'वीकेंड प्रोटेस्ट प्रोग्राम' : विरोध की नौटंकी अब और नहीं
कम्पनी बाग में देसी फूल
आज पत्रकारिता के निजीकरण विरोधी आंदोलन का पहला चरण समाप्त हुआ दूसरे चरण की शुरुआत होने के साथ ही आन्दोलन को तोड़ने वाले तत्व और अधिक सक्रिय हो गए हैं। साथियों ऐसे दौर में जब हमारे कुलपति एक तरफ गांधीवादी होने का ढिढोरा पीटते हैं तो दूसरी तरफ विश्वविद्यालय को दुकान में तब्दील करने में लगे लोगों की हर संभव मदद कर रहें हो तो ऐसे में हमारे वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव का अमर उजाला में अगस्त 2000 में छपा लेख ‘कंपनी बाग में देसी फूल’ आज फिर प्रासंगिक हो उठा है। लेख वैसे तो सालों पुराना है फिर भी आज विश्वविद्यालय और इस पूरे पूर्वांचल और बुन्देलखंड से आए लाखांे छात्रों की आकंाक्षाओं को अभिव्यक्त करता है। पर विश्वविद्यालय को कुछ लोग अचार की दुकान में तब्दील करना चाहतें है. साथियों यह कोई जुमला नही है। प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर हमारे सम्मानित महोदयों ने अचार ही नही रेडिमेड़ कपड़ों की फैक्टरी भी खोल ली है इसी ओवरकांफिडेंस में अब वे कैमरामैन और रिपोर्टर की फैक्टरी खोल रहे हैं। ये सही है कि अपना धंधा बढाने का सबको सवैधानिक अधिकार है पर विश्वविद्यालय को तो बक्श ही देना चाहिए था। पता नही किस ‘‘भावना’’ से फेरी वाले यूनिवर्सिटी में चक्कर नही लगाते। हमारे सम्मानित मास्टरों को तो इस भावना का तो ख्याल रखते हुए फेरी वालो से ही सीख लेनी चाहिए। इसी भावना का आदर करते हुए हमारे फुटपाथ के दुकानदार भाई यूनिवर्सिटी के बाहर सड़को पर दुकान लगाते है।
ऐसे में जब कुलपति जैसा पढ़ा-लिखा व्यक्ति मानसिक रुप से दिवालिया होकर पूरे विश्ववि़द्यालय को बंेच-खाने पर उतारु हो तो हम चाहते हैं कि आप इस बीमार व्यक्ति को ‘‘जादू की झप्पी’’ देकर ‘‘गेट वेल सून मेंटली’’ बोले।
लेकिन सावधान! इस बीमार के बारे में यहां बताना जरुरी होगा कि ये फोन करने पर एफआईआर की धमकी देने की ब्लैकमेंलिग भी करते हैं और बात बढ़ जाने पर कर भी देते हैं। एक सूचना के मुताबिक पिछले दिनों विश्वविद्यालय में छात्रों को मुर्गा बनाने की घटना पर जब जनसत्ता के पत्रकार राघवेंद्र प्रताप सिंह ने इनसे पूछा तो इन्होंने बताया कि मैं राज्यपाल का प्रतिनिधि हू. मुझसे बात नहीं कर सकते मैं मुकदमा कर दूंगा और दूसरे दिन इस बीमार व्यक्ति ने राघवेंद्र पर मुकदमा भी कर दिया। इन्हें यह भी बताना होगा कि वो राज्यपाल नहीं बल्कि राष्ट्रपति के प्रतिनिधि हैं। और जितनी भी हमें जानकारी है उसके अनुसार कुलपति से सार्वजनिक तौर पर कोई भी व्यक्ति बात कर सकता है और पत्रकार के ऊपर अगर वो मुकदमा करते हैं तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है।
खैर बात जो भी हो कुलपति महोदय के विश्वविद्यालय में पद ग्रहण करने के बाद से साल दर साल पदभ्रष्ट हुए हैं। अंदरखाने की ख़बर है कि कुलपति विश्वविद्यालय में सक्रिय शिक्षा माफियाओं के दबाव में काम कर रहें है।
हम कुलपति महोदय का मेल और फोन नंबर सार्वजनिक करते हुए कंपनी बाग में देसी फूल लेख को भी प्रस्तुत कर रहे हैं।
मोबाइल नं0 - 09935354578
rgharshe@gmail.com
rgharshe@sify.com
कम्पनी बाग में देसी फूल
अनिल यादव
उन्हे यहां देखकर अनायास पीटर्सबर्ग में पढ़ने वाले दोस्तोवस्की के आत्मपीड़ा में डूबे छात्र याद आते हैं। प्रयाग में खड़े होकर पीटर्सबर्ग को याद करने की वजह कोई बौद्धिक चोंचलापन नहीं है, सीधी सी बात यह है कि सड़कों पर और गलियों में सबसे अधिक वही दीखते हैं, फिर भी अपने साहित्य में कहीं नजर नहीं आते यह हिन्दी के बाबू टाइप के लेखकों का मोतियाबिन्द है, उसकी वजह से दोस्तोवस्की और चेखव से उधार मांग कर काम चलाना पड़ता है। साहित्य ही क्यों वे नाटकों , फिल्मों, अखबारों में भी नजर नहीं आते। हिन्दी में छात्रों के नाम पर अक्सर गुनाहों का देवता मार्का ‘चंदर’ ही नजर आते हैं जो भूरे रंग की सैंडिल पहनते हैं, जिनके माथे पर बालों की एक लट लापरवाही से झूलती रहती हैं और जिनकी मोहनी मुस्कान पर लड़कियां निसार हुयी रहती हैं। जिन्दगी भर दलिद्दर भोगने के बावजूद हिन्दी का लेखक पता नहीं क्यों यर्थात् से मुंह चुराते हुए हाय चंदर हाय चंदर करता रहता है । सोने से दिल और लोहे के हाथों वाले ये लड़के कभी कभार फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों मे जुगनु की तरह चमक उठते हैं फिर अंधियारे में खो जाते हैं, बहुत ढूंढने पर एक काशीनाथ सिंह मिले, जिन्होनें ‘अपना मोर्चा’ में ‘ज्वान’ के जरिए विश्वविद्यालय को लेकर एक फंतासी बयान की है। ‘अपना मोर्चा’ शायद हिन्दी का अकेला दुबला-पतला उपन्यास है जिसमें ऐसे छात्रों की कहानी कही गयी है, जो जब एडमिशन लेने आते थे तो उनके बालों में भूसे के तिनके फंसे होते थे और घुटनों पर बैलों की दुलत्ती के निशान पाये जाते थे। जो सड़क पर गुजरते बैलों को ‘सोकना’ और ‘धौरा’ कहकर पहचानते थे, जो घर से सतुआ, पिसान और गुड़ लाते थे और जिनकी जांघें लंगोट की काछ से बरसात के दिनों में कट जाया करती थीं। उपन्यासों और कहानियांे से बेदखल हो कर वे कहीं गये नहीं, वे यहीं हैं, हमारे अगल-बगल और पड़ोस में, वे इन दिनों भी डिग्री वाले विश्वविद्यालय से लेकर जीवन के टेढ़े मेढ़े गलियारों तक अपने अस्तित्व की पीड़ा भरी खामोश लड़ाई लड़ रहे हैं। हो यह रहा है कि बाजार, कंपनियां, विश्वविद्यालय, सरकार और मीडिया इन दिनों छात्रों की जो चिकनी-चिकनी प्यारी-प्यारी छवियों बेच रहें हैं, उनकी चकाचैंध में धूप से पक कर कांसा हुए चेहरों वाले ये लड़के कहीं किनारे भकुआए खड़े रह जाते हैं, उन पर किसी की नजर नहीं जाती।
उनसे मिलना है तो आजकल किसी दिन दुपहरिया में कंपनी बाग आइए, विक्टोरिया टाॅवर के पास किसी झुरमुट में तीन छल्ले की झूलन सीट और चैड़े कैरियर वाली इक्का दुक्का साइकिलें दिखेंगी, गियर वाली डिजाइनर छरहरी साइकिलों के बीच वे चैड़ी हड्डियों वाले मजबूत देहाती की तरह लगती हैं। इन्हें वे गांव से अपने साथ लायें हैं। किसान परिवार में और एक जोड़ा मेहनती हाथ जोड़ने की जरूरत के चलते वे बहुत कम उम्र में ब्याह दिये जाते हैं। इन दिनों सरकार यह कह रही है कि धनी परिवारों के छात्र ही विश्वविद्यालय में पढ़ने आते हैं इसलिए उच्च शिक्षा के सस्ते होने का कोई औचित्य नहीं है। यह महान सूत्र खोजने वाले जड़ जमीन से कटे नेताओं और बाबूओं को जान लेना चाहिए कि जिन्हे अब भी दहेज में यह साइकिल, चपटे माॅडल वाली एचएमटी सोना घड़ी और बाजा मिलता है, वे इन्ही विश्वविद्यालयों में पढ़ते है और उनकी तादात बहुत ज्यादा है। उनका किसी बैंक में कोई खाता नहीं है, जिसमें उनके मां बाप के भेजे चेक जमा होते हांे। वे हर महीने गांव जाते हैं और अनाज बेचकर पढ़ाई का खर्चा लाते हैं। वे औने पौने अनाज बेचने की तकलीफ जानते हैं इसीलिए घरों से शहर वापस लौटते हुए जेब भरी होने के बावजूद गुमसुम रहतेे हैं। वे हमारे गांवों के सबसे होनहार लोग हैं जो बहुत ही क्रूर और सघन सामाजिक चयन से गुजरकर यहां पहुंचते हैं। वे अपने घर और ससुराल के आशाओं के केन्द्र हैं। वे खिड़कियां हैं जो सपनों की आधुनिक दुनिया में खुलती हैं। इन्ही सपनों में झूलते ढेर सारे गांव जीते हैं।
वे यहां कंपनी बाग की मुलायम अभिजन दूब पर बैठकर उंचे रुतबे की नौकरियों के लिए हर साल होने वाली प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी करते हैं कलेक्टर, कत्तान या मुंसिफ होना उनके लिए बहुत दूर का सपना है। इस सपने की बात छाड़िये, उनका पीछा करने में ही बड़ा थ्रिल है। वे इसी रोमांच में जीते है। कंपनी बाग के रुमानी झुरमुटों में किताबों के साथ होना भी उनके लिए बड़ी बात चीज है क्योंकि वे सस्ते किराए की जिन कोठरियोें में रहते हैं पकाते है, वहां हवा और रोशनी आने की मनाही है। वहां काइयां और लोलुप मकान मालिकों की पाबंदियां और नखरे है। चालीस वाॅट से ज्यादा पाॅवर का बल्ब जलाने पर कोई बल्ब फोड़ देता है तो कोई रात में पाखाने में ताला लगाकर सोता है।ये लड़के किरासिन तेल की तलाश में जेब में परिचय पत्र और हाथ में कनस्तर लिए लाइनों में लगते हैं खर्च चलाने के लिए ट्यूशन पढ़ाते हैं। सेकेंड हैंड किताबें और किलो के भाव बिकने वाली काॅपियां तलाशते हैं। शहर की इन अंधेरी कोठरियों और क्लास में टिके रहने की जद्दोजहद ही इनमें से कइयों को इतना थका डालती है कि उनकी टहनियों पर कमीजंे लटकती मिलती हैं।
किताबों के इर्दगिर्द उंहे देखकर यह नतीजा निकालना कत्तई गलत होगा कि ये लड़के बहुत मेधावी हैं और उन सबमें ज्ञान की अदम्य पिपासा है। इनमें से ज्यादातर के लिए शिक्षा हंसिए जैसा कोई औजार है जिसमें वे अपने भविष्य के रास्ते पर उगे झाड़-झंखाड़ की निराई करते हैं। अगर उनकी मेधा जाननी है तो उंहे लार्ड मैकाले के नही किसी और पैमाने पर जांचिए। आप इनमें किसी को अंगे्रजी में सोशियोलाॅजी लिखने को कहें और वह सुशीला जी लिख दे तो हंसिए मत, वे आपको आधुनिक वर्णाश्रम और जातिवाद की सामाजिक इंजिनियरी कई दिनों तक लगातार पढ़ा सकते हैं क्योंकि इसे उन्होने पढ़ा और सुना नही, भोगा और जिया हैै।
अभी-अभी ग्राम पंचायतों के चुनाव बीते हैं, उसमें वे गले-गले डूबे थे। जातिवाद राजनीति का एक-एक पेंच वे जानते हैं आने वाले दिनों में इस चुनाव से उपजे नए दोस्ती और दुश्मनी के समीकरणांे का दंश भी वे झेलेंगे। इनमें से कितने ऐसे हैं जो जर-जमीन के झगड़ों की तारीखों पर हर तीसरे महीने मुफस्सिल की कचहरियों में जाते है उंहे भारतीय यथार्थ की गहरी समझ है लेकिन उनके पास प्रोफेसरों के बौद्धिक लटक-झटके और अदांए नही हैं कि वे उसे वातानुकूलित सभागारों में बयान कर सकें। कभी-कभी इलीट और काॅमनर के बीच की चैड़ी सांस्कृतिक खाई और कभी-कभी तो हमारी शिक्षा पद्धति ही चीन की दीवार बन जाती है।
यथार्थ की इस समझदारी और समाज से उनके गहरे सरोकारों की वजह से ही वे हमेशा संघर्षाें के बीच फंसे नजर आते हैं। याद कीजिए आपने आखिरी बार जो छात्रों का जूलूस देखा था उसके सबसे अधिक चेहरे कैसे थे? यही हैं वे जो लाठी चार्ज के बाद अस्पताल में और गिरफ्तारी के बाद जेलों में सबसे अधिक पाए जाते हैं।वे चुपचाप लड़ते हैं और इस संघर्ष का कभी प्रतिदान नही मांगते और न ही शहरी बाबुओं की तरह ‘आई हेट पालिटिक्स’ जैसे जुमले बोलकर नकली हंसी हंसते हैं।
उनके बारे में इतनी बातचीत का सबब, एक अध्यापक का वो बयान है जिसमंे उन्होने कहा है कि उच्चशिक्षा सरकार का संवैधानिक दायित्व नही है। यह अध्यापक संयोग से भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री भी हैं इधर देश की सरकार दुकानदार जैसा सलूक कर रही है जो शिक्षा को उन्हीं लोगों के हाथों बेंचना चाहता है, जो उसकी ज्यादा क़ीमत दे सकें। यही वजह है कि फीसें धुआधार बढ़ी हैं। और विश्वविद्यालय में सीटें कम हो रही हैं। ऐसे पाठ्यक्रमों को प्रात्साहित किया जा रहा है जिंहे पढ़कर अधकचरी जानकारी वाले आपरेटर, सेल्समैन और मैनेजर पैदा होतें हैं। इनका अपने ध्ंाधे और पैसे के अलावा और किसी चीज से सरोकार नही होता। इस कठिन समय में गांवों के ये लड़के कहां जायेंगे? क्योंकि उनके पास पैसा ही नही है, बाकी सब कुछ है। कोई ताज्जुब नही कि आने वाले दिनों में आपको विश्वविद्यालय परिसरों में से लड़के न दिखाई पड़े। वे कंपनी बाग के खिले देशी फूल हैं। उन्हे जी भरकर देख लीजिए।क्या पता कल रहें न रहें
(साभार अमर उजाला, 17 अगस्त 2000 को प्रकाशित)
सब बेच डालिए, आपको पूरा अधिकार है!

