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कुलपति (?) के नाम पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों का खुला पत्र

महोदय,

आज से चंद साल पहले जब विश्वविद्यालय की प्रवेश परी़क्षा के पेपर लीक होने के सवाल पर आपने प्रशासन के लोगों को साथ लेकर गांधी भवन तक मार्च किया था, विश्वविद्यालय की अस्मिता और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए तब केवल विश्वविद्यालय में चंद शिक्षक और कुछ ही प्रशासन के नुमाइंदे ही आपके साथ थे।
आज जब पत्रकारिता विभाग की अस्मिता और प्रतिष्ठा पर आंच आ रही है और तो वहां के शिक्षक अपने सभी विद्याथर््ीिओं के साथ उसी तरह गांधी भवन जाते हैं। ये संकल्प लेने के लिए की हम अपने मान सम्मान और विचारों पर अडिग रहेंगे तो आप उस विभाग के सात साल विभागाध्यक्ष रहे सुनील उमराव को नोटिस थमाते हैं कि वो परिसर में अराजकता फैला रहे हैं और वीसी के कथित मानसम्मान को ठेस पहुंचा रहे हैं। क्या आज वीसी का मानसम्मान एक विभाग या शिक्षक से अलग होता है? क्या विश्वविद्यालय जैसी अकादमिक संस्थाओं में विचारों को भैंस की तरह जंजीरों में बांधा जा सकता है। जब श्री राजेन हर्षे वीसी की कुर्सी की गरिमा को बनाये नही रख पा रहें है तो उस कुर्सी की गरिमा को यह कार्य कैसे आघात पहुंचा सकता है। सीनेट हाल में बच्चों की तरह पूरे विश्वविद्यालय के अध्यापकों द्वारा अपने को ‘‘हैप्पी बर्थडे टु यू’’ गवाकर विश्वविद्यालय की ऐतिहासिक गरिमा को ध्वस्त कर नया अध्याय लिखा है। क्या एक शिक्षक को अपने पदोन्नति और प्रशासनिक पदों की भूख इतनी वैचारिक अकाल पैदा करती है कि सभी एक सुर में हैप्पी बर्थ डे प्रायोजित करते है। यह विश्वविद्यालय में किस प्रकार की परिपाटी स्थापित करने की कोशिश की जा रही है।
राजेन हर्षे के कुलपति बनने के बाद हर मंच पर खड़े होकर यहां पर अकादमिक स्तर को बढाने की दुहाई देते रहे हैं और विश्वविद्यालय के ज्यादातर अध्यापकों पर न पढाने का आरोप लगाते रहे है परंतु व्यवहार में क्लास न लेने वाले शिक्षकों के इर्दगिर्द घिरे रहे है। और उनकी सलाह से विश्वविद्यालय में पढाई के बजाय ठेकेदारी की प्रवृत्ति को बढावा दिया है। एक ऐसे शिक्षक को जो वाइस चांसलर के आने के पहले विभाग आता हो और आपके जाने के बाद विभाग छोड़ता हो उसे शिक्षक दिवस के मौके पर नोटिस दी जाती है कि वो छात्रों-छात्राओं और अध्यापकों को भडका रहे हैं। क्या विश्वविद्यालय के अध्यापकों का चरित्र इतना कमजोर है कि इतनी जल्दी उनको प्रभावित कर सकता है। जबकि वो शिक्षक केवल कंपाउण्डर है, ‘‘डाक्टर’’ भी नही। इतने बड़ी-बड़ी डिग्रियां और किताबे लिखने वाले अध्यापकगणों को कंपाउण्डर बहका सकता है तो इन शिक्षकों पर सवाल ही खडे होतें है। और उनके द्वारा लिखी गयी किताबों पर सवाल उठता है। क्या विश्वविद्यालय केवल पेपर लिखने वाले पेपरमैनों (जिनके पास कोई चरित्र की विश्वसनीयता न हो)का गिरोह है? हमें बताने की जरुरत नही है कि शिक्षा चरित्र निर्माण एवं अपने विचारों पर चलने की एक पद्वति ही है। यही सोच ने हम विद्यार्थियों को हमारे गुरु के नेतृत्व में यात्रा करने को मजबूर किया है।
विश्वविद्यालय में छात्रों को आंदोलित करके अर्दब में लेने का कुछ चंद शिक्षको का एक बड़ा इतिहास रहा है जो परिसर में छिपकर ठेके और कमाई के धंधे को पनपाने के लिए ऐसा करते रहे है। वे कभी सामने नही आते पर पेशे और धन के बल पर अपना आंदोलन चलाते है। वही हमारे शिक्षक हमारा नेतृत्व कर एक बहादुर और चरित्रवान शिक्षक होने परिचय दिया है कि कोई भी लड़ाई हम मिलकर लड़ेगे और अपनी नौकरी और जानमाल को इन तथाकथित मठाधीशों से लड़ने में लगा देंगे। ये समय ही बतायेगा की वीसी के सरकारी लाव-लश्कर हमारे विचारों को जंजीरों को बांध पायेगे। इनकी पदोन्नति और सेलेक्शन कमेटी का लालच कितना हमको तोड़ पायेगा। परिसर में आज भी अधिकतर अध्यापक और विधार्थी ईमानदार और निष्ठावान हैं, जिनके बल पर हम निजीकरण के खिलाफ सै़द्धांतिक लड़ाई लडने का हौंसला कर पाये।
ये विश्वविद्यालय का ऐतिहासिक मौका था जब शिक्षक खुद आंदोलन का नेतृत्व करने को निकला था। प्रशासन ने ‘‘पीस जोन’’ की ‘‘मर्यादा’’ भंग करने के लिए अध्यापक को ही नोटिस दी हम छात्रों को क्यों नही? क्या हमारे अध्यापक इतने लल्लू हैं? क्या आप हमसे डरते हैं? क्या आपके अंदर नैतिक बल का आभाव है? आप राजनीति शास्त्र के ही प्रोफेसर हैं? आज हम देखेंगे कि आप की राजनीति हमारे नैतिक आंदोलन को किस हद तक तोड़ पाती है। आप विचारों के शिक्षक हैं व्यवहार के नही। आप एक आतंकवादी हैं जो अपनी कुर्सी और पद का आतंक दिखा कर लोगों को अपने विचारों पर अडिग रहने से रोकना चाहते हैं। हम लोग मिलकर दिखाएंगे की हम बिकाऊ नहीं हैं। जिन्हें आपके जैसे शिक्षा के तथाकथित मठाधीश और ठेकेदार खरीदकर तोड़ सकते हैं। देखेंगे जीत हमारे नैतिक बल की होगी या संगीनों के साये में जीने वाले आप जैसे तथाकथित शिक्षक की।
जब चार दिनों से सैकड़ों लड़के-लड़कियां सड़कों पर खुली धूप और गर्मी में अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। वहीं आप हमारे परिवार के मुखिया होकर वातानुकूलित चैंबर में जीके राय के साथ घंटों बैठकर राय मशविरा कर रहे है। आपको चार साल के कार्यकाल में शायद न मालुम हो पाया हो कि जीके राय वे अध्यापक हैं जिन्होंने जिंदगी भर कभी क्लास नहीं ली। इस सच को विश्वविद्यालय में सभी लोग जानते हैं। हमारे वो चार साल पहले वाले वीसी साहब कहां हैं जो हर मंच पर चढ़कर आदर्श टीचर बनने की दुहाई देते थे। चार साल में इतना विरोधाभास क्यूं?
ये सब हम ‘‘नादान बच्चों’’ को दिखता है तो हम बोलते हैं लेकिन शायद शिक्षक इसलिए नहीं बोलते हैं क्योंकि वो हमसे ज्यादा समझदार और दुनिंयादार हैं। क्यों आप जैसे ज्ञानी-विज्ञानी महापुरुषों को दिखाई नहीं देता। आप महाभारत के धृतराष्ट्र की तरह सत्ता के नशे में इतने चूर न हो जायें कि पांडवों को हस्तिनापुर के बीस गांव न देने की जिद के बाद अपने सौ पुत्रों और राज्य को स्वाहा कर दिया।
पत्रकारिता विभाग छोटा हो सकता है, भले वहां केवल एक शिक्षक हो, परन्तु हम विद्यार्थियों के हौसले इतने बुलंद है और हममे वो नैतिक बल है कि इस जीके राय की इस्टीट्यूट प्रोफेशनल स्टडीज की सोने की लंका को जलाकर खाक कर डालने का दम है। आप अपनी राजनीति की गोट खेलते रहे हम अपनी लड़ाई लड़ते रहेंगे। आप अपने षडयंत्र रचिए, विजय तो योद्वाओं की ही होगी। हम वो लोग हैं जो अपने माथे पर काले कफन डालकर अपने विचारों और सिद्वातों के लिए खड़े हैं न कि आपके पैरों पर लोटने वाले विश्वविद्यालय के वो अध्यापक जो लाख टका की तनख्वाह होने के बावजूद विश्वविद्यालय की ईंट खाते हैं, सीमेंट फंाकतें है, कम्प्यूटर चबाते है और सब कुछ हजम करने के बाद चटनी-अचार-मुरब्बा खिलाकर व्यवहार बनाते हैं। ये लगभग सवा़ सौ साल पुराना विश्वविद्यालय शिक्षा का केंद्र है न कि व्यवसायिक केंद्र। यहां न्याय और अधिकारों की आयत पढ़ी जाती है और इंसाफ के मंत्रो का जाप होता है।
कुलपति महोदय, आपसे विनम्र निवेदन है कि शिक्षक को अपनी जायज मांगें उठाने के लिए नोटिस देकर अपना वैचारिक दिवालियापन दिखाने के बजाय हमारे मुद्दे पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे। आप हमें बतांए कि आखिर किस अधिकार के तहत समानान्तर कोर्स को एक्जीक्यूटिव काउंसिल से पास किए बिना मीडिया स्टडीज का पाठ्यक्रम कैसे चालू कर रहे हैं। क्योंकि एक्जीक्यूटिव काउंसिल से पास न होने के चलते ही एमए (मास कम्यूनिकेशन) विभाग दो साल तक बंद रहा। आखिर आप हमारे साथ इतना सौतेला व्यवहार क्यों कर रहे हैं। आपका इसमें क्या निजी हित और राजनीति है? कृपया यह राजनीति के प्रोफेसर बताएं।

