किसान हमारी अर्थव्यवस्था के असली नायक हैं। वित्त मंत्री की भूमिका में प्रणब मुखर्जी ने अंतरिम बजट पेश करते हुए जैसे ही यह कहा संसद में तालियां गूंज उठीं। प्रभारी वित्त मंत्री आगे के वक्तव्य में इन दिनों इश्तहार में आ रही योजनाओं के आंकड़ों को संसद के समक्ष रखते हैं। किसानों को श्रेष्ठ बताते हुए हर साल औसत एक करोड़ टन की दर से रिकॉर्ड उत्पादन बढ़ोतरी की बात जोड़ते हैं। वह बताते हैं कि अनाज उत्पादन 23 करोड़ टन पहुंच चुका है। सरकार ने वर्ष 2003 से 2008 के बीच कृषि पर बजट को 300 प्रतिशत बढ़ा दिया है। सहकारी ऋण ढांचे को मजबूत करने के लिए 13,500 करोड़ रुपये की विशेष वित्तीय सहायता दी गई है।
इस तरह खेती पर एक-एक करके वह सारे विवरण गिनाते हैं।सरकार की घोषणाएं किसानों के बारे में किए गए प्रयासों को बताने के साथ एक भ्रम भी फैलाती हैं, जैसे जाने किस-किस के हिस्से का पैसा किसानों को बांट दिया गया। बजट से यह पता ही नहीं चलता कि वित्त मंत्री का यह नायक कहानी के किस क्लाइमेक्स पर है। किस-किस तरह की ट्रैजेडी से उसे जूझना पड़ रहा है। खेती को लेकर गुजरे बरस में क्या नहीं हुआ, क्या गलत हुआ, इसे इंगित करने की जिम्मेदारी जिस विपक्ष पर होती है, उसका पूरा ध्यान मात्र इसी में रह गया कि एनडीए के समय में क्या हुआ था। अंतरिम बजट की आंख से देखें, तो देश के किसानों की कोई खास समस्या बची ही नहीं। हकीकत यह है कि सरकार किसी की भी रही हो, नेशनल सैंपल सवेü, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो, राष्ट्रीय किसान आयोग और दूसरे सरकारी तथ्यों की रोशनी में भी किसानों की समस्या को देखने की जरूरत नहीं समझी जाती। उद्यमी हो या कर्मचारी, उनसे जुड़े संगठन अपनी बातें समय-समय पर सरकार तक पहुंचाते रहते हैं। बजट से पहले वित्त मंत्री तरह-तरह के प्रतिनिधिमंडल से मिलते हैं। खेती की मुश्किलों का हर कोई जानकार हो जाता है, सो ऊपर-ऊपर ही सब कुछ तय कर लिया जाता है। ऐसे में बजट में सरकार इतने चमकीले पैकेट में आंकड़े पेश करती है कि बाहर से देखने वाले को सब कुछ हरा ही हरा नजर आता है। इस साल के अंतरिम बजट में भी वही हुआ। विरोधाभास आंकड़ों की तह के नीचे दबे पड़े हैं। अंतरिम बजट में 2003 से 2008 के बीच के तुलनात्मक विवरण पर सरकार ने सारे तथ्य दिए हैं। मीठा-मीठा गप के आंकड़े तो वहां मौजूद हैं, कड़वा-कड़वा जाने कहां थूक दिया गया है। बजट में खेती की विकास दर 2।6 की तुलना में 3।7 प्रतिशत का होना पाया गया। यहां साल के बेहतर मानसून से उत्पादन में आंशिक सुधार को भी सरकार ने अपने लाभ के खाते में गिन लिया। खाद के सवाल पर किसान पूरे साल रात-रात भर जागकर सहकारी समितियों में लाइन लगाते रहे। कालाबाजारी होती रही। सरकार ने इस बजट में भी उर्वरक सबसिडी के लिए कहा है कि पहले की भांति जारी रहेगी। इसके साथ वैकçल्पक व्यवस्था को प्रोत्साहित करते हुए आने वाले दिनों में खाद पर सबसिडी और कम की जाएगी। वैकçल्पक क्या होगा और कैसे, इसे पिछले किसी बजट में स्पष्ट नहीं किया जाता, भाषा अवश्य एक जैसी रहती है। फसल के लिए किसानों को तीन लाख रुपये तक के ऋण सात प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से अगले वर्ष भी जारी रखने की प्रतिबद्धता