ये बरगद जैसे खड़ा है
इन पत्थरों के सीने पर
कभी हम भी होंगे इसकी जगह
और इन पत्थरों की जगह होगी
यह व्यवस्था !
अगर कविता शायद ऐसी ही होती है तो, ये मेरी पहली कविता है। पत्थरों के सीने को चीर कर बहती चम्बल नदी और उसके किनारे पत्थरों के सीने पर उगे उस बरगद के पेड़ को देख आज कुछ ऐसा ही महसूस हुआ। इसे देख कर एक बात समझ में आई की कुछ भी नामुमकिन नहीं, इस व्यवस्था को बदला भी नामुमकिन नहीं. बस जरूरत है तो इस चम्बल नदी और उस बरगद से जज्बे की.
4 comments:
ऐसा ही हो...
मेरी शुभकमना
जरुर होगा ,क्यों कि हमे जिन्दा बने रहने का पूरा-पूरा हक है।
chambal nadi aur bargad ke jaise tumhare zasbe ko barkarar rakhne mein hum tumhare saath rahenge saathi.........
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