- आपके अपने
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के विद्यार्थी

इजरायली उत्पादों का बहिष्कार करें !


इजराईल के खिलाफ फलस्तीनी जनता का साथ हम इस तरह से भी दे सकते हैं।


आइये इजरायली उत्पादों का बहिष्कार करें !

फलस्तीनी जनता के संघर्ष को धार दे !!

एस टी एफ ने ही उठाया है मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को !

अभी-अभी सूचना मिली है की २४ अक्टूबर से गायब पी यू एच आर के विनोद यादव सहित ४ लोगों को एस टी एफ ने ही उठाया है। इन सभी को आज २७ अक्टूबर दिन में लखनऊ की जिला अदालत में पेश किया गया। प्रारंभिक तौर पर यही माना जा रहा है इन सभी को पीयूएचआर प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य शाहनवाज़ आलम और राजीव यादव की गतिविधिओं के सम्बन्ध में पूछ्ताझ के लिए उठाया है, सम्भावना यह भी है की इसका अगला निशाना राजीव, शाहनवाज ख़ुद हों। हालाँकि अभी वकील का कहना है की इन्हे धारा ४१९ और ४२० के तहत पकड़ा गया है. लेकिन ये बात गले नही उतरती.आप सभी पत्रकार, प्रबुद्ध जन से अपील है की इस पुलिसिया उत्पीडन का एक जुट हो विरोध करे ओर एस टी एफ की इस तरह की गैर गतिविधिओं के विरोध में पीयूएचआर का साथ दें,
पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइट्स (पीयूएचआर) प्रदेश कार्यकारिणी की ओर से
राजीव यादव, ०९४५२८००७५२, शाहनवाज़ आलम, ०९४१५२५४९१९, विजय प्रताप, 09982664458 लक्ष्मण प्रसाद,०९८८९६९६८८८ ऋषि कुमार सिंह,09911848941