जताई गई है। किसान अरसे से रटते आ रहे हैं कि प्रोसेसिंग खर्च और रखरखाव के नाम पर लगभग दो प्रतिशत और रिटनü ब्याज लगता है, जो सरकार की ओर से आने पर खाते से çक्लयर किया जाता है। कुल मिलाकर, ब्याज 11 प्रतिशत बनता है। इसी तरह राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) की राशि में 88 प्रतिशत की बढ़ोतरी को तीसरी बड़ी उपलçब्ध बताया गया है। पहले इसे 596 जिलों में लागू किया गया था, अगले वित्त वर्ष से इसे सभी 623 जिलों में लागू किया जाना है। नरेगा के तहत शहरी क्षेत्र को शामिल किए जाने से लगभग डेढ़ गुना ज्यादा लोग कवर किए जाएंगे। नरेगा को देश में आर्थिक विषमता दूर करने के प्रयास की उस कड़ी में तो देखा जा सकता है, जिसमें अर्थशास्त्री जान मेनार्ड कींस कहते हैं कि गड्ढे खोदने और पाटने का काम भी किया जाए, तो उसे भी सरकार को करना चाहिए। लेकिन किसानों को मजदूर बनाकर किस तरह से खेती का उद्धार किया जा सकता है? बजट में नरेगा की सफलता के कसीदे पढ़े गए, पूरे साल कहा जाता रहा कि राज्य सरकारों की तरफ से अनुपालन में çढलाई बरतने के कारण वांछित नतीजे नहीं मिल पा रहे हैं। दोनों बातें एक साथ सही कैसे हो सकती हैं? नरेगा को लेकर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की बुंदेलखंड-यात्रा के बाद ही हजारों जॉब कार्ड की कलई खुली थी। वहां ज्यादातर लोगों को काम नहीं मिला और कई जगह जॉब कार्ड ग्राम प्रधान ने ही रख लिए थे। अंतरिम बजट में सबसे अधिक जिस उपलçब्ध पर सरकार अपनी पीठ ठोंक रही है, वह किसानों की ऋण माफी है। यह निश्चित है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के समय 15 हजार करोड़ रुपये की कर्ज माफी के बाद 65 हजार करोड़ रुपए की सबसे अधिक राशि इस मद में दी गई। लेकिन यह इस बार भी नहीं देखा गया कि इस ऋण माफी के बावजूद किसानों की आत्महत्याएं रुक क्यों नहीं रहीं? राष्ट्रीय किसान आयोग के अनुसार, 47 प्रतिशत लोग साहूकारों से कर्ज लेते हैं। 12 प्रतिशत लोग अपने परिजनों और परिचितों से। ऐसे में, बैंक ऋण का प्रतिशत 41 रहा। उसमें भी यह छूट उन्हें ही मिली, जो 31 मार्च, 2007 से पहले के पांच एकड़ से नीचे के जोत वाले कर्जदार थे। ऐसे में, बहुत सारे किसान बचे रह गए। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी ऋण माफी की शतोZ में संशोधन के लिए कहा था।आंकड़ों की सफेदी से कालिख ढकने की कोशिश की जगह होना यह चाहिए था कि राशि आबंटन के साथ योजनाओं की समीक्षा और अपेक्षित संशोधन को तवज्जो दी जाती। इस समझदारी पर भी भरोसा करने का साहस दिखाया जाता कि क्षेत्रवार योजनाओं का स्वरूप बदलकर लागू किया जाए। योजनाएं वहीं से आएं, जहां की दिक्कतें है, तो शायद आंकड़ों से ज्यादा गांव की खुशहाली बोलने लगे।
(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)
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नायक जिसकी ट्रैजेडी नजर नहीं आती
अफीम किसानों की आवाज उठी संसद में
मुश्किल में हाड़ौती के किसान
- विजय प्रताप 
बारां जिले के किसान भंवरलाल नागर इन दिनों बेहद परेशान हैं. उनके खेतों में धूल उड़ रही है और उन्हें सलाह दी गई है कि वे अब अफीम की जगह इन खेतों में गेहूं उगाना शुरु कर दें.
