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आरक्षण और सरकार

ऋषि कुमार सिंह

भारतीय संविधान सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए राज्य को विशेष उपाय करने की जिम्मेदारी सौपता है। लेकिन धूमिल होती राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के चलते इस विशेष उपाय यानी आरक्षण को सामाजिक-आर्थिक न्याय का एक मात्र साधन मान लिया गया है। जिसके चलते समय-समय पर महिलाओं,गरीब सवर्णों और गैर आरक्षित श्रेणी की जातियों को आरक्षण के दायरे में लाने की मांग उठती रहती हैं। यहीं पर आरक्षण-व्यवस्था को निष्प्रभावी बनाने की कोशिशें भी हो रही है। जिसमें अनुपयुक्त उम्मीदवारों के न उपलब्ध होने और प्रशासनिक खर्च में कटौती के नाम पर सरकारी ढांचे में खाली पदों को नहीं भरा जा रहा है। जब भर्ती की ही नहीं जायेगी तो आरक्षण की बात ही कहां से आयेगी। रही कामकाज चलाने की बात तो इसके लिए आउटसोर्सिंग का सहारा ले लिया जायेगा। गौरतलब है कि भारत सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय महत्वपूर्ण मंत्रालयों में शामिल किया जाता है। केवल इसी मंत्रालय में भारतीय सूचना सेवा के आरक्षित वर्ग के कुल 88 पद कई सालों से खाली पड़े हुए हैं। मंत्रालय के सभी रिक्त पदों में कुछ को सीधी भर्ती के जरिए तो कुछ पदोन्नति से भरे जाने हैं। मंत्रालय ने सूचना अधिकार के तहत दी गई सूचना में भारतीय सूचना सेवा के खाली पदों की भर्ती के लिए कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग जिम्मेदार बताया है। इस बावत कार्मिक विभाग से पत्राचार किये जाने का ब्यौरा भी दिया है। साथ ही यह भी सूचना उपलब्ध कराई गई है कि कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को इन रिक्तियों के बावत लगातार सूचित किया गया है। बावजूद इसके कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग आरक्षित श्रेणी के पदों को भरने के लिए कोई कदम नहीं उठा रहा है। जबकि मंत्रालय ने पदोन्नति से भरे वाले पदों के बारे में साफ तौर पर यह जानकारी दी है कि इसके लिए उपयुक्त उम्मीदवारों की कमी है। इस मंत्रालय तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के खाली पदों को मिला लेने पर आरक्षित श्रेणी के रिक्त पदों का आंकड़ा सैकड़ा पार कर जायेगा। अकेले फिल्म विभाग में आरक्षित वर्ग के 64 पद खाली हैं,जिसमें ‘ग’ और ‘घ’ श्रेणी के खाली पदों की संख्या 51 है। फिल्म प्रभाग इसके पीछे फिडर कैडर के लिए पात्र कर्मचारियों और अधिकारियों के न उपलब्ध होने की जानकारी दी है। साथ में यह भी बताया है कि मंत्रालय में सीधी भर्ती पर रोक होने के कारण ‘ग’ और ‘घ’ श्रेणी की भर्ती काफी समय से नहीं हुई है। जबकि पत्र सूचना कार्यालय(पीआईबी) ने डाटा एंट्री आपरेटर और सफाई कर्मचारियों के आउटसोर्सिंग की जानकारी दी है।