और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की बारी - लखनऊ से पीयूएचआर के ४ लोग 'गायब'

उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ समय से आतंकवाद के नाम पर समुदाय विशेष के लोगों को प्रताडित करने के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर ह्यूमन राइट्स (पीयूएचआर) के प्रदेश कार्यकारणी सदस्य और पत्रकार राजीव यादव (इस ब्लॉग के मोडरेटर भी) के बड़े भाई विनोद यादव गत २४ अक्तूबर से गायब हैं. विनोद अपने घर आजमगढ़ से तीन साथिओं के साथ लखनऊ जाने के लिए निकले थे. उनके साथ एक और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता सरफ़राज़ भी हैं. दोनों के फोन स्विच आफ बता रहा है. इस सम्बन्ध में पुलिस और प्रशासन के सभी उच्चाधिकारों से भी संपर्क किया जा चुका है, लेकिन सभी ने इन लोगो के सम्बन्ध में किसी प्रकार की सूचना से होने से इनकार किया है. लेकिन संभावना जताई जा रही है इन्हे एस टी एफ या ऐ टी एस के लोगों ने उठाया है. ये लोग उसी जिले के रहने वाले हैं जिसे कुछ समय से आतंकवाद की जननी के रूप में प्रचारित किया गया है. गौरतलब है की ये लोग आजमगढ़ से आतंकवादी बता कर उठाये गए मुस्लिम युवकों के परिजनों को कानूनी सहायता दिलाने का प्रयास कर रहे थे. पहले भी इन लोगों को आजमगढ़ पुलिस ने जिले में धरना देने से रोका था. लेकिन अचानक इनके गायब होने से आजमगढ़ के लोग भी ऐसी सम्भावना इस लिए भी जताई जा रही क्योंकि जिस दिन से ये लोग गायब हैं उसी दिन ऐ टी एस के लोगों ने आजमगढ़ से दिल्ली जा रहने दो और मुस्लिम युवकों को अगवा करने का प्रयास किया था. लेकिन उनकी यह कोशिश मानवाधिकार संगठन पीयूएचआर से जुड़े इन्हीं लोगों की सक्रियता के चलते नाकाम हो गया और अंततः इन युवकों को कानपूर में छोड़ दिया गया. यह ख़बर दैनिक हिंदुस्तान ने "मानवाधिकार संगठनों ने दो युवकों को ऐ टी एस से मुक्त कराया" शीर्षक से प्रकाशित भी किया था. यह घटना भी २४ तारीख की ही है, और विनोद और सरफ़राज़ भाई भी उसी दिन से गायब हैं. इसे लेकर उत्तर प्रदेश के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और संगठनों में जबरदस्त रोष व्याप्त है, आतंकवाद के नाम पर समुदाय विशेष के लोगों से लड़ते-लड़ते, सुरक्षा एजेंसियां अब मानवाधिकार संगठनों के लोगो तक पहुँच गई हैं. वैसे इसे लोगों का इस तरह से गायब होना कोई नई बात नही है. पहले भी ऐसे लोगों को नक्सलवादिओं के समर्थक या सरकार विरोधी करार कर प्रताडित करना सुरक्षा एजन्सिओं का शगल रहा है.लेकिन यह पहला मौका है जब की तथाकथित 'आतंकवादिओं' के समर्थों को इस तरह गायब किया गया है,आप सभी साथिओं, पत्रकारों और सजग नागरिकों से अपील है की उत्तर प्रदेश एस टी एफ और ऐ टी एस की इस कार्यवाही के खिलाफ संघर्ष में हमारा साथ दे और अपने स्तर से सरकार पर इन लोगों को मुक्त करने के लिए दबाव बनायें।

पीपुल्स यूनियन फॉर ह्यूमन राइट्स की ओर से
राजीव यादव, ०९४५२८००७५२ शाहनवाज़ आलम, ०९४१५२५४९१९ विजय प्रताप, 09982664458लक्ष्मण प्रसाद,०९८८९६९६८८८ ऋषि कुमार सिंह,09911848941

विनायक सेन और अजय टीजी को रिहा किया जाये



रविभूषण


विनायक सेन अंतरराष्ट्रीय ख्याति के बाल चिकित्सक हैं, जिन्होंने अपना जीवन निर्धनतम लोगों, विशेषतः छत्तीसगढ के खदानकर्मियों और जनजातियों की सेवा में समर्पित कर दिया है. वे मानवाधिकार के प्रबल-सक्रिय समर्थक रहे हैं. पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्य सचिव के रूप में भी उनकी भूमिका विशेष रही है.14 मई, 2007 को उन्हें छत्तीसगढ की पुलिस ने 1937 के गैरकानूनी गतिविधि अधिनियम और 2005 के छत्तीसगढ राज्य विशेष जनसुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया और वे अभी तक जेल में हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी जमानत की अर्जी खारिज कर दी है.डॉ विनायक सेन पर मुख्य आरोप यह है कि वे जेल में प्रमुख माओवादी नेता नारायण सान्याल से 33 बार मिले थे और उनके पास से इस माओवादी नेता के तीन पत्र पाये गये हैं. इस प्रकार वे खतरनाक नक्सली के रूप में चिह्नित किये गये हैं. उन पर आरोप है कि वे राज्य के विरुद्ध सक्रिय हैं और प्रतिबंधित संगठन को सहयोग प्रदान करते हैं. डॉ सेन को माओवादियों का समर्थक और सहयोगी मान लिया गया है. जेल में वे बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. उनकी गिरफ्तारी से देश-विदेश का बौद्धिक तबका क्षुब्ध है. उनकी गिरफ्तारी (14 मई) के एक वर्ष पर देश के विविध हिस्सों में सेमिनार, धरना और प्रदर्शन हुए हैं तथा अखबारों ने वस्तुस्थिति से सबको परिचित कराया है. 14 मई के कई अखबारों में विनायक सेन संपादकीय से लेकर आलेख तक में उपस्थित हैं. हसन सरूर ने 'ग्लोबल कैंपेन फॉर सेन रिलीज पिक्स अप' (14 मई, 2008, हिंदू) में लंदन में भारतीय उच्च आयोग के समक्ष विनायक सेन की रिहाई को लेकर विरोध-प्रदर्शन का उल्लेख करते हुए भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, छत्तीसगढ के राज्यपाल और मुख्यमंत्री को भेजे गये पत्र की जानकारी दी है, जिसमें सेन की महती भूमिका के बारे में बताया गया है. हस्ताक्षरकर्ताओं में दक्षिण एशिया सॉलिडैरिटी ग्रुप, वेल्लोर अलुमनी एसोसिएशन की ब्रिटेन शाखा, दक्षिण एशिया एलायंस और 1857 समिति के प्रतिनिधि हैं. ब्रिटिश सांसदों का एक ग्रुप भी अपनी सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित कर रहा है. विरोध प्रदर्शन के आयोजकों ने डॉ सेन के विरुद्ध लगाये गये अभियोग को राजनीति प्रेरित माना है और छत्तीसगढ सरकार को अभियुक्त ठहराया है. अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा है कि विनायक सेन ने जेल में माओवादी नेता से मुलाकात पीयूसीएल के उपाध्यक्ष की हैसियत से की थी. रायपुर के सेंट्रल जेल में विनायक सेन नारायण सान्याल को चिकित्सा और कानूनी सहयोग देने गये थे.
