सीसीटीवी में कैद समाज


विजय प्रताप
दिल्ली में एक छात्रा के साथ हुई बलात्कार की घटना के बाद वहां की महिला और बाल विकास मंत्री किरण वालिया ने सभी बसों में कैमरे लगवाने की घोषणा की। मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ जिले के एक गांव सारंग में ग्रामीणों ने चोरी की वारदात रोकने के लिए 90 सीसीटीवी कैमरे लगाने का फैसला किया। वहां की ग्राम सुरक्षा समिति इसके लिए चंदा करके 5 लाख रुपये जुटाएगी। इसी तरह सिरसा के आरएसडी कॉलोनी में एक संस्था ने आपराधिक वारदातों को रोकने के लिए 40 कैमरे लगाना तय किया। ऐसे ढेरों सारी घटनाएं हैं, मसलन भोपाल में तय हुआ कि यात्रियों की सुरक्षा के लिए ट्रेनों के जनरल डब्बों में कैमरे लगेंगे, हिमाचल प्रदेश के मंडी में राजकीय तकनीकी कॉलेजों में, दिल्ली में हिंदूराव अस्पताल में बच्चा चोरी की घटनाओं के बाद निगम अस्पतालों में सीसीटीवी लगाने तय किए गए। इस तरह की घटनाओं का अंत नहीं है और सब के पीछे एक ही तरह होता है कि अपराध पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। लेकिन किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि क्या अपराधियों के नहीं पकड़े जाने से ही अपराध बढ़ रहे हैं? समाज में अपराध को बढ़ावा देने वाली परिस्थितियों पर सीसीटीवी कैसे रोक लगा सकता है। सीसीटीवी को समाज में ऐसी परिस्थितियों पर रोक के विकल्प के रूप में उतारा गया है।
धीरे-धीरे एक तरह से पूरा समाज कैमरों की जद में समाता जा रहा है। जिंदगी का कैमरों में कैद होना केवल निजता का मामला नहीं है। यह समाज में फैल रही असुरक्षा बोध और राज्य के अपनी जिम्मेदारियों से लगातार पीछे हटने से भी जुड़ा मामला है। अपराध पर अंकुश के लिए तकनीक को हथियार के रूप में पेश करके सरकारें और प्रशासन एक तरह से अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ा लेना चाहते हैं। तभी कई शहरों में पुलिस सभी महत्वपूर्ण व्यापारिक प्रतिष्ठानों, सार्वजनिक स्थानों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने के आदेश देती है। मुंबई में पुलिस ने सभी सिमकार्ड डीलरों को दुकानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के निर्देश दिए हैं। छोटे-छोटे शहरों में सीसीटीवी कैमरों के अपराध कम करने के इलाज के तौर पर पेश किया जाने लगा है। इस तरह के प्रचार को मीडिया अपनी खबरों के जरिये न केवल वैधता देता है, बल्कि बढ़ावा भी देता है। कहीं चोरी या लूट होने पर सीसीटीवी कैमरे न लगे होने को एक चूक की तरह पेश किया जाता है। जबकि सीसीटीवी लगने के बाद ऐसी घटनाओं में कोई निर्णायक कमी आएगी इसका दावा ना तो पुलिस कर सकती है ना ही राज्य सरकारें। दरअसल ऐसा दावा किया भी जाता है तो वो सफेद झूठ होता है, क्योंकि कई सारे मामलों में कैमरे में कैद होने के बाद भी न तो अपराधी पकड़े गए ना ही अपराध कम हो रहा है। हां इतना जरूर है कि असुरक्षा बोध और सत्ता के अपनी जिम्मेदारियों से पलायन ने ऐसे कैमरे बनाने वाली कंपनियों और उनके दलालों को कमाई का अच्छा मौका दे दिया है। कोई महालेखा परीक्षक जैसी संस्थाएं इन कैमरों के गुणवत्ता की जांच कर लें तो घोटालों की संख्या में जरूर इजाफा हो जाएगा।
अपराध के समाजशास्त्र पर बात करने की बजाए झटपट समाधान तलाश करने के लिए तकनीक का सहारा लेकर अपराध की जड़ नहीं काटी जा सकती। सरकारें और प्रशासन जनता के तात्कालिक आक्रोश को कम करने के लिए अपराधियों को पकड़ भर लेना चाहती हैं, जिसमें तकनीक उसके लिए मददगार साबित होती है। सरकार की मंशा समाज को अपराधमुक्त करने की नहीं है। एक कल्याणकारी राज्य में सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य की होती है। भारतीय संविधान में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को स्वीकार किया गया है। जिसका मतलब है कि सरकार अपने नागरिकों के हर तरह की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेती है। उसी संविधान में नागरिकों को निजता का अधिकार भी मिला हुआ है। सुरक्षा के नाम पर समाज को सीसीटीवी में कैद कर देना दरअसल संविधान के दोनों प्रावधानों का माखौल उड़ाता है। क्योंकि ना तो सीसीटीवी से नागरिकों को सुरक्षा मिल सकी है ना ही उनकी निजता बची रह गई है। एक तरफ राज्य अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुरा रहा है और तो दूसरी तरफ सीसीटीवी जैसी तकनीकों के बल पर नागरिकों के बीच अपनी विश्वसनीयता बरकार रखने की कोशिश कर रहा है। सीसीटीवी एक तकनीक है जो उसके सामने गुजर रही घटनाओं को कैद कर सकता है, लेकिन वो अवांछित घटनाओं को रोक सकने में सक्षम नहीं है और ना ही ऐसी घटनाओं का संबंध अपराधियों के खुले घूमते रहने से है। सत्ता ने अपनी नीतियों से समाज को खोखला बनाया है। मानवीय संबंधों पर तकनीक और संवेदनाओं पर सनसनी हावी हुई है। तकनीक ने हर तरफ तेजी लायी है। इससे कामकाज के तौर-तरीके जितने आसान हुए हैं, मानवीय संबंध और संवेदनाएं उतनी ही ज्यादा कुंठित हुईं हैं। कामकाज में तेजी का संबंध फायदे से है जो समाज में सबको बराबर नहीं मिल सकता। ज्यादा फायदा उसी के हिस्से में जाएगा जिसका उत्पादन के साधनों पर मालिकाना हक है और जाहिर सी बात है ऐसे चंद लोग हैं। बाकी समाज ने तकनीक की इस तेजी में अपनी आपसी संबंधों को न केवल कमजोर किया है, बल्कि खुद को आपराधिक प्रवृत्ति का भी बनाया है। समाज को सीसीटीवी में कैद करने की कोशिश की जाएगी तो जाहिर सी बात है कि इससे अपराध कम होने से ज्यादा अपराधियों की बेशर्मी बढ़ेगी।
यह एक तरह से असुरक्षाबोध का बाजारीकरण है। उदारीकरण ने बाजार को यह मौका दिया है कि वो इंसान की हर तरह की संवेदनाओं को उत्पाद के रूप में बदल दे और उसकी कीमत लगाए। उदारीकरण के दौर में खुशी, दुख, डर, प्यार, दुलार, घृणा, ईष्या सब कुछ बिकने योग्य है, इसमें सरकारों की जिम्मेदारी केवल इतनी भर है कि वो संवेदनाओं को बेचने लिए निविदाएं मंगाए और उसका ठेका निजी कंपनियों को देती रहे। सीसीटीवी में कैद आपराधिक वारदातें समाज में ऐसी घटनाओं को कम करने की बजाय उसे देखने की एक प्रतिरोधी क्षमता पैदा करेंगी और धीरे-धीरे अपराधियों का डर खत्म होता चला जाएगा। तब शायद कोई नई तकनीक सीसीटीवी की जगह ले लेगी लेकिन इस तरह से जो कुछ समाज खोएगा उस ना बाजार भर सकेगा ना तकनीक।
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संप्रतिः लेखक शोध पत्रिका जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं।
संपर्कः सी-2, पीपलवाला मोहल्ला
बादली एक्टसेंशन
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