विजय प्रताप
सामाजिक मुद्दों पर आधारित सिने कलाकार आमिर
खान के टेलीविजन कार्यक्रम ‘सत्यमेव
जयते’ की चारों तरफ
चर्चा है। कहा जा रहा है कि इस कार्यक्रम के जरिये वो आम लोगों के मुद्दों को उठा
रहे हैं। कार्यक्रम के पहले शो को ही अखबारों और टीवी चैनलों ने प्रमुखता से प्रकाशित/प्रसारित किया। इसी तरह विद्या बालन को
जिस दिन उनकी चर्चित फिल्म ‘डर्टी
पिक्चर’ के लिए राष्ट्रीय
पुरस्कार दिया गया, केंद्रीय
ग्रामीण विकास मंत्रालय ने उन्हें सफाई कार्यक्रम के लिए अपना ‘ब्रांड एंबेसडर’ नियुक्त किया। दूसरे दिन अखबारों में
ये सुर्खी छाई रही कि ‘डर्टी
गर्ल विद्या बालन लोगों को सफाई के लिए प्रेरित करेंगी।’ सेलिब्रिटी या ब्रांड एंबेसडर के जरिये
चलाए जाने वाले जागरुकता कार्यक्रम अक्सर आम लोगों को उस समस्या के लिए दोषी मानकर
शुरू होते हैं और उन्हें सुधारने की जिम्मेदारी उनके पसंदीदा कलाकारों पर होती है।
जो काम किसी राज्य सरकार या सामाजिक संगठनों की होनी चाहिए उसकी जगह ये कलाकार ले
रहे हैं।
ये पहला मौका नहीं है जब कोई लोकप्रिय सिनेमा
कलाकार सामाजिक मुद्दों से जुड़े विषयों पर कदम बढ़ा रहा हो। पहले भी ढेर सारे
कलाकार इस तरह के सामाजिक विषयों से जुड़े कार्यक्रमों पर बोलते-बतियाते रहे हैं।
कई सारे कलाकार राज्य या उनकी योजनाओं के प्रचारक के बतौर काम करते रहे हैं। लेकिन
जिस तरह से आमिर खान के कार्यक्रम की चर्चा हो रही है वो इन सबसे अलग है। आमिर खान
खुले तौर पर किसी राज्य या उसकी इकाई के लिए कार्यक्रम नहीं कर रहे हैं। बल्कि यह
उन्हीं की प्रोडक्शन कंपनी में बना कार्यक्रम है जिसे दूरदर्शन और एक निजी चैनल पर
एक साथ दिखाया जा रहा है। निश्चित तौर पर इस कार्यक्रम का लोगों पर गहरा प्रभाव
पड़ रहा होगा। ‘सत्यमेव
जयते’ के पहले एपिसोड
में आमिर खान ने भ्रूण हत्या पर बात की। उन्होंने उन महिलाओं को लोगों के सामने पेश
किया जिन्होंने खुद इस पीड़ा को झेला है। इस कार्यक्रम से पहले भी भ्रूण हत्या पर
इससे ज्यादा गंभीर तरीके से बात होती रही है। कई सामाजिक-राजनैतिक संगठनों ने
भ्रूण हत्या की गंभीरता को समझा और आंदोलन किया जिसके बाद भू्रण हत्या रोकने के
लिए प्री कंसेप्शन एंड प्री नेटल डायग्नोस्टिक टेक्नीक्स (पीसीपीएनडीटी) एक्ट, 1994 और मेडिकल टर्मिनेशन आॅफ
प्रेग्नेंसी (एमपीटी) एक्ट जैसा कठोर कानून बना। ये अलग बात है कि इस कानून के बाद
भी भ्रूण हत्याएं जारी हैं। शर्तिया तौर पर कहा जा सकता है कि आमिर खान जैसे
सेलिब्रिटी के समझाने के बाद ये हत्याएं नहीं रूकेंगी। भ्रूण हत्या कोई जागरुकता
या शिक्षा की कमी के कारण उपजी समस्या नहीं है, जैसा की अक्सर इन्हें पेश किया जाता है। इसके अपने सामाजिक कारण हैं, जो कहीं ना कहीं पुरुषवादी और
वर्चस्ववादी मानसिकता से नियंत्रित होते हैं। इसे न तो कानून बना देने या जागरुकता
फैलाने के सरकारी/गैरसरकारी अभियानों से रोका जा सकता, ना ही सेलिब्रिटी के आभामंडल का
इस्तेमाल कर। इसके लिए सामाजिक स्तर पर और चेतना के स्तर समानता की लड़ाई लड़नी
होगी। जो कि इतनी आसान नहीं है। ना ही कोई सेलिब्रिटी या सरकारी प्रचार अभियान इस
बात के लिए लोगों को खड़ा कर सकता है कि वो एक बनी बनाई व्यवस्था के खिलाफ आवाज
उठाएं। जैसे आमिर खान को ही ले लें। उन्होंने भ्रूण हत्या के खिलाफ किसी तरह के
सामाजिक आंदोलन की बात नहीं की,
ना ही लोगों की चेतना को इस स्तर पर आवेशित किया की वो खुद इस तरह के
आंदोलन करें। बल्कि उन्होंने खुद राजस्थान के मुख्यमंत्री से मुलाकात की और ऐसे
मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में करने की मांग की। इस तरह की मांग बरसों से
होती रही है, और
इसका नतीजा ये है कि ऐसी समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं।
तो फिर एक सेलिब्रिटी के सामाजिक मुद्दों पर
सवाल और आवाज उठाने के क्या निहितार्थ हो सकते हैं? किसी सामाजिक मुद्दे को राजनैतिक तरीके से हल करने में और
सिनेमा-टेलीविजन के पर्दे पर किसी सेलिब्रिटी के हल करने के तरीके में क्या अंतर
हो सकता है? दरअसल
कोई सेलिब्रिटी किसी समस्या को सुलाझाने के लिए वैकल्पिक कदम के तौर पर कुछ खास
तरह के उपाय ही सुझाता है। सेलिब्रिटी की छवि की अपनी एक सीमा होती है, जिसके दायरे से बाहर जाने पर उसे अपनी
लोकप्रियता खोने का डर होता है। उसकी अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं होती है। वो कुछ
दिन किसी सामाजिक मुद्दे पर बोलने के बाद गायब हो जाए तो उससे फिर कोई कुछ नहीं
पूछने जाएगा। लेकिन वही काम जब कोई राजनैतिक संगठन या नेता करता है तो उसकी एक
जिम्मेदारी होती है। वह अंतिम समय तक उसके परिणामों को लेकर जिम्मेदार होता है और
चुनावों जैसे मौके पर उसके नतीजे भी भगुतता है। सेलिब्रिटी सामाजिक-राजनैतिक
कारणों से उपजी किसी खास समस्या को व्यक्तिवादी ढांचे में बांध देते हैं, जिससे की उस समस्या को लेकर सरकार या
सत्ता के खिलाफ उठ सकने वाला आक्रोश खुद ब खुद सिमट जाता है। लोग खुद को ही दोषी
मानकर उसका निदान करने के उपाय करते हैं। बल्कि ऐसे कार्यक्रम लोगों की चेतना को
इस स्तर पर कुंद जरूर कर देते हैं कि वो हर समस्या के लिए खुद को ही दोषी मानने
लगते हैं। ऐसी स्थितियां लोगों के लिए ना सही राज्य या सत्ता के लिए बड़ी सुखद
होती हैं। इसलिए राज्य ऐसे कार्यक्रमों को रोकने की बजाय परोक्ष-अपरोक्ष रूप से
बढ़ावा देता हैै। अगर यही सारी बातें किसी राजनीतिक संगठन के बैनर तले उठाई जाती
तो नि’िचत तौर पर उसे
बर्दा’त नहीं किया
जाता। दरअसल राजनीति नाम की संस्था की प्रतिष्ठा में आई गिरावट ने भी इन्हें
मजबूती दी है। राज्य की संस्थाओं के जरिये ज्यादा से ज्यादा लोगों का
गैर-राजनीतिकरण किया जा रहा है,
जिससे एक तरफ ऐसे कार्यक्रमों को वैधता मिलती है तो दूसरी तरफ जो
वास्तव में सही राजनीतिक तरीके से समाज में बदलाव के लिए काम करने वाले संगठन हैं, उन्हें राजनीति के नाम पर बदनाम करने
में मदद मिलती है। ऐसे में ये कार्यक्रम समाज का विकास करने की बजाय उसकी चेतना को
कुंद करने ही सहायक होते हैं।
No comments:
Post a Comment