किसी भी उम्मीदवार के एजेंडे में नहीं है। वहीं दूसरी ओर पिछले दिनों उजागर हुए देश के सबसे बड़े खाद्यान्न घोटाले का केन्द्र भी बलिया ही है और मायावती द्वारा प्रस्तावित गंगा एक्सप्रेस भी यहीं से शुरू होनी है। जिसकी चपेट में 112 गांव के लाखों परिवार आने वाले हैं जहां के किसान लम्बे समय से आंदोलनरत हैं। गंगा कृषि भूमि बचाओ मोर्चा जिसने पचास हजार पर्चे बांट कर चुनाव में उतरे राजनैतिक दलों से गंगा एक्सप्रेस वे पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने की मांग की है के जिला संयोजक बलवंत यादव इस चुनाव को विरासत की राजनीति के नाम पर किसानों के सवालों को दबाने की कवायद बताते हैं। वहीं पूर्वांचल के सबसे पिछड़े जिलों में से एक जहां से सबसे ज्यादा भुखमरी के सवाल भी सामने आए हैं में कृषि संकट और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हुए जनसंग्राम मोर्चा के बैनर से वामपंथी गीतकार हरिहर ओझा तरूण भी मैदान में हैं।

बहरहाल जिस तरह चुनाव बाद किसी भी एक दल के पूर्ण बहुमत में आने की संभावना ना के बराबर है और गैर कांग्रेस, गैर भाजपा मोर्चा बनाने की कवायद चल रही है उसमें चंद्रशेखर की याद आनी तय है।

गायब हो रहे हैं तेंदुए

विजय प्रताप

देश में तेजी से गायब हो रहे बाघों के प्रति सरकार से लेकर सभी संस्थओं की चिंता जगजाहिर है.. प्रधानमंत्री की अधक्ष्ता में गठित आयोग भी इस पर लोक नहीं लगा सका है. हाल में एक निजी संस्था ने अपनी एक रिपोर्ट में इस साल १७ से अधिक बाघों के मारे जाने की बात कही है. दूसरी तरफ जंगलों से गायब हो रहे तेंदुओं की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता. इसके चलते आज जंगलों से तेदुओं का भी आस्तित्व खतरे में पड़ गया है.राजस्थान की मध्यप्रदेश से लगी सीमा के जंगलों से तेंदुए तेजी से गायब हो रहे हैं। राज्य के वन्यजीव गणना की रिपोर्ट बताती है कि इस क्षेत्र के दरा व जवाहर सागर अभयारण्य से पिछले बारह सालों में 53 तेंदुए गायब हुए हैं। 2007 की वन्यजीव गणना के हिसाब से दोनों अभयारण्यों में अब केवल 9 तेंदुए शेष रह गए हैं। स्पेशल आपरेशन ग्रुप (एसओजी) की एक टीम ने जयपुर के सांगानेर हवाई अड्डे के पास से 6 शिकारियों को गिरफ्तार कर अन्तरराज्यीय गिरोह का पर्दाफाश किया। टीम ने उनके पास से तेंदुए की खाल भी बरामद की है। शिकारी इस खाल को दिल्ली के किसी व्यापारी को साढे़ बारह लाख में बेचने वाले थे। गिरफ्तार अभियुक्तों ने राजस्थान-मध्यप्रदेश की सीमा से लगे जंगलों में वन्यजीवों के शिकार की बात स्वीकार की है। उनके पास से बरामद तेंदुए की खाल पर गोली के निशान हैं। शिकारियों ने बताया कि इस तेंदुए को उन्होंने बारां के जंगलों में टोपीदार बंदूक से मारा था। पुलिस उनसे और पूछताछ में जुटी। माना जा रहा है कि उनके माध्यम से हाड़ोती क्षेत्र से गायब हो रहे तेंदुओं के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां मिल सकती हैं। कोटा जिले में स्थित दरा व जवाहर सागर अभयारण्य एक दशक पहले तक तेंदुओं की दहाड़ से गुलजार रहते थे। 1996 में दरा अभायरण्य में 39 व जवाहर सागर अभयारण्य में 24 तेंदुए थे। लेकिन इसके बाद इनकी संख्या में जो गिरावट आनी शुरू हुई वह अभी भी जारी है। सालाना वन्यजीव गणना की रिपोर्ट के मुताबिक 2002 में तेंदुओं की संख्या दरा अभयारण्य में 16 व जवाहर सागर में 14 थी। इसके बाद 2004 में क्रमशः 6- 6 व 2007 में 7-2 रह गई। वन्यजीव विषेशज्ञों की माने तो तेंदुओं के गायब होने के पीछे इन जंगलों में सक्रिय शिकारी गिरोह है। हांलाकि वन विभाग के अधिकारी इस बात से हमेशा इंकार करते रहे हैं। सेवानिवृत्त वन संरक्षक वी के सालवान का कहना है कि पिछले कुछ समय से दरा व जवाहर सागर अभयारण्य में मानवीय हस्तक्षेप तेजी से बढ़े हैं। जंगलों में अवैध खनन के लिए किए जाने वाले विस्फोट व पेड़ों की अवैध कटाई ने वन्यजीवों की स्वाभाविक जिंदगी में खलल पैदा किया है। शिकारियों का भी प्रभाव पिछले कुछ सालों से बढ़ रहा है। इन सब के लिए जिम्मेदार यहां के वन अधिकारी हैं। उनका मानना है कि वन विभाग वनों के विकास की अपेक्षा उनकी सुरक्षा पर काफी कम खर्च कर है। जिसके चलते जंगलों की सुरक्षा भगवान भरोसे रह गई। पहले छोटे मोटे जानवरों का शिकार करने वाले शिकारी अब लुप्तप्राय जानवरों के पीछे पड़ गए हैं। हांलाकि वन विभाग के अधिकारी जंगलों में शिकार से हमेशा इंकार करते रहे हैं। राज्य के मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक आर के मेहरोत्रा के अनुसार वन्यजीवों की घटती संख्या का कारण वनक्षेत्रों में बेतहाशा चराई है, जिससे वन्यजीवों को चारे की कमी हो जाती है और उनका प्राकृतिक चक्र बिगड़ रहा है। दरा व जवाहर सागर अभयारण्य में शिकार के संबंध में कोटा के उपवन संरक्षक (वन्यजीव) अनिल कपूर का कहना है कि हम जांच करा रहे हैं। बिना जांच के शिकारियों के मौजूदगी की पुष्टी नहीं की जा सकती।

