विकास की राह के रोड़े


विजय प्रताप

अमेरिकी पत्रिका टाइम के कवर पर मनमोहन सिंहः
जिसने हनुमान को उनका बल याद दिलाया
देश को तेज आर्थिक विकास चाहिए और जो भी इसकी राह में रोड़ा बनने की कोशिश करेगा रौंद दिया जाएगा। सरकार में हालिया बदलाव कुछ इसी ओर इशारा करते हैं। आर्थिक विकास और निवेश में रोड़ा बन रहे अपने ही मंत्रियों से भी सरकार ने पीछा छुड़ाने में देरी नहीं की। मंत्रीमंडल में बदलाव के बाद नए मंत्रियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ये साफ संदेश दे दिया है कि नई जिम्मेदारी तेज आर्थिक विकास के लिए दी गई है। मंत्रियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि हमें कई तरह की बाधाओं को दूर करना होगा, जो निवेश को रोक रही हैं या उनकी रफ्तार को धीमा कर रही हैं। इनमें ईंधन आपूर्ति व्यवस्था, सुरक्षा और पर्यावरण मंजूरियां शामिल हैं। साथ ही वित्तीय मुश्किलें भी बाधक बन रही है।
मनमोहन सिंह के इस बयान का पर्यावरणविद् काफी विरोध कर रहे हैं। दरअसल उन्होंने तेज आर्थिक विकास में जिस तरह से पर्यावरणिय मंजूरी को एक रोड़े की तरह इंगित किया है, वो नौकरशाही सहित पूरी व्यवस्था को यह संकेत देने के लिए काफी है कि ऐसी मंजूरियों में किसी भी तरह की देरी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। इस और खुले रूप में समझने की कोशिश करें तो सरकार पूंजीपतियों और उद्योगपतियों के दबाव में पर्यावरणीय मंजूरियों को खत्म नहीं तो कम से कम निष्क्रिय कर देना चाहती है। कई सारी निजी परियोजनाएं पर्यावरणीय मंजूरी नहीं मिलने के चलते रूकी हुई हैं। आंकड़ों पर नजर डाले तो मार्च में राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयंति नटराजन ने बताया था कि विभिन्न परियोजनाओं से जुड़े 832 प्रस्ताव पर्यावरणीय मंजूरी के लिए लंबित हैं। उद्योगपतियों के दबाव में जब वित्त मंत्रालय ने इस तरह की मंजूरियों में विलंब को खत्म करने के लिए राष्ट्रीय निवेश बोर्ड का गठन का प्रस्ताव लाया। इस बोर्ड के जरिये हजार करोड़ रुपये की परियोजनाओं की मंजूरी अविलंब करने की कोशिश की जाएगी। हालांकि पर्यावरण मंत्री जयंति नटराजन ने पहले ही प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर इस बोर्ड के गठन पर कड़ी आपत्ति जाहिर की दी है। जयंति नटराजन ने किसी भी परियोजना की मंजूरी में पर्यावरणीय मापदंडों को अड़ंगे को तौर पर देखने के नजरिये की तीखी आलोचना की थी। इसके लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट और अन्य कानूनों का हवाला दिया था। लेकिन राष्ट्रीय निवेश बोर्ड के गठन के पीछ वित्त मंत्रालय की बजाय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का हाथ था और उन्हीं के इच्छा के अनुरूप यह सारी कवादय की गई। सिर्फ पैसे और निवेश के सपने देखने वाले प्रधानमंत्री ने अपने इस नजरिये से पूरी व्यवस्था को यह संदेश दे दिया है कि जहां पैसों की बात हो वहां पर्यावरण मंजूरी को ज्यादा तवज्जों देने की बात सोचना भी हराम है।  
तेज आर्थिक विकास के नाम पर सरकार न केवल पर्यावरण को नजरअंदाज करने पर उतारू है बल्कि धीरे-धीरे जमीन अधिग्रहण सहित ऐसे अन्य ‘अंड़गों’ को भी खत्म करने की कोशिश करेगी। गौरतलब है कि कई सारी निजी परियोजनाएं जमीनों के अधिग्रहण के चक्कर में भी रूकी हुई हैं। पर्यावरणीय मंजूरी का सीधा रिश्ता जंगल की जमीनों को निजी हाथों में सौंप देने से है। जिसका की न केवल पर्यावरणविद विरोध कर रहे हैं बल्कि जगह-जगह पर आदिवासी और स्थानीय लोग भी ऐसे भूमि अधिग्रहणों के खिलाफ लड़ रहे हैं। लेकिन सरकार अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर चुकी है। वह साफ कर चुकी है कि वह पूंजीपतियों की राह में किसी भी तरह की रुकावट बर्दाश्त नहीं करेगी। सरकार को आम लोगों की चिंती नहीं है ना ही चुने हुए जनप्रतिनिधियों की ही फिक्र है। हमने देखा कि कैसे गैस के मनमाने दोहन और मूल्य तय करने के मामले में रिलायंस की राह में रोड़ा बन रहे मंत्री जयपाल रेड्डी से उनका मंत्रालय ही छीन लिया गया। इसे मामूली फेरबदल के नजरिये से नहीं देखा जा सकता। यह सरकार की प्राथमिकताओं के द्योतक हैं। 