...तो मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल जी के पास भी इस बात का जवाब नहीं की इलाहबाद में पत्रकारिता की शिक्षा का नीजिकरण सही है या गलत. गुरुवार को नई दिल्ली में एक प्रेस कोंफ्रेंस में दैनिक जागरण के पत्रकार ने इलाहाबाद के पत्रकारिता विभाग के छात्रों का मुद्दा उठाया तो वह बगले झांकने लगे. मंत्री ने गोलमोल सा जवाब दिया "सभी को साथ लेकर चलने की जरूरत है।"
इसका क्या अर्थ लगाया जाना चाहिए. आन्दोलन कर रहे छत्र सभी को साथ लेकर चलने को तैयार हैं. क्या कपिल सिब्बल जी हमारे साथ चलेंगे? क्या उनकी सरकार अपने नुमाइन्दे कुलपति से यह पूछ सकती है की वह छत्रहितों के खिलाफ यह निजीकरण क्यों कर रहे हैं? क्या वह ये भी नहीं पूछ सकते की मीडिया को जो नया पाठ्यक्रम शुरू करने जा रहे हैं क्या वह यूजीसी के नियमों को पूरा करता है?
साथियों, इसका जवाब सिर्फ 'नहीं' होगा. क्योंकि यह वही कपिल सिब्बल साहब हैं जिन्होंने अभी थोड़े दिन पहले प्राथमिक शिक्षा को दूकान का माल बनाने के लिए "सबको शिक्षा का अधिकार" का नारा दिया. नीजि कम्पनिया भी कुछ ऐसा ही नारा दिया करती हैं. क्योंकि उनको पता है की इस "सब" का मतलब केवल उन्हीं से है जिनकी जेब में पैसा है. मुरली मनोहर जोशी के बाद निजी कंपनियों और पूंजीपति घरानों ने अब कपिल जी को अपना निजीकरण का रथ हांकने का ठेका दिया है. और कपिल सिब्बल उनकी उम्मीदों पर खरे उतरने की बखूबी कोशिश कर रहे हैं. इसलिए यह जानकर की इलाहाबाद में उनके चेलों ने उनके रथ से दो कदम आगे चलते हुए, पहले ही निजीकरण शुरू कर दिया है, तो वह नाराज कतई नहीं होंगे. यह जरुर है की सामने जनता हो तो वह कुलपति को दो-चार बातें सुना दें, उनके चाटुकार जी.के. राय को इतने छोटे स्तर पर निजीकरण करने के लिए हटा दे. लेकिन मकसद उनका भी कुछ ऐसा ही है. वह शायद इससे बड़े स्तर पर निजीकरण की आश लगाये हों.
मुख्य धारा की मीडिया भी आज यही चाहती है की समाज की बात करने वाले जीवजन्तु उससे सौ कोस दूर रहे. इसलिए वह खुद के मीडिया संसथान खोल रही है. वहां आप थैले भर पैसा लेकर जाईए, वह आपको सनसनाते हुए एक डिग्री पकडा देगें. अब यह आप पर है की उसके बाद अपना पैसा कैसे वसूल करते हैं. आप चाहे सनसनी बेचिए, आप अखबारों में खबरे बेचिए, लोगों की अस्मत बेचिए, उनके आंसू, बेडरूम-बाथरूम के सीन बेचिए और इससे भी दिल नहीं भरे तो पूरा अखबार या चैनल बेच दीजिये. आपको पूरा अधिकार है, आपने इतने पैसे खर्च कर डिग्री जो खरीदी है.
हालाँकि इलाहाबाद के छात्र आन्दोलन को देख ये साफ़ है की कुछ लोग हैं जो इस खरीद बेच के सौदे से दूर असल पत्रकारीता के लिए लड़ रहे हैं. यह छात्र आन्दोलन इस बात की तस्दीक है की, निजीकरण के इस रथ को रोकने का हौसला केवल यही युवा पीढी कर सकती है. वैसे भी इलाहाबाद की धरती ऐसे कई आंदोलनों का गवाह बन चुकी है. यहाँ के आन्दोलनों ने हर बार बदलाव की कहानी लिखी है. इस बार इस आन्दोलन की डोर समाज के सबसे सजग माने जाने वाले तबके ने संभाली है. इसे मिल रहे जनसमर्थन को देख ऐसा लगता है, की इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन की अपने फैसले पर पछतावा हो रहा होगा, वह लगातार आन्दोलनरत छात्रों को डरा धमका उन्हें तोड़ना चाहता है. लेकिन यकीं मानिए ऐसे हौसलों के दम पर ही दुनिया टिकी है.
कुलपति (?) के नाम पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों का खुला पत्र
आज से चंद साल पहले जब विश्वविद्यालय की प्रवेश परी़क्षा के पेपर लीक होने के सवाल पर आपने प्रशासन के लोगों को साथ लेकर गांधी भवन तक मार्च किया था, विश्वविद्यालय की अस्मिता और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए तब केवल विश्वविद्यालय में चंद शिक्षक और कुछ ही प्रशासन के नुमाइंदे ही आपके साथ थे।
आज जब पत्रकारिता विभाग की अस्मिता और प्रतिष्ठा पर आंच आ रही है और तो वहां के शिक्षक अपने सभी विद्याथर््ीिओं के साथ उसी तरह गांधी भवन जाते हैं। ये संकल्प लेने के लिए की हम अपने मान सम्मान और विचारों पर अडिग रहेंगे तो आप उस विभाग के सात साल विभागाध्यक्ष रहे सुनील उमराव को नोटिस थमाते हैं कि वो परिसर में अराजकता फैला रहे हैं और वीसी के कथित मानसम्मान को ठेस पहुंचा रहे हैं। क्या आज वीसी का मानसम्मान एक विभाग या शिक्षक से अलग होता है? क्या विश्वविद्यालय जैसी अकादमिक संस्थाओं में विचारों को भैंस की तरह जंजीरों में बांधा जा सकता है। जब श्री राजेन हर्षे वीसी की कुर्सी की गरिमा को बनाये नही रख पा रहें है तो उस कुर्सी की गरिमा को यह कार्य कैसे आघात पहुंचा सकता है। सीनेट हाल में बच्चों की तरह पूरे विश्वविद्यालय के अध्यापकों द्वारा अपने को ‘‘हैप्पी बर्थडे टु यू’’ गवाकर विश्वविद्यालय की ऐतिहासिक गरिमा को ध्वस्त कर नया अध्याय लिखा है। क्या एक शिक्षक को अपने पदोन्नति और प्रशासनिक पदों की भूख इतनी वैचारिक अकाल पैदा करती है कि सभी एक सुर में हैप्पी बर्थ डे प्रायोजित करते है। यह विश्वविद्यालय में किस प्रकार की परिपाटी स्थापित करने की कोशिश की जा रही है।
राजेन हर्षे के कुलपति बनने के बाद हर मंच पर खड़े होकर यहां पर अकादमिक स्तर को बढाने की दुहाई देते रहे हैं और विश्वविद्यालय के ज्यादातर अध्यापकों पर न पढाने का आरोप लगाते रहे है परंतु व्यवहार में क्लास न लेने वाले शिक्षकों के इर्दगिर्द घिरे रहे है। और उनकी सलाह से विश्वविद्यालय में पढाई के बजाय ठेकेदारी की प्रवृत्ति को बढावा दिया है। एक ऐसे शिक्षक को जो वाइस चांसलर के आने के पहले विभाग आता हो और आपके जाने के बाद विभाग छोड़ता हो उसे शिक्षक दिवस के मौके पर नोटिस दी जाती है कि वो छात्रों-छात्राओं और अध्यापकों को भडका रहे हैं। क्या विश्वविद्यालय के अध्यापकों का चरित्र इतना कमजोर है कि इतनी जल्दी उनको प्रभावित कर सकता है। जबकि वो शिक्षक केवल कंपाउण्डर है, ‘‘डाक्टर’’ भी नही। इतने बड़ी-बड़ी डिग्रियां और किताबे लिखने वाले अध्यापकगणों को कंपाउण्डर बहका सकता है तो इन शिक्षकों पर सवाल ही खडे होतें है। और उनके द्वारा लिखी गयी किताबों पर सवाल उठता है। क्या विश्वविद्यालय केवल पेपर लिखने वाले पेपरमैनों (जिनके पास कोई चरित्र की विश्वसनीयता न हो)का गिरोह है? हमें बताने की जरुरत नही है कि शिक्षा चरित्र निर्माण एवं अपने विचारों पर चलने की एक पद्वति ही है। यही सोच ने हम विद्यार्थियों को हमारे गुरु के नेतृत्व में यात्रा करने को मजबूर किया है।
विश्वविद्यालय में छात्रों को आंदोलित करके अर्दब में लेने का कुछ चंद शिक्षको का एक बड़ा इतिहास रहा है जो परिसर में छिपकर ठेके और कमाई के धंधे को पनपाने के लिए ऐसा करते रहे है। वे कभी सामने नही आते पर पेशे और धन के बल पर अपना आंदोलन चलाते है। वही हमारे शिक्षक हमारा नेतृत्व कर एक बहादुर और चरित्रवान शिक्षक होने परिचय दिया है कि कोई भी लड़ाई हम मिलकर लड़ेगे और अपनी नौकरी और जानमाल को इन तथाकथित मठाधीशों से लड़ने में लगा देंगे। ये समय ही बतायेगा की वीसी के सरकारी लाव-लश्कर हमारे विचारों को जंजीरों को बांध पायेगे। इनकी पदोन्नति और सेलेक्शन कमेटी का लालच कितना हमको तोड़ पायेगा। परिसर में आज भी अधिकतर अध्यापक और विधार्थी ईमानदार और निष्ठावान हैं, जिनके बल पर हम निजीकरण के खिलाफ सै़द्धांतिक लड़ाई लडने का हौंसला कर पाये।
ये विश्वविद्यालय का ऐतिहासिक मौका था जब शिक्षक खुद आंदोलन का नेतृत्व करने को निकला था। प्रशासन ने ‘‘पीस जोन’’ की ‘‘मर्यादा’’ भंग करने के लिए अध्यापक को ही नोटिस दी हम छात्रों को क्यों नही? क्या हमारे अध्यापक इतने लल्लू हैं? क्या आप हमसे डरते हैं? क्या आपके अंदर नैतिक बल का आभाव है? आप राजनीति शास्त्र के ही प्रोफेसर हैं? आज हम देखेंगे कि आप की राजनीति हमारे नैतिक आंदोलन को किस हद तक तोड़ पाती है। आप विचारों के शिक्षक हैं व्यवहार के नही। आप एक आतंकवादी हैं जो अपनी कुर्सी और पद का आतंक दिखा कर लोगों को अपने विचारों पर अडिग रहने से रोकना चाहते हैं। हम लोग मिलकर दिखाएंगे की हम बिकाऊ नहीं हैं। जिन्हें आपके जैसे शिक्षा के तथाकथित मठाधीश और ठेकेदार खरीदकर तोड़ सकते हैं। देखेंगे जीत हमारे नैतिक बल की होगी या संगीनों के साये में जीने वाले आप जैसे तथाकथित शिक्षक की।
जब चार दिनों से सैकड़ों लड़के-लड़कियां सड़कों पर खुली धूप और गर्मी में अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। वहीं आप हमारे परिवार के मुखिया होकर वातानुकूलित चैंबर में जीके राय के साथ घंटों बैठकर राय मशविरा कर रहे है। आपको चार साल के कार्यकाल में शायद न मालुम हो पाया हो कि जीके राय वे अध्यापक हैं जिन्होंने जिंदगी भर कभी क्लास नहीं ली। इस सच को विश्वविद्यालय में सभी लोग जानते हैं। हमारे वो चार साल पहले वाले वीसी साहब कहां हैं जो हर मंच पर चढ़कर आदर्श टीचर बनने की दुहाई देते थे। चार साल में इतना विरोधाभास क्यूं?
