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सेना का प्रयोग या मानवाधिकारों की हत्या

- विजय प्रताप
पिछले दिनों भारत में कनाडा के उच्चायोग्य ने कई सैन्य व खुफिया सेवा के अधिकारियों को अपने देश का वीजा देने से मना कर दिया। उच्चायोग्य का कहना था कि कुछ भारतीय सैन्य, अर्द्धसैन्य व खुफिया एजेंसियां मानवाधिकारों के हनन व चुनी सरकारों के खिलाफ काम कर रही हैं। उच्चायोग्य की इस टिप्पणी पर विदेश मंत्रालय ने कड़ी आपत्ति जाहिर की। लेकिन अभी हाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी जम्मू-कश्मीर की यात्रा के दौरान अपरोक्ष रूप से यह स्वीकार किया कि इस सीमावर्ती राज्य में सेना मानवाधिकारों का हनन कर रही है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।’
प्रधानमंत्री को यह बयान उन परिस्थितियों में देना पड़ा जब कि सेना पर कई फर्जी मुठभेड़ों में निर्दोष कश्मीरियों की हत्या के आरोप लग रहे हैं और वहां की जनता उद्वेलित है। कश्मीर के माछिल इलाके में तीन निर्दोष युवकों को आतंकी बताकर मार दिया गया। काफी दबाव व प्रधानमंत्री की कश्मीर यात्रा को देखते हुए सेना ने आरोपी सैन्य अधिकारियों पर मुकदमा दर्ज करने की अनुमति दी। इससे पहले शोपियां में दो महिलाओं के साथ बलात्कार व हत्या की घटना को भी सेना ने दबाने की कोशिश की थी। जम्मू-कश्मीर में ऐसी फर्जी मुठभेड़ें या सेना द्वारा मानवाधिकारों का हनन नई बात नहीं है। ऐसे में क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि सेना को माओवादियों से निपटने के काम में लगाया जाए तो परिणाम क्या होंगे।
माओवाद के खतरे से निपटने के लिए देश में सुनियोजित तरीके से सैन्य बलों के प्रयोग का माहौल तैयार किया जा रहा है। सरकारी तंत्र हर माओवादी घटना के बाद कुटनीतिक तरीके से ‘सेना के प्रयोग न करने’ की बात कहता है और मीडिया का एक खेमा सेना का प्रयोग न करने पर सरकार की आलोचना करता है। लेकिन इस पूरी बहस में ऐसे अभियानों में सेना या अर्द्धसैनिक बलों के कलंकित इतिहास को छोड़ दिया जाता है। क्या हम पंजाब को भूल गए हैं, जहां खालिस्तानी उग्रवादियों से निपटने के लिए सेना के प्रयोग का दंश अभी भी वहां की जिंदगी का हिस्सा है। या कि हम मणिपुर की ओर देखना नहीं चाहते जहां की बूढ़ी महिलाओं भारतीय सेना को बलात्कार करने के लिए निमंत्रित कर चुकी हैं। जम्मू कश्मीर को हम जानबूझ कर भूल जाते हैं क्योंकि हमें लगता है कि उसे सेना के माध्यम से ही अपने कब्जे में रखा जा सकता है। लेकिन यहीं हम वहां के नागरिकों के दर्द को महसूस नहीं कर पाते जो कभी-कभी हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद मीडिया की सुर्खियां बनती हैं। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि क्या माओवाद से निपटने के नाम पर आधे देश को सेना के बूटों तले रौंदे जाने की छूट दी जा सकती है।
कई मौकों पर प्रधानमंत्री खुद नक्सलवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार देश के 19 राज्य माओवाद से प्रभावित हैं। सेना के नागरिक क्षेत्रों में कलंकित इतिहास को देखते हुए इन राज्यों में सेना के प्रयोग की संभावनाओं पर व्यापक विरोध हो रहे है। सेना के अधिकारी खुद भी अपने ही देश में किसी व्यापक विध्वंसात्मक ऑपरेशन से नहीं जुड़ना चाहते है। सेना पर मानवाधिकारों के उल्लघंन को भी इसी आलोक में देखना चाहिए। अशांत क्षेत्रों में जहां सेना व अन्य सुरक्षा एजेंसियों पर लगातार यह दबाव रहता है कि वो कुछ ऐसा कर दिखाए जिससे वहां उनके होने की उपयोगिता सिद्ध हो और दहशत कायम रहे। 1984 के दौर में अशांत पंजाब में सेना व खुफिया एजेंसियों ने अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए राजनीतिक इशारों पर हजारों सिक्ख युवकों का कत्लेआम किया। इसके निशान अभी भी पंजाब की धरती में गड़े मिल जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में सेना कश्मीरी मुस्लिम युवकों की हत्याओं के लिए बदनाम है। सेना व सुरक्षा एजेंसियों के इस इतिहास को कनाडा उच्चायोग्य के सवालों की तरह खारिज नहीं किया जा सकता। सच्चाई यही है कि हमारी सेना नागरिक क्षेत्रों में अपने ही देश के नागरिकों की हत्या करने से नहीं चूकती। यह अलग बात है कि हर दौर में इन हत्याओं के लिए अलग-अलग राजनीतिक कारण जिम्मेदार होते हैं। नागरिक क्षेत्रों में सेना का दमन शुद्ध रूप से राजनैतिक घटना होती है, इसके लिए अकेले सेना को दोषी नहीं करार दिया जा सकता। समय-समय पर अपने खिलाफ उठने वाले सवालों व जनआक्रोश से निपटने के लिए सत्ता सेना को पालतू कुत्ते की तरह इस्तेमाल करती है। माओवाद का हौव्वा खड़ा करने और फिर सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों के प्रयोग के पीछे भी सत्ता का यही मकसद काम कर रहा है। खजिन संपदा वाले राज्य झारखण्ड, छत्तीसगढ, पं बंगाल, उड़ीसा व आंध्र प्रदेश में करीब 70 हजार अर्द्धसैनिक बल लगाया जा चुका है। वहां खजिन बहुल इलाकों से आदिवासियों को उजाड़कर सरकारी कैम्पों में बसाया जा रहा है। बहुराष्ट्ीय कम्पनियों के लिए पहली बार इतने बड़े पैमाने पर अर्द्धसैनिक बलों का प्रयोग किया गया। हालांकि यह सबकुछ माओवाद हिंसा से निपटने के नाम पर किया जा रहा है, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक कारणों को उन सवालों की तरह नजरअंदाज किया जा सकता जो कनाडाई उच्चायोग्य ने मानवाधिकार हनन के संबंध में भारतीय सैन्य एजेंसियों पर उठाए थे। दरअसल ऐसा भी नहीं है कि केवल भारतीय सेना ही मानवाधिकारों का हनन करती है या कनाडा-अमेरिका की सेना नागरिक क्षेत्रों में मानवाधिकारों का सम्मान करती है। बल्कि किसी भी देश के नागरिक क्षेत्रों में सेनाओं का यही इतिहास रहा है कि वो मानवाधिकारों की हत्या के बल पर ही वहां कथित शांति स्थापित करती हैं। संदेह के आधार पर निर्दोष लोगों की जान ले लेना उनके कार्यपद्धति का हिस्सा है। कई ऐसे काले कानून बकायदे उन्हें ऐसी हत्याओं की इजाजत भी देते हैं।

चमड़िया जैसा 'इडियट' नहीं, राय जैसा 'चतुर' बनेंगे

विजय प्रताप

अनिल चमड़िया एक 'इडियट' टीचर है। ऐसे 'इडियट्स' को हम केवल फिल्मों में पसंद करते हैं। असल जिंदगी में ऐसे 'इडियट' की कोई जगह नहीं। अभी जल्द ही हम लोगों ने 'थ्री इडियट' देखी है। उसमें एक छात्र सिस्टम के बने बनाए खांचे के खिलाफ जाते हुए नई राह बनाने की सलाह देता है। यहां एक अनिल चमड़िया है, वह भी गुरू शिष्य-परम्परा की धज्जियां उड़ाते हुए बच्चों से हाथ मिलाता है, उनके साथ एक थाली में खाता है। उन्हें पैर छूने से मना करता है। कुल मिलाकर वह हमारी सनातन परम्परा की वाट लगा रहा है। महात्मा गांधी के नाम पर बने एक विष्वविद्यालय में यह प्रोफेसर एक संक्रमण की तरह अछूत रोग फैला रहा है। बच्चों को सनातन परम्परा या कहें कि सिस्टम के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहा है।
दोस्तों, यह सबकुछ फिल्मों में होता तो हम एक हद तक स्वीकार्य भी कर लेते। कुछ नहीं तो कला फिल्म के नाम पर अंतरराश्ट्ीय समारोहों में दिखाकर कुछ पुरस्कार-वुरस्कार भी बटोर लाते। लेकिन साहब, ऐसी फिल्में हमारी असल जिंदगी में ही उतर आए यह हमे कत्तई बर्दाश्त नहीं। 'थ्री इडियट' फिल्म का हीरो एक वर्जित क्षेत्र (लद्दाख) से आता था। असल जिंदगी में यह 'इडियट' चमड़िया (दलितवादी) भी उसी का प्रतिनिधित्व कर रहा है। ऐसे तो कुछ हद तक 'थ्री इडियट' ठीक थी। हीरो कोई सत्ता के खिलाफ चलने की बात नहीं करता। चुपचाप एक बड़ा वैज्ञानिक बनकर लद्दाख में स्कूल खोल लेता है। लेकिन यहां तो यह 'इडियट' सत्ता के खिलाफ भी लड़कों को भड़काता रहता है। हम शुतुमुर्ग प्रवृत्ति के लोग सत्ता व सनातन सिस्टम के खिलाफ ऐसी बाते नहीं सुन सकते।
सो, साथियों हमारे ही बीच से महात्मा गांधी अंतरराश्ट्ीय हिंदी विष्वविद्यालय के कुलपति या यूं कहें कि सनातन गुरुकुल परम्परा के रक्षक द्रोणाचार्य के नए अवतार वी एन राय साहब ने इस परम्परा की रक्षा का बोझ उठा लिया है। वह अपनी एक पुरानी गलती (जिसमें कि उन्होंने छात्रों के बहकावे में आकर चमड़िया को प्रोफेसर नियुक्त करने की भूल की) सुधारना चाहते हैं। राय साहब को अब पता चल गया है कि गलती से एक कोई एकलव्य भी उनके गुरुकुल में प्रवेश पा चुका है। दुर्भाग्यवश अब हम लोकतंत्र में जी रहे हैं (नहीं तो कोई अंगूठा काटने जैसा ऐपीसोड करते) इसलिए चमड़िया को बाहर निकालने के लिए थोड़ा मुष्किल हो रहा है। तब एकलव्य के अंगूठा काटने पर भी इतनी चिल्ल-पौं नहीं मची थी जितने इस कथित लोकतंत्र में कुछ असामाजिक तत्व कर रहे हैं। राय साहब, आपके साथ हमें भी दुख है कि इस सनातन सिस्टम में लोकतंत्र के नाम पर ऐसे चिल्ल-पौं करने वालों की एक बड़ी फौज तैयार हो रही है। आपने ‘साधु की जाति नहीं पूछने वाली’ मृणाल पाण्डे जी के साथ अपने ऐसे 'इडियटों' को सिस्टम से बाहर करने का जो फैसला किया है, वो अभूतपूर्व है। इसी 'इडियट'(अनिल चमड़िया) ने हमारी मुख्यधारा की मीडिया के सामने आइना रख दिया था, जिसकी वजह से हमें कुछ दिनों तक आइनों से भी घृणा होने लगी थी। हम आइनें में खुद से ही नजर नहीं मिला पा रहे थे। वो तो धन्य हो मृणाल जी का जिन्होंने "साधु को आइना नहीं दिखाना चाहिए उससे केवल ज्ञान लेना चाहिए" का पाठ पढाया, और हमें उस संकट से उबारा. ठीक ही किया जो अपने विष्णु नागर जैसे छोटे कद के आदमी को मृणाल जी व खुद के समकक्ष बैठाने की बजाए उनका इस्तीफा ले लिया। हमारे सनातन सिस्टम में सभी के बैठने की जगह तय है। उसे उसके कद के हिसाब से बैठाना चाहिए। मृणाल जी की बात अलग है। वो कोई चमाइन नहीं, पण्डिताइन हैं, उनका स्थान उंचा है। सनातन सिस्टम में भी फैसला करने का अधिकार पण्डितों व भूमिहारों के हाथ में था, आप उसे जिवित किए हुए हैं हिंदू सनातन धर्म को आप पर नाज है।
साहब, आप तो पुलिस में भी रहे हैं। हम जानते हैं कि आपको सब हथकंडे आते हैं। एक और दलितवादी जिसका नाम दिलीप मंडल है आप की कार्यषैली पर सवाल उठा रहा है। कहता है कि आपने एक्जिक्यूटिव कांउसिल से चमड़िया को हटाने के लिए सहमति नहीं ली। उस मूर्ख को यह पता ही नहीं की द्रोणाचार्य जी को एकलव्य की अंगुली काटने के लिए किसी एक्जिक्यूटिव कांउसिल की बैठक नहीं बुलानी पड़ी थी। आप तो फैसला "आन द स्पाट" में विश्वाश करते हैं। सर जी, यह तो लोकतंत्र के चोंचले हैं। और आप तो पुलिस के आदमी हैं, वहां तो थानेदार जी ने जो कह दिया वही कानून और वही लोकतंत्र है। लोग कह रहे हैं, साहब कि जिस मिटिंग में चमड़िया को हटाने का फैसला हुआ उसमें बहुत कम लोग थे। उन्हें क्या पता कि जो आये थे वह भी इसी शर्त पर आए थे कि सनातन सिस्टम को बचाए रखने के लिए सभी राय साहब को सेनापति मानकर उनका साथ देंगे। जो खिलाफ जाते आप ने बड़ी चालकी से उन्हें अलग रख दिया। वाह जी साहब, इसी को कहते हैं सवर्ण बुद्धि। आप वहां हैं तो हमें पूरा भरोसा है कि वह विष्वविद्यालय सुरक्षित (और ऐसे भी साहब जहां पुलिस होगी वहां सुरक्षा तो होगी ही) हाथों में है।
साब जी, हमने गांव के छोरों से कह दिया है - यह लंठई-वंठई छोड़ों। इधर-उधर से टीप-टाप कर बीए, ईमे कर लो। बीयेचू चले जाओ, कोई पंडित जी पकड़ कर दुई चार किताबे टीप दो। फिर तो आप हईये हैं। एचओडी नहीं तो कम से कम प्रुफेसर-व्रुफेसर तो बनवाईये दीजिएगा। और साहब हम आपके पूरा भरोसा दिलाते हैं यह लौंडे 'अनिल चमड़िया' जैसा 'इडियट' नहीं 'अनिल अंकित राय' जैसा 'चतुर' बनकर आपका नाम रौशन करेंगे।

नवरात्र.....नख दंत विहीन नायिका का स्वागत है !

गीताश्री

शक्ति की पूजा-आराधना का वक्त आ गया है। साल में दस दिन बड़े बड़े मठाधीशों के सिर झुकते हैं..शक्ति के आगे। या देवि सर्वभूतेषु....नमस्तस्ये..नमो नम...। देवी के सारे रुप याद आ जाते हैं। दस दिन बाद की आराधना के बाद देवी को पानी में बहाकर साल भर के लिए मुक्ति पा लेने का चलन है यहां। फिर कौन देवी...कौन देवी रुपा.
ये खामोश देवी तभी तक पूजनीय हैं, जब तक वे खामोश हैं...जैसे ही वे साकार रुप लेंगी, उनका ये रुप हजम नही होगा..कमसेकम अपनी पूजापाठ तो वे भूल जाएं।
आपने कभी गौर किया है कि शक्ति की उत्पति शक्तिशाली पुरुष देवों के सौजन्य से हुई है। इसमें किसी स्त्री देवी का तेज शामिल नहीं है। शंकर के तेज से देवी का मुख प्रकट हुआ, यमराज के तेज से मस्तक के केश, विष्णु तेज से भुजाएं, चंद्रमा के तेज से स्तन, इंद्र के तेज से कमर, वरुण के तेज से जंघा, पृथ्वी(यहां अपवाद है) के तेज से नितंब, ब्रह्मा के तेज से चरण, सूर्य के तेज से दोनों पैरों की उंगलियां, प्रजापति के तेज से सारे दांत, अग्नि के तेज से दोनों नेत्र, संध्या के तेज से भौंहें, वायु के तेज से कान तथा अन्य देवताओं के तेज से देवी के भिन्न भिन्न् अंग बनें....।
कहने को इनमें तीन स्त्रीरुप हैं..अगर उनके पर्यायवाची शब्द इस्तेमाल करें तो वे पुरुषवाची हो जाएंगे। इसलिए ये भी देवों के खाते में...। ये पुरुषों द्वारा गढी हुई स्त्री का रुप है, जिसे पूजते हैं, जिससे अपनी रक्षा करवाते हैं, और काम निकलते ही इस शक्ति को विदा कर देते हैं। इन दिनों सारा माहौल इसी शक्ति की भक्ति के रंग में रंगा है...जब तक मू्र्ति है, खामोश है, समाज के फैसलों में हस्तक्षेप नहीं करती तब तक पूजनीया है। बोलती हुई, प्रतिवाद करती हुई, जूझती, लड़ती-भिड़ती मूर्तियां कहां भाएंगी।
हमारी जीवित देवियों के साथ क्या हो रहा है। जब तक वे चुप हैं, भली हैं, सल्लज है, देवीरुपा है, अनुकरणीय हैं, सिर उठाते ही कुलटा हैं, पतिता हैं, ढीठ हैं, व्याभिचारिणी हैं, जिनका त्याग कर देना चाहिए। मनुस्मृति उठा कर देख लें, इस बात की पुष्टि हो जाएगी।
किसी लड़की की झुकी हुई आंखें...कितनी भली लगती हैं आदमजात को, क्या बताए कशीदे पढे जाते हैं। शरमो हया का ठेका लड़कियों के जिम्मे...।
शर्म में डूब डूब जाने वाली लड़कियां सबको भली क्यों लगती है। शांत लड़कियां क्यों सुविधाजनक लगती है। चंचल लड़कियां क्यों भयभीत करती हैं। गाय सरीखी चुप्पा औरतों पर क्यों प्रेम क्यों उमड़ता है। क्योंकि उसे खूंटे की आदत हो जाती है, खिलाफ नहीं बोलती, जिससे वह बांध दी जाती है। जिनमें खूंटा-व्यवस्था को ललकारने की हिम्मत होती है वे भली नहीं रह जाती। प्रेमचंद अपनी कहानी नैराश्यलीला की शैलकुमारी से कहलवाते हैं..तो मुझे कुछ मालूम भी तो हो कि संसार मुझसे क्या चाहता है। मुझमें जीव है, चेतना है, जड़ क्योंकर बन जाऊं...।
आगे चलकर से.रा.यात्री की कहानी छिपी ईंट का दर्द की नायिका घुटने टेकने लगती है--हम औरतों का क्या है। क्या हम और क्या हमारी कला। हमलोग तो नींव की ईंट हैं, जिनके जमीन में छिपे रहने पर ही कुशल है। अगर इन्हें भी बाहर झांकने की स्पर्धा हो जाए तो सारी इमारत भरभरा कर भहरा कर गिर पड़े।...हमारा जमींदोज रहना ही बेहतर है .....।
लेकिन कब तक। कभी तो बोल फूटेंगे। बोलने के खतरे उठाने ही होंगे। बोल के लब आजाद हैं तेरे...। कभी तो पूजा और देवी के भ्रम से बाहर आना पड़ेगा। अपनी आजादी के लिए शक्ति बटोरना-जुटाना जरुरी है।
ताकतवर स्त्री पुरुषों को बहुत डराती है।
जिस तरह इजाडोरा डंकन के जीवन के दो लक्ष्य रहे है, प्रेम और कला। यहां एक और लक्ष्य जो़ड़ना चाहूंगी...वो है इन्हें पाने की आजादी। यहां आजादी के बड़े व्यापक अर्थ हैं। पश्चिम में आजादी है इसलिए तीसरा लक्ष्य भारतीय संदर्भ में जोड़ा गया है। एक स्त्री को इतनी आजादी होनी चाहिए कि वह अपने प्रेम और अपने करियर को पाने की आजादी भोग सके। यह आजादी बिना शक्तिवान हुए नहीं पाई जा सकती। उधार की दी हुई शक्ति से कब तक काम चलेगा। शक्ति देंगें, अपने हिसाब से, इस्तेमाल करेंगे अपने लिए..आपको पता भी नहीं चलेगा कि कब झर गईं आपकी चाहतें। ज्यादा चूं-चपड़ की तो दुर्गा की तरह विदाई संभव है। सो वक्त है अपनी शक्ति से उठ खड़ा होने का। पीछलग्गू बनने के दिन गए..अपनी आंखें..अपनी सोच..अपना मन..अपनी बाजूएं...जिनमें दुनिया को बदल देने का माद्दा भरा हुआ है।
इस बहस का खात्मा कुछ यूं हो सकता हैं।
सार्त्र से इंटरव्यू करते हुए एलिस कहती है कि स्त्री-पुरुष के शक्ति के समीकरण बहुत जटिल और सूक्ष्म होते हैं, और मर्दो की मौजूदगी में औरत बहुत आसानी से उनसे मुक्त नहीं हो सकती। जबाव में सार्त्र इसे स्वीकारते हुए कहते हैं, मैं इन चीजों की भर्त्सना और निंदा करने के अलावा और कर भी क्या सकता हूं।

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फास्ट फूडडिया प्रेम पर एक टिपण्णी

प्रदीप कुमार सिंह
दुनियां जितनी खुल रही है, प्रेम उतना ही संकीर्ण होता जा रही है। पता नहीं कब कौन जला भुना आत्मलीन प्रेमी चेहरे पर तेजाब फेक दे य गोली मार कर हत्या कर दे। धैर्य के अभाव में आज की युवा पीढ़ी वह सब कुछ कर दे रही है,जो वह करना चाहती है। अभी हाल में जो घटना सुनने को मिली उसमें यही कहां जा सकता है कि इस तरह के प्रेम में न तो परिपक्वता होती है और न प्रेम की समझ। ऐसी धटनाओं के अध्ययन से यह बात देखने को मिलती है कि ऐसे युवा अपने भावनाओं को न तो अपनी प्रेमिका के पास तक पहुंचा पाते है और न तो अपने घर परिवार, दोस्तों को ही बताते है। धीरे धीरे वह आत्मलीन हो जाता है। इस किस्म के लोग यह समझने लगते है कि समाज उनके हिसाब से चलना चाहिएं। इसलिए यह विकृति मनोरोग बन जाता है। उनकी दबी हुई भावना अंततः उसे हिंसा की तरफ उन्मुख कर देती है। इस तरह के मामलों में एक समय ऐसा आता है जब प्रेमी एकदम अकेला हो जा ता है। उसके सोचने समझने की क्षमता समाप्त हो जाती है। दूसरा सबसे बड़ा कारण पुरूष वर्चस्व और मानसिकता का है। सदियों से पुरूष महिलाओं को दबा कर रखा है। पुरूषों के अंदर यह भावना है कि वह तो सदियों से महिलाओं को देता आया है। प्रेम जैसी नायाब तोहफा वह अपने प्रेमिका को देना चाहता है, इसकी ये मजाल की लेने से इंकार कर रही है। आज की युवा पीढ़ी प्रेम को फास्ट फूड की तरह चाहती है। हाईप्रोफाइल टीवी धारावाहिकों ने इस प्रवृत्ति को और बढ़ा दिया है। यदि गहराई से देखा जाए तो इसका एक सामाजिक कारण है। समाज और संस्कृति के निर्माण की जो प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है,वह एक स्थान पर आकर रूक गई है। विगत वर्षो में हमारे समाज पर पाश्चात्य संस्कृति का बहुत गहरा प्रभाव पड़ां। आज हमारा समाज न तो पूरी तरह पश्चिमी संस्कृति को अपना पाया है। और न तो अपने पुराने नैतिक मूल्यों पर ही खड़ा है। संयुक्त परिवारों के टूटने और व्यक्ति के अपने काम से ही मतलब रखने से स्थितियां और भयंकर हो गई है। युवा वर्ग का असहिष्णु होना इस बात का द्योतक है कि नई पीढ़ी के निर्माण में आत्मविश्वास और सामुदायिकता का बोध नहीं है। हमारा युवा आत्मकेंद्रित,अक्रामक,धैर्यहीन और असहिष्णु हो गया है। यह सब अधूरे समाजीकरण का नतीजा है। यदि आत्मविश्वास नहीं है तो धैर्य भी नहीं होगा। इसके अभाव में लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में संयम से काम नहीं ले पाते है। जल्दी आपा खो देते है। वह धैर्य ही है जो सभ्य और असभ्य के बीच अंतर को स्पष्ट करता है। युवाओं म ंअहंकार,आत्मकेंद्रीयता और में हूं, मेरा कोई क्या कर लेगा,जैसे भाव अपनी सुदृढ़ जगह बनाते जा रहे है। इसके आलोक में मनुष्य की राक्षसी प्रवृति साधुता पर हावी होती जा रही है। सामाजिक विद्रूपता का एक कारण समाज में बहुत तेजी के साथ नवदौलतियां वर्ग का उभरना भी है। नव धनाड्य वर्ग में अपनी संतान का लालन पालन का तरीका बिल्कुल भिन्न है। उसमें समाज की जगह बहुत सिकुड़ी हुई है । सामाजिक सारोकारों से ऐसी संतानों का वास्ता सीमित है। कानून व्यवस्था के बारे में यही समझ विकसित होती चली जा रही है कि रसूख और पैसे के प्रभाव में कुछ भी किया जा सकता है। अपराधी छूट सकते है और छोटे मोटे अपराध की सजा से निजात पाई जा सकती है। इससे युवा के भीतर न तो कोई सामाजिक भय है और नही अपने दायित्व। तब फिर वह अपने प्रेमिका के शादी से मना कर देने पर तेजाब फेक दे रहा है,या गोली मार देने की घटनाओं को अंजाम देने से नहीं चूक रहा है। ठेठ उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में तो प्रेम करने पर जान से हाथ धेना पड़ता है। खुद परिवार वाले वहशियाने तरीके से इस क्रूरता को अंजाम देते है। वहां प्रेम विवाह करने वाले पति पत्नी को भाई बहन बना दिया जाता है। प्रेम,विवाह, समाज और कानून जब तक अपने संबंधों को की स्पष्ट सीमा रेखा का विभाजन नहीं कर लेते है। तब तक इस समस्या का कोई सार्थक हल नहीं निकल सकता है। भावना का यह रिस्ता कितने लोगों के लिए खेल है। प्यार जैसे नाजुक रिश्तों पर अति आधुनिक आदमी भी दोहरा मानदंड रखता है। जब तक इस पर स्वस्थ बहस और एक मानदंड नहीं तय होगा तब तक ऐसी विकृतिया जन्म लेती रहेगी।

मीडिया में इतिहास और अनुपात बोध का एनीमिया

आनंद प्रधान


क्या समाचार मीडिया को इतिहास और अनुपात बोध का एनीमिया (रक्ताल्पता) हो गया है? क्या वह, विवेक और तर्क के बजाय भावनाओं से अधिक काम लेने लगा है? खासकर टी वी समाचार चैनलों में इतिहास और अनुपात बोध की अनुपस्थिति कुछ ज्यादा ही संक्रामक रोग की तरह फैलती जा रही है। समाचार चैनल इस कदर क्षणजीवी होते जा रहे हैं कि लगता ही नहीं है कि उस क्षण से पीछे और आगे भी कुछ था और है। समाचार चैनलों की स्मृति दोष की यह बीमारी अखबारों को भी लग चुकी है।
आम चुनाव 2009 और उसके नतीजों को ही लीजिए। पहली बात यह है कि बिना किसी अपवाद अधिकांश समाचार चैनलों और अखबारों के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण, एक्जिट पोल, चुनावी भविष्यवाणियां और पूर्वानुमान एक बार फिर मतदाता के मन को भांपने मे नाकामयाब रहें। लेकिन इसके लिए खेद जाहिर करने और नतीजों की तार्किक व्याख्या करने के बजाय चुनाव नतीजों को एक चमत्कार की तरह पेश किया गया। ऐसा लगा जैसे कांग्रेस को अकेले दम पर बहुमत मिल गया हो और भाजपा से लेकर वामपंथी पार्टियों और क्षेत्रीय दलों का पूरी तरह से सफाया हो गया हो।
सच है कि सफलता से ज्यादा सफल कुछ नही होता है और सफलता के अनेकों साथी होते है। चैनलों और अखबारों के पत्रकारों और विश्लेषकों पर ये दोनों बातें सबसे अधिक लागू होती है। चुनाव नतीजों का बारीकी से विश्लेषण करने के बजाय कांग्रेस की जीत और भाजपा और तीसरे मोर्चे के हार के लिए ज्यादातर अति-सरलीकृत कारण गिनाये गए जिनमें सामान्य इतिहास और अनुपात बोध का स्पष्ट अभाव था। इस इतिहास बोध के अभाव के कारण चुनावी नतीजों का विश्लेषण और जनादेश की व्याख्या इतनी भावुक, आत्मगत, पक्षपातपूर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त और एकतरफा थी कि जिसे इतिहास का ज्ञान नही होगा, उसे लगेगा जैसे कोई क्रांति हो गयी हो।
जाहिर है कि समाचार मीडिया कांग्रेस की जीत के उन्माद और आनंदोत्सव में ऐसे डूबा हुआ है कि किसी विश्लेषक को कांग्रेस की चुनाव रणनीति और अभियान मे कोई कमी नही दिख रही है। उसके मुताबिक, कांग्रेस इस जीत के साथ एक ऐसी पार्टी बन चुुकी है जिसमें कोई कमी नही है। यही नहीं, कांग्रेस अचानक ऐसा पारस पत्थर बन गयी जिसे छूकर ममता बैनर्जी से लेकर करूणानिधि तक मामूली पत्थर से सोना बन गए हैं। राहुल राग का तो खैर कहना ही क्या?
दूसरी ओर, समाचार मीडिया को एनडीए खासकर भाजपा और तीसरे मोर्चे मे माकपा की चुनावी रणनीति और अभियान में ऐसा कुछ नही दिखा जो सही था। यह साबित करने की कोशिश की गयी कि अब क्षेत्रीय दलों का जमाना गया, वामपंथी दल इतिहास बन जाएंगे और तीसरे-चैथे मोर्चे के सत्तालोलुप नेताओ को कूडेदान मे फेक दिया है। इसके अलावा भी बहुत कुछ और कहा गया जो विश्लेषण कम और भावोद्वेग अधिक था।
यहां इतिहास को याद करना बहुत जरूरी है। कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकारों का एक इतिहास रहा है और एक वर्तमान भी है। बहुत दूर न भी जाएं तो 1984 में मिस्टर क्लीन राजीव गांधी आज से कही ज्यादा भारी बहुमत और उससे भी अधिक उम्मीदों के साथ सत्ता में पहुंचे थे। उसके बाद क्या हुआ,वह बहुत पुराना इतिहास नही है। यही नही, कांग्रेस को इसबार लालू-मुलायम-मायावती और जयललिता जैसों की बैसाखी से भले मुक्ति मिल गयी हो लेकिन खुद कांग्रेसी इनसे कम नहीं हैं।
कांग्रेस खुद एक गठबंधन है जिसमे सत्ता के त्यागी, संत और सेवक कम और सत्ता के आराधक ज्यादा हैं। कांग्रेस मे सत्ता की मलाई में अपने-अपने हिस्से के लिए खींचतान कोई नई बात नही है। इसे देश ने पहले भी देखा है और आगे भी देखेगा। अगर रातों-रात ममता बैनर्जी और करूणानिधि बदल न गये हों तो देश उनके नखरे, रूठने और मनाने के नाटक आगे भी देखेगा।
याद रखिए, कांग्रेस का एक चरित्र है, एक संस्कृति है और एक इतिहास भी है। इसी तरह, सत्ता का भी अपना एक चरित्र, इतिहास और संस्कृति है। आमतौर पर इसमें रातो-रात बदलाव नही आता। लेकिन मीडिया इसे जानबूझकर अनदेखा कर रहा है। इसके कारण धीरे-धीरे यह स्मृति दोष की बीमारी बनती जा रही है। इस बीमारी ने उसे न सिर्फ दूर तक देख पाने में अक्षम बना दिया है बल्कि उसे निकट दृष्टि दोष की समस्या का भी सामना करना पड़ रहा है।

भगत सिंह और यंगिस्तान

शालिनी वाजपेयी
23 मार्च 1931 को एक 23 वर्ष के युवा क्रांतिकारी ने बिना किसी ईश्वरीय सत्ता का ध्यान किए हंसते हुए फांसी के फंदे को चूम लिया था। यह क्रांतिकारी जिस इंकलाब की बात करता था उसकी तलवार किसी बम और पिस्तौल से नहीं बल्कि विचारों की सान पर तेज होती है। वही विचार जो पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के नाश की बात करते हैं। यह युवा क्रांतिकारी जो अपने जीवन भर एक ऐसे भारत के निर्माण का सपना देखता रहा जिसमें कोई मनुष्य किसी मनुष्य का शोषण न करे, सभी को सामान अधिकार प्राप्त हों, लेकिन क्या मिला इस शहादत से सब कुछ वही हो रहा है जिसके खात्में की बात भगत सिंह और उनके साथी किया करते थे। उन्होंने जिस साम्राज्यवाद के नाश की बात की थी वही आज हमारे युवाओं से उनकी रोजी-रोटी छीन रहा है, वही साम्राज्वाद किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रहा है और मजदूरों से उनके अधिकार छीन रहा है लेकिन हम उसी साम्राज्यवाद की चौखट पर अपना मत्था टेक रहे हैं। इसी मत्था टेकने के फल में हमें परमाणु करार, आर्थिक मंदी और भारत-अमेरिका सह सैनिक युद्धा यास मिल रहा है। जो हमारे खात्मे के लिए ही विकसित किया जा रहा है, खात्मा उस आम जनता और संघर्षशील युवाओं का।
इस १५ वें लोकसभा चुनाव में सत्तर फीसदी के लगभग युवा अपने देश के भविष्य को चुनने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। युवा मतदाताओं की अधिकता के कारण सभी चुनावी दल अपनी पार्टी से युवा नेताओं को हिस्सेदार बना रहे हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि ये युवा नेता मसलन राहुल गांधी, वरुण गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलेट जो अपने मुंह में चांदी का च मच लेकर पैदा हुए हैं और अपनी विरासती जमीन पर अपने पुरखों की लहलहाती फसल को काटने की तैयारी में लगे हुए हैं, ये इन संघर्षशील युवाओं के दर्द को समझ सकेंगे? ये समझ सकेंगे उस आईआईटी छात्र के दर्द को जो इतनी मेहनत के बाद भी बेरोजगारी की भूलभुलैया में खोया हुआ है। ये समझ सकेंगे उन छात्रों को जो बेरोजगारी की पीड़ा न सहन करने के कारण अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। ये उस छात्र को समझ सकेंगे जो विवि और कॉलेजों की महंगी शिक्षा की वजह से ही अशिक्षित रह जाता है। चंद दलितों के घर खाना ख लेने से, उनके घर पर रात बिता लेने से इन गरीब दलितों की समस्याएं खत्म नहीं हो जाएंगी। इनकी समस्याएं अभी भी पहाड़ की तरह इनके सामने खड़ी हैं तब जरूरत है ऐसी नीतियों की, ऐसे निर्णयों की जो इनकी जिंदगी खुशहाल बना सकें और रोके इन दलितों होने वाले शोषण को जो अभी भी सामंतों के द्वारा इन पर किया जा रहा है। रोके सामाजिक शोषण को जिसके बोझ से ये अभी भी उबर नहीं पा रहे हैं।
जब इतनी सारी समस्याएं खड़ी हैं, तो सवाल उठता है कि है किसी युवा नेता में इतनी दम जो इन सारी समस्याओं को हल कर सके। जब इतनी मुश्किलों की बात आती है तो बस एक ही युवा नेता का नाम याद है वह है भगत सिंह की विरासत को स भालने वाला और इनके विचारों पर चलने वाला कोई नेता। ऐसे समय में भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने क्9 अक्टूबर क्9ख्9 को लाहौर के छात्रों के लिए जो पत्र लिखा था उसके शŽद अभी भी गूंज रहे हैं और इतने ही प्रासंगिक हैं जितने कल थे, `इस समय पर हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएं लेकिन राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कंधों पर बहुत बड़ी जि मेदारी आ पड़ेगी। यह सच है कि स्वतंत्रता के इस युद्ध में अगि्रम मोर्चे पर विद्यार्थियों ने मौत से टक्कर ली है। क्या परीक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचाएंगे? नौजवानों को क्रांति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है, करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है जिससे आजादी आएगी और तब तक मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण अस भव हो जाएगा।ं
भगत सिंह की ऐसी क्रांति की इच्छा अभी पूरी नहीं हुई है। नौजवानों ने देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और बलिदान दिए हैं, लेकिन इन कठिन क्षणों में नौजवानों के ऊपर बड़ी जि मेदारी है। इन नौजवानों को भगत सिंह के सपनों के भारत के लिए अभी लड़ना है। जरूरत है इसी तरह की क्रांति की, इसी तरह के बदलाव की जिसकी बात भगत सिंह और उनके साथी किया करते थे। अपनी इसी जि मेदारी के साथ युवाओं को भगत सिंह की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए भगत सिंह जैसे नेता को चुनना होगा। वर्तमान नेताओं से मांग करनी होगी ऐसे ही व्यçक्त की जो इतने बदलाव ला सके, जो इतने सारे सवालों को हल कर सके। जब इतनी सं या में युवा मतदान करने जा रहे हैं तो उन्हें अपनी इस भूमिका को और मजबूती से साबित करना है, यही मौका है जब बदलाव की ज्वला जलाई जा सकती है। इन युवा मतदाताओं को बाहर आना होगा अपने मनोरंजन की दुनिया से, आहर आना होगा एसी और सोफों से ताकि मजदूर किसान के दर्द को समझ सकें और उन्हें उनकी जीत का आश्वासन दे सकें। चुनावी खेल में शामिल होकर अपनी ताकत इन झूठे और मक्कार नेताओं को दिखानी होगी। युवा वर्ग ही ऐसा होता जिसमें कुछ कर दिखाने की क्षमता होती है, अपनी इसी क्षमता को सिद्ध करना है।
मीडिया भी युवा नाम को बहुत प्रचारित करता है मगर अपने स्वार्थरूप में न कि वास्तविक छवि में? उसके लिए यंगिस्तान वही है जो `पेप्सीं से अपनी प्यास बुझाता है। उसके युवा धोनी एंड ग्रुप पेप्सी पीकर कहते हैं कि ये है यंगिस्तान मेेरी जान, लेकिन यंगिस्तान ये नहीं है। यंगिस्तान वह है जो लोक सभा के चुनावों में अपनी ताकत दिखाएगा और अपने देश का बेहतर भविष्य चुनेगा। इस समय मीडिया को भी इस छद्म यंगिस्तान को भूलकर वास्तविक यंगिस्तान की ओर अपना रुख करना होगा। मीडिया को भगत सिंह के विचारों को प्रचारित करना होगा। फिल्में भी भगत सिंह को हमारे युवाओं से जोड़कर दिखाने का प्रयास करें जिससे युवा इस `पेप्सीं जैसे घटिया पेय से प्यास बुझाने वाले यंगिस्तान की असलियत जान सकें और इसे ठोकर मार कर बाहर निकाल सकें, क्योंकि यही तो है जो हमारे युवाओं को छल रहा है।
भगत सिंह ने कहा था- `क्रांति से हमारा प्रयोजन अंततज् एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसको इस प्रकार के घातक खतरों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुता को मान्यता दी जाए और एक विश्व संघ मानव जाति को पूंजीवाद के बंधन से तथा युद्ध से बबाüदी और मुसीबत से बचा सके।ं
हमें इसी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद से बचना है जो हमारे किसानों, युवाओं को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रहा है। हमें इसी सम्राज्यवाद से बचना है जो गरीबों के हाथ से रोटी छीन रहा है और हमारे बच्चों को कुपोषण की गुफा में ढकेल रहा है। तो आह्वान है ऐसी ही युवा क्रांति का जो भगत सिंह की विरासत को आगे बढ़ा सके, और बो सके ऐसी बंदूकें जो पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का नाश कर सकें और सर्वहारा की सत्ता लाकर समाजवाद को स्थापित कर सकें।
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राजस्थान के "उस्ताद" गणेश लाल व्यास

उस्ताद गणेश लाल व्यास राजस्थान के उस जनकवि का नाम है जिसने गुलाम भारत से लेकर 'आजाद' भारत तक में किसानो-मजदूरों और मेहनतकशों की आज़ादी की आवाज़ को बुलंद किया. उन्होंने अपनी कविताओं को हथियार बनाया और राजस्थान की सामंती रियासती परंपरा के खिलाफ संघर्ष छेड़ा. उस्ताद ने जिस भारत का सपना देखा वही सपना शहीद भगत सिंह और १९६९-७० के दशक में नक्सलबाड़ी के लोगों ने देखा था. गैरबराबरी, सामंती जुल्मों सितम का वह दौर जिसके खिलाफ उस्ताद ने संघर्ष किया वह अभी खत्म नहीं हुआ है. ऐसे में उस्ताद गणेश लाल व्यास और उनकी कविताएँ आज़ादी का ख्वाब देखने वालों के लिए चिराग सी हैं.
जनकवि गणेश लाल व्यास 'उस्ताद' की जन्मशताब्दी के अवसर पर विकल्प जनसंस्कृतिक मंच और साहित्य अकादमी की ओर से कोटा में २८-२९ मार्च को आखर कीरत: उस्तादां री आण कार्यक्रम आयोजीत हुआ। इसमें रंगकर्मी साहित्यकार और चित्रकार रवि कुमार ने उस्ताद की कविताओं पर कुछ सुन्दर पोस्टर बनाये।

उस्ताद की एक कविता

सुख समता री रीत कठे है
आज़ादी री जीत कठे है
तन रौ जल आंसू बण बेहग्यौ
हलक सुख्ग्यौ गीत कठे है
आज़ादी री जीत कठे है।








कविता पोस्टर साभार: रवि कुमार रावतभाटा

होली का उपहार, शिवराम की दो कविताएँ

कोटा में अपनी पहली होली पर शाम को जब रंगकर्मी, साहित्यकार और मार्क्सवादी नेता शिवराम से मिला तो उन्होंने मुझे ये दो कविताएँ उपहार में दी. जिसे आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ.

भूरे हो गए हैं खेत

भूरे हो गए हैं खेत

आभा सुनहरी

माथे पर उपहार की गठरी उठाए

स्वागत में कड़ी हैं

गेहूं के पौधों की लम्बी कतारें

जीवन के अंतिम क्षणों में

व्यग्र हैं वे

भेंट करने को

अपना श्रेष्टतम उपहार

सर्वस्व अपना/उन्हें

जिन्होंने दिया जीवन

पाला पोषा

हर तरह से रखा ध्यान

कुछ भी न जाए, हमारा व्यर्थ

बस यही एक कमाना संजोये

नाम आँखों से तक रहे वे राह

उनकी कोख से उत्पन्न

सुघड़ अन्न

बनेगा जीवनधारा

सृष्टि की श्रेष्ट रचना का

वे उल्लासित हैं

गर्व से ताना है, उनका शीश

हवा के हर झोंके पर झूमते महकते हैं भीना-भीना

भूरे हो गए हैं खेत

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नए हुनर की तलाश में

हवा शांत है,

लेकिन पतंग उड़ रही है

ठुमका - ढील

ठुमका - ढील

ठुमका दर ठुमका

फिर थोडी से ढील

ढील - खेंच

पतंग है की गिरी - गिरी जाती है

किशोर है की उसे उठाए - उठाए जाता ही

हाथों को क्षण भर का चैन नहीं

आँखे लगातार पतंग पर

पैर हर ठुमके पर

चलने लगते हैं पीछे

नीचे से रह-रह कर आवाज़ आ रही है

खाने के लिए पुकारा जा रहा है

पता नहीं

वह सुन भी पा रहा है या नहीं

अभी वह कर्मयोग में डूबा हुआ है

पूरी तरह एकाग्र

ध्यानस्थ

दत्तचित्त

वह हवा-गति के बिना भी

पतंग उड़ने का हुनर विकसित कर रहा है.

हो सकता है

वह सोच रहा है

ऐसी पतंग के बारे में

जो बिना हवा के उड़ सके।

- शिवराम

जिम्मेदारी से मुंह न चुराए सरकार

आनंद प्रधान

राजधानी में रायसीना की पहाçड़यों पर स्थित नॉर्थ ब्लॉक में बैठे वित्त मंत्रालय के आला अधिकारियों को जैसे इस खबर का ही इंतजार था। केंद्रीय सांçख्यकी संगठन (सीएसओ) के अगि्रम अनुमान के अनुसार, चालू वित्त वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7।1 प्रतिशत रहने की उम्मीद है। इस खबर के साथ ही वित्त मंत्रालय के आला अधिकारियों से लेकर योजना आयोग और प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में वित्त मंत्रालय का कामकाज देख रहे प्रणब मुखर्जी के चेहरे तक पर खुशी, राहत और निश्चिंतता के भाव साफ देखे जा सकते हैं। वजह साफ है। हालांकि पिछले वित्त वर्ष (2007-08) में जीडीपी की नौ प्रतिशत की वृद्धि दर की तुलना में चालू वित्त वर्ष (2008-09) में 7।1 फीसदी की दर का अनुमान अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ्तार की ओर ही संकेत करता है, लेकिन यूपीए सरकार के आर्थिक मैनेजरों का दावा है कि वैश्विक मंदी और वित्तीय संकट के बीच दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले भारतीय अर्थव्यवस्था का यह प्रदर्शन न सिर्फ संतोषजनक है, बल्कि वह दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। यही नहीं, इन मैनेजरों का यह भी दावा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस साल की दूसरी छमाही यानी अगले वित्त वर्ष (09-10) की दूसरी तिमाही से फिर गति पकड़ने लगेगी। इन दावों के पीछे छिपे संदेश स्पष्ट हैं। अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का कहना है कि अर्थव्यवस्था के लिए चिंता करने की जरूरत नहीं है। वैश्विक मंदी के कारण अर्थव्यवस्था की रफ्तार कुछ सुस्त जरूर है, लेकिन स्थिति पूरी तरह से नियंत्रण में है। पर हकीकत इसके ठीक उलट है। ऐसे गुलाबी दावे करने के पीछे इन आर्थिक मैनेजरों की मजबूरी समझी जा सकती है। अगले दो-तीन महीनों में आम चुनाव होने हैं और यूपीए सरकार अपने आर्थिक प्रबंधन का ढोल पीटने से पीछे नहीं रहना चाहती। वह जीडीपी वृद्धि दर के ताजा आंकड़ों के आधार पर यह साबित करना चाहती है कि विपरीत और प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद उसने अर्थव्यवस्था को कामयाबी के साथ संभाला है। लेकिन अर्थव्यवस्था को लेकर यूपीए सरकार और उसके आर्थिक मैनेजरों की यह खुशफहमी और निश्चिंतता देश को भारी पड़ रही है। सरकार भले न स्वीकार करे, लेकिन सच यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार नीचे की ओर लुढ़क रही है। यहां तक कि जीडीपी को लेकर सीएसओ का अगि्रम अनुमान भी कुछ ज्यादा ही आशाजनक दिखाई देता है। रिजर्व बैंक और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अनुमानों को छोड़ दें, तो चालू वित्त वर्ष (2008-09) में जीडीपी की वृद्धि दर को लेकर अधिकांश गैर सरकारी और विश्व बैंक-मुद्रा कोष जैसे संगठनों और एजेंसियों के अनुमान पांच से 6।5 फीसदी के बीच हैं। यही नहीं, अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आ रहे संकेतों से भी यह स्पष्ट है कि सरकारी दावों के विपरीत हमारी अर्थव्यवस्था न सिर्फ लड़खड़ा रही है, बल्कि गहरे संकट में फंसती दिख रही है। इसका सुबूत यह है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपने ताजा अनुमान में वर्ष 2009 में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर के सिर्फ पांच प्रतिशत रहने की आशंका व्यक्त की है। इस आशंका को इस तथ्य से बल मिलता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की तेजी में उल्लेखनीय योगदान करने वाले कई क्षेत्रों, जैसे निर्यात, मैन्युफैक्चरिंग, रीयल इस्टेट, वित्त एवं बीमा, सेवा तथा परिवहन-होटल व्यापार की हालत बहुत पतली है। खासकर मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र पर मंदी की सबसे तगड़ी मार पड़ी है। सीएसओ के अनुसार, चालू वित्त वर्ष में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले वित्त के 8।2 प्रतिशत से गिरकर आधी 4।1 फीसदी रह जाने की आशंका हैं। ध्यान रहे कि पिछले अक्तूबर में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर पिछले 13 वर्षों में पहली बार नकारात्मक हो गई थी। हालांकि अगले महीने नवंबर में उसमें मामूली सुधार दर्ज किया गया, लेकिन औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर में भारी गिरावट को जीडीपी की 7।1 प्रतिशत की वृद्धि दर से छिपा पाना मुश्किल है। अगर सरकारी आंकड़े को ही सही मानें, तब भी स्थिति कितनी भयावह है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले वर्ष की आखिरी तिमाही में हर दिन लगभग 5,434 श्रमिकों को छंटनी का शिकार होना पड़ा है। केंद्रीय वाणिज्य सचिव के अनुसार, पिछले साल अगस्त से दिसंबर के बीच 10 लाख श्रमिकों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है और मौजूदा स्थितियों को देखते हुए मार्च तक पांच लाख और श्रमिकों पर छंटनी की गाज गिर सकती है। अर्थव्यवस्था की दिन पर दिन बदतर हो रही स्थिति का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि एक ओर लाखों श्रमिकों की नौकरियां जा रही हैं, तो दूसरी ओर, नए निवेश न होने के कारण नई नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं। देश में निवेश प्रोजेक्ट्स की निगरानी करने वाले संगठन प्रोजेक्ट्स टुडे के अनुसार, पिछले वर्ष दो लाख नौ हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के करीब 420 नए प्रोजेक्ट या तो ठप हो गए या फिर ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं।यही नहीं, केंद्र सरकार की कर वसूली में पिछले वित्त वर्ष (07-08) की तुलना में अक्तूबर में 13 प्रतिशत, नवंबर में 15 प्रतिशत और दिसंबर में 25 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। अगर इसके बावजूद यूपीए सरकार और उसके आर्थिक मैनेजरों को लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन संतोषजनक है और इस साल के उत्तराद्धü तक स्थिति बेहतर हो जाएगी, तो मानना पड़ेगा कि वे न केवल परम आशावादी हैं, बल्कि खालिस खुशफहमी में जी रहे हैं। निश्चिंतता की यह मुद्रा ओढ़ने के पीछे कहीं यह वजह तो नहीं है कि अर्थव्यवस्था की बिगड़ती स्थिति की सचाई स्वीकारने पर सरकार को उससे निपटने के लिए मैदान में उतरना पड़ेगा और जबानी जमाखर्च के बजाय ठोस उपाय करने पड़ेंगे? साफ है कि सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुंह चुराने की कोशिश कर रही है। दरअसल, वह अब भी नव उदारवादी अर्थनीति की लक्ष्मण रेखा लांघने को तैयार नहीं है। उसके लिए अब भी मंदी से अधिक महत्त्वपूर्ण वित्तीय घाटे को काबू में रखना है। इसीलिए वह साहस के साथ नई पहलकदमी के लिए तैयार नहीं है और 7।1 फीसदी की वृद्धि दर को लेकर अपनी पीठ ठोंकने में जुटी हुई है।(लेखक आईआईएमसी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

क्यूबा-कास्त्रो को लाल सलाम !!

क्यूबा की क्रांति के पचास साल ऐसे अहम दौर में पूरे हुए हैं, जबकि पूरी दुनिया में कथित तौर पर मंदी छाई है. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और उसके पैरोकार एक बार फ़िर मार्क्स की 'पूँजी' के पन्ने पलट रहे हैं. ऐसे दौर में क्यूबा उनके लिए लाइट टॉवर की तरह है. क्यूबा की क्रांति को शिवराम अपना सलाम पेश कर रहे हैं. शिवराम ख़ुद भी बड़े मार्क्सवादी विचारक और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के पोलित ब्यूरो सदस्य है. राजस्थान के कोटा शहर के रहने वाले शिवराम एक कुशल संगठनकर्ता के साथ-साथ रंगकर्मी व साहित्यकार भी हैं.

- शिवराम
क्यूबा की क्रांति को 50 वर्ष पूरे हो गए हैं। क्यूबा समाजवादी व्यवस्था की श्रेष्ठता का जीता जागता मिसाल है। समाजवाद की मिसाल तो सोवियत संघ व दूसरे यूरोपीय देशों ने भी बनाई, लेकिन वे इसे कायम नहीं रख सके। पंूजीवादी षडयंत्रों ने उन्हें लील लिया। यद्यपि समाजवादी व्यवस्था की श्रेष्ठता उन्होंने भी सिद्ध की।
क्यूबाई क्रांति के एक साल बाद ही क्यूबा से अशिक्षा नाम की चीज बिल्कुल खत्म हो गई। क्रांति के तुरंत बाद ही प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक की शिक्षा मुफ्त कर दी गई। आज क्यूबा में दुनिया के किसी भी देश से प्रति व्यक्ति शिक्षकों की संख्या ज्यादा है। क्यूबा ने क्रांति के ठीक बाद जो जन साक्षरता अभियान चलाया, वह सारी दुनिया के लिए उदाहरण बन गया।क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी की समझ रही है कि सामाजिक बराबरी के लिए सबसे महत्वपूर्ण औजार शिक्षा है। इसी प्रकार क्यूबा की स्वास्थ्य रक्षा व्यवस्था दुनिया के लिए उदाहरण है।
क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने शिक्षा व स्वास्थ्य को अपने कार्यक्रम में अहम दर्जा दिया। क्यूबा में हर एक लाख लोगों पर 591 डाॅक्टर हैं। यह दुनिया का सबसे बड।ा अंाकडा है। अमेरिका में यह संख्या एक लाख लोगों पर 256 ही है। 2006 के आंकड़ों के मुताबिक शिशु मृत्यु दर 1000 प्रसवों पर मात्र 5 3 है। अमेरिका में यह दर इससे काफी उॅंचा है। भारत जैसे देषों की तो बात ही छोड़िए। क्यूबा में क्रांति से पूर्व शिशु मृत्यु दर इससे दस गुना ज्यादा था। क्यूबा में औसत आयु 78 वर्ष है। क्रांति से पूर्व यह 58 वर्ष था। दूसरे लैटिन अमेरिकी देशों में आज भी शिशु मृत्यु दर क्यूबा से दस गुना ज्यादा है। महिला सशक्तिकरण क्यूबा क क्रांति की एक और बड़ी सफलता है। क्यूबा की कुल श्रमशक्ति में महिलाओं की संख्या 40 प्रतिशत है। तकनीकी श्रम शक्ति में तो महिलाओं की संख्या 66 प्रतिशत है। क्यूबा की राष्टीय एसेम्बली में 36 प्रतिशत महिलाएं है। खेलकूद और कला संस्कृति की दुनिया में क्यूबा की उपलब्धियां दुनिया भर के लिए इर्ष्या का विषय है।
सोवियत संघ के पतन के बाद क्यूबा-क्रांति को भारी संकट का सामना करना पड़ा। एक ओर साम्राज्यवाद ने नाकेबंदी सहित तमाम षड़यंत्र क्यूबाई क्रांति को नेस्तोनाबूद करने के लिए किए तो दूसरी ओर क्यूबा से पूर्व समाजवादी देशों को बड़े पैमाने पर निर्यात होता था, अब वह भी बंद हो गया। पूरी अर्थव्यवस्था संकट में आ गई। क्यूबा का 85 प्रतिशत व्यापार समाजवादी शिविर देशों से था। 1993 में क्यूबा की अर्थव्यवस्था में 39 प्रतिशत की गिरावट आ गई थी। दुनिया के पूंजीवादी भविष्यवक्ता क्ूयबाई क्रांति का मर्सिया पढ़ने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन क्यूबा के श्रमजीवी जन-गण ने अपनी क्रांतिकारी सरकार के नेतृत्व में फिर करिश्मा कर दिखाया।2005 तक क्यूबा की अर्थव्यवस्था वापस अपनी पुरानी स्थिति में लौटने बढ़ने लगी। एक बात जो बहुत महत्वपूर्ण है कि सोविय संघ के पतन के बाद के वर्षों में जब क्यूबा की अर्थव्यवस्था संकट में फंस गई, तब भी क्यूबा की सरकार ने जनता की मूलभूत आवश्यकताएं, जो क्यूबाई क्रांति की चार प्राथमिकताओं के नाम से जानी जाती है जारी रखी। ये हैं- १. मुफ्त स्वास्थ्य सेवा २. मुफ्त शिक्षा ३. सभी के लिए सामाजिक सुरक्षा और ४. सभी के लिए आवास।
क्रांति ने क्यूबा में जो एक और बड़ा काम किया वह है- नस्लवादी विचारों व भावनाओं का खात्मा। क्रांति से पहले क्यूबा में नस्ली पूर्वाग्रह बहुत था। इस क्षेत्र में क्यूबा में दास प्रथा सबसे बाद में समाप्त हुई थी। क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने क्रांति के फौरन बाद आधारभूत भूमि सुधार लागू किया और आवासविहीन लोगों को आवास उपलब्ध कराए। इस तरह हाशिये पर पड़ी अश्वेत आबादी को सुरक्षाव सम्मान दोनों उपलब्ध कराया। शिक्षा के प्रसार ने हीन बोध से मुक्त किया और उनकी गरिमा स्थापित की। क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी ने क्रांति के ठीक बाद पूरे देश में नस्लवाद के विरुद्ध विचारधारात्मक अभियान चलाया। उसने अफ्रीकी देशों का भी नस्लवाद उपनिवेशवाद से लड़ने में सहयोग किया। सत्तर व अस्सी के दशक में अफ्रीकी देशों के मुक्ति आंदोलनों तथा प्रगतिशील सरकारों की क्यूबा सरकार व कम्युनिस्ट पार्टी ने महत्वपूर्ण मदद की। अल्जीरिया की मोरक्कों के आक्रमण के समय सैनिक मदद की । कांगो के मुक्ति के योद्धाओं के संघर्ष में तो चेग्वेरा अपने साथियों सहित खुद शामिल हुए । अंगोला, मोजाम्बिक, केप वर्दे व नामीबिया जैसे देशों की आजादी के लिए चले संघर्षों में क्यूबा ने आगे बढ़कर मदद की। उसने दक्षिण अफ्रीका से रंगभेद के खात्मा व विऔपनिवेशिकरण की प्रक्रिया में प्रभावशाली भूमिका निभाई।क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने सर्वहारा अंतर्राश्ट्ीयतावाद का झंडा जिस मजबूती से थामे रखा वह बेमिसाल है। एशिया, अफ्रीका व खासकर लैटिन अमेरिकी देषों में उसने राश्ट्ीय मुक्ति आंदोलन के लिए प्रेरणास्पद सहयोग किया। अभी भी क्यूबा के 30 हजार से अधिक डाॅक्टर तथा स्वास्थ्यकर्मी लैटिन अमेरिकी व कैरीबियाई देषों में तैनात हैं।
फिदेल कास्त्रों का कहना है कि क्यूबाईयों के लिए यह चमत्कार कर दिखाना इसलिए संभव हुआ ‘‘क्योंकि क्रांति को हमेशा से राष्ट का, एक प्रभावशाली जनता का, जो बड़े पैमाने पर एकजुट, शिक्षित व लड़ाकू हुई है, हमेशा से समर्थन हासिल था और रहेगा।’’ कास्त्रों की हत्या की 600 बार कोशिशें की गई। फिर भी वह जिंदा हैं। क्यूबाई क्रांति को समाप्त करने की हजारों कोशिशें फिर भी वह कास्त्रों की तरह जिंदा है। क्यूबा और कास्त्रों ने पूंजीवादी दुनिया को ठेंगा दिखाते हुए हर क्षेत्र में समाजवाद की श्रेष्ठता को स्थापित किया है। फिदेल कास्त्रों ने सत्ता हस्तान्तरण करके भी एक मिसाल कायम की है। अब जब साम्राज्यवादी पूंजीवाद अर्थव्यवस्था धराषराई है और फिर से सारी दुनिया समाजवादी राजनैतिक अर्थशास्त्र की ओर देखने लगी है। सोवियत संघ व समाजवादी देषों की पहली पीढ़ी के पतन के बाद जो निराषा का माहौल छाया था वह छंटने लगा है। क्यूबा और कास्त्रो ने लाल सितारे की तरह, धू्रव तारे की तरह चमक रहे हैं और दुनिया को अग्रगति का रास्ता दिखा रहे हैं।
क्यूबा और कास्त्रो को लाल सलाम !!
क्यूबाई क्रांति अमर रहे !!
- शिवराम से ०9414939576 या abhiwyakti@gmail.com के जरिए संपर्क किया जा सकता है।

उफ़ ये गलाकाट प्रतिस्पर्धा

ये त्रासदी ही कही जाएगी कि जिस सूचना प्रौद्योगिकी के बल पर हमारी सरकारें भारत को 21 वीं सदी में दुनिया का सिरमौर बनाने का दावा कर रही हैं, वहीं के छात्रों में अपने जीवन को समाप्त कर लेने की प्रवत्ति दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। अभी पिछले दिनों तीन जनवरी को देश के कुल सात सूचना प्रौद्योगिकी संस्थानों में अव्वल माने जाने वाले कानपुर आईआईटी के छात्र जी. सुमन की हास्टल के कमरे में फांसी लगाकर की गयी आत्महत्या इसका ताजा उदाहरण है। आंध्र प्रदेश के नेल्लूर जिले के रहने वाले सुमन एमटेक द्वितीय वर्ष में इलेक्टिकल इंजीनियरिंग के छात्र थे। आईआईटी के निदेशक प्रो0 संजय गोविंद धांडे के अनुसार सुमन कैम्पस में प्लेसमेंट के लिए आयीं बहुरास्ट्रीय कम्पनियों द्वारा चयनित न होने के कारण तनाव में था। गौरतलब है कि सुमन की आत्महत्या पिछले दो सालों में यहाँ की सातवीं घटना है। ये घटनाएं जहाँ इन संस्थानों की शिक्षा पद्धति पर सवालिया निशान खड़ा करती हैं तो वहीं देश के सबसे मेधावी छात्रों के जीवन में झांकने पर भी मजबूर करती हैं। जहां हताशा, तनाव और गला काट प्रतिस्पद्र्धा के कारण हमेशा पिछड़ जाने का डर सालता रहता है। यह अकारण नहीं है कि पिछले 5 नवंबर 07 को यहीं के छात्र अभिलाष ने आत्महत्या से पूर्व सुसाइड नोट में लिखा-‘मैं जीवन से हार चुका हूं, मैं दुनिया और जीवन का सामना नहीं कर सकता। हारने वाले भगोड़े होते हैं और मैं उन्हीं में से एक हॅूं।’ इसी संस्थान के छात्र रहे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आईटी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर प्रशांत शुक्ल बताते हैं कि "इन परिसरों में एकेडमिक दबाव इतना ज्यादा रहता है कि छात्र एडमिशन के कुछ दिनों बाद ही किसी न किसी तरह के तनाव का शिकार हो जाते हैं और धीरे-धीरे अवसाद की स्थिति में पहंुॅचने लगते हैं।" दरअसल तनाव और अवसाद की स्थिति उत्पन्न होने के अधिकतर कारण इन संस्थानों की आंतरिक संरचना और माहौल में ही मौजूद होते हैं जो छात्रों में जीवन के प्रति नकारात्मक सोच उत्पन्न कर देता है। यहाॅं मेधा का मूल्याकंन इससे होता है कि कौन कितने उॅंचे वेतन पर और किस विकसित देश में काम करता है। ऐसे माहौल के कारण छात्र हमेशा एक काल्पनिक भय मे जीता है कि कहीं वह दूसरों से पिछड़ न जाए। बाजार में अपने आप आपको साबित करने के इस दबाव के कारण ही छात्र समाज की मुख्यधारा से भी कटते जाते हैं और अपनी एक कृत्रिम दुनिया बना लेते हैं जिसका आधार एक दूसरे पर विश्वास और सहयोग करना नहीं बल्कि एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पद्र्धा होती है। इसी प्रतिस्पद्धाॅ में जब कोई छात्र खुद को पिछड़ा हुआ मानने लगता है तब वो आत्महत्या जैसे कदम उठा लेता है। क्योंकि उसकी इस कृत्रिम दुनिया में हारने वालों के लिए कोई जगह नहीं होती। आईआईटी कानपुर में ही मैकनिकल इंजीनियरिंग के प्राध्यापक रहे मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडे कहते हैं कि इन संस्थानों का पूरा माहौल मानवीय मूल्यों के विपरीत होता है। वहां के छात्रों के बीच का रिश्ता शु़द्ध प्रोफेशनल होने के कारण आपस में सुख-दुख बांटने,साथी की मदद करने और किसी समस्या पर सामूहिक रुप से काम करने की मानवीय प्रवृतियों का ह्रास होने लगता हैं। जिसके कारण छात्रों के व्यतित्व में कई तरह की विकृतियां आने लगती हैं। अपने स्कूल के दिनों में सबके साथ सहयोग करने और एक दूसरे का टिफिन छीन कर खाने वाले ये छात्र धीरे-धीरे अकेला महसूस करने लगते हैं जहां वो किसी से अपनी कोई समस्या बांट नहीं पाते। इस अकेलेपन कि साथ ही अपने परिवार वालों को उम्मीदों पर खरे नहीं उतरने और सहपाठियों से पिछड़ जाने के डर के कारण ये छात्र भीतर ही भीतर घुटने लगते हैं। संदीप कहते हैं ‘‘ऐसे माहौल में यदि कोई छात्र आत्महत्या करता है तो आश्चर्यजनक नहीं है।‘’ ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ हमारे देश के सूचना प्रौद्यगिकी का ही संकट है। इस क्षेत्र में सबसे अग्रणी माने जाने वाले अमेरिका में भी आईटी संस्थानों की यही स्थिति है। पिछले दिनों कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय द्वारा इन संस्थानों के छात्रों में बढ़ रहे अवसाद और आत्महत्या की घटनाओं पर किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि ऐसे संस्थाओं में 58 प्रतिशत छात्र नियमित रूप से किसी न किसी तनाव से ग्रस्त हैं। और उनमें आत्महत्या करने की प्रवृति में तेजी से वृद्धि हुई। जो मौजूदा आर्थिक मंदी के दौर में और भी भयावह रुप ले चुका है। दरअसल इन संस्थाओं में आत्महत्या की घटनाएं एक प्रवृति के बतौर पिछले तीन-चार सालों में ही उभरी है।इससे पहले इस तरह की घटनाएं इका-दुका ही हुआ करती थी जिसके कारण अधिकतर व्यतिगत या पारिवारिक समस्याएं ही होती थी। लेकिन इधर जितनी भी घटनायें हुई हैं उनमें मुख्य कारण कैरियर की दौड़ में पिछड़ जाने का डर ही रहा है। देखा जाए तो नयी आर्थिक नीतियों के कारण जिस तरह प्रौघोगिकी के क्षेत्र में संभावनाएं बढ़ी हैं उसी अनुपात में छात्रों पर कैरियरिज्म का दबाव भी बढ़ा है, जिसमें टिके रहना एक सामान्य छात्र के लिए बहुत मुश्किल होता है। प्रो0 प्रशांत शुक्ल कहते हंै ‘ये आत्महत्याएं बाहरी पूंजी द्वारा सामूहिकता और मेलजोल के माहौल में पले-बढ़े हमारे छात्रों पर किए जा रहे निर्मम हमले को दर्शाता है, जिसका सामना सभी नहीं कर पाते।‘ सच्चाई तो यह है कि इन आत्महत्याओं को नई आर्थिक नीतियों से काटकर नहीं समझा जा सकता। जब से ये नीतियां लागू हुई हैं तब से इन कैंपसों में अंदरुनी माहौल में काफी परिवर्तन आया है। अपने दिनों को याद करते हुए संदीप पांडे कहते हैं कि पहले यहां कई सामजिक मंच हुआ करते थे जिसके माध्यम से विज्ञान के सामाजिक उपयोगों पर काम होते थे या सांस्कृतिक जीवन को दर्शाने वाले नाटक इत्यादि होते थे जिससे छात्रों में अध्ययन के साथ-साथ अपने समाज को समझने और उससे एकाकार होने की प्रवृति विकसित होती थी, वहीं वैश्वीकरण के बाद उपजे कैरियरिज्म की होड़ के कारण यह सब बंद हो गया और छात्रों का समाज से कटाव होने लगा। वो आत्मकेंद्रित जीवन जीने को मजबूर होते गए और उनके अंदर किसी भी समस्या को हल करने के सामूहिक प्रयास के मानवीय प्रवृति का भी क्षरण होता गया। इन संस्थानों में छात्र संघों या ऐसे ही किसी छात्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले मंचों का न होना भी अवसाद और अकेलेपन जैसी समस्याओं को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाता है। इनके अभाव में जहां छात्र अपनी व्यतिगत या सामूहिक समस्याओं कों न तो प्रशासन के सामने रख पाते हैं और न ही इन मंचों से जो इनमें सामूहिकता की भावना पनपती है उसी का विकास हो पाता है। बीएचयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रोफेसर आंनद प्रधान कहते हंै कि राजनीति छात्रों कों दुनिया और समाज से जोड़ती है। उनमें दुनिया को बदलने, बेहतर बनाने के सपने बोती है। जिसके कारण छात्रों में व्यतिगत के बजाए सामूहिकता की भावना विकसित होती है और वे आशावादी बनते हैं। लेकिन ऐसे मंचों के अभाव में छात्रों में कोई सामाजिक सपना नहीं विकसित हो पाता और वो बहुत जल्दी निराश और हताश होने लगते हैं। दरअसल इन संस्थानों के इसी शैक्षणिक माहौल और उससे उपजे आत्मकेन्द्रित सोच के कारण ही हम अपनी इन प्रतिभावों के पलायन को भी नहीं रोक पाते और यहां से निकलने वाले ज्यादातर छात्र विदेशों का रुख कर लेते हैं। इन छात्रों के विदेश पलायन की प्रवृति और यहां हो रही आत्महत्याओं में गहरा संबंध है। क्योंकि जो छात्र बाहर नहीं जा पाते उनमें हीनभावना आ जाती है और वो भारत में ही रह जाने को अपनी असफलता मानने लगते हैं। जिसकी परिणति आत्महत्याओं में भी होती है। संदीप पांडेय इन संस्थानों के शिक्षण पद्धति पर ही सवाल उठाते हुए कहते हैं ‘जब यहां देश के सबसे मेधावी छात्र ही आते हैं तब उनका परीक्षण लेने का क्या औचित्य है, ऐसा करके तो हम उनमें एक दूसरे से आगे बढ़ने कर गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा को ही बढ़ावा देते हैं, जिसकी परिणति आत्मकेन्द्रित सोच में होती है।‘ वे आगे कहते हैं कि इस प्रतिस्पद्र्धा आधारित परीक्षा के बजाए अगर उनमें सामूहिक रुप से किसी प्रोजेक्ट पर काम करने की प्रवृति को विकसित किया जाए तो ये आत्महत्याऐं भी रुक सकती हैं और विदेश पलायन भी। बहरहाल, सूचना प्रौद्योगिकी को विदेशी म्रुदा देने वानी कामधेनु समझने वाली हमारी सरकारें यहां के छात्रों को उनकी जिंदगी की कीमत पर दुहना छोड़ देंगी इसकी उम्मीद भी कैसे की जा सकती है।
- शाहनवाज़ स्वतंत्र पत्रकार व एक्टिविस्ट हैं। इनसे 09415254919 या shahnawaz.media@gmail.com संपर्क कर सकते हैं