छापने या छिपाने का खेलः नैतिकता का सवाल नहीं


विजय प्रताप

जिंदल ग्रुप की ओर से किए गए एक स्टिंग ऑपरेशन में जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी और जी बिजनेस के संपादक समीर आहलूवालिया ने अपनी सफाई में कहा था कि विज्ञापन बटोरने के लिए सभी प्रयास करते हैं और ये कहीं से गलत नहीं है। हालांकि इस पूरे प्रकरण ने भारतीय मीडिया के चेहरे से एकबरगी नकाब उतार दिया। कई सारे वरिष्ठ मीडियाकर्मी और पत्रकारों के इस प्रकरण पर बयान आए जिसमें उन्होंने इसे शर्मनाक बताया। इससे पहले नीरा राडिया के टेपों में भी कुछ पत्रकारों की उद्योगपतियों और नेताओं से सांठ-गांठ की असलियत को सामने लाया था। यह बड़े फलक पर होने वाली बड़ी घटनाएं हैं जो कभी-कभी सामने आती हैं। जो लोग छोटे शहरों और कस्बों में रहते हैं, वो पत्रकारों की इस स्थिति से बखूबी वाकिफ होते हैं। ऐसी जगहों का ये आम अनुभव होता है कि पत्रकार घूसखोर होते हैं, और पैसे लेकर खबरें छिपाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि जी न्यूज के संपादक छिपे कैमरों में बड़े स्तर पर जिंदल ग्रुप से कोयला घोटाले से जुड़ी खबरे नहीं छापने के लिए सौदेबाजी करते देखे गए। वह कह सकते हैं कि वे जिंदल ग्रुप से 100 करोड़ का विज्ञापन मांग रहे थे। ठीक ऐसे ही निचले स्तर पर भी पत्रकार विज्ञापन लेने के लिए ढेर सारी ऐसी खबरें छिपाते हैं। कई बार यह सौदेबाजी किसी खास खबर को नहीं छापने की बजाय खबर बन सकने वाले व्यक्ति से इस आधार पर भी होती है कि पत्रकार उसकी सभी काली करतूतों से मुंह मोड़े रहेगा और कभी उसकी कोई खबर नहीं आने देगा। मीडिया के निरंतर बढ़ते बाजार ने इन करतूतों की संख्या में ना केवल बढ़ोतरी की है बल्कि इन के खुलकर सामने आने की घटनाएं भी बढ़ी हैं।  
सर्वे के अनुभवः भ्रष्टाचार छुपाने का खेल
मीडिया स्टडीज ग्रुप ने अखबारों के स्थानीय स्तर के संस्करणों के विज्ञापनों का एक सर्वे किया यह देखने की कोशिश की कि स्थानीय स्तर पर अखबारों को कौन से लोग ज्यादा विज्ञापन देते हैं। यह आम अनुभव है कि त्यौहारों और राष्ट्रीय पर्वों पर अखबार विज्ञापनों से अटे रहते हैं। किसी त्यौहार या राष्ट्रीय पर्व के दिन का अखबार उठाकर यह साफ-साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थानीय अखबारों को कैसे-कैसे लोग विज्ञापन देते हैं और उनके विज्ञापन देने के क्या लाभ हो सकते हैं। ‘‘मीडिया की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा विज्ञापनों से आता है, ऐसे में कई बार अखबार विज्ञापनदाताओं को उपकृत करने के लिए उनका हुकुम भी बजाते हैं, खासतौर पर बड़े और बहुराष्ट्रीय विज्ञापनदाओं के। ऐसी खबरें और लेख जो विज्ञापनदाताओं के लिए उपयुक्त होती हैं उन्हें प्रमुखता दी जाती है और जो उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं उन्हें हटा दिया जाता है।’’ प्रेस काउंसिल ने यह बातें बड़े और बहुराष्ट्रीय विज्ञापनदाताओं के संबंध में कही थी। तब से लेकर अब तक प्रिंट मीडिया का प्रसार और सघन हुआ है। केवल अखबारों की संख्या ही नहीं बढ़ी है, बल्कि संस्करणों की संख्या में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। आज अखबारों के जिले स्तर से लेकर ग्रामीण स्तर पर अखबारों के संस्करण छप रहे हैं। एक ही जिले में एक अखबार के कई संस्करण पहुंच रहे हैं। मसलन राजस्थान पत्रिका का कोटा से प्रकाशित होने वाला अखबार शहर के लिए अलग छपता है और ग्रामीण क्षेत्र के लिए अलग छपता है या इलाहाबाद से दैनिक जागरण का संस्करण शहर के अलावा आस-पास के क्षेत्रों के लिए और कई संस्करण छापता है, जैसे कि गंगा पारऔर यमुना पार