ये सब हम ‘‘नादान बच्चों’’ को दिखता है तो हम बोलते हैं लेकिन शायद शिक्षक इसलिए नहीं बोलते हैं क्योंकि वो हमसे ज्यादा समझदार और दुनिंयादार हैं। क्यों आप जैसे ज्ञानी-विज्ञानी महापुरुषों को दिखाई नहीं देता। आप महाभारत के धृतराष्ट्र की तरह सत्ता के नशे में इतने चूर न हो जायें कि पांडवों को हस्तिनापुर के बीस गांव न देने की जिद के बाद अपने सौ पुत्रों और राज्य को स्वाहा कर दिया।
पत्रकारिता विभाग छोटा हो सकता है, भले वहां केवल एक शिक्षक हो, परन्तु हम विद्यार्थियों के हौसले इतने बुलंद है और हममे वो नैतिक बल है कि इस जीके राय की इस्टीट्यूट प्रोफेशनल स्टडीज की सोने की लंका को जलाकर खाक कर डालने का दम है। आप अपनी राजनीति की गोट खेलते रहे हम अपनी लड़ाई लड़ते रहेंगे। आप अपने षडयंत्र रचिए, विजय तो योद्वाओं की ही होगी। हम वो लोग हैं जो अपने माथे पर काले कफन डालकर अपने विचारों और सिद्वातों के लिए खड़े हैं न कि आपके पैरों पर लोटने वाले विश्वविद्यालय के वो अध्यापक जो लाख टका की तनख्वाह होने के बावजूद विश्वविद्यालय की ईंट खाते हैं, सीमेंट फंाकतें है, कम्प्यूटर चबाते है और सब कुछ हजम करने के बाद चटनी-अचार-मुरब्बा खिलाकर व्यवहार बनाते हैं। ये लगभग सवा़ सौ साल पुराना विश्वविद्यालय शिक्षा का केंद्र है न कि व्यवसायिक केंद्र। यहां न्याय और अधिकारों की आयत पढ़ी जाती है और इंसाफ के मंत्रो का जाप होता है।
कुलपति महोदय, आपसे विनम्र निवेदन है कि शिक्षक को अपनी जायज मांगें उठाने के लिए नोटिस देकर अपना वैचारिक दिवालियापन दिखाने के बजाय हमारे मुद्दे पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे। आप हमें बतांए कि आखिर किस अधिकार के तहत समानान्तर कोर्स को एक्जीक्यूटिव काउंसिल से पास किए बिना मीडिया स्टडीज का पाठ्यक्रम कैसे चालू कर रहे हैं। क्योंकि एक्जीक्यूटिव काउंसिल से पास न होने के चलते ही एमए (मास कम्यूनिकेशन) विभाग दो साल तक बंद रहा। आखिर आप हमारे साथ इतना सौतेला व्यवहार क्यों कर रहे हैं। आपका इसमें क्या निजी हित और राजनीति है? कृपया यह राजनीति के प्रोफेसर बताएं।
- आपके अपने
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के विद्यार्थी
पंजाब में लगी आग : एक कड़वी सच्चाई

नवीन कुमार ‘रणवीर’
24 मई 2009 रविवार को ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना में डेरा सचखंड बल्लां वाला के संत निरंजन दास और संत रामानंद पर हुए हमले की प्रतिक्रिया 25 मई को भारत के पंजांब, हरियाणा और जम्मू में दिखी। जिसका हर्जाना लगभग पूरे उत्तर भारत को उठाना पड़ा। पंजाब के रास्ते जानें वाले सभी मार्ग रेल और सड़क बंद, काम-धंधे बंद, कई जगह आगजनी, विरोध प्रदर्शन, तोड़-फोड़, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया गया, कई बसे, ट्रेनें यहां तक की एटीएम तक को आग भीड़ ने आग के हवाले कर दिया। टेलीविजन पर खबरें आ रही थी की विएना में एक गुरुद्वारे में हुए हमले के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं, लोग समझ रहें थे कि गुरुद्वारे पर हमला विएना (ऑस्ट्रिया) में हुआ है फिर ये लोग यहां क्यों प्रदर्शन कर रहे है? और एक बात प्रदर्शन करनें वालों में सिखों की संख्या का अनुपात भी कम नजर आ रहा था, कारण क्या है कुछ समझ में नहीं आ रहा था। शायद बात को मीडिया बंधु सही तरह से समझ नहीं पाए थे कि बात आखिर हुई क्या है। दरअसल ऑस्ट्रिया के विएना में जो गुरुद्वारा सचखंड साहिब है वो किस प्रकार अन्य गुरुद्वारों के भिन्न हैं, पंजाब के डेरों में डेरा सचखंड साहिब बल्लां रामदासियों और रविदासियों(आम भाषा में यदि हम कहें तो चमारों) का का डेरा कहा जाता है।डेरा सच खंड की स्थापना 70 साल पहले संत पीपल दास ने की थी। पंजाब में डेरा सच खंड बल्लां के करीब 14 लाख अनुयायी हैं।वैसे तो पंजाब में 100 से ज्यादा अलग-अलग डेरें हैं, पर डेरा सच के अनुयायियों में ज्यादा संख्या में दलित सिख और हिंदू है। पंजाब में दलितों की आबादी लगभग 34 प्रतिशत है। रविदासिए मतलब भक्तिकाल के महान सूफी संत रविदास के अनुयायी। जिन्होनें की जाति-व्यवस्था के विरुद्ध समाज की कल्पना की थी। सिख धर्म के कई समूह डेरा संस्कृति के खिलाफ रहे हैं। क्योकिं इन डेरों के प्रमुख खुद को गुरु दर्शाते हैं। फिर इनके डेरों में गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश क्यों होता है। यहां सवाल ये भी खड़ा होता हैं कि निरंकारी, राधा-स्वामी ब्यास, डेरा सच्चा सौदा और न जानें कितनें ही ऐसे डेरे हैं जहां के गुरु सिख ही हैं, और वे भी गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी को ही अपनें सत्संग में बाटंतें है। या शायद ऐसा हैं कि समाज में उच्च वर्गों के द्वारा चलाए जानें वाले डेरों से सिख के किसी समूह को परेशानी नहीं है लेकिन निम्न वर्गों जिन्हें कि सिख धर्म में तिरस्कार झेलना पड़ा हो, उनके डेरों से ही सिख धर्मावलंबियों को ऐतराज है। अब समझ में ये नहीं आता की ऐतराज सभी डेरों के प्रमुखों से है जो कि खुद को गुरु कहलाते हैं, या कि डेरा सच खंड से है? एक धड़े का ये भी मानना है कि वे संत रविदास को गुरु के रूप में मानते हैं इससे उन्हें ऐतराज है। सिख धर्म की स्थापना करते समय गुरु नानक देव जी ने सिख धर्म में जाति व्यवस्था कि कल्पना नहीं की थी, हिन्दू धर्म की कुरितियों से परे ही सिख एक अलग पंथ बना। परधर्मावलंबियों के आशीर्वाद से जातिवाद का दंश ऐसा बोया गया कि संत रविदास जैसों को जन्म लेना पड़ा। सिख धर्म में जातिवाद की टीस झेल रहे नीची जाति के सिखों रामदासिये, सिक्लीकर, बाटरें, रविदासिए सिख,मोगरे वाले सरदार,मजहबी सिख,बेहरे वाले,मोची,अधर्मी(आदि-धर्मी), रामगढ़िए, और न जाने कितनी दलित जातियों के लोगों को सिख धर्म ने भी वही कुछ दिया जो कि हिंदू धर्म में सवर्णों ने दलितों को दिया, सिर्फ यातना। क्यों जरूरत पड़ी की इतने डेरे खुले उसी पंजाब में जिसमें की अलग पंथ की नीव रखी गई थी इस उद्देश्य से, कि कोई ऐसा धर्म हो जो कि सभी लोगों को बराबरी का अधिकार दे, जिसमें वर्ण व्यवस्था का मनुवादी दंश न हो। जिसमें मूर्ति पूजा न हो, जिसमें गुरु वो परमात्मा है जो कि निराकार है, जिसका कोई आकार नहीं है। दस गुरुओं तक गद्दी चली दसेवें गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहां "सब सिख्खन को हुक्म है गुरु मानयों ग्रथ" मतलब अब कोई गुरु नहीं होगा गुरु ग्रथ साहिब ही गुरु होगी। लेकिन गुरुद्वारों में सिख जट्टों का वर्चस्व रहता देख, समाज के सबसे निचले वर्ग के लोगों को ने डेरों का सहारा लिया। कहनें को इन डेरों में सभी को समान माना जाता है। पर कई डेरों में पैसे वाले लोगों का वर्चस्व है और बहुतेरे ऐसे भी हैं जिनके अनुयायिओं में दलित और समाज में निम्न वर्ग के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। डेरा सच खंड भी उन्हीं में से एक है। सवाल अब भी वही है कि क्या डेरा सच खंड के प्रमुख संत निरंजन दास और उनके चेले संत रामानंद ने कोई ऐसा काम किया था जिससे की सिख धर्मावलंबियों को ऐतराज था ? क्या डेरा सच्चा सौदा सिरसा के प्रमुख गुरमीत राम-रहीम की भांति इन संतों के परिधानों में उन्हें गुरु गोबिंद सिंह की झलक दिखाई दे रही थी ? क्यों गोली मारी गई? क्या शिकायत थी? शायद विएना केगुरुद्वारे डेरा सचखंड बल्लां वाल में सिख गुरुद्वारों की तुलना में चढ़ावा अधिक आ रहा था। डेरा सच खंड बल्लां वाला के प्रमुख निरंजन दास आज तक घायल अवस्था में हैं औऱ उनके चेले और डेरे के उप-प्रमुख संत रामानंद की मृत्यु हो चुकी है। सिख के किसी समूह को शायद दलितों औऱ पिछड़ों के डेरों पर हमला करना आसान लगा होगा। या फिर जातिवाद के भयावह चेहरे में पंजाब की 34 प्रतिशत दलितों के आबादी का एक साथ होने की प्रतिक्रिया थी? जिन्हें की सिख समाज ने हमेशा तिरस्कृत किया चाहे वह भी सिख ही क्यों न हो। सवाल के पहलू क्या हैं ये सिख धर्म के पैरोकार जानते हैं और कोई नहीं।
डॉ बिनायक सेन को मिली ज़मानत : बीबीसी

डॉ सेन पिछले दो वर्षों से छत्तीसगढ़ की जेल में बंद थे और राज्य सरकार ने उन पर माओवादियों की मदद करने का आरोप लगाया था.