भंवरलाल कहते हैं- “पहले अफीम बोते थे, उसमें ज्यादा पानी की जरुरत नहीं रहती. उसकी सिंचाई टैंकर से पानी लाकर भी हो जाती लेकिन अब गेहूं के लिए ज्यादा पानी चाहिए होता है.”
ज़ाहिर है, गेहूं के लिए उन्हें पानी मिलने से रहा और वे पिछले कई दिनों से इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें किसी तरह उनका पारंपरिक अफीम की खेती का पट्टा मिल जाए.
लेकिन भंवरलाल की आवाज़ नक्कारखाने की तूती बन कर रह गई है और भंवरलाल ही क्यों, हाड़ौती के हजारों किसानों की कोई सुनने वाला नहीं है. झालावाड़ और बाराँ के किसान सरकार से अब उम्मीद छोड़ बैठे हैं क्योंकि सरकार उनकी समस्याओं को हल करने के बजाय इस बाद में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रही है कि ये किसान इस मुद्दे पर खामोश हो जाएं. पिछले महीने के अंत में तो इस मुद्दे को लेकर कोटा में प्रदर्शन करने वाले किसान जब रात को सो रहे थे, तब पुलिस ने उन्हें बर्बरता से दौड़ा-दौड़ा कर मारा.
राजस्थान में पिछले पांच साल के वसुंधरा राजे शासनकाल में किसानों पर कई बार हमला हो चुका है. पानी-बिजली मांग रहे किसानों पर गोलियां व लाठियां चलना आम बात हो चुकी है. लेकिन सोते हुए किसानों पर ऐसा हमला पहली बार हुआ.
कोटा के नारकोटिक्स ब्यूरो उपायुक्त कार्यालय पर धरना देने आए किसानों पर रात करीब एक बजे पुलिस ने हमला कर लाठीचार्ज कर दिया. उस समय किसान बारिश से बचने के लिए आस-पास के स्कूल व मंदिर में सोए हुए थे.
हजारों की संख्या में जुटे यह किसान अपने रद्द अफीम के पट्टों की बहाली की मांग को लेकर 16 नवम्बर से ही यहां महापड़ाव डाले हुए थे. इसमें राजस्थान के पूरे दक्षिण पूर्वी क्षेत्र हाड़ौती के अफीम उत्पादक किसान शमिल थे. 19 नवम्बर को जोरदार बारिश की वजह से किसानों का टेंट सहित सारी व्यवस्था ध्वस्त हो गई.
सोये किसानों पर हमला
भारी बारिश व बढ़ती ठंड के कारण किसानों ने धरना स्थगित कर पास के प्राथमिक स्कूल और हनुमान मंदिर में शरण ले ली. रात करीब एक बजे अचानक पुलिस ने किसानों को वहां से खदेड़ने के लिए सोते किसानों पर हमला बोल दिया. इस हमले से डरे और आहत गरीब किसान अगली सुबह अपने-अपने गांव लौट गये.
लेकिन उनके सवाल जस के तस हैं और इनका जवाब किसी के पास नहीं है. चारों तरफ से हताशा में डूबे किसान अब आत्महत्या कर रहे हैं.
