एनजीओ के भरोसे आदिवासी

विजय प्रताप

ग्रामीण विकास मंत्रालय और योजना आयोग आदिवासियों के विकास के लिए एक नया संगठन बनाने पर विचार कर रहे हैं। भारत रूरल लाइवलीहुड फाउंडेशन (बीआरएलएफ) देश के 9 राज्यों के 190 आदिवासी बहुल जिलों में काम करेगा। यह फाउंडेशन कई सारे गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) और विदेशी संगठनों की मदद से काम करेगा। जिसका उद्दे”य आदिवासियों को आजीविका के साधन उपलब्ध कराना होगा। सरकार इसे सोसायटी एक्ट के तहत रजिस्टर्ड करावाएगी। शुरुआत में इस संगठन को सरकार 500 करोड़ रुपये देगी। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने उन राज्यों के मुख्यमंत्रियों से इस पर सुझाव मांगे हैं, जहां इसका काम प्रस्तावित है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय और योजना आयोग की इस पहल में एक बात गौर करने लायक है। यह पहल आदिवासियों के विकास के लिए कोई योजना चलाकर नहीं की जा रही है। यह शायद पहली बार होगा कि सरकार कोई ऐसा संगठन बनाने जा रही है, जो कई सारे एनजीओ के साथ एनजीओ की तरह काम करेगा। हालांकि इसमें पैसा सरकार का लगेगा। ऐसा नहीं कि सरकार गैर सरकारी संगठनों के साथ जुड़कर पहली बार कोई काम करने जा रही है। बल्कि यह कहना सही होगा अधिकांश गैर सरकारी संगठन सरकार के पैसों पर ही पल-बढ़ रहे हैं। लेकिन यहां सरकार की यह कोशिश खुद का एनजीओ खड़ा करने की दिख रही है।
इस देश में आदिवासियों की बहुत बड़ी तादाद है। उनके ऐतिहासिक रूप से सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को खत्म करने के लिए सरकारी और गैर सरकारी योजनाओं पर हर साल कई हजार करोड़ रुपये फूंके जाते हैं। लेकिन उनकी स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। उदाहरण के तौर पर पिछले वित्त वर्ष में आदिवासी मामलों के मंत्रालय का कुल बजट 2229 करोड़ रुपये का था। इससे पहले वर्ष 2009-2010 में यह बजट 1818 करोड़ और उससे पहले वर्ष 2008-2009 में करीब 2133 करोड़ रुपये का था। आदिवासियों के विकास के नाम पर खर्च होना वाला उन सब बजट से अलग है जो गृह मंत्रालय आदिवासी बहुल जिलों में वामपंथी उग्रवाद को खत्म करने के लिए खर्च करता है, या दूसरी अन्य योजनाओं के जरिये आदिवासियों पर खर्च हो रहे हैं।
देश व राज्य के आदिवासी मामलों के मंत्रालय या सामाजिक अधिकारिता विभाग की वार्’िाक रिपोर्टों नजर डालना रोचक होगा। यह इकलौते ऐसे मंत्रालय या विभाग होंगे जिनका अधिकांश काम गैर सरकारी संगठनों के जिम्मे होता है। मसलन आदिवासी मामलों के मंत्रालय की वर्ष 2010-11 की रिपोर्ट को लेते हैं। इसमें आदिवासियों के विकास से जुड़ी जितनी भी योजनाएं हैं वह बिना एनजीओ की भागीदारी के नहीं चल रही। कई सारी योजनाओं तो महज एनजीओ के भरोसे ही चल रही हैं। आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल, हाॅस्टल, व्यावसायिक शिक्षा या आदिवासी लड़कियों के सशक्तीकरण की योजनाएं, इन सब की जिम्मेवारी गैर सरकारी संगठनों को दे दी गई। इस रिपोर्ट के मुताबिक मंत्रालय ने आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल और हाॅस्टल चलाने के लिए गैर सरकारी संगठनों को करीब 32.7 करोड़ रुपये की सहायता मंजूर की। इसके अलावा आदिवासी लड़कियों की शिक्षा के लिए करीब 7.50 करोड़ और व्यावसायिक शिक्षा के लिए ऐसे संगठनों को लिए 1.47 करोड़ रुपये की आर्थिक सहायता दी गई। अब इसी तरह अलग-अलग राज्यों के ऐसे मंत्रालय या सामाजिक अधिकारिता विभाग की रिपोर्टों को खंगाले तो कमोबेश ऐसे ही आंकड़े देखने को मिलेंगे। केंद्र और राज्य सरकारें यह तो मानती हैं कि आदिवासियों का विकास उनकी जिम्मेदारी है, लेकिन यह जिम्मेदारी पूरा करने के लिए उन्हें एनजीओ का सहारा लेना पड़ता है। इस पर विचार किया जाना चाहिए कि क्यों ये सरकारें आदिवासियों तक सीधे पहुंच पाने में असफल हैं? क्यों उन्हें गैर सरकारी संगठनों के बैसाखी की जरूरत होती है?
