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बहसों पर मालिकाना हक


विजय प्रताप
मीडिया के मालिकाना हक पर तो दुनिया भर में चर्चाएं होती रही हैं। लेकिन मीडिया में होने वाली बहसों में भी एक मालिकाना हक दिखाई देता है और वह मीडिया पर एकाधिकार के विमर्श में दिखाई नहीं देता हैं। मीडिया के विभिन्न माध्यमों में होने वाली बहसों में कौन शामिल रहता है या किसका एकाधिकार है,  इसे समझने के लिए यहां तीन सर्वे की चर्चा जरूरी होगी। मीडिया स्टडीज ग्रुप ने एक सर्वे में पाया कि वर्ष 1975-76 में आपातकाल के समय सरकार ने अपनी नीतियों के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ थोड़े से लोग जिसमें ज्यादातर पत्रकार थे, को इस्तेमाल किया। दूरदर्शन के विभिन्न केंद्रों के जरिये होने वाले प्रसारण में इन पत्रकारों को बुलाया जाता रहा गया। ये पत्रकार मूलतः अखबारों या पत्रिकाओं से जुड़े थे। यह सारी कवायद सरकार के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए की जा रही थी। ग्रुप ने ही एक और सर्वे में निजी चैनलों पर किसी मुद्दे पर विचार-विमर्श करने वाले व्यक्तियों का अध्ययन किया गया। यहां भी थोड़े से लोग ही उस मुद्दे पर बहस करते दिखाई दिए। यहां तक की कुछ लोग तो ऐसे भी थे जो एक समय किसी और चैनल पर दिख रहे थे तो थोड़ी देर बाद दूसरे चैनल पर भी वही मौजूद थे। मीडिया स्टडीज ग्रुप से जुड़े पत्रकार वरुण शैलेश ने हाल ही में आकाशवाणी के कार्यक्रमों में होने वाले बहस या बातचीत करने वाले लोगों पर एक अध्ययन किया। वहां भी बहुत थोड़े से लोग सभी मुद्दों पर बहस करते दिखे। इन सर्वे को मीडिया स्टडीज ग्रुप ने अपनी शोध पत्रिकाओं जन मीडिया व मास मीडिया के जरिये जारी किए हैं। अखबारों के संपादकीय पेज पर लिखने वाले लोगों के लेकर पहले भी शोध हुए हैं जिनका नतीजा कमोबेश यही रहा है।
संचार माध्यम आम जन की समझ के आधार होते हैं। समाचार पत्रों, टीवी चैनलों, रेडियो या अन्य संचार माध्यमों से जो सूचनाएं लोगों के बीच पहुंचती हैं वो जनमत तैयार करने में निर्णायक साबित होती है। इन माध्यम में लिखने, दिखने और बोलने वाले लोग समाज की दशा और दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं। इस मायने में यह महत्वपूर्ण है कि जनमत तैयार करने वाले माध्यम पर किन लोग की हिस्सेदारी ज्यादा है। सर्वे के निष्कर्ष बताते हैं कि जनमत तैयार करने वाले माध्यमों पर बहुत थोड़े से लोगों का कब्जा है। थोड़े से लोगों का यह कब्जा कई तरह से है। न केवल हर मुद्दे पर वही लोग दिखते हैं बल्कि अलग-अलग माध्यमों में भी उन्हीं का कब्जा है। मसलन जो लोग समाचार चैनलों के पर्दे पर मौजूद हैं और वही आकाशवाणी के जरिये भी अपने विचार रख रहे हैं और वही अखबारों के संपादकीय पेज पर लिखते हैं। इससे एक ही तरह के विचारों की बहुलता दिखाई देने लगती है। एक से ही विचारों की यह बहुलता भारतीय समाज में मौजूद सांस्कृतिक और वैचारिक विविधता को गायब कर देती है। ऐसे में यह कहना कि यह सबकुछ सोची समझी रणनीति के तहत है, गलत नहीं होगा। लोकसभा चैनल पर आने वाले वक्ताओं का सर्वे करते हुए यह पाया गया कि 6 माह में कुल 979 लोग वक्ता के तौर पर बुलाए गए, लेकिन इन लोगों ने 2000 लोगों की बात कही। मतलब कि जहां 2000 लोगों को बुलाया जाना चाहिए था 979 लोगों में से ही कुछ लोगों को बार-बार बुला लिया गया। इसमें से कुछ लोग ऐसे भी थे जो 17-18 बार बुलाए गए। ठीक इसी तरह आकाशवाणी (एआईआर) में 10 लोगों को 179 बार अलग-अलग कार्यक्रमों में बुलाया गया। (संदर्भ के लिए जन मीडिया/मास मीडिया का अंक 3 और 9 देखा जा सकता है।)
आपातकाल के दौरान जनसंचार माध्यमों पर सेंसरशिप लागू थी। कहा जा रहा था कि सरकार की इजाजत के बिना अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी में कुछ प्रसारित नहीं होता था। लेकिन क्या आज भी समाचार माध्यमों पर किसी तरह की सेंसरशिप लागू है? उदारीकरण का दौर में विचारों और अभिव्यक्ति में विविधता की दरिद्रता ज्यादा साफ देखी जा सकती है, जो लगातार बढ़ भी रही है। इस समय मीडिया पर किसी तरह का घोषित सेंसरशिप नहीं है। पहले केवल एक चैनल दूरदर्शन हुआ करता था जिस पर सरकारी प्रवक्ता होने के आरोप आम थे। अब ढेर सारे निजी चैनल हैं बावजूद इसके थोड़े से लोग ही सरकारी और निजी दोनों तरह के चैनलों और अन्य माध्यमों में बार-बार दिख रहे हैं। समाज का एक बड़ा हिस्सा जो पहले से ही अलग-अलग कारणों से हाशिए पर था, मीडिया के जरिये भी उन्हें उसी स्थिति में बनाए रखने की कोशिश जारी है। यहां होने वाली बहसों में ना तो महिलाएं देखने को मिलती हैं ना ही दलित-आदिवासी। खुद को राष्ट्रीय कहने वाले चैनलों और 99.18 प्रतिशत जनसंख्या तक पहुंचने का दावा करने वाले आकाशवाणी पर क्षेत्रीय विविधता सीरे से गायब है। उपर जिक्र किए गए सभी सर्वे में यह भी देखने को मिला कि उत्तर-पूर्व के राज्यों का कोई भी वक्ता किसी समाचार या बहस के हिस्से के रूप में नहीं दिखा। ज्यादातर दिल्ली और आस-पास की जगहों पर रहने वाले, नामी-गिरामी संस्थाओं से जुड़े, सहजता से उपलब्ध थोड़े से लोग हर क्षेत्र, संस्कृति, सामाजिक वर्ग और मुद्दों के विशेषज्ञ के रूप में पेश किए जाते हैं। यह एक तरह से बाकी समाज को नीचा दिखाने और उनकी प्रतिभा को कमतर आंकने जैसा अमानवीय व्यवहार भी है।
जब माध्यमों में लोगों की विविधता नहीं है तो जाहिर सी बात है कि समाज के मुद्दे भी उन माध्यमों का हिस्सा नहीं बन सकते। जैसे कि आकाशवाणी ने बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय को अपने उद्देश्य के रूप में अपनाया है। लेकिन जब मीडिया स्टडीज ग्रुप के सर्वे में वर्षभर प्रसारित कार्यक्रमों के विषय का विश्लेषण किया गया तो पता चला कि ग्रामीण इलाके, दलित, अल्पसंख्यक, युवाओं पर एक फीसदी से कम और केवल पिछड़े-आदिवासी के मुद्दे पर एक भी कार्यक्रम नहीं प्रसारित किए गए। आकाशवाणी से जिन मुद्दों पर सर्वाधिक कार्यक्रम प्रसारित हुए उनमें आर्थिक मामले प्रमुख हैं। समाज में कुछ खास तरह के विचारों को स्थापित करने में मीडिया की भूमिका आपातकाल से अब तक यथावत बनी है। जिसका मतलब ये भी निकलता है कि मीडिया ने इसे अपने कार्य के रूप में चिन्हित किया है। कुछ वर्चस्वशाली लोगों के मुद्दों के व्यापक समाज के मुद्दे के रूप में पेश किया जाता है और उन मुद्दों पर अपनी सहमति/असहमति जाहिर करने के लिए भी एक छोटे से वर्ग को सुविधानुसार चुन लिया गया है। इस आलोक में देखें तो सरकारी और निजी मीडिया, समान रूप से समाज में वर्चस्वशाली विचारों और लोगों को मजबूती देने के एक साधन के रूप में है। जनमत निर्माण के ये साधन हाशिये के लोगों को उन्हीं के बीच रहकर और ज्यादा हाशिये पर धकेलने की नियत से काम कर रहे हैं।

प्रशांत, सीमा, सुधीर, अनु से लेकर जे. डे तक...


हत्यारा कौन ?
मुंबई में मिड डे के पत्रकार जे. डे की हत्या और दिल्ली में शाह टाइम्स के पत्रकार नरेन्द्र भट्टी की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत ने पत्रकारिता जगत में एक खलबली मचा दी है। विभिन्न पत्रकार संगठनों की ओर से पत्रकारों को सुरक्षा देने की बात हो रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाए रखने के लिए पत्रकारों पर हो रहे ऐसे हमलों को रोकने में विफल रहने पर सरकारों को जिम्मेदार बताया जा रहा है। यह पहला मौका नहीं है, जब पत्रकारों पर ऐसे हमले हुए हैं, बल्कि हर दौर में ऐसे हमले होते रहे हैं और कहीं ना कहीं इससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता भी बढ़ती रही है।


प्रशांत राही : चार साल से रिहाई का इंतजार
दरअसल पत्रकारों और पत्रकारिता पर ऐसे हमलों का लम्बा इतिहास है। हमले केवल अपराधियों की तरफ से ही नहीं होते बल्कि खुद सरकार और उसकी एजेंसियों की तरफ से भी ऐसे हमले कराए जाते हैं। भारत उन गिने-चुने देशों की श्रेणी में आता है जो पत्रकारों के लिए खतरनाक माने जाते रहे हैं। पत्रकारों को यह खतरा अपराधियों और पुलिस दोनों से ही रहता है। जिस दिन मुंबई में पत्रकार जे. डे की हत्या से हुई उसी दिन दिल्ली में बिजनेस स्टैंर्डड अखबार के पूर्व संवाददाता कपिल शर्मा को पुलिस ने पूछताछ के नाम पर निर्मम तरीके से प्रताड़ित किया। हालांकि यह घटना मुख्यधारा के समाचार माध्यमों में जगह नहीं पा सकी। अपराधियों द्वारा की जाने वाली हत्याएं ज्यादा चर्चा का विषय बन जाती हैं, जबकि पुलिस द्वारा किए जाने वाली हत्याएं या प्रताड़नाएं खुद मीडिया में भी गंभीर बहस का विषय नहीं बन पाती। इसके पीछे मीडिया और पुलिस की मिली-जुली साझेदारी काम करती है।

पत्रकारों पर हमले के मामले में अपराधियों से ज्यादा सत्ता या सुरक्षा एजेंसियां आक्रामक होती हैं। फिर चाहें वह पाकिस्तान में शाहबाज की आईएसआई द्वारा कराई गई हत्या हो या फिर भारत में पिछले साल जुलाई में आंध्र पुलिस द्वारा पत्रकार हेमचंद्र पाण्डे की एक फर्जी मुठभेड़ में की गई हत्या का मामला हो। भारत में सत्ता के खिलाफ लिखने-पढ़ने वाले पत्रकारों पर सुरक्षा एजेंसियों की आक्रामकता कहीं ज्यादा तेज है। सरकार की नीतियों से असहमति जताने वाले और उसके पक्ष में अपनी लेखनी से एक जनमत तैयार करने में जुटे कई पत्रकार अब सलाखों के पीछे हैं। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब सत्ता की सहृदयता है। मतलब की आप सरकार के खिलाफ तभी तक लिख-बोल सकते हैं जब तक कि वह सीधे सरकार या उसकी नीतियों को कोई नुकसान ना पहुंचाये। इस नियम के खिलाफ जाने वाले उत्तराखंड के स्टैट्समैन के संवाददाता प्रंशात राही पिछले चार सालों से जेल में हैं, या फिर इलाहाबाद से ‘दस्तक’ पत्रिका निकालने वाली पीयूसीएल की उत्तर प्रदेश सचिव सीमा आजाद पिछले डेढ़ सालों से जमानत मिलने का इंतजार कर रही हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र से ‘विद्रोही’ पत्रिका निकालने वाले दलित पत्रकार सुधीर धवले हों, या दिल्ली की ‘टूटती सांकले’ निकालने वाली अनु हों, इन्हें भी अपनी रिहाई का इंतजार है।


सीमा आज़ाद : सरकारी नीतियों के विरोध का नतीजा
देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पैमान क्षेत्र के हिसाब से भी तय होता है। मसलन अगर आप भारत शासित कश्मीर में पत्रकारिता कर रहे हैं तो सेना या सरकार की मेहरबानी आपकी लेखनी के तेवर तय करेगी। वरना आपको इसका अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। पिछले साल कश्मीर में सरकार विरोधी आंदोलनों में आम लोगों के बाद सबसे ज्यादा पत्रकारों को पुलिस और सेना के हमलों का सामना करना पड़ा। सरकारी हमलों के खिलाफ कई दिनों तक घाटी में अखबार नहीं छपे। कई लोकल चैनलों पर रोक लगा दी गई। हालात ऐसे हैं कि कश्मीर में अब अखबारों व चैनलों के अलावा वेब माध्यमों से अपनी बात रखने वाले पत्रकारों या आम लोगों को आई टी एक्ट के तहत गिरफ्तार किया जा रहा है या परेशान किया जा रहा है। पिछले हफ्ते बीबीसी की कश्मीर संवाददाता नईम अहमद मेहजूर को फेसबुक पर कश्मीर पुलिस पर एक युवक की हत्या का आरोप लगाने पर आई टी एक्ट के तहत केस दर्ज कर किया गया। इससे पहले फेसबुक पर निर्दोष लोगों की हत्या के खिलाफ लिखने पर दो युवकों को जेल भी जाना पड़ा। कश्मीर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब पुलिस की सहमति है।

कश्मीर ही नहीं, बल्कि उत्तर-पूर्व और मध्य भारत में भी कमोबेश ऐसे हालात हैं। पिछले साल दिसम्बर के आखिरी सप्ताह में मणिपुर में अखबार नहीं छपे। दैनिक सालीबक के संपादक और ऑल मणिपुर वर्किंग जनर्लिस्ट्स यूनियन के प्रदेश उपाध्यक्ष व प्रवक्ता अहोंग्सांगबम मोबी सिंह की गिरफ्तारी के खिलाफ मणिपुरी पत्रकारों ने अखबार नहीं छापने का निर्णय किया। पुलिस ने उन पर एक प्रतिबंधित संगठन से सांठगांठ और मदद का आरोप लगाया था। उत्तर-पूर्व में पत्रकारों को दोहरे हमले का सामना करना पड़ता है। एक तरफ अलगाववादी संगठनों की अपने पक्ष में खबर छपवाने का दबाव तो दूसरी तरफ पुलिस का दबाव।


सुधीर धावले : गरीबों की बात केवल माओवादी बोलते हैं तो हम 'माओवादी' हैं
इससे कुछ उलट मध्य भारत में पत्रकारों को पुलिस और सत्ता प्रतिष्ठानों का दबाव ज्यादा झेलना पड़ता है। खनिज संपदा से संपन्न इस क्षेत्र में सरकार ने माओवादियों के खिलाफ अघोषित युद्ध झेड़ रखा है। इसका सीधा प्रभाव वहां काम करने वाले पत्रकारों पर पड़ रहा है। देश के अलग-अलग हिस्सों से गए सुरक्षाकर्मियों को जंगलों में रहने वाले माओवादियों और आदिवासियों के बीच फर्क करना मुश्किल हो जाता है, जिसके शिकार सीधे-साधे आदिवासी होते हैं। ऐसे में आदिवासियों के उत्पीड़न की खबर लिखने की कोशिश करने वाले पत्रकारों को पुलिस माओवादियों के समर्थक के बतौर चिन्हित कर उत्पीड़ित करना शुरू कर देती है।

आमतौर पर मुख्यधारा की मीडिया में पत्रकारों के ऐसे उत्पीड़न की खबर बहुत ही कम आती है। भाषाई अखबारों में तो लगभग नहीं के बराबर। पुलिस और सत्ता द्वारा उत्पीड़ित किये जाने वाले पत्रकारों का एक खास वर्ग है। वह कहीं ना कहीं सरकार से सीधे टकराने की कोशिश करता है या फिर उसके लिए जनमत तैयार करता है, जो किसी भी सरकार के लिए काबिले बर्दाश्त नहीं होती। ऐसे में उन्हें या तो राष्ट्रविरोधी या फिर प्रतिबंधित संगठनों का समर्थक बताकर प्रताड़ित किया जाता है। इससे सरकार अपने खिलाफ उठने वाली किसी भी तरह की संभावना को तो दबा ही देती है, साथ ही अन्य पत्रकारों व मीडिया संस्थानों को अघोषित नसीहत भी दे देती है कि उसके खिलाफ जाने का नतीजा क्या हो सकता है।


हेमचन्द्र पांडे : हमारी हत्यारी है सरकार
पत्रकारों पर हो रहे ऐसे हमलों से इतर हम एक नजर उन पत्रकारों की तरफ उठा कर देखें जिनका नाम पिछले दिनों भ्रष्टाचार के मामलों में सामने आया तो वह आज भी मजे से अपनी नौकरी कर रहे हैं या फिर एक संस्थान से दूसरे संस्थान में चले गए हैं। सत्ता के साथ उनकी नजदीकियों का ही नतीजा है कि वो पत्रकारिता की विश्वसनीयता बेचकर भी सुरक्षित और सुखद जीवन गुजार रहे हैं। जबकि दूसरी तरफ जे. डे, हेमचंद्र पाण्डे जैसे लोग अपनी जान गवां रहे हैं। आम जन का पत्रकारों व मीडिया संस्थानों पर विश्वसनीयता भी कारण भी जे. डे और हेमचंद्र पाण्डे जैसे लोगों की शहादत ही है। लोगों को अखबारों में छपे शब्दों में अगर सच्चाई नजर आती है तो वह ऐसे ही लोगों के कारण है। गणेश शंकर विद्यार्थी की परंपरा ने ही पत्रकारों के रसूख को बचाए रखा है वरना सत्ता से समझौता करने वाले अखबार और पत्रकार हर दौर में मौजूद रहे हैं, बावजूद मीडिया की विश्वसनीयता अभी भी काफी हद तक बरकरार है।



विजय प्रताप

स्वतंत्र पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता हैं. इनसे vijai.media@gmail.com या 09696685616 के जरिए संपर्क किया जा सकता है.


सरकारी कैद में ‘आजाद’ पत्रकारिता

विजय प्रताप

पत्रकारों की वैश्विक संस्था ‘रिपोर्टस विदाउट बॉर्डर’ ने पिछले महीने एक अपील जारी कर भारत सरकार से पत्रकारों के सुरक्षा की मांग की। संस्था की मांग से लगता है कि वह भारत में पत्रकारों पर बढ़ रहे हमलों से चिंतित है। हालांकि संस्था की मांग एक मायने में विरोधभासी भी है। भारत में अभी तक पत्रकारों पर जितने भी हमले हुए हैं, उसमें से ज्यादातर में भारत सरकार या उसकी सुरक्षा एजेंसियों का हाथ रहा है। ऐसे में हमलावर से ही सुरक्षा की मांग हास्यास्पद है।
इस अंतरराष्ट्ीय संस्था की यह मांग ऐसे समय में आई है, जब एक भारतीय पत्रकार सीमा आजाद की गिरफ्तारी को 5 फरवरी को एक साल पूरे हो जाएंगे। सीमा आजाद को अगर भारत में गिरफ्तार या सरकारी प्रताड़ना के शिकार पत्रकारों में से उदाहरण के बतौर चुने तो इसके निहितार्थ समझे जा सकते हैं। पत्रकार सीमा आजाद अपनी गिरफ्तारी से पूर्व तक उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से ‘दस्तक’ नाम की मासिक पत्रिका निकाला करती थी। पिछले वर्ष उन्हें 5 फरवरी को दिल्ली पुस्तक मेले से वापस इलाहाबाद लौटते समय पुलिस ने उन्हें और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रनेता व राजनीतिक कार्यकर्ता विश्वविजय को
स्टेशन से ही उठा लिया। दोनों को दो दिनों तक अवैध हिरासत में प्रताड़ित करने के बाद पुलिस ने उन्हें 7 फरवरी को इलाहाबाद की स्थानीय अदालत में पेश किया। पुलिस का आरोप था कि उनके पास से माओवादी साहित्य बरामद हुआ है और उनका संबंध कुछ माओवादी नेताओं से है। इस आधार पर उन पर राजद्रोह का केस दायर कर दिया गया। फिलहाल पत्रकार सीमा आजाद पिछले एक साल से जेल की सलाखों के पीछे हैं।
इस पुलिसिया कहानी से इतर सीमा आजाद की गिरफ्तारी की सच्चाई कुछ और ही है। सीमा आजाद पत्रकार होने के साथ-साथ मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं। वह पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज पीयूसीएल उत्तर प्रदेश की संगठन सचिव भी हैं। उन्होंने एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की हैसियत से उत्तर प्रदेश में कई गंभीर मुद्दों को उठाया और उस पर अपनी पत्रिका में लगातार लिखती भी रहीं। सोनभद्र में नक्सली नेता कमलेश चौधरी की फर्जी पुलिस मुठभेड़ में हत्या के मामले को उन्होंने अपने संगठन के माध्यम से उठाया। इसके अलावा गंगा एक्सप्रेस वे के निर्माण और उससे बेदखल होने वाले किसानों की समस्याओं पर उन्होंने अभियान छेड़ रखा था। जो लाजिमी तौर पर न तो प्रदेश सरकार को पंसद आ रहा था न ही उसके कारिंदों प्रशासकों को। गंगा एक्सप्रेस वे प्रदेश सरकार की स्वप्न परियोजना है, ऐसे में सीमा अपने उस अभियान से प्रदेश सरकार के निशाने पर थीं। इसका नतीजा उनकी गिरफ्तारी के रूप में सामने आया।
सीमा आजाद और उसके बाद गिरफ्तार अन्य पत्रकारों के मामलों पर नजर दौड़ायें तो कमोबेश ऐसी ही घटनाएं देखने को मिलेंगी। नये साल के शुरुआत में ही 2 जनवरी को महाराष्ट् से पत्रकार सुधीर धवल की गिरफ्तारी भी सीमा आजाद की कड़ी को आगे बढ़ती है। सुधीर धवल स्वतंत्र रूप से एक मासिक पत्रिका ‘विद्रोही’ निकाला करते थे। गिरफ्तारी के बाद उन पर एक प्रतिबंधित संगठन भाकपा माले से संबद्ध होने का आरोप लगाते हुए, राजद्रोह का केस लगा दिया गया। धवल की गिरफ्तारी से पूर्व पिछले वर्ष दिसम्बर के आखिरी सप्ताह में मणिपुर की राजधानी इंफाल से निकलने वाले कई अखबार नहीं छपे। अखबार नहीं छापने का यह निर्णय वहां के पत्रकारों ने अपने ही एक पत्रकार साथी और मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन के प्रदेश उपाध्यक्ष मोबी सिंह की गिरफ्तारी के विरोध में लिया। मोबी सिंह इंफाल से निकालने वाले दैनिक सालीबक से जुड़े हैं। पुलिस ने उन पर प्रतिबंधित संगठन कांग्लीपक कम्युनिस्ट पार्टी से संबंध होने का आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
इन सभी गिरफ्तारियों में पत्रकारों का माओवादी संगठनों से संबंध होने का आरोप आम है। वर्तमान दौर में यह ऐसा हथियार बन गया है, जिसके नाम पर कभी भी किसी पत्रकार को उठाया जा सकता है। उसके पास से माओवादी साहित्यों की बरामदगी दिखाई जा सकती है और उस पर राजद्रोह का केस दायर किया जा सकता है। हालांकि ये माओवादी साहित्य क्या हैं, इस सवाल का जवाब कभी भी पुलिस के पास नहीं होता। माओवादी होने के आरोप में उत्तराखंड के पत्रकार प्रशांत राही पिछले चार सालों से जेल की सलाखों के पीछे हैं। ऐेसे पत्रकारों की एक और आम खासियत है कि यह सामान्य पत्रकारों की तरह रोजाना की खबरों तक अपने सरोकार सीमित रखने वालों में से नहीं हैं। बल्कि इन सभी पत्रकार, अपने पेशे की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए, जनसरोकारों से जुड़ी खबरों पर स्वतंत्र रूप से या वैकल्पिक पत्रिकाओं के माध्यम से सत्ता को लगातार चुनौती देते रहे। ऐसे में शासकवर्ग को इन पत्रकारों से खतरा महसूस होना स्वाभाविक है। इसी खतरे को मौजूदा दौर में माओवाद का आवरण पहना दिया गया है। माओवाद चूंकि इस समय सत्ता द्वारा तैयार सबसे बड़े खतरों में से एक है। पत्रकारों की गिरफ्तारियों को भी माओवाद के नाम पर वैधता प्रदान करने की कोशिश की जाती है।
सरकार द्वारा पत्रकारों की गिरफ्तारी की खुली छूट ने न केवल पुलिस के जेहन से मीडिया के डर को खत्म किया है, बल्कि अन्य कट्टर संगठनों को भी पत्रकारों को नियंत्रित करने की खुली छूट दे दी है। छत्तीसगढ़ में ऐेसे ही सरकारी संरक्षण में पनप रही संस्था मां दंतेश्वरी स्वाभिमानी आदिवासी मंच ने वहां के तीन पत्रकारों एन आर के पिल्लई, अनिल मिश्रा और यशवंत यादव को पत्र लिखकर माओवादियों के पक्ष में खबरें न लिखने की धमकी दी। पत्रकारों पर माओवाद के नाम पर हमले ज्यादा हो रहे हैं। लेकिन कई जगह पत्रकारों को प्रशासन या पुलिस के खिलाफ थोड़ी सी भी तिखी खबर लिख देने का नतीजा भुगतना पड़ रहा है। चेन्नई के ऐेसे ही एक पत्रकार एस मणि को पुलिस में भ्रष्टाचार पर खबर लिखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। वहीं दूसरी तरफ बिहार में बहुचर्चित पुर्णिया के भाजपा विधायक हत्याकांड में वहां के स्थानीय अखबार के संपादक नवलेश पाठक को गिरफ्तार कर लिया गया। उनका दोष महज इतना था कि उन्होंने विधायक की हत्या आरोपी महिला के विधायक पर यौन दुराचार के आरोपों को अपने अखबार में जगह दी थी।
यह वर्तमान समय में पुलिस और प्रशासन की ‘सहनशीलता’ का उदाहरण है। इसका खामियाजा जनपक्षधर पत्रकारों को भुगतना पड़ रहा है। पत्रकारों के साथ ऐसी घटनाएं इसलिए भी चिंताजनक हैं, क्योंकि यह सबकुछ भारत की चुनी सरकारों के इशारों पर हो रहा है। देश और दुनिया की तमाम संस्थाएं इन्हीं सरकारों से पत्रकारों के संरक्षण व सुरक्षा की मांग कर रही हैं।


संपर्क: प्रथम तल, सी-2
पीपलवाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन
दिल्ली-42
मोबाइल-9015898445