यह वे अफीम किसान हैं जो पिछले कुछ सालों से भूखमरी की जिंदगी गुजार रहे हैं. सरकारी तंत्र व उसकी लापरवाही के चलते हाड़ोती के दस हजार से अधिक अफीम उत्पादक किसान बेकार हो चुके हैं. पिछले दो साल लगातार ओलावृष्टि के कारण किसानों की खड़ी फसल बर्बाद हो गई. इस वजह से किसान नारकोटिक्स ब्यूरो द्वारा निर्धारित एक हेक्टेयर में 56 किलो औसत उत्पादन जमा नहीं करा सके. इसी को आधार बनाते हुए केन्द्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो ने क्षेत्र के अस्सी प्रतिशत किसानों के अफीम उत्पादन के पट्टे रद्द कर दिए.
केन्द्रीय स्तर पर यह फैसला लेते समय उन रिपोर्टों को भी दरकिनार किया गया जो जिला कलक्टर व तहसीलदार ने ओलावृष्टि से किसानों की फसल नष्ट होने की जांच के बाद जारी किए थे. रिपोर्ट में कलेक्टर ने माना था कि ओलावृष्टि के कारण क्षेत्र के किसानों की साठ से सत्तर प्रतिशत फसल नष्ट हो गई है. कोटा स्थित नारकोटिक्स ब्यूरो उपायुक्त कार्यालय ने यह रिपोर्ट ग्वालियर के क्षेत्रीय कार्यालय व नई दिल्ली के केन्द्रीय कार्यालय को भी भेजी. बावजूद इसके यहां के हजारों किसानों की रोजी रोटी का पट्टा रद्द कर दिया गया.
आत्महत्या की राह
अफीम उत्पादक किसानों का पट्टा रद्द करने का यह खेल काफी समय से चला आ रहा है. एक समय पूरे राजस्थान में 54 हजार से अधिक अफीम उत्पादकों को पट्टे जारी किए गए थे. लेकिन इस साल पूरे प्रदेश में केवल 18 हजार किसानों को ही अफीम उत्पादन की अनुमति दी गई.
किसान नेता जुगल किशोर नागर बताते हैं कि एक समय पूरे हाड़ौती में अकेले तेरह हजार से अधिक पट्टे थे, लेकिन आज केवल 4 सौ किसानों के पास अफीम उत्पादन के पट्टे हैं. श्री नागर कहते हैं- “ सरकार ने कई बहाने से हमारे पट्टे हड़प लिए और हमे बेरोजगार कर छोड़ दिया.”
संभाग के चार जिलों कोटा, बारां, बूंदी व झालावाड़ के अफीम उत्पादक किसान सेठ साहूकारों के कर्जे में ऐसे दबे हैं कि अब उनके सामने आत्महत्या ही विकल्प नजर आ रहा है. दो हफ्ते पहले ही दीगोद तहसील के ब्रह्मपुरा के बापूलाल के अलावा छीपाबड़ौद के रंगलाल व नारायण लोधा, झालरापाटन के गणेशपुर के कंवर लाल ने अपनी जान दे दी.
यह उल्लेखनीय है कि अफीम उगाने वाले किसानों का बड़ा हिस्सा मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के गृह नगर से आता है. मुख्यमंत्री झालरापाटन क्षेत्र से ही विधानसभा का चुनाव लड़ रही हैं. यहां संघर्षरत किसान भी झालावाड़ के झालरापाटन क्षेत्र से आते हैं. पांच साल मुख्यमंत्री रहते हुए भी राजे इन किसानों की मुश्किलें दूर नहीं कर सकीं.
झालरापाटन के किसान ओम प्रकाश आक्रोश के साथ कहते हैं- ''उनसे क्या उम्मीद करें. वह कहती हैं केन्द्र सरकार का मामला है. लेकिन हमे तो गेंहू उगाने के लिए भी पानी नहीं मिल पा रहा.''
फैसला नहीं, फैसले की मियाद
इस समय ज्यादातर किसान साहूकारों के कर्जे में दबे हैं. अफीम का पट्टा छिन जाने के बाद से उनके कमाई का कोई और जरिया नहीं बचा है. न ही उनके खेत इतने बड़े हैं कि वह भारी पैमाने पर कोई और फसल उगा सके और न ही इन क्षेत्रों में सिंचाई का कोई साधन है. कुछ किसानों ने गेंहू की फसल बोनी शुरु भी की तो पानी की कमी से पर्याप्त उत्पादन नहीं हो सका.