विनायक सेन का वास्तविक अपराध क्या है? गरीबों के साथ और उनके पक्ष में खडा होना, मुखर और सक्रिय होना तथा छत्तीसगढ में हिंसा से जूझ रहे बेदखल किये गये लोगों के पक्ष में बोलना. वे जेल में बंद माओवादी नेता से जेल नियमों के तहत ही मिलने गये थे. जेल अधिकारियों ने उन्हें नारायण सान्याल से मिलने की अनुमति दी थी और यह अनुमति कई बार दी गयी थी. माओवादियों से मिलना माओवादी होना नहीं है. पीयूसीएल के पूर्व अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर ने कहा है कि आतंकवादियों से लडने में राज्य स्वयं आतंकवादी नहीं हो सकता. वे विनायक सेन के मुद्दे को देखने और इस पर विचार करने को केंद्र सरकार से कह चुके हैं. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री को प्रेषित पत्र में यह भी कहा गया है कि मानवाधिकार की रक्षा में विनायक सेन के कार्यकलापों को दोषयुक्त ठहराना किसी वकील को अपने मुवक्किल की रक्षा में किये गये कार्यकलापों को दोषयुक्त ठहराने की तरह है.
विनायक सेन की गिरफ्तारी और अब तक उन्हें जमानत न मिलने से कुछ बडे प्रश्र्न उपस्थित हुए हैं. भारतीय संविधान में भारतीय नागरिकों को जो मौलिक अधिकार दिये गये हैं, क्या राज्य उन अधिकारों की सदैव रक्षा करता हैङ्क्ष नागरिक को असहमति व्यक्त करने, विरोध प्रकट करने, किसी आंदोलन में भाग लेने का अधिकार है या नहींङ्क्ष क्या राज्य अपने कार्य और दायित्व का सुचारू रूप से निर्वाह कर रहा है? जब चिकित्सा भी एक पेशा है, किसी चिकित्सक को गरीबों के साथ रह कर उसकी चिकित्सा नहीं करनी चाहिए? माओवादियों की संख्या बढ क्यों रही है? क्या विनायक सेन की गिरफ्तारी से समस्याएं सुलझ जायेंगी? विष्णु खरे ने सलवा जुडूम पर लिखी कविता 'कानून और व्यवस्था का उप मुख्य सलाहकार सचिव चिंतित प्रमुख मंत्री को परामर्श दे रहा है' का समापन इन पंक्तियों से किया है- 'मैं कहूंगा सर आप सेंट्रल लेबल पर एक पहल करें, ताकि हर जगह अपनी नींद से जागे और एक्टिव होकर हर किस्म की ऐसी बगावत को, नेस्तनाबूद करने को लामबंद हो, असली नेशनल सलवा जुडूम.' (पहल- 86)
छत्तीसगढ सरकार की आलोचना जारी है. नोबेल लॉरेट, नोम चोम्स्की, महाश्वेता देवी, अरुंधति राय- सभी विनायक सेन के पक्ष में क्यों हैं? क्या माओवादियों के आतंक का समाधान राज्य के आतंक से संभव है? इसी 29 मई को वाशिंगटन में विनायक सेन को विश्व स्वास्थ्य और मानवाधिकार के लिए जोनाथन मान अवार्ड से सम्मानित किया जायेगा और हिंदू के संपादकीय-'सेट विनायक फ्री' (15 मई, 2008) में विनायक सेन को सम्मान लेने के लिए रिहा करने को कहा गया है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विनायक सेन के पक्ष में वक्तव्य दिये जा रहे हैं और आंदोलन भी चलाया जा रहा है.
रायपुर के पत्रकार और फिल्मकार अजय टीजी की 5 मई को हुई गिरफ्तारी भी सुर्खियों में है. उन पर यह आरोप है कि वे प्रतिबंधित संगठन के संपर्क में है. पिछले लोकसभा चुनाव (2004)में छत्तीसगढ के दांतेबाडा क्षेत्र के सुदूर पिछडे गांवों में अजय तथ्य प्राप्ति टीम के साथ थे. यह टीम माओवादियों द्वारा दिये गये चुनाव बहिष्कार के आह्वान के सिलसिले में ग्रामीणों की प्रतिक्रिया जानने के लिए गयी थी. अजय टीजी ने फोटो खींचना शुरू किया तो युवा माओवादियों ने उन्हें घेरा, पुलिस एजेंट समझ कर उन्हें कई घंटे रोका. बाद में वे छोडे गये, पर उनका कैमरा जब्त कर लिया गया. बाद में अजय ने माओवादी प्रवक्ता को 2004 में जब्त किया गया अपना कैमरा लौटाने को लिखा. पुलिस ने तहकीकात में अजय का कंप्यूटर रख लिया और उससे पत्र के संबंध में पूछा. अजय ने पत्र लिखना स्वीकारा. कंप्यूटर वापसी के लिए अजय स्थानीय अदालतों में गये. अजय के साथ विचित्र स्थिति उत्पन्न हुई. एक ओर वे माओवादियों के अपराध का शिकार हुए, माओवादियों ने उन्हें पुलिस एजेंट समझा और अब पुलिस उन्हें माओवादियों का समर्थक समझ रही है.
पीयूसीएल से विनायक सेन और अजय टीजी का संबंध है. पीयूसीएल के कार्यकर्ताओं पर भी राज्य सरकार की कडी निगाह है. छत्तीसगढ में पीयूसीएल, माकपा तथा निर्मला देशपांडे के साथ लंबे समय तक रहे गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के वनवासी चेतना आश्रम तथा अन्य सलवा जुडूम की कुरूप वास्तविकता उजागर करने में लगे हुए हैं. 10 मई, 2008 को अजय टीजी के केस की सुनवाई थी, पर उन्हें पांच दिन पहले गिरफ्तार कर लिया गया.
पत्रकार, मीडियाकर्मी, बुद्धिजीवी, कवि-लेखक और संस्कृतिकर्मी किसी भी गतिशील समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं। वे संवाद और बहस करते हैं, जो लोकतंत्र में जरूरी है. तर्क के सिद्धांत और दमन के सिद्धांत में अंतर है. वे संवादों से, तर्कों और तथ्यों से राज्य को सुदृढ करते हैं. लोकतंत्र में प्रत्येक विचार के लिए जगह है. इसी से लोकतंत्र विकसित होता है. विरोधियों को शत्रु और दुश्मन मानने का चलन कुछ समय से बढा है. लोकतंत्र में सहमति से अधिक असहमति का स्थान है. विनायक सेन के मामले में अभी तक मानवाधिकार आयोग भी चुप है! मानवाधिकार सक्रियतावादी और पीयूसीएल के लोग जनतंत्र के रक्षक हैं. इन दोनों संगठनों से जुडाव के कारण ही किसी पर संदेह नहीं किया जा सकता. सबसे बडा प्रश्न यह है कि हम किस प्रकार का भारत निर्मित कर रहे हैं. विनायक सेन और अजय टीजी की गिरफ्तारी से छत्तीसगढ की सरकार पर प्रश्न उठे हैं और विश्व भर में इस पर प्रतिक्रियाएं हो रही हैं. डॉ सेन को झूठे इलजाम में गिरफ्तार किये जाने से एक तरह से पूरी व्यवस्था संदेह के घेरे में आ गयी है.


रिपोर्ट रियाज़ उल हक के ब्लॉग हाशिया से साभार