चुनाव आयोग में नहीं लिया संज्ञान, मीडिया में बनाया मुद्दा

गोरखपुर से भाजपा प्रत्याशी योगी आदित्य नाथ के सांप्रदायिक भाषणों की सीडी के सम्बन्ध में जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी के पत्र का चुनाव आयोग में ४ दिन बीत जाने के बाद भी संज्ञान नहीं लिया। हांलाकि एनडीटीवी इंडिया ने इस मसले पर २५ मार्च को अपने समाचारों में प्रमुखता से उठाया है। इसमे योगी की उम्मीदवारी निरस्त करने व उनके खिलाफ सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की कोशिश पर एडवोकेट असद हयात से बातचीत प्रसारित की गई। चुनाव आयोग को भेजी गई सीडी में योगी के सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाले भाषण के आधार पर उनके खिलाफ ऍफ़ आई आर दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार करने की मांग की गयी है. जेयूसीएस इस सीडी के आधार पर भाजपा से अपनी स्थिति साफ़ करने को कहा है. जेयूसीएस ने फिर एक बार चुनाव आयोग से पत्र व सीडी के आधार पर योगी आदित्य नाथ के खिलाफ मामला दर्ज करने की मांग की है.
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सेवा में,

श्रीमान मुख्य चुनाव आयुक्त,

भारत निर्वाचन आयोग,

अशोक रोड, नई दिल्ली।

विषयः

दिनांक 10 अप्रैल, 08 को आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव में चुनाव प्रचार के अंतिम दिन भाजपा सांसद श्री आदित्य नाथ योगी एवं भाजपा प्रत्याशी श्री रमाकांत यादव व अन्य वक्ताओं द्वारा चुनाव आचार संहिता एवं सेक्शन 125 रिप्रजेन्टेशन आफ पिपुल एक्ट 1951 के उल्लंघन के सम्बन्ध में।

महोदय,

उपरोक्त विषय में आपसे निम्न निवेदन करना हैः-

1- यह कि प्रार्थीगण नम्बर 1 व 2 जर्नलिस्ट्स यूनियन फार सिविल सोसाइटी नामक संगठन के राष्ट्ीय कार्यकारिणी सदस्य है तथा प्रार्थी नं0 4 आवामी कोंसिल फार डेमोक्रेसी एंड पीस संगठन का जनरल सेक्रेट्ी है। यह दोनों संगठन, भारतीय नागरिक समाज में लोकतांत्रिक, सामाजिक न्याय व धर्म निरपेक्षता के सिद्धांतों की रक्षा के साथ-साथ अशिक्षित, कमजोर, पिछड़े, दलित व अक्षम वर्गों के नागरिकों के हितों के लिए कार्य करते हैं।

2- यह कि गोरखपुर सांसद आदित्य नाथ योगी हिन्दू युवा वाहिनी नामक संगठन के मुखिया हैं। सांसद श्री योगी एवं उनके संगठन का उद्देश्य भारतीय नागरिक समाज में हिन्दू राष्ट्वाद की आड़ में सांम्प्रादायिकता का जहर पैदा करना तथा समाज का साम्प्रादयिकता सद्भाव बिगाड़ना रहा है, जिससे इनके राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति होती है। ऐसा करके वे हिन्दू मतदाताओं का ध्रुवीकरण अपने व भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों के पक्ष में करते रहे हैं एवं मुस्लिम मतदताओं के मन में अपना भय बिठाते रहे हैं।

3- यह कि दिनांक 10 अप्रैल, 08 को आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र के लिए हो रहे उपचुनाव में चुनाव प्रचार का अंतिम दिन था, इस चुनाव प्रचार के अंतिम दिन भाजपा प्रत्याशी श्री रमाकांत यादव के पक्ष में श्री आदित्यनाथ योगी ने ताबड़तोड़ चुनावी जनसभाएं कर हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को दूषित साम्प्रदायिकता का रूप देकर उन्हें अंदर तक झकझोरा और मुसलमानों के प्रति नफरत पैदा करने वाले तथा हिन्दू मुस्लिमों के बीच वैमनस्यता पैदा करने वाले, भाईचारे व साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने वाले शब्दों का प्रयोग कर अपना भाषण दिया। इन भाषणों के दौरान मंच पर श्री रमाकांत यादव व अन्य व्यक्ति उपस्थित रहे। सभाओं में रमाकांत यादव व अन्य वक्ताओं ने भी इसी प्रकार के भाषण दिए।

4- यह कि श्री आदित्यनाथ योगी, श्री रमाकांत यादव एवं उनके सहयोगी अन्य वक्ताओं ने उक्त 10 अप्रैल 2008 को दिन के समय जनपद आजमगढ़ के सिकरौर, बिलरियागंज, कप्तानगंज, अतरौलिया तथा सिविल लाइन शहर आजमगढ़ में अपनी जनसभाएं आयोजित की और उक्त भाषण दिए। इन चुनावी सभाओं में प्रत्येक में कम से कम 5-5 हजार की संख्या में जन समुदाय उपस्थित था।

5- यह कि प्रार्थीगण ने इन सभाओं में श्री आदित्यनाथ योगी एवं अन्य वक्ताओं द्वारा दिए गए भाषणों की वीडियों रिकार्डिंग की जो कि जैसी रिकार्ड हुई उसी रूप में आपकों इस ज्ञापन के साथ ई-मेल की जा रही है। इसकी मूल प्रति प्रार्थीगण के पास है जिसे सुनवाई के समय आपके समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।

6- यह कि इन चुनावी सभाओं में जिनकी रिकार्डिंग प्रार्थीगण ने की और जिनकी प्रति आपको प्रस्तुत की जा रही है, योगी आदित्यनाथ ने कहा कि हिन्दुओं के शस्त्र व शास्त्र दोनों मिलाकर राष्ट् की व्यवस्था को चलाना है। इसलिए नारा लगाने के साथ-साथ भाला चलाना भी आना चाहिए। योगी आदित्यनाथ ने अजीत राय हत्याकांड, सुन्नर यादव हत्याकांड व गोकशी के कथित मामलों को संदर्भ लेते हुए अपने भाषण में कहा कि यह सब इसलिए हुआ क्योंकि हिन्दू मौन रहे इसलिए अब अगर एक हिन्दू की हत्या होगी तो हम सौ मुसलमानों की हत्या करेंगे और ब्याज सहित इसकी अदायगी की जाएगी। लेकिन इसको वही कर पाएगा जिसकी भुजाओं में ताकत होगी और शिखंडी व हिजड़े नहीं लड़ सकते। जिसमें लड़ने का जज्बा हो वही लड़ पाएगा और हमें एक लड़ने वाला रमाकांत यादव मिल गया है। योगी आदित्यनाथ ने मुसलमानों को कत्ल करने की अपनी दूषित विचारधारा के अनुसार बोलते हुए कहा कि अरबी बकरों ;मुसलमानोंद्ध को काटने ;हाथ से काटने का इशारा करते हुएद्ध की तैयारी भी करनी चाहिए। आदित्यनाथ योगी ने हिन्दू लड़कियों को मुसलमानों युवकों से प्रेम प्रसंगों का हवाला देते हुए कहा कि उन्हें उच्च न्यायालय के एक आदेश की चिंता हो रही है जिसमें न्यायालय ने राज्य सरकार से कहा कि हिन्दू लड़कियां क्यों मुसलमान लड़कों के साथ भाग जाती हैं। योगी आदित्यनाथ ने इस संदर्भ में अपने भाषण में कहा कि अगर एक हिन्दू लड़की किसी मुसलमान के साथ भागे तो सौ मुसलमान लड़कियों को हिन्दू लड़कों को भगाना चाहिए यानि कि अनुचित शारीरिक सम्बंध बनाने चाहिए। उन्होंने कहा जो मुसलमान धर्म परिवर्तन कर हिन्दू बनेगा उसको हम स्वीकार करेंगे और एक नई जाति बना देंगे। योगी आदित्यनाथ ने अपने भाषण की शुरूआत में कहा कि जब होंगे बजरंगबली तो नहीं आ सकता कोई अली वली। उनके भाषण के समय उन्होंने जनता से हर हर महादेव, गऊ माता की जय, राम जन्म भूमि की जय, कृष्ण जन्म भूमि की जय, कांशी विश्वनाथ की जय, शंखनाद जैसे नारे के उद्घोष कराए और हिन्दू धर्म विधान के अनुसार उपस्थित जन समुदाय को संकल्प दिलाया। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि आजमगढ़ की पहचान किसी गजनवी, गौरी, बाबर या किसी आजम से हो यह उचित नहीं है। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि आजमगढ़ का आर्यमगण होना चाहिए। उन्होंने कहा कि हम ऐसे उम्मीदवार का समर्थन करते हूए जो हिन्दू राष्ट्रवाद का समर्थक हो। जिसका अर्थ है कि उन्होंने भारतीय संविधान मेें अनी अनास्था व्यक्त की, कयोंकि भारतीय संविधान किसी हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा का स्वीकृति नहीं देता और धर्म निरपेक्षता पर आधारित है लेकिन श्री आदित्य नाथ ने अपने भाषण में कहा कि हम ऐसे उम्मीदवार ;रमाकांत यादवद्ध का समर्थन करते हे जो हिन्दू राष्ट्रवाद का समर्थक है। उन्होंने कहा कि आज हिन्दू समाज प्रताड़ित हो रहा हे तथा उसके समक्ष पहाचान का संकट हैं उन्होंने कहा कि आम मुसलमाान किसी मुख्तार अंसारी, किसी खान या पठान का समर्थन करता है तो हम क्यों नहीं हिन्दू राष्ट्रवाद के समर्थक रमाकांत यादव का समर्थन कर सकते।

7- यह कि अपने भाषणों में श्री योगी आदित्य नाथ ने मुसलमानों को दो पहिया जानवर कहा उन्होंने कि पैदावार धान, गन्ने की बढ़े ते अच्छी बाात होती है लेकिन मुसलमानों की बढ़ती पैदावर को बन्द करने के लिए आगे आना पड़ेगा । इसी से प्रेरित होकर एक वकता द्वारा (योगी आदित्य नाथ वाश्री रमाकांत यादव की उपस्थिति में) आपने भाषण मेें कहा कि देष के खाद्यान्य समास्या की वजह मुसलमान हैं क्योंकि मुसलमानों की आबादी आठ गुना बढ़ गयी है और मुसलमान सुअर के पिल्लों की तरह बच्चे पैदा करता है और सड़कों पर छोड़ देता है। इन सभाओं में जो नारे लगे उनमें यूपी भी गुजरात बनेगा, आजमगढ़ शुरूआत करेगा, जैसे नारे प्रमुख हैं। जिसका अर्थ है कि वे हिन्दू जनता को मुसलमानों के विरूद्ध नफरत पैदा करके उन्हें भड़का रहे थे तथा मुसलमानों में डर बैठा रहे थे। उक्त भाषणों का प्रभाव जनमानस पर यही हुआ।

8- यह कि उक्त जनसभाओं में जो अन्य भाषण दिए गए हैं वे संलग्न सीडी में देखे व सुने जा सकते हैं। यह समस्त भाषण, विचार जो चुनाव जन सभा के दौरान व्यक्त किए गए हैं वे धारा 125 रिप्रजेन्टेशन आफ पीपुल एक्ट का सीधा उल्लंघन है। इसके अतिरिक्त धारा 153-ए, 171-ए, 171-सी, 188, 505 आईपीसी एवं अन्य विधिक प्राविधानों का उल्लंघन है।

9- यह कि यह आश्चर्य का विषय है कि जिला चुनाव अधिकारी आजमगढ़ द्वारा कोई कार्यवाही उक्त विषैले भाषण देने के पाश्चात् आज तक श्री आदित्यनाथ योगी व श्री रमाकांत यादव एवं अन्य वक्ताओं के विरूद्ध नहीं की गई और न ही भारत चुनाव आयोग द्वारा आज तक इनके विरूद्ध कोई कार्यवाही हुई जिसका अर्थ है कि जिला प्रशासन आजमगढ़ एवं भारत चुनाव आयोग श्री आदित्यनाथ एवं सहयोगियों को कानून से ऊपर मानता है।

10- यह कि उक्त भाषणों की मूल टेप प्राथर््ीगण के पास है जिसे सुनवाई के समय प्रस्तुत किया जाएगा। जैसी टेप रिकार्ड है उसी रूप में ज्ञापन के साथ ई-मेल द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है।

11- यह कि वर्तमान लोकसभा चुनाव के दौरान योगी आदित्यनाथ और भाजपा के अनेक उम्मीदवार का समर्थक इसी प्रकार की शब्दावली व भाषण विशेषकर बस्ती, गोरखपुर, आजमगढ़, वाराणसी मण्डलों के जनपदों के अंतर्गत आने वाले लोकसभा क्षेत्रों में दे रहे हैं और वैमनस्यता पैदा कर रहे हैं जो भारतीय नागरिक समाज में सामाजिक सद्भाव के लिए घातक है। इन वक्ताओं में श्री आदित्यनाथ योगी, रमाकांत यादव (आजमगढ़ से भाजपा प्रत्याशी), वाई डी सिंह (बस्ती से भाजपा प्रत्याशी), श्री पंकज (महराजगंज से भाजपा प्रत्याशी), श्री विनय दूबे, (पडरौना से भाजपा प्रत्याशी), श्री सुनील सिंह एवं राघवेंद्र सिंह पदाधिकारीगण हिन्दू युवा वाहिनी इनके प्रमुख सहयोगी वक्ता हैं।
प्रार्थना

अतः इन परिस्थितियों में आपसे प्रार्थना है कि--

1- यह कि उपरोक्त विषय में श्री योगी आदित्य नाथ, श्री रमाकांत यादव उक्त के विरूद्ध अंतर्गत धारा 125 रिप्रजेन्टेशन आफ पीपुल एक्ट 1951 एवं अन्य विधिक प्राविधानों के अंतर्गत एफआईआर दर्ज कराई जाए एवं मामले को दबाने वाले दोषी जिला अधिकारियों के विरूद्ध भी कार्यवाही की जाए।2- यह कि वर्तमान लोकसभा चुनाव के दौरान विशेषकर श्री आदित्यनाथ योगी, रमाकांत यादव, वाई डी सिंह, विनय दूबे, श्री पंकज एवं अन्य इनके सह वक्ताओं के भाषणों की रिकार्डिंग कराई जाए।

3- एवं अन्य कार्यवाही जनहित व न्यायहित में की जाए जिसका किया जाना आवश्यक है।

प्रार्थीगण

1- राजीव कुमार यादव पु़त्र श्री इंद्रदेव यादव निवासी ग्राम घिन्हापुर, पोस्ट गोपालपुर, थाना मेहनगर आजमगढ़

2- शाहनवाज आलम पुत्र मोहम्मद इलियास, निवासी बहेरी बलिया

3- राजकुमार पुत्र राम अचल, निवासी पचदेवरा, कछराना इलाहाबाद

4- मोहम्मद असद हयात एडवोकेट जनरल सेक्रेटरी आवामी कौंसिल फार डेमोक्रेसी एंड पीस,

द्वारा जनाव फरमान अहमद नकवी एडवोकेट समीप दरगाह दरियाबाद, इलाहाबाद

दिनांक 20-03-२००९

प्रतिलिपि- जानकारी एवं आवश्यक कार्यवाही के निवेदन के साथ प्रस्तुत है (संलग्न उक्त भाषण ई-मेल के साथ)