अफीम उत्पादक किसानों की पट्टा बहाली के लिए संघर्ष कर रहे अफीम उत्पादक हाड़ौती किसान संघर्ष समिति के सचिव महेन्द्र नागर कहते हैं –“ हम लोग पिछले दो सालों से संघर्ष कर रहे हैं लेकिन किसी राजनैतिक दल ने हमारा साथ नहीं दिया. हम इतने बड़े लोग नहीं हैं कि दिल्ली जाकर साहब लोगों को अपनी बात बता पाएं, इसलिय हम कोटा के अधिकारियों से ही निवेदन करते हैं कि वह हमारी मांग उपर के अधिकारियों तक पहुंचाए. हम बस इतना चाहते हैं कि हमारे पट्टे फिर से बहाल हो ताकि हम सूकून की जिंदगी गुजार पाएं.”
कोटा में बैठने वाले नारकोटिक्स ब्यूरो उपायुक्त जी पी चंदोलिया भी किसान को मांग को जायज मानते हैं. लेकिन पट्टा बहाली के सवाल पर चंदोलिया का कहते हैं- “ इस समस्या का समाधान केन्द्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो के स्तर से ही हो पाएगा. हमने कलेक्टर की रिपोर्ट व किसानों की मांगों को उन तक पहुंचा दिया है. अब जो भी फैसला लिया जाएगा, वह केन्द्रीय स्तर पर ही लिया जाएगा.”
लेकिन किसान इस चक्करदार सरकारी जवाब से संतुष्ट नहीं हैं. उनके लिए यह कोई जवाब नहीं है कि फैसला कहां लिया जाना है. उनकी दिलचस्पी इस बात में है कि यह फैसला कब लिया जाएगा.
क्या तब जब हाड़ोती के किसान भी विदर्भ की राह पकड़ लेंगे ?
साभार - रविवार डॉट कॉम

बारां जिले के किसान भंवरलाल नागर इन दिनों बेहद परेशान हैं. उनके खेतों में धूल उड़ रही है और उन्हें सलाह दी गई है कि वे अब अफीम की जगह इन खेतों में गेहूं उगाना शुरु कर दें.
भंवरलाल कहते हैं- “पहले अफीम बोते थे, उसमें ज्यादा पानी की जरुरत नहीं रहती. उसकी सिंचाई टैंकर से पानी लाकर भी हो जाती लेकिन अब गेहूं के लिए ज्यादा पानी चाहिए होता है.”
ज़ाहिर है, गेहूं के लिए उन्हें पानी मिलने से रहा और वे पिछले कई दिनों से इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें किसी तरह उनका पारंपरिक अफीम की खेती का पट्टा मिल जाए.
लेकिन भंवरलाल की आवाज़ नक्कारखाने की तूती बन कर रह गई है और भंवरलाल ही क्यों, हाड़ौती के हजारों किसानों की कोई सुनने वाला नहीं है. झालावाड़ और बाराँ के किसान सरकार से अब उम्मीद छोड़ बैठे हैं क्योंकि सरकार उनकी समस्याओं को हल करने के बजाय इस बाद में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रही है कि ये किसान इस मुद्दे पर खामोश हो जाएं. पिछले महीने के अंत में तो इस मुद्दे को लेकर कोटा में प्रदर्शन करने वाले किसान जब रात को सो रहे थे, तब पुलिस ने उन्हें बर्बरता से दौड़ा-दौड़ा कर मारा.
राजस्थान में पिछले पांच साल के वसुंधरा राजे शासनकाल में किसानों पर कई बार हमला हो चुका है. पानी-बिजली मांग रहे किसानों पर गोलियां व लाठियां चलना आम बात हो चुकी है. लेकिन सोते हुए किसानों पर ऐसा हमला पहली बार हुआ.