सूचना-आवेदन का जवाब देते हुए मंत्रालय और उसकी अनुषंगी इकाईयों ने बार-बार दोहराया कि हमारे यहां सीधी भर्ती पर रोक लगी हुई है। तथ्य है कि इसी को आधार बनाते हुए केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी ने भी डीएवीपी यानी दृश्य-श्रव्य प्रसारण विभाग को आउटसोर्सिंग करने की छूट दे दी। तर्क दिया गया कि डीएवीपी सरकार का मुख्य संचार माध्यम है और हाल के दिनों में इसकी जिम्मेदारियों में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। कार्मिकों की कमी के चलते आउटसोर्सिंग को विकल्प के रूप में चुना गया है। अब मंत्री महोदया यह पूछना लाजमी हो जाता है कि जो काम आउटसोर्सिंग के जरिए कराया जायेगा क्या वह काम नियमित कर्मचारियों की भर्ती करके नहीं कराया जा सकता था ? लेकिन बदलते राजनीतिक आदर्शों और उद्देश्यों के बीच गलत को जायज ठहराने की कोशिशें तेज हैं। निजी पूंजी से चलने वाली आउटसोर्सिंग एजेंसियां आरक्षण जैसी किसी भी संवैधानिक जिम्मेदारी से बाहर हैं। सरकारी कामकाज में आउटसोर्सिंग जैसे फैसले आरक्षण-व्यवस्था पर ही नहीं बल्कि राज्य के बेहतर नियोक्ता होने पर भी सवालिया निशान है। क्योंकि कम लागत पर काम पूरा करने के चक्कर में आउटसोर्सिंग एजेंसियां सीधे तौर पर कार्मिक हितों और श्रम मानकों का उल्लंघन करती हैं। सरकारी कामकाज में ऐसी एजेंसियों की भागीदारी के बाद सरकार का यह नैतिक आधार कमजोर पड़ने लगता है कि वह निजी क्षेत्र पर श्रम मानकों को मानने का दबाव डाले।
कुल मिलाकर निजी आउटसोर्सिंग एजेंसियों की भागीदारी से नुकसान तय है। ऐसे में सरकारी आउटसोर्सिंग एजेंसी बेसिल (ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कंसल्टेंट इंडिया लिमिटेड) के बारे में मिली जानकारियों से नाजुक हालात पता चलता है। बेसिल प्रमुख रूप से प्रसार-भारती और मंत्रालय की नवगठित इलेक्ट्रानिक मीडिया मॉनिटरिंग सेल के लिए कार्मिकों की आउटसोर्सिंग करता है। बेसिल कॉंन्ट्रेक्ट के आधार पर भर्तियां करता है। बेसिल सूचना और प्रसारण सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन सार्वजनिक क्षेत्र की आईएसओ 9001-2000 प्रमाणित कम्पनी है। जिसे हाल ही में मिनी रत्न का दर्जा दिया गया है। इसके बावजूद खुद को आरक्षण की जिम्मेदारियों से मुक्त समझती है। क्योंकि एक सूचना-आवेदन के लिखित जवाब में कहा कि इस तरह के डॉटा को तैयार नहीं करता है यानी आरक्षित वर्ग के कितने कार्मिकों की भर्ती की गई है,इसका ब्यौरा नहीं रखता है। जिसका सीधा मतलब निकलता है कि वह भर्ती के समय आरक्षण जैसी संवैधानिक व्यवस्था लागू ही नहीं करता है। नहीं तो कोई वजह नहीं बनती है कि वह इसको सिद्ध करने वाले दस्तावेजों को तैयार नहीं करे। ऐसे माहौल में किसी निजी कम्पनी से सामाजिक न्याय की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।
आउटसोर्सिंग के जरिए कल्याणकारी राज्य के साथ जो कुछ भी हो रहा है,उसे लोक प्रशासन में ‘रोल बैक थ्यौरी ऑफ द स्टेट’ नाम दिया गया है। इसे राजनीति विज्ञान के ‘कम-शासन,बेहतर शासन’ यानी स्वायत्त शासन का समर्थन करने सिद्धान्त की संकुचित व्याख्या के साथ भी जोड़ने के तर्क पेश किये जा रहे हैं। नव उदारवादी आर्थिक प्रक्रियाओं से सहमत सरकारें निजी क्षेत्र के पक्ष में अपने कार्य-व्यापार को समेटते हुए खुद को केवल मुआवजा बांटने की घोषणाओं में व्यस्त करने में लगी हुई हैं। ऐसी हालत में सरकारी स्तर पर आरक्षण-व्यवस्था को लागू करने से जुड़ी हकीकत और मंशा को समझने में कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। स्वतंत्र भारत की साठ साल से ऊपर की राजनीति में उपयुक्त उम्मीदवारों का न होना आरक्षण-व्यवस्था के साथ हुए अन्याय की कहानी है। इससे यह भी पता चलता है कि संवैधानिक जिम्मेदारियों को कितनी संजीदगी से निभाया गया है।

