बहसों पर मालिकाना हक


विजय प्रताप
मीडिया के मालिकाना हक पर तो दुनिया भर में चर्चाएं होती रही हैं। लेकिन मीडिया में होने वाली बहसों में भी एक मालिकाना हक दिखाई देता है और वह मीडिया पर एकाधिकार के विमर्श में दिखाई नहीं देता हैं। मीडिया के विभिन्न माध्यमों में होने वाली बहसों में कौन शामिल रहता है या किसका एकाधिकार है,  इसे समझने के लिए यहां तीन सर्वे की चर्चा जरूरी होगी। मीडिया स्टडीज ग्रुप ने एक सर्वे में पाया कि वर्ष 1975-76 में आपातकाल के समय सरकार ने अपनी नीतियों के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ थोड़े से लोग जिसमें ज्यादातर पत्रकार थे, को इस्तेमाल किया। दूरदर्शन के विभिन्न केंद्रों के जरिये होने वाले प्रसारण में इन पत्रकारों को बुलाया जाता रहा गया। ये पत्रकार मूलतः अखबारों या पत्रिकाओं से जुड़े थे। यह सारी कवायद सरकार के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए की जा रही थी। ग्रुप ने ही एक और सर्वे में निजी चैनलों पर किसी मुद्दे पर विचार-विमर्श करने वाले व्यक्तियों का अध्ययन किया गया। यहां भी थोड़े से लोग ही उस मुद्दे पर बहस करते दिखाई दिए। यहां तक की कुछ लोग तो ऐसे भी थे जो एक समय किसी और चैनल पर दिख रहे थे तो थोड़ी देर बाद दूसरे चैनल पर भी वही मौजूद थे। मीडिया स्टडीज ग्रुप से जुड़े पत्रकार वरुण शैलेश ने हाल ही में आकाशवाणी के कार्यक्रमों में होने वाले बहस या बातचीत करने वाले लोगों पर एक अध्ययन किया। वहां भी बहुत थोड़े से लोग सभी मुद्दों पर बहस करते दिखे। इन सर्वे को मीडिया स्टडीज ग्रुप ने अपनी शोध पत्रिकाओं जन मीडिया व मास मीडिया के जरिये जारी किए हैं। अखबारों के संपादकीय पेज पर लिखने वाले लोगों के लेकर पहले भी शोध हुए हैं जिनका नतीजा कमोबेश यही रहा है।
संचार माध्यम आम जन की समझ के आधार होते हैं। समाचार पत्रों, टीवी चैनलों, रेडियो या अन्य संचार माध्यमों से जो सूचनाएं लोगों के बीच पहुंचती हैं वो जनमत तैयार करने में निर्णायक साबित होती है। इन माध्यम में लिखने, दिखने और बोलने वाले लोग समाज की दशा और दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं। इस मायने में यह महत्वपूर्ण है कि जनमत तैयार करने वाले माध्यम पर किन लोग की हिस्सेदारी ज्यादा है। सर्वे के निष्कर्ष बताते हैं कि जनमत तैयार करने वाले माध्यमों पर बहुत थोड़े से लोगों का कब्जा है। थोड़े से लोगों का यह कब्जा कई तरह से है। न केवल हर मुद्दे पर वही लोग दिखते हैं बल्कि अलग-अलग माध्यमों में भी उन्हीं का कब्जा है। मसलन जो लोग समाचार चैनलों के पर्दे पर मौजूद हैं और वही आकाशवाणी के जरिये भी अपने विचार रख रहे हैं और वही अखबारों के संपादकीय पेज पर लिखते हैं। इससे एक ही तरह के विचारों की बहुलता दिखाई देने लगती है। एक से ही विचारों की यह बहुलता भारतीय समाज में मौजूद सांस्कृतिक और वैचारिक विविधता को गायब कर देती है। ऐसे में यह कहना कि यह सबकुछ सोची समझी रणनीति के तहत है, गलत नहीं होगा। लोकसभा चैनल पर आने वाले वक्ताओं का सर्वे करते हुए यह पाया गया कि 6 माह में कुल 979 लोग वक्ता के तौर पर बुलाए गए, लेकिन इन लोगों ने 2000 लोगों की बात कही। मतलब कि जहां 2000 लोगों को बुलाया जाना चाहिए था 979 लोगों में से ही कुछ लोगों को बार-बार बुला लिया गया। इसमें से कुछ लोग ऐसे भी थे जो 17-18 बार बुलाए गए। ठीक इसी तरह आकाशवाणी (एआईआर) में 10 लोगों को 179 बार अलग-अलग कार्यक्रमों में बुलाया गया। (संदर्भ के लिए जन मीडिया/मास मीडिया का अंक 3 और 9 देखा जा सकता है।)
आपातकाल के दौरान जनसंचार माध्यमों पर सेंसरशिप लागू थी। कहा जा रहा था कि सरकार की इजाजत के बिना अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी में कुछ प्रसारित नहीं होता था। लेकिन क्या आज भी समाचार माध्यमों पर किसी तरह की सेंसरशिप लागू है? उदारीकरण का दौर में विचारों और अभिव्यक्ति में विविधता की दरिद्रता ज्यादा साफ देखी जा सकती है, जो लगातार बढ़ भी रही है। इस समय मीडिया पर किसी तरह का घोषित सेंसरशिप नहीं है। पहले केवल एक चैनल दूरदर्शन हुआ करता था जिस पर सरकारी प्रवक्ता होने के आरोप आम थे। अब ढेर सारे निजी चैनल हैं बावजूद इसके थोड़े से लोग ही सरकारी और निजी दोनों तरह के चैनलों और अन्य माध्यमों में बार-बार दिख रहे हैं। समाज का एक बड़ा हिस्सा जो पहले से ही अलग-अलग कारणों से हाशिए पर था, मीडिया के जरिये भी उन्हें उसी स्थिति में बनाए रखने की कोशिश जारी है। यहां होने वाली बहसों में ना तो महिलाएं देखने को मिलती हैं ना ही दलित-आदिवासी। खुद को राष्ट्रीय कहने वाले चैनलों और 99.18 प्रतिशत जनसंख्या तक पहुंचने का दावा करने वाले आकाशवाणी पर क्षेत्रीय विविधता सीरे से गायब है। उपर जिक्र किए गए सभी सर्वे में यह भी देखने को मिला कि उत्तर-पूर्व के राज्यों का कोई भी वक्ता किसी समाचार या बहस के हिस्से के रूप में नहीं दिखा। ज्यादातर दिल्ली और आस-पास की जगहों पर रहने वाले, नामी-गिरामी संस्थाओं से जुड़े, सहजता से उपलब्ध थोड़े से लोग हर क्षेत्र, संस्कृति, सामाजिक वर्ग और मुद्दों के विशेषज्ञ के रूप में पेश किए जाते हैं। यह एक तरह से बाकी समाज को नीचा दिखाने और उनकी प्रतिभा को कमतर आंकने जैसा अमानवीय व्यवहार भी है।
जब माध्यमों में लोगों की विविधता नहीं है तो जाहिर सी बात है कि समाज के मुद्दे भी उन माध्यमों का हिस्सा नहीं बन सकते। जैसे कि आकाशवाणी ने बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय को अपने उद्देश्य के रूप में अपनाया है। लेकिन जब मीडिया स्टडीज ग्रुप के सर्वे में वर्षभर प्रसारित कार्यक्रमों के विषय का विश्लेषण किया गया तो पता चला कि ग्रामीण इलाके, दलित, अल्पसंख्यक, युवाओं पर एक फीसदी से कम और केवल पिछड़े-आदिवासी के मुद्दे पर एक भी कार्यक्रम नहीं प्रसारित किए गए। आकाशवाणी से जिन मुद्दों पर सर्वाधिक कार्यक्रम प्रसारित हुए उनमें आर्थिक मामले प्रमुख हैं। समाज में कुछ खास तरह के विचारों को स्थापित करने में मीडिया की भूमिका आपातकाल से अब तक यथावत बनी है। जिसका मतलब ये भी निकलता है कि मीडिया ने इसे अपने कार्य के रूप में चिन्हित किया है। कुछ वर्चस्वशाली लोगों के मुद्दों के व्यापक समाज के मुद्दे के रूप में पेश किया जाता है और उन मुद्दों पर अपनी सहमति/असहमति जाहिर करने के लिए भी एक छोटे से वर्ग को सुविधानुसार चुन लिया गया है। इस आलोक में देखें तो सरकारी और निजी मीडिया, समान रूप से समाज में वर्चस्वशाली विचारों और लोगों को मजबूती देने के एक साधन के रूप में है। जनमत निर्माण के ये साधन हाशिये के लोगों को उन्हीं के बीच रहकर और ज्यादा हाशिये पर धकेलने की नियत से काम कर रहे हैं।

1 comment:

Anonymous said...

"एक से ही विचारों की यह बहुलता भारतीय समाज में मौजूद सांस्कृतिक और वैचारिक विविधता को गायब कर देती है...जनमत तैयार करने में निर्णायक साबित होती है..." बेहतर...