न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू और दीपक वर्मा की खंडपीठ ने अपने फ़ैसले में कहा कि डॉ वर्मा को निजी मुचलके पर स्थानीय अदालत से ज़मानत दे दी जाए.
नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले बिनायक सेन सेन की दुनिया भर में साख है. पेशे से डॉक्टर बिनायक सेन की रिहाई के लिए दुनिया के कई नोबल पुरस्कार विजेताओं ने भी राज्य सरकार को पत्र लिखा था.
डॉक्टर बिनायक सेन शुरु से राज्य सरकार के आरोपों का खंडन करते रहे हैं और कहते रहे हैं कि वो नक्सलियों का साथ नहीं देते लेकिन वो साथ ही राज्य सरकार की ज्यादतियों का भी विरोध करते रहे हैं.
पिछले दो वर्षों से डॉ सेन बार बार सुनवाई की अपील करते रहे हैं और आखिरकार उन्हें सुप्रीम कोर्ट से ही राहत मिल सकी है।
कौन हैं डॉ बिनायक सेन?
खादी का बिना प्रेस किया हुआ कुर्ता-पाजामा, लंबी बढ़ी दाढ़ी और पैरों में साधारण स्पोर्ट्स शू पहने 57 वर्षीय डॉक्टर बिनायक सेन को देखकर अक्सर उनके समूचे व्यक्तित्व का पता नहीं चल पाता.
कुछ लोग उन्हें सीधे-सादे सामाजिक कार्यकर्ता के रुप में जानते हैं तो कुछ एक बौद्धिक चिंतक के रुप में और अब पुलिस उन्हें नक्सलियों का सहयोगी बताती है.
छत्तीसगढ़ की शहरी आबादी भले ज़्यादा न जानती रही हो लेकिन वहाँ के दूरस्थ इलाक़ों के गाँव वाले और आदिवासी उन्हें अपने हितचिंतक के रुप में जानते रहे हैं.
पेशे से चिकित्सक डॉ बिनायक सेन छात्र जीवन से ही राजनीति में रुचि लेते रहे हैं.
उन्होंने छत्तीसगढ़ में समाजसेवा की शुरुआत सुपरिचित श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी के साथ की और श्रमिकों के लिए बनाए गए शहीद अस्पताल में अपनी सेवाएँ देने लगे.
इसके बाद वे छत्तीसगढ़ के विभिन्न ज़िलों में लोगों के लिए सस्ती चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के उपाय तलाश करने के लिए काम करते रहे.
डॉ बिनायक सेन सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता तैयार करने के लिए बनी छत्तीसगढ़ सरकार की एक सलाहकार समिति के सदस्य रहे और उनसे जुड़े लोगों का कहना है कि डॉ सेन के सुझावों के आधार पर सरकार ने ‘मितानिन’ नाम से एक कार्यक्रम शुरु किया.
इस कार्यक्रम के तहत छत्तीसगढ़ में महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता तैयार की जा रहीं हैं.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनके योगदान को उनके कॉलेज क्रिस्चन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर ने भी सराहा और पॉल हैरिसन अवॉर्ड दिया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य और मानवाधिकार के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए जोनाथन मैन सम्मान दिया गया.
डॉ बिनायक सेन मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की छत्तीसगढ़ शाखा के उपाध्यक्ष भी हैं.
इस संस्था के साथ काम करते हुए उन्होंने छत्तीसगढ़ में भूख से मौत और कुपोषण जैसे मुद्दों को उठाया और कई ग़ैर सरकारी जाँच दलों के सदस्य रहे.
उन्होंने अक्सर सरकार के लिए असुविधाजनक सवाल खड़े किए और नक्सली आंदोलन के ख़िलाफ़ चल रहे सलमा जुड़ुम की विसंगतियों पर भी गंभीर सवाल उठाए.
सलवा जुड़ुम के चलते आदिवासियों को हो रही कथित परेशानियों को स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया तक पहुँचाने में भी उनकी अहम भूमिका रही.
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाक़े बस्तर में नक्सलवाद के ख़िलाफ़ चल रहे सलवा जुड़ुम को सरकार स्वस्फ़ूर्त जनांदोलन कहती है जबकि इसके विरोधी इसे सरकारी सहायता से चल रहा कार्यक्रम कहते हैं. इस कार्यक्रम को विपक्षी पार्टी कांग्रेस का भी पूरा समर्थन प्राप्त है.
छत्तीसगढ़ की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने 2005 में जब छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा अधिनियम लागू करने का फ़ैसला किया तो उसका मुखर विरोध करने वालों में डॉ बिनायक सेन भी थे.
उन्होंने आशंका जताई थी कि इस क़ानून की आड़ में सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को परेशानी का सामना करना पड़ सकता है.
उनकी आशंका सही साबित हुई और इसी क़ानून के तहत उन्हें 14 मई 2007 को गिरफ़्तार कर लिया गया.
छत्तीसगढ़ पुलिस के मुताबिक़ बिनायक सेन पर नक्सलियों के साथ साठ-गांठ करने और उनके सहायक के रूप में काम करने का आरोप है.
हालांकि वे ख़ुद इसे निराधार बताते हैं और पीयूसीएल इसे सरकार की दुर्भावना के रुप में देखती है.
दुनिया भर से अपील
डॉ बिनायक सेन पिछले एक साल से जेल में हैं और उनकी रिहाई के लिए देश के बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता अपील करते रहे हैं.
अब दुनिया भर के 22 नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने डॉ बिनायक सेन की रिहाई की अपील की है.
नोबेल पुरस्कार विजेता चाहते हैं कि उन्हें जोनाथन मैन सम्मान लेने के लिए अमरीका जाने की अनुमति दी जाए.
पिछले एक साल में बहुत सी कोशिशों के बाद भी डॉ सेन को ज़मानत नहीं मिल सकी है.
उनकी गिरफ़्तारी के एक साल पूरा होने पर 14 मई को देश भर में विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई जा रही है.
डॉ बिनायक सेन की पत्नी डॉ इलीना सेन भी जानीमानी सामाजिक कार्यकर्ता हैं और वे डॉ सेन को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रही
बीबीसी हिंदी डॉट कॉम
ठेंगे का लोकतंत्र

लोकतंत्र को अंगूठा दिखता एक आन्दोलन
राजीव यादव
द्वापर युग के एकलव्य की कहानी एक बार फिर से सोनांचल में लोकतंत्र के चैकीदारों ने दोहरायी। पूर्वी यूपी के सोनभद्र जिले की राबर्टसगंज लोकसभा सीट पर तेरह दलित-आदिवासी प्रत्याशियों का नामांकन अगंूठा निशान के चलते खारिज कर दिया गया। तो वहीं दूसरी तरफ 2001 की जनगणना के आधर पर हुए नए परिसीमन ने 2003 में अनुसूचित जाति का दर्जा पाने वाली आदिवासी जातियों से उनके चुनाव लड़ने का अधिकार पहले ही छीन लिया था। बहरहाल एकलव्य के वारिसों ने युगों से चली आ रही उनके अंगूठे की साजिश के खिलाफ समानांतर बूथ चलाकर ‘लोकतंत्र के हत्यारों पर चोट है, अंगूठा निशान ही हमारा वोट है’ का सिंघनाद कर चुनावों बहिस्कार कर दिया।
सोनांचल के चुनावी कुरुक्षेत्र में नामांकन खारिज होने के बाद भाकपा माले के ‘अंगूठा लगाओ, लोकतंत्र बचाओ’ समानांतर चुनाव आंदोलन ने अनपढ़ गरीबों को उनके चुने जाने के मौलिक अधिकार से वंचित करने वाले लोकतंत्र विरोधी तंत्र की नीद हराम कर दी है। माले के उम्मीदवार जीतेन्द्र कोल कहते हैं ‘हमारे दोनों महिला प्रस्तावकों ने अंगूठा निशान सहायक निर्वाचन अधिकारी के सामने लगाया था ऐसे में सहायक निर्वाचन अधिकारी की जवाबदेही बनती थी की वे अंगूठा निशान को अभिप्रामिणित करते।’ इस बाबत सोनभद्र के जिला निर्वाचन अधिकारी की भूमिका अदा कर रहे जिलाधिरी पंधारी यादव का कहना है कि खुद उन्हें भी अंगूठा निशान प्रमाणित करवाने के नए प्रावधान की पहले से जानकारी नहीं थी। नामांकन खारिज किए गए प्रत्याशियों ने जब विरोध करते हुए उन्हें जिम्मेदार ठहराया तो पन्धारी यादव ने धमकी भरे लहजे में कहा कि जो करना हो कर लो हाई कोर्ट ही जाओगे न, मेरा कुछ नहीं बिगड़ने वाला। इस स्वीकरोक्ति के बाद जहां होना तो ये चाहिए था कि जिलाधिकारी के विरुद्ध कार्यवाई हो पर उल्टे कार्यवाई प्रत्याशियों का नामांकन खारिज करने की हुई। इस पूरे क्षेत्र में कानूनी-गैरकानूनी का कोई मानक नहीं रह गया है। बगल की मिर्जापुर सीट पर हुए नामांकन में अंगूठा निशान को वैधता दी गयी है। आदिवासियों को सत्ता से दूर रखने की यह कोई नयी कवायद नहीं है। पांच लाख आदिवासी होने के बावजूद यहां कोई सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित नहीं है। उत्राखंड के निर्माण के बाद राजनाथ सरकार ने कहा कि जो भी अनुसूचित जन जाति के लोग थे वे चले गए। आदिवासियों के असंतोष को देखते हुए 2003 की मुलायम सरकार ने गोड़, खरवार, चेरो, बैगा, पनिका, भुइया को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया। जबकि कोल, मुसहर, बियार, धांगर, धरिकार, घसिया जनजाति के आरक्षण की व्यस्था से महरुम रह गए। पिछले 2005 के पंचायत चुनाव में बहुतायत होने के बावजूद एक भी आदिवासी सीट आरक्षित नहीं की गयी थी। इस राजनैतिक चाल के चलते ये सभी जनजातियां चुनाव लड़ने से वंचित कर दी गयीं जिन्हें आदिवासी का दर्जा मिला था। उस दौर में भी समानांतर बूथ आंदोलन चलाकर आदिवासियों ने चुनाव बहिस्कार किया। कई गावों में तो दस-दस वोट पड़े। दुद्धी विधानसभा में बेलस्थी गांव में तो मात्र सात वोट पड़े जिसके आधार पर प्रधान से लेकर बीडीसी चुने गए। बहरहाल वही चाल मौजूदा सरकार भी चल रही है। 2001 की जनगणना के आधार पर 2008 में हुए नए परिसीमन में सुरक्षित सीट के चलते फिर से 2003 में अनुसूचित जनजाति का दर्जा पायी आदिवासी चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। ऐसे में देखा जाय तो अब 2011 की जनगणना के आधार पर 2028 में होने वाले परिसीमन तक ये चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। अब सरकारों की मंशा पर है कि वे कब इन पर ‘मेहरबान’ होंगी और विशेष पहल कर इनके लोकतांत्रिक अधिकारों को सुरक्षित करेंगी। आदिवासियों में सरकार के खिलाफ काफी रोष है कि अगर कोई बाहर से दस्तख़त कर के ले आए तो उसकी जांच नहीं की जाती और उनके लोगों का अंगूठा निशान अधिकारियों के सामने लगाने पर भी नहीं मान्य होता। मगरदहां की पुष्पा कहती हैं ‘जब हम अंगूठा छाप लोगों का वोट सरकार ले सकती है तो फिर हमारे लोगों को चुनाव लड़ने से क्यों रोकती है।’ घोरावल के बागपोखर समानांतर बूथ पर कड़ी लू भरी दुपहरिया में वोट देने आए शीतला गोड़ पूछने से पहले ही झल्लाते हुए कहते हैं कि हमरा अंगूठा लगवाकर हमारे बाप-दादा के जमाने की जमीन-जायदाद हमसे छीनने का अधिकार सरकार के पास है पर वही अंगूठा लगाने पर हमारे नेता का पर्चा खारिज कर देते हैं। साहब अगर अंगूठा निशान गलत है तब हमारे लोगों की जमीन सरकार और हराम खोर सूदखोरों को छोड़ देनी चाहिए। सोनांचल के इस इलाके में जहां-तहां ‘ये जमीन सरकारी है’ के बोर्ड दिख जाएंगे तो वहीं सामंत और सूदखोर मरने के बाद भी अंगूठा लगवा लेते है। जिसका ब्याज पीढ़ी दर पीढ़ी ये आदिवासी चुकाते हैं। पूरे लोकसभा क्षेत्र के तीन सौ से अधिक गांवों में चल रहे समानांतर बूथ आंदोलन के शबाब पर चढ़ते ही पुलिस ने सैकड़ो घरों पर छापेमारी और गिरफ्तारी शुरु कर दी। खरवांव, मगरदहां, तकिया, भवना, समेत दर्जनों गावों में सैकड़ो घरों पर छापेमारी के दौरान पुलिस ने खुलेआम आदिवासियों और दलितों को सरकार के पक्ष में वोट डालने का दबाव बनाया। पर्चा-वर्चा खारिज करना नाटक है कहते हुए मगरदहां के विजय कोल कहते हैं ‘सरकार चाहती है कि उसके पक्ष में वोट पड़े ऐसे में दलित- आदिवासियों के चुनाव लड़ने से उसके वोट बैंक में संेध लग रही थी तो उन्होंने पर्चा खारिज करवा दिया। अब अपने गुण्डों और पुलिस को भेज हमको धमकाया जा रहा है कि हम उनको वोट दें, नहीं तो नक्सलाइट कह कर हमारा एनकाउंटर कर देंगे। इस बात की चर्चा पूरे सोनभद्र में है क्योंकि संासद घूस काण्ड में बसपा के सांसद के पकड़े जाने के बाद हुए उपचुनाव में बसपा मात्र तीन सौ वोटों से जीती थी। जनप्रतिनिधियों और नक्सलवाद के नाम पर हो रही प्रशासनिक लूट के खिलाफ गुस्से को बढ़ता देख सरकार को यह अंदेशा था कि वह चुनाव हार जाएगी। चुनाव के नाम पर ऐसे हथककण्डे अपनाकर सरकार जनता के सवालों पर लड़ने वालों को रास्ते से हटाकर अपने खिलाफ उठ रही आवाजों को नक्सलाइट घोषित कर दमन करने की फिराक में है। सोनांचल में उपजे इस अंगूठा विवाद ने लोकतंत्र के कई स्याह पहलुओ से पर्दा उठाया है और नक्सल उन्मूलन के नाम पर पल-बढ़ रहेे सामंती नौकरशाहों का चेहरा बेनकाब किया है। ओबरा, राबर्टसगंज समेत पूरे क्षेत्र में पिछले दिनों पुलिस वाले गावों-गावों में जाकर आदिवासियों को शिक्षा से लाभ और नक्सलवाद से सचेत रहने का अभियान चलया था, इस अभियान में एसपी राम कुमार भी शामिल थे। ऐसे अभियान कितने कागजी होते हैं यह खुद-ब-खुद सामने आ रहा है कि जो सरकार लोगों को दस्तख़त करना नहीं सिखा सकती वो और क्या करेगी। सरकार के नक्शे में सोनभद्र के 266 गांव नक्सल प्रभावित हैं, जो हर पैकेज और प्रमोशन के बाद बढ़ते ही गए। सबसे हास्यास्पद बात तो ये है कि जिन्हें नक्सलाइट कहा जा रहा है उनका पूरा आंदोलन इसी पर टिका है कि जो पैकेज इस क्षेत्र के विकास के लिए आ रहा है वो कहां गायब हो रहा है। नक्सल उन्मूलन के नाम पर आ रहे पैसों की बंदर-बांट में तमाम सरकारी अधिकारी और नेता लिप्त हैं। बिना किसी जांच के, इनके ऐशो आराम को देख अनुमान लगाया जा सकता है कि आदिवासियों का विकास क्यों नहीं हो रहा है।
दरअसल इस पूरे इलाके में लोकतांत्रिक ढ़ग से चल रही आदिवासियों की जल-जंगल-जमीन की लड़ाई हमारी सरकारों की नजर में ‘देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरनाक है।’ क्योंकि वे किसी भी कीमत पर अपनी जमीन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले नहीं करेंगे। इनकी लंबे समय से मांग है कि गुलामी के दौर के 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को राष्ट्रीय अपराध घोषित किया जाय। ऐसे में इस शोषित तबके से जब कोई स्वतःस्फूर्त नेतृत्व उभरता है तो वह सरकारों के लिए असहनीय हो जाता है। बहरहाल आदिवासियों का अंगूठा आंदोलन सरकार की हर दबंगई को ठेंगा दिखा रहा है।
अफीम किसानों की आवाज उठी संसद में
हमास पर फिर हुआ हमला

छह महीने के युद्ध विराम के बाद मध्य- पूर्व एक बार फ़िर से अशांत हो गया है। इज़रायल ने फ़लीस्तीनी शहर गाज़ापट्टी में मिसाइल हमले किए, जिसमें दो सौ से ज्यादा लोग मारे गए और हज़ारों की तादाद में लोग घायल हुए हैं। इन हमलों के पीछे इज़रायल का दावा है कि – उसने ये हमले गाज़ा में हमास के आतंकी शिविरों पर किए हैं,जो कुछ रोज़ पहले इज़रायल पर रॉकेट हमलों का ज़बाब है। इसके साथ इज़रायल ने ये भी धमकी दी है कि वो हमास के ख़िलाफ़ फ़लीस्तीन में ज़मीनी लड़ाई से भी गुरेज़ नहीं करेगा।
इस हमले की निंदा अरब लीग समेत यूरोपियन यूनियन ने भी की है- जबकि ह्वाइट हाउस ने ब़यान जारी किया है कि – इज़रायल को अपनी सुरक्षा का पूरा हक़ है। लेकिन अमरीका ने ये नहीं कहा कि ये हमले तुरंत बंद होने चाहिए.........वैसे अमरीका से इसकी उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि इज़रायल-फलीस्तीन विवाद में उसका क़िरदार दुनिया से छुपा नहीं है। इज़रायल- फ़लीस्तीन मसला आज की तारीख़ में सबसे विवादास्पद मुद्दा है- इनके बीच जारी संघर्ष में लाखों लोग अपनी जान गवां चुके हैं और लाखों लोग बेघर हो चुके हैं। इस आग में समूचा मध्य-पूर्व जल रहा है। समूची दुनिया की पंचायत करने वाला संयुक्त राष्ट्रसंघ की भूमिका भी संतोषजनक नहीं है। जहां तक अमेरिका की बात है तो उसकी असलियत कुछ इस प्रकार है-
इज़रायल और अरब राष्ट्रों के बीच हुए भीषण युद्ध के बाद तत्कालीन इज़रायली प्रधानमंत्री एहुद बराक और फ़लीस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात के बीच अमेरिका के कैम्प डेविड में पन्द्रह दिनों तक चली मध्य-पूर्व शांति शिखर वार्ता बगैर किसी नतीज़े के ख़त्म हो गई। इस विफलता की मूल वज़ह वो तीन मुद्दे थे – लगभग 37 लाख फलीस्तीनी शरणार्थियों का भविष्य, भावी फ़लीस्तीनी राज्य की सीमाएं और येरूशलम पर नियंत्रण। इन तीनों मुद्दों पर इज़रायली प्रधानमंत्री बराक और यासिर अराफात के बीच कोई सहमति नहीं बन पाई और नतीज़ा रहा....सिफ़र। ये सब अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की सक्रिय मध्यस्थता के बीच हुआ। जिसे पश्चिमी मीडिया ने अमरीका के शांति एवं लोकतंत्र प्रेम के रूप में खूब बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया। लेकिन अमरीका की मौजूदगी में शांति वार्ता का ये हश्र...... कोई ताज़्जुब की बात नहीं है।
इज़रायल और फ़लीस्तीनी अरबों के बीच के विवाद के प्रेक्षकों से ये बात छिपी नहीं है कि पिछले पाँच दशकों के दौरान इस क्षेत्र में अमन बहाली के लिए अमरीकी कोशिशों का मतलब क्या रहा है। हमेशा अमरीकी नेतृत्व ने इज़रायल- फ़लीस्तीनियों के बीच समझौते के नाम पर इज़रायली शर्तें मनवाने की कोशिश की है। इज़रायली वजूद की ही बात करें तो- तमाम औपनिवेशिक साम्राज्यवादी साजिशों के तहत नवंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्रसंघ फ़लीस्तीन को एक अरब और एक यहूदी राज्य के रूप में बाँटने को राज़ी हो गया था। लेकिन यहूदियों को यह भी गवारा नहीं हुआ, इससे पहले कि विभाजन हो पाता यहूदियों ने इज़रायल नाम से देश का ऐलान कर दिया।
अमेरिका ने बेहद फुर्ती दिखलाते हुए अगले ही दिन उसे मान्यता भी दे दी और उसी दिन से फ़लीस्तीनी अरबों के दर-दर भटकने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया। लाखों की तादाद में अपना वतन छोड़कर उन्हें विभिन्न अरब राष्ट्रों में शरण लेनी पड़ी। उनकी ज़मीन ज़ायदाद पर यहूदियों ने कब्ज़ा कर लिया और धीरे-धीरे लगभग सारे फ़लीस्तीन पर अपना नियंत्रण कर लिया। इस दौरान अरब राष्ट्रों से इज़रायल के तीन घमासान युद्ध हुए। अमरीका की हर प्रकार की मदद से वह हर युद्ध में अरब राष्ट्रों के कुछ न कुछ इलाकों पर कब्ज़ा करता रहा। 1967 के युद्ध में इज़रायल ने पश्चिमी तट (वेस्ट बैंक), गाज़ा पट्टी, गोलान हाइट्स, सिनार और पूर्वी येरूशलम पर कब्ज़ा कर अपने में मिला लिया।
बहरहाल, 1967 के अरब- इज़रायल युद्ध के बाद विश्व जनमत चिंतित हो उठा एवं मध्य-पूर्व में अमन बहाली की कोशिशों में तेज़ी आई। इसके तहत संयुक्त राष्ट्रसंघ सक्रिय हुआ- संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद् का प्रस्ताव 242 पारित हुआ। जिसमें पूर्ण शांति का आह्वान करते हुए इज़रायल से कब्ज़ा किए गए अरब क्षेत्रों से हट जाने को कहा गया, लेकिन इस प्रस्ताव को अमल में नहीं लाया जा सका। हांलाकि इस चार्टर पर सबने दस्तख़त किए थे, लेकिन अमरीका ने ढ़ीला-ढ़ाला रूख अपनाते हुए इसकी नयी व्याख्या कर दी और इसके तहत इज़रायल ने कब्ज़ा किए गए इलाकों से हटने से इंकार कर दिया। नतीज़तन 1976 में इस प्रस्ताव को दुबारा सुरक्षा परिषद् में विचारार्थ लिया गया। इस दफ़ा प्रस्ताव 242 की बातों की रोशनी में एक नया प्रस्ताव बनाया गया, जिसमें साफ़ तौर पर वेस्ट बैंक और गाज़ापट्टी में एक फ़लीस्तीनी राज्य की स्थापना का प्रावधान जोड़ा गया। इस प्रस्ताव का मिस्त्र, जॉर्डन, सीरिया जैसे अरब राष्ट्र, यासिर अराफात की फ़लीस्तीनी मुक्ति संगठन, सोवियत संघ, यूरोप और बाकी दुनिया के देशों ने समर्थन किया। लेकिन अमरीका ने इस प्रस्ताव के खिलाफ़ वीटो का इस्तेमाल कर इसे रद्द करा दिया।
इसी तरह 1980 में एक ऐसे ही प्रस्ताव पर अमरीका ने फिर वीटो का इस्तेमाल किया – इसके बाद ये मामला संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा में हर साल उठता रहा और इसके खिलाफ़ सिर्फ़ अमरीका और इज़रायल अपना वोट देते रहे। इतिहास से ये सारी बातें मानो निकाल दी गई हैं – उनकी जगह शांति स्थापना के अमरीकी प्रयासों की प्रेरक कथाओं ने ले ली है। और बताया जा रहा है कि अमन बहाली की ये सारी कोशिशें अरबों के कारण ही सफल नहीं हो पा रहे हैं।
अगर मध्य-पूर्व में वाकई अमन बहाली कायम करनी है तो इज़रायल- अमरीका को थोड़ा और आगे जाकर सोचना होगा। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि अमन की कोशिशों को थोड़ी हिम्मत और समझ के साथ उसे सही अंज़ाम पर पहुँचाया जाए। इस मामले में इज़रायल-फ़लीस्तीन समस्या के सबसे गहन अध्येता और महान अमरीकी चिंतक नोम चोम्स्की के शब्दों में हम सिर्फ़ इतना कहेगें – अगर राजनीतिक भ्रमों को छोड़कर मानवाधिकार एवं लोकतंत्र के सवाल को ध्यान में रखेंगे तो निश्चय ही इस समस्या का स्थाई हल निकलेगा।
अभिषेक रंजन सिंह टेलीविजन पत्रकार हैं और साम टीवी (सकाल मीडिया ग्रुप) से जुड़े हुए हैं.
