ग़ज़ा में युद्ध अपराध हुए: एमनेस्टी


अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा है कि इसराइल ने अपने ग़ज़ा अभियान के दौरान युद्ध अपराध किए.
ये अभियान 27 दिसंबर 2008 से लेकर 17 जनवरी 2009 तक चला था. इसमें लगभग 1400 फ़लस्तीनी और 13 इसराइली मारे गए थे.

रिपोर्ट में सैन्य अभियान के तीसरे हफ़्ते के बारे में संस्था ने कहा है कि अपनी तीव्रता में इसराइल के हमले अभूतपूर्व थे.

ये भी कहा गया है कि हमले के दौरान तोपों-टैंकों से घनी आबादी वाले इलाक़ों में जो गोलाबारी हुई वह सटीक नहीं थी.

उधर इसराइल ने ज़ोर देकर कहा है कि उसने केवल उन्हीं इलाक़ो को निशाना बनाया जहाँ चरमपंथी सक्रिय थे. उसका ये भी कहना है कि उसने अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन नहीं किया है.

रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि फ़लस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास भी युद्ध अपराध करने का दौषी है क्योंकि उसने दक्षिणी इसराइल के रिहायशी इलाक़ों में रॉकेट दागे और गोलीबारी की थी.

'मानव ढाल नहीं बनाया'
आजकल संयुक्त राष्ट्र की एक मानवाधिकार टीम ग़ज़ा में मानवाधिकारों के हनन और अंतरराष्ट्रीय क़ानून के उल्लंघन के आरोपों की जाँच करते हुए वहाँ सार्वजनिक तौर पर लोगों की शिकायतें सुन रही है.

एमनेस्टी के अनुसार 27 दिसंबर 2008 और 17 जनवरी 2009 के बीच 1400 फ़लस्तीनी मारे गए, जो फ़लस्तीनी आंकड़ों से भी मेल खाता है.

इन 1400 मृतक फ़लस्तीनियों में 300 बच्चों और 115 महिलाओं समेत 900 आम नागरिक थे.

इस साल मार्च में इसराइली सेना ने कहा था कि कुल 1166 फ़लस्तीनी मारे गए जिनमें से 295 आम नागरिक थे जिनका इस लड़ाई से कोई संबंध नहीं था.

एमनेस्टी की रिपोर्ट में कहा गया है कि कई सवालों के जवाब नहीं मिले हैं, जैसे कि छतों पर खेल रहे बच्चों और चिकित्सा कार्यों में जुटे मेडिकल कर्मचारियों को सटीक तरीके से लक्ष्य तक पहुँचने वाली मिसाइलों का निशाना क्यों बनाया गया.

एमनेस्टी की रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिले है कि फ़लस्तीनियों ने आम नागरिकों को मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल किया.

'ग़ज़ा के लोगों की निराश ज़िंदगी'


अंतरराष्ट्रीय रेड क्रॉस समिति ने ग़ज़ा में रह रहे लगभग पाँच लाख फ़लस्तीनियों को 'निराशा में फँसे' हुए लोग बताया है.
मंगलवार को जारी हो रही रेड क्रॉस की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इसकी सबसे बड़ी वजह इसराइली घेराबंदी है.

ये रिपोर्ट ग़ज़ा में इसराइली सैनिक कार्रवाई के छह महीने बाद आई है. उस कार्रवाई में लगभग 1100 फ़लस्तीनियों की मौत हो गई थी.

उस हमले को लेकर इसराइल का कहना था कि उसका उद्देश्य दक्षिणी इसराइल पर फ़लस्तीनी चरमपंथियों के रॉकेट हमले रोकना था.

रेड क्रॉस के मुताबिक़ ग़ज़ा के लोग उस हमले की वजह से बिखरी ज़िंदगी को समेट नहीं पा रहे हैं और लगातार निराशा में घिरते जा रहे हैं.

इसराइली हमलों में जो क्षेत्र नष्ट हुए हैं उनके पुनर्निर्माण के लिए सीमेंट या स्टील उपलब्ध ही नहीं है.
गंभीर रूप से बीमार मरीज़ों को ज़रूरी इलाज मुहैया नहीं हो पा रहा है.

पानी की आपूर्ति कभी रहती है कभी नहीं, साफ़-सफ़ाई की व्यवस्था तो लगभग ध्वस्त होने के कगार पर है.

रेड क्रॉस ने वहाँ ग़रीबी के स्तर को 'काफ़ी गंभीर' बताया है. वहाँ बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.

रेड क्रॉस के अनुसार ये सब ग़ज़ा की इसराइली घेराबंदी से जुड़े हुए मसले हैं.

ग़ज़ा पर दो साल पहले हमास ने नियंत्रण कर लिया था और उसके बाद से ही इसराइल ने उस इलाक़े की घेराबंदी कर रखी है.

इस रिपोर्ट के बाद इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यमिन नेतन्याहू के प्रवक्ता ने बीबीसी से कहा कि ग़ज़ा में आम लोग जिन मुश्किलों का सामना कर रहे हैं उसके लिए मुख्य रूप से हमास ज़िम्मेदार है.

साथ ही उनके मुताबिक़ ये बात विश्वास के लायक़ नहीं है कि अगर उस इलाक़े के लोगों को निर्माण कार्य के लिए चीज़ें दी जाएँगी तो वो सैनिक मशीनें बनाने के लिए हमास के पास नहीं पहुँच जाएँगी.


साभार

भविष्य के पत्रकारों का सामान्य (अ)ज्ञान

आनंद प्रधान

क्या आपको मालूम है कि बांग्लादेश की सम्मानित प्रधानमंत्री शेख हसीना का
अंडरवर्ल्ड से ताल्लुक है। वे अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहीम की छोटी बहन हैं ? या
ये कि वे पाकिस्तान की बड़ी नेता हैं और अपने नाम के मुताबिक वाकई हसीन हैं? या फिर यह कि वे विश्व सुंदरी हैं। और यह भी कि वे श्रीलंका की राष्ट्रपति हैं?
..... आपका सर चकरा दनेवाली ये जानकारियां किसी बेहूदा मजाक या चुटकुले का हिस्सा नहीं हैं। ये वे कुछ उत्तर है जो देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया प्रशिक्षण संस्थान में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में पी जी डिप्लोमा की प्रवेश परीक्षा में शेख हसीना और उन जैसी ही कई और चर्चित हस्तियों के बारे में दो-तीन वाक्यों में लिखने के जवाब में आए।
लेकिन यह तो सिर्फ एक छोटा सा नमूना भर है। ऐसा जवाब देनवाले प्रवेशार्थियों की संख्या काफी थी जिन्हें महिंदा राजपक्से, रामबरन यादव, अरविंद अडिगा,हैरोल्ड पिंटर आदि के बारे में पता नहीं था। सबसे अधिक अफसोस और चिंता की बात यह थी कि इन छात्रों को जो पत्रकार बनना चाहते हैं, प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस जी एन रे और दक्षिण एशियाई पत्रकारों के संगठन साफमा के बारे में कुछ भी पता नहीं था। ऐसे छात्रों की संख्या उंगलियों पर गिनी जाने भर थी जिन्होने जस्टिस जी एन रे और साफमा के बारे में सही उत्तर दिया। हिंदी पत्रकारिता में प्रवेश के इच्छुक अधिकांश छात्रों ने लगता है कि नई दुनिया के संपादक और जाने-माने पत्रकार आलोक मेहता का नाम कभी नहीं सुना था।
नतीजा यह कि प्रवेशार्थियों ने अपने काल्पनिक और सृजनात्मक ष्सामान्य (अ) ज्ञानष् से इन प्रश्नों के ऐसे-ऐसे उत्तर दिए हैं कि उन्हें पढ़कर हंसी से अधिक पीड़ा और चिंता होती है। हैरत होती है कि इन छात्रों ने ग्रेजुएशन की परीक्षा कैसे पास की होगी? यह सचमुच अत्यधिक चिंता की बात है कि पत्रकारिता की प्रवेश परीक्षा में बैठनेवाले छात्रों का न सिर्फ सामान्य ज्ञान बहुत कमजोर है बल्कि उनकी भाषा और अभिव्यक्ति क्षमता का हाल तो और भी दयनीय है। वर्तनी, लिंग और वाक्य संरचना संबंधी अशुद्धियों के बारे में तो कहना ही क्या? इन छात्रों की भाषा पर पकड़ इतनी कमजोर है कि वे अपने विचारों को भी सही तरह से प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं।
यह ठीक है कि इनमें से बहुतेरे छात्रों की भाषा, अभिव्यक्ति क्षमता, तर्कशक्ति और सामान्य ज्ञान का स्तर बाकी की तुलना में बहुत बेहतर और संतोषजनक था। इससे संभव है कि संस्थान को छान और छांटकर जरूरी छात्र मिल जाएं लेकिन बाकी छात्र कहां जाएंगे ? जाहिर है कि बचे हुए छात्रों की बड़ी संख्या दूसरे विश्वविद्यालयों और निजी पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों में दाखिला पा जाएगी। उनमें से काफी बड़ी संख्या में छात्र डिग्रियां लेकर पत्रकार बनने के पात्र भी बान जाएंगे। संभव है कि पत्रकारिता पाठ्क्रम में प्रशिक्षण के दौरान उनमें संधार हो लेकिन आज अधिकांष विश्वविद्यालयों और निजी संस्थानों में प्रशिक्षण और अध्यापन का जो हाल है, उसे देखकर बहुत उम्मीद नहीं जगती है।
निश्चय ही, समाचार माध्यमों के लिए अच्छी खबर नहीं है। अधिकांश समाचार माध्यमों और मीडिया उद्योग के लिए यह चिंता की बात है। वे पहले से ही प्रतिभाशाली मीडियाकर्मियों की कमी से जूझ रहे हैं। इसके कारण समाचार मीडिया उद्योग का न सिर्फ विस्तार और विकास प्रभावित हो रहा है बल्कि उसकी गुणवत्ता पर भी बुरा असर पड़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में समाचार मीडिया उद्योग का जिस तेजी से विस्तार हुआ है, उसके अनुसार उपयुक्त प्रतिभाओं के न मिलने के कारण समाचारपत्रों और चैनलों के बीच वेतनमानों से लेकर सेवा शर्तों तक में बहुत विसंगतियां पैदा हो गयी हैं।
ऐसे में, समाचार मीडिया उद्योग के स्वस्थ विकास के लिए जरूरी है कि बेहतर प्रतिभाएं मीडिया प्रोफेशन में आएं। लेकिन इसके लिए समाचार मीडिया उद्योग के साथ-साथ देश के प्रमुख मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों को मिलकर कोशिश करनी होगी। समाचार मीडिया उद्योग को मीडियाकर्मियों की भर्ती की प्रक्रिया को तार्किक, पारदर्शी, व्यवस्थित और आकर्षक बनाना होगा और दूसरी ओर, प्रशिक्षण संस्थानों को बेहतर छात्रों को आकर्षित करने और उन्हें श्रेष्ठ प्रशिक्षण देने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने के बारे में तुरंत सोचना होगा। यह एक चुनौती है जिसे अब और टालना समाचार मीडिया उद्योग के साथ-साथ पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थानों के लिए बहुत घातक हो सकता है।

फास्ट फूडडिया प्रेम पर एक टिपण्णी

प्रदीप कुमार सिंह
दुनियां जितनी खुल रही है, प्रेम उतना ही संकीर्ण होता जा रही है। पता नहीं कब कौन जला भुना आत्मलीन प्रेमी चेहरे पर तेजाब फेक दे य गोली मार कर हत्या कर दे। धैर्य के अभाव में आज की युवा पीढ़ी वह सब कुछ कर दे रही है,जो वह करना चाहती है। अभी हाल में जो घटना सुनने को मिली उसमें यही कहां जा सकता है कि इस तरह के प्रेम में न तो परिपक्वता होती है और न प्रेम की समझ। ऐसी धटनाओं के अध्ययन से यह बात देखने को मिलती है कि ऐसे युवा अपने भावनाओं को न तो अपनी प्रेमिका के पास तक पहुंचा पाते है और न तो अपने घर परिवार, दोस्तों को ही बताते है। धीरे धीरे वह आत्मलीन हो जाता है। इस किस्म के लोग यह समझने लगते है कि समाज उनके हिसाब से चलना चाहिएं। इसलिए यह विकृति मनोरोग बन जाता है। उनकी दबी हुई भावना अंततः उसे हिंसा की तरफ उन्मुख कर देती है। इस तरह के मामलों में एक समय ऐसा आता है जब प्रेमी एकदम अकेला हो जा ता है। उसके सोचने समझने की क्षमता समाप्त हो जाती है। दूसरा सबसे बड़ा कारण पुरूष वर्चस्व और मानसिकता का है। सदियों से पुरूष महिलाओं को दबा कर रखा है। पुरूषों के अंदर यह भावना है कि वह तो सदियों से महिलाओं को देता आया है। प्रेम जैसी नायाब तोहफा वह अपने प्रेमिका को देना चाहता है, इसकी ये मजाल की लेने से इंकार कर रही है। आज की युवा पीढ़ी प्रेम को फास्ट फूड की तरह चाहती है। हाईप्रोफाइल टीवी धारावाहिकों ने इस प्रवृत्ति को और बढ़ा दिया है। यदि गहराई से देखा जाए तो इसका एक सामाजिक कारण है। समाज और संस्कृति के निर्माण की जो प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है,वह एक स्थान पर आकर रूक गई है। विगत वर्षो में हमारे समाज पर पाश्चात्य संस्कृति का बहुत गहरा प्रभाव पड़ां। आज हमारा समाज न तो पूरी तरह पश्चिमी संस्कृति को अपना पाया है। और न तो अपने पुराने नैतिक मूल्यों पर ही खड़ा है। संयुक्त परिवारों के टूटने और व्यक्ति के अपने काम से ही मतलब रखने से स्थितियां और भयंकर हो गई है। युवा वर्ग का असहिष्णु होना इस बात का द्योतक है कि नई पीढ़ी के निर्माण में आत्मविश्वास और सामुदायिकता का बोध नहीं है। हमारा युवा आत्मकेंद्रित,अक्रामक,धैर्यहीन और असहिष्णु हो गया है। यह सब अधूरे समाजीकरण का नतीजा है। यदि आत्मविश्वास नहीं है तो धैर्य भी नहीं होगा। इसके अभाव में लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में संयम से काम नहीं ले पाते है। जल्दी आपा खो देते है। वह धैर्य ही है जो सभ्य और असभ्य के बीच अंतर को स्पष्ट करता है। युवाओं म ंअहंकार,आत्मकेंद्रीयता और में हूं, मेरा कोई क्या कर लेगा,जैसे भाव अपनी सुदृढ़ जगह बनाते जा रहे है। इसके आलोक में मनुष्य की राक्षसी प्रवृति साधुता पर हावी होती जा रही है। सामाजिक विद्रूपता का एक कारण समाज में बहुत तेजी के साथ नवदौलतियां वर्ग का उभरना भी है। नव धनाड्य वर्ग में अपनी संतान का लालन पालन का तरीका बिल्कुल भिन्न है। उसमें समाज की जगह बहुत सिकुड़ी हुई है । सामाजिक सारोकारों से ऐसी संतानों का वास्ता सीमित है। कानून व्यवस्था के बारे में यही समझ विकसित होती चली जा रही है कि रसूख और पैसे के प्रभाव में कुछ भी किया जा सकता है। अपराधी छूट सकते है और छोटे मोटे अपराध की सजा से निजात पाई जा सकती है। इससे युवा के भीतर न तो कोई सामाजिक भय है और नही अपने दायित्व। तब फिर वह अपने प्रेमिका के शादी से मना कर देने पर तेजाब फेक दे रहा है,या गोली मार देने की घटनाओं को अंजाम देने से नहीं चूक रहा है। ठेठ उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में तो प्रेम करने पर जान से हाथ धेना पड़ता है। खुद परिवार वाले वहशियाने तरीके से इस क्रूरता को अंजाम देते है। वहां प्रेम विवाह करने वाले पति पत्नी को भाई बहन बना दिया जाता है। प्रेम,विवाह, समाज और कानून जब तक अपने संबंधों को की स्पष्ट सीमा रेखा का विभाजन नहीं कर लेते है। तब तक इस समस्या का कोई सार्थक हल नहीं निकल सकता है। भावना का यह रिस्ता कितने लोगों के लिए खेल है। प्यार जैसे नाजुक रिश्तों पर अति आधुनिक आदमी भी दोहरा मानदंड रखता है। जब तक इस पर स्वस्थ बहस और एक मानदंड नहीं तय होगा तब तक ऐसी विकृतिया जन्म लेती रहेगी।

चुनाव आयोग का सावरकरवादी एजेंडा !


धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढे "सर्व धर्म सम्भाव" का दिखावा करने वाले इस देश में अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले दोयम दर्जे के बर्ताव को उजागर करने वाली एक शाहनवाज़ की सनसनीखेज़ रिपोर्ट. रिपोर्ट में हाल में लोकसभा चुनाव से पहले कैसे सोची समझी रणनीत के तहत मुसलमानों के नाम मतदाता सूचियों से काटा गया. सिर्फ आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र में ही लगभग पचहत्तर हजार मुस्लिम मतदाता बनने की शर्तें पूरी होने के बावजूद मताधिकार से वचित हैं। आवामी काउंसिल फाॅर डेमोक्रेसी एण्ड पीस नाम के गैरसरकारी संस्था ने एक सर्वे के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की है - संपादक


शाहनवाज आलम

वैधानिक संस्थाओं में सांप्रदायिकता कितनी गहराई तक जड़ जमा चुकी है और कितने संस्थाबद्ध तरीके से काम करती है, मतदाता सूची और परिसीमन इसके ताजा उदाहरण हैं। जहां देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के एक खासे हिस्से को मतदान के उसके वैधानिक अधिकार से उसे वंचित कर दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। और यह सब हुआ है लोकतांत्रिक प्रणाली को पारदर्शी और चुस्त-दुरुस्त बनाए रखने की जिम्मेदारी उठाने वाले चुनाव आयोग की सरपरस्ती में।
दरअसल मुस्लिमों के एक खासे हिस्से को राजनैतिक तौर पर ‘अनागरिक’ बनाने के इस सांप्रदायिक साजिश का खुलासा तब हुआ जब आवामी काउंसिल फाॅर डेमोक्रेसी एण्ड पीस नाम के गैरसरकारी संस्था ने आजमगढ़ और मऊ जिलों में लगभग डेढ़ लाख मुस्लिमों के नाम मतदाता सूची से बाहर होने के मुद्दे पर इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की। जिस पर मुख्य न्यायाधीश हेमंत गोखले ने चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली पर तल्ख टिप्पणी करते हुए इसे तत्काल सुधारने का निर्देश दिया था। लेकिन बावजूद इसके चुनाव आयोग ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया।
आवामी काउंसिल ने ये याचिका अपने छः महीने के सर्वे के बाद किया था जिसमें उसके कार्यकर्ताओं ने आजमगढ़ और मऊ जिलों के मुस्लिम आबादी के दरवाजे-दरवाजे जाकर मतदाता बनने से वंचित रह गए लोगों की संख्या इकठ्ठी की और उन्हें मतदाता बनने के लिए भरे जाने वाले फार्म 6 को भरवाया था। इस सर्वे के नतीजे चैंकाने वाले तो थे ही, वैधानिक संस्थाओं में किस तरह अल्पसंख्यक विरोधी मानसिकता गहरी पैठ कर चुकी है इसका भी अफसोसनाक खुलासा हुआ। जब पाया गया कि सिर्फ आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र में ही लगभग पचहत्तर हजार मुस्लिम मतदाता बनने की शर्तें पूरी होने के बावजूद मताधिकार से वचित हैं। जो आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र के कुल मुस्लिम मतदाताओं का 44 प्रतिशत है। तो वहीं घोसी लोकसभा क्षेत्र में लगभग अस्सी हजार मुस्लिमों के नाम मतदाता सूची से गायब है। घोसी के मामले में तो पीस पार्टी आॅफ इंडिया (पीपीआई) ने चुनाव आयोग के विरुद्ध उच्च न्यायालय में रिट दायर किया हुआ है।
जब सिर्फ दो लोकसभा क्षेत्रों में ही डेढ़ लाख मुस्लिम मतदाता सूची से बाहर हैं तो फिर पूरे प्रदेश की क्या स्थिति होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। अवामी काउंसिल के महासचिव असद हयात जिन्होंने आजमगढ़ और मऊ की आंख खोल देने वाले आकड़ों के बाद पूरे प्रदेश के एक-एक बूथ के मतदाता सूची के गहन पड़ताल के बाद उच्च न्यालय का दरवाजा खटखटाया है का दावा है कि पूरे प्रदेश में लगभग बावन लाख पच्चीस हजार छः सौ तिरासी मुसलमान मतदाता सूची से बाहर हैं।
दरअसल अल्पसंख्कों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हैसियत का आकलन करने के लिए संप्रग सरकार द्वारा गठित सच्चर कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों खास कर मुसलमानों के नाम मतदाता सूचियों से गायब होने पर चिंता जाहिर करते हुए कहा था ‘ऐसा होने से न केवल मुसलमान राजनैतिक तौर पर कमजोर हो रहे हैं बल्कि सरकारी विकास योजनाओं से भी महरुम हो रहे हैं।’ लेकिन मनमोहन सरकार के लिए सच्चर कमेटी की सिफारिशें कितना महत्व रखतीं हैं यह उसके दो साल बीत जाने के बाद भी ठंडे बस्ते में पड़े रहने से समझा जा सकता है। वैसे भी हमारे यहां ऐसी रिपोर्टो (मंडल कमीशन) को डेढ़-डेढ़ दशक तक सीट के नीचे दबाकर बैठने का चलन है।
उत्तर प्रदेश में 2001 में हुए जनगणना और उसके आधार पर बने मतदाता सूची के मुताबिक प्रदेश में कुल जनसंख्या सोलह करोड़ इकसठ लाख सत्तानबे हजार नौ सौ इक्कीस है जिसमें मुस्लिम तीन करोड़ चैहत्तर लाख एक सौ अट्ठावन है जो कुल जनसंख्या का 18.5 प्रतिशत है। वहीं गैर मुस्लिम आबादी तेरह करोड़ चैव्वन लाख सत्तावन हजार सात सौ तिरसठ है जो कुल जनसंख्या का 81.5 प्रतिशत है। तो वहीं पूरे प्रदेश में 2007 में संपन्न विधान सभा चुनावों में प्रयुक्त मतदाता सूची के मुताबिक कुल मतदाता संख्या ग्यारह करोड़ चैतिस लाख उन्तालिस हजार आठ सौ तिहत्तर है। यानि 2001 के जनगणना की 68.25 प्रतिशत जनता 2007 में मतदाता बन गयी। इसमें मुस्लिम मतदाताओं की संख्या एक करोड़ सत्तावन लाख साठ हजार छः सौ तिरानबे है जो कि कुल मतदाताओं का 13.89 प्रतिशत है। जबकि गैर मुस्लिमों की संख्या नौ करोड़ छिहत्तर लाख उन्यासी हजार एक सौ अस्सी है जो कुल मतदाताओं का 86.10 प्रतिशत है।
यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर जब कुल जनगणना के हिसाब से मुस्लिम आबादी 18.5 प्रतिशत है तो फिर मतदाता सूची में यही आकड़ा घट कर कैसे 13.89 प्रतिशत हो गया। जबकी दोनों को एक समान होना चाहिए। वहीं दूसरी ओर गैर मुस्लिम आबादी अपने जनगणना का 81.5 प्रतिशत है लेकिन मतदाता सूची में यह आंकड़ा बढ़ कर 86.10 प्रतिशत हो गया है। यानि जहां एक ओर गैरमुस्लिम अपनी 2001 की घोषित आबादी के मुकाबले आश्चर्यजनक रुप से 5.05 प्रतिशत (5728713) अधिक मतदाता बन गए। वहीं इसके उलट सैतालिस लाख उन्नीस हजार अटठानवे मुस्लिम नागरिक अपनी आबादी से 4.16 प्रतिशत कम हो कर मतदाता बनने से वंचित रह गए।
मुस्लिमों और गैर मुस्लिमों के मतदाता बनने के इस असमानता को एक दूसरे दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है। 2001 के जनगणना में कुल मुस्लिम आबादी तीन करोड़ चैहत्तर लाख एक सौ अट्ठावन है। जिसमें से सिर्फ 51.27 प्रतिशत यानि एक करोड़ सत्तावन लाख छः हजार तिरानबे लोग ही मतदाता हैं। वहीं गैर मुस्लिमों की कुल आबादी तेरह करोड़ चैव्वन लाख सत्तावन हजार सात सौ तिरसठ में से नौ करोड़ छिहत्तर लाख उन्यासी हजार एक सौ अस्सी लोग मताधिकारी हैं। जो अपनी आबादी का 72.11 प्रतिशत है। इसका मतलब कि मुसलमानों की मतदाता बनने की दर गैर मुसलमानों के मुकाबले 20.84 प्रतिशत कम रही। जबकि इसे भी 72.11 प्रतिशत होनी चाहिए थी क्योंकि मतदाता बनने की दर समान होनी चाहिए। इस प्रकार मुस्लिम मतदाताओं की संख्या दो करोड़ इक्कीस लाख छाछठ हजार दो सौ अठहत्तर होनी चाहिए थी जबकि यह है सिर्फ एक करोड़ सत्तावन लाख छिहत्तर हजार छः सौ तिरानबे। यानि चैसठ लाख छः हजार पैतिस मुसलमान मतदाता बनने से वंचित कर दिए गए हैं।
बहरहाल यह तो चुनाव आयोग के हेरा-फेरी की सिर्फ सतह है जिसके नीचे और भी कई चैंकाने वाले तथ्य दबे हैं। मसलन 1981 के जनगणना के मुताबिक उत्तर प्रदेश में कुल मुस्लिम आबादी एक करोड़ छिहत्तर लाख सत्तावन हजार सात सौ पैंतिस और गैर मुस्लिम आबादी नौ करोड़ बत्तीस लाख चार हजार दो सौ अठहत्तर बतायी गई है। लेकिन 2007 के मतदाता सूची से पता चलता है कि मुस्लिम मतदाताओं की कुल तादात एक करोड़ सत्तावन लाख साठ हजार छः सौ तिरानवे है जो उनकी 1981 की जनसंख्या से भी लगभग बीस लाख कम है। यानि 2007 तक प्रदेश में मुसलमान उतनी संख्या में भी मतदाता नहीं बन पाए जितनी सत्ताइस साल पहले उनकी आबादी थी। जबकि दूसरी ओर गैर मुस्लिम इसी समयावधि में अपने 1981 के जनगणना से 104 प्रतिशत ज्यादा यानि नौ करोड़ छिहत्तर लाख उन्यासी हजार एक सौ अस्सी मतदाता बन गए।
इन हतप्रभ कर देने वाले तथ्यों के आलोक में यह जानना भी दिलचस्प होगा कि आखिर चुनाव आयोग जैसे वैधानिक संस्था के देख-रेख में बनाए जाने वाली मतदाता सूचियों में आखिर ये घोर सांप्रदायिक और राष्ट्र विरोधी कृत्य कैसे अंजाम दिया जाता है। आजमगढ़ के मुबारकपुर कस्बे के पचपन वर्षीय रियाज अहमद जिनका नाम वोटर लिस्ट से गायब है कहते हैं कि सरकारी अधिकारी सघन और गंदी मुस्लिम बस्तियों में जाने से कतराते हैं जिसके पीछे कभी उनकी सांप्रदायिक मानसिकता काम करती है तो कभी लापरवाही और उदासीनता। वहीं मऊ के मुस्लिम मोहल्ले डोमनपुरा की पैतालिस वर्षीय हाजरा बेगम बताती हैं कि मुस्लिम लड़कियों का नाम तो एक सिरे से मतदाता सूची में इस तर्क के आधार पर शामिल ही नहीं किया गया कि शादी के बाद वे अपने पति के घर चली जाएंगी। इस तरह अविवाहित लेकिन बालिग मुस्लिम युवतियां तो एक सिरे से मताधिकार से वंचित हो गई हैं। मुस्लिम महिलाओं में प्रचलित पर्दा प्रथा भी कई बार उनके खिलाफ हथियार के बतौर इस्तेमाल होता है। मऊ के शाही मस्जिद मोहल्ले की रुबीना, यास्मीन बीबी और फातिमा बेगम के मुताबिक उनका नाम इस आधार पर मतदाता सूची में शामिल ही नहीं किया गया कि अधिकारियों ने यह मानने से इनकार कर दिया कि वे अपनी सही पहचान बता रही हैं। तो वहीं एक खासे तबके को लखनऊ, कानपुर और फैजाबाद में बांग्लादेशी होने के संदेह में मतदाता सूची में शामिल नहीं किया गया।
यही स्थिति युवाओं की भी है। जो मताधिकार से वंचित मुस्लिम नागरिकों की कुल संख्या के लगभग पच्चीस प्रतिशत हैं। इनमें से अधिकतर की उम्र 18 से 24 वर्ष के बीच है। जिन्हें बहुत ही हास्यास्पद और कमजोर बहानों से ‘अनागरिक’ बना दिया गया है। मसलन जिन युवाओं के पास स्कूली शिक्षा के अभाव के चलते जन्म तिथि प्रमाण पत्र नहीं है उन्हें यह कहते हुए मतदाता सूची में शामिल नहीं किया गया कि अभी इनकी उम्र मतदाता बनने की नहीं लगती। दूसरी ओर अशिक्षा के चलते एक बड़ा तबका मतदाता बनने के लिए अनिवार्य फार्म-6 को पढ़कर उसमें मांगी गई जानकारी को उल्लिखित कर पाने में असमर्थ होने के चलते मताधिकारी नहीं बन पाते। यहां गौरतलब है कि मुस्लिम आबादी में बावन प्रतिशत लोग निरक्षर हैं। वहीं फार्म-6 के उर्दू में नहीं प्रकाशित होने के चलते सिर्फ उर्दू जानने वाले नागरिक भी मतदाता बनने से वंचित रह जाते हैं।
बहरहाल मतदाता सूची तैयार करने वाले चुनाव आयोग के अधिकारियों का सांप्रदायिक रवैया तो कई बार फूहड़ रुप में सामने आ जाता है। मसलन अभी सम्पन्न हुए लोकसभा चुनावों में जहां जौनपुर में लेखपाल मुस्लिम नागरिकों के सैकड़ो मतदाता फार्म के बंडल जलाते हुए रंगे हाथ पहड़े गए जिसके खिलाफ लोगों ने शिकायत भी दर्ज कराई। तो वहीं आजमगढ़ के बदरका मोहल्ले में मुस्लिम मतदाताओं के फोटो पहचान पत्र कूड़े में फेंके मिले।