{सूचना एवं प्रसारण विभाग में लगाई गई आरटीआई के जवाब में दिये गये तथ्यों पर आधारित है।आंकडे दिये गये जवाब के आधार पर दुरस्त हैं-ऋषि कुमार सिंह}

ओबामा कहां के राष्ट्रपति हैं !

बराक ओबामा कहां के राष्ट्रपति हैं, यह पूछा जाए तो थोड़ा अजीब जरुर लगेगा। लेकिन पिछले कुछ दिनों से संशय की स्थिति बनी हुई थी। पहले तो पता था कि वह अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए हैं, लेकिन 20 जनवरी को जब वह राष्ट्रपति पद की शपथ ले रहे थे, तो भारत में मीडिया के व्यवहार को देख यह सँशय की स्थिति वाजिब ही थी। लगा कि ओबामा भारत के राष्ट्रपति पद की शपथ ले रहे हैं या शायद भारत कुछ समस के लिए अमेरिका बन गया है।
उस दिन सुबह अखबार खोला तो पता चल गया कि आज राष्ट्रपति ओबामा शपथ लेंगे। यही नहीं वह कहां किस रास्ते से शपथ लेने जाएंगे, कितने सुरक्षाकर्मी उनकी रक्षा के लिए तैनात रहेंगे सब पता चल गया। किसी ने पूरा पेज तो किसी ने आधे से ज्यादा जगह देकर बकायदे फोटो व ग्राफिक्स के माध्यम से सभी कुछ साफ-साफ स्पष्ट कर दिया। ताकि लोग रास्ता न भूल जाएं। मीडिया जानती है भारत के लोग कितने भूलक्कड़ है। कहते है अहिंसा के रास्ते पर चलेंगे, चले कहीं और जाते हैं। बहरहाल उस दिन रात को साढ़े दस बजे अमेरिका में जब राष्ट्रपति शपथ ले रहे थे तो भारत के सभी निशाचर खबरिया चैनल उसका सजीव प्रसारण में लगे थे। भारतीय प्रधानमंत्री शपथ ले तो भी उसे इतना कवरेज नहीं मिलता। ओबामा करिश्माई व्यक्तित्व, ओबामा ने इतिहास रचा। चैनल दर्शकों पर ऐसे रौब झाड़ रहे कि देखों हम तुम्हें इतिहास बनते दिखा रहे हैं। कुछ साथ-साथ ओबामा के भाषण का हिंदी अनुवाद भी दिखा रहे थे। दर्शकों को जबर्दस्ती आशा बंधाई जा रही थी, कि अब सबकुछ बदल जाएगा। मीडिया उनके अश्वेत होने से कुछ ज्यादा ही खुश दिख रही थी, इसे ही इतिहास बताया जा रहा था। एक तरह से यह इतिहास है भी।
इस इतिहास से सचमुच कुछ बदल सकेगा यह सोचने का विषय है। लेकिन इन सब से ज्यादा विचारणीय भारतीय मीडिया का यह चरित्र था जो अचानक रंगभेद, जातिवाद व नस्ल के खिलाफ खड़ा दिख रहा था। एक बरगी समझ में नहीं आ रहा था कि भारत की मीडिया आखिर रंगभेद व जातिवाद के खिलाफ कैसे तन कर खड़ी हो गई है। ऐसा भेदभाव तो भारत में भी होता रहा है। भारत में आज भी कई दलित जातियां, आदिवासी समाज मनुवादी विचारों व संगठनों द्वारा सताई जा रही हैं। और खुद मीडिया के अभी तक के रिकार्ड को देखते हुए यह और भी विश्वसनीय नहीं है कि वह दलितों के साथ भेदभाव की खिलाफत करती हो। सर्वेक्षण बताते हैं कि भारत में मीडिया खुद श्वेतों की मुठ्ठी में रही है। इसमें दलितों की हिस्सेदारी 8-10 प्रतिशत की भी नहीं है। कई मौकों पर खुद मीडिया भारत के स्वर्ण लोगों के साथ खुल कर खड़ी नजर आती है। खासकर पिछड़ों, दलितों को आरक्षण देने का तो यह तहेदिल से विरोध करती रही है। लेकिन वहीं जब अमेरिका में लोग आरक्षण के रास्ते आगे बढ़ रहे हैं तो वह उसके लिए यह इतिहास की तरह है। मीडिया आखिर भारत में ऐसा इतिहास बनते क्यों नहीं देखना चाहती। भारत में कोई मायावती जितती हैं तो यह उसके लिए खुशी का उतना विषय नहीं होता जितना की वह विस्मृत होती है। बात इतिहास की करें तो क्या सत्ता में किसी अश्वेत या दलित के बैठ जाने से वाकई में जमीनी स्तर पर कोई क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है। ओबामा उसी रिपब्लिकन-डेमोक्रेटिक पार्टीयों का हिस्सा हैं जो कई दशकों से अमेरिका पर शासन कर रहे हैं। इन्हीं दोनों पार्टियों के नेताओं की अगुवाई में दुनिया के कई देश नेस्तोनाबूत हो गए। कितने लोग मारे गए। अकेले ओबामा क्या अमेरिका की ऐसी सारी नीतियों को बदल सकेंगे। यह आने वाला समय बेहतर बताऐगा। लेकिन शपथ ग्रहण के दिन उनके भाषण से ऐसे किसी बदलाव की उम्मीद बेकार ही है। भारत में भी खुद ऐसे बदलाव कई बार देखे जा चुके हैं। मायावती जीत कर आईं कहीं कुछ बदल गया! उत्तर प्रदेश में आज पहले से ज्यादा दलित उत्पीड़न की घटनाएं हो रही है। दरअसल ऐसे चुनावी बदलावों से किसी बदलावा की उम्मीद करना भी बेवकूफी से ज्यादा कुछ नहीं होगा। सत्ता का रंग बदल जाने से जमीनी स्तर पर कोई बदलाव संभव नहीं होता। यह बदलाव तो तभी होगा जब निचले स्तर पर रंगभेद व जातिवाद के खिलाफ कोई क्रांतिकारी आंदोलन चले। ऐसे में यह भी तय है कि अश्वेत की जीत से बेइंतहा खुश यह भारतीय मीडिया ऐसी किसी आंदोलन के विरोध में सबसे पहले खड़ी नजर आएगी।

