दुष्यंत
नहीं, ये किसी विशेषज्ञ की राय नहीं है, राजनीतिक राय तो हरगिज नहीं. आप चाहें तो इसे एक आम आदमी के नोट्स मान सकते हैं.बुनियादी परन्तु सतही बात से शुरू करुं तो राजस्थान में लोकसभा की 25 सीटें हैं, जिन पर 7 मई को मतदान होगा.पिछले लोकसभा चुनाव में 21 पर भाजपा जीती थी तो 4 पर कांग्रेस. इस बार भाजपा और कांग्रेस हर बार की तरह सभी सीटों पर चुनाव लड़ रहें हैं. बसपा की हवा इसलिए निकली हुई है कि सभी 6 विधायकों ने सत्तारूढ कांग्रेस में जाने का हाल ही में निर्णय ले लिया.खैर ये तो हुई सामान्य बात, अब कुछ अलग ढंग से देखा जाये, अपनी चार यात्राओं का सन्दर्भ लूंगा. एक महीने में अपने गृह क्षेत्र की दो यात्रायें, एक यात्रा मारवाड़-पाली क्षेत्र की और एक साल भर पहले की दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र की.मेरा गृह क्षेत्र है उत्तरी राजस्थान यानी गंगानगर और हनुमानगढ़ ..पाकिस्तान की सीमा से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर अपने खेतों को छूने की हसरत से गया. कोई पिछले ढाई दशक से जब से होश संभाला है, इस गाँव और खेत के मंजर को देखते आया हूँ. लोग कहते हैं बहुत कुछ बदला है. मुझे पता है, बदला तो बहुत कुछ...ऊँटों की जगह ट्रेक्टर आ गए. पहले फोन घरों में आये फिर हाथों में मोबाइल आ गए. पढी लिखी बहुंए आ गयी, हर घर में कम से कम एक दोपहिया फटफटिया ज़रूर है. कोई साढे तीन दशक पहले मेरे गाँव से तीन किलोमीटर दूर के पृथ्वीराजपुरा रेलवे स्टेशन से जो अंग्रेजों के जमाने का है; से मेरी मां दुल्हन के रूप में ट्रेन से उतरकर ही इस गांव तक आयी थी. मेरे बचपन में गाँव तक शहर से बस जाती थी, कोई पांच बसें. यही पांच वापिस लौटती थीं, सब की सब बंद हो गयी हैं. अब सिर्फ टेंपो चलता है, बिना किसी तय वक्त के, जब भर दिया तो चल दिया...! बचपन में जहां मेरे गाँव में बीड़ी और हुक्के के अलावा कोई चार पांच लोग शराब पीते होंगे, अब तरह-तरह के नशे युवाओं की जिन्दगी में शामिल हैं, जिन्होंने उन शराबियों को तो देवता-सा बना दिया दिया है. और ये हालत कमोबेश आसपास के हर गाँव की है. हमने तरक्की के कितने ही रास्ते तय किये हैं! मेरे पिता गाँव के जिस सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़े थे दसेक साल पहले वो मिडिल हो गया था. पर अब उसमें बच्चे नाम को हैं. मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आने वाले दो चार सालों में वो बंद हो जाये. सुना है उसमें मास्टर सरप्लस हैं. ये भी तरक्की है कि नाम के अंग्रेजी या पब्लिक स्कूलों में कम पढ़े-लिखे मास्टरों के पास बच्चों को भेजकर गाँव खुश है.
नरेगा है पर गाँव में भूख भी है। स्कूल है, पढाई है पर बेरोजगारी भी है। नयी पीढी ने खेत में हाथ से काम करना बंद कर दिया है , तीजिये चौथिये पान्चिये से ही काम होता है. भारत चमकता है जब सफ़ेद झक्क कुरते पायजामे में पूरे गाँव के लोग दिखते हैं. किसी की इस्त्री की क्रीज कमजोर नहीं है॥अद्भुत अजीब से आनंद हैं ॥ कागजी से ठहाके हैं...भविष्य कुछ भी नहीं पता. एक और बदलाव आते देखा है छोटे किसानों की ज़मीनों को कर्ज निपटाने के लिए बिकते और फिर उनको मजदूर बनते भी देखा है.. मुहावरे में कहूं तो कर्ज निपटाने में जमीन निपट गई और अब खुद भी कब निपट जाए, कौन जानता है? कर्ज से मुक्ति की चमक उनकी ऑंखों में ज्यादा है या कि ऑंखों के कोरों से कभी आंसू बनके टपकता अपनी ज़मीन जाने का दर्द बड़ा है ..मैं सोचता रहता हूँ.. वो भी आजादी का मतलब ढूंढते हैं शायद.मध्य राजस्थान का मारवाड़ का इलाका यूँ तो बिजी जैसे लेखक के कारण स्मृतियों में है पर इन सालों में कई बार जाना हुआ है... पाली के एक इंटीरियर इलाके में किसी पारिवारिक कारण से जाता हूँ. दूर तक हरियाली का नामों निशान नहीं. चीथड़ों में लोग दीखते हैं. जीप का ड्राईवर कहता है- साब यहाँ का हर गरीब सा दिखने वाला करोड़पति है..विश्वास नहीं होता. वो कहता है-हर घर से कोई न कोई मुंबई, सूरत या बैंगलोर नौकरी करता है...यहाँ खेती तो है नहीं साहब...! मुझे उसकी बात कम ही हजम होती है..क्योंकि मुनव्वर राणा का शेर कभी नहीं भूलता कि बरबाद कर दिया हमें परदेश ने मगर, मां सबसे कह रही है बेटा मजे में है दूर तक..या तो ये ड्राइवर उसी थव से कह रहा है या कि अपने लोगों की बेचारगी-मुफलिसी का मजाक नहीं बनने देता. दरअसल सच तो ये ही है ना कि दूर तक बियाबान है. किसी हड्डी की लकड़ी-सी काया पर ऊपर रखी हुई लोगों की आंखें किसी परदेसी की जीप का शोर सुनकर चमकती है..मैं उसमें साठ साल की आजादी का मतलब ढूंढता हूँ. जिस नज़दीक के रेलवे स्टेशन मारवाड़ जंक्शन पर उतरता हूँ और फिर जहाँ से वापसी में जोधपुर के लिए ट्रेन लेता हूँ, उसके अलावा कोई साधन नहीं है, ये भी बताया जाता है. कुल मिलाकर एक अलग भारत पाता हूँ.. जो जयपुर में बैठकर सचिवालय में टहलते, कॉफी हाउस में अड्डेबाजी करते, मॉल्स में शॉपिंग करते, हर हफ्ते एक न एक फिल्मी सितारे को शूटिंग, रिबन काटने, किसी की शादी या अजमेर की दरगाह के लिए जाते हुए की खबर पढते हुए सर्वथा अकल्पनीय है.
एक साल पहले बांसवाड़ा के घंटाली गाँव में आदिवासी संसार को देखने के अभिलाषा में गया था। सामाजिक कार्यकर्ता और कम्युनिस्ट नेता श्रीलता स्वामीनाथन मेरी होस्ट थीं.
इलाका जितना खूबसूरत लोग उतने ही पतले दुबले मरियल... अल्पपोषण के शिकार...खेती नाममात्र को॥आय का कोई जरिया नहीं..भाई आलोक तोमर की किताब एक हरा भरा अकाल के सफे जैसे एक-एक कर ऑंखों के सामने खुल रहे थे..कालाहांडी का उनका शब्दचित्र अपने राजस्थान में सजीव होते पाया। हरियाली वाह...अति सुन्दर पर लोगों का जीवन...बेहद मुश्किल .. हालाँकि जीने की आदत डाल लेना इंसानी खासियत भी है और मजबूरी भी, इंसान इन क्षणों में भी मुस्कुराने के अवसर खोज लेता है.
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