पंजाब में लगी आग : एक कड़वी सच्चाई


नवीन कुमार ‘रणवीर’

24 मई 2009 रविवार को ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना में डेरा सचखंड बल्लां वाला के संत निरंजन दास और संत रामानंद पर हुए हमले की प्रतिक्रिया 25 मई को भारत के पंजांब, हरियाणा और जम्मू में दिखी। जिसका हर्जाना लगभग पूरे उत्तर भारत को उठाना पड़ा। पंजाब के रास्ते जानें वाले सभी मार्ग रेल और सड़क बंद, काम-धंधे बंद, कई जगह आगजनी, विरोध प्रदर्शन, तोड़-फोड़, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया गया, कई बसे, ट्रेनें यहां तक की एटीएम तक को आग भीड़ ने आग के हवाले कर दिया। टेलीविजन पर खबरें आ रही थी की विएना में एक गुरुद्वारे में हुए हमले के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं, लोग समझ रहें थे कि गुरुद्वारे पर हमला विएना (ऑस्ट्रिया) में हुआ है फिर ये लोग यहां क्यों प्रदर्शन कर रहे है? और एक बात प्रदर्शन करनें वालों में सिखों की संख्या का अनुपात भी कम नजर आ रहा था, कारण क्या है कुछ समझ में नहीं आ रहा था। शायद बात को मीडिया बंधु सही तरह से समझ नहीं पाए थे कि बात आखिर हुई क्या है। दरअसल ऑस्ट्रिया के विएना में जो गुरुद्वारा सचखंड साहिब है वो किस प्रकार अन्य गुरुद्वारों के भिन्न हैं, पंजाब के डेरों में डेरा सचखंड साहिब बल्लां रामदासियों और रविदासियों(आम भाषा में यदि हम कहें तो चमारों) का का डेरा कहा जाता है।डेरा सच खंड की स्थापना 70 साल पहले संत पीपल दास ने की थी। पंजाब में डेरा सच खंड बल्लां के करीब 14 लाख अनुयायी हैं।वैसे तो पंजाब में 100 से ज्यादा अलग-अलग डेरें हैं, पर डेरा सच के अनुयायियों में ज्यादा संख्या में दलित सिख और हिंदू है। पंजाब में दलितों की आबादी लगभग 34 प्रतिशत है। रविदासिए मतलब भक्तिकाल के महान सूफी संत रविदास के अनुयायी। जिन्होनें की जाति-व्यवस्था के विरुद्ध समाज की कल्पना की थी। सिख धर्म के कई समूह डेरा संस्कृति के खिलाफ रहे हैं। क्योकिं इन डेरों के प्रमुख खुद को गुरु दर्शाते हैं। फिर इनके डेरों में गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश क्यों होता है। यहां सवाल ये भी खड़ा होता हैं कि निरंकारी, राधा-स्वामी ब्यास, डेरा सच्चा सौदा और न जानें कितनें ही ऐसे डेरे हैं जहां के गुरु सिख ही हैं, और वे भी गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी को ही अपनें सत्संग में बाटंतें है। या शायद ऐसा हैं कि समाज में उच्च वर्गों के द्वारा चलाए जानें वाले डेरों से सिख के किसी समूह को परेशानी नहीं है लेकिन निम्न वर्गों जिन्हें कि सिख धर्म में तिरस्कार झेलना पड़ा हो, उनके डेरों से ही सिख धर्मावलंबियों को ऐतराज है। अब समझ में ये नहीं आता की ऐतराज सभी डेरों के प्रमुखों से है जो कि खुद को गुरु कहलाते हैं, या कि डेरा सच खंड से है? एक धड़े का ये भी मानना है कि वे संत रविदास को गुरु के रूप में मानते हैं इससे उन्हें ऐतराज है। सिख धर्म की स्थापना करते समय गुरु नानक देव जी ने सिख धर्म में जाति व्यवस्था कि कल्पना नहीं की थी, हिन्दू धर्म की कुरितियों से परे ही सिख एक अलग पंथ बना। परधर्मावलंबियों के आशीर्वाद से जातिवाद का दंश ऐसा बोया गया कि संत रविदास जैसों को जन्म लेना पड़ा। सिख धर्म में जातिवाद की टीस झेल रहे नीची जाति के सिखों रामदासिये, सिक्लीकर, बाटरें, रविदासिए सिख,मोगरे वाले सरदार,मजहबी सिख,बेहरे वाले,मोची,अधर्मी(आदि-धर्मी), रामगढ़िए, और न जाने कितनी दलित जातियों के लोगों को सिख धर्म ने भी वही कुछ दिया जो कि हिंदू धर्म में सवर्णों ने दलितों को दिया, सिर्फ यातना। क्यों जरूरत पड़ी की इतने डेरे खुले उसी पंजाब में जिसमें की अलग पंथ की नीव रखी गई थी इस उद्देश्य से, कि कोई ऐसा धर्म हो जो कि सभी लोगों को बराबरी का अधिकार दे, जिसमें वर्ण व्यवस्था का मनुवादी दंश न हो। जिसमें मूर्ति पूजा न हो, जिसमें गुरु वो परमात्मा है जो कि निराकार है, जिसका कोई आकार नहीं है। दस गुरुओं तक गद्दी चली दसेवें गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहां "सब सिख्खन को हुक्म है गुरु मानयों ग्रथ" मतलब अब कोई गुरु नहीं होगा गुरु ग्रथ साहिब ही गुरु होगी। लेकिन गुरुद्वारों में सिख जट्टों का वर्चस्व रहता देख, समाज के सबसे निचले वर्ग के लोगों को ने डेरों का सहारा लिया। कहनें को इन डेरों में सभी को समान माना जाता है। पर कई डेरों में पैसे वाले लोगों का वर्चस्व है और बहुतेरे ऐसे भी हैं जिनके अनुयायिओं में दलित और समाज में निम्न वर्ग के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। डेरा सच खंड भी उन्हीं में से एक है। सवाल अब भी वही है कि क्या डेरा सच खंड के प्रमुख संत निरंजन दास और उनके चेले संत रामानंद ने कोई ऐसा काम किया था जिससे की सिख धर्मावलंबियों को ऐतराज था ? क्या डेरा सच्चा सौदा सिरसा के प्रमुख गुरमीत राम-रहीम की भांति इन संतों के परिधानों में उन्हें गुरु गोबिंद सिंह की झलक दिखाई दे रही थी ? क्यों गोली मारी गई? क्या शिकायत थी? शायद विएना केगुरुद्वारे डेरा सचखंड बल्लां वाल में सिख गुरुद्वारों की तुलना में चढ़ावा अधिक आ रहा था। डेरा सच खंड बल्लां वाला के प्रमुख निरंजन दास आज तक घायल अवस्था में हैं औऱ उनके चेले और डेरे के उप-प्रमुख संत रामानंद की मृत्यु हो चुकी है। सिख के किसी समूह को शायद दलितों औऱ पिछड़ों के डेरों पर हमला करना आसान लगा होगा। या फिर जातिवाद के भयावह चेहरे में पंजाब की 34 प्रतिशत दलितों के आबादी का एक साथ होने की प्रतिक्रिया थी? जिन्हें की सिख समाज ने हमेशा तिरस्कृत किया चाहे वह भी सिख ही क्यों न हो। सवाल के पहलू क्या हैं ये सिख धर्म के पैरोकार जानते हैं और कोई नहीं।

चुनाव आयोग के नाम एक चिट्ठी

प्रति
मुख्य चुनाव आयुक्त
चुनाव आयोग
निर्वाचन सदन
नई दिल्ली

एवं

अध्यक्ष
भारतीय प्रेस परिषद
नई दिल्ली
विषय: लोकसभा व विभिन्न राज्यों में पिछले विधानसभाओं चुनाव के दौरान मीडिया द्वारा की गई चुनावी रिपोर्ट व विज्ञापनों का अध्धयन करने के संबंध में

मैं एक घटना के साथ अपनी शिक़ायत और चिंता आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। लोकसभा के लिए चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमृतसर का दौरा किया था। वहां उन्होने एक रैली को संबोधित किया लेकिन स्थानीय टीवी चैनलों ने उनकी रैली का सीधा प्रसारण नहीं किया जबकि चैनलों द्वारा पंजाब के मजीठा में भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी की रैली का सीधा प्रसारण किया गया।

किसी ख़बर के महत्व और प्रसारण-प्रकाशन के लिए उसके चयन का मामला मीडिया संस्थान की स्वतंत्रता से जुड़ा हो सकता है, लेकिन क्या ऐसा संभव है कि किसी भी चैनल को प्रधानमंत्री की रैली सीधे प्रसारण के लिए ज़रूरी नहीं लगा? जबकि पंजाब में सत्तारूढ़ पार्टी अकाली दल वाले गठबंधन एनडीए के नेता लालकृष्ण आडवाणी की रैली चैनलों को बेहद महत्वपूर्ण लगी? दरअसल यह मीडिया पर नियंत्रण की स्थिति में हुआ। जन संचार के माध्यमों पर पूंजीवादी मीडिया संस्थानों का नियंत्रण पूरी दुनिया में बहस का विषय बना हुआ है। भारत में भी मीडिया पर ऐसा ही नियंत्रण बढ़ता जा रहा है। पंजाब में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिससे ये पता किया जा सकता है कि मीडिया और खासतौर से इलेक्ट्रोनिक चैनलों पर अकाली दल के नेताओं का किस हद तक नियंत्रण है। मीडिया में नियंत्रण और उसके नतीजों से जुड़ा विषय आपके हद से बाहर का हो सकता है।

हम आपसे चुनाव के दौरान स्वतंत्रता के नाम पर मीडिया ने जिस तरह से रिपोर्टिंग की है, उसके अध्‍ययन की मांग कर रहे हैं, जिससे ये पता चलता है कि मीडिया में चुनाव प्रचार का नया तरीका कैसे विकसित किया गया है। पंजाब में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चैनलों में तो चुनाव के दौरान ख़बर और स्‍टूडियो में बातचीत के विषय और पैनल के अध्‍ययन से इस बात का खुलासा हो सकता है कि पिछले लोकसभा के चुनाव के दौरान प्रचार के कितने वैसे तरीक़े खोज निकाले गये हैं, जिन तक चुनाव आयोग की पहुंच नहीं है या उन्हें अनदेखा करना संभव है।

मैं पहले स्पष्ट कर दूं कि यह मसला देश भर से जुड़ा है। पंजाब में सत्तारूढ़ दल ने चुनाव के दौरान मीडिया का अपने लिए इस्तेमाल करने की योजना चुनाव से बहुत पहले किस तरह से बनायी, ये पहलू महत्वपूर्ण है। पंजाब में सरकार ने एक न्यूज चैनल (पीटीसी पंजाबी) को 1 अप्रैल 2008 से जनवरी 2009 तक अठहत्तर लाख बत्तीस हजार तीन सौ तिहत्तर रुपये का विज्ञापन जारी किया। जबकि प्रसार भारती को मात्र दो लाख बासठ हजार उनहत्तर रूपये का विज्ञापन जारी किया। दूसरे निजी चैनलों में फास्ट वे और एम एच वन को क्रमश: चालीस लाख चालीस हजार सात सौ सैतीस और अठावन लाख चौरासी हजार आठ सौ उन्नीस रूपये के विज्ञापन जारी किए। क्या इसका सीधा संबंध चुनाव के दौरान सत्तारूढ़ पार्टी के लिए इन चैनलों का इस्तेमाल करने से नहीं जुड़ा है? जुड़ा है और यह सरकारों ने एक नया तरीका निकाला है कि कैसे सरकारी खर्चों से पार्टी के चुनाव प्रचार में आने वाले खर्च की भरपाई की जाए।

पंजाब की तरह दूसरे राज्यों और खासतौर से दिल्ली में भी इसका अध्धयन किया जाना चाहिए। मुझे एक संवाददाता ने बताया कि वे चुनाव के दौरान चुनाव आयोग की प्रेस ब्रिफिंग के दौरान पूर्व में दिये गये सवालों का जवाब दो दिनों तक मांगते रहे लेकिन आयोग के प्रवक्ता उनका जवाब नहीं दे सके। वे सवाल केन्द्र सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन डीएवीपी द्वारा चुनाव के ऐन मौके पर कुछ विज्ञापन कंपनियों को ठेके आदि देने के मक़सद से आमंत्रित करने से जुड़े थे। क्या ये चुनाव आयोग की मंजूरी से हुआ? सवाल यही पूछा गया था। दरअसल पंजाब की तरह केन्द्र में भी एक अध्‍ययन ये किया जाना चाहिए कि सत्तारूढ़ पार्टी के लिए जो विज्ञापन कंपनियां काम कर रही थीं उन्हें सरकारी संस्थानों द्वारा उनमें से कितनों को भविष्य में काम देने के लिए चुना गया है? दूसरी बात कि चुनाव के ठीक पहले कितने के विज्ञापन विभिन्न मंत्रालयों और डीएवीपी द्वारा मीडिया में किन-किन संस्थानों को जारी किए गए। तीसरी बात ज्यादा गंभीर दिखती है। लोकसभा के लिए चुनाव कराने का समय लगभग तय था। 28 फरवरी 2009 को केन्द्र सरकार ने समाचार पत्रों के लिए डीएवीपी के विज्ञापनों के रेट में दस प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर दी। यही नहीं, समाचार पत्रों द्वारा विज्ञापन पर भुगतान किये जाने वाले पन्द्रह प्रतिशत कमीशन को तीस जून 09 तक के लिए माफ कर दिया।

क्या सरकारी खर्च पर पार्टियों के चुनाव प्रचार का तरीका स्थायित्व ग्रहण कर रहा है? इस पर चुनाव आयोग कैसे रोक लगाये, इस बारे में सोचा जाना चाहिए। सत्तारूढ़ दल द्वारा मीडिया पर नियंत्रण और उसका चुनाव के दौरान इस्तेमाल तो एक बात हुई। दूसरी बात सरकारी खर्च पर पार्टी के चुनाव प्रचार के निकाले जाने वाले तौर तरीकों का अध्‍ययन करना है। लेकिन आपको इस पत्र को लिखने का मकसद यही नहीं है। स्थिति बेहद चिंताजनक है। संसदीय लोकतंत्र में तमाम संस्थाएं अपना भरोसा खोती जा रही हैं - ये तो कहा ही जाता है। अब बात उससे आगे निकल चुकी है। संस्थाओं का नैतिक बल या मनोबल इतना कमज़ोर होता जा रहा है कि वो एक दूसरे पर निगरानी रखने के काम से मुंह मोड़ रही है। संस्थाएं लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने की कोशिश करने के बजाय तानाशाही और निरंकुशता की तरफ बढ़ती जा रही हैं। संसदीय लोकतंत्र में आपकी चिंता केवल संसदीय प्रक्रिया भर पूरी कराने की है तो फिर कोई बात बेमानी है। लेकिन मैं समझता हूं कि लोकतंत्र ही मुख्य है। यहां तो संसदीय महज प्रक्रिया है।

संसदीय लोकंतत्र को चार स्तंभों पर टिकी व्यवस्था कहा जाता है।चौथा स्तंभ अपनी विश्वसनीयता लगातार खोता जा रहा है। जिस चुनाव को संसदीय लोकतंत्र के सबसे बड़े महापर्व के रूप में घोषित किया जाता है उस महापर्व को मीडिया ने अपनी काली कमाई का जरिया बना लिया है।आपको बताने की जरूरत नहीं है कि मीडिया में उन्हीं पार्टी के उम्मीदवारों को चुनाव के दौरान प्रचार मिलता है जो कथित बड़ी पार्टी के उम्‍मीदवार होते हैं। चुनाव आयोग द्वारा मात्र पंद्रह दिन चुनाव प्रचार के लिए दिये जाते हैं। चुनाव प्रचार में भी इस तरह की पाबंदियां हैं कि पोस्टर, बैनर आदि के लिए पैसा खर्च किये बिना जगहें ढूंढना संभव नहीं है। पैसे वाले उम्मीदवार उस जगह का भी इस्तेमाल कर लेते हैं, जिन्हें इस्तेमाल करना वर्जित है। जैसे एक उदाहरण यहां बताता हूं कि मेरठ के एक उम्मीदवार ने ऐसी जगह (एन एच 58 और 24) का इस्तेमाल किया, लेकिन सत्ता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी। दूसरी तरफ मीडिया में उसकी खबरें नहीं छपी क्योंकि उसने मीडिया को विज्ञापन के बोझ से लाद दिया था। गरीब और कम पैसे खर्च करने वाले उम्मीदवारों को मीडिया वाले जगह देते नहीं हैं और आयोग ने भी अपने स्तर पर कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कर रखी जहै, सके जरिये कम पैसे वाले उम्मीदवार अपने आपको क्षेत्र के मतदाताओं से परिचित करा सकें। लेकिन ये तो एक अलग विषय है। पिछले पांच वर्षों के दौरान मीडिया में व्यवसाय का एक नया तरीका विकसित हुआ है। समाचार पत्रों में खबरों की शक्ल में विज्ञापन छपने लगे हैं। पैसे वाले उम्मीदवार समाचार पत्रों में एक जगह खरीद लेते हैं और वहां अपने मन मुताबित खबरें छपवा लेते हैं। ऐसे कई उदाहरण मैं आपकों भेज रहा हूं। पंजाब समेत विभिन्न राज्यों में तो समाचार पत्रों के पेज के पेज खरीद लिये गये। उस पेज पर कहीं भी विज्ञापन नहीं लिखा है। फिर विज्ञापन और खबरों की प्रस्तुति का भी एक मान्य ढांचा है। यदि न दिखने के आकार में विज्ञापन लिख भी दिया जाए, तो ये लिखने भर का मामला नहीं है। धोखाधड़ी का यह आलम है कि ख़बरों की शक्ल में विज्ञापन छाप रहे हैं और उसे विज्ञापन नहीं बता रहे हैं बल्कि उसे समाचार बता रहे हैं। इस तरह से उसे पेश किया जाता है, जैसे कोई संवाददाता अपनी ख़बर लिख रहा हो। पेज ख़रीद कर किसी एक स्थान से पूरे जिले या राज्य भर की खबरें अपनी ओर से उस पर दी जा सकती है। झूठ सच और घटना होने और नहीं होने से उस समाचार का कोई रिश्ता नहीं होता है।

अब तक ये कहा जाता रहा है कि मीडिया में काम करने वाले पत्रकार रिश्वतखोरी करके किसी उम्मीदवार के पक्ष में लिखते हैं। मीडिया में कई तरह के दवाबों में पत्रकार काम करते हैं इससे इंकार नहीं किया जा सकता है लेकिन अब तो मीडिया संस्थान खुलेआम बिकने लगे हैं।पेज मीडिया संस्थान का प्रबंधन ही बेचता है और पत्रकारों का वह सेल्समेन की तरह इस्तेमाल करता है। पत्रकारों को विज्ञापन पर मिलने वाले कमीशन का भुगतान किया जाता है। संस्थानों में पत्रकार कोशिश करता है कि चुनाव के दौरान वह उम्मीदवारों से विज्ञापन के नाम पर ज्यादा से ज्यादा पैसा संस्थान को दिला सकें और खुद भी कमा सके । लेकिन मामला केवल मीडिया का खरीद बिक्री का केन्द्र बन जाने तक ही सीमित नहीं है। कुछ और गंभीर स्थितियां बनी है। मीडिया काले धन का खुला केन्द्र बन रहा है। पहले मीडिया में काले धन के इस्तेमाल की बातें सुनी जाती थी। मालिक यहां काला धन लगाकर अपने धन को सफेद करता है। लेकिन अब तो वह खुलेआम काला धन ले रहा है और अपने लिए काला धन बना रहा है। कई जगहों से जानकारी मिली है कि उम्मीदवारों से विज्ञापन के नाम पर अपनी मर्जी की खबर छपवाने के लिए मीडिया ने जो राशि ली उस रकम की रसीद उन्हें नहीं दी। बल्कि बेहद कम राशि की रसीद दी ताकि वे चुनाव आयोग के समक्ष पेश होने वाले अपने चुनाव खर्च में उसे दिखा सकें। आयोग ने उम्मीदवारों के लिए पच्चीस लाख रुपये चुनाव खर्च की सीमा तय कर रखी है। आयोग को इस खर्च की पड़ताल के लिए नत्थी किए गए बिलों की जांच की जरूरत महसूस होती होगी। शायद वास्तविक दरों को जानने की कोशिश नहीं की जाती है। कम से आयोग और परिषद उम्मीदवारों द्वारा विज्ञापन के मद में खर्च की रसीद के आधार पर ये तो जानने की कोशिश कर सकती है कि मीडिया संस्थान पूर्व में उतने ही विज्ञापन के लिए कितनी राशि प्राप्त करते रहे हैं? मैं आपको बताना चाहता हूं कि मीडिया को जितना भुगतान विज्ञापन के नाम पर खबरों को छपवाने के लिए उम्मीदवारों द्वारा किया गया उससे बेहद कम की रसीद उन्होने प्राप्त कर ली। मीडिया संस्थान ने अपने कर्मचारियों और स्थानीय स्तर के राजनीतिक नेताओं के सामने ये जाहिर कर दिया है कि उसमें काले धन को छिपाने के कितने हुनर हैं। यहां मैं मीडिया में काम करने वाले कर्मचारियों के मनोबल पर पड़ने वाले असर की चर्चा नहीं कर रहा हूं। पैसे की कमाई के मकसद से बाजार में निकलने पर नैतिकता को ताक पर रखना पड़ता है। लेकिन मैं एक बात बहुत साफतौर पर ये कहना चाहता हूं कि इसका मीडिया पर दूरगामी और गंभीर असर होगा। कमजोर नैतिक बल का मीडिया लोकतंत्र की सुरक्षा नहीं कर सकता है। लेकिन मजेदार बात तो ये कि बहुत सारे मीडिया संस्थानों ने एक तरफ तो चुनावी रिपोर्टिंग को विदा कर दिया और उम्मीदवारों के विज्ञापन के चक्कर में चुनाव की सही तस्वीर पेश करने से खुद को अलग रखा है वहीं दूसरी तरफ उनमें से कइयों के द्वारा चुनाव सुधार के अभियान चलाए गए। ये कैसे दोहरे चेहरे है? कैसे अपराधियों का राजनीति में विरोध करने वाले खुद को लोकतंत्र को मज़बूत करने का अभियान चलाने के लिए नैतिक तौर पर सक्षम कह सकते हैं?

मैं आपसे ये अपेक्षा करता हूं कि चुनाव आयोग को इस दिशा में पहल लेकर एक अध्‍ययन करना चाहिए कि मीडिया ने किस तरह से उम्मीदवारों के लिए प्रचार किया और विज्ञापन के नाम पर खबरों की जगहों को बेचा। प्रेस परिषद की भी इस दिशा में एक निश्चित भूमिका है और उसका तो प्रमुख रूप से ये दायित्व बनता है कि वह एक खुली अदालत लगाकर इस संबंध में तमाम लोगों से उनके अनुभवों और शिकायतों को सुनें। हमारे संसदीय लोकतंत्र की संस्थानों में एक प्रवृति यह पायी जाती है कि जब कोई रोग फैल जाता है तब उसके उपचार की व्यवस्था में वे लगने की कोशिश करती है। वे लक्षण के आधार पर रोकथाम की कोशिश नहीं करती है। यह पहला चुनाव नहीं है जब मीडिया का खबरों की शक्ल में विज्ञापन छापने का धंधा शुरू हुआ है। कई राज्यों के चुनाव इन्हीं स्थितियों में हुए हैं।लक्षण को एक प्रवृति के रूप में तो कतई देखने की कोशिश नहीं की जाती है। नतीजा ये होता है कि एक आचार संहिता बनती है और पहले के मुकाबले दूसरे रूप में आचार संहिता के उल्लंधन की व्यवस्था कर ली जाती है।

आशा है आप इस संबंध में कोई दूरगामी व्यवस्था करने की कोशिश करेंगे ताकि इस लोकतंत्र को बचाने में
मददगार साबित हो।

आपका
मीडिया स्टडीज ग्रुप की ओर से
अनिल चमड़‍िया

डॉ बिनायक सेन को मिली ज़मानत : बीबीसी

सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ की जेल में बंद नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले डॉ विनायक सेन को आज जमानत दे दी.
डॉ सेन पिछले दो वर्षों से छत्तीसगढ़ की जेल में बंद थे और राज्य सरकार ने उन पर माओवादियों की मदद करने का आरोप लगाया था.
न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू और दीपक वर्मा की खंडपीठ ने अपने फ़ैसले में कहा कि डॉ वर्मा को निजी मुचलके पर स्थानीय अदालत से ज़मानत दे दी जाए.
नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले बिनायक सेन सेन की दुनिया भर में साख है. पेशे से डॉक्टर बिनायक सेन की रिहाई के लिए दुनिया के कई नोबल पुरस्कार विजेताओं ने भी राज्य सरकार को पत्र लिखा था.
डॉक्टर बिनायक सेन शुरु से राज्य सरकार के आरोपों का खंडन करते रहे हैं और कहते रहे हैं कि वो नक्सलियों का साथ नहीं देते लेकिन वो साथ ही राज्य सरकार की ज्यादतियों का भी विरोध करते रहे हैं.
पिछले दो वर्षों से डॉ सेन बार बार सुनवाई की अपील करते रहे हैं और आखिरकार उन्हें सुप्रीम कोर्ट से ही राहत मिल सकी है।

कौन हैं डॉ बिनायक सेन?

खादी का बिना प्रेस किया हुआ कुर्ता-पाजामा, लंबी बढ़ी दाढ़ी और पैरों में साधारण स्पोर्ट्स शू पहने 57 वर्षीय डॉक्टर बिनायक सेन को देखकर अक्सर उनके समूचे व्यक्तित्व का पता नहीं चल पाता.
कुछ लोग उन्हें सीधे-सादे सामाजिक कार्यकर्ता के रुप में जानते हैं तो कुछ एक बौद्धिक चिंतक के रुप में और अब पुलिस उन्हें नक्सलियों का सहयोगी बताती है.
छत्तीसगढ़ की शहरी आबादी भले ज़्यादा न जानती रही हो लेकिन वहाँ के दूरस्थ इलाक़ों के गाँव वाले और आदिवासी उन्हें अपने हितचिंतक के रुप में जानते रहे हैं.
पेशे से चिकित्सक डॉ बिनायक सेन छात्र जीवन से ही राजनीति में रुचि लेते रहे हैं.
उन्होंने छत्तीसगढ़ में समाजसेवा की शुरुआत सुपरिचित श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी के साथ की और श्रमिकों के लिए बनाए गए शहीद अस्पताल में अपनी सेवाएँ देने लगे.
इसके बाद वे छत्तीसगढ़ के विभिन्न ज़िलों में लोगों के लिए सस्ती चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के उपाय तलाश करने के लिए काम करते रहे.
डॉ बिनायक सेन सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता तैयार करने के लिए बनी छत्तीसगढ़ सरकार की एक सलाहकार समिति के सदस्य रहे और उनसे जुड़े लोगों का कहना है कि डॉ सेन के सुझावों के आधार पर सरकार ने ‘मितानिन’ नाम से एक कार्यक्रम शुरु किया.
इस कार्यक्रम के तहत छत्तीसगढ़ में महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता तैयार की जा रहीं हैं.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनके योगदान को उनके कॉलेज क्रिस्चन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर ने भी सराहा और पॉल हैरिसन अवॉर्ड दिया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य और मानवाधिकार के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए जोनाथन मैन सम्मान दिया गया.
डॉ बिनायक सेन मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की छत्तीसगढ़ शाखा के उपाध्यक्ष भी हैं.
इस संस्था के साथ काम करते हुए उन्होंने छत्तीसगढ़ में भूख से मौत और कुपोषण जैसे मुद्दों को उठाया और कई ग़ैर सरकारी जाँच दलों के सदस्य रहे.
उन्होंने अक्सर सरकार के लिए असुविधाजनक सवाल खड़े किए और नक्सली आंदोलन के ख़िलाफ़ चल रहे सलमा जुड़ुम की विसंगतियों पर भी गंभीर सवाल उठाए.
सलवा जुड़ुम के चलते आदिवासियों को हो रही कथित परेशानियों को स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया तक पहुँचाने में भी उनकी अहम भूमिका रही.
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाक़े बस्तर में नक्सलवाद के ख़िलाफ़ चल रहे सलवा जुड़ुम को सरकार स्वस्फ़ूर्त जनांदोलन कहती है जबकि इसके विरोधी इसे सरकारी सहायता से चल रहा कार्यक्रम कहते हैं. इस कार्यक्रम को विपक्षी पार्टी कांग्रेस का भी पूरा समर्थन प्राप्त है.
छत्तीसगढ़ की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने 2005 में जब छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा अधिनियम लागू करने का फ़ैसला किया तो उसका मुखर विरोध करने वालों में डॉ बिनायक सेन भी थे.
उन्होंने आशंका जताई थी कि इस क़ानून की आड़ में सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को परेशानी का सामना करना पड़ सकता है.
उनकी आशंका सही साबित हुई और इसी क़ानून के तहत उन्हें 14 मई 2007 को गिरफ़्तार कर लिया गया.
छत्तीसगढ़ पुलिस के मुताबिक़ बिनायक सेन पर नक्सलियों के साथ साठ-गांठ करने और उनके सहायक के रूप में काम करने का आरोप है.
हालांकि वे ख़ुद इसे निराधार बताते हैं और पीयूसीएल इसे सरकार की दुर्भावना के रुप में देखती है.
दुनिया भर से अपील
डॉ बिनायक सेन पिछले एक साल से जेल में हैं और उनकी रिहाई के लिए देश के बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता अपील करते रहे हैं.
अब दुनिया भर के 22 नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने डॉ बिनायक सेन की रिहाई की अपील की है.
नोबेल पुरस्कार विजेता चाहते हैं कि उन्हें जोनाथन मैन सम्मान लेने के लिए अमरीका जाने की अनुमति दी जाए.
पिछले एक साल में बहुत सी कोशिशों के बाद भी डॉ सेन को ज़मानत नहीं मिल सकी है.
उनकी गिरफ़्तारी के एक साल पूरा होने पर 14 मई को देश भर में विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई जा रही है.
डॉ बिनायक सेन की पत्नी डॉ इलीना सेन भी जानीमानी सामाजिक कार्यकर्ता हैं और वे डॉ सेन को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रही
बीबीसी हिंदी डॉट कॉम

रवि कुमार के कविता पोस्टर

हम राज करें, तुम राम भजो



धर्म में सहिष्णुता का प्रतिशत ज्ञात कीजिए

ह्त्यारे एक दम सामने नहीं आते

इसे प्रदषण से कम, भेडि़यों से अधिक ख़तरा है..

इसे यहं भी देखें रवि रावतभाटा . रवि से संपर्क कर सकते है ravikumarswarnkar@gmail.com

जाएं तो जाएं कहां !

- दो राहे पर खड़ा राजस्थान का मुस्लिम मतदाता

- विजय प्रताप

राजस्थान में लोकसभा चुनावों टिकट बंटवारे से लेकर प्रचार तक में यहां के दोनों ही राष्ट्ीय दलों को जातिगत नेताओं के आगे नाक रगड़नी पड़ी। हांलाकि दलाल प्रवृत्ति के यह नेता अंततः राजनैतिक दलों से सौदेबाजी कर जनता के भरोसे व विश्वास की कीमत वसूल चुके हैं। पिछले वर्ष भाजपा के ‘ाासनकाल में हुए गुर्जर आंदोलन में 70 से अधिक गुर्जरों को पुलिस ने गोलियों से भून दिया। उस आंदोलन से चर्चा में आए कर्नल किरोडी लाल बैंसला आज उसी भाजपा की गोद में जा बैठे हैं। मीणा जाति के नेता किरोड़ी लाल मीणा भी अंत समय तक कांग्रेस से सौदे बाजी करते रहे। अन्ततः कांग्रेस ने उनके साथ के ज्यादातर विधायकों को अपनी तरफ मिला मीणा को ही अकेला छोड़ दिया।
इन सब के बीच राज्य का एक बड़ा वोट बैंक अल्पसंख्यक मुसलमान चुनाव के अंतिम क्षणों तक खामोश है। न तो उसकी तरफ से कोई ऐसा नेता निकल कर आया जो उसके लिए राजनैतिक दलों से मोलभाव करे और न ही इस समुदाय के बीच से कोई ऐसी आवाज उठी जो दोनों मुख्य दलों की नीतियों का विरोध करे। इस चुनाव में प्रदेश में कांग्रेस और बसपा को छोड़कर किसी भी राष्ट्ीय दल ने मुसलमान को टिकट नहीं दिया। प्रदेश के मुस्लिम हमेशा कांग्रेस के साथ रहे हंै, इसलिए कांग्रेस की भी मजबूरी है कि उसे खुश करने के नाम पर ही सही एक टिकट मुस्लिम उम्मीदवार को दे। सो उसने इस बार चुरू संसदीय सीट से रफीक मण्डेलिया को टिकट दिया है। बसपा ने नागौर से एक पूर्व कांग्रेसी मंत्री अब्दुल अजीज को टिकट दिया है। इसके अलावा दौसा आरक्षित सीट पर कश्मीरी गुर्जर मुसलमान नेता कमर रब्बानी चेची ने पर्चा भर कर वहां मुकाबला त्रिकोणात्मक कर दिया है। इन तीन सीटों के अलावा प्रदेश में कहीं भी कोई मुस्लिम उम्मीदवार मुकाबले में नहीं दिखता। साढ़े पांच करोड़ की आबादी वाले इस प्रदेश में मुसलमानों की आबादी करीब साढे़ आठ फीसदी है। बावजूद इसके चुनावांे में उसे हाशिए पर ढकेला जा चुका है। इसके पीछे कुछ अहम कारण हैं, जिनकी पड़ताल की जानी जरूरी है।
ऐसा नहीं की प्रदेश में मुसलमानों के पास कोई मुद्दा या सवाल नहीं। हां उनके मुद्दे पर सही ढं़ग से आवाज उठाने वाले नेताओं या संगठनों की कमी जरूर है। प्रदेश की द्विधु्रवीय राजनीति में यह विकल्पहीनता ही इस समुदाय को मजबूर करती है कि वो कांग्रेस या भाजपा में से किसी एक को चुन ले। ऐसे में मुसलमानों के सामने कांग्रेस के साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। इस लोकसभा चुनाव से भी ठीक पहले राज्य के 22 मुस्लिम संगठनों ने राजस्थान मुस्लिम फोरम के बैनर तले, संघ व उसकी सहोदर ‘ाक्तिओं को सत्ता से दूर रखने के नाम पर कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की है। हांलाकि कांग्रेस को समर्थन देने की मजबूरी को इस फोरम के नेता भी छुपा नहीं सके। फोरम के संयोजक कारी मोइनुद्दीन इसे मुश्किल किंतु राष्ट्हित का निर्णय बताते हैं। उनका कहना है कि प्रदेश में सांप्रदायिक तत्वों को सत्ता से दूर रखने का और कोई विकल्प नहीं है। कांग्रेस को बिना ‘ार्त समर्थन देने पर अपनी सफाई में कारी कहते हैं कि कांग्रेस को चुनने के पीछे कोई विशेष लगाव या कांग्रेस अच्छी पार्टी है जैसी कोई बात नहीं। हमारी कांग्रेस से भी लाखों शिकायते हैं। लेकिन उसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता इसलिए कांग्रेस को समर्थन देना एक राजनीतिक निर्णय है। फोरम में ‘ाामिल जामत-ए-इस्लामी हिंद के राज्य अध्यक्ष मोहम्मद सलीम इंजीनियर भी इसे ‘दर्दनाक खुशी’ कहते हैं। यह दर्द उभरे भी क्यों न। पिछले कुछ सालों में राज्य में भाजपा व संघ की सरकार ने उनके दिलों के घावों को और कुरेदा है। सलीम इंजीनियर बताते हैं कि ‘‘भाजपा ‘ाासनकाल में राज्य में 100 से अधिक छोटे-बड़े दंगे हुए। इस दौरान प्रदेश में न केवल मुसलमानों को बल्कि अल्पसंख्यक इसाई समुदाय को भी भय व असुरक्षा के साये में जीना पड़ा है। धर्म स्वातन्त्र बिल के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय की आजादी पर लगाम कसने की कोशिश की गई।’’ दरअसल राजस्थान में भी गुजरात की तर्ज पर भाजपा के माध्यम से राष्ट्ीय स्वयं सेवक संघ ने हर तरह से अपने एजेंडे को लागू करने की कोशिश की। संघ व उससे जुड़े संगठनों ने छोटी-छोटी घटनाओं को सांप्रदायिक रूप देकर अल्पसंख्यकों पर हमला किया। फरवरी 2005 में कोटा रेलवे स्टेशन पर आंध्र प्रदेश से किसी धार्मिक सभा में भाग लेकर लौट रहे 250 ईसाइयों पर बजरंग दल, भाजपा व संघ कार्यकत्र्ताओं ने हमला बोल दिया। इस घटना के बाद पीड़ितों की शिकायत दर्ज करने की बजाए पुलिस ने हमलावरों की तरफ से ही जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश का मामला दर्ज किया। उस समय राज्य के पुलिस महानिदेशक ए एस गिल के संघ से रिश्ते जगजाहिर थे। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले नवम्बर 2008 में जयपुर में श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने रही सही कसर पूरी कर दी। इसके बाद बड़े पैमाने पर मुसलमानों की गिरफ्तारियां हुई। जयपुर, कोटा, जोधपुर, सीकर, बूंदी व बारां जिलों से पचासों मुसलमान युवकों को एसटीएफ ने पूछताछ के नाम पर उठाया। उनके रिश्ते बांग्लादेशी संगठन हरकत-उल-जेहाद-ए-इस्लामी व इंडियन मुजाहिद्दीन के साथ बताए गए। पूछताछ के नाम पर उन्हें हफ्तों मानसिक प्रताड़ना दी गई। इसमें से करीब 27 युवक अभी भी जेल की सलाखों के पीछे अपना अपराध सिद्ध होने का इंतजार कर रहे हैं। जयपुर बम विस्फोट से पहले 2007 में अजमेर के ख्वाजा मुउनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के सामने हुए बम विस्फोट के मामले में भी पुलिस ने अपनी मानसिकता के अनुरूप कई मुस्लिम युवकों को उठाया। दो सालों तक संघ के साये में इसकी जांच चली। लेकिन कुछ दिन पहले ही यह खुलासा हुआ कि अजमेर विस्फोट में अभिनव भारत जैसे हिंदू आतंकवादी संगठन का हाथ था। राज्य की पुलिस ने अब इस दिशा में जांच ‘ाुरू कर दी है। संघ गुजरात के बाद राजस्थान को दूसरी प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किया। पिछले पांच सालों में राज्य में संघ ने अपना जबर्दस्त जाल फैलाया और वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से आदिवासी जातियों के बीच भी मुसलमानों व इसाई अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा का बीज बोया। मुसलमानों को यह सारी कसक रह-रह कर टीस देती है। इस दर्द को मुस्लिम मतदाताओं की बातों में भी महसूस किया जा सकता है। कोटा में रहने वाले राशीद वोट देने के सवाल पर कहते हैं कि ‘‘वोट देकर ही क्या होगा। कौन सी पार्टी मुसलमानों का भला चाहती है। चुनाव के समय हमे सभी अपना कहते हैं, लेकिन चुनाव बाद फिर से हमारे बेटों को आंतकवादी व पाकिस्तानी बताया जाने लगता है।’’ राशिद अपनी बातों में जयपुर बम धमाकों के बाद कोटा से उठाए गए लड़कों की तरफ इशारा कर रहे हैं। इन धमाकों के बाद कोटा से फर्जी गिरफ्तारियों पर यहां के मुस्लिम समुदाय प्रतिक्रियास्वरूप कई महीनों तक खुद को अलगाव में रखा। मुस्लिम धर्मगुरुओं ने मीडिया विशेषकर यहां के दो प्रमुख समाचार पत्रों का कई महीनों तक बहिष्कार किया। राज्य के अन्य जिलों में भी मुस्लमानों ने कुछ इस तरह अपना विरोध दर्ज कराया। जयपुर में बांग्लादेशी मजदूरों की गिरफ्तारियों व मुसलमानों को प्रताड़ित किए जाने पर जमात ए इस्लामी हिंद व अन्य संगठनों ने एक यात्रा निकालकर इस बंटवारे की राजनीति का विरोध किया। इस समय कांग्रेस का एक भी नेता खुलकर मुसलमानों के समर्थन में नहीं आया। अब जब कि चुनाव हो रहे हैं कांग्रेसी नेता इस बात को बेहतर तरीके से जानते हैं कि मुुसलमान उन्हें छोड़कर कहीं जा नहीं सकते, इसलिए उन्हें भी मुस्लिम हितों की कोई परवाह नहीं।
राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो राजस्थान का मुसलमान समुदाय उत्तर प्रदेश या बिहार की तरह खुशनसीब नहीं जो कांग्रेस या भाजपा से शिकायत होने पर किसी अन्य दल के साथ जाकर राजनीति में अपनी भागीदारी दर्ज करा सके या कुछ हासिल कर सके। राजस्थान के एक माक्र्सवादी नेता शिवराम कहते हैं कि यहां की परिस्थितियां इन राज्यों से भिन्न हैं। उत्तर प्रदेश या बिहार में मुस्लिम समुदाय के पास विकल्प है तो इसके मूल में वहां मंडल कमंडल आंदोलन का व्यापक प्रभाव है। इन दोनों राज्यों में बाबरी विध्वंस और उसके बाद पिछड़ी जातियों के आरक्षण आंदोलन ने न केवल मुसलमानों को बल्कि हिंदूओं के भी पिछड़े व दलित तबके को भाजपा व कांग्रेस की सांप्रदायिक व बंटाने वाली राजनीति से दूर ले गई। एक तरफ यह दूरी ऐसी जातियों को दूसरे विकल्पों की तलाश करने पर मजबूर किया तो दूसरी तरफ उनके और मुस्लिम समुदाय के बीच की दूरियों को भी कम कर दिया। इससे पहले तक भाजपाई व कांग्रेसी राजनीति का आधार हुआ मुसलमानों व हिंदूओं की बीच की यह दूरी ही सत्ता पाने की कुंजी हुआ करती थी। इसके बाद से इन राज्यों के मुस्लिम समुदाय के साथ भले ही छोटे दलों ने धोखा किया हो, लेकिन वह अभी भी कांग्रेस या भाजपा के साथ जाने पर मजबूर नहीं है।
मीडिया बार-बार कुछ धार्मिक मुस्लिम नेताओं के माध्यम से दिखाने की कोशिश करती है कि मुसलमानों के लिए बाबरी मस्जिद निर्माण या धार्मिक संरक्षण जैसे ही मुद्दे अहम हैं। लेकिन राजस्थान में आम मुसलमानों से बात करिए तो उनका यह कत्तई मुद्दा नहीं। उनके भी मुद्दे वही हैं जो एक हिंदू मतदाता का है न कि किसी कठमुल्ला मुस्लिम धर्मगुरू का। एक सेल्समैन का काम कर रहे 25 वर्षीय युवा आफताब कहते हैं कि उन्हें केवल उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार चाहिए। उनके लिए मस्जिद-मंदिर कोई मुद्दा नहीं है। बीबीए कर चुके आफताब को सेल्समैन का काम करना पड़ रहा है। वह चाहते हैं कि राज्य से बाहर दिल्ली या मुबंई जाकर किसी कंपनी में काम करे। लेकिन आतंकवादी घटनाओं के बाद धड़ाधड़ मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी से उनके माता-पिता आतंकित हैं। उनकी मां ‘ाबाना बेगम कहती हैं ‘‘ हम कम पैसों में भी गुजारा कर लेंगे। लेकिन अल्ला उसे सलामत रखे।’’ एक स्वयं सेवी संगठन में काम कर रहे अनवार अहमद कहते हैं कि ‘‘ सरकार किसी की भी बन जाए सभी हमे पिछड़ा ही रखना चाहते हैं। यही उनकी राजनीति का आधार है।’’ सच्चर कमेटी रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहते हैं कि उसमें हमारी सारी सच्चाई साफ हो गई। लोग कहते हैं हम मदरसों में इस्लामिक शिक्षा ले रहे हैं कितने मुसलमानों के बच्चे मदरसे जाते हैं? सरकारें तो हमें अनपढ़ ही रखना चाहती हैं ताकि वो आगे न बढ़ सके और उनके बारे में वह भ्रम फैलाती रहें। हांलाकि अच्छी सरकार के सवाल का उनके पास भी कोई विकल्प नहीं है। वह चाहते हैं सरकार चाहे जिसकी बने पिछड़े-गरीब तबकों को लाभ मिले क्योंकि गरीबी में हिंदू या मुस्लिम को कोई बंधन नहीं। कुल मिलाकर राज्य का मुस्लिम समुदाय दो राहे पर खड़ा है। एक रास्ता भाजपा व संघ के फासीवादी यातनागृह की ओर जा रहा है तो दूसरा रास्ता छद्म धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़े कांग्रेसी कैंप तक। यहां के मुस्लिम, उजले भविष्य का सपना संजोए वह अंधेरे रास्ते की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।

जंगल के बीच एक रात

विजय प्रताप

कोटा। दरा वन्यजीव अभयारण्य में एक बार फिर वन्यजीव गणना हुई। रविवार को खत्म हुई इस दो दिवसीय कार्रवाई में पैंथर और रीछ की मौजूदगी के संकेत मिले हैं। मांसाहारी जानवरों का कम दिखना हालांकि चिंता का मसला रहा, लेकिन जरख, जंगली सूअर, सियार, लोमडी, कबर बिज्जू, तीतर और जंगली बिल्ली के झुंड खूब नजर आए।वन विभाग ने बुद्ध पूर्णिमा की रात हुई वन्यजीव गणना में स्वयंसेवी संगठनों, शोध छात्रों व मीडिया को भी शामिल किया। इस पत्रिका संवाददाता ने पूरे दो दिन अभयारण्य में बिताने के बाद दिलचस्प मुहिम का लेखाजोखा खींचा। एक रिपोर्ट:

मