'वीकेंड प्रोटेस्ट प्रोग्राम' : विरोध की नौटंकी अब और नहीं
चमड़िया जैसा 'इडियट' नहीं, राय जैसा 'चतुर' बनेंगे
अनिल चमड़िया एक 'इडियट' टीचर है। ऐसे 'इडियट्स' को हम केवल फिल्मों में पसंद करते हैं। असल जिंदगी में ऐसे 'इडियट' की कोई जगह नहीं। अभी जल्द ही हम लोगों ने 'थ्री इडियट' देखी है। उसमें एक छात्र सिस्टम के बने बनाए खांचे के खिलाफ जाते हुए नई राह बनाने की सलाह देता है। यहां एक अनिल चमड़िया है, वह भी गुरू शिष्य-परम्परा की धज्जियां उड़ाते हुए बच्चों से हाथ मिलाता है, उनके साथ एक थाली में खाता है। उन्हें पैर छूने से मना करता है। कुल मिलाकर वह हमारी सनातन परम्परा की वाट लगा रहा है। महात्मा गांधी के नाम पर बने एक विष्वविद्यालय में यह प्रोफेसर एक संक्रमण की तरह अछूत रोग फैला रहा है। बच्चों को सनातन परम्परा या कहें कि सिस्टम के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहा है।
दोस्तों, यह सबकुछ फिल्मों में होता तो हम एक हद तक स्वीकार्य भी कर लेते। कुछ नहीं तो कला फिल्म के नाम पर अंतरराश्ट्ीय समारोहों में दिखाकर कुछ पुरस्कार-वुरस्कार भी बटोर लाते। लेकिन साहब, ऐसी फिल्में हमारी असल जिंदगी में ही उतर आए यह हमे कत्तई बर्दाश्त नहीं। 'थ्री इडियट' फिल्म का हीरो एक वर्जित क्षेत्र (लद्दाख) से आता था। असल जिंदगी में यह 'इडियट' चमड़िया (दलितवादी) भी उसी का प्रतिनिधित्व कर रहा है। ऐसे तो कुछ हद तक 'थ्री इडियट' ठीक थी। हीरो कोई सत्ता के खिलाफ चलने की बात नहीं करता। चुपचाप एक बड़ा वैज्ञानिक बनकर लद्दाख में स्कूल खोल लेता है। लेकिन यहां तो यह 'इडियट' सत्ता के खिलाफ भी लड़कों को भड़काता रहता है। हम शुतुमुर्ग प्रवृत्ति के लोग सत्ता व सनातन सिस्टम के खिलाफ ऐसी बाते नहीं सुन सकते।
सो, साथियों हमारे ही बीच से महात्मा गांधी अंतरराश्ट्ीय हिंदी विष्वविद्यालय के कुलपति या यूं कहें कि सनातन गुरुकुल परम्परा के रक्षक द्रोणाचार्य के नए अवतार वी एन राय साहब ने इस परम्परा की रक्षा का बोझ उठा लिया है। वह अपनी एक पुरानी गलती (जिसमें कि उन्होंने छात्रों के बहकावे में आकर चमड़िया को प्रोफेसर नियुक्त करने की भूल की) सुधारना चाहते हैं। राय साहब को अब पता चल गया है कि गलती से एक कोई एकलव्य भी उनके गुरुकुल में प्रवेश पा चुका है। दुर्भाग्यवश अब हम लोकतंत्र में जी रहे हैं (नहीं तो कोई अंगूठा काटने जैसा ऐपीसोड करते) इसलिए चमड़िया को बाहर निकालने के लिए थोड़ा मुष्किल हो रहा है। तब एकलव्य के अंगूठा काटने पर भी इतनी चिल्ल-पौं नहीं मची थी जितने इस कथित लोकतंत्र में कुछ असामाजिक तत्व कर रहे हैं। राय साहब, आपके साथ हमें भी दुख है कि इस सनातन सिस्टम में लोकतंत्र के नाम पर ऐसे चिल्ल-पौं करने वालों की एक बड़ी फौज तैयार हो रही है। आपने ‘साधु की जाति नहीं पूछने वाली’ मृणाल पाण्डे जी के साथ अपने ऐसे 'इडियटों' को सिस्टम से बाहर करने का जो फैसला किया है, वो अभूतपूर्व है। इसी 'इडियट'(अनिल चमड़िया) ने हमारी मुख्यधारा की मीडिया के सामने आइना रख दिया था, जिसकी वजह से हमें कुछ दिनों तक आइनों से भी घृणा होने लगी थी। हम आइनें में खुद से ही नजर नहीं मिला पा रहे थे। वो तो धन्य हो मृणाल जी का जिन्होंने "साधु को आइना नहीं दिखाना चाहिए उससे केवल ज्ञान लेना चाहिए" का पाठ पढाया, और हमें उस संकट से उबारा. ठीक ही किया जो अपने विष्णु नागर जैसे छोटे कद के आदमी को मृणाल जी व खुद के समकक्ष बैठाने की बजाए उनका इस्तीफा ले लिया। हमारे सनातन सिस्टम में सभी के बैठने की जगह तय है। उसे उसके कद के हिसाब से बैठाना चाहिए। मृणाल जी की बात अलग है। वो कोई चमाइन नहीं, पण्डिताइन हैं, उनका स्थान उंचा है। सनातन सिस्टम में भी फैसला करने का अधिकार पण्डितों व भूमिहारों के हाथ में था, आप उसे जिवित किए हुए हैं हिंदू सनातन धर्म को आप पर नाज है।
साहब, आप तो पुलिस में भी रहे हैं। हम जानते हैं कि आपको सब हथकंडे आते हैं। एक और दलितवादी जिसका नाम दिलीप मंडल है आप की कार्यषैली पर सवाल उठा रहा है। कहता है कि आपने एक्जिक्यूटिव कांउसिल से चमड़िया को हटाने के लिए सहमति नहीं ली। उस मूर्ख को यह पता ही नहीं की द्रोणाचार्य जी को एकलव्य की अंगुली काटने के लिए किसी एक्जिक्यूटिव कांउसिल की बैठक नहीं बुलानी पड़ी थी। आप तो फैसला "आन द स्पाट" में विश्वाश करते हैं। सर जी, यह तो लोकतंत्र के चोंचले हैं। और आप तो पुलिस के आदमी हैं, वहां तो थानेदार जी ने जो कह दिया वही कानून और वही लोकतंत्र है। लोग कह रहे हैं, साहब कि जिस मिटिंग में चमड़िया को हटाने का फैसला हुआ उसमें बहुत कम लोग थे। उन्हें क्या पता कि जो आये थे वह भी इसी शर्त पर आए थे कि सनातन सिस्टम को बचाए रखने के लिए सभी राय साहब को सेनापति मानकर उनका साथ देंगे। जो खिलाफ जाते आप ने बड़ी चालकी से उन्हें अलग रख दिया। वाह जी साहब, इसी को कहते हैं सवर्ण बुद्धि। आप वहां हैं तो हमें पूरा भरोसा है कि वह विष्वविद्यालय सुरक्षित (और ऐसे भी साहब जहां पुलिस होगी वहां सुरक्षा तो होगी ही) हाथों में है।
साब जी, हमने गांव के छोरों से कह दिया है - यह लंठई-वंठई छोड़ों। इधर-उधर से टीप-टाप कर बीए, ईमे कर लो। बीयेचू चले जाओ, कोई पंडित जी पकड़ कर दुई चार किताबे टीप दो। फिर तो आप हईये हैं। एचओडी नहीं तो कम से कम प्रुफेसर-व्रुफेसर तो बनवाईये दीजिएगा। और साहब हम आपके पूरा भरोसा दिलाते हैं यह लौंडे 'अनिल चमड़िया' जैसा 'इडियट' नहीं 'अनिल अंकित राय' जैसा 'चतुर' बनकर आपका नाम रौशन करेंगे।
आरक्षण और सरकार
भारतीय संविधान सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए राज्य को विशेष उपाय करने की जिम्मेदारी सौपता है। लेकिन धूमिल होती राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के चलते इस विशेष उपाय यानी आरक्षण को सामाजिक-आर्थिक न्याय का एक मात्र साधन मान लिया गया है। जिसके चलते समय-समय पर महिलाओं,गरीब सवर्णों और गैर आरक्षित श्रेणी की जातियों को आरक्षण के दायरे में लाने की मांग उठती रहती हैं। यहीं पर आरक्षण-व्यवस्था को निष्प्रभावी बनाने की कोशिशें भी हो रही है। जिसमें अनुपयुक्त उम्मीदवारों के न उपलब्ध होने और प्रशासनिक खर्च में कटौती के नाम पर सरकारी ढांचे में खाली पदों को नहीं भरा जा रहा है। जब भर्ती की ही नहीं जायेगी तो आरक्षण की बात ही कहां से आयेगी। रही कामकाज चलाने की बात तो इसके लिए आउटसोर्सिंग का सहारा ले लिया जायेगा। गौरतलब है कि भारत सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय महत्वपूर्ण मंत्रालयों में शामिल किया जाता है। केवल इसी मंत्रालय में भारतीय सूचना सेवा के आरक्षित वर्ग के कुल 88 पद कई सालों से खाली पड़े हुए हैं। मंत्रालय के सभी रिक्त पदों में कुछ को सीधी भर्ती के जरिए तो कुछ पदोन्नति से भरे जाने हैं। मंत्रालय ने सूचना अधिकार के तहत दी गई सूचना में भारतीय सूचना सेवा के खाली पदों की भर्ती के लिए कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग जिम्मेदार बताया है। इस बावत कार्मिक विभाग से पत्राचार किये जाने का ब्यौरा भी दिया है। साथ ही यह भी सूचना उपलब्ध कराई गई है कि कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को इन रिक्तियों के बावत लगातार सूचित किया गया है। बावजूद इसके कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग आरक्षित श्रेणी के पदों को भरने के लिए कोई कदम नहीं उठा रहा है। जबकि मंत्रालय ने पदोन्नति से भरे वाले पदों के बारे में साफ तौर पर यह जानकारी दी है कि इसके लिए उपयुक्त उम्मीदवारों की कमी है। इस मंत्रालय तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के खाली पदों को मिला लेने पर आरक्षित श्रेणी के रिक्त पदों का आंकड़ा सैकड़ा पार कर जायेगा। अकेले फिल्म विभाग में आरक्षित वर्ग के 64 पद खाली हैं,जिसमें ‘ग’ और ‘घ’ श्रेणी के खाली पदों की संख्या 51 है। फिल्म प्रभाग इसके पीछे फिडर कैडर के लिए पात्र कर्मचारियों और अधिकारियों के न उपलब्ध होने की जानकारी दी है। साथ में यह भी बताया है कि मंत्रालय में सीधी भर्ती पर रोक होने के कारण ‘ग’ और ‘घ’ श्रेणी की भर्ती काफी समय से नहीं हुई है। जबकि पत्र सूचना कार्यालय(पीआईबी) ने डाटा एंट्री आपरेटर और सफाई कर्मचारियों के आउटसोर्सिंग की जानकारी दी है।
सूचना-आवेदन का जवाब देते हुए मंत्रालय और उसकी अनुषंगी इकाईयों ने बार-बार दोहराया कि हमारे यहां सीधी भर्ती पर रोक लगी हुई है। तथ्य है कि इसी को आधार बनाते हुए केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी ने भी डीएवीपी यानी दृश्य-श्रव्य प्रसारण विभाग को आउटसोर्सिंग करने की छूट दे दी। तर्क दिया गया कि डीएवीपी सरकार का मुख्य संचार माध्यम है और हाल के दिनों में इसकी जिम्मेदारियों में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। कार्मिकों की कमी के चलते आउटसोर्सिंग को विकल्प के रूप में चुना गया है। अब मंत्री महोदया यह पूछना लाजमी हो जाता है कि जो काम आउटसोर्सिंग के जरिए कराया जायेगा क्या वह काम नियमित कर्मचारियों की भर्ती करके नहीं कराया जा सकता था ? लेकिन बदलते राजनीतिक आदर्शों और उद्देश्यों के बीच गलत को जायज ठहराने की कोशिशें तेज हैं। निजी पूंजी से चलने वाली आउटसोर्सिंग एजेंसियां आरक्षण जैसी किसी भी संवैधानिक जिम्मेदारी से बाहर हैं। सरकारी कामकाज में आउटसोर्सिंग जैसे फैसले आरक्षण-व्यवस्था पर ही नहीं बल्कि राज्य के बेहतर नियोक्ता होने पर भी सवालिया निशान है। क्योंकि कम लागत पर काम पूरा करने के चक्कर में आउटसोर्सिंग एजेंसियां सीधे तौर पर कार्मिक हितों और श्रम मानकों का उल्लंघन करती हैं। सरकारी कामकाज में ऐसी एजेंसियों की भागीदारी के बाद सरकार का यह नैतिक आधार कमजोर पड़ने लगता है कि वह निजी क्षेत्र पर श्रम मानकों को मानने का दबाव डाले।
कुल मिलाकर निजी आउटसोर्सिंग एजेंसियों की भागीदारी से नुकसान तय है। ऐसे में सरकारी आउटसोर्सिंग एजेंसी बेसिल (ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कंसल्टेंट इंडिया लिमिटेड) के बारे में मिली जानकारियों से नाजुक हालात पता चलता है। बेसिल प्रमुख रूप से प्रसार-भारती और मंत्रालय की नवगठित इलेक्ट्रानिक मीडिया मॉनिटरिंग सेल के लिए कार्मिकों की आउटसोर्सिंग करता है। बेसिल कॉंन्ट्रेक्ट के आधार पर भर्तियां करता है। बेसिल सूचना और प्रसारण सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन सार्वजनिक क्षेत्र की आईएसओ 9001-2000 प्रमाणित कम्पनी है। जिसे हाल ही में मिनी रत्न का दर्जा दिया गया है। इसके बावजूद खुद को आरक्षण की जिम्मेदारियों से मुक्त समझती है। क्योंकि एक सूचना-आवेदन के लिखित जवाब में कहा कि इस तरह के डॉटा को तैयार नहीं करता है यानी आरक्षित वर्ग के कितने कार्मिकों की भर्ती की गई है,इसका ब्यौरा नहीं रखता है। जिसका सीधा मतलब निकलता है कि वह भर्ती के समय आरक्षण जैसी संवैधानिक व्यवस्था लागू ही नहीं करता है। नहीं तो कोई वजह नहीं बनती है कि वह इसको सिद्ध करने वाले दस्तावेजों को तैयार नहीं करे। ऐसे माहौल में किसी निजी कम्पनी से सामाजिक न्याय की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।
आउटसोर्सिंग के जरिए कल्याणकारी राज्य के साथ जो कुछ भी हो रहा है,उसे लोक प्रशासन में ‘रोल बैक थ्यौरी ऑफ द स्टेट’ नाम दिया गया है। इसे राजनीति विज्ञान के ‘कम-शासन,बेहतर शासन’ यानी स्वायत्त शासन का समर्थन करने सिद्धान्त की संकुचित व्याख्या के साथ भी जोड़ने के तर्क पेश किये जा रहे हैं। नव उदारवादी आर्थिक प्रक्रियाओं से सहमत सरकारें निजी क्षेत्र के पक्ष में अपने कार्य-व्यापार को समेटते हुए खुद को केवल मुआवजा बांटने की घोषणाओं में व्यस्त करने में लगी हुई हैं। ऐसी हालत में सरकारी स्तर पर आरक्षण-व्यवस्था को लागू करने से जुड़ी हकीकत और मंशा को समझने में कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। स्वतंत्र भारत की साठ साल से ऊपर की राजनीति में उपयुक्त उम्मीदवारों का न होना आरक्षण-व्यवस्था के साथ हुए अन्याय की कहानी है। इससे यह भी पता चलता है कि संवैधानिक जिम्मेदारियों को कितनी संजीदगी से निभाया गया है।
{सूचना एवं प्रसारण विभाग में लगाई गई आरटीआई के जवाब में दिये गये तथ्यों पर आधारित है।आंकडे दिये गये जवाब के आधार पर दुरस्त हैं-ऋषि कुमार सिंह}
उफ्-हमें पीटते क्यों हो !


शाहनवाज आलम
यूं तो मुख्यमंत्री मायावती को अपने राजनीतिक विरोधी फूटी आँख भी नहीं सुहाते और वे उनसे निपटने के लिए किसी भी हद जक गिर जाती हैं। लेकिन विधानसभा के सामने मायावती की लाॅ एण्ड आॅडर वाली पुलिस ने जिस तरह पिछले दिनों निरीह और निहथ्थी छात्राओं को बेरहमी से घसीट-घसीट कर लाठियाॅं भांजी उसे निरंकुश और घोर स्त्रीविरोधी ही कहा जाएगा। क्योंकि ये छात्राएं न तो विपक्ष के इशारे पर नाचने वाली कठपुतलियां थीं और ना ही वे उनकी सत्ता को चुनौती देने आयीं थीं। वे तो सिर्फ एक महिला मुख्यमंत्री जिसने अपने जन्मदिन पर छात्राओं की शिक्षा के लिए "महामाया आर्शीवाद योजना" और "सावित्री बाई फुले बालिका शिक्षा योजना" जैसी महत्वकंाक्षी परियोजनाएं घोषित की हैं, से सिर्फ यह मांग करने आयीं थी उनकी कापियां दुबारा जांची जांय जिसमें बड़़े पैमाने पर धांधली हुयी है।
दरअसल ये छात्राएं प्रदेश भर में सक्रिय शिक्षा माफिया और भ्रष्ट प्रशासन की नापाक गठजोड़ के शिकार हैं। इस गठजोड़ से उपजे अकादमिक अराजकता का आलम यह है कि लखनउ विश्वविद्यालय और उससे संबद्ध आधा दर्जन निजी विधी महाविद्यालयों में पढने वाले सैकडों छात्रों का भविष्य अधर में लटक गया है। जहां प्रथम सेमेस्टर के परिणामों में बड़ी संख्या में विद्यार्थी फेल घोषित कर दिए गए हैं। एक्सेल लाॅ कालेज के 60 में से सिर्फ एक छात्र ही पास हो पाया है तो वहीं सिटी लाॅ कालेज के 170 छात्रों में से 5, डा0 भीमराव अम्बेडकर लाॅ कालेज के 60 में से 2 नर्मदेश्वर विधि महाविद्यालय के 60 में से 10, यूनिटी लाॅ कालेज के 160 में से 15 और लखनउ विश्वविद्यालय के 120 में से 60 छात्र ही पास हो पाएं हैं।
इन परिक्षा परिणामों को सिर्फ गैरजिम्मेदार और न पढ़ने-लिखने वाले विद्यार्थियों का खराब प्रदर्शन भर नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इतने विद्यार्थी एक साथ पढ़ने में इतने कमजोर नहीं हो सकते। पुलिस की बर्बर पिटाई की शिकार हुयीं अम्बेडकर विधि महाविद्यालय की अर्चना और अनामिका कहती हैं ‘जो छात्र प्रति सेमेस्टर साढ़े ग्यारह हजार रुपए हर छह महीने पर देता हो वो पढ़ाई के प्रति इतना लापरवाह कैसे हो सकता है कि पास भी न हो पाए।’ वहीं इस पूरे मुद्दे पर आन्दोलन कर रहे छात्र संगठन आइसा के नेता शरद जायसवाल कहते हैं कि दरअसल पूरा मामला अधिक से अधिक छात्रों को फेल करके उनसे दुबारा फीस वसूलने से जुडा़ है। दरअसल पिछले कुछ वर्षों से पूरे प्रदेश में निजी कालेजों की बाढ़ सी आ गयी है और उसमें भी विधि जैसे विषयों जिसमें डिग्री हाथ लगते ही रोजगार के दरवाजे खुल जाते हैं कि तो खास तौर पर उपज हुयी है। जिसके पास भी थोड़ा पैसा हो वो विधि काॅलज खोलना मुनाफे का सौदा समझता है। ऐसा इसलिए कि अव्वल तो इसके लिए रियायती दर पर जमीन और फंड मिल जाता है वहीं दूसरी ओर विधि काॅलेज प्रबन्धकों के नैतिक अनैतिक लुट खसोट पर उनके विधि माफिया हो जाने के चलते कोई उंगली उठाने की हिम्मत भी नहीं करता। लेकिन इस लूट की इन्तहां तो तब हो जाती है जब शिक्षा माफिया ऐसी डिग्रियां देने का वायदा कर छात्रों से धन उगाही करने लगते हैं जिनकी उनके पास मान्यता तक नहीं होती। मसलन, पांच वर्षीय विधि कोर्स।
सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसरों की कमी और निजी क्षेत्र के महंगे होने के चलते मध्यम और निम्न मध्य वर्ग के हजारों युवा ऐसे शिक्षा माफिया के आसान शिकार बन जाते हैं जो उन्हें प्राफेशनल लाॅ डिग्री देने का लालच देकर मोटी ठगी करते हैं। पूरे प्रदेश में ऐसे दर्जनों पांच वर्षीय विधि कोर्स चल रहे हैं जहां पढ़ने वाले छात्र हमेशा सशंकित रहते हैं कि उन्हें काला कोट पहनने को मिलेगा भी या नहीं। काशी विद्यापीठ बनारस और इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों तक के विधि संकाय के तीसरे और पांचवे सेमेस्टर तक के छात्र अपनी डिग्री को लेकर भ्रम की स्थिति में हैं। इन निजी कालेजों में छात्रों को किसी भी सेमेस्टर में मनमाने ढंग से फेल करके उनसे दुबारा फीस वसूल कर फिर उसी सेमेस्टर की परीक्षा में बैठने पर मजबूर करना आम चलन होता जा रहा है। ऐसे संसथानों में छात्रसंघों का ना होना भी कालेज संचालकों के मनोबल को बढ़ाता है। इस स्थिति में छात्रों के सामने दुबारा फीस जमा करने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं होता। क्योंकि फीस न देने पर अड़ने का मतलब है अब तक की पूरी पढ़ाई और वक्त का बर्बाद होना और फिर किसी दूसरे कालेज में एडमीशन के लिए चक्कर लगाना।
इस प्रकरण की प्ष्ठभूमि भी बिल्कुल ऐसी ही है। बर्बर पुलिसिया उत्पीड़न की शिकार हुयी प्रियंका पाल सिंह बताती हैं कि जब उन्होंने कालेज प्रशासन से दुबारा कापियां जांचने की मांग की तो उनसे साफ-साफ कह दिया गया कि दुबारा कापियां किसी कीमत पर नहीं जाॅंची जाएंगी और उन्हें वर्तमान सेमेस्टर को पास करने के लिए दुबारा फीस जमा करना होगा।
बहरहाल अब यह देखना दिलचस्प होगा कि देश के विधि निर्माता को अपना आदर्श बताने वाली मायावी सरकार में ये ‘विधिगत’ लूटखसोट कब तक चलेगा।
न्यायपालिका के ताबूत में कील

देश की न्यायपालिका पर आम लोगों को काफी विश्वास रहा है। लेकिन यह विश्वास अभी भी बरकरार है यह बात संदेह से परे नहीं कही जा सकती। खुद मैं अपने व्यक्तिगत जीवनचर्या में इस बात को महसूस कर चुका हूं कि धीरे-धीरे ही सही न्यायपालिका के निजीकरण का प्रस्तावना लिखा जाने लगा है। जिसे मैं अपने साथ हुई एक घटना के बाद समझ सका।
मैं रोज सुबह दस बजे घर से आफिस जाने के लिए निकलता हूं और रात करीब साढ।े दस बजे ही घर वापस लौटता हूं। निःसंदेह एक निजी संस्थान का कर्मचारी हूं। एक दिन इसी वक्त घर लौटा तो एक अजीब घटना से दो चार होना पड।ा। नौकरी की वजह से अपने घर से दूर राजस्थान के कोटा शहर में अपनी दीदी व जीजी के साथ रह रहा हूं। उस दिन जब घर लौटा तो दरवाजे पर दस्तक से पहले ही अंदर से कुछ आवाजें सुनाई दी। जैसे कोई महिला रो कर कह रही थी ''यह रोज शराब पीकर मुझे पीटते हैं मैं इनके साथ नहीं रह सकती।'' आवाज कुछ-कुछ मेरी दीदी की तरह ही लग रही थी सो एक अनजानी से घबराहट से घिर गया। मैं इस तरह के घटना की कल्पना भी नहीं कर सकता था। दीदी और जीजा के बीच इस तरह की कभी तकरार भी नहीं हुई। '' आप क्या चाहती हैं। इनके साथ नहीं तो क्या अकेले रहना पसंद करेगी।'' यह एक नई आवाज थी, जिसे पहले कभी नहीं सुना था। यह बात सुन मेरी घबराहट बढ। गई। मैनें तुरंत दरवाजे पर दस्तक दी। दरवाजा खुला तो रोज की तरह का ही नजारा सामने था। हाथ में रिमोट लिए कुछ निंदीयाई सी दीदी सामने खड.ी थी- 'और लेट आते'। रोज की झिड.की जिसे अब अनसुना करने की आदत हो गई है। अंदर देखा तो सारी तकरार टीवी में होते दिखी। दिल को बहुत सुकून मिला क्योंकि मैं हमेशा से ऐसे घरेलू झगड.ों से घबराता रहा हूं।
लेकिन टीवी पर जो नजारा था वो मेरे लिए बिल्कुल नया और एक तरह से सोचनीय भी था। टीवी पर एक कचहरी चल रही थी। पूर्व आईपीएस अधिकारी किरन बेदी जज के रूप में एक कुर्सी पर विराजमान थी। जिस महिला की आवाज मुझे दरवाजे के बाहर सुनाई दे रही थी वह और उसका पति किरन बेदी के सामने खड.े थे। 'आपकी कचहरी' प्रायोजक बाई फलां-फलां। तो कार्यक्रम का नाम था 'आपकी कचहरी'। इसमें आम जन के पारिवारिक व गैर आपराधिक मुकदमों की सुनाई होती है और आम सहमती से हल निकाला जाता है। पीडि.त पक्ष को नया जीवन शुरू करने के लिए कई बार यह कचहरी आर्थिक अनुदान भी देती है।
अब देखिए इस आपकी कचहरी से कितने लोगों को लाभ पहुंच रहा। मध्यवर्ग के लिए इससे अच्छा और क्या हो सकता है कि जहां आधे घंटे में उसके झगड।ों का निपटारा हो जाए और साथ में कुछ अनुदान भी मिले। फिर उसे इससे क्या मतलब कि इसके माध्यम से कार्यक्रम बनानी वाली कंपनी कितना विज्ञापन बटोर रही है। इसके दर्शक वर्ग में ज्यादातर वही मध्यवर्गीय लोग हैं जो अब सास-बहू के बनावटी धारावाहिकों से आजीज आ गए हैं। उन्हें सास-बहू, पति-पत्नी, व बाप-बेटे का झगडा जीवंत देखने को मिल रहे हैं। वैसे पहले से ही यह वर्ग दूसरे के घरों में होने वाले झगड.ों का रसास्वादन करने में आनंद की अनुभूति करता रहा है। कंपनी वाले विज्ञापन के माध्यम से पैसा पीट कर खुश हैं। और सालों से कचहरियों का चक्कर लगाने वाले लोगों के लिए तो यह किसी ऐतिहासिक घटना से कत्तई कम नहीं।
लेकिन ऐसे कार्यक्रम की केवल इतनी ही सच्चाई है कि यहां लोगों को जल्दी न्याय मिल रहा है या इसके पीछे भी कुछ है। आपकी कचहरी प्रसारित होने से पहले की पृष्टभूमि पर नजर डाले तो बातें कुछ ज्यादा स्पष्ट हो जाएगीं। पिछले कई दशकों से कचहरियों व न्यायपालिकाओं में आम लोगों के लिए न्याय मिलना दूर की कौड।ी साबित होता रहा है। गांव के लोग तो पुलिस कचहरी के चक्कर से बच निकले को जन्नत मिलने के बराबर मानते हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है, कि इन संस्थाओं के प्रति लोगों में कैसी धारणाएं हैं। न्यायपालिका के यहां तक के सफर ठीक वैसे ही रहा है जैसे कि सार्वजनिक कार्यपालिका में भ्रष्टाचार। वर्तमान में सरकारी महकमों को बड।े पैमाने पर निजी हाथों में सौंपने की पृष्टभूमि भी कुछ इसी तरह से तैयार की गई थी। पहले भ्रष्टाचार व अफसरशाही को फलने-फूलने दिया गया फिर उससे निजात दिलाने के लिए उसे निजी हाथों में सौंप दिया। सो अब निजी कार्यालय लोगों को कथित रूप से अधिक तेज व आसान सुविधाएं प्रदान कर रहे हैं। लोकतंत्र के एक और महत्वपूर्ण स्तम्भ संसद में भी निजी कंपनियां व उद्योगपति तेजी से निवेश बढ।ा रहे हैं। राजनीति में व्याप्त भ्रश्ट्ाचार व गुंडई को दूर करने के लिए मध्यवर्ग के आदर्ष व्यक्ति राजनीति में कदम रखने लगे हैं या यूं कहें कि अवतार ले रहे हैं। सपा व अमर सिंह जैसे लोगों का गर्भ ऐसे लोगों को पालने के लिए हमेशा से उपलब्ध रहा है। अभी तो टाटा-अंबानी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनावाने में जुटे हैं, लेकिन उस दिन कि कल्पना भी कोरी नहीं होगी जब नरेन्द्र मोदी जैसे लोग टाटा-अंबानी में देश का प्रधानमंत्री बनने के गुण तलाशेंगे। अपने को चौथा स्तम्भ कहने वाली मीडिया की यहां बात न ही कि जाए तो बेहतर होगा। उसकी बिकाउ दशा से सभी वाकिफ हैं।
ऐसे में न्यायपालिका एकमात्र ऐसी संस्था थी जहां न्याय पाना हमेशा से दूर की कौड.ी रही है लेकिन आम लोगों का विश्वास बना हुआ था। हांलाकि पिछले कुछ फैसलों ने ही तय कर दिया था कि निजी संस्थाओं के कितने दबाव में काम कर रही है। ऐसे में 'आपकी कचहरी' जैसे कार्यक्रम को इस न्यायपालिका के ताबूत में एक अहम कील कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसे भविष्य की निजी कचहरियों का ही एक रूप कहा जा सकता है। और ऐसा हुआ तो लोकतंत्र का एकमात्र मात्र बचा खम्भा भी ढहने को तैयार है।
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'सरकारी आतंकवाद' के खिलाफ पीयूएचआर ने सौंपी रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों आतंकवाद का खूब बोलबाला रहा. आतंकवाद से निपटने के लिए नए कानून लेन की तैयारी भी हो गई लेकिन बाद में मायावती सरकार ने मुसलमानों से रहमदिली दिखाते हुए कानून वापस भी ले लिया. लेकिन इस दौरान आतंकवाद से निपटने के नाम पर उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने कई बेक़सूर मुस्लिम युवकों को फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया तो कईओं को गिरफ्तार कर लिया. पीपुल्स यूनियन फॉर ह्यूमन राइट्स (पीयूएचआर) ने हर घटनों के बाद उसकी नए सिरे से जांच कर एसटीएफ की कहानियो को चुनौती देनी शुरू कर दिया. उद्देश्य केवल इतना की आतंकवाद का असली चेहरे उजागर हो और 'सरकारी आतंकवाद' बेनकाब. देश में शुरू से ही आतंकवाद से लड़ाई केवल राजनैतिक गुणा गणित का खेल रहा है. पीयूएचआर ने इसमे पिसे जा रहे लोगों के साथ अपनी एकजुटता जाहिर करते हुए अपनी जाँच रिपोर्टों के माद्यम से सरकार पर दबाव बनाए रखा. इन्ही दबावों के चलते पिछले साल मार्च में आजमगढ़ व कुछ अन्य जिलों में पंचायत समितियों के चुनाव के मद्देनजर आजमगढ़ व जौनपुर से उठाए गए तारिक, खालिद और सज्जाद की गिरफ्तारी के लिए जाँच बैठानी पड़ी. सेवानिवृत्त जज आर.डी निमेष को इस जांच का जिम्मा सौंपा गया है. १० फरवरी को पीयूएचआर ने जाँच आयोग के सामने २५० से भी आधिक पन्नों की रिपोर्ट रखी. इसका एक छोटा हिस्सा आप सभी के सामने है.
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समक्ष-
निमेष जाँच आयोग,
सहकारिता भवन,
पंचम तल १४ डी.बी.आर.अम्बेडकर रोड
लखनऊ,उ0प्र0 ।
मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर ह्यूमन राइट्स (पीयूएचआर) की तरफ से हम अपनी जाँच पर आधारित दस्तावेज़ और उसके समर्थन में तथ्य प्रेषित कर रहे हैं कि उ0 प्र0 के कचहरी विस्फोटों में अभियुक्त बनाए गए मो0 तारिक कासमी पु़त्र श्री रियाज़ अहमद ग्राम सम्मोपुर, थाना रानी की सराय, जनपद आजमगढ़ को यूपी0 एसटीएफ ने 12 दिसम्बर 2007 दिन में लगभग साढ़े बारह बजे रानी की सराय, आजमगढ़ से उठाया था जिसे बाद में 22 दिसम्बर 2007 को बाराबंकी रेलवे स्टेशन के पास से सुबह 6।20 पर एसटीएफ ने गिरफ्तार करने का दावा किया है। सम्बन्धित दस्तावेज़ और तथ्य संलग्न तालिका 'अ' के अन्तर्गत है।
ठीक इसी तरह खालिद मुजाहिद पुत्र स्व. जमीर आलम, मोहल्ला महतवाना, कोतवाली मड़ियाहूं, जनपद जौनपुर(उ0 प्र0) को एसटीएफ ने 16 दिसम्बर 2007 को मड़ियाहूं बाजार से शाम 6 से साढ़े 6 बजे के बीच उठाया था। जिन्हें बाद में बाराबंकी रेलवे स्टेशन के पास से सुबह 6 बजकर 20 मिनट पर तारिक कासमी के साथ गिरफ्तार करने का दावा एसटीएफ कर रही है। संबन्धित दस्तावेज व तथ्य संलग्न तालिका 'ब' के अंतर्गत हैं।
तालिका 'स' में मानवाधिकार संगठनों द्वारा इस प्रकरण पर जारी रिपोर्टों, बयानों, पर्चों, व विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छपी रिपोर्टें
'अ'
1- मो0 तारिक कासमी के दादा अजहर अली पुत्र मो0 अली ग्राम सम्मोपुर, थाना रानी की सराय, जनपद आजमगढ़ द्वारा थाना रानी की सराय आजमगढ़ में तारिक कासमी की गुमशुदगी की रिपोर्ट जो 14 दिसंबर 2007 को दर्ज करायी गयी। छाया प्रति संलग्न है।
2- तारिक कासमी की गुमशुदगी संबंधित पोस्टर जो पूरे जिले में 14 से 18 दिसंबर 07 के बीच लग गए थे। छाया प्रति संलग्न है।
3- तारिक कासमी को 12 दिसंबर 07 को एसटीएफ द्वारा रानी की सराय, शंकरपुर, चेकपोस्ट से थोड़ा आगे से उठाने के चश्मदीद गवाहों मो0 आमिर पुत्र नेसार अहमद, सलाउद्दीन पुत्र जैश, वीरेन्द्र सिंह पुत्र अवधेश सिंह, रामअवध चैरसिया पुत्र शंकर चैरसिया के हलफनामे । छाया प्रति संलग्न है।
4- तारिक कासमी को दिनांक 12.12.2007 को रानी की सराय, शंकरपुर, चेकपोस्ट से एसटीएफ द्वारा उठाए जाने की पुष्टी करने वाले लोगों के नाम व दस्तखत। छाया प्रति संलग्न है।
5- तारिक के दादा अजहर अली पुत्र मो0 अली ग्राम सम्मोपुर थाना रानी की सराय जनपद आजमगढ़ द्वारा माननीय मुख्यमंत्री उ0प्र0 को 14.12.2007 को भेजा गया पत्र। छाया प्रति संलग्न है।
6- तारिक कासमी के ससुर मौलवी असलम पुत्र अब्दुल कुद्दूस द्वारा राष्टिय मानवाधिकार आयोग को 19.12.2007 को भेजा गया पत्र। छाया प्रति संलग्न है।
7- 6 मार्च 2008 को राज्य सभा सदस्य श्री अबू आसिम आजमी द्वारा राज्य सभा में प्रश्नकाल के दौरान तारिक कासमी की फर्जी गिरफ्तारी का सवाल उठाया गया। एमसीएम-एसकेसी/एसक्यू/8-15 में कहा गया कि " उप्र के स्पीकर उसी इलाके के हैं, उनके पास भी लोग गए। स्पीकर साहब ने एसएसपी को फोन किया कि पता लगाओ। इस बारे में डीएम के पास, एसपी के पास, कचहरी में दस दिन तक खूब आंदोलन हुआ तथा अखबार में भी छपा कि उस व्यक्ति की किडनैपिंग हो गई है।" एक नेता ने कहाकि अगर पुलिस ने उसका 23 तारिख तक पता नहीं लगाया तो मैं उसी जगह पर जाकर आत्महत्या कर लूंगा। छाया प्रति संलग्न है।
8- तारिक कासमी के दादा अजहर अली ़द्वारा 18.12.2007 को जिला सूचना अधिकारी आजमगढ़ से माॅंगी गई सूचना कि क्या तारिक का अपहरण हुआ है अथवा पुलिस द्वारा किसी मामले में उठाया गया है।छाया प्रति संलग्न है।
9- 20.12.2007 को अजहर अली द्वारा सीजीएम आजमगढ़ को प्रस्तुत किया गया प्रार्थनापत्र। छाया प्रति संलग्न है।
10- नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी द्वारा 20.12.2007 को तारिक कासमी के अपहरण और पुलिस की निष्क्रियता के खिलाफ दिए गए धरने में माननीय मुख्यमंत्री उ0प्र0 को भेजा गया ज्ञापन। छाया प्रति संलग्न है।
11- 15.12.2007 को हिन्दुस्तान में 'लापता हकीम का तीसरे दिन भी नहीं लग सका कोई सुराग 'शीर्षक से छपी खबर ।छाया प्रति संलग्न है।
12- 17.12.2007 को आजमगढ़ में तारिक के अपहरण और पुलिस निष्क्रियता के खिलाफ चल रहे आंदोलनों की खबरें- अमर उजाला में 'लापता डाक्टर का सुराग नहीं, प्रदर्शन', हिन्दुस्तान में 'कासमी अपहरण काण्ड के खिलाफ नेलोपा का धरना', दैनिक जागरण 'अपहरण जनता सड़क पर।' छाया प्रति संलग्न है।
13- 18.12.2007 को आजमगढ़ में तारिक के अपहरण और पुलिस निष्क्रियता के खिलाफ चल रहे आंदोलनों की खबर हिन्दुस्तान में 'जारी रहेगा धरना।' छाया प्रति संलग्न है।
14- 19.12.2007 को हिन्दुस्तान में ' हकीम तारिक को जमीन निगल गयी या आसमान ' शीर्षक से छपी खबर में लिखा है- विदित हो कि सम्मोपुर निवासी डा.हकीम तारिक पुत्र रियाज का उस समय बदमाशों ने मार्शल गाड़ी से अपहरण कर लिया जब 12 दिस0 को वे अपनी बाइक से सरायमीर जा रहे थे। घटना पहले दिन जहां रहस्यमय बनी रही, वहीं पुलिस व परिजनों की जांच में अपहरण के दौरान प्रत्यक्षदर्शी रही महिलाओं व छात्रों से बातचीत की। अपहरण कर लिए जाने की पुष्टि होते ही परिजनों में हड़कम्प मचा ही साथ ही पुलिस भी हाफने लगी।.....एसओ का कहना है कि टीम गठित की गई है शीघ्र कामयाबी मिलेगी....। छाया प्रति संलग्न है।
15- 20.12.2007 को हिन्दुस्तान में 'हकीम अपहरण काण्डः दूसरी दिशा में घूमी जाॅंच प्रक्रिया' शीर्षक से छपी खबर में लिखा है कि- 'लखनउ की एसटीएफ टीम ने अपहर्ताओं की तलाश न कर अपहर्ता के घर पर बुधवार को छापा मारा।'
16- 21.12.2007 को तारिक अपहरण और पुलिस निष्क्रियता के खिलाफ चल रहे आंदोलनों की खबरें- हिन्दुस्तान 'हकीम अपहरण काण्डः नेलोपा ने कलेक्टी कचहरी पर दिया धरना', दैनिक जागरण 'तारिक की वापसी के लिए नेलोपा ने दिया धरना।' अमर उजाला 'कहाॅं है डाक्टर, पुलिस वाले अब भी पहेली बुझा रहे', 'चिकित्सक की रिहाई को लेकर सर्वदलीय धरना'। छाया प्रति संलग्न है।
उक्त समाचार पत्रों में छपे समाचारों की सत्यता का सत्यापन उनके संवाददाताओं को बुलाकर उनका बयान ले के किया जा सकता है।
'ब'
1- खालिद मुजाहिद के चचा मु0 जहीर आलम फलाही द्वारा 19.12.2007 दोपहर जिलाधिकारी जौनपुर, राष्टी्य मानवाधिकार आयोग, पुलिस महानिदेशक लखनउ व मुख्य न्यायाधीश उच्च न्यायालय को फैक्स द्वारा पत्र भेजा गया। छाया प्रति संलग्न है।
2- मु0 जहीर आलम फलाही द्वारा राष्ट्ीय मानवाधिकार आयोग को 26.06.2007 को भेजा गया पत्र जिसमें एक संदिग्ध व अज्ञात व्यक्ति जो खालिद के बारे में पूछताछ करता था, का जिक्र है । यही संदिग्ध व्यक्ति 18,19 दिसम्बर,2007 की रात यानि खालिद के मडियाहॅंू से उठाये जाने के दो दिन बाद और उसके बाराबंकी से गिरफ्तार दिखाये जाने के तीन दिन पहले पुलिस टीम के साथ खलिद के घर दी गयी दबिश में भी शामिल था। छाया प्रति संलग्न है।
3- खालिद को 16.12.2007 को मडियाहूॅं कें पवन टाकीज के पास मुन्नू चाट की दुकान पर चाट खाते हुए 6.30 बजे के आस पास असलहा धारी लोगों द्वारा उठाये जाने की पुष्टि करने वाले लोगों के नाम व हस्ताक्षर। छाया प्रति संलग्न है।
4- 17.12.2007 को अमर उजाला में 'एसटीएफ ने चाट खा रहे युवक को उठाया', हिन्दुस्तान में 'टाटा सुमो सवार लोगों ने युवक को उठाया' शीर्षक से छपी खबरें। छाया प्रति संलगन है।
5- 18.12.2007 को अमर उजाला वाराणसी संस्करण में छपी खबर 'एस0टी0एफ0 की हिरासत में हूजी के दो आतंकी' में कहा गया है ..... इसी प्रकार जौनपुर जिले के मड़ियाहू स्थित मदरसे में पढाने वाले एक अध्यापक को हिरासत में लिया गया है....। छाया प्रति संलग्न है।
6- 20.12.2007 को हिन्दुस्तान में 'लखनउ धमाकों के वांछित की तलाश,मडियाहूॅं में छापा', अमर उजाला में 'एसटीएफ ने युवक को उठाया', हिन्दुस्तान में 'लखनउ बम विस्फोट के वांॅंछित के तलाश में मड़ियाहूॅं में छापा।' छाया प्रति संलग्न है।
7- 21.12.2007 को हिन्दुस्तान में 'मड़ियाहू का खालिद तीन बार जा चुका है पाकिस्तान!' शीर्षक से छपी खबर भी खालिद को बाराबंकी से गिरफतार किये जाने के दावे को गलत साबित करती है। खबर में लिखा है ......... खालिद के चचा जहीर ने जानकारी दी कि पुलिस 16.12.2007 को ही खालिद को उठा ले गयी थी और जब वह थाने रिपोर्ट दर्ज कराने गये तो बताया गया कि ए0टी0एस0 ले गयी है, रिपोर्ट नहीं लिखी जा सकती है ....... । छाया प्रति संलग्न है।
8- 21.12.2007 अमर उजाला आजमगढ में छपी खबर 'एस0टी0एफ0 ने लिये दो और हिरासत में' भी इस बात की पुष्टि करती है कि खालिद और तारिक दोनों को 22.12.2007 को बाराबंकी से एस0टी0एफ0 ने गिरफ्तार करने का जो दावा किया है, वह गलत है तथा इन्हें मड़ियाहू व आजमगढ़ से ही उठाया गया था। खबर कहती है ........' लखनउ पुलिस ने जौनपुर के मड़ियाहू थाने के मुहल्ला महतवाना निवासी खालिद और आजमगढ के मु0 तारिक कासमी को संदेह के आधार पिछले दिनों हिरासत में लिया था ......। छाया प्रति संलग्न है।
9- 22.12.2007 को अमर उजला 'आतंकियों के संपर्क में था मोैलाना खालिद' शीर्षक से छपी खबर में लिखा है ...... आई0बी0 की रिपोर्ट पर ही एस0टी0एफ0 ने पीछा किया, यह भी कहा जा रहा है कि 16.12.2007 को खालिद को कस्बे की चाट की दुकान से उठाया गया। छाया प्रति संलग्न है।
10- 20.12.2007 को हिन्दुस्तान में 'जनपद में ही मौजूद हैं आतंकी संगठन हूजी के संचालक' शीर्षक से छपी खबर में लिखा है कि .......एसटीएफ कड़ी सुरागरसी के बाद एक सप्ताह पूर्व ही खालिद को कस्बंे से राह चलते उठा लिया था । छाया प्रति संलग्न है।
उक्त समाचार पत्रों में छपे समाचारों की सत्यता का सत्यापन उनके संवाददाताओं को बुलाकर उनका बयान ले के किया जा सकता है।
'स'
1- मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइटस द्वारा राष्ट्ीय मानवाधिकार आयोग को खालिद मुजाहिद व तारिक कासमी के संबंध में भेजे गये पत्र की प्राप्ति सहित प्रति। छाया प्रति संलग्न है।
2- उ0प्र0 अल्पसंख्यक उत्पीड़न विरोधी कानूनी अधिकार मंच द्वारा केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री श्री श्रीप्रकाश जायसवाल को 06.09.2008 को दिया गया पत्र । छाया प्रति संलग्न है।
3- उ0प्र0 अल्पसंख्यक उत्पीड़न विरोधी अधिकार मंच व इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन की तरफ से 01.06.2008 को हाईकोर्ट परिसर में आयोजित कार्यक्रम का पर्चा जिसमें खालिद व तारिक मामले का जिक्र है । छाया प्रति संलग्न है।
4- पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइटस की जाॅंच दल द्वारा तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद के घर व आसपास की गयी गहन छानबीन के बाद अखबारों में छपी बयानों की कतरने। छाया प्रति संलग्न है।
5- पीपुल्स युनियन फार ह्यूमन राइट्स द्वारा उ0प्र0 कचहरी बम धमाकों में निर्दोष व्यक्तियों खालिद व तारिक की गिरफ्तारी के खिलाफ इलाहाबाद में आयोजित जनसुनवाई जिसकी अध्यक्षता इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवा निवृत्त न्यायाधीष श्री रामभूषण मेहरोत्रा ने की थी,की खबरे। छाया प्रति संलग्न है।
6- विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में खालिद और तारिक की फर्जी गिरफतारी के संदर्भ में छपी रिपोर्टे-तहलका,प्रथम प्रवक्ता, दस्तक। छाया प्रति संलग्न है।
उक्त सभी समाचारों का सत्यापन सम्बंधित समाचार पत्रों के संवाददाताओं तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों एव लेखकों के बयान ले कर किया जा सकता है। जिनका पता, पत्र एवं पत्रिकाओं के सम्पादकों से प्राप्त हो पाना संम्भव है।
लखनऊ,
दिनांक- 10 फरवरी 2009
द्वारा-
लक्ष्मण प्रसाद, शाहनवाज आलम, राजीव यादव
सदस्य कार्यकारिणी समीति,उ0 प्र0
पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइट्स (पीयूएचआर)
632/13 शंकरपुरी कमता पो0 चिनहट
लखनऊ उ0प्र0
पीयूएचआर की और रिपोर्ट देखें नई पीढी
फिलिस्तीनी बच्चे के लिए लोरी

मत रो बच्चे
रो रो के अभी
तेरी अम्मा की आँख लगी है
मत रो बच्चे
कुछ ही पहले
तेरे अब्बा ने
अपने गम से रुखसत ली है
मत रो बच्चे
तेरा भाई
अपने ख्वाब की तितली पीछे
दूर कहीं परदेस गया है
मत रो बच्चे
तेरी बाजी का
डोला पराये देस गया है
मुर्दा सूरज नहला के गए है
चंद्रमा दफना के गए है
मत रो बच्चे
अम्मी,अब्बा,बाजी,भाई
चाँद और सूरज
तू गर रोयेगा तो ये सब
और भी तुझे रुलायेंगे
तू मुस्कयेगा तो शायद
सारे एक दिन भेस
तुझ से खेलने लौट आयेंगे
__ फैज़ अहमद फैज़
हमास पर फिर हुआ हमला

छह महीने के युद्ध विराम के बाद मध्य- पूर्व एक बार फ़िर से अशांत हो गया है। इज़रायल ने फ़लीस्तीनी शहर गाज़ापट्टी में मिसाइल हमले किए, जिसमें दो सौ से ज्यादा लोग मारे गए और हज़ारों की तादाद में लोग घायल हुए हैं। इन हमलों के पीछे इज़रायल का दावा है कि – उसने ये हमले गाज़ा में हमास के आतंकी शिविरों पर किए हैं,जो कुछ रोज़ पहले इज़रायल पर रॉकेट हमलों का ज़बाब है। इसके साथ इज़रायल ने ये भी धमकी दी है कि वो हमास के ख़िलाफ़ फ़लीस्तीन में ज़मीनी लड़ाई से भी गुरेज़ नहीं करेगा।
इस हमले की निंदा अरब लीग समेत यूरोपियन यूनियन ने भी की है- जबकि ह्वाइट हाउस ने ब़यान जारी किया है कि – इज़रायल को अपनी सुरक्षा का पूरा हक़ है। लेकिन अमरीका ने ये नहीं कहा कि ये हमले तुरंत बंद होने चाहिए.........वैसे अमरीका से इसकी उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि इज़रायल-फलीस्तीन विवाद में उसका क़िरदार दुनिया से छुपा नहीं है। इज़रायल- फ़लीस्तीन मसला आज की तारीख़ में सबसे विवादास्पद मुद्दा है- इनके बीच जारी संघर्ष में लाखों लोग अपनी जान गवां चुके हैं और लाखों लोग बेघर हो चुके हैं। इस आग में समूचा मध्य-पूर्व जल रहा है। समूची दुनिया की पंचायत करने वाला संयुक्त राष्ट्रसंघ की भूमिका भी संतोषजनक नहीं है। जहां तक अमेरिका की बात है तो उसकी असलियत कुछ इस प्रकार है-
इज़रायल और अरब राष्ट्रों के बीच हुए भीषण युद्ध के बाद तत्कालीन इज़रायली प्रधानमंत्री एहुद बराक और फ़लीस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात के बीच अमेरिका के कैम्प डेविड में पन्द्रह दिनों तक चली मध्य-पूर्व शांति शिखर वार्ता बगैर किसी नतीज़े के ख़त्म हो गई। इस विफलता की मूल वज़ह वो तीन मुद्दे थे – लगभग 37 लाख फलीस्तीनी शरणार्थियों का भविष्य, भावी फ़लीस्तीनी राज्य की सीमाएं और येरूशलम पर नियंत्रण। इन तीनों मुद्दों पर इज़रायली प्रधानमंत्री बराक और यासिर अराफात के बीच कोई सहमति नहीं बन पाई और नतीज़ा रहा....सिफ़र। ये सब अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की सक्रिय मध्यस्थता के बीच हुआ। जिसे पश्चिमी मीडिया ने अमरीका के शांति एवं लोकतंत्र प्रेम के रूप में खूब बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया। लेकिन अमरीका की मौजूदगी में शांति वार्ता का ये हश्र...... कोई ताज़्जुब की बात नहीं है।
इज़रायल और फ़लीस्तीनी अरबों के बीच के विवाद के प्रेक्षकों से ये बात छिपी नहीं है कि पिछले पाँच दशकों के दौरान इस क्षेत्र में अमन बहाली के लिए अमरीकी कोशिशों का मतलब क्या रहा है। हमेशा अमरीकी नेतृत्व ने इज़रायल- फ़लीस्तीनियों के बीच समझौते के नाम पर इज़रायली शर्तें मनवाने की कोशिश की है। इज़रायली वजूद की ही बात करें तो- तमाम औपनिवेशिक साम्राज्यवादी साजिशों के तहत नवंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्रसंघ फ़लीस्तीन को एक अरब और एक यहूदी राज्य के रूप में बाँटने को राज़ी हो गया था। लेकिन यहूदियों को यह भी गवारा नहीं हुआ, इससे पहले कि विभाजन हो पाता यहूदियों ने इज़रायल नाम से देश का ऐलान कर दिया।
अमेरिका ने बेहद फुर्ती दिखलाते हुए अगले ही दिन उसे मान्यता भी दे दी और उसी दिन से फ़लीस्तीनी अरबों के दर-दर भटकने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया। लाखों की तादाद में अपना वतन छोड़कर उन्हें विभिन्न अरब राष्ट्रों में शरण लेनी पड़ी। उनकी ज़मीन ज़ायदाद पर यहूदियों ने कब्ज़ा कर लिया और धीरे-धीरे लगभग सारे फ़लीस्तीन पर अपना नियंत्रण कर लिया। इस दौरान अरब राष्ट्रों से इज़रायल के तीन घमासान युद्ध हुए। अमरीका की हर प्रकार की मदद से वह हर युद्ध में अरब राष्ट्रों के कुछ न कुछ इलाकों पर कब्ज़ा करता रहा। 1967 के युद्ध में इज़रायल ने पश्चिमी तट (वेस्ट बैंक), गाज़ा पट्टी, गोलान हाइट्स, सिनार और पूर्वी येरूशलम पर कब्ज़ा कर अपने में मिला लिया।
बहरहाल, 1967 के अरब- इज़रायल युद्ध के बाद विश्व जनमत चिंतित हो उठा एवं मध्य-पूर्व में अमन बहाली की कोशिशों में तेज़ी आई। इसके तहत संयुक्त राष्ट्रसंघ सक्रिय हुआ- संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद् का प्रस्ताव 242 पारित हुआ। जिसमें पूर्ण शांति का आह्वान करते हुए इज़रायल से कब्ज़ा किए गए अरब क्षेत्रों से हट जाने को कहा गया, लेकिन इस प्रस्ताव को अमल में नहीं लाया जा सका। हांलाकि इस चार्टर पर सबने दस्तख़त किए थे, लेकिन अमरीका ने ढ़ीला-ढ़ाला रूख अपनाते हुए इसकी नयी व्याख्या कर दी और इसके तहत इज़रायल ने कब्ज़ा किए गए इलाकों से हटने से इंकार कर दिया। नतीज़तन 1976 में इस प्रस्ताव को दुबारा सुरक्षा परिषद् में विचारार्थ लिया गया। इस दफ़ा प्रस्ताव 242 की बातों की रोशनी में एक नया प्रस्ताव बनाया गया, जिसमें साफ़ तौर पर वेस्ट बैंक और गाज़ापट्टी में एक फ़लीस्तीनी राज्य की स्थापना का प्रावधान जोड़ा गया। इस प्रस्ताव का मिस्त्र, जॉर्डन, सीरिया जैसे अरब राष्ट्र, यासिर अराफात की फ़लीस्तीनी मुक्ति संगठन, सोवियत संघ, यूरोप और बाकी दुनिया के देशों ने समर्थन किया। लेकिन अमरीका ने इस प्रस्ताव के खिलाफ़ वीटो का इस्तेमाल कर इसे रद्द करा दिया।
इसी तरह 1980 में एक ऐसे ही प्रस्ताव पर अमरीका ने फिर वीटो का इस्तेमाल किया – इसके बाद ये मामला संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा में हर साल उठता रहा और इसके खिलाफ़ सिर्फ़ अमरीका और इज़रायल अपना वोट देते रहे। इतिहास से ये सारी बातें मानो निकाल दी गई हैं – उनकी जगह शांति स्थापना के अमरीकी प्रयासों की प्रेरक कथाओं ने ले ली है। और बताया जा रहा है कि अमन बहाली की ये सारी कोशिशें अरबों के कारण ही सफल नहीं हो पा रहे हैं।
अगर मध्य-पूर्व में वाकई अमन बहाली कायम करनी है तो इज़रायल- अमरीका को थोड़ा और आगे जाकर सोचना होगा। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि अमन की कोशिशों को थोड़ी हिम्मत और समझ के साथ उसे सही अंज़ाम पर पहुँचाया जाए। इस मामले में इज़रायल-फ़लीस्तीन समस्या के सबसे गहन अध्येता और महान अमरीकी चिंतक नोम चोम्स्की के शब्दों में हम सिर्फ़ इतना कहेगें – अगर राजनीतिक भ्रमों को छोड़कर मानवाधिकार एवं लोकतंत्र के सवाल को ध्यान में रखेंगे तो निश्चय ही इस समस्या का स्थाई हल निकलेगा।
अभिषेक रंजन सिंह टेलीविजन पत्रकार हैं और साम टीवी (सकाल मीडिया ग्रुप) से जुड़े हुए हैं.
तानाशाह और जूते

उसके जूते की चमक इतनी तेज थी
कि सूरज उसमें अपनी झाइयां देख सकता था
वह दो कदम में नाप लेता था दुनिया
और मानता था कि पूरी पृथ्वी उसके जूतों के नीचे है
चलते वक्त वह चलता नहीं था
जूतों से रौंदता था धरती को
उसे अपने जूतों पर बहुत गुमान था
वह सोच भी नहीं सकता था
कि एक बार रौंदे जाने के बाद
कोई फिर से उठा सकता है अपना सिर
कि अचानक ही हुआ यह सब
एक जोड़े साधारण पांव से निकला एक जोड़ा जूता
और उछल पड़ा उसकी ओर
उसने एक को हाथ में थामना चाहा
और दूसरे से बचने के लिए सिर मेज पर झुका लिया
ताकत का खेल खेलने वाले तमाम मदारी
हतप्रभ होकर देखते रहे
और जूते चल पड़े
दुनिया के सबसे चमकदार सिर की तरफ
नौवों दिशाओं में तनी रह गयीं मिसाइलें
अपनी आखिरी गणना में गड़बड़ा गया
मंगलग्रह पर जीवन के आंकड़े ढूंढने वाला कम्प्यूटर
सेनाएं देखती रह गयीं
कमांडों लपक कर रोक भी न पाये
और उछल पड़े जूते
वह खुश हुआ कि आखिरकार उसके सिर पर नहीं पड़े जूते
शर्म होती तब तो पानी पानी होता
मगर यह क्या कि एक जोड़े जूते के उछलते ही
खिसक गयी उसके पांव के नीचे दबी दुनिया
चारो तरफ से फेंके जाने लगे जूते
और देखते देखते
फटे पुराने, गंदे गंधाये जूतों के ढेर के नीचे
दब गया दुनिया का सबसे ताकतवर तानाशाह
एस टी एफ ने ही उठाया है मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को !
पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइट्स (पीयूएचआर) प्रदेश कार्यकारिणी की ओर से
राजीव यादव, ०९४५२८००७५२, शाहनवाज़ आलम, ०९४१५२५४९१९, विजय प्रताप, 09982664458 लक्ष्मण प्रसाद,०९८८९६९६८८८ ऋषि कुमार सिंह,09911848941