वाह क्रीमी लेयर से आह क्रीमी लेयर तक

- दिलीप मंडल
गरीब सवर्णों को पहली बार आरक्षण मिला है...चलिए इसका जश्न मनाते हैं। लेकिन मीडिया से लेकर जिसे सिविल सोसायटी बोलते हैं, उसमें गरीब सवर्णों को मिलने वाले रिजर्वेशन को लेकर कोई उत्साह नजर नहीं आ रहा है। चुप तो वो लोग भी हैं जो कई साल से आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत कर रहे थे और जाति आधारित आरक्षण का विरोध कर रहे थे। सामाजिक पिछड़ापन जिनके लिए निरर्थक था, निराधार था। सवर्ण समुदाय के गरीबों को नौकरियां मिलने की बात से वो खुश नहीं दिख रहे हैं। वाह क्रीमी लेयर, इस मामले में आह क्रीमी लेयर में तब्दील होता दिख रहा है।
जाट परिवार की वधु और गुर्जर परिवार की समधन राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने देश में पहली बार गरीब सवर्णों के लिए सरकारी नौकरियों में 14 परसेंट आरक्षण की व्यवस्था की है। इस पर सवर्ण इलीट की क्या प्रतिक्रिया है? लगभग वैसी ही चुप्पी आपको उत्तर प्रदेश के सवर्ण इलीट में दिखती है, जब मायावती गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की बात करती हैं। लेफ्ट पार्टियां भी इस बार खामोश हैं। वो अपने शासन वाले राज्यों में तो गरीबों को आरक्षण नहीं ही देती हैं, किसी और ने ये कर दिया है तो उसका स्वागत भी नहीं करती हैं।
मीडिया की इसे लेकर प्रतिक्रिया यही है कि ये राजस्थान सरकार का ये फैसला ज्यूडिशियल स्क्रूटनी में पास नहीं हो पाएगा। तर्क ये कि राजस्थान में नए प्रावधानों से कोटा 68 परसेंट हो जाएगा। वैसे ये नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडु में 69 परसेंट आरक्षण है और न्यायपालिका ने इसे खारिज नहीं किया है।सवर्ण इलीट की आम प्रतिक्रिया आपको यही मिलेगी कि ये वोट की राजनीति है। वोट की राजनीति तो ये सरासर है, लेकिन महाराज, लोकतंत्र में वोट की राजनीति नहीं होगी तो क्या होगा।