विजय प्रताप
फ्रांस में 1820 में लुईस फिलिप
ने सत्ता संभालने के बाद मानहानि और राजद्रोह के कानूनों को और ज्यादा कड़ा कर
दिया। फिलिप को उस समय के कार्टूनिस्टों का डर सताता रहता था। तब फ्रांस में मशहूर
कार्टूनिस्ट फिलिपोन और हाॅनर ड्यूमर सहित ढेर सारे कार्टूनिस्ट साम्राज्यवाद और
पंूजीवाद के खिलाफ कार्टूनों के जरिये मोर्चा खोले हुए थे। 1831
में फिलिपोन को कार्टून की वजह से मानहानि के मामले 6 माह की जेल
हुई। अगर आज भारत में शंकर पिल्लई जिंदा होते तो उन्हें एससी/एसटी
एक्ट में फिलिपोन से कहीं ज्यादा समय जेल में गुजारने पड़ते। साठ साल की संसद ने
भारत में कार्टून के पिता कहे जाने वाले शंकर के कार्टून पर जो प्रतिक्रिया दी है,
वो
फासीवादी चरित्र का परिचायक है। यह ठीक उसी तरह की प्रतिक्रिया है, जैसा
की 19वीं शताब्दी में फ्रांस के लुईस फिलिप या जर्मनी में
हिटलर के समय देखने को मिली थी। ये दोनों ही अपने मूल में फासीवादी थे।
एनसीईआरटी की ग्यारहवीं की किताब में जिस
कार्टून को लेकर बहस की जा रही है, दरअसल वो बहस का विषय
ही नहीं बनता। संसद में इस मामले के उठाये जाने के बाद सरकार ने तत्परता से इस
कार्टून को किताबों से हटाने के निर्देश दिए हैं। सवाल इस पर खड़े होने चाहिए।
बहस इस बात पर होनी चाहिए कि क्यों कुछ शक्तियां दलितों के नाम पर आंबेडकर को
पूज्यनीय बनाने पर तुली हैं?
शंकर ने 1949 में संविधान
सभा की धीमी गति पर चोट करने के लिए जब यह कार्टून बनाया था, तब
आंबेडकर और नेहरू दोनों जिंदा थे। तब किसी ने शंकर के इस कार्टून पर सवाल नहीं उठाया।
लेकिन साठ सालों बाद अचानक यह कार्टून केवल इसलिए चर्चा में आ गया कि आंबेडकर को
पूज्नीय मान चुके कुछ दलित मुखौटे के हिंदूवादी संगठनों की भावनाएं आहत होने लगी।
धार्मिक कट्टरतावादी संगठनों की भावनाएं पहले भी आहत हुआ करती रही हैं। जिसकी वजह
से एम.एफ. हुसैन को देश छोड़ना पड़ा और सलमान रश्दी व तस्लीमा
नसरीन को एक तरह से देश में प्रवेश पर अघोषित रोक लगा दी गई। भावनाओं के आहत होने
का अंत नहीं है। दरअसल, भावनाओं के पीछे कोई तार्किकता नहीं होती। वह
आस्था से संचालित होती हैं, इसलिए वह चाहें किसी ईश्वर
से जुड़ी हों या किसी व्यक्ति से, दोनों में कोई अंतर नहीं रह जाता।
भीमराव आंबेडकर ईश्वर नहीं है।
उन्होंने समाज के सबसे निचले तबके के लिए आजीवन संघर्”ा किया और उस
तबके को मुक्ति के विचारों से लैस किया। लेकिन इस समय आंबेडकर की जो छवि समाज में
मौजूद है वो एक सामाजिक-राजनैतिक चेतना के लिए संघर्”ाशील
व्यक्ति की कम, दलितों के भगवान की ज्यादा है। किसी दलित के घर
में अमूमन आंबेडकर और बुद्ध की तस्वीर दीवारों पर लटकती मिल जाएगी। लेकिन इससे उसे
घर के सदस्यों की चेतना कोई गुणात्मक बदलाव आ रहा हो यह जरूरी नहीं है। बहुत से
दलित आंबेडकर के विचारों को समाज में दलितों के अधिकार के लिए लड़ी गई लड़ाई तक या
जगह बना पाने तक ही देखते हैं। उनकी लड़ाई उच्च वर्ण के हिंदूओं से केवल सामाजिक
बराबरी की मांग तक सीमित हैं। अन्य मामलों में एक दलित की चेतना और एक ब्राह्मण की
चेतना में कोई अंतर नहीं है। इन सब के पीछे एक गहरी राजनीति है।
हिंदुत्ववादी शक्तियों ने दलितों के बौद्ध और इसाई
धर्म में पलायन को रोकने के लिए धीरे-धीरे न केवल उन्हें सामाजिक तौर पर मान्यता
देनी शुरू
कर दी, बल्कि उनके नेतृत्वकर्ताओं में भी खुद को शामिल कर लिया। अब ऐसे में जिस तरह से
बाकी हिंदूओं के लिए कोई भगवान पूज्य होते हैं उसी तरह से दलितों के लिए आंबेडकर
पूज्यनीय होने लगे। इससे हिंदुत्ववादियों को फायदा ये हुआ कि एक तरफ आंबेडकर के
परिवर्तनकारी विचारों को जड़ कर दिया गया तो दूसरी तरफ बाकी हिंदू देवी-देवताओं के
बीच आंबेडकर को प्रति”िठत कर दलितों के पलायन को भी रोकने में मदद
मिली। इसका साफ-साफ असर आंबेडकर जयंती को देखा जा सकता है। इस दिन को बाकी त्यौहार
की तरफ मनाने का शगल तेजी से बढ़ रहा है। आंबेडकर की प्रतिमा पर
फूल-माला चढ़ाने और अगरबत्ती दिखाने से लेकर दुर्गा या गणेश प्रतिमाओं की तरह उनकी झांकी निकालने
का चलन आम हो गया है। यह एक तरह से दलितों के प्रति आंबेडकर के विचारों की हार और
मनुवादी शक्तियों
की जीत है।
महाराष्ट्र में हिंदुत्व का गहरा असर रहा है।
महाराष्ट्र
के ही एक हिस्से में आंबेडकर के विचारों का भी व्यापक असर है। इस समय वहां पर
हिंदुत्ववादी शिवसेना और दलितों की नेतृत्वकारी रामदास अठावले
की रिपब्लिकन पार्टी गठजोड़ कर लिया है। इसका सीधा सा असर इस कार्टून के मामले में
महसूस किया जा सकता है। रिपब्लिकन पार्टी ने ही सबसे पहले इस कार्टून पर आपत्ति
जाहिर की थी। इससे पहले भी रिपब्लिकन पार्टी ने मुंबई की इंदू मिल में आंबेडकर के
नाम पर स्मारक बनाने के लिए लड़ाई शुरू किया था। दलितवादी रिपब्लिकन
पार्टी और हिंदूवादी शिवसेना की कार्यप्रणाली में मूलभूत अंतर नहीं
है। जिस तरह से रिपब्लिकन सेना के कार्यकत्र्ताओं ने एनसीईआरटी के पूर्व सलाहकार
सुहास पालिस्कर पर हमला किया वैसे ही शिवसेना के कार्यकत्र्ता भी एम.एफ. हुसैन
की तस्वीरों को तोड़ते-फोड़ते रहे हैं। दोनों ही अंध आस्था और जड़ता के मूल गुणों
से लैस हैं। शासकवर्ग के लिए जड़ता, जड़ी-बूटी होती
है। वह समाज में परिवर्तनकारी विचारों को या तो पूरी ताकत से दबाने की कोशिश
करता है या फिर उसे जड़ कर देता है। केंद्र सरकार ने आंबेडकर के कार्टून को
किताबों से हटाकर इस जड़ता को और मजबूती दी है।
लोकतंत्र की सफलता के लिए जनता की वैचारिक निष्क्रियता
बेहद जरूरी होती है। सत्ता, लोगों को वैचारिक रूप से कुंद रखने के
लिए तरह-तरह के हथकड़े अपनाती है। धर्म और आस्था ऐसे ही हथकंडे हैं, जिनके
जरिये वैज्ञानिकता और तार्किक विचारों से लोगों को वंचित रखा जाता है। संसद में
कार्टून को लेकर चली बहस से जाहिर है कि सत्ता को न केवल वैचारिक रूप से निष्क्रिय
जनता चाहिए, बल्कि उसका कोई धड़ा फासीवादी विचारों से लैस
हो तो वो उसे बढ़ावा भी दे सकती है।
No comments:
Post a Comment