अखबारों के संस्करणों में इस तरह से इजाफे का अपना एक आर्थिक और सामाजिक आधार है जो इन संस्करणों को जीवित रखे हुए है। बड़े स्तर पर अखबारों की आर्थिक जरूरत विज्ञापनों से पूरी होती है। लेकिन क्या प्रेस काउंसिल के रिपोर्ट की उक्त बातें छोटे और निचले स्तर पर भी लागू होती हैं? निचले या जिला स्तर पर अखबारों की जरूरत को कौन पूरा करता है? बड़े और कॉरपोरेट विज्ञापनदाता स्थानीय स्तर को ध्यान में रखते हुए विज्ञापन नहीं देते हैं। जिले स्तर पर अखबारों को स्थानीय लोगों में से विज्ञापन जुटाने होते हैं और अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करते हुए कंपनी को फायदा भी देना होता है। ऐसे में स्थानीय स्तर पर के विज्ञापनदाताओं और अखबारों के बीच अंतर्संबंध के बारे में यह बात भी लागू होती है कि अखबार उनकी इच्छा के अनुसार खबरें छापते या छुपाते हैं।मीडिया स्टडीज ग्रुप एक सर्वे में यह देखने को मिला की अखबारों के स्थानीय संस्करणों को विज्ञापन देने वाले लोगों में ज्यादातर ग्राम प्रधान, राशन डीलर, सरकारी अधिकारी और स्थानीय व्यापारी जिसमें बिल्डर और प्रोपर्टी डीलर भी शामिल हैं प्रमुखतौर पर शामिल होते हैं। सर्वे में बहु संस्करणों वाले प्रमुख दैनिक अखबारों को लिया गया है। ये अखबार भारत के अलग-अलग हिस्सों से अपना कई संस्करण निकालते हैं। जैसे दैनिक भास्कर 13 राज्यों से घोषित तौर पर 65 संस्करण निकाला है। सर्वे के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़, असम और गुजरात से छपने वाले हिंदी भाषा के दैनिक भास्कर’, ‘दैनिक जागरण’, ‘अमर उजाला’, ‘हिंदुस्तान’, ‘जन संदेश टाइम्स’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘पत्रिका’ ‘दैनिक कश्मीर टाइम्सऔर पंजाब केसरी’, पंजाबी भाषा का अजीत’, ‘पंजाबी ट्रिब्यून’, ‘पंजाबी जागरण’, गुजराती के अखबार दिव्य भास्करको शामिल किया गया।
इस सर्वे में जो खास बात देखने को मिली की स्थानीय स्तर के वो सभी संस्थाएं या लोग जो भ्रष्टाचार में लिप्त रहते/रहती हैं या हो सकती हैं वो अखबारों की प्रमुख विज्ञापनदाता हैं। मसलन सर्वे में यह देखा गया कि एक व्यक्ति के तौर पर सबसे ज्यादा ग्राम प्रधानों ने विज्ञापन जारी किए। इसी तरह सरकारी राशन डीलर, सरकारी अधिकारी जिसमें की थाना प्रभारी से लेकर जिला कलक्टर, तहसीलदार, वन विभाग, शिक्षा विभाग, आपूर्ति विभाग के अधिकारी-कर्मचारी भी विज्ञापनदाताओं में प्रमुख हैं। मजेदार बात ये कि इन अधिकारियों ने ये विज्ञापन सरकारी तौर पर नहीं दिया बल्कि व्यक्तिगत तौर पर दिया। इनके विज्ञापन देने के क्या लाभ हो सकते हैं।
सर्वे में शामिल विज्ञापनदाता का हिसाब
क्रम
विज्ञापनदाता
विज्ञापनों की संख्या
औसत हिस्सेदारी (%)
1
अलग-अलग पेशे वाले विज्ञापनदाता
860
46.09
2
चुने हुए जनप्रतिनिधि
593
31.78
3
सरकारी अधिकारी
200
10.72
4
सरकारी विभाग
121
6.48
5
संघ/संगठन
92
4.93