1- श्री मुख्य चुनाव अधिकारी, उत्तर प्रदेश, चैथी मंजिल, विकास भवन, जनपथ मार्केट लखनऊ।

जारीकर्ता- जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) व आवामी कौंसिल फाॅर डेमोक्रेसी एंड पीसचितरंजन सिंह (पीयूसीएल) ,अनिल चमाड़िया (स्वतंत्र पत्रकार), सुभाष गताडे (स्वतंत्र पत्रकार), मोहम्मद शोएब (एडवोकेट), असद हयात (एडवोकेट), फरमान नकवी (एडवोकेट), के के राय (एडवोकेट), जमील अहमद आजमी (उपाध्यक्ष हाईकोर्ट बार एसोसिएशन इलाहाबाद), विनोद यादव, बलवंत यादव, महंत जुगल किशोर शास्त्री, विजय प्रताप, प्रबुद्ध गौतम, लक्ष्मण प्रसाद, ऋषि सिंह, अलका सिंह, ए बी सालोमन, तारिक शफीक, मसीहुद्दीन, अरविंद सिंह, प्रदीप सिंह, अखिलेश सिंह, अतुल चैरासिया (उप मंत्री अयोध्या प्रेस क्लबद्ध), अरूण उरांव, पंकज उपाध्याय, विवेक मिश्रा, शशिकांत सिंह परिहार, विनय जयसवाल, राजकुमार, अरविंद शुक्ला, शरद जयसवाल, राघवेंद्र प्रताप सिंह, अविनाश राय, पीयूष तिवारी, अर्चना मेहतो, प्रिया मिश्रा, राहुल पांडे, वगीश पांडे, ओम प्रताप सिंह, अरूण वर्मा।

बिना हथियार भाजपा तैयार

विजय प्रताप
राजस्थान लोकसभा चुनावों के लिए भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा की 25 सीटों में से 12 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर दी है। इस घोषणा के साथ ही पार्टी ने राज्य में चुनावी बिगुल फंूक दिया है। हांलाकि अभी तक कांग्रेस के क्षत्रप मैदान में नहीं उतरे हैं। कांग्रेस पिछले परिणामों से सबक लेते हुए कांग्रेस हर कदम फूंक-फंूक कर रखना चाहती है। उम्मीदवारों की घोशणा के साथ ही भाजपा का अंदरूनी कलह भी उभर कर सामने आने लगा है। टिकट बंटवारें में पार्टी के आम कार्यकत्र्ताओं की उपेक्षा कर बाहरी उम्मीदवारों को चुनाव लड़ाने के फैसले का कार्यकत्र्ता जगह-जगह विरोध कर रहे हैं। भाजपा ने जिन 12 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की हैं, उनमें आठ मौजूदा सांसद हैं, जबकि चार नए लोगों को मौका दिया गया है। 7 बार जयपुर के सांसद रहे गिरधारी लाल भार्गव को एक बार फिर से मैदान में थे। लेकिन टिकट घोषणा के दो दिन बाद ही भार्गव का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। अब भाजपा यहां से नए उम्मीदवार की तलाश में जुट गई है। इसके अलावा जोधपुर से मौजूदा सांसद जसवंत विश्नोई, पाली से पुष्प जैन, चुरू से रामसिंह वास्वां, श्रीगंगानगर से निहालचंद मेघवाल व भीलवाड़ा से वी पी सिंह को टिकट दिया गया है। सूची में दो नेतापुत्रों को भी मौका दिया गया है। ये हैं झालावाड़ से सांसद व वसंुधरा राजे पुत्र दुश्यंत सिंह व बाड़मेर से पूर्व मंत्री जसवंत सिंह के पुत्र मानवेन्द्र सिंह को टिकट दिया गया है। जिन नए चेहरों को मौका मिला है उनमें धौलपुर-करौली सीट से डाॅ मनोज राजोरिया, व नागौर से पूर्व सांसद रामरघुनाथ चैधरी की पुत्री बिंदू चैधरी शामिल हैं। जिन चार लोगों के टिकट काटे गए हैं, उनमें बीकानेर के सांसद और फिल्म अभिनेता धर्मेंद्र व कोटा से सांसद रघुवीर सिंह कौशल प्रमुख हैं। भाजपा बीकानेर में सांसद धर्मेंद्र के खिलाफ गुस्से को पहले से ही महसूस कर रही थी। फिल्मी में अपने अभिनय से लोगों को रिझाने वाले धर्मेंद्र वास्तविक जिंदगी में जनता के दुख-दर्द और अपनी जिम्मेदारियों को भूल मायानगरी से बाहर ही नहीं निकले। चुनाव के बाद बीकानेर के लोगों के लिए अपने सांसद का दर्शन कर पाना ईद के चांद माफिक हो गया था। संसद में भी उनकी मौजूदगी न के बराबर ही रही। फिल्मी में कुत्तों का खून चूसने वाले व चीखने चीघाड़ने वाले धर्मेंद ने संसद में एक बार भी मुंह नहीं खोला। इन सब को देखते हुए इस बार भाजपा ने यहां से नए उम्मीदवार अर्जुन राम मेघवाल को अपना उम्मीदवार घोशित किया है। मेघवाल वर्तमान में आईएएस अधिकारी हैं और बीकानेर में ही अतिरिक्त वाणिज्य कर अधिकारी के पद पर तैनात हैं।

