विजय प्रताप
सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में ’शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को बरकरार रखा है। इस कानून के तहत अब सभी निजी ’शिक्षण संस्थानों को 25 फीसद सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित करनी होगी। निजी ’शिक्षण संस्थानों को सरकार का यह फैसला मंजूर नहीं था, जिसको उन्होंने ‘शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी। इस कानून और फैसले से कई ऐसी बातें जुड़ी हैं जो मौजूदा व्यवस्था को स्थापित रखने के लिए अहम है। असल में यह कानून निजी ’शिक्षण संस्थानों के खिलाफ न होकर उनके अस्तित्व को मजबूत करने के लिए बना है।
’शिक्षा का बाजार जैसे-जैसे बढ़ रहा है, उसको बचाए रखने की और निरंतर बढ़ाते रहने की जरूरत महसूस की जाने लगी है। सर्व ’शिक्षा अभियान और ’शिक्षा का अधिकार अधिनियम दरअसल इसी तरह की कवायद है। ऐसे अभियानों का मकसद बड़ी संख्या में गरीब लोगों के बच्चों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में स्कूलों में भर्ती कर लेना है। उन्हें अच्छी ’शिक्षा देना सरकार के एजेंडे में नहीं है। इसीलिए लड़ाई केवल ऐसे बच्चों को स्कूलों में भर्ती किये जाने की लड़ी जा रही है। सभी बच्चों को समान और गुणवत्तापूर्ण ’शिक्षा मिल सके यह सरकार का उद्दे’य कतई नहीं है। ’शिक्षा का अधिकार अधिनियम की आड़ में सरकार निजी ’शिक्षण संस्थानों का एक तरह से बचाव कर रही है और उन्हें फलने-फूलने का मौका दे रही है। बाजार के इस दौर में मूलभूत अधिकार भी खरीद बिक्री की वस्तु की तरह हैं। अगर आप के पास पैसे हैं तो आप अच्छी ’शिक्षा खरीद सकते हैं। अगर नहीं हैं तो आप सरकारी स्कूलों में जाने को अभि’ाप्त हैं। समाज में ऊंच नीच की खाई जैसे-जैसे बढ़ रही है सरकारों को अमीरों को बचाए रखने का डर सताने लगा है। दोनों के अस्तित्व एकदूसरे से जुड़े हैं। यह डर ही उन्हें मजबूर कर रहा है कि वो ऐसे नियम कानून बनाए जिससे की बदलाव होते भी दिखे और उनकी सत्ता भी बरकार रहे। गरीबों को अधिकार मिलते भी दिखे और अमीरों की अमीरी पर खरोंच न आए।
समाज में कई सारी गतिविधियों के ताने-बाने एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। शासन चलाने वाले इसे बखूबी पहचानते हैं। इसलिए उन्हें अंदाजा रहता है कि किस तार को कितना कसना और किस को डीला छोड़ना है ताकि लोकतंत्र का सितार बजता रहे। इन सब में नीतियां मायने रखती हैं। वै’िवक पूंजीवाद को बचाए रखने के लिए जरूरी है कि लोकतंत्र के ढांचे को बचाए रखा जाए। हांलाकि यह पूंजीवाद में ही निहित है कि समाज का बहुसंख्यक तबका इसके खिलाफ खड़ा रहेगा। पूंजीवाद को ढो रहे देशों में सत्ताधारियों की जिम्मेदार केवल इतनी भर है कि इस तबके को सितार के तार की तरह जरूरत के मुताबिक ढीला-कसा करते रहें। इस समय बनने वाले कानूनों को इस कसौटी पर मापा जा सकता है। यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि सरकार ने 25 प्रति’ात सीटें गरीब बच्चों के लिए अरक्षित करके किसके अधिकारों को सुरक्षित किया जा रहा है? क्या यह एक तरह से 75 फीसद अमीर बच्चों को आरक्षण देने के बराबर नहीं है। सरकार की मंशा अगर गरीब बच्चों को ’शिक्षा देने की ही है तो समान स्कूल प्रणाली पर बात क्यों नहीं करती। क्या यह व्यवस्था समाज के समान विकास के लिए ठीक नहीं की एक गांव, मोहल्ले या काॅलोनी के बच्चे एक स्कूल में जाएं। जहां सभी को एक समान और निशुल्क ’शिक्षा मिले। सरकार गरीबों के बच्चों को निशुल्क ’शिक्षा की बात करती है, लेकिन अमीरों के बच्चों की जिम्मेदारी सरकार क्यों नहीं लेती। बच्चे-बच्चे में यह फर्क क्यों किया जात है। दरअसल यहीं से यह फर्क समाज में अमीर-गरीब की नींव रखता है। ’शिक्षा का अधिकार कानून के जरिये न केवल इस गैरबराबरी को आधार प्रदान किया जा रहा है, बल्कि उसे मजबूत भी किया जा रहा है। इस तरह के कानूनों के जरिये सत्ता में रहने वाली शक्तियां एक तरह से अपनी कल्याणकारी छवि को बनाए रखना चाहती हैं वहीं दूसरी तरफ वो पूंजीवादियों के अधिकारों को भी सुरक्षित रखने में कामयाब होती हैं। कभी भी तथाकथित ऐसे कल्याणकारी कानूनों को परिस्थितियों से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए।
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