इसका जवाब खोजने के लिए हमें वहां जाना होगा जहां आदिवासी रहते हैं। लेकिन वहां तक सरकार या उनके नुमाइंदों का पहुंच पाना मुमकिन नहीं होता। क्योंकि सरकार के साथ ही नौकरशाही का सारा तंत्र ऐसे इलाकों को कालापानी की सजा के बतौर देखता है। ऐसे में इसके उपाय के बतौर सरकारी तंत्र ने गैर सरकारी संगठनों को खड़ा किया है। ये अलग बहस का विषय है कि ये गैर सरकारी संगठन आदिवासियों या आदिवासी क्षेत्रों का कितना विकास कर पाते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि आदिवासियों की किस्मत गैर सरकारी संगठनों के भरोसे पर ही छोड़ दी गई है।
आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने गैर सरकारी संगठनों को तेजी से खड़ा और मजबूत किया है। कई मामलों में एनजीओ लगभग सरकार या उसकी एजेंसियों के बराबर हस्तक्षेप रखते हैं। सरकार ने भी अपनी नीतियों के जरिये अपरोक्ष रूप से एनजीओ को बढ़ावा दिया है। केंद्र और राज्य में चाहे भी जिस दल की सरकार रही हो, सभी ने एनजीओ को धीरे-धीरे विपक्ष के रूप में खड़ा किया है। पहले जो काम राजनीतिक दलों या उससे जुड़े जन संगठन किया करते थे, उदारीकरण की नीतियों के बाद उनकी जगह ये एनजीओ लेने लगे। यह सबकुछ बिल्कुल सोची समझी रणनीति के तहत धीरे-धीरे किया जा रहा है। उन्हें सरकारी नीति निर्माण में खास महत्व दी जा रही है।
आदिवासियों के लिए बनाया जा रहा भारत रूरल लावलीहुड फांउडेशन का आदिवासियों से कितना वास्ता होगा यह उसके नाम से ही अंदाजा लगाया जा सकता है। 60 सालों से लगातार ‘आदिवासी विकास’ के बावजूद भी आज सरकार की नीतियां उनकी आजीविका (लावलीहुड) तक ही केंद्रीत हैं। दरअसल फाउंडेशन का असली मकसद आदिवासियों को आजीविका उपलब्ध कराने से इतर उनके बीच पैठ बनाने की है। आदिवासियों के विकास के ना पर सरकारों का सारा जोर वहां की खनिज संपदाओं का ज्यादा से ज्यादा दोहन करना है। इसलिए पिछले कुछ सालों में आदिवासी बहुल क्षेत्रों में माओवाद के खतरे को हकीकत से कई गुना ज्यादा प्रचारित किया गया है। वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित 9 राज्यों में माओवाद को खत्म करने, आदिवासियों का विकास करने और ढांचागत विकास के नाम पर पिछले कुछ सालों हजारों करोड़ रुपयों का निवेश किया गया है। अकेले गृह मंत्रालय ने वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित 9 राज्यों के 83 जिलों में सड़कों का जाल बिछाने के नाम पर 7300 करोड़ रुपये खर्च करने की योजना बनाई है। 11वीं पंचवर्षीय योजना में इन जिलों वि”ोष ढांचागत विकास के लिए 500 करोड़ रुपये खर्च किए गए। गृह मंत्रालय इन जिलों में 400 पुलिस थाना बना रहा है। हर थाने पर 2 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। मतलब की कुल 800 करोड़ रुपये के थाने बनेंगे। ये सब काम भी अपरोक्ष रूप से आदिवासियों के विकास के खाते में जुड़ते हैं। हालांकि इनका मकसद आदिवासियों के इलाकों में मौजूद खनिज संपदा तक सरकार और निजी कंपनियों की पहुंच सुनि”िचत करना है। सारा ढांचागत विकास इसलिए किये जा रहा है कि निजी कंपनियां वहां आसानी से पहुंच सके। गौर करने वाली बात है कि जितना खर्च सीधे आदिवासियों से जुड़ी योजनाओं पर किया जा रहा है उससे कहीं ज्यादा और कई गुना ज्यादा खर्च उन इलाकों में घुसने की कोशिश के लिए किया जा रहा है। मसलन आदिवासी मामलों के मंत्रालय का पिछले वर्ष का कुल बजट 2229 करोड़ रुपये का रहा है, लेकिन आदिवासी बहुल जिलों में सड़क बिछाने के नाम पर 7300 करोड़ रुपये का निवेश किया गया। इससे सरकार की प्राथमिकताओं का आसानी से समझा जा सकता है।
बहरहाल, देश की जनसंख्या के 8.4 प्रतिशत आदिवासी भले ही बदतर स्थितियों में जीने के लिए मजबूर हों, उन्हें रोजगार न मिले, लेकिन उनकी आजाविका के नाम पर भारत रूरल लाइवलीहुड फाउंडेशन के जरिये आने वाले कई सालों तक गैर सरकारी संगठनों को रोजगार जरूर मिल जाएगा।


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