कोटा के नारकोटिक्स ब्यूरो उपायुक्त कार्यालय पर धरना देने आए किसानों पर रात करीब एक बजे पुलिस ने हमला कर लाठीचार्ज कर दिया. उस समय किसान बारिश से बचने के लिए आस-पास के स्कूल व मंदिर में सोए हुए थे.
हजारों की संख्या में जुटे यह किसान अपने रद्द अफीम के पट्टों की बहाली की मांग को लेकर 16 नवम्बर से ही यहां महापड़ाव डाले हुए थे. इसमें राजस्थान के पूरे दक्षिण पूर्वी क्षेत्र हाड़ौती के अफीम उत्पादक किसान शमिल थे. 19 नवम्बर को जोरदार बारिश की वजह से किसानों का टेंट सहित सारी व्यवस्था ध्वस्त हो गई.
सोये किसानों पर हमला
भारी बारिश व बढ़ती ठंड के कारण किसानों ने धरना स्थगित कर पास के प्राथमिक स्कूल और हनुमान मंदिर में शरण ले ली. रात करीब एक बजे अचानक पुलिस ने किसानों को वहां से खदेड़ने के लिए सोते किसानों पर हमला बोल दिया. इस हमले से डरे और आहत गरीब किसान अगली सुबह अपने-अपने गांव लौट गये.
लेकिन उनके सवाल जस के तस हैं और इनका जवाब किसी के पास नहीं है. चारों तरफ से हताशा में डूबे किसान अब आत्महत्या कर रहे हैं.
यह वे अफीम किसान हैं जो पिछले कुछ सालों से भूखमरी की जिंदगी गुजार रहे हैं. सरकारी तंत्र व उसकी लापरवाही के चलते हाड़ोती के दस हजार से अधिक अफीम उत्पादक किसान बेकार हो चुके हैं. पिछले दो साल लगातार ओलावृष्टि के कारण किसानों की खड़ी फसल बर्बाद हो गई. इस वजह से किसान नारकोटिक्स ब्यूरो द्वारा निर्धारित एक हेक्टेयर में 56 किलो औसत उत्पादन जमा नहीं करा सके. इसी को आधार बनाते हुए केन्द्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो ने क्षेत्र के अस्सी प्रतिशत किसानों के अफीम उत्पादन के पट्टे रद्द कर दिए.
केन्द्रीय स्तर पर यह फैसला लेते समय उन रिपोर्टों को भी दरकिनार किया गया जो जिला कलक्टर व तहसीलदार ने ओलावृष्टि से किसानों की फसल नष्ट होने की जांच के बाद जारी किए थे. रिपोर्ट में कलेक्टर ने माना था कि ओलावृष्टि के कारण क्षेत्र के किसानों की साठ से सत्तर प्रतिशत फसल नष्ट हो गई है. कोटा स्थित नारकोटिक्स ब्यूरो उपायुक्त कार्यालय ने यह रिपोर्ट ग्वालियर के क्षेत्रीय कार्यालय व नई दिल्ली के केन्द्रीय कार्यालय को भी भेजी. बावजूद इसके यहां के हजारों किसानों की रोजी रोटी का पट्टा रद्द कर दिया गया.
आत्महत्या की राह
अफीम उत्पादक किसानों का पट्टा रद्द करने का यह खेल काफी समय से चला आ रहा है. एक समय पूरे राजस्थान में 54 हजार से अधिक अफीम उत्पादकों को पट्टे जारी किए गए थे. लेकिन इस साल पूरे प्रदेश में केवल 18 हजार किसानों को ही अफीम उत्पादन की अनुमति दी गई.
किसान नेता जुगल किशोर नागर बताते हैं कि एक समय पूरे हाड़ौती में अकेले तेरह हजार से अधिक पट्टे थे, लेकिन आज केवल 4 सौ किसानों के पास अफीम उत्पादन के पट्टे हैं. श्री नागर कहते हैं- “ सरकार ने कई बहाने से हमारे पट्टे हड़प लिए और हमे बेरोजगार कर छोड़ दिया.”