योग
1866
100

सर्वाधिक विज्ञापन देने वाले विज्ञापनदाता
क्रम
विज्ञापनदाता
विज्ञापनों की कुल संख्या
विज्ञापनों में हिस्सेदारी (%)
1
ग्राम/सरपंच/पंच
536
28.72
2
स्थानीय सरकारी अधिकारी
200
10.78
3
स्थानीय नेता
191
10.23
4
निजी शिक्षण संस्थान
141
7.56
5
दुकान/प्रतिष्ठान
121
6.48

योग  
1189
63.77

सर्वे में यह भी पाया गया कि आमतौर पर इन विज्ञापनों में कोई ऐसी बात नहीं कही गई होती है जिससे इस विज्ञापन के उद्देश्य साफ हो सके। विज्ञापन के एक जो सबसे अहम गुण होता है, वो उसके बदले विज्ञापनदाता को मिलने वाला लाभ है। तभी एक विज्ञापन को विज्ञापन कहा जा सकता है, या वो इसके मानदंडों पर खरा उतरता है। लेकिन 15 अगस्त या स्वतंत्रता दिवस को स्थानीय संस्करणों में छपने वाले शुभकामना संदेश के विज्ञापनों में कोई भी संदेश साफ-साफ उभरकर सामने नहीं आता है। एक ग्राम प्रधान या राशन डीलर या थाना प्रभारी का जनता को शुभकामना देने विज्ञापन का सहारा लेना समझ से परे है। साफ साफ कहा जाए एक ग्राम प्रधान या थाना प्रभारी की ऐसी हैसियत नहीं होती कि वो अखबारों को विज्ञापन दे। लेकिन सबसे ज्यादा विज्ञापन देने वालो में ऐसे लोगों का शुमार होना ही यह बताता है कि इनका अखबार से अघोषित सांठ-गांठ है जिसके बदले यह उन्हें विज्ञापन के जरिये धन उपलब्ध कराते हैं, और बदले में अखबार से राहत पाने की उम्मीद करते होंगे। एक अखबार ऐसे लोगों को यही राहत दे सकता है कि ग्राम स्तर और स्थानीय स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार या इनके द्वारा किये जाने वाले भ्रष्टाचार को छिपाकर रखे।
इलाज क्या है?
खबर छापने या छिपाने के बदले में धन उगाही की सारी घटनाएं और बहसे अंततः नैतिकता के सवाल में जाकर उलझ जाती हैं। ऐसी घटनाओं पर बहस करते हुए इसे केवल कुछ पत्रकारों की करतूत मानकर बात की जाती है। इसके मूल कारणों को हमेशा ही छोड़ दिया जाता है या वो बहस के क्रम में उभर ही नहीं पाता है। जिंदल और जी न्यूज के बीच विवाद में भी पत्रकारों मुख्य किरदार के तौर पर उभर रहे हैं लेकिन वो नीति नहीं सामने आ पा रही है जिसकी वजह से पत्रकारों को उगाही का सहारा लेना पड़ता है। दरअसल ऐसे सवालों को नैतिकता के जरिये नहीं हल किया जा सकता। जिस तेजी से निचले स्तर तक मीडिया का प्रसार हो रहा है उसके पीछे का मकसद केवल धन उगाही करना ही है। अब चाहे वो विज्ञापन से हो या मीडिया संस्थान की कोई और नीति हो। जिला स्तर के संस्करणों तक को हर साल लाखों रुपये विज्ञापन जुटाने के लक्ष्य (टारगेट) दे दिए जाते हैं। बिहार के खगड़िया जिले में मेरे एक मित्र एक राष्ट्रीय दैनिक अखबार के ब्यूरो प्रमुख हैं। वो अखबार के नियमित कर्मचारी भी नहीं हैं। उन्हें हर साल 5-10 लाख रुपये सालाना विज्ञापन जुटाने की भी जिम्मेदारी निभानी होती है। विज्ञापन के बदले 15 प्रतिशत कमीशन दिया जाता है और उनसे उम्मीद की जाती है कि वो ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन बटोरे। उन्हें दस हजार रुपये महीने तनख्वाह मिलती है, बाकी विज्ञापन पर कमीशन। अब ऐसे में वही खबर भी जुटाते हैं और वही विज्ञापन भी जुटाते हैं। जाहिर सी बात है कि जिले स्तर पर ना तो इतने उद्योग होते हैं ना ही ऐसी बड़ी संस्थाएं होती हैं जो अखबारों को आसानी से विज्ञापन दे सकें, ऐसे में अखबारों को स्थानीय स्तर पर गलत-सही तरीकों से कमाई करने वालों के ही आगे-पीछे विज्ञापन के लिए घूमना पड़ता है। ऐसी घटनाएं हर मीडिया संस्थान में आम हैं, लेकिन कभी-कभार जब वो खुलकर सामने आ जाती हैं तो सब उससे तौबा करने लगते हैं और खुद को उससे अलग कर लेते हैं। ऐसे में केवल पत्रकार को कटघरे में किया जाने लगता है, जबकि वो इन सारी घटनाओं के पीछे केवल एक टूल की तरह होता है। ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन लाने के लिए मजबूर करने वाले संस्थान कभी-कभार ऐसे पत्रकारों को निकाल कर हमेशा खुद को पाक साफ रखते हैं। जबकि ऐसी घटनाओं या मीडिया के इस पतन के मूल में मीडिया संस्थानों की ऐसी नीतियां होती हैं। उन्हें बदलने की ना तो बात की जाती है, ना ही उन्हें बहस के केंद्र में रखा जाता है। कभी सीधे एक मीडिया संस्थान को ऐसी गतिविधियों के लिए कटघरे में खड़ा नहीं किया जाता, जबकि उसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।

