दुहराया जा रहा है आदिवासियों पर अत्याचार का इतिहास


विजय प्रताप

19 दिसंबर 1949 को संविधान सभा में आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाले जयपाल सिंह मुंडा ने कहा, ‘मैं भी सिंधु घाटी की सभ्यता की ही संतान हूं। उसका इतिहास बताता है कि आप में से अधिकां बाहर से आए हुए घुसपैठिए हैं। जहां तक हमारी बात है, बाहर से आए हुए लोगों ने हमारे लोगों को सिंधु घाटी से जंगल की ओर खदेड़ा। हम लोगों का समूचा इतिहास बाहर से यहां आए लोगों के हाथों निरंतर ण और बेदखल किए जाने का इतिहास है।’’ यह उस समय की बात है जब नया-नया आजाद हुआ भारत, अपने लिए लोकतंत्र का ढांचा तय कर रहा था। तब भी आदिवासियों के लिए मूल लड़ाई महज इतनी थी कि उन्हें उनकी जमीनों से न खदेड़ा जाए। जयपाल सिंह मुंडा की बातों में इसे महसूस किया जा सकता है। अब भी आदिवासियों को उनकी जमीन से खदेड़ने की लड़ाई लड़ी जा रही है। सभ्यता के विकास के साथ आदिवासियों को जंगलों की ओर धकेला गया। अब जब यह पता चला है कि जंगलों में खजाने दबे हैं तो जंगलों को आदिवासियों से खाली करने के लिए उन्हें फिर वहां से निकाला जा रहा है। इसके लिए सैन्य और असैन्य सभी तरह के हथियार आजमाए जा रहे हैं।
1492 में स्पेन के यात्री कोलंबस ने जिस तरह से अमेरिका और 1770 में यूरोपिय नागरिक कैप्टन कुक आॅस्ट्रेलिया की खोज करके जो खुी महसूस कर रहे थे, लगभग वही खुी गृहमंत्री पी. चिदंबरम और  छत्तीसगढ़ के डीजीपी अनिल नवानी की बातों में भी महसूस किया जाता सकता है। चिदंबरम ने आंतरिक सुरक्षा पर राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में इस बात पर खुी जताई की सुरक्षा बल पहली बार सरांडा और अबूझमाड के जंगलों में घुसने में कामयाब हुए हैं। इसी तरह अनिल नवानी ने 19 मार्च को दावा किया कि दुनिया के लिए अबूझ पहेली बने अबूझमाड़ में पहली बार केंद्रीय पैरा मिलिट्री फोर्स और पुलिस बल दाखिल हुआ है। उसके बाद जो कुछ वहां हो रहा है वो अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया के मूल निवासियों से अलग नहीं है। माओवाद के नाम पर आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल कर, वहां की खनिज संपदा पर एकाधिकार करने का अभियान चलाया जा रहा है। सत्ता और काॅरपोरेट प्रायोजित इस अभियान को समूचा समाज समर्थन दे रहा है। हो सकता है कि समूचा समाज में अपने को भी ामिल कर लिये जाने से कई लोग असहमति रखते हों, लेकिन इससे उनका अपराध कम नहीं हो जाता।
मध्य भारत में आदिवासियों के साथ जो कुछ हो रहा है वो आजकल की परिघटना नहीं है। यह पिछले एक दक की तैयारी है। सत्ता में बैठे लोगों ने बहुत पहले ही इसका रोडमैप तैयार कर लिया था। उन्हें अंदाजा था कि आदिवासी अपनी जमीने ऐसे ही नहीं छोड़ देंगे। रोडमैप बनाने वालों ने एक तरह से अमेरिका में आदिवासियों को उजाड़ने की रणनीति को ही अपनाया है। अमेरिकी लेखक डीन ब्राउन ने अपनी चर्चित पुस्तक बरी माई हार्ट ऐट वूंडेड नीमें रेड इंडियन आदिवासियों पर अमेरिकियों के नृंस हमलों का जिक्र किया है, जिसकी आज के भारतीय परिस्थितियों से तुलना की जाए तो दोनों में कोई अंतर नहीं दिखता। डाउ ब्राउन लिखते हैं कि ‘‘न्यू मैक्सिको को अमेरिका का प्रदे घोषित करने के बाद अमेरिकियों ने वहां बसे रेड इंडियनों से सीमा समझौता किया और अपने हितों की रक्षा के लिए दुर्ग बनाए। जल्द ही यह समझौता टूट गया और अमेरिकी सेना के जनरल जेम्स कार्लेटन ने नवाहोस (रेड इंडियनों का एक कबीला) के नेताओं से कहा कि वे इस जगह को छोड़कर बास्क्यूइ रेडोंडो नाम के सुरक्षित क्षेत्र में चले जाएं। धीरे-धीरे जमी हुई बर्फ पिघली और जनरल कार्लेटन ने नवाहोस कबीले को परास्त करने की रणनीति निर्धारित करते हुए सैनिकों को रेड इंडियनों के जानवर पकड़ लाने का आदे ही नहीं दिया बल्कि प्रति घोड़ा 20 डाॅलर इनाम भी घोषित किया (उस जमाने में सैनिकों को एक महीने में 20 डाॅलर से कम वेतन मिलता था)। रणनीति का अगला कदम रेड इंडियनों के खेतों को तबाह करना, अनाज भंडारों को लूटना और उनमें आग लगाना था। इस जनरल ने वािांगटन पत्र लिखा, ‘‘...यहां सोना पड़ा हुआ है जिसे केवल हाथ उठाकर ही पाया जा सकता है।’’ जाड़ा आते-आते रेड इंडियनों की हालत ये हो गई उनके पास खाने के लिए एक दाना नहीं बचा। इन भूखों से युद्ध करने के लिए अमेरिकियों ने कई तरफ से हमला किया और सर्दी से कांपते नंगे भूखों को सुरक्षित क्षेत्र तक की पैदल यात्रा करनी पड़ी।’’ अमेरिकियों ने उन्नीसवीं ताब्दी आखिरी दकों में रेड इंडियनों के कई सामुहिक नरसंहारों को अंजाम दिया। आज अमेरिकी रेड इंडियन सुरक्षित क्षेत्रों में घिरे हुए हैं। असगर वजाहत ने दिनमान में इस पर श्रृंखलाबद्ध तरीके से लिखा है। (देखें दिनमान 14 सितंबर 1975)
दंतेवाड़ा या बस्तर के घने जंगलों में जब सुरक्षा बल घुसते हैं तो वो भी ऐसा ही करते हैं। आदिवासियों के घर जलाते हैं उनके मुर्गे-मुर्गियां मार कर खा जाते हैं या अनाजों को नट कर देते हैं ताकि उन लोगों को वहां से उजड़ने पर मजबूर किया जा सके। यहां की सरकारें निजी कंपनियों से लगातार सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर कर उन्हें आमंत्रित कर रही हैं कि यहां खजाना पड़ा है, आइए खोद कर ले जाइए।सलवा जुडुम जैसे आंदोलनों के जरिये आदिवासियों को उनकी मूल भूमि से उजाड़कर कैम्पों में बसाया जा रहा है। जैसे की पहले अमेरिका में रेड इंडियनों को सुरक्षित क्षेत्रोंमें कैद किया गया और फिर वह इलाका पर्यटकों के लिए खोल दिया गया। उन्हें नुमाइ की चीज बना दी गई।
सारी दुनिया में आदिवासियों को अपनी जल, जंगल, जमीन से एक सा लगाव होता है। ुरू से लेकर आज तक उनकी लड़ाई इसी के लिए रही है। वर् 1854 में अमेरिका के रेड इंडियन के सरदार ने वािांगटन के एक व्यापारी को पत्र लिखा जो उनकी जमीनें खरीदना चाहता था। सरदार ने कहा - ’’कोई आका या पृथ्वी की उमा कैसे खरीद या बेच सकता है? हवाओं की ताजगी या जल की चमक के जब हम मालिक ही नहीं हैं, तो तुम उन्हें खरीद कैसे सकते हो?...गोरे लोग जब मर कर सितारों के बीच चले जाते हैं तो वो अपने उस दे को भूल जाते हैं जहां उनका जन्म हुआ रहता है, लेकिन हमारे लोग मर कर भी इस जमीन को कभी नहीं भूल पाते क्योंकि वह उनकी मां है।’’ क्या भारत के आदिवासियों का दर्द इससे अलग है?
उड़ीसा में चासी मुलिया आदिवासी संघ के 23 आदिवासियों को इटली के नागरिकों के बदले रिहा किया गया। उनकी गलती महज इतनी थी कि उन्होंने भूमि अधिग्रहण का विरोध किया था और सरकार की मंा के खिलाफ अपनी पुरखों की जमीन देने से मना कर दिया था। छत्तीसगढ़ में माओवादियों ने सुकमा के कलक्टर एनेक्स पाॅल मेनन के बदले जिनको रिहा करने की मांग की है उसमें से करटम जोधा, विजय सोरी, लाला राम कंुजम, सुदरू कुंजम, सन्नू मांडवी आदिवासी राजनैतिक कार्यकर्ता हैं और निर्वाचित जनप्रतिनिधि रहे हैं। इसमें से दो तो ऐसे भी हैं जिन्होंने लंबे समय तक कांग्रेस पार्टी के लिए काम किया। अगर माओवादी ऐसे लोगों को रिहा करने की मांग रखते हैं तो सरकार के लिए यह र्मनाक इसलिए भी होना चाहिए कि इसके लिए उसे अपने अधिकारियों की जान खतरे में डालनी पड़ रही है। माओवादियों ने अपने पत्र में यह आरोप लगाया है कि छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में आदिवासियों की जमीनों की लूट तत्काल बंद होनी चाहिए। उनकी यह मांग आज की मांग नहीं है। अमेरिका से लेकर आॅस्ट्रेलिया तक के आदिवासी यही मांग कर रहे हैं कि उनकी जमीन से उन्हें न उजाड़ा जाए।
आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों पर बहुसंख्यक समाज उन्हें अपराधी या माओवादी मानकर चुप्पी साधे रखता है। समाज में आदिवासियों की इतनी हिस्सेदारी नहीं है कि वो अपने पर होने वाले इन अत्याचारों पर ोर मचा सके। वर्चस्वाली जातियों वाला मीडिया आदिवासियों और माओवादियों को एक दूसरे में घालमेल कर देता है। मीडिया में काम करने वाले ज्यादतर समाज के अगड़े तबके के लोग हैं जिनका इससे वास्ता नहीं होता। सरकारें न जाने कितने आदिवासियों को अपहृत करके अपने कैद में रखे हुए हैं। लेकिन उन्हें रिहा करने के लिए कभी न तो कोई वार्ताकार आगे आता है, ना ही मीडिया में ोर सुनाई देता है। सोनी सोरी की जमानत खारिज करने के बाद सर्वोच्च अदालत से भी ऐसी उम्मीद बेमानी होगी। यह व्यवस्था तो आदिवासियों पर जुल्म करने वालों को राट्रीय पुरस्कारों से नवाजने वाली है। व्यवस्था के पूंजीवादी ढांचे ने लोगों की संजीदगी या संवेदनाओं का एक खांचा तय कर दिया है। इस खांचे में वो संवेदनाएं ही फिट होती हैं जो पूंजीवादी या वर्चस्वाली तबके के हितों को सुहाती हैं। आदिवासियों से जुड़ी बहुसंख्यक समाज की संवेदनाएं या तो दिखावा है या उन्हें उजाड़ने के लिए भावुक हथियार।


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