संभाग के चार जिलों कोटा, बारां, बूंदी व झालावाड़ के अफीम उत्पादक किसान सेठ साहूकारों के कर्जे में ऐसे दबे हैं कि अब उनके सामने आत्महत्या ही विकल्प नजर आ रहा है. दो हफ्ते पहले ही दीगोद तहसील के ब्रह्मपुरा के बापूलाल के अलावा छीपाबड़ौद के रंगलाल व नारायण लोधा, झालरापाटन के गणेशपुर के कंवर लाल ने अपनी जान दे दी.
यह उल्लेखनीय है कि अफीम उगाने वाले किसानों का बड़ा हिस्सा मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के गृह नगर से आता है. मुख्यमंत्री झालरापाटन क्षेत्र से ही विधानसभा का चुनाव लड़ रही हैं. यहां संघर्षरत किसान भी झालावाड़ के झालरापाटन क्षेत्र से आते हैं. पांच साल मुख्यमंत्री रहते हुए भी राजे इन किसानों की मुश्किलें दूर नहीं कर सकीं.
झालरापाटन के किसान ओम प्रकाश आक्रोश के साथ कहते हैं- ''उनसे क्या उम्मीद करें. वह कहती हैं केन्द्र सरकार का मामला है. लेकिन हमे तो गेंहू उगाने के लिए भी पानी नहीं मिल पा रहा.''
फैसला नहीं, फैसले की मियाद
इस समय ज्यादातर किसान साहूकारों के कर्जे में दबे हैं. अफीम का पट्टा छिन जाने के बाद से उनके कमाई का कोई और जरिया नहीं बचा है. न ही उनके खेत इतने बड़े हैं कि वह भारी पैमाने पर कोई और फसल उगा सके और न ही इन क्षेत्रों में सिंचाई का कोई साधन है. कुछ किसानों ने गेंहू की फसल बोनी शुरु भी की तो पानी की कमी से पर्याप्त उत्पादन नहीं हो सका.
अफीम उत्पादक किसानों की पट्टा बहाली के लिए संघर्ष कर रहे अफीम उत्पादक हाड़ौती किसान संघर्ष समिति के सचिव महेन्द्र नागर कहते हैं –“ हम लोग पिछले दो सालों से संघर्ष कर रहे हैं लेकिन किसी राजनैतिक दल ने हमारा साथ नहीं दिया. हम इतने बड़े लोग नहीं हैं कि दिल्ली जाकर साहब लोगों को अपनी बात बता पाएं, इसलिय हम कोटा के अधिकारियों से ही निवेदन करते हैं कि वह हमारी मांग उपर के अधिकारियों तक पहुंचाए. हम बस इतना चाहते हैं कि हमारे पट्टे फिर से बहाल हो ताकि हम सूकून की जिंदगी गुजार पाएं.”
कोटा में बैठने वाले नारकोटिक्स ब्यूरो उपायुक्त जी पी चंदोलिया भी किसान को मांग को जायज मानते हैं. लेकिन पट्टा बहाली के सवाल पर चंदोलिया का कहते हैं- “ इस समस्या का समाधान केन्द्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो के स्तर से ही हो पाएगा. हमने कलेक्टर की रिपोर्ट व किसानों की मांगों को उन तक पहुंचा दिया है. अब जो भी फैसला लिया जाएगा, वह केन्द्रीय स्तर पर ही लिया जाएगा.”
लेकिन किसान इस चक्करदार सरकारी जवाब से संतुष्ट नहीं हैं. उनके लिए यह कोई जवाब नहीं है कि फैसला कहां लिया जाना है. उनकी दिलचस्पी इस बात में है कि यह फैसला कब लिया जाएगा.
क्या तब जब हाड़ोती के किसान भी विदर्भ की राह पकड़ लेंगे ?
साभार - रविवार डॉट कॉम
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