संप्रतिः लेखक शोध पत्रिका जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं।

ये जो नया बिहार है...

विजय प्रताप
ये जो बिहार है, आज से दो दशक पहले वाला बिहार नहीं है। बिहार बदल रहा है। केंद्रीय सांख्यिकी विभाग ने कह दिया है कि बिहार सबसे तेज 13-1 फीसद की गति से विकास कर रहा है। लेकिन केवल विकास के पैमानों पर नहीं बल्कि सामाजिक स्तर पर भी बिहार नई करवट ले रहा है। विकास के आंकड़ों से अलग बिहार में सामाजिक स्तर पर चल रहे बदलावों को जनना-समझना ज्यादा जरूरी है।
हिंदू धर्म में प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में कुंभ स्नान की मान्यता है। लेकिन पिछले दिनों बिहार के बेगुसराय जिले में गंगा के तट पर सिमरिया कुंभ की शुरुआत हुई। इस तरह के कुंभ की परंपरा बिहार में कभी नहीं रही है। यहां के लोग अमूमन कुंभ स्नान के लिए प्रयाग या हरिद्वार जाते रहे हैं। ठीक इसी तरह की कोशिश भाजपा शासित मध्य प्रदेश में भी देखने को मिलती है जहां मंडला में पहली बार कुंभ का आयोजन किया गया। आदिवासियों के हिंदू धर्म में धर्मांतरण की कोशिश के लिए संघ द्वारा आयोजित मंडला कुंभ को राज्य की भाजपा सरकार ने प्रायोजित किया। बदलाव की एक दूसरी घटना भाजपा नेता और राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी द्वारा पटना में गंगातट पर पहली बार गंगा आरती के रूप में घटित हुई। गंगा आरती पहले काशी और हरिद्वार में होती रही है। लेकिन पटना में बकायदे राज्य के पयर्टन विभाग ने इस कार्यक्रम को प्रायोजित किया। अभी हाल ही में राज्य सरकार ने कम्बोडिया में हिंदू के सबसे विशाल मंदिर की तरह का एक नया मंदिर बनाने का फैसला किया है। इसके लिए सैकड़ों एकड़ जमीन अधिग्रहित की गई है। आर्थिक विकास से अलग ये घटनाएं कुछ नए तरह के सामाजिक बदलावों की ओर इशारा करती हैं। विकास की आड़ में इन घटनाओं को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है। जबकि ये घटनाएं बिहार में संघ और हिंदुत्ववादी ताकतों की समाज के निचले स्तर पर घुसपैठ की कोशिशों की तरफ इशारा करती हैं।
पिछले विधानसभा चुनावों में बिहार में नीतिश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड से कहीं ज्यादा फायदा उसकी सहयोगी भाजपा को मिला। भाजपा ने न केवल अपनी सीटें बढ़ाई बल्कि वोटों के प्रतिशत में भी इजाफा किया। नतीजा बिहार में इस नए तरह के बदलाव के रूप में देखा जा सकता है। एक दशक पहले तक उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी भाजपा हाशिये पर चली गई थी। राट्रीय स्वंय सेवक संघ का नामो निशान खत्म हो रहा था। बिहार प्रगतिशील और आंदोलनकारी शक्तियों की जन्मस्थली बन गया था। लेकिन नीतिश के रूप में वहां की सामंतवादी और सांप्रदायिक ताकतें फिर एक बार उत्साह के साथ बिहार में पैर पसार रही हैं। नीतिश कुमार इन ताकतों को सह दे रहे हैं और मीडिया को खरीद कर विकास के नाम पर इसको ढकने की भी कोशिश में भी जुटे हैं।