चुनाव जितने की भाजपाई राजनीति

प्रफुल्ल बिदवई
जम्मू जल रहा है। पिछले सात हफ्तों से यह क्षेत्र, जिसमें 30 लाख लोग बसते हैं बेहद कट्टरपंथी, साफतौर पर साम्प्रदायिक और निष्ठुर हिंसा से भरपूर अशांति का गवाह रहा है। यह अशांति श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड को 100 एकड़ भूमि हस्तांतरित किए जाने से संबंधित सरकारी आदेश के रद्द किए जाने के परिणाम स्वरूप फूट पड़ी थी। इस अशांति ने जम्मू को कश्मीर के डोगरों को अन्य जातीय समूहों के विरुध्द और हिंदुओं को मुसलमानों के विरुध्द इस तरीके से ला खड़ा किया है, जिसकी संभावना पहले कभी नहींदिखाई दी थी।
इस अशांति ने बहुत ही गंदा राजनीतिक रूप धारण कर लिया है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी इसका इस्तेमाल बहुत ही विद्वेषपूर्ण ढंग से कर रही है। उसके समर्थकों ने जम्मू-कश्मीर पर आंशिक नाकाबंदी शुरू कर दी। जिसकी वजह से जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग कई हफ्तों तक बंद रहा। इसके परिणाम स्वरूप हर किस्म के सामान का लाना ले जाना बंद हो गया और जनता को अकथनीय कष्ट उठाने पड़े।जम्मू में असहिष्णुता के विस्फोट का सीधा असर आइने में अक्स की तरह कश्मीरवादी में देखने को मिला, जहां मुख्यधारा की पार्टियों ने अलगाववादियों के साथ मिलकर मुजफ्फराबाद की तरफ मार्च करना शुरू कर दिया। इस मार्च का जाहिराना तौर पर उद्देश्य था, नष्ट होने वाले फल को पाकिस्तानी कश्मीर में बेचकर नाकाबंदी को तोड़ना। इस मार्च को रोकने के लिए पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई में पांच लोग मारे गए। एक साथ चल रहे दो अशांति आंदोलन से जम्मू-कश्मीर की एकता और उसके बहुलवादी, बहुसंस्कृतिक और बहुधार्मिक स्वरूप के लिए एक अभूतपूर्व खतरा पैदा हो गया है। दो महीने से भी कम अवधि में भाजपा जम्मू-कश्मीर के दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भावनात्मक जातीय-धार्मिक और राजनीतिक दरार पैदा करने में कामयाब हो गई है। ऐसा काम पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर जिहादी अलगाववादी आजादी आंदोलन फूट पड़ने के बाद पिछले लगभग 20 वर्षो में भी नहीं कर पाए थे।
दोनों आंदोलन अपने-अपने क्षेत्र में जोर पकड़ते चले गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप जम्मू-कश्मीर का ध्रुवीकरण हो गया है। जैसा कि सरकार ने खुद स्वीकार किया है कि इससे हुरियत और हिंदुत्व ताकतें, दोनों ही मजबूत हुई हैं। केंद्र तो बहुत देर तक इंतजार करता रहा और उसने समस्या को और भी उग्र रूप लेने का मौका दे दिया। वह देश के कानून को वहां लागू करके जम्मू-श्रीनगर राज्य मार्ग को खुलवाने में नाकाम रही। 18 सदस्यों वाली सर्वदलीय समिति का गठन करके उसने इतनी देर से इस स्थिति को शांत करने की जो कोशिश की है, उससे कुछ बात बन नहीं पाई। केंद्र ने श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड की नाजायज मांग को मानते हुए तीन समिति सदस्यों को-जो कि तीनों ही वादी से थे-बैठक में शामिल नहींकिया। बोर्ड द्वारा अपनी मांग का कारण यह बताया गया कि ये तीनों सदस्य समस्या का हिस्सा थे, न कि समाधान के। (हालांकि समाधान ठूंढने के लिए बातचीत उन्हींसे ही की जानी चाहिए जो समस्याएं पैदा करते हैं।) लेकिन उससे भी कोई काम नहींबना। श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड, जो कि 28 समूहों का तंत्र है, पूरी तरह से संघ परिवार का ही उद्यम है। उसके तीन शीर्ष नेताओं-संयोजक लीलाकरण शर्मा, ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) सुचेत सिंह और तिलक राज शर्मा- की पक्की आरएसएस की पृष्ठ भूमि है और जम्मू कश्मीर नेशनल फ्रंट के साथ उनके निकट संबंध हैं, जिसकी यह मांग है कि राज्य के तीन हिस्से किए जाएं-जिनमें से जम्मू और कश्मीर को अलग-अलग राज्य बना दिया जाए और लद्दाख को संघ शासित क्षेत्र का दर्जा दिया जाए। इस मांग का तर्काधार है धार्मिक पहचान, जो घृणास्पद रूप से सामुदायिक तर्काधार है।यह समझना मुश्किल है कि धार्मिक आधार पर जम्मूृ-कश्मीर का बटवारा कश्मीर वादी को भारत से अलग करने का नुस्खा है। इससे दो अलग-अलग पहचानें कायम हो जाएंगी, जिनमें एक दूसरे के प्रति कठोरता पैदा होती चली जाएगी और अंतत: एक कभी न मिटाई जा सकने वाली हकीकत बन जाएगी। और ये दो पहचानें होंगी-मुस्लिम कश्मीर और हिंदू जम्मू। वादी में मौजूद सैयद अली शाह जैसे पाकिस्तानी परस्त अलगाववादियों जो कि कश्मीर के लिए एक बहुलवादी, धर्मनिरपेक्ष गैर धार्मिक पहचान के खिलाफ है, के मकसद को इससे बेहतर कोई मदद हासिल नहींहो सकती। जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सों में बांटने की किसी भी मांग से पाकिस्तानी कट्टरपंथी तत्वों को बैठे बिठाए एक मुद्दा हाथ लग जाएगा और पाकिस्तान और भारत के बीच सरहदों को फिर से तय किए बगैर कश्मीर समस्या के समाधान के लिए दोनों देशों के बीच चल रही अनौपचारिक बातचीत से जितनी भी अब तक प्रगति हो पाई है, उस पर सारा पानी फिर जाएगा। ये कट्टरपंथी तत्व 'बंटवारे के अधूरे मुद्दों' के हिस्से के तौर पर कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनाए जाने के रुढ़िवादी परिप्रेक्ष्य को अपनाते हुए अपना पुराना राग अलापने लगेंगे। भाजपा ने इतना खतरनाक रास्ता क्यों अपनाया है? इसका एक ही जवाब है। वह अपनी कमजोर पड़ती हुई संभावनाओं में सुधार लाने के लिए कोई भी ऐसा मुद्दा हथियाने के लिए दुस्साहस पर उतर आई है जिस पर उसे कुछ समर्थन मिल सके। यही कारण है कि उसने अमरनाथ मुद्दे को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन करने का निर्णय लिया है। इतना ही नहीं, भाजपा से इस बात से भी इनकार करती है कि जम्मू-कश्मीर में आर्थिक नाकाबंदी हुई है। पार्टी के महासचिव अरुण जेटली ने इसे एक 'मिथक' करार दिया है और उनका तो यहां तक कहना है कि जम्मू में चल रहा आंदोलन पूर्णत: शांतिपूर्ण है। जब कि हकीकत यह है कि जम्मू के लड़ाकू प्रदर्शनकारियों ने जो अब देखने में और अपनी रणनीति में 2002 में गुजरात के स्वसैनिकों जैसे लगते हैं। सरकार के अनुसार जिसे किसी भी आधार पर जम्मू विरोधी नहींकहा जा सकता, अमरनाथ मुद्दे को लेकर 10513 विरोध प्रदर्शन किए गए हैं, जिनमें हिंसा की 359 गंभीर घटनाएं घट चुकी हैं। इन घटनाओं में 28 सरकारी इमारतों, 15 पुलिस वाहनों और 118 निजी वाहनों को क्षति पहुंचाई गई है। सांप्रदायिक हिंसा के 80 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 20 व्यक्ति घायल हुए 72 गाुरघरों को जला दिया गया, 22 वाहन क्षतिग्रस्त हुए और जरूरी सामान ले जा रहे कई ट्रकों को लूट लिया गया। इस हिंसापूर्ण आंदोलन की योजना तैयार करने और उसे अमली जामा पहनाने में भाजपा का जबरदस्त हाथ रहा है। उसके नेता अपने मूल तत्वों पर फिर से लौट आए हैं और वे हैं अपने प्रकृत रूप में हिंदुवादी तत्व, जिनसे वे भली भांति परिचित हैं और जो उन्हें बहुत सुहाते है। भाजपा निराशा के कारण इतने दुस्साहस पर क्यों उतर आई है? अभी एक ही महीना पहले कई राज्य विधानसभा चुनावी जीतों के बाद उसने खुद को उस ढंग से पेश किया मानों उसको यह पूरा विश्वास हो कि अगले आम चुनाव में जीत उसकी ही होगी। यहां तक कि उसने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा करनी शुरू कर दी जिससे कि वे अपने चुनावी प्रचार की योजना तैयार कर सकें। लेकिन विश्वासमत के दौरान भाजपा की इस ख्याली उड़ान में जबरदस्त रुकावट पड़ गई। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद विजयी बनकर सामने आए और अपने स्वभाव के विपरीत आक्रमक डॉ। मनमोहन सिंह को 'भारत का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री' करार नहीं दिया जा सकता था। विश्वासमत में भाजपा की छवि धूमिल होकर सामने आई। व्हिप की अवहेलना करने वाले सबसे ज्यादा सांसद भाजपा के ही थे। पैसे के बदले सवाल घोटाले, मानव व्यापार कांड और हालिया अनुशासहीनताओं के कारण भाजपा ने अपनी मूल 137 लोकसभा सीटों में से 17 सदस्य गंवा दिए हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सभी 24 सदस्य हुआ करते थे। अब वे घटकर मात्र पांच रह गए हैं।
देशबंधु से साभार
वाह क्रीमी लेयर से आह क्रीमी लेयर तक
गरीब सवर्णों को पहली बार आरक्षण मिला है...चलिए इसका जश्न मनाते हैं। लेकिन मीडिया से लेकर जिसे सिविल सोसायटी बोलते हैं, उसमें गरीब सवर्णों को मिलने वाले रिजर्वेशन को लेकर कोई उत्साह नजर नहीं आ रहा है। चुप तो वो लोग भी हैं जो कई साल से आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत कर रहे थे और जाति आधारित आरक्षण का विरोध कर रहे थे। सामाजिक पिछड़ापन जिनके लिए निरर्थक था, निराधार था। सवर्ण समुदाय के गरीबों को नौकरियां मिलने की बात से वो खुश नहीं दिख रहे हैं। वाह क्रीमी लेयर, इस मामले में आह क्रीमी लेयर में तब्दील होता दिख रहा है।
जाट परिवार की वधु और गुर्जर परिवार की समधन राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने देश में पहली बार गरीब सवर्णों के लिए सरकारी नौकरियों में 14 परसेंट आरक्षण की व्यवस्था की है। इस पर सवर्ण इलीट की क्या प्रतिक्रिया है? लगभग वैसी ही चुप्पी आपको उत्तर प्रदेश के सवर्ण इलीट में दिखती है, जब मायावती गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की बात करती हैं। लेफ्ट पार्टियां भी इस बार खामोश हैं। वो अपने शासन वाले राज्यों में तो गरीबों को आरक्षण नहीं ही देती हैं, किसी और ने ये कर दिया है तो उसका स्वागत भी नहीं करती हैं।
मीडिया की इसे लेकर प्रतिक्रिया यही है कि ये राजस्थान सरकार का ये फैसला ज्यूडिशियल स्क्रूटनी में पास नहीं हो पाएगा। तर्क ये कि राजस्थान में नए प्रावधानों से कोटा 68 परसेंट हो जाएगा। वैसे ये नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडु में 69 परसेंट आरक्षण है और न्यायपालिका ने इसे खारिज नहीं किया है।सवर्ण इलीट की आम प्रतिक्रिया आपको यही मिलेगी कि ये वोट की राजनीति है। वोट की राजनीति तो ये सरासर है, लेकिन महाराज, लोकतंत्र में वोट की राजनीति नहीं होगी तो क्या होगा।
मौत की बस गिनती करो !
गुर्जर आन्दोलनकारिओं और राजस्थान सरकार के बीच बरक़रार गतिरोध पर बयाना में शुरू हुई बातचीत से समाप्त होने की उम्मीद की जा रही है। आने वाला समय ही बतायेगा की इस बातचीत के क्या नतीजे होंगे। लेकिन उससे अलग में अपने साथियों का ध्यान वसुंधरा सरकार के पिछले ४ साल में हुए कुछ प्रमुख गोली कांडों की ओर दिलाना चाहूँगा. पिछले ४ साल के भीतर करीब १८ गोली कांड हो चुकें हैं. इसमे करीब १०० से अधिक लोग मारे गए हैं. कभी पानी मांग रहे किसान पुलिस के शिकार हुए तो कभी आदिवासी और पिछले साल से गुर्जर आंदोलन में करीब ७० लोग मरे जा चुके हैं. अब हालत इसे हैं की सराकार गोली मरती है और मीडिया और जनता गिनती कर रहें हैं.
११ अप्रेल, ०४ मंडावा (झुंझुनू) में पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाई १२ लोग घायल।
३० अप्रेल, ०४ कोटडा (उदयपुर) में पुलिस ने एक बार फ़िर भीड़ को निशाना बनाया एक कि मौत ।
२९ जुलाई, ०४ सराडा (उदयपुर) में आदिवासिओं पर गोली चलाई १० घायल।
२७ अक्टूबर, ०४ रावला (श्री गंगानगर) ने भीड़ पर गोली चलाई ६ लोगों की मौत।
८ अप्रेल, ०५ मंडला (भीलवाडा) में एस पी ने गोली चलाई एक की मौत।
६ जून, ०५ कंचनपुर (धौलपुर) हिरासत में मौत का विरोध कर रहे लोगों पर गोली एक बच्चे की मौत।
१३ जून, ०५ हफ्ते भर बाद ही सोहेला (टोंक) में पानी मांग रहे किसानों पर गोली चलाई ५ किसानों की मौत.
१ जुलाई, ०५ टोंक की घटना के महीने भी पूरे नहीं हुए की डग (झालावाड़) थाने मैं पिटाई से युवक की मौत का विरोध कर रहे लोगों पर गोली चलाई
१० अक्टूबर, ०६ घड़साना में पुलिस का किसानों पर लाठीचार्ज एक किसान की मौत।
०८ फरवरी, ०७ उदयपुर में मन्दिर में घुसाने का प्रयास कर रहे आदिवासिओं पर पुलिस ने गोली चलाई एक आदिवासी की मौत।
२९ मई, ०७ अब शुरू हुआ गुर्जर आन्दोलन का दमन दौसा, करौली, बूंदी में गुर्जरों पर फायरिंग, ३ जवान सहित १८ लोगों की मौत।
३० मई, ०७ दूसरे दिन भी ३ और गुर्जर मरे गए।
१ जून, ०७ लालसोट में गुर्जर मीणा संघर्ष में ५ मरे।
२३ मई, ०८ पिछले साल मरे गए अपने लोगों की याद में रेल रोक रहें गुर्जाओं पर बयाना और पिलुपुरा में फायरिंग, १७ गुर्जरों की मौत
२५ मई, ०८ सिकंदर में आन्दोलन कर रहे गुर्जरों पर फ़िर गोली, २२ मरे जगह जगह हो रहे आन्दोलन पर फायरिंग में कुल ४५ से अधिक गुर्जर मरे गएँ.
बर्बरता की रिपोर्ट
सरकारी बर्बरता का यह कोई पहला नमूना नहीं है लेकिन शायद इस तरह से मारने का पहला ही उदाहरण हों. राज्य की वसुन्धरा सरकार किसी भी आन्दोलन से गोली बंदूक से निपटे का यह पुराना तरीका है. जब से वह सत्ता में है तब से अब तक १०० से भी अधिक लोग पुलिस की गोली के शिकार हो चुकें हैं. प्रदर्शनकारिओं को जानबूझ कर गोली मारी गई। कई लोगों को तो तब घायलों को उठाते समय गोली मारी गई. लेकिन राज्य सरकार के कुछ मंत्री यह प्रचारित करने मैं लगे थे की अधिकतर प्रदर्शनकारी कट्टे या देशी बंदूक के छर्रे लगाने से मरे. राजस्थान पुलिस का यह रवैया पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के ही जैसा था जिसके शासन काल में सिंगुर और नंदीग्राम में उसकी पुलिस और निजी कैडरों ने अपनाया था. वहाँ भी पुलिस की बर्बरता की कहानी वहाँ मरे गए लोगों के शव ख़ुद कहते थे और राज्य सरकार उसे माओवादियों की करतूत बताती रहीं, इससे एक बात तो साफ है की सत्ता में कोई भी हो लेकिन पुलिस और सरकार का रवैया एक जैसा ही रहता है.
१८५७ के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ जम कर लड़ने वाले गुर्जरों को उस समय अंग्रेजों ने आपराधिक प्रवृति का घोषित कर दिया था. इस सम्बन्ध में हाल ही इतिहासकार अमरेश मिश्रा का एक लेख दैनिक अमर उजाला के २९ मई के अंक में प्रकाशित हुआ था.जिसमे उन्होंने १८५७ के संग्राम में गुर्जरों की भूमिका का उल्लेख किया था. अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले गुर्जर आज अगर भारतीय राज सत्ता से लड़ रहें हैं. यह लड़ाई और भी व्यापक होगी. क्योंकि आज सत्ता में उन्हीं अंग्रेजों के चाटुकार हैं. और कम से कम राजस्थान में तो हैं ही. यहाँ आज सत्ता जिस सिंधिया राजघराने के हाथ में है वह आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के साथ खड़ा था और उनके साथ मिलकर अपने ही देश्वशियों के आन्दोलन को कुचला था. आज इन्ही चाटुकार हुक्मरानों की वजह से वो सत्ता में हैं और आजादी के लिए लड़ने वाली जनता उनके सामने याचक बन के खडी है.
इनको आरक्षण देने की मांग राज्य में विपक्ष में रहने वाली सभी पार्टियाँ करती रहीं हैं. लेकिन सरकार में आने के बाद कभी इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया. यह केवल गुर्जरों के साथ ही नहीं हुआ बल्कि और भी कई इसी जातियाँ हैं जिनको ये राजनितिक दल अपने स्वार्थों के लिए यूज करते रहें हैं. अभी बहुत दिन नहीं हुए उस तस्वीर के छापे जिसमे बेतहाशा भागती के अर्ध नग्न आदिवासी लड़की लड़की को एक 'भीड़' लोहे की छड़ और डंडों से पिट रही थी. कौन थी वो लड़की? वो भी एक इसी ही जाति की लड़की थी जिसे कभी अंग्रेजों ने चाय के बगानों में मजदूरी के लिए झारखण्ड के पिछडे गावों से ले जाकर आसाम के चाय बगानों में बसाया था. जिसे अब 'टी ट्राइब' के नाम से जाना जाता है. इस जाती के लोग भी अपने को एस सी वर्ग में शामिल करें के लिए आंदोलनरत हैं. इन्हे भी करीब ४ दशकों से भरमाया जा रहा है. जो भी विपक्ष में होता है, इनकी मांगों को जायज बताता है. लेकिन सत्ता पते ही भूल जाता है. लेकिन अब लगता है की जनता लड़ना सीख रहीं हैं.यह जरुर है की उनका नेतृत्व उन्हीं बुर्जुआ पार्टियों के हाथ में है जो कभी भी अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए किसी से समझौता कर सकतें हैं. लेकिन जब एक बार लोगों में सत्ता और पुलिस का भय ख़त्म हो जाएगा तो वो कल को इन साम्राज्यवादपरस्त सत्ताधारिओं को भी बेदखल कर सकतें हैं जैसा की नेपाल की जनता ने कर दिखाया. छोटे छोटे उदेश्यों को लेकर जगह जगह जनता लड़ रही है. उसका आक्रोश बार बार उभर कर अब सामने आ रहा है. जिसे जरुरत है एक सही नेतृत्व की.
असली आज़ादी की लड़ाई ज़रुरी

महाश्वेता देवी, सुप्रसिद्ध साहित्यकार
मेरे लिए तो आज़ादी के 60 साल काफी बेहतर रहे हैं। मैंने एक लेखक के बतौर काफी कुछ पाया है। देश में एक बड़ा वर्ग है, जिसमें मेरी पहचान बनी। देश-विदेश के पुरस्कार मिले। मेरा जीवन स्तर उंचा उठा लेकिन देश की हालत आज भी बद्दतर बनी हुई है।आज़ादी के 60 सालों में समस्यायें जस की तस बनी हुई हैं. जाति की समस्याएं वैसी ही हैं, भूमि सुधार का मसला अब भी उसी हालत में है, आदिवासियों की क्या हालत है, ये हम सभी के सामने है. बार-बार लगता है कि कहीं कुछ नहीं हुआ. बंधुवा मज़दूरों के मुद्दे पर मैंने लंबे समय तक काम किया लेकिन वह समस्या आज भी दूसरे रुप में बरकरार है. मेरे पास इलाहाबाद से, बंगाल के अलग-अलग इलाकों से लोग आते हैं कि दीदी, चलो उधर लड़ाई लड़नी है. आज भी मज़दूरों को सौ रुपए-डेढ़ सौ रुपए की मज़दूरी का लोभ दिखा कर ले जाया जाता है और उनसे ग़ुलामों की तरह काम लिया जाता है. बाद में ये मज़दूर किसी तरह अपनी जान बचा कर अपने घर लौट पाते हैं. 1976 में बंधुआ मज़दूर उन्मूलन अध्यादेश आया था लेकिन आज भी मज़दूर उसी तरह गुलाम है।
आदिवासी समाज समृद्ध
हाल के दिनों में जिस तरह स्पेशल इकॉनामिक ज़ोन का मुद्दा सामने आया है, उसके बाद तो मेहनतकश जनता का जीवन और मुश्किल हो जाएगा। छत्तीसगढ़ के जंगल और उसके आदिवासी कहां जाएंगे, क्या होगा, छत्तीसगढ़ के अलावा पूरे देश का आदिवासी समाज कहां जाएगा, ये आज का सबसे बड़ा संकट है।आदिवासी समाज को इसलिए निशाना बनाया जाता है, क्योंकि वह समाज हम सब से बहुत समृद्ध है. वह सांप्रदायिक नहीं है, वह समाज स्त्री-पुरुष में भेदभाव नहीं करता, विधवा के लिए वहां पुनर्विवाह की संस्कृति है और इस तरह की ढ़ेरों बातें हैं, जो उस समाज को हमसे कहीं अधिक समृद्ध बनाती हैं. अमरीका और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों पूरा देश बिक रहा है. पश्चिम बंगाल में कुछ हो रहा है, उसमें पूरे भारते के लिए संदेश है, इसे समझने की ज़रुरत है.
आरोप
इन सबों के खिलाफ जिस तरह जनता उठ खड़ी हुई है, उससे लगता है कि जनता में एक जागृति तो आई है। ऐसे में हम कह सकते हैं कि आज़ादी के 60 सालों में असली आज़ादी के लिए लड़ने की भूमिका तैयार हुई है और अब जनता को असली लड़ाई के लिए सामने आ जाना चाहिए। जनता का मतलब उस मेहनतकश समाज से है, जिसके बल पर ये देश चल रहा है. जो बौद्धिक वर्ग है, अब वह इस तरह की लड़ाइयों में सामने नहीं आता. वह केवल जनता की लड़ाई का लाभ लेता है. मैं जब भी लड़ाई की बात करती हूं, तो मुझ पर कोई ठप्पा लगा दिया जाता है. एक ज़माने में मुझे नक्सली कहा जाता था. उस समय मैंने बिरसा मुंडा पर एक किताब लिखी थी. जनता की लड़ाई जब भी लड़ी जाती है तो इस तरह की बातें होती ही हैं. मैं तो इन दिनों कहीं नहीं जाती, घर के अंदर रहती हूं. अपने घर में पढ़ती-लिखती रहती हूं और मेरे लिखने भर से अगर कोई शोषक डर जाता है, मुझे नक्सली या माओवादी या कोई और तमगा दे दिया जाता है, तो इसे मैं गौरव का विषय मानती हूं. और पढ़ें रविवार
दलितों पर गोलीबारी
उत्तर प्रदेश की ताज़ा हालत पर यह रिपोर्ट हमे डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट के पत्रकार अतुल कुमार ने भेजी है. दलितों की मसीहा कही जाने वाली मायावती की सरकार में दलितों की सरकारी हत्या कोई ने बात नहीं है. सोरों इसका ताज़ा उदाहरण है. इससे पहले भी उनकी सरकार में चंदौली के १६ आदिवासिओं की पुलिस ने नक्सली बता कर हत्या कर दी थी. दूसरी रिपोर्ट भी यू.पी. सरकार की नौकरशाही में चल रही हलचल की है.
सोरों से तहसील छीने जाने के मामले को लेकर चल रहे आंदोलन ने शुक्रवार को उग्र रूप धारण कर लिया। तीर्थ नगरी में पुलिस व प्रदर्शनकारियों के बीच चार घंटे तक हुए संघर्ष में पुलिस की गोली से एक युवक की मौत हो गई और तीन अन्य गंभीर रूप से घायल हुए है। पुलिस गोली से जाटव जाति के युवक की मौत के बाद लोगों का आक्रोश भड़क गया। प्रदर्शन कर रहे लोगों ने पीलीभीत-कासगंज पैसेंजर ट्रेन के इंजन व दो बोगियों, बीएसएनएल के मोबाइल टावर व पुलिस की एक जीप में आग लगा दी।
सोरों के तहसील बचाओ आंदोलन में एक मरा, तीन जख्मी
लोगों ने ट्रेन के इंजन व बोगियों में आग लगाई
आंदोलन कर रहे लोगों ने अधिकारियों व पुलिस को भी निशाना बनाया। पथराव के दौरान आठ पुलिसकर्मी भी घायल हुए हैं। तीर्थ नगरी में जबरदस्त तनाव था और पुलिस व लोगों के बीच देरशाम तक संघर्ष जारी था। प्रशासन ने कर्फ्यू घोषित कर दिया है, जिससे लोग घरों से न निकलें। बसपा सरकार द्वारा सोरों से छीनकर सहावर को तहसील का दर्जा दिलाए जाने से क्षुब्ध लोग गत सात दिनों से प्रदर्शन कर रहे थे। शुक्रवार को शहर का ही एक युवक एक निजी मोबाइल कंपनी के टावर पर चढ़ गया और तहसील का दर्जा बहाल किए जाने की मांग करने लगा। इस युवक को देखकर शहर के लोगों का आक्रोश भड़क गया। देखते ही देखते हजारों लोग टावर के पास एकत्र हो गए। दस बजे के करीब सोरों के एसडीएम व क्षेत्राधिकारी पुलिस बल के साथ मौके पर पहुंचे और युवक को मोबाइल से उतारने का प्रयास करने लगे। जिससे मौके पर मौजूद प्रदर्शनकारी भड़क गए। उनमें से कुछ ने अधिकारियों से अभद्रता की और उन्हें वहां से भगा दिया। सरकार विरोधी नारेबाजी के साथ ही दोपहर एक बजे के करीब प्रदर्शनकारियों व पुलिस के बीच तनाव बढ़ गया।हजारों लोगों ने बरेली से कासगंज जा रही 138 डाउन पैसेंजर ट्रेन को रोक लिया और ट्रेन के इंजन व दो बोगियों में आग लगा दी, जिससे ट्रेन में सवार यात्रियों को जान बचाने के लिए वहां से भागना पड़ा। कुछ देर बाद ही अलीगढ़ के मंडलायुक्त व पुलिस उप महानिरीक्षक [डीआईजी] भी मौके पर पहुंच गए। इसी बीच शहर के कछला गेट पर प्रदर्शन कर रहे जाटव समुदाय के लोगों व पुलिस के बीच संघर्ष शुरू हो गया। पुलिस ने बिना किसी मजिस्ट्रेट के आदेश के ही प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग शुरू कर दी, जिसमें एक युवक की मौत हो गई और तीन अन्य घायल हो गए।पुलिस की गोली से युवक की मौत के बाद प्रदर्शन कर रहे लोग उग्र हो गए। उन्होंने मृतक के शव को रखकर प्रदर्शन शुरू कर दिया और शहर में स्थित बीएसएनएल के टावर व पुलिस की जीप को आग के हवाले कर दिया। उन्होंने टावर की सुरक्षा कर रहे दो पुलिस कर्मियों को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। उसके बाद प्रदर्शन कारियों को जो भी पुलिसकर्मी दिखाई दिया उसे पीटा। प्रदर्शन कर रहे लोगों के पथराव में उप जिलाधिकारी [एसडीएम] सोरों और आठ पीएसी के जवान भी घायल हुए हैं।तीर्थ नगरी में प्रशासन ने कर्फ्यू लगा दिया। उसके बाद अनियंत्रित पुलिस कर्मियों का तांडव शहर में जारी है। पुलिस वालों ने लोगों के घरों में घुसकर महिलाओं से अभद्रता की व लोगों को देररात तक पीटते रहे। जिससे स्थानीय लोगों में खासा आक्रोश था। आज की घटना के बाद क्षेत्र में जबरदस्त तनाव है।
हम हैं उनके साथ खड़े जो सीधी रखते अपनी रीढ़
बात कहने में थोड़ी देर हो गई। लेकिन कभी-कभी देरी से इतना तो साफ हो ही जाता है कि किसने क्या कहा। तो यह साफ हो गया कि किसी ने कुछ नहीं कहा। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में एक बड़ी घटना घटी जब प्रदेश के मुख्य सचिव प्रशांत कुमार मिश्र को इस्तीफा देना पड़ा। इस्तीफा बड़ी घटना नहीं, बड़ी घटना अपने चरित्र और ईमानदारी को लोलुप सत्ता सियासतदानों के आगे घुटने टेकने से बचा ले जाने की है।सुख-सुविधा की अभिप्सा में चाटुकारिता कर अपना जीवन गंवा देने वाले नौकरशाहों के लिए प्रशांत कुमार मिश्र ने एक नजीर स्थापित की, बड़ी घटना यह थी। लेकिन कोई कुछ नहीं बोला। एक बड़ी घटना इस्तीफे की एक मामूली खबर में सिमट गई और छप गई। विस्तृत पढ़ें.....
लाठी गोली की सरकार को जाना होगा !

गुर्जरों की हत्याएं बंद करो !
वसुन्धरा सरकार पर हत्या का मुकदमा दर्ज करो !
जन संघर्षों पर दमन बंद करों !
राजस्थान में गुर्जर समाज के लोगों के आन्दोलन को गोली और बंदूक के बल पर ख़त्म कराने का प्रयास कर रही वसुंधरा सरकार के दिन अब लड़ चुकें हैं. पुलिस और हत्या को अपने शासन का मूल मन्त्र मनाने वाली इस सरकार ने अपने चार साल के शासनकाल में इसे कई नरसंहार किए . कभी पानी मांग रहे किसानों की हत्या की कभी आरक्षण मांग रहे गुर्जरों की हत्या की. इसी हत्यारी सरकार को अब राज्य में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है. राज्य की भाजपा सरकार राष्ट्रीयता और अस्मिता के लिए लोगों को आपस में लड़ती रहीं है. लेकिन जब समाज के निचले तबके के पिछडे और दलित लोग अपनी हिस्सेदारी की मांग करते हैं तो उन्हें वही भाजपा सरकार गोली मार देती है. गुर्जर समाज के इस आन्दोलन में पिछले साल से लेकर अब तक ६० लोगों की हत्याएं सरकार के इशारों पर पुलिस कर चुकी है. कुछ दिन पहले तक यही वसुन्धरा राजे थीं जो जयपुर बम धमाकों में मरे गए लोंगो पर घडियाली आंसू बहा रही थी. लेकिन अब उनका असली चेहरा लोगों के सामने है. आन्दोलन कर रहे लोगों पर वह ख़ुद गोलियां बरसा रहीं हैं.राजस्थान के लडाकूं किसान जाति के गुर्जर लोगों ने भी इसी सरकार के आगे अभी तक घुटने नहीं टेकें हैं. पिलुपुरा (भरतपुर) और सिकंदरा (दौसा) में लोग मारे गए लोगों की लाशों के साथ अभी भी रेलवे लाइनों पर बैठें हैं. अब देखना हैं की सरकार उनकी मांगे मानती है या आन्दोलन को लीड करें वाले पीछे हटतें हैं. नतीजा जो भी हो लेकिन अब तो तय है की आने वाले दौर में ऐसे ही जनता लड़ेगी और सरकारों को उनके आगे घुटने टेकना होगा. असली आजादी के लिए संघर्ष कराने का इतिहास पुराना है और भारत की जनता तो 'आजादी' के बाद भी लड़ रही है. तेभागा- तेलंगाना से शुरू यह संघर्ष नक्सलबाडीहोते हुए सिंगुर नंदीग्राम तक आता है और अभी तबतक जरी रहेगा जब तक की मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण बंद नही हो जाता.