मनोज को व्यवस्था ने
डस लिया
विजय प्रताप
पत्रकार मनोज कुमार कंधेर, फिलहाल स्वास्थ्य संचार के क्षेत्र से जुड़े थे और स्वास्थ्य सेवा के अभाव में दम तोड़ दिया |
मनोज कंधेर को मैं
इस घटना से पहले नहीं जानता था, और जब जाना तब वो इस दुनिया में नहीं रह गए थे। उड़ीसा
के बारगढ़ जिले के अपने गांव में छुट्टियां बिताने आए मनोज को नहर में नहाते समय
सांप ने काट लिया। उन्हें जब इसका एहसास हुआ तो वह खुद मोटरसाइकिल से अस्पताल
पहुंच गए, लेकिन वहां विषरोधी इंजेक्शन नहीं था, और उन्हें दूसरे अस्पताल जाने को
कह दिया गया। वह दूसरे अस्पताल भी गए लेकिन वहां भी उन्हें इलाज नहीं मिल सका और
अंततः वह तीसरे अस्पताल की तरफ बढ़े और रास्ते में ही बेहोश होकर गिर पड़े लोगों
ने उन्हें जिला अस्पताल में भर्ती कराया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। हमारा और
मनोज का रिश्ता बस इतना सा है कि हम दोनों एक ही संस्थान से पढ़े थे, लेकिन उनके
जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मनोज का रिश्ता केवल मुझसे ही नहीं है उनके जैसे ही
दर्दनाक परिस्थितियों में दम तोड़ने वाले 50 हजार अन्य भारतीयों से भी है।
मनोज की मौत भारतीय
गांव-कस्बों की आम कहानी है। इसमें कुछ भी अलग नहीं है और आए दिन ऐसी घटनाएं देखने
सुनने को मिलती हैं। लेकिन ये हमारी बहस या स्वास्थ सेवाओं की नाकामी के प्रतीक के
तौर पर नहीं उभरती हैं। मनोज के बहाने हम यहां उन तकरीबन 50 हजार लोगों की बात
करना चाहता हूं जो ऐसे ही सांप काटने और समय पर इलाज नहीं मिल पाने के कारण असमय
मर जाते हैं। भारत में हर साल सांप काटने के करीब 2.5 लाख मामले दर्ज किए जाते
हैं। भारत जैसे देशों में जहां सांपों से एक धार्मिक लगाव व डर दोनों है, ऐसी
घटनाएं बहुत आम हैं। भारत में सांप काटने की घटनाओं पर प्रकाशित रिपोर्ट ‘द मिलियन डेथ स्टडी’ के मुताबिक दुनिया में सांप
के काटने से होने वाली हर तीसरी मौत भारत में होती है। रिपोर्ट में ऐसी मौतों का
मुख्य कारण सांप काटने के बाद समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाना, अस्पतालों में विषरोधी
दवा का उपलब्ध नहीं होना और आम ग्रामीण की पहुंच में इनका न होना बताया गया है। हालांकि
भारत में ऐसी मौतें इस कदर जीवन का हिस्सा हो चली हैं कि कभी यह व्यापक चर्चा या
रोष का विषय नहीं बन पाती। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के जरिये ग्रामीण
स्वास्थ्य सेवाओं पर 20,822 करोड़ रुपये खर्च किया जा रहा है, लेकिन हालात जस के
तस हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों में भी एंबुलेंस उपलब्ध कराने के दावा
किया जा रहा है, लेकिन स्थिति यह है कि मनोज जैसे लोग जैसे-तैसे खुद चलकर अस्पताल
आ भी जा रहे हैं तो उन्हें इलाज नहीं मिल पाता है। उत्तर प्रदेश में तब एनआरएचएम
के तहत खरीदी गई करीब 600 एंबुलेंस धूल फांक रही जब इस घोटाले के अभियुक्त डॉ
राजेश सचान की जेल में हत्या कर दी जाती है ताकि बड़े नेताओं और घोटालेबाजों के
नाम सामने न आ सके। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के नाम पर मची इस लूट ढेर सारी निजी
कंपनियों और नेताओं को लाभ पहुंचाया और ग्रामीण अस्पतालों की हालत में कोई बदलाव
नहीं आया। गांव के अस्पताल की मरहम-पट्टी की तरह की मूलभूत जरूरत होती है कि वहां
पर एंटी रेबीज-एंटी विनेमस (विषरोधी) दवाएं उपलब्ध हों, लेकिन सर्वे कर लें तो 80
फीसद ग्रामीण अस्पतालों में ये दवाएं नहीं मिलेंगी। निजी अस्पतालों में कई गुना
मंहगें दामों पर कई बार ये दवाएं उपलब्ध भी होती हैं, लेकिन उनके लिए ही जो समय पर
पहुंच जाएं और उनकी थैली भी हल्की ना हो।
हाल के वर्षों में
जब से सरकारों ने जीवन के तौर-तरीकों के साथ हर एक चीज में पश्चिमी देशों का
अनुकरण और निर्भरता को भारत की मजबूरी बना दिया तब से स्थानीय समाज में मौजूद
चिकित्सा को तौर-तरीके भी हाशिये पर चले गए। इलाज से लेकर बीमारियों तक की
प्राथमिकताएं विश्व स्वास्थ्य संगठन से निर्धारित होने लगी और अचानक चारों तरफ कभी
एड्स तो कभी एचआईवी जैसी बीमारियां सुनाई देने लगी। इसके इलाज के नाम पर भी भारत
में पिछले कुछ वर्षों में लगातार एक हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का बजट बनता रहा
है, लेकिन काफी ढ़ूंढने के बाद भी सरकारी आंकड़ों में ये जानकारी नहीं मिल पाएगी
की सांप काटने या कुत्तों के काटने पर होने वाले इलाज पर कितना खर्च होता। ऐसा
नहीं है कि सांप काटने का इलाज केवल विषरोधी टीका ही है, लेकिन करोड़ों-अरबों
रुपये फूंकने के बाद भी इलाज न देने वाली व्यवस्था ने परंपरागत इलाज के तरीकों को जरूर
अवैध करार दे कर खत्म कर दिया। छोटे से देश नेपाल के दक्षिणी हिस्से में लोगों ने सांप
काटने पर ग्रामीण स्तर पर ही समूह बनाकर इलाज के लिए केंद्र स्थापित किए और ऐसे
मामलों में होने वाली मौतों को 10.5 प्रतिशत से घटाकर 0.5 प्रतिशत तक ले आया। क्या
इस मामले में नेपाल हमारा लिए आदर्श नहीं हो सकता। लेकिन इससे बड़ी कंपनियों को घाटा
होगा और भ्रष्ट नेताओं को कमाई का मौका नहीं मिलेगा। उड़ीसा सरकार हर साल भले ही
1597.16 करोड़ रुपये खर्च करती रहे लेकिन मैं उसे इसी रूप में जानता रहूंगा कि उस
राज्य में मनोज जैसे प्रतिभाशीली नौजवान एक टीके के अभाव में दम तोड़ देते हैं।
संप्रतिः लेखक शोध पत्रिका जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं।
संपर्कः सी-2, पीपलवाला मोहल्ला
बादली एक्टसेंशन
दिल्ली-110042
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