जिस बरमेसर मुखिया की हत्या पर इतना बवाल मचा हुआ है, दरअसल उसे जेल से बाहर निकालने में नीतिश की मौन सहमति थी। नीतिश कुमार ने अपनी सरकार बनते ही बथानी टोला और रणवीर सेना के राजनीतिक गठजोड़ की जांच के लिए गठित अमीर दास आयोग को भंग कर दिया। दरअसल रणवीर सेना को राजनीतिक और आर्थिक संरक्षण देने वाली बिहार की कई राजनीतिक पार्टियों के नेता इस जांच के दायरे में आ रहे थे। इसमें बिहार के मौजूदा उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी, भाजपा नेता सीपी ठाकुर, जयदू प्रवक्ता शिवानंद तिवारी सहित 42 नेताओं के नाम शामिल थे, जो बरमेसर और उसकी निजी सेना को मदद पहुंचाते रहे हैं। अब हाईकोर्ट की मदद से भी बथानी टोला के हत्यारों को बचाने की कवायद जारी है। बथानी टोला नरसंहार मामले में आरोपी बरमेसर मुखिया को भोजपुर की पुलिस ने कोर्ट में फरार बताया जबकि वह उस समय आरा की जेल में बंद था। ऐसे ही बथानी टोला के मामले में पटना हाईकोर्ट ने जिस तरह का फैसला सुनाया है वो अपने आप में अप्रत्याशित है। जस्टिस नवनीत प्रसाद और जस्टिस अश्विनी कुमार सिंह की कोर्ट ने फैसले में कहा कि हत्या के दौरान बच गए लोग गवाह हो ही नहीं सकते। मतलब की चमदीद गवाह मरने वाला ही हो सकता है।
नए और बदलते बिहार में एक बार फिर से न केवल दलितों-पिछड़ों को हाशिये पर डालने की कोिाश की जा रही है बल्कि सांप्रदायिक आधार पर भी बंटवारें की कोशिशों जारी हैं। फारबिसगंज में जमीन के सवाल पर मासूम बच्चों सहित मुस्लिमों पर गोली चलाने की घटना को एक साल बीत गए हैं लेकिन इस मामले में अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई। सरकारी अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने वाली ताकतों को पुलिस और लाठी के बल पर दबा दिया जा रहा है। नीतिश के इस नए बिहार में विकास के नाम पर जमीनों को मनमाने तरीके से निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। उस पर सवाल उठाने वाले को विकास विरोधी करार कर किनारे लगा दिया जा रहा है।
दरअसल, मौजूदा पूंजीवादी विकास के यह दौर अपने साथ न केवल असमानता लिए हुए है, बल्कि भारत जैसे बहुविविधता वाले राज्य में यह स्थानीय भेदभाव और बंटवारे के तरीको को भी तेजी से उभार रहा है। मसलन केंद्रीय सांख्यिकी आयोग ने एक बार फिर से बिहार को विकास के मामले में अव्वल करार दिया है, लेकिन दूसरी तरफ बिहार का सामाजिक परिस्थितियां किस तरह से किस करवट बदल रही हैं इसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जा रहा है। यह ठीक उसी तरह है जैसे की नरसंहारों के बाद बहुमत से जीत कर आए नरेंद्र मोदी ने गुजरात में विकास का रास्ता चुना था। समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में बांटा जा रहा है। लेकिन विकास के आंकड़ों में सामाजिक रूप से बिखरते ये राज्य सबसे उपर पहुंच जा रहे हैं।