उधर कोटा से भी भाजपा ने एक सरकारी अधिकारी को चुनाव लड़ाया है। यहां से भाजपा उम्मीदवार श्याम शर्मा वर्तमान में अधिषासी अभियंता के पद पर तैनात हैं। संघ की पृश्टभूमि के शर्मा अभी तक भाजपा की प्राथमिक सदस्यता भी नहीं ग्रहण किए हैं। टिकट बंटवारें में पार्टी कार्यकत्र्ताओं की उपेक्षा कर नौकरषाहों को चुनाव लड़ाना भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं को सुहा नहीं रहा। कुछ नेता सीधे विरोध न कर पार्टी के फैसले को स्वीकार कर ले रहे हैं। लेकिन ज्यादातर कार्यकत्र्ता पार्टी के इस फैसले को मानने से इंकार कर चुके हैं। ऐसा ही विरोध कोटा में राश्ट्ीय स्वयं सेवक संघ की पाठशाला से निकले श्याम शर्मा को लेकर भी है। इस तरह की नाराजगी का बड़ा खामियाजा भाजपा को आगामी चुनावों में उठाना पड़ सकता है।

यह सारी कवायद भाजपा प्रदेश कार्यसमिति के नेताओं ने संघ की नाराजगी को दूर करने के लिए की है। 12 में से 3 संघियों को टिकट देकर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम माथुर संघ की नाराजगी दूर करना चाहते हैं। यह अलग बात है कि अब खुद उसके आम कार्यकत्र्ता इस रवैया से नाराज हो गए हैं। हाल के विधानसभा चुनावों के दौरान टिकट बांटवारें में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अति आत्मविश्वास में संघ की सिफारिशों को खारिज कर अपने मर्जी से टिकट बांटे थे। जिसके बाद संघ खुल कर भाजपा के विरोध में आ गई। कुछ एक सीटों से संघ ने निर्दलीय प्रत्याशियों को भी समर्थन देने का फतवा जारी कर दिया। इन सब का खामियाजा भाजपा को चुनाव में हार के रूप में भुगतना पड़ा। इस चुनावों में मुद्दों की बात करें तो भाजपा बिना हथियार के क्षत्रप की तरह है। विधानसभा चुनाव में हार के बाद ऐसे मुद्दों की तलाश में जुटी है, जिसके बल पर लोकसभा चुनाव में हार का बदला लिया जा सके। लेकिन पांच साल के अपने कार्यकाल में वसुंधरा राजे ने आम जनता पर जो जुल्म ढाए हैं, वह उसे लोकसभा चुनाव में भी भारी पड़ने वाला है। वसुंधरा के कार्यकाल में समय-समय पर हुए नरसंहार लोगों के जेहन में भी हरे हैं। पानी मांग रहे किसानों व आरक्षण की मांग कर रहे गुर्जरों के सीनों पर चली गोलियों के घाव अभी भरे नहीं हैं। इसलिए पूरे चुनाव में भाजपा को विपरित परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। केन्द्रीय स्तर पर उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृश्ण आडवाणी का पुराना राम मंदिर राग भी लोगों को लुभाने के लिए काफी नहीं होगा।