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सरकार बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए युद्ध लड़ना चाहती है

देश में नक्सल समस्या से निपटने के नाम पर सरकार अब आदिवासी बहुल इलाकों में सेना व वायु सेना का प्रयोग करने पर विचार कर रही है। गृहमंत्री ने पिछले दिनों पत्रकारों से बातचीत में अपनी इस मंशा का खुलासा किया। कई मानवाधिकार संगठनों, लेखक, पत्रकार, छात्र व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर बहुराष्ट्रीय निगमों के पक्ष में नक्सलियों से युद्ध लड़ने का आरोप लगाया है। इसी मुद्दे पर बुधवार (21 अक्टूबर, 09) समाचार चैनल सीएनएन-आईबीएन पर एक बहस आयोजित की गई। इसमें सामाजिक कार्यकर्ता व लेखिका अरुंधति राॅय व झारखण्ड के सामाजिक कार्यकर्ता ग्लैडसन डंगडंग ने भाग लिया। प्रस्तुत है उसका हिंदी रूपान्तरण।

सीएनएन-आईबीएन - नक्सली नेता किशन जी का साफ कहना है कि वो और हिंसक होंगे। ऐसे हिंसक वातावरण में आप कैसे आशा करेंगी की भारत सरकार वहां नक्सलियों से बातचीत करे। जिसकी की अरूंधति राॅय व अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं। हिंसा छोड़ने के बारे में आपका क्या कहना है?

अरुंधति - मैने वो पत्र देखा है, जिसमें मिस्टर चिदम्बरम ने नागरिक समूहों से नक्सलियों से हिंसा छोड़ने के लिए उन्हें फुसलाने को कहा गया है। मुझे लगता है कि यह कपट है। क्योंकि एक दुहरा वातावरण रचा जा रहा है। एक तरफ नक्सली हैं और दूसरी तरफ सरकार है। बीच में मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। यह सरलीकरण बहुत ही जटिल तस्वीर है। मैं नहीं मानती की मानवाधिकार कार्यकर्ता कोई अलग समूह से संबंधित है। अहिंसक व लोकतांत्रिक प्रतिरोधों का एक पूरा दायरा है। जिसे नक्सल कहा जा रहा है और मोलभाव की उम्मीद की जा रही है। इसलिए यदि सरकार नक्सलियों से कोई बातचीत करना चाहती है, तो उसे केवल उन्हीं से बातचीत करनी चाहिए।

सीएनएन-आईबीएन - सरकार विशेषरूप से नागरिक समूहों से कह रही है कि वो सीपीआई माओवादी से बात करें और उन्हें मुख्यधारा की राजनीति में लाए। इसमें गलत क्या है?

अरुंधति - मैं नागरिक समूह नहीं हूं। मैं एक एक्टिविस्ट हूं।

सीएनएन-आईबीएन - लेकिन मंगलवार कल को आप एक नागरिक समूह के रूप में ही लोगों के सामने आई और सरकारी हिंसा बंद करने की मांग कर रही थी।

अरुंधति राॅय - बिल्कुल। आप इसे उस ऐतिहासिक संदर्भ में देखे कि ऐसा क्यों हुआ। छत्तीसगढ़ जैसी जगहों पर नक्सली 30 सालों से हैं। यह स्थिति अभी क्यों बनी। जैसे की आवाजों की कोई लहर बह रही हो। वास्तविकता यह है और जो मेरा विष्वास भी है कि सरकार जंगलों को साफ करने के लिए युद्ध लड़ना चाहती है। क्योंकि झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में वह कई सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर कर चुकी है और उनकी जरूरतों को पूरा करना चाहती है।

सीएनएन-आईबीएन - गृहमंत्री ने कुछ महीनों पहले सीएनएन-आईबीएन से कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब में कहा था कि सरकार उन क्षेत्रों में विकास कार्य चाहती है, लेकिन जब हम सड़कें बनाते हैं नक्सली उसे ध्वस्त कर देते हैं, हम स्कूल बनाते हैं नक्सली उसे ध्वस्त कर देते हैं। वह सब कुछ ध्वस्त कर देना चाहते हैं। वहां कोई विकास कार्य नहीं होने देना चाहते। आप इसे दोहरा कह सकती हैं, लेकिन यह चिकन या अंडे के कौर जैसी स्थिति है। आप भारत सरकार से क्या उम्मीद कर सकती हैं जब विरोधी ताकत हथियार उठाए हो, पुलिस का सिर कलम कर रही हो और हिंसा की आड़ ले रही हो?

अरुंधति - दांतेवाड़ा के हिमांशु कुमार ने मंगलवार को सूचना के अधिकार के तहत सरकार से पूछा कि नक्सलियों ने कितने आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, शिक्षकों व सामाजिक कार्यों में लगे लोगों की हत्या की। जवाब नहीं में था। क्या मिस्टर चिदम्बरम के विकास का मतलब वहां रह रहे लोगों के विकास से अलग है। मैं दांतेवाड़ा में थी और वहां सड़के बनते देखा। आप बताइए क्या वह सड़क नहीं है, जो आदिवासियों के चलने के लिए बनी है। लेकिन मैं सड़कों के लिए खनन के खिलाफ हूं।

सीएनएन-आईबीएन - तो क्या आप मानती हैं कि उस संदर्भ में हिंसा खत्म होनी चाहिए। वित्त मंत्री को साफ कहना है कि - जब तक माओवादियों के नियंत्रण वाले क्षेत्रों में हिंसा खत्म नहीं हो जाती बातचीत की बाधा दूर नहीं की जा सकती। अब अलबत्ता उन्हें हथियार छोड़ देना चाहिए।

अरुंधति - इसी को मैं कपट कह रही हूं। जब सरकारी बलों पर हमला होता है वह सरकारी बल जिसके पास सेना है, वायुसेना है को देष के सबसे गरीब लोगों का युद्ध मान लिया जाता है। यह कठिन है। लेकिन जब वह चीन से, पाकिस्तान से बात करना चाहते हैं उसका क्या। यह कैसी नीति है?

सीएनएन-आईबीएन -लेकिन हथियार किसके पास है? भारत सरकार कहती है कि नक्सली हथियारों से लैस हैं।

अरुंधति राॅय - सरकार के पास भी हथियार हैं।

सीएनएन-आईबीएन - तो नक्सली क्या करेंगे? वह तो पूरी तरह से हथियारों से लैस हैं।

अरुंधति राॅय - आप यह कैसे कह सकते हैं?

सीएनएन-आईबीएन - आप कह रही हैं कि गरीब लोग मारे जा रहे हैं। लेकिन नक्सली भी अपना नैतिक अधिकार 10-20 साल पहले ही खो चुके हैं, जब कि वो बच्चों की हत्याएं कर रहे थे, महिलाओं की हत्या कर रहे थे। कौन जिम्मेदार है इसके लिए?

अरुंधति राॅय- हिंसा के बारे में यह कोई भी नहीं कह सकती कि यह अचानक पैदा हो गई। दांतेवाड़ा में 644 गांव खाली करा लिए गए हैं। वर्श 2005 से साढ़े तीन लाख लोग गायब हैं।

सीएनएन-आईबीएन - एक हिंसा से दूसरी हिंसा को जायज नहीं ठहराया जा सकता है।

अरुंधति राॅय - बिल्कुल नहीं। लेकिन आप तुलना उनमें कर रहे हैं जहां एक तरफ कुछ के पास हवाई व नाभकिय ताकत है, सेना है, दूसरी तरफ कुछ गरीब लोग हैं।

सीएनएन-आईबीएन - अरुंधति राॅय का कहना है कि कोई आंगनबाड़ी कार्यकर्ता नहीं मारी जा रही, लेकिन हम जानते हैं कि 659 लोग मारे जा चुके हैं। इसमें 259 पुलिसकर्मी व 400 आम नागरिक हैं। तो ग्लैडसन अब अपने मूल प्रष्न पर लौटते हैं। क्या अब आपको कहीं दूर-दूर तक वापस बातचीत की मेज नजर आ रही है?

ग्लैडसन - अब हम सही मुद्दे पर आए हैं। सरकार झारखण्ड में क्यों चीख रही है? मेरा ही उदाहरण लें- मेरे माता-पिता की नृषंस हत्या कर दी गई। बांध के नाम पर 20 एकड़ जमीन ले ली गई लेकिन हमें मुआवजा नहीं दिया गया। अगर मैं नक्सली बन जाता तो इसके लिए कौन जिम्मेदार होता। आज भारत सरकार कल से आगे धावा बोलने जा रही है। सीआरपीएफ झारखण्ड के सबसे कम नक्सल प्रभावित क्षेत्र सिंहभूमि में प्रवेश के लिए तैयार है। वह सिंहभूमि से षुरूआत चाहते हैं। क्योंकि सरकार ने इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा 102 सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए हैं।

सीएनएन-आईबीएन - आप कहना चाह रहे हैं कि सरकार उन काॅरपोरेट व बहुराश्ट्ीय निगमों की ओर से खेल रही है जो खुला जंगल चाहते हैं?

ग्लैडसन - हां-हां।

सीएनएन-आईबीएन - शायद यह कुछ विषेश क्षेत्रों के लिए सही हो लेकिन उन क्षेत्रों के लिए सही नहीं जो छत्तीसगढ़ से पष्चिम बंगाल तक रेड काॅरिडोर तक फेला है।

अरुंधति राॅय - अगर आप इस कथित रेड काॅरिडोर में खनिज संपदा के संग्रहण को देखे तो इसे भी आप सही पाएंगे। जिंदल, टाटा व एसआर, सभी ने सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। जिस साल सलवा-जुडूम षुरू हुआ उसी साल इन सहमति पत्रों पर दस्तख्त किए गए।

सीएनएन-आईबीएन - लेकिन नक्सली लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेते हुए उन मुद्दों को क्यों नहीं उठाते? यही वह बिंदु है जिस पर गृहमंत्री और समय दे रहे हैं ताकि नक्सलियों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से फिर से जोड़ा जा सके। लेकिन यदि वह राज्य में कोई विष्वास ही नहीं रखते तो यह स्वाभाविक ही है कि भारतीय राजसत्ता उन्हें बलपूर्वक इसमें लाए।

अरुंधति राॅय - मैं दो बातें कहना चाहती हूं। एक तो हम 'नक्सली' शब्द का बहुत अगंभीरता से प्रयोग कर रहे हैं। सरकार ने साफ कह दिया है कि जो लोग सलवा जुडुम (जो कि एक रणनीतिक गांव है जिसका उपयोग वियतनाम युद्ध में हुआ था) के साथ हैं या सरकार के खिलाफ हैं।

सीएनएन-आईबीएन - सलवा जुडुम शायद पूर्ववर्ती सरकार की नीति थी। क्योंकि पिछले कुछ सालों से इसके बारे में नहीं सुना जा रहा है। उसी सरकार ने वर्श 2004 से नक्सलियों से बातचीत की दिशा में कदम बढाएं हैं।

अरुंधति राॅय - यही सच नहीं है। वो व्यक्ति जो सलवा जुडुम चल रहा है, वह कांग्रेस का आदमी है। एक नदी है इंद्रावती। उसकी दूसरी तरफ पाकिस्तान है। हम सभी से कहा जा रहा है कि अगर आप नदी पार करते हैं मार दिए जाएंगे।

सीएनएन-आईबीएन - मुख्य सवाल का जवाब दें। नक्सली लोकतांत्रिक प्रक्रिया में क्यों नहीं आना चाहते? हमे भूमि विस्थापन का मुद्दा उठाना चाहिए लेकिन लोकतांत्रिक बातचीत के जरिए।

अरुंधति राॅय - हमे यह देखना चाहिए कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया है क्या? भारतीय चुनाव अमरीकी चुनाव से मंहगा है। 99 प्रतिषत स्वतंत्र उम्मीदवार हार जाते हैं। अधिकतर सांसद करोड़पति हैं। अब आप किसी एक से जैसे ग्लैडसन से कहते हैं कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आइए। जबकि उसके पास मीडिया में जगह खरीदने के लिए धन नहीं है, उसके पास काॅरपोरेट का पैसा नहीं है।

सीएनएन-आईबीएन - आप को लगता है कि चुनावी प्रक्रिया में एक भी ऐसा नहीं है जो आपकी आवाज सुने। यदि वे बहुत लोकप्रिय हैं, उनके मुद्दे जैसे भूमि विस्थापन बहुत नाजुक है, तो वह चुनावी प्रक्रिया में क्यों नहीं आते?

ग्लैडसन - बहुत से विस्थापित लोगों ने पिछली सरकार से बातचीत करनी चाही थी। लेकिन न तो षिबु सोरेन ने न ही राज्यपाल ने उनकी बात सुनी।

सीएनएन-आईबीएन - मैं जानता हूं की गृहमंत्री यह कार्यक्रम देख रहे हैं, क्योंकि हम उनके बारे में बात कर रहे हैं। आप उनसे क्या कहना चाहेंगे।

ग्लैडसन - मैं यही कहना चाहूंगा कि अगर आप नक्सलवाद के मुद्दे को हल करना चाहते हैं तो आपको आदिवासियों के आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक गैरबराबरी को हल करना होगा। तब आप विकास की बात करें।

सीएनएन-आईबीएन - अब यदि मिस्टर चिदम्बरम यह कहे कि यदि आप इन मुद्दों व विकास की बात करते हैं तो बंदूक छोड़े। आइए पहले बंदूके छोड़े और बात करें।

अरुंधति राॅय - आप के पास हजारों की संख्या में सुरक्षाबल है, पूरे क्षेत्र में भारी हथियार है। आप ने कई सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए हैं। यदि आप भारत के नक्षे पर देखें कि खान, जंगल व आदिवासियों का ढेर कहां तो सभी को एक दूसरे के उपर पाएंगे। और यदि आप चैकस हैं, नागरिक सेना गांवों में बलात्कार करे, महिलाओं की हत्या करे, जैसा की सलवा जुडुम की नीति है। और आप कहें की पहले आप बंदूके छोड़ दो फिर हम आए और आपकी जमीनों का अधिग्रहण कर ले, तो इससे आप क्या दिखाना चाहते हैं।

सीएनएन-आईबीएन - तो हम किसी निश्कर्श पर नहीं पहुंचे। एक चल रही हिंसा का जवाब दूसरी हिंसा से दिया जा रहा है।

अरुंधति राॅय - मुझे लगता है कि लोगों से यह वादा किया जाना चाहिए कि कोई विस्थापन नहीं होगा, सभी सहमति पत्र जनता के अनुरूप होंगे। इस क्षेत्र के विकास के लिए एक साफ नीति होनी चाहिए और जिस पर जनता के बीच बहस होनी चाहिए। उनके सुझाव लिए जाने चाहिए जिनके पास कुछ नहीं है। तब कोई बात हो सकती है।

सीएनएन-आईबीएन - तो आप का जवाब सरकार की उस अपील के संबंध में जिसमें नागरिक समूहों से सीपीआई माओवादी को बातचीत के लिए राजी करने के कहा गया है ‘ना’ है?

अरुंधति राॅय - आप ऐसा कैसे कह सकते हैं, मैं ऐसा कहने वाली कौन हूं। इसके लिए सरकार जिम्मेदार है। ये समूह काफी जटिल हैं।

सीएनएन-आईबीएन - आप चाहती है कि सारी जिम्मेदारी खुद सरकार उठाए। नागरिक समूहों व एक्टिविस्टों की कोई जिम्मेदारी नहीं है?

अरुंधति राॅय - हमारी जिम्मेदारी है कि हम इन मुद्दों को उठाएं। लेकिन हम वह नहीं है जिसे जनता ने चुन कर भेजा है।

सीएनएन-आईबीएन - अंत में ग्लैडसन आप क्या कहना चाहेंगे?

ग्लैडसन - देखिए समस्या दो दषक पुरानी है। तब राजीव गांधी ने कहा था कि गरीबों तक सिर्फ 15 पैसा पहुंचता है, आज राहुल गांधी भी वही बात कह रहे हैं। मतलब की अभी तक कुछ नहीं हुआ है।

सीएनएन-आईबीएन - आप कह रहे हैं कि 25 सालों से देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया ठहर गई है?

ग्लैडसन- हां। दूसरी बात यह है कि जब प्रियंका गांधी राजीव गांधी के हत्यारों से मिलती हैं तो वह जनता की मसीहा जैसे पेश की जाती हैं, लेकिन जब कोई विनायक सेन आदिवासियों को इलाज करता है तो वह नक्सलियों का समर्थक बन जाता है। इसे न्यायपूर्ण कैसे कहा जा सकता?

सीएनएन-आईबीएन - यह एक काफी जटिल मुद्दा है जिसे हल करने के लिए काफी समय चाहिए। गहरा अंधेरा है जिसके पार हमे देखने की जरूरत है। कुछ लोगों का मानना है कि यह दुहरा मुद्दा है, एक तरफ नक्सल हैं दूसरी तरफ राज्य है। अरुंधति राॅय जैसे लोगों को शायद गृहमंत्री चिदम्बरम से बातचीत करनी चाहिए। लेकिन इसमें भी निष्चितता की कोई भावना नहीं है। एक आशा है कि कोई समाधान निकलेगा। अब समाधान की जरूरत है लेकिन यह भी जरूरी है कि हिंसा दोनों तरफ से बंद हो।

अनुवाद व प्रस्तुति- विजय प्रताप

सीएनएन-आईबीएन पर बहस की वीडियो देखें Govt at war with Naxals to aid MNCs: Arundhati

हम विकास विरोधी नहीं: कोबाड गाँधी

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य कोबाड गाँधी को पिछले दिनों पुलिस ने दिल्ली से गिरफ्तार कर लिया। उनकी गिरफ्तारी की सूचना मीडिया में आने के बाद उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार गिराने की तैयारी में लगी दिल्ली पुलिस को अपना इरादा बदलना पड़ा। मुंबई के पारसी परिवार में जन्मे गाँधी उस उच्च वर्ग से आते हैं जिसने दून स्कूल, सेंट जेवियर काॅलेज और लन्दन से पढ़ाई की। लंदन से लौटने के बाद उन्होंने कमेटी फार प्रोटेक्षन आफ डेमोके्रटिक राइटस (सीपीडीआर) के माध्यम से बदलाव की राजनीति में कदम रखा। बीबीसी बांग्ला की संवाददाता सुवोजित बाग्ची ने पिछले साल उनका एक साक्षात्कार लिया था। प्रस्तुत है उस साक्षात्कार का हिंदी अनुवादः

क्या माओवादी छत्तीसगढ़ में खुद को आगे बढ़ाने के लिए आदिवासियों को शिक्षित करने में जुटे हैं?
हम मोबाइल स्कूल के माध्यम से आदिवासियों को प्राथमिक शिक्षा देने की कोशिश कर रहे हैं। बच्चों को प्राथमिक स्तर पर विज्ञान, गणित व स्थानीय भाषा सीखा रहे हैं। हमारे लोग पिछड़े लोगों के लिए विशेष कोर्स तैयार करने में लगे हैं जिससे वह जल्दी सीख सकते हैं। हम स्वास्थ्य सेवाओं के विकास पर भी जोर दे रहे हैं। आदिवासियों को पानी उबाल कर पीने की सलाह देते हैं। इससे 50 प्रतिशत बीमारियां खुद ही कम हो जाती हैं। कई और गैर सरकारी संगठन भी ऐसा कर रहे हैं। महिलाओं के स्तर में सुधार के प्रयास किए हैं जिससे शिशु मृत्यु दर में कमी आई है। इस क्षेत्र में विकास का स्तर सब सहारन अफ्रीका की तरह है।

तो क्या आप यह कह रहे हैं कि माओवादी लोगों की हत्या की बजाए उनकी मदद करते हैं?
हां। लेकिन हमारे देश के प्रधानमंत्री हमे मौत का कीड़ा (डेडलीस्ट वायरस) मानते हैं।

आप ऐसा क्यों सोचते हैं?
विकास के बारे में हमारी बिल्कुल साफ अवधारणा है। हमारा मानना है कि भारतीय समाज अर्ध सामंती व अर्ध औपनिवेषिक राज्य है और इसे लोकतांत्रिक बनाने की जरूरत है। इसके लिए पहला कदम होगा कि जमीन जरूरतमंद को मिले। इसलिए हमारी लड़ाई भूमि हथियाने व गरीबों का शोषण करने वालों से है। हमारा विशेष ध्यान ग्रामीण भारत पर है।

छत्तीसगढ़ में आप लोगों को इतने संगठित रूप में कैसे जोड़े रखते हैं?
इसका एक मुख्य कारण है हम श्रम के सम्मान की बात करते हैं। उदाहरण के लिए यहां ग्रामीण बीड़ी बनाने के लिए तेंदू पत्ता इकट्ठा करते हैं। करोड़ों डाॅलर में यह उद्योग चल रहा है। हमारे यहां आने से पहले आदिवासियों की दैनिक मजदूरी 10 रुपए से भी कम थी। यहां भारत सरकार द्वारा तय दैनिक मजदूरी दूर की कौड़ी थी। हमने ठेकेदारों को मजबूर किया कि वह मजदूरी बढ़ाएं। हमने मजदूरी 3 से 4 गुना बढ़वाई। इसलिए लोग हमें पसंद करते हैं।

लेकिन इसका कारण यह भी है कि आपके पास सशस्त्र बल है?
मैं उसके बारे में कुछ ज्यादा नहीं बता सकता। क्योंकि मैं उस शाखा से नहीं जुड़ा हूं और उनके सदस्यों को भी नहीं जानता।

आप विकास की बात कर रहे हैं। क्या आप अपने प्रभाव वाले क्षेत्र में सरकारी विकास कार्यों के लिए छूट देंगे?
क्यों नहीं। हम विकास कार्यों का विरोध नहीं करते। उदाहरण के लिए हमने कुछ स्कूलों के निर्माण का विरोध नहीं किया। लेकिन यदि स्कूल सैन्य छावनी में बदलने के लिए बनाए जा रहे हैं तो हम इसका विरोध करते हैं। भारत में ऐसा कई बार हो चुका है।

आप बंदूक के बल पर राजनीति करते रहेंगे?
बंदूक कोई मुद्दा नहीं है। उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे राज्यों के कई गांवों में इतनी बंदूके हैं, जितना पूरे देश मे माओवादियों के पास नहीं होंगी। सरकार और कुछ वर्ग हमारी विचारधारा से डरते हैं इसलिए हमें अपराधी की तरह पेश किया जाता है।

क्या माओवादियों के खिलाफ राज्य प्रायोजित हमले से आपके गढ़ का सुरक्षित रहना संभव है?
लड़ाई मुष्किल है। पूंजीवाद व सत्ता एक दूसरे में घुले-मिले हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था आर्थिक संकट के दौर से गुजर रही है और शोषण के मामलों में वृद्धि हो रही है। हम इसे संगठित करने में लगे।

आप कभी मुख्यधारा की राजनीति में भाग लेंगे?
नहीं। क्योंकि हम ऐसे लोकतंत्र में विष्वास करते हैं जो लोगों का सम्मान करे और उसे स्थापित करना इस देश में संभव नहीं।

साक्षात्कार को मूल रूप में पढ़ने के लिए क्लिक करें कोबाड गाँधी

अनुवाद व प्रस्तुति : विजय प्रताप

आम चुनाव ऊर्फ ऐसा देश है मेरा

दुष्यंत

नहीं, ये किसी विशेषज्ञ की राय नहीं है, राजनीतिक राय तो हरगिज नहीं. आप चाहें तो इसे एक आम आदमी के नोट्स मान सकते हैं.बुनियादी परन्तु सतही बात से शुरू करुं तो राजस्थान में लोकसभा की 25 सीटें हैं, जिन पर 7 मई को मतदान होगा.पिछले लोकसभा चुनाव में 21 पर भाजपा जीती थी तो 4 पर कांग्रेस. इस बार भाजपा और कांग्रेस हर बार की तरह सभी सीटों पर चुनाव लड़ रहें हैं. बसपा की हवा इसलिए निकली हुई है कि सभी 6 विधायकों ने सत्तारूढ कांग्रेस में जाने का हाल ही में निर्णय ले लिया.खैर ये तो हुई सामान्य बात, अब कुछ अलग ढंग से देखा जाये, अपनी चार यात्राओं का सन्दर्भ लूंगा. एक महीने में अपने गृह क्षेत्र की दो यात्रायें, एक यात्रा मारवाड़-पाली क्षेत्र की और एक साल भर पहले की दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र की.मेरा गृह क्षेत्र है उत्तरी राजस्थान यानी गंगानगर और हनुमानगढ़ ..पाकिस्तान की सीमा से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर अपने खेतों को छूने की हसरत से गया. कोई पिछले ढाई दशक से जब से होश संभाला है, इस गाँव और खेत के मंजर को देखते आया हूँ. लोग कहते हैं बहुत कुछ बदला है. मुझे पता है, बदला तो बहुत कुछ...ऊँटों की जगह ट्रेक्टर आ गए. पहले फोन घरों में आये फिर हाथों में मोबाइल आ गए. पढी लिखी बहुंए आ गयी, हर घर में कम से कम एक दोपहिया फटफटिया ज़रूर है. कोई साढे तीन दशक पहले मेरे गाँव से तीन किलोमीटर दूर के पृथ्वीराजपुरा रेलवे स्टेशन से जो अंग्रेजों के जमाने का है; से मेरी मां दुल्हन के रूप में ट्रेन से उतरकर ही इस गांव तक आयी थी. मेरे बचपन में गाँव तक शहर से बस जाती थी, कोई पांच बसें. यही पांच वापिस लौटती थीं, सब की सब बंद हो गयी हैं. अब सिर्फ टेंपो चलता है, बिना किसी तय वक्त के, जब भर दिया तो चल दिया...! बचपन में जहां मेरे गाँव में बीड़ी और हुक्के के अलावा कोई चार पांच लोग शराब पीते होंगे, अब तरह-तरह के नशे युवाओं की जिन्दगी में शामिल हैं, जिन्होंने उन शराबियों को तो देवता-सा बना दिया दिया है. और ये हालत कमोबेश आसपास के हर गाँव की है. हमने तरक्की के कितने ही रास्ते तय किये हैं! मेरे पिता गाँव के जिस सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़े थे दसेक साल पहले वो मिडिल हो गया था. पर अब उसमें बच्चे नाम को हैं. मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आने वाले दो चार सालों में वो बंद हो जाये. सुना है उसमें मास्टर सरप्लस हैं. ये भी तरक्की है कि नाम के अंग्रेजी या पब्लिक स्कूलों में कम पढ़े-लिखे मास्टरों के पास बच्चों को भेजकर गाँव खुश है.
नरेगा है पर गाँव में भूख भी है। स्कूल है, पढाई है पर बेरोजगारी भी है। नयी पीढी ने खेत में हाथ से काम करना बंद कर दिया है , तीजिये चौथिये पान्चिये से ही काम होता है. भारत चमकता है जब सफ़ेद झक्क कुरते पायजामे में पूरे गाँव के लोग दिखते हैं. किसी की इस्त्री की क्रीज कमजोर नहीं है॥अद्भुत अजीब से आनंद हैं ॥ कागजी से ठहाके हैं...भविष्य कुछ भी नहीं पता. एक और बदलाव आते देखा है छोटे किसानों की ज़मीनों को कर्ज निपटाने के लिए बिकते और फिर उनको मजदूर बनते भी देखा है.. मुहावरे में कहूं तो कर्ज निपटाने में जमीन निपट गई और अब खुद भी कब निपट जाए, कौन जानता है? कर्ज से मुक्ति की चमक उनकी ऑंखों में ज्यादा है या कि ऑंखों के कोरों से कभी आंसू बनके टपकता अपनी ज़मीन जाने का दर्द बड़ा है ..मैं सोचता रहता हूँ.. वो भी आजादी का मतलब ढूंढते हैं शायद.मध्य राजस्थान का मारवाड़ का इलाका यूँ तो बिजी जैसे लेखक के कारण स्मृतियों में है पर इन सालों में कई बार जाना हुआ है... पाली के एक इंटीरियर इलाके में किसी पारिवारिक कारण से जाता हूँ. दूर तक हरियाली का नामों निशान नहीं. चीथड़ों में लोग दीखते हैं. जीप का ड्राईवर कहता है- साब यहाँ का हर गरीब सा दिखने वाला करोड़पति है..विश्वास नहीं होता. वो कहता है-हर घर से कोई न कोई मुंबई, सूरत या बैंगलोर नौकरी करता है...यहाँ खेती तो है नहीं साहब...! मुझे उसकी बात कम ही हजम होती है..क्योंकि मुनव्वर राणा का शेर कभी नहीं भूलता कि बरबाद कर दिया हमें परदेश ने मगर, मां सबसे कह रही है बेटा मजे में है दूर तक..या तो ये ड्राइवर उसी थव से कह रहा है या कि अपने लोगों की बेचारगी-मुफलिसी का मजाक नहीं बनने देता. दरअसल सच तो ये ही है ना कि दूर तक बियाबान है. किसी हड्डी की लकड़ी-सी काया पर ऊपर रखी हुई लोगों की आंखें किसी परदेसी की जीप का शोर सुनकर चमकती है..मैं उसमें साठ साल की आजादी का मतलब ढूंढता हूँ. जिस नज़दीक के रेलवे स्टेशन मारवाड़ जंक्शन पर उतरता हूँ और फिर जहाँ से वापसी में जोधपुर के लिए ट्रेन लेता हूँ, उसके अलावा कोई साधन नहीं है, ये भी बताया जाता है. कुल मिलाकर एक अलग भारत पाता हूँ.. जो जयपुर में बैठकर सचिवालय में टहलते, कॉफी हाउस में अड्डेबाजी करते, मॉल्स में शॉपिंग करते, हर हफ्ते एक न एक फिल्मी सितारे को शूटिंग, रिबन काटने, किसी की शादी या अजमेर की दरगाह के लिए जाते हुए की खबर पढते हुए सर्वथा अकल्पनीय है.
एक साल पहले बांसवाड़ा के घंटाली गाँव में आदिवासी संसार को देखने के अभिलाषा में गया था। सामाजिक कार्यकर्ता और कम्युनिस्ट नेता श्रीलता स्वामीनाथन मेरी होस्ट थीं.
इलाका जितना खूबसूरत लोग उतने ही पतले दुबले मरियल... अल्पपोषण के शिकार...खेती नाममात्र को॥आय का कोई जरिया नहीं..भाई आलोक तोमर की किताब एक हरा भरा अकाल के सफे जैसे एक-एक कर ऑंखों के सामने खुल रहे थे..कालाहांडी का उनका शब्दचित्र अपने राजस्थान में सजीव होते पाया। हरियाली वाह...अति सुन्दर पर लोगों का जीवन...बेहद मुश्किल .. हालाँकि जीने की आदत डाल लेना इंसानी खासियत भी है और मजबूरी भी, इंसान इन क्षणों में भी मुस्कुराने के अवसर खोज लेता है.
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बदलेगी ब्लाग की परिपाटी

शाहनवाज आलम

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में केरल के एक ब्लागर की रिट खारिज कर दी। याचिकाकर्ता ने अपने उपर एक राजनैतिक पार्टी द्वारा लगाए गए अपराधिक धमकी और किसी समुदाय के विश्वास को ठेस पहुचाने जैसे गंभीर आरोपों को खारिज करने की अपील की थी। उसका तर्क था की ब्लाग पर लिखे गए उसके शब्द सार्वजनिक नहीं थे बल्कि ब्लागर समुदाय के लिए लिखे गए थे। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद ब्लागर्स की दुनिया के एक हिस्से में जहां हड़कम्प मच गया है वहीं दूसरी ओर इसकी दिशा और दशा पर भी गंभीर बहस शुरु हो गई है।

दरअसल एक सशक्त वैकल्पिक मीडिया के बतौर उभर सकने वाले जनसंचार के इस नए अवतार पर हमारे यहां शुरु से ही अगंभीर और कुंठित लोगों ने कब्जा जमा लिया था। जिनके लिए ब्लाग सिर्फ अपनी निजी कुंठाएं परोसने और तू तू-मैं मैं करने का मंच बन गया। नहीं तो जिस ब्लागिंग ने अमरीकी साम्राज्यवादी मंसूबों और उसके अफगानिस्तान और इराक के मानव सभ्यता को नष्ट करने की नीति के खिलाफ जनता के बीच सबसे ज्यादा जनमत तैयार किया। यहां तक कि उसे सड़क पर उतरने तक को मजबूर कर दिया। उसमें अपने देश में भी जनता के सरोकारों से जुड़ने की असीम संभावना थी। हालांकि कुछ ब्लागर आम जनता से जुड़े सवालों को अपने यहां जरुर तरजीह देते हैं लेकिन उनके नितान्त व्यक्तिगत और गैरराजनैतिक दृष्टिकोण के चलते वो वैसा राजनैतिक-सामाजिक स्वरुप अख्तियार नहीं कर पा रहे हैं जैसा कि उनके अमरीकी और यूरोप के ब्लागर साथी कर रहे हैं। हालांकि इस समस्या को हम सिर्फ ब्लागिंग की समस्या मान कर इसे नहीं समझ सकते। हमें इसे व्यापक पत्रकारिता के संकटों से ही इसे जोड़ कर देखना होगा। क्योंकि यह उसी की उपज है। ऐसा इस लिए कि आज जितने भी ब्लागर्स हैं उनमें ज्यादातर पेशेवर पत्रकार हैं। जो इस दुहाई के साथ ब्लागिंग शुरु करते हैं कि वे अपने संसथान में मनमुताबिक काम नहीं कर पाते। लेकिन जब वे ब्लागिंग करने बैठते हैं तब भी मुख्यधारा की मीडिया की मनोदशा से बाहर नहीं आ पाते और उनका पूरा लेखन सतही और व्यक्ति केन्द्रित कुण्ठा का नमूना बन जाता है। इसी वजह से आज तक हमारे यहां कोई भी ब्लाग किसी सार्थक बहस की वजह से कभी चर्चा में नहीं आया। उपर से टीआरपी मानसिकता भी उन्हें ब्लागिंग को एक छछले और फूहड़ टैबलाइट के रुप में ही स्थापित करने को प्रेरित करती है। जिसके चलते गंभीर और राजनैतिक महत्व के मुद्दों पर बहस चलाने वाले ब्लागर्स ब्लाग की मुख्यधारा में नहीं आ पाते। वहीं ऐसे लोगों की एक बड़ी जमात अपने को इस फूहड़पने के चलते ब्लाग से दूर रहने में ही अपनी इज्जत समझता है।

इस रोशनी में देखा जाय तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूरगामी महत्व का है जिसका भविष्य की पत्रकारिता पर सकारात्मक असर पड़ना तय है। क्यों कि आने वाला दौर वेब मीडिया का ही है जिसकी साख का आधार उसके मुख्यधारा की मीडिया के सतहेपन के समानांतर खड़ा होना ही होगा।

इस नीलामी के बड़े मायने हैं

शाहनवाज़ आलम

पिछले दिनों न्यूयार्क में जिस तरह मशहूर शराब व्यापारी विजय माल्या ने जीवनपर्यन्त शराबबन्दी की मुहिम चलाने वाले महात्मा गांधी के सामानों के सबसे उंची बोली लगा कर खरीदा और उनकी स्वदेश वापसी करायी क्या वो एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना मात्र थी या वो एक खास तरह की सचेत कवायद जो इधर भूमंडलीकरण के दौर के साथ शुरु हुई है उसी का एक और सफल प्रयोग था। जिसका केंद्रीय विमर्श राज्य का सिर्फ एक फेसिलिटेटर होना और बाह्य विमर्श जनता द्वारा चुनी गई सरकार बनाम काॅरपोरेट है। यह पूरा प्रकरण इस कवायद का हिस्सा इसलिए भी लगता है कि हमारी सरकार के पास नौ करोड़ रूपयों का टोटा तो नहीं ही हो सकता था जिसके चलते वो नीलामी में खुद नहीं पहुंच पाई।

दरअसल पिछले दो दशकों से सुनियोजित और चरणबद्ध तरीके से राज्य को अक्षम साबित करने की जो मुहिम चल रही है उसी के तहत ऐसी घटनाओं को अन्जाम दिया जाता है। जिसमें किसी घटना विशेष के समय ऐसा माहौल बना दिया जाता है जिससे जनता को लगने लगे कि अगर विजय माल्या जैसे काॅरपोरेट नहीं रहते तो सरकार तो हमारी नाक ही कटवा देती। ऐसा करके जहां एक ओर काॅरपोरेट निगमों और उनके मालिकों को राष्ट्र उद्धारक के बतौर प्रस्तुत होने का मौका दिया जाता है वहीं सरकार की निकम्मी और अपने प्रतिस्पर्धी यानि निजी क्षेत्र के बड़े पूंजीपतियों के मुकाबले कमजोर और राष्ट्रीय अस्मिता के प्रति संवेदनहीन दिखने वाली छवि भी निर्मित की जाती है। इस सिलसिले में हम मीडिया खासकर इलेक्ट्रनिक चैनलों की भाषा, फुटेज और एंकर का सरकार के प्रति हिकारती उपमाओं भरा सम्बोधन और माल्या के प्रति देश को एक महान विपत्ति से निकाल लाने वाले महापुरूष वाले शाष्टांगी भावों को जैसे माल्या ने बचाई देश की लाज या माल्या नहीं होते तो क्या होता को याद कर सकते हैं।

एक ही साथ सरकार के अक्षम होने और काॅरपोरेट मालिकों के राष्ट्र उद्धारक होने की जो छवि निर्मित होती है उसमें एक ऐसा सामाजिक-राजनीतिक माहौल बनता है जिसमें नवउदारवादी एजेंडा एक झटके में ही काफी आगे बढ़ जाता है। मसलन अगर इसी प्रकरण में देखे तो जो विजय माल्या राजनीति और क्रिकेट में निवेश के बावजूद अपनी सुरा और सुंदरी प्रेम के चलते समाज के एक बड़े हिस्से में स्वीकार्य नहीं थे आज इस नीलामी के बाद अचानक राष्ट्रभक्ति के प्रतीक बन गए हैं। नवउदारवाद ऐसे ही राष्ट्रीय प्रतीक गढ़ना चाहता है, उसकी राजनीति इन्हीं प्रतीकों के सहारे आगे बढ़ती है।

लेकिन यहां गौर करने वाली और नवउदारवाद की कार्यनीति को समझने वाली बात यह है कि इस पूरे खेल को सरकार खुद रचती और अपने ही खिलाफ अपने कमजोर और अक्षम होने की छवि निर्मित करती है। ऐसा उसे रणनीतिक तौर पर इसलिए करना होता है ताकि वो अपने को काॅरपोरेट से तुलनात्मक रूप से कमजोर दिखाए और जनमत के एक बड़े हिस्से को जो अभी भी सरकार की तरफ हर मुद्दे पर उम्मीद भरी नजर से देखता है में अपने खिलाफ बहस खड़ी करके दूसरे पाले में सरकने का बाध्य कर दे।

इस पूरे प्रकरण में सरकार की इस रणनीति को साफ-साफ देखा जा सकता है। सरकार को बहुत पहले से मालूम था कि गांधी जी के सामानों की नीलामी होने वाली है, जिसका प्रचार पूरे जोर-शोर से इंटरनेट पर कई दिनों से चल रहा था। बावजूद इसके सरकार चुप्पी साधी रही और विजय माल्या जिनको आजकल देशभक्त बनने का दौरा चढ़ा हुआ है जिसके तहत उन्होंने कुछ सालों पहले ही इंग्लैंड की किसी संस्था से टीपू सुल्तान की तलवार भी खरीदी है को पूरा मौका दे दिया। नहीं तो क्या जो सरकार जनता की घोर नाराजगी के बावजूद अमेरिका से नैतिक-अनैतिक सम्बंध बनाने पर तुली हो उसके लिए इस नीलामी को अपने राष्ट्रहित में रूकवाना या अपने उच्चायोग के माध्यम से उसमें शामिल होना कोई मुश्किल काम था। दरअसल सरकार शुरु से ही इस खेल में माल्या को वाकओवर देने की रणनीति बना चुकी थी। जिसकी तस्दीक निलामी करने वाली एंटीएक्वेरियम आॅक्शन कम्पनी द्वारा औपचारिक तौर पर जारी बयान है कि भारत सरकार ने इन वस्तुओं की नीलामी रोकने का कोई अनुरोध नहीं किया था जिस आशय का ईमेल पत्र तुषार गांधी के पास सुरक्षित है। बावजूद इसके सरकार ने संस्कृति मंत्री से यह कहलवाकर अपनी और किरकिरी करवाई कि विजय माल्या उसी के कहने पर नीलामी में शामिल हुए हैं। जिससे विजय माल्या ने साफ इनकार करते हुए इस नूरा कुश्ती में सरकार को चित कर दिया। इस पूरे खेल में सबसे गौर करने वाली बात यह रही कि पक्ष-विपक्ष किसी भी राजनीतिक दल की तरफ से चुनावी मौसम होने के बावजूद सरकार के रवैये पर उंगली नहीं उठाई गई। ये करिशमा इसलिए संभव हुआ कि सभी पार्टियां इस नए तरह के सामाजिक-राजनीतिक चेतना को तैयार करने और उसके लिए राष्ट्रभक्ति का प्रतीक गढ़ने पर एकमत हैं। जिसके तहत उन सब ने मिलजुल कर विजय माल्या समेत उन जैसे कई प्रतीकों को बहुत पहले ही संविधान में संशोधन कर पिछले दरवाजे से संसद में बुला लिया है। इस पूरी प्रक्रिया से जो चेतना निर्मित होती है वो घोर अराजनीति और हर मसले के हल के लिए काॅरपोरेट की तरफ निहारने वाली होती है। जिसमें पूरे राजनीतिक व्यवस्था को नकारने की प्रवृत्ति कभी भी वीभत्स रूप अख्तियार कर सकती है। जैसा कि हम मुम्बई के ताज होटल पर हुए आतंकी हमले की प्रतिक्रिया में देख चुके हैं। जब मध्यवर्ग के एक प्रभावशाली तबके ने अपनी असुरक्षाबोध का ठीकरा सरकार पर फोड़ने के बजाय पूरे राजनैतिक ढांचे पर ही प्रश्नचिन्ह् लगाते हुए चुनाव में वोट न डालने की धमकी दे डाली।

विजय माल्या के राष्ट्र उद्धारक बनने की परिघटना इस प्रवृत्ति को और मजबूत करेगी। जिसकी परिणति जैसा कि कई देशों में हुआ है, एक ऐसे राज्य के स्वरूप में होगी जहां यह समझ पाना मुश्किल होगा कि उसे कोई सरकार चली रही है या काॅरपोरेट। दरअसल सरकार और काॅरपोरेट यही चाहते भी हैं।

दुनिया का सबसे बडा पब्लिक रिलेशन स्कैम है

भारत को विश्र्व का सबसे पसंदीदा लोकतंत्र बनाना : अरुंधती राय
परमाणु करार पर हुई पूरी नाटकबाजी और तमाशे के दौरान यह भी हुआ-संसद में वह बात सबके सामने ला दी गयी, जो ढंके छुपे अरसे से होती रही है। हम संसद के प्रति इसलिए आभारी हैं की उसने एक बार फिर, और इस बार बिना किसी छिपाव के, अपने को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया। हमने लोकतंत्र को एक बार फिर एक बेहद मंहगे तमाशे के रूप में घटित होते देखा। एक ऐसा लोकतंत्र, जिसमे देश को गुलामी की कुछ और सीढियां चढानेवाले समझौते पर उस देश की तथाकथित सर्वोच्च संस्था-ख़ुद संसद को ही कुछ कहने-करने का अधिकार नहीं है। और दूसरी बात यह की, भले संसद को कुछ करने का अधिकार भी होता, फिर भी क्या एक ऐसी व्यवस्था स्वीकार्य हो सकती है, जिसमें वोट खरीद लिए जाते हों और इस आधार पर संसद चलती हो? इस पर आगे भी कुछ आयेगा, अभी हंस के अप्रैल अंक में छपे अरुंधती राय के इंटरव्यू, जिसे पुण्य प्रसून वाजपेयी ने लिया

प्रसून वाजपेयी : सबसे पहले यही जानना चाहेंगे...जो कुछ हमारे इर्द-गिर्द हो रहा है...अचानक एक बडा सवाल आ गया है कि देश बांटा जा रहा है भाषा के नाम पर, रोजगार के नाम पर...देश बांटा जा रहा है अपनी राजनीति के अस्तित्व के नाम पर कि हम हैं...यह कैसा संकट...?
अरुंधति राय : इसके बीज बहुत पहले ही हमने जमीन में गाड दिये थे...हमने से मतलब हमारे बडे सरकारी लोग...उसका पूरा परिणाम अब सामने आ रहा है...लेकिन 1990 में जब मनमोहन सिंह ने उदारीकरण की तैयारी शुरू की, उसी समय 1989 में राजीव गांधी ने बाबरी मसजिद का ताला खोल दिया...इसी समय से ये दोनों साथ-साथ चले आ रहे हैं...और अब उसका नतीजा बहुत ही पास आ गया है...उदारीकरण का परिणाम यह हुआ कि हमारा अपर कास्ट और मिडिल एंड अपर क्लास भारत से अलग हो गया...उनका अपना एक पूरा यूनिवर्स बन गया...उसमें अपना मीडिया, अपनी कहानी, अपनी अर्थव्यवस्था, अपना सुपर मार्केट, अपना मॉल, अपनी ट्रेजेडी और अपना आंदोलन भी है...जैसे यूथ फॉर इक्वलिटी जैसे संगठन...जो समझते हैं कि निचली जातियों के लोग ऊंची जातियों को दबा रहे हैं...या जस्टिस फॉर जेसिका जैसा आंदोलन जो इंडिया गेट पर मोमबत्तियां जला कर अपना विरोध दर्ज कराता है...तो इनकी एक अलग दुनिया बन गयी है...वहीं बाकी लोग एक दूसरी तरह की लडाई लड रहे हैं. इनमें मतभेद भी हैं. जैसे गांधीवादी आंदोलन, नक्सलवादी व माओवादी आंदोलन...इनमें बहस चल रही है. कुछ साल पहले मैं संयुक्त राष्ट्र के एक कार्यक्रम में गयी थी. मैंने उनसे कहा कि पिछले दिनों भारत में लाखों लोग विस्थापित हुए हैं. तो उन्होंने कहा कि आप इंडिया के बारे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ न कहें...क्योंकि यह विश्र्व का पसंदीदा लोकतंत्र है...मुझे लगता है कि जो सबसे बडा एक पब्लिक रिलेशन स्कैम हुआ है...वह इस बात का प्रचार है कि दुनिया में इंडिया ही एकमात्र वह देश है, जहां सबसे जीवंत लोकतंत्र है...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : आपने एक अच्छी बात कही है कि लोकतंत्र के पैमाने से संयुक्त राष्ट्र भी मानता है और दुनिया भी...कि सबसे बेहतरीन लोकतांत्रिक देश भारत है...आपने मनमोहन सिंह का नाम लिया...राजीव गांधी और अयोध्या मुे का जिक्र किया...आपको नहीं लगता कि भारत की संसदीय राजनीति में उस क्लास का भी प्रतिनिधित्व है...फिर उसमें गडबडी कहां पर आ रही है....वह भी उसी राजनीति का हिस्सा बनना चाहता है, जिस राजनीति में आप बता रही हैं कि अपर और मिडिल क्लास की एक अलग दुनिया हो चली है...और दूसरी ओर लोअर क्लास है, जिसकी दुनिया बिल्कुल अलग है...उसके इरादे अलग हैं...
अरुंधति राय : नहीं...पर इनको मैनेज करने का तरीका निकाला है...जो लोअर क्लासेज हैं...जैसे आप इतिहास में देखें...तो उपनिवेशवाद क्या था...जब यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई...तो रॉ मेटेरियल निकालने अफ्रीका और अमेरिका गये...जहां पर बडे-बडे जेनोसाइड (नरसंहार) हुए...इंडिया में दूसरे तरह से एक तरह का रिवोल्यूशन हो रहा है...यहां पर जो क्लास आगे बढा है, वह ऊपर आसमान से नीचे देख रहा है...कि हमारा बॅक्साइट, हमारा आयरन, हमारा पानी...और जब आप यह सब निकालोगे तो जो लोग वहां रह रहे हैं...वे इस इकोनॉमी के काम के नहीं है...क्योंकि पूरा मेकैनाइजेशन चल रहा है...जितना ग्रोथ है, उतना रोजगार का ग्रोथ नहीं है...अभी हाल ही में एक अर्थशास्त्री बता रहे थे कि टाटा आर्थिक रूप से पांच गुना बडा हो गया है, लेकिन काम करनेवालों की तादाद आधी हो गयी...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : न्यू इकोनॉमी को पूरी दुनिया में इसी रूप में डिफाइन किया जा रहा है.
अरुंधति राय : इस नयी इकोनॉमी के लिए ये लोग फालतू हैं, ये उसके किसी काम के नहीं हैं. अब इनका किया क्या जाये. बहुत-सी चीजें हैं. प्राथमिक स्तर पर उनको, उनकी जमीन, उनके संसाधनों से बेदखल कर गांवों से शहरों की ओर विस्थापित कर दिया जाये.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : आपने इन चीजों को सामाजिक नजरिये से बहुत देखा है...राजनीतिक नजरिये से हम समझना चाह रहे हैं. आज अचानक नजर आ रहा है बीजेपी और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां फेल हो रही हैं. क्षेत्रीय पार्टियां अचानक आगे बढ रही हैं. और देश में गंठबंधनवाला पहलू भी सामने आता है. क्या यही सारी गडबडियां हैं. जिस दिशा में आप ले जा रही हैं...जो एक बडी वजह है कि जो क्षेत्रीय पार्टियां हैं, उनमें से मायावती निकल कर आती हैं, पासवान और लालू निकल कर आते हैं, उधर करुणानिधि निकल कर आते हैं...नरेंद्र मोदी भी एक झटके में नेशनल बजट को खारिज करते हैं और वे इसकी बात करते हैं कि यह राज्य का बजट है...स्टेट डेवलपमेंट का पहलू यह है...केंद्र से वित्त मंत्री जाते हैं और बोलते हैं कि मोदी जो गुजरात को दिखा रहे हैं, वह फेक है. असल विकास तो केंद्र ने किया है. तो जो टकराव शुरू हुआ है...उसकी वजह क्या है?
अरुंधति राय : ये जो पूरे संसाधनों पर कब्जा हो रहा है...उसका नतीजा यह होगा कि बहुत तरह की क्षेत्रीयता उभर कर सामने आयेगी. गुजरात को देखें तो नर्मदा की लडाई और वहां पर फासीवाद का उभर कर सामने आना...यह अकस्मात नहीं हुआ...आप कह सकते हैं कि मुझे पूरे देश से मतलब नहीं...हमें तो केवल इससे मतलब है. और हमें अधिकार है कि हम यह हासिल करेंगे. तो यह जो पूरा विभाजन हो रहा है, उसमें रिजनल पार्टियां एक लेवल पर, हिंदू-मुसलिम का सवाल दूसरे लेवल पर...जातियों का विभाजन, माओवादियों की लडाई सब शामिल हैं...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : नर्मदा की लडाई जो लडते हैं, वे सरकार की नजर में माओवादी भी हो गये थे. लेकिन अलग-अलग आंदोलन जहां भी चल रहे हैं, आपको क्या लगता है. आपके कई अस्पेक्ट हमने देखे हैं...आपके लेखों में आता है कि जहां भी आंदोलन हो रहा है, उसको स्टेट डिफाइन करता है आतंकवाद के पहलू से...आंतरिक सुरक्षा के नाम पर आतंकवादी भी हो जाते हैं...नक्सलवादी भी हो जाते हैं...क्या यह पॉवर्टी है? यदि आपके साथ पॉवर्टी जुडी है, तो आपको आतंकवादी के तौर पर लिया जा सकता है.
अरुंधति राय : अभी तक आतंकवाद को इसलामिक आतंकवाद के लिए प्रयोग किया जाता रहा है. लेकिन अब स्थिति यह आ गयी है कि केवल इसलामिक आतंकवाद का नाम लेने से काम नहीं चलेगा. क्योंकि किसी को आतंकवादी कहने के लिए उसका मुसलमान होना जरूरी है...अब जब आप किसी को माओवादी कहते हैं तो वह कोई भी हो सकता है. मैं भी हो सकती हूं, आप भी हो सकते हैं. जैसे पूरी तरह से गलत आरोप लगा कर विनायक सेन को जेल में रखा गया है. ये जो एक्सटैक्टिव/डिस्टैक्टिव इकोनॉमी है, जिस दिन टाटा और एस्सार ने छत्तीसगढ सरकार के साथ एमओयू साइन किया...उसके अगले दिन सलवा जुडूम घोषित हो गया. और अभी हमने सुना कि एक कानून आनेवाला है कि अगर आपने दो साल तक अपने खेत में खेती नहीं की तो इस जमीन को गैर कृषि कार्य के लिए डाइवर्ट कर दिया जायेगा...अब 640 गांवों को खाली करके लोगों को पुलिस कैंप में रखा गया है. कहा गया, या तो आप हमारे साथ सलवा जुडूम में हैं...नहीं तो आप माओवादी हैं...जिन गांवों को खाली कराया गया है, वहां आयरन ओर के लिए मल्टीनेशनल्स की निगाहें बॅक्साइट की खानों पर हैं...लोगों को वहां घरों से निकाला जा रहा है...अब क्या होगाङ्क्ष किसी भी प्रतिरोध को आप कहेंगे कि आतंकवाद है...कहा जा रहा है कि या तो आप हमारे साथ हैं, नहीं तो विरोध में...तो आप ऐसी स्थिति के लिए मजबूर कर रहे हैं...उसके बाद आप खतरनाक कानून पास कर रहे हैं...जैसे छत्तीसगढ स्पेशल सेक्योरिटी एक्ट...जिसके आधार पर हर व्यक्ति को अपराधी ठहराया जा सकता है...सरकार को केवल यह तय करना है कि किसको गिरफ्तार करना है...इस एक्ट में कोई भी नहीं बच सकता...इसमें यह साबित नहीं करना होगा कि अरुंधति राय माओवादी हैं...आप किसी को भी उठा सकते हैं...किसी को मृत्युदंड दे सकते हैं...सात साल की जेल भी दे सकते हैं...यहां तक कि स्टेट के खिलाफ सोचना भी अपराध है इस एक्ट में...तो एक ऐसा माहौल आ गया है कि किसी भी तरह के प्रतिरोध को माओवादी आतंकवाद कहके आपलोगों को बंद करा सकते हैं...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : हमने जहां से बात शुरू की है कि भारत में लोकतंत्र दुनिया देखती है...और हिंदुस्तान में जिस रूप में संसद बनती है...उसमें तो आमलोगों की भागीदारी होती है...क्या यह पूरा फेक प्रोसेस है...
अरुंधति राय : हम यह नहीं कह सकते कि सब कुछ फेक है...यह बहुत ही एक्स्ट्रीम पोजीशन होगी...पर मैं सोचती हूं कि 1970 में लैटिन अमेरिका में जब यूएस सरकार ने डेमोक्रेसी को ध्वस्त किया...तो उस समय उसको रियल डेमोक्रेसी से डर था...अब सबने सीख लिया कि डेमोक्रेसी की जो पूरी संस्था है, उसको खोखला कैसा किया जा सकता है...जैसे जब हमलोग छोटे थे तो खेत में जाकर एक बार मैंने पूरी गाजर खींच कर निकाल दी और ऊपर का डंठल वापस डाल दिया तो लग रहा था कि खेत में गाजर है...पर नहीं, पानी भी दो तो कुछ नहीं होगा...तो ऐसा ही हो गया है हमारा लोकतंत्र...जो कोर्ट है, मीडिया है, जो चुनावी प्रक्रिया है, सबको खोखला कर दिया गया है...तो अभी डेमोक्रेसी से कोई डर नहीं है...चुनाव से मायावती और लालू जैसी ताकतें आगे आ रही हैं, यह अच्छी बात है...कम से कम निचली जातियों के लोग आगे आकर प्रतिनिधित्व कर रहे हैं...पर वास्तविक पावर शिफ्ट नहीं हुआ है...यह ऊपर से दिखाई देता है...अंदर से खोखलापन कहीं ज्यादा इसी दौर में बढा है.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : मतलब क्या यह इकोनॉमिक टेररिज्म है...जो स्टेट को लगातार चला रहा है?
अरुंधति राय : यह इस्ट्रैटिक्टव कैपिटलिज्म की प्रक्रिया है...जहां कुछ को अधिक...और अधिक मिलता रहेगा वहीं एक बडे तबके से सब कुछ छिनता जायेगा.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : यानी सरकार किसी को लेकर कुछ परिभाषित कर सकती है...चाहे वह नर्मदा की बात हो, चाहे इंटरनल सेक्योरिटी के मेनजर...आम जरूरत के लिए जो लडाई लड रहे हैं...उनकी बात हो या फिर रह मुे की...मतलब आप विरोध करेंगे तो स्टेट को बरदाश्त नहीं होगा...
अरुंधति राय : और फिर बाकी चीजें भी हैं जैसे रोजगार गारंटी योजना...एक तरह से आप देखेंगे कि यह बहुत अच्छी चीज है...लाखों लोगों को रोजगार का अधिकार मिला...लेकिन वास्तव में हो क्या रहा है...कुछ जगहों को छोड दिया जाये, जहां अरुणा राय जैसे कमिटेड एक्टिविस्ट काम कर रहे हैं. बडे औद्योगिक घरानों ने कहा था कि हमें लाइसेंस राज नहीं चाहिए. पर सारे गरीबों को आप लाइसेंस राज के हाथों धकेल देते हैं. रोजगार गारंटी योजना क्या है...100 दिन के पैसों के लिए पूरे साल लडना पडता है फिर भी संभावना यही कि वह नहीं मिलता...और उसकी डील क्या है? अपनी जमीन...अपनी जिंदगी...अपना पानी सब कुछ स्टेट को दे दीजिए...उसके बदले आपको पत्थर तोडने का हक मिला 100 दिन के लिए...और जो आपको मिलेगा नहीं...पूरे भ्रष्टाचार में यह योजना फंस गयी है...गरीबों को देने के लिए पूरी तरह स्टेट को कंट्रोल और अमीरों व पूंजीपतियों के लिए पूरी तरह मुक्त इकोनॉमी, जहां वह स्टेट के सहयोग से सब कुछ कर सकते हैं... अपना सेज बनाने के लिए स्टेट के सहयोग से वे जमीन भी छीन सकते हैं...आमलोगों की कोई सुननेवाला नहीं है. केवल यही विकल्प बचता है कि वे हथियार उठा लें...यह हल नहीं है, पर सरकार केवल यही रास्ता छोड रही है.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : भूमि सुधार सबसे ज्यादा बंगाल में शुरुआती दौर में हुआ...लेकिन अब उसी राज्य में सब कुछ पलटा जा रहा है...इसका मतलब क्या है...?
अरुंधति राय : ये गलत है. सबसे ज्यादा कश्मीर में हुआ...शेख अबदुल्ला ने कश्मीर में रैडिकल लैंड रिफार्म किया था...इसके बाद बंगाल और केरल का नंबर आता है...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : लेकिन एक समय के बाद स्टेगनेंसी (जडता) आयी. हमारा कहना है कि संसदीय सिस्टम में भी एक स्टेगनेंसी आयी है...
अरुंधति राय : स्टेगनेंसी नहीं कह सकते, क्योंकि जो सेज हो रहा है वह पूरे भूमि सुधार कार्यक्रम को रिवर्स (पलट) कर रहा है.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : इसके विकल्प क्या बचेंगे...ऐसे में चाहे वह राइट हो या लेफ्ट?
अरुंधति राय : लेफ्ट हो, राइट हो या फिर सेंटर, सभी ने सेज को मंजूर कर लिया है...जहां तक विकल्प की बात है, यदि आप कई सालों में लिये गये निर्णयों की निर्णय प्रक्रिया को नहीं समझते...तो कोई विकल्प नहीं दे सकते...विकल्प यही है कि आप बडे डैम न बनायें...आप सेज न बनायें...विकल्प हैं पर हमारी सरकारों ने सबसे खराब विकल्प को चुना है...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : संसदीय सिस्टम का विकल्प क्या है...क्योंकि संसदीय राजनीति की जरूरत है सेज...संसदीय राजनीति की जरूरत है कैपिटलिज्म...संसदीय राजनीति की जरूरत है कि वह सोसाइटी को विभाजित करे...राजनीतिक दल इसी रूप में काम कर रहे हैं...इसका मतलब यह है कि क्या राजनीति अपने आपको बनाये रखने के लिए इस पूरे स्ट्रक्चर को अपना रही है...
अरुंधति राय : यह सही है कि कम लोग ही समझते हैं कि यह जो विभाजित करने की राजनीति है...यह लोकतंत्र की वजह से है...यह राजनेताओं का बिजनेस है...अपनी कंस्टीट्यूएंसी को बनाने के लिए...ये जो हमारे देश का जातिवाद है, यह हमारी संसदीय राजनीति का हार्ट है. इसको दूर नहीं किया गया. इसको पूरा एक इंजन बना दिया गया...इस सिस्टम को समझना होगा कि हाऊ डू यू हैव अ पार्लियामेंट, डेमोक्रेसी ह्वेयर द इंजर ऑफ इट इज नाट डिसीसिव पॉलिटिक्स.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : लेकिन यह नहीं लगता कि सारी चीजें जो ऑक्सीजन दे रही हैं, इस सोसाइटी को...इस सोसाइटी में उसके पास अपने विकल्प नहीं बच रहे हैं...जितने भी आंदोलन चल रहे हैं...या जहां पर आंदोलन हुए हैं...वे अपने खास स्पेस में विकल्प नहीं दे पाये कि वहां इकोनॉमी को वे उसी रूप में डेवलेप कर लें...बस्तर के इलाके को लेकर कहा जाता है कि वहां पर माओवादियों ने अपने स्तर पर समानांतर सरकार गठित की...पर इकोनॉमी अपने अनुकूल हो पाये यह प्रयोग तेलंगाना, छत्तीसगढ, झारखंड- कहीं नजर नहीं आता...इसकी वजह फिर क्या है...
अरुंधति राय : अपने आपको बचाने में ही ज्यादा समय लग जाता है...इनकी अपने इलाके को बचाने में ही पूरी ऊर्जा जा रही है...आपका हेलीकॉप्टर ऊपर चल रहा है...आर्मी ऊपर आ रही है...आप अपना विकास कैसे करेंगे?
पुण्य प्रसून वाजपेयी : नहीं हमारा सवाल था...हम नेपाल देख रहे थे...नेपाल में एक परिवर्तन आया...इसके मेनजर यहां पर जितने भी अल्ट्रा लेफ्ट संगठन थे, उनके लगातार बयान सामने आये...और उसके जरिये वे हिंदुस्तान की तसवीर देखने लगे...कि इस तरह हम संसदीय राजनीति का चेहरा बदल सकते हैं...हमारा कहना है कि क्या जो नेपाल में हो रहा था...वह बहुत जल्दबाजी थी...तमाम बातचीत होने लगी थी उस दौर में...लेकिन ये तसवीर जो उभर कर सामने आ रही है...यह हम इसलिए कह रहे हैं कि नेपाल में एक प्रक्रिया चली...हिंदुस्तान में भी वो शुरुआती दौर में चली...सत्तर, अस्सी और नब्बे तक एक प्रक्रिया नजर आती है...लेकिन क्या लग रहा है कि वे स्टैगनेंसी (गतिहीनता) वहां भी आयी है...?
अरुंधति राय : हो सकता है, क्योंकि आप जहां पर भी देखें...जैसे कश्मीर जहां मैंने काफी समय बिताया है...मुझे पता है जैसे छत्तीसगढ और झारखंड में अभी हो रहा है...जब कन्फ्लिक्ट (टकराहट) होता है तो फिर दोनों तरफ एक स्टैगनेंसी आती है, यथास्थिति बनाये रखने के लिए. क्योंकि कन्फ्लिक्ट में ही बहुत पैसा बन जाता है...फिर अभी एक स्थिति है. कश्मीर में अगर आतंकवाद खत्म हो जाये और आर्मी को वहां से निकलना पडे तो वे आतंकवाद को फिर से खडा कर देंगे. यह अब पैसा बनाने का व्यापार बन गया है.
पुण्य प्रसून वाजयेपी : हमारे देश में जो साहित्य लिखा जा रहा है...रचा जा रहा है...शायद सरोकारों से कटता जा रहा है...इसलिए आज भी लोग प्रेमचंद का नाम बोल देते हैं...कि एक प्रेमचंद थे...फणीश्वरनाथ रेणु को याद कर लेते हैं...लगता क्या है कि साहित्यकार, लेखक भी समाज से कट रहे हैं...
अरुंधति राय : हां कट तो रहे हैं...महाश्वेता देवी हैं जो नहीं कटीं...साथ में चलती हैं...पर दिक्कतें बहुत हैं, क्योंकि मुझे लगता है कि 'गॉड ऑफ स्माल थिंग्स' के बाद पिछले 10 साल मैंने बहुत कुछ लिखा...पर अब उसका भी शायद अलग वक्त आ गया है...10 साल पहले मैंने लिखा कि हमारा काम है...दुश्मन की पहचान करना...कि यह ग्लोबलाइजेशन है क्या...हमारा शत्रु है कौन...ऐसा नहीं कि पहले अंगरेज थे....जो खराब थे, उनको भगा दिया...अब स्थितियां बहुत ही जटिल हैं...अभी तक लेखकों और कलाकारों का काम था स्थितियों को सामने लाने का...अब चीजें साफ हो गयी हैं...जिसको जानना था उसने जान लिया है और अपना पक्ष भी चुन लिया है...अब मुझे यह नहीं लगता कि मैं लोगों से यह कह सकती हूं कि वे कैसे लडें...मैं छत्तीसगढ के आदिवासियों को नहीं बोल सकती कि आप उपवास पर बैठो...गांधीवादी बनो या माओवादी...यह निर्णय वे खुद लेंगे...मैं नहीं कह सकती...मैं नहीं बता सकती...यह मेरा काम नहीं है...मैं सिर्फ लिख सकती हूं....कोई सुने या न सुने...मैं वही कर सकती हूं...वही करूंगी....क्योंकि मैं कुछ और नहीं कर सकती.
हंस, अप्रैल, 2008 से साभार