विकास की राह के रोड़े


विजय प्रताप

अमेरिकी पत्रिका टाइम के कवर पर मनमोहन सिंहः
जिसने हनुमान को उनका बल याद दिलाया
देश को तेज आर्थिक विकास चाहिए और जो भी इसकी राह में रोड़ा बनने की कोशिश करेगा रौंद दिया जाएगा। सरकार में हालिया बदलाव कुछ इसी ओर इशारा करते हैं। आर्थिक विकास और निवेश में रोड़ा बन रहे अपने ही मंत्रियों से भी सरकार ने पीछा छुड़ाने में देरी नहीं की। मंत्रीमंडल में बदलाव के बाद नए मंत्रियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ये साफ संदेश दे दिया है कि नई जिम्मेदारी तेज आर्थिक विकास के लिए दी गई है। मंत्रियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि हमें कई तरह की बाधाओं को दूर करना होगा, जो निवेश को रोक रही हैं या उनकी रफ्तार को धीमा कर रही हैं। इनमें ईंधन आपूर्ति व्यवस्था, सुरक्षा और पर्यावरण मंजूरियां शामिल हैं। साथ ही वित्तीय मुश्किलें भी बाधक बन रही है।
मनमोहन सिंह के इस बयान का पर्यावरणविद् काफी विरोध कर रहे हैं। दरअसल उन्होंने तेज आर्थिक विकास में जिस तरह से पर्यावरणिय मंजूरी को एक रोड़े की तरह इंगित किया है, वो नौकरशाही सहित पूरी व्यवस्था को यह संकेत देने के लिए काफी है कि ऐसी मंजूरियों में किसी भी तरह की देरी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। इस और खुले रूप में समझने की कोशिश करें तो सरकार पूंजीपतियों और उद्योगपतियों के दबाव में पर्यावरणीय मंजूरियों को खत्म नहीं तो कम से कम निष्क्रिय कर देना चाहती है। कई सारी निजी परियोजनाएं पर्यावरणीय मंजूरी नहीं मिलने के चलते रूकी हुई हैं। आंकड़ों पर नजर डाले तो मार्च में राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयंति नटराजन ने बताया था कि विभिन्न परियोजनाओं से जुड़े 832 प्रस्ताव पर्यावरणीय मंजूरी के लिए लंबित हैं। उद्योगपतियों के दबाव में जब वित्त मंत्रालय ने इस तरह की मंजूरियों में विलंब को खत्म करने के लिए राष्ट्रीय निवेश बोर्ड का गठन का प्रस्ताव लाया। इस बोर्ड के जरिये हजार करोड़ रुपये की परियोजनाओं की मंजूरी अविलंब करने की कोशिश की जाएगी। हालांकि पर्यावरण मंत्री जयंति नटराजन ने पहले ही प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर इस बोर्ड के गठन पर कड़ी आपत्ति जाहिर की दी है। जयंति नटराजन ने किसी भी परियोजना की मंजूरी में पर्यावरणीय मापदंडों को अड़ंगे को तौर पर देखने के नजरिये की तीखी आलोचना की थी। इसके लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट और अन्य कानूनों का हवाला दिया था। लेकिन राष्ट्रीय निवेश बोर्ड के गठन के पीछ वित्त मंत्रालय की बजाय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का हाथ था और उन्हीं के इच्छा के अनुरूप यह सारी कवादय की गई। सिर्फ पैसे और निवेश के सपने देखने वाले प्रधानमंत्री ने अपने इस नजरिये से पूरी व्यवस्था को यह संदेश दे दिया है कि जहां पैसों की बात हो वहां पर्यावरण मंजूरी को ज्यादा तवज्जों देने की बात सोचना भी हराम है।  
तेज आर्थिक विकास के नाम पर सरकार न केवल पर्यावरण को नजरअंदाज करने पर उतारू है बल्कि धीरे-धीरे जमीन अधिग्रहण सहित ऐसे अन्य ‘अंड़गों’ को भी खत्म करने की कोशिश करेगी। गौरतलब है कि कई सारी निजी परियोजनाएं जमीनों के अधिग्रहण के चक्कर में भी रूकी हुई हैं। पर्यावरणीय मंजूरी का सीधा रिश्ता जंगल की जमीनों को निजी हाथों में सौंप देने से है। जिसका की न केवल पर्यावरणविद विरोध कर रहे हैं बल्कि जगह-जगह पर आदिवासी और स्थानीय लोग भी ऐसे भूमि अधिग्रहणों के खिलाफ लड़ रहे हैं। लेकिन सरकार अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर चुकी है। वह साफ कर चुकी है कि वह पूंजीपतियों की राह में किसी भी तरह की रुकावट बर्दाश्त नहीं करेगी। सरकार को आम लोगों की चिंती नहीं है ना ही चुने हुए जनप्रतिनिधियों की ही फिक्र है। हमने देखा कि कैसे गैस के मनमाने दोहन और मूल्य तय करने के मामले में रिलायंस की राह में रोड़ा बन रहे मंत्री जयपाल रेड्डी से उनका मंत्रालय ही छीन लिया गया। इसे मामूली फेरबदल के नजरिये से नहीं देखा जा सकता। यह सरकार की प्राथमिकताओं के द्योतक हैं। 

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