बहरहाल मुस्लिमों के साथ हुए इस भेदभाव के लिए चुनाव आयोग तो जिम्मेदार है हि, राजनैतिक दल भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। क्योंकि जनता के बीच जाकर वैध लोगों के नाम मतदाता सूचियों में शामिल कराना चुनाव आयोग के साथ-साथ उनकी भी जिम्मेदारी है। खास कर अपने को मुस्लिम हितैषी बताने वाले राजनैतिक दलों की तो यह प्राथमिकता होनी चाहिए थी। आजमगढ़ के सरायमीर के मसीउद्दीन संजरी कहते हैं ‘मुस्लिम राजनैतिक दल भावनात्मक मुद्दों पर ज्यादा राजनीति करते हैं क्योंकि इससे उन्हें चंदा और कैडर आसानी से मिल जाते हैं। घर-घर जाकर मतदाता बनाने के लिए फार्म भरवाना उनके एजेंडे में नहीं होता क्योंकि इसमें खुद अपना पैसा खर्च करना पड़ेगा।’ मुस्लिम राजनीतिक दलों का यह दिवालियापन इस चुनाव में भी दिखा जब बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ कांड मुद्दे पर गठित उलेमा काउंसिल ने अपने चुनावी अभियान में इस पर एक बार भी नहीं बोला।
मुस्लिम नागरिकों के मतदाता बनाने में चुनाव आयोग के इस सांप्रदायिक और भेदभावपूर्ण रवैये को हम सीटों के परिसीमिन में भी देख सकते हैं। जहां ऐसी कई सीटों को जिस पर मुस्लिमों की तादाद अनुसूचित जाति की आबादी से अधिक होते हुए भी सुरक्षित कर दी गई है। दरअसल सच्चर कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए पेज-225 पर लिखा है- ‘एक अधिक विवेकशील सीमांकन प्रक्रिया अधिक अल्पसंख्यक आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्रों को अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित न कर, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिमों के लिए संसद और विधानसभाओं के लिए चुनाव लड़ने और चुने जाने के अवसर को बढ़ा देगी। समिति इस विषमता को खत्म करने की संस्तुति करती है।’
लेकिन बावजूद आयोग के इस संस्तुति के सरकार ने इसे नजरअंदाज कर दिया जिसके चलते कई ऐसी सीटें जहां मुस्लिम आबादी दलितों से अधिक है, सुरक्षित कर दी गयी हंै। मसलन, बहराइच लोकसभा क्षेत्र में मुसलमानों की तादाद कुल आबादी की चैतिस प्रतिशत है जबकि दलित सिर्फ 18 प्रतिशत हैं। बावजूद इसके इसे सुरक्षित घोषित कर दिया गया है। इसी तरह बिजनौर को तोड़कर बनाई गयी नगीना लोकसभा सीट आरक्षित कर दी गई है जबकि यहां मुस्लिम आबादी 40 फीसद है। इसी तरह बुलंद शहर में मुस्लिम आबादी दलितों से अधिक है लेकिन इसे भी सुरक्षित कर दिया गया है। दरअसल मुस्लिमों के जनप्रतिनिधि बनने के अधिकार के मामले में यह भेद-भाव सिर्फ लोकसभा और विधानसभाओं जैसे ऊपरी स्तर पर ही नहीं है बल्कि ग्रामपंचायत जैसे लोकतंत्र के शुरुआती पायदानों पर भी दिखता है। मसलन आजमगढ़ के फूलपुर ब्लाक का लोहनिया डीह ग्राम सभा सुरक्षित है जबकि यहां सिर्फ दो दलित परिवार ही रहते हैं।
नए परिसीमन में अल्पसंख्यक मतदाताओं के साथ भाषाई स्तर पर भी भेद-भाव साफ देखा जा सकता है। मसलन 1976 के आाधार पर परिसीमित विधानसभा/लोकसभा क्षेत्रों में 134 विधानसभा क्षेत्रों की मतदाता सूचियां उर्दू में प्रकाशित होती थीं जिनमें मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक बताई गई थी। लेकिन नए परिसीमन के बाद सिर्फ 48 विधानसभा क्षेत्रों में ही उर्दू में मतदाता सूची प्रकाशित की जा रही है। यह आश्चर्य का विषय है कि यह संख्या 134 से घटकर 48 कैसे हो गई और किस तरह जहां पहले 134 विधानसभा क्षेत्रों में उर्दू मतदाताओं की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक थी वो अब कैसे घटकर 48 हो गई।
बहरहाल, चुनाव आयोग के खिलाफ रिट दर्ज होने और उस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा सख्त निर्देश के बावजूद आयोग अपनी गड़बड़ियों को सुधारने के लिए तैयार नहीं दिखता। उप मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी पूछने पर यह तो मानते हैं कि मामला बहुत गंभीर है और सर्वे करने वालों ने प्रशंसनीय काम किया है। लेकिन वे 2005 में चुनाव आयोग द्वारा बनाए गए उस नियम का हवाला देते हैं जिसमें उसने राजनैतिक दलों और संस्थाओं से थोक में मतदाता फार्म लेने पर रोक लगा दिया है। श्री कुरैशी कहते हैं कि कई बार राजनैतिक दल थोक में फर्जी मतदाताओं का फार्म अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए दे देते हैं। ऐसे में उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। वहीं दूसरी ओर सुप्रिम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रशांत भूषण निर्वाचन आयोग के इस प्रतिबंध को न केवल मतदाता बनने से वंचित अशिक्षित, असुरक्षित नागरिकों के राजनैतिक स्वतंत्रता से जुड़े अधिकारों पर कुठाराघात मानते हैं बल्कि इसे संविधान विरोधी भी बताते हैं। प्रशांत भूषण कहते हैं ‘प्रत्येक फार्म में मतदाता बनने की प्रार्थना की जांच उसके जमा होने के पश्चात मतदाता पंजीकरण अधिकारियों द्वारा की जाती है। लिहाजा थोक में फार्म जमा करने पर प्रतिबंध लगाने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि फार्म जमा होना कोई अंतिम रुप से आवेदन के प्रार्थना को स्वीकार कर लेना नहीं होता और इसके बाद भी जांच का विषय रह जात है। इसलिए थोक में मतदाता फार्म जमा कराये जाने में निर्वाचन आयोग को कोई संकोच नहीं होना चाहिए।’
दरअसल चुनाव आयोग का यह मुस्लिम विरोधी रवैया सिर्फ उनको चुनावी प्रक्रिया से अलग-थलग काटकर रखने वाला ही नहीं है। बल्कि मुसलमानों के उस भावनात्मक और ऐतिहासिक निर्णय पर कुठाराघात है जब उन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के निर्माण के लिए पृथक निर्वाचन मंडल और पृथक प्रतिनिधित्व के सिद्वांत का त्याग किया था। लेकिन ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग की प्रतिबद्वता भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने के बजाय सावरकर के काल्पनिक हिंदू राष्ट्र के प्रति है जिसने अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के लिए उन्हें मतदान के अधिकार से वंचित रखने का फार्मूला गढ़ा था।

किले में लगती सेंध

संतोष सिंह
पन्द्रहवी लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के साथ ही मायावती के सोशल इंजीनियरिंग के दावे की पोल खुल गई कि जिस सर्वजन के सहारे वे दिल्ली की तैयारी कर रहीं थी महज उसने दो साल में उनका साथ छोड़ दिया। तो वहीं बहुजन का उनके कथित दलित आंदोलन जो मूर्तियों की स्थापना से लेकर दलित की बेटी को प्रधानमंत्री बनाने तक सीमित रह गया था, से उसका मोहभंग होने की शुरुआत इस चुनाव ने कर दी। जिसका खामियाजा सष्टांग दंडंवत होने वाले यूपी के नौकरशाहों को चुकाना पड़ रहा है। तो वहीं जिन बाहुबलियों को वे गरीबों का मसीहा बता रहंी थी उनको भी इस चुनावी दंगल में जनता ने नकार दिया। हालांकि आज उनकी ही हाथी की सवारी कर सबसे ज्यादा बाहुबली अबकी बार भी यूपी से संसद में पहुंचे। गौरतलब है कि मई 2007 विधान सभा चुनाव के बाद बसपा केंद्रिय सत्ता के मजबूत दावेदार के बतौर उभरी। लेकिन दो वर्षों के कार्यकाल में ही उनकी सत्ता की खामियां उजागर हो गई और चुनावी वादों की पोल खुल गयी। जिन गंुडों की छाती पर चढ़ने की बात वह कल तक कर रही थीं उन्हीं गंुडो को अपने हाथी का ऐसा महावत बना दिया कि उसकी पूछ थामे जनाधार ने उसे छोड़ दिया। पूर्वांचल में चुनाव जीतने व सपा को कमजोर करने के लिए मायावती ने अंसारी बंधुओं को चुनाव लड़ाकर मुस्लिम कार्ड खेलने का प्रयास किया। गणित तो ये थी कि सपा से मुस्लिमों को दूर कर दलित-मुस्लिम-ब्राहमण त्रिकोण बनाया जाय। पर पासा चैपट हो गया। जिसका फायदा भाजपा को पहुंचा, क्योंकि संघ ने इसको बडे़ पैमाने पर प्रचारित प्रसारित किया। और वोटों का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करवाया जिसका फायदा लोकसभा चुनाव में उसे मिला। पूर्वांचल के अंदर उभरे नये जातीय समीकरण ने जहां सपा की सिट्टी-पिट्टी बंद कर दी वहीं बसपा के खोखले दावों की हवा निकाल दी क्योंकि मायावती अपने वोटरों से पहले मतदान उसके बाद शादी विवाह के शिगूफे उनके बीच छोड़ती थी यानी दलित समाज के लोग वोट की कीमत पहचाने और बसपा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। लेकिन दलित समाज ने मायावती के इस नारे को शायद इस बार ठीक से समझा। जिनकी नाराजगी का पता उत्तर प्रदेश की सुरक्षित सीटों से हो जाता है जहां 17 लोकसभा सीटों में से दस पर सपा, दो-दो पर भाजपा- कांग्रेस और एक सीट पर रालोद का कब्जा हुआ यानी मायावती के खाते में सिर्फ दो सीटें गयी। दलित समाज जो बसपा का परंपरागत वोटर है उसने नए समीकरण में अपने को छला हुआ महसूस किया और धारा के विपरीत चलने की शुरुवात की।
द्वितीय चरण के चुनाव के दौरान जौनपुर लोकसभा क्षेत्र में इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रत्याशी बहादुर सोनकर की हत्या हो गयी। जिसका आरोप बसपा के बाहुबली प्रत्याशी धनंजय सिंह पर लगा। लेकिन सत्ता की हनक के कारण हत्या को आत्म हत्या में तब्दील करवा दिया गया। भले ही धनंजय ने सत्ता की हनक और गुंडई के बल पर जौनपुर सीट जीत ली। लेकिन इस हत्या से उभरे आक्रोश के कारण दलितों के एक बड़े वर्ग ने हाथी की सवारी छोड़ दी जिसका असर जौनपुर की आस-पास की सीटों जैसे मछलीशहर, इलाहाबाद, प्रतापगढ़, फतेहपुर, कौशाम्बी समेत दर्जनो सीटों पर पड़ा। इलाहाबाद सीट के करछना विधान सभा के भुंडा गांव में मतदान के दिन खटिकों को बसपा के पक्ष में मतदान करने के लिए दबाव डालने पर, प्रतिक्रिया स्वरुप खटिकों ने ब्राहमण भाईचारा समिति के अध्यक्ष अक्षयवर नाथ पाण्डे को पीट-पीट कर सूअर बाड़े में बंद कर दिया और नंगा कर भगा दिया। बहरहाल 90 के बाद जो अस्मितावादी राजनीति प्रमुखता से उभर कर सामने आई वह ब्राहमण-क्षत्रियों के समानांतर खड़े होेने की थी। विभिन्न जातियों के नेताओं ने अपनी-अपनी जातियों का प्रतिनिधित्व किया। मायावती की इस अस्मितावादी राजनीति में दलितों के भीतर एक खास जाति को प्रतिनिधित्व मिला। लेकिन दलितों के अंदर पासी, खटिक, कोल, धोबी आदि जातियों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला। जिसका असर बीते लोकसभा चुनाव में साफ दिखा कि सुरक्षित सीटों को भी बसपा नहीं जीत पायी।मायावती ने विधान सभा चुनाव में सर्वजन का शिगूफा छोड़ा था। इस चुनाव से उत्साहित मायावती लोकसभा चुनावों की तैयारियों में जुट गयीं और बड़े पैमाने पर ब्राहमण-मुस्लिम भाई-चारा कमेटियों का गठन किया। जो सत्ता से उपेक्षित जातियों को नागवार लगा। वहीं बसपा मंे जिन दलित जातियों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला वे प्रतिक्रिया स्वरुप कांग्रेसी खेमें में चली गयी। जिसका बसपा को लोकसभा चुनाव मंे खामियाजा भुगतना पड़ा।बहरहाल चुनावी पंडितों के सभी आकलन पर विराम लगाते हुए बसपा-सपा कांग्रेसी खेमें में शामिल हो गयीं। वजह साफ है दोनों को सीबीआई से अपने आप को बचाना है लेकिन दोनों पार्टियों के साथ जो तबका खड़ा है क्या वह इन पार्टियों के साथ खड़ा रहेगा अथवा और कहीं चला जाएगा यह यक्ष प्रश्न अभी बना हुआ है।

मीडिया में इतिहास और अनुपात बोध का एनीमिया

आनंद प्रधान


क्या समाचार मीडिया को इतिहास और अनुपात बोध का एनीमिया (रक्ताल्पता) हो गया है? क्या वह, विवेक और तर्क के बजाय भावनाओं से अधिक काम लेने लगा है? खासकर टी वी समाचार चैनलों में इतिहास और अनुपात बोध की अनुपस्थिति कुछ ज्यादा ही संक्रामक रोग की तरह फैलती जा रही है। समाचार चैनल इस कदर क्षणजीवी होते जा रहे हैं कि लगता ही नहीं है कि उस क्षण से पीछे और आगे भी कुछ था और है। समाचार चैनलों की स्मृति दोष की यह बीमारी अखबारों को भी लग चुकी है।
आम चुनाव 2009 और उसके नतीजों को ही लीजिए। पहली बात यह है कि बिना किसी अपवाद अधिकांश समाचार चैनलों और अखबारों के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण, एक्जिट पोल, चुनावी भविष्यवाणियां और पूर्वानुमान एक बार फिर मतदाता के मन को भांपने मे नाकामयाब रहें। लेकिन इसके लिए खेद जाहिर करने और नतीजों की तार्किक व्याख्या करने के बजाय चुनाव नतीजों को एक चमत्कार की तरह पेश किया गया। ऐसा लगा जैसे कांग्रेस को अकेले दम पर बहुमत मिल गया हो और भाजपा से लेकर वामपंथी पार्टियों और क्षेत्रीय दलों का पूरी तरह से सफाया हो गया हो।
सच है कि सफलता से ज्यादा सफल कुछ नही होता है और सफलता के अनेकों साथी होते है। चैनलों और अखबारों के पत्रकारों और विश्लेषकों पर ये दोनों बातें सबसे अधिक लागू होती है। चुनाव नतीजों का बारीकी से विश्लेषण करने के बजाय कांग्रेस की जीत और भाजपा और तीसरे मोर्चे के हार के लिए ज्यादातर अति-सरलीकृत कारण गिनाये गए जिनमें सामान्य इतिहास और अनुपात बोध का स्पष्ट अभाव था। इस इतिहास बोध के अभाव के कारण चुनावी नतीजों का विश्लेषण और जनादेश की व्याख्या इतनी भावुक, आत्मगत, पक्षपातपूर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त और एकतरफा थी कि जिसे इतिहास का ज्ञान नही होगा, उसे लगेगा जैसे कोई क्रांति हो गयी हो।
जाहिर है कि समाचार मीडिया कांग्रेस की जीत के उन्माद और आनंदोत्सव में ऐसे डूबा हुआ है कि किसी विश्लेषक को कांग्रेस की चुनाव रणनीति और अभियान मे कोई कमी नही दिख रही है। उसके मुताबिक, कांग्रेस इस जीत के साथ एक ऐसी पार्टी बन चुुकी है जिसमें कोई कमी नही है। यही नहीं, कांग्रेस अचानक ऐसा पारस पत्थर बन गयी जिसे छूकर ममता बैनर्जी से लेकर करूणानिधि तक मामूली पत्थर से सोना बन गए हैं। राहुल राग का तो खैर कहना ही क्या?
दूसरी ओर, समाचार मीडिया को एनडीए खासकर भाजपा और तीसरे मोर्चे मे माकपा की चुनावी रणनीति और अभियान में ऐसा कुछ नही दिखा जो सही था। यह साबित करने की कोशिश की गयी कि अब क्षेत्रीय दलों का जमाना गया, वामपंथी दल इतिहास बन जाएंगे और तीसरे-चैथे मोर्चे के सत्तालोलुप नेताओ को कूडेदान मे फेक दिया है। इसके अलावा भी बहुत कुछ और कहा गया जो विश्लेषण कम और भावोद्वेग अधिक था।
यहां इतिहास को याद करना बहुत जरूरी है। कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकारों का एक इतिहास रहा है और एक वर्तमान भी है। बहुत दूर न भी जाएं तो 1984 में मिस्टर क्लीन राजीव गांधी आज से कही ज्यादा भारी बहुमत और उससे भी अधिक उम्मीदों के साथ सत्ता में पहुंचे थे। उसके बाद क्या हुआ,वह बहुत पुराना इतिहास नही है। यही नही, कांग्रेस को इसबार लालू-मुलायम-मायावती और जयललिता जैसों की बैसाखी से भले मुक्ति मिल गयी हो लेकिन खुद कांग्रेसी इनसे कम नहीं हैं।
कांग्रेस खुद एक गठबंधन है जिसमे सत्ता के त्यागी, संत और सेवक कम और सत्ता के आराधक ज्यादा हैं। कांग्रेस मे सत्ता की मलाई में अपने-अपने हिस्से के लिए खींचतान कोई नई बात नही है। इसे देश ने पहले भी देखा है और आगे भी देखेगा। अगर रातों-रात ममता बैनर्जी और करूणानिधि बदल न गये हों तो देश उनके नखरे, रूठने और मनाने के नाटक आगे भी देखेगा।
याद रखिए, कांग्रेस का एक चरित्र है, एक संस्कृति है और एक इतिहास भी है। इसी तरह, सत्ता का भी अपना एक चरित्र, इतिहास और संस्कृति है। आमतौर पर इसमें रातो-रात बदलाव नही आता। लेकिन मीडिया इसे जानबूझकर अनदेखा कर रहा है। इसके कारण धीरे-धीरे यह स्मृति दोष की बीमारी बनती जा रही है। इस बीमारी ने उसे न सिर्फ दूर तक देख पाने में अक्षम बना दिया है बल्कि उसे निकट दृष्टि दोष की समस्या का भी सामना करना पड़ रहा है।

वाम-वाम-वाम दिशा...


शालिनी बाजपेयी

1925 से अपनी यात्रा शुरू कने वाला वामपंथ आज विचारों के उन दो राहों पर खड़ा है जहां से वामपंथ को पाने के बहुत कुछ है और अब शायद खोने के लिए कुछ भी नहीं। 15वीं लोकसभा के चुनावों में वामपंथ को मिले जनता के सहयोग से पता चलता है कि जनता इनके नवउदारवादी विचारों से प्रसन्न नहीं है। जो वामपंथ कल तक गरीबों, मजलूमों और मजदूरों का कहा जाता था वह आज टाटा का हो गया है। इस बदलाव को पश्चिम बंगाल की रचना ने नकार दिया है। पश्चिम बंगाल या भारत की गरीब जनता को लखटकिया कार नहीं बल्कि सोने के लिए खटिया और खाने के लिए दाल रोटी-रोटी चाहिए। इन्हीं सवालों को बुद्धदेव नहीं समझ रहे हैं और ममता इनकी इस बुद्धिहीनता का फायदा उठा रही हैं।
वामपंथी पाटिüयों में विशेषकर माकपा माक्र्सवाद सिद्धांत के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से भटक रहा है। यह अपने आपको माक्र्सवादी कहता तो है लेकिन माक्र्स के सिद्धांतों पर ही चलना नहीं चाहता है। पश्चिम बंगाल की जनता को वही वामपंथ चाहिए जो उसके सवालों को समझ सके। जो वामपंथ 14वीं लोकसभा में काफी अधिक सीटें लेकर गांधियों के पास सरकार बनाने पहुंचा था वही आज अकेले विपक्ष में भी बैठने के काबिल नहीं बचा है। इसका जि मेदार भी वह स्वयं है। यही कारण है कि यूपीए की लगाम खींचकर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून और किसानों की ऋण माफी का सारा श्रेय यूपीए ले गया और वामपंथी क्वटाटां करते रह गए। इन्हीं दो उपलçब्धयों को कांग्रेस ने जनता में खूब भुनाया और वोट बटोरे तथा वामपंथी तीसरा मोर्चा बनाते रह गए। इसके तीसरे मोर्चे के गठन ने ही इससे सबकुछ छीन लिया। इनकी छवि तो उसी दिन दागदार हो गई थी जिस दिन ये नवीन पटनायक, मायावती, जयललिता और करुणानिधि के साथ खडे़ हुए थे। जनता इनके तीसरे मोर्च से ही इनके वैचारिक भटकाव को समझ गई थी।
ये वामपंथी अहम की उस चोटी पर पहुंच गए थे जहां से इन्होंने नंदीग्राम और सिंगूर को आवाज लगाई थी। इसी सिंगूर और नंदीग्राम में न जाने कि तने गरीब किसानों को मौत के घाट उतार दिया गया, न जाने कितने बच्चों को अनाथ किया गया। इसी वामपंथ से दुखी होकर महाश्वेता देवी जैसी वामपंथी लेखिका ने भी इसके खिलाफ विरोध के स्वर तेज किए, लेकिन महाश्वेती देवी जैसे ममता की अति पर जाकर तारीफ करती हैं तो वह यह कैसे भूल जाती हैं कि ये कल तक जिन सा प्रदायिक ताकतों के साथ मजबूती से खड़ी थीं आज उनसे पूरी तरह व्यावहारिक रूप से कैसे अलग हो सकती हैं। ममता ने काफी कुछ अच्छा किया होगा लेकिन इनके राजनीतिक साथियों की छवि को देखकर इन्हें बहुत महान नहीं कहा जा सकता। जो प्रकाश करात ने कल किया था कांग्रेस के साथ जाकर वही तो ममता कर रही हैं। यह सत्ताई राजनीति की भूख को नकारकर भी उसी की तरफ बढ़ रही हैं। यह कैसा विरोधाभास है। इन्हें वास्तव में यदि जनता की राजनीति करनी थी जैसा कि महाश्वेता देवी से इन्होंने कहा है तो फिर कांग्रेस के साथ जाने की क्या जरूरत थी। ऐसी राजनीति तो ममता अकेले रहकर भी कर सकती हैं। जिस तरह से यूपीए के कुकृत्यों के लिए वामपंथियों को भी जि मेदार ठहराया जाता था, उसी तरह आज फिर यपीए के गलत-सही सभी कामों के लिए ममता को भी दोषी ठहराया जाएगा। इसलिए महाश्वेता देवी को एकतरफा होकर तारीफके पुल नहीं बांधने चाहिए। तारीफ इनकी उस दिन होगी जिस दिन ये यूपीए के साथ रहकर भी उसकी किसान विरोधी और नवउदारवादी नीतियों जो हमेशा आम जनता के कष्टों का कारण रही है, के खात्मे में अपनी भूमिका निभाएंगी।
वास्तव में देखा जाए तो महाश्वेता देवी ही क्यों वामपंथियों कुकृत्यों (सिंगूर-नंदीग्राम) पर स्वयं वामपंथ के अंदर से भी विरोध की तलवारें खींची गईं। इसका कारण साफ है कि यह भाजपा और कांग्रेस नहीं है जो अपनी बुराइयों पर पदाü डालते फिरे बल्कि यह वामपंथ है जिसमें अपनी आत्मालोचना का बड़ा महत्व है लेकिन दुभाüग्य इस बात का है कि यह सब वामपंथी अनुशासन ये माकपा कहां तज आई है।
लालगढ़ में तृणमूल की जीत ममता की जीत नहीं बल्कि वामपंथ की हार है। ममता भी जिस विरोध की राजनीति से जनता को बरगलाने में कामयाब हुईं उससे यह कब तक अपना दामन बचा पाएंगी क्योंकि केंद्र में यह जिनके साथ खड़ी हैं वह तो खुला इन्हीं लक्ष्यों को हासिल करने की बात करते हैं। वह तो अपनी उस नवउदारवादी आर्थिक नीति को जिसमें वामपंथियों ने हमेशा अड़ंगा लगाया है, अब स्वतंत्र होकर सफलतापूर्वक अंजाम देंगे। इस उदारवादी व्यवस्था का जिसका नाम उदारवादी है लेकिन यह बहुत ही जुल्मी है। जुल्मी इस अर्थ में कि इसने न जाने कितने युवाओं से उनके रोजगार छीने हैं, न जाने कितने आईआईटी छात्रों से उनका भविष्य छीना है। इसी उदारवाद में एसईजेड (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) जैसे क्षेत्र भी आते हैं जिनका ममता विरोध करती आई हैं। उदारवाद में टाटा की लटखटिया भी आती है। यही उदारवाद सत्यम जैसे दानवों को भी पैदा करता है, जो एक बार अपना मुंह खोलता है और हजारों लोगों के भविष्य को अपने पेट रख लेता है। मनमोहन सिंह का उदारवाद अंधाधुंध सरकारी संस्थाओं का निजीकरण है। इसी ने मंदी जैसे आर्थिक सुनामी को जन्म दिया है। और जितना हमें किसानों और सरकारी संस्थाओं ने बचाया है उन्हें भी अब उसी सायनाइड में बदल दिया जाएगा। यही है उदारवाद।
अगर बुद्धदेव ने गलत किया है तो ममता भी दूध की धुली नहीं हैं, यह भी उसी भीड़ से निकलकर आई हैं जहां से बुद्धदेव जैसे नेता। पश्चिम बंगाल की जनता ने ममता को इन बुद्धदेव और कि सान विरोधी नीतियों से अलग कैसे समझ लिया। दरअसल वहां की जनता भी तो इस समय भटकाव के रास्तों पर खड़ी है क्योंकि ये नेता तो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं वह किसे अच्छा समझे और किसे बुरा।
बुद्धदेव को अगर पश्चिम बंगाल में विकास करना ही था तो क्या यह विकास टाटा और सलेम ग्रुप के साथ मिलकर ही किया जा सकता है। यह विकास तो वर्षों से बंद पड़े कारखानों की मशीनों में नई जान डालकर भी किया जा सकता है। यदि पश्चिम बंगाल के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि कोलकाता सबसे समृद्ध और औद्योगिक नगरी के रूप में जाना जाता था। कोलकता की समृद्धता और आधुनिकता ने ही अंग्रेजों को कोलकाता को भारत की राजधानी बनाने के लिए प्रेरित किया था। पहले भारत में दूर-दूर से लोग कोलकता में रोजगार ढूंढ़ने आते थे लेकिन अब तो यह अपने क्षेत्र के युवाओं को ही रोजगार नहीं दे पा रहा है तो और राज्यों के लिए कैसे गिले-शिकवे। बुद्धदेव को उन बंद पड़े कारखानों को फिर से उस तरह से चलाने होंगे जैसे पहले चलते थे और कोलकाता की अपनी पहचान वापस लानी होगी। विकास की ओर बढ़ने के लिए पहले पायदान पर तो खेती आती है। भारत की लगभग 60 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष रूप से और 40 प्रतिशत अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर आçश्रत है फिर खेती-किसानी के साथ इतना सौतेला व्यवहार क्यों? पश्चिम बंगाल वैसे भी जूट, चाय बागान और चावल के लिए मु य रूप से जाना जाता है, इसकी इन मु य फसलों को और बढ़ावा देना चाहिए ताकि खेती पर आçश्रत जनता को कम से कम भूखों न मरना पड़े और मौका पड़ने पर इन उदारवादी समर्थकों को डूबने से भी बचाने के लिए तिनका बन सके। वामपंथी पश्चिम बंगाल में आए भी अपने इन्हीं कुछ सवालों को लेकर थे मसलन- औद्यागिक विकास, सामाजिक न्याय और किसान मजदूरों के सवाल। वामपंथियों ने ऑपरेशन बरगा भी चलाया था भूमि सुधार के लिए, लेकिन यह सब अब कहां छू-मंतर हो गया है। यह जिस सामाजिक न्याय की बात करते थे वह भी तो बंगाल में सिरे से गायब है। कहा जाता है कि बंगाल में तो अल्पसं यकों की स्थिति और भी खराब है। समूचे भारत में जिस तरह अल्पसं यकों को आतंकवाद के नाम उत्पीçड़त किया जा रहा है, बंगाल इससे अछूता नहीं है। वहां पर भी अल्पसं यकों की यही दशा है। इसी का नतीजा था कि इस बार अल्पसं यकों ने भी वामपंथियों को किनारे लगाया है।
ममता बनर्जी जो कभी भाजपा का पल्लू पकड़े थीं आज कांग्रेस के साथ खड़ी हैं। यह पश्चिम बंगाल में कोई चमत्कार तो कर नहीं देंगीं। ऐसा भी नहीं है कि बंगाल में ममता के सत्ता में आ जाने से कोई क्र ांतिकारी बदलाव हो गया है बल्कि स्थितियां वही हैं। यह तो नई बोतल में पुरानी शराब परोसने जैसा है। मतलब चेहरे अलग-अलग हैं लेकिन विचार वही हैं। कोेलकाता की जनता भी इस बात को समझ रही है। यदि वह न समझती होती तो इतने दशकों से वह वामपंथियों का साथ न दे रही होती। वहां की जनता ने ही तो लाल झंडों को इतना ऊंचे उठाया है। वहां का बुद्धजीवी वर्ग भी विचारों की राजनीति पर ही बल देता है। कोलकाता का माहौल भी भारत की और जगहों से बिल्कुल अलग है।
वामपंथ के पास अब भी समय है। वह जनता से अपने कुकृत्यों यानी सिंगूर और नंदीग्राम के लिए माफी मांगे और वामपंथी अनुशासन के तहत अपनी आत्मालोचना करे। इसे अपनी इस सत्ताई राजनीति को छोड़कर जन संघर्षों की राजनीति करनी चाहिए। और इन जन संघर्षों की राजनीति में सांसदों की सं या मायने नहीं रखती है। इस माकपा को इस बात को समझना चाहिए कि अभी भी भारत में वामपंथी ही ऐसी पाटिüयां हैं जिनमें मजबूत जनसंगठनों की ताकत है। मौका पड़ने पर यह करोड़ों की सं या में जनता को जन मुद्दों के लिए सड़कों पर उतार सकती हैं और इतिहास जानता है कि कई बार ऐसा हुआ भी है। इसलिए वामपंथी पाटिüयों को इस कुर्सी की राजनीति से इतर हटकर अपने पुराने रोल में वापस आना होगा। भाकपा-माकपा-भाकपा माले ये तीनों एक होकर इस राजनीतिक मंच को जनसंघर्षों का मंच बनाएं। और संसद में अपनी विपक्षी भूमिका को जनता के हित में ईमानदारी से निभाते हुए समय-समय पर कांग्रेस को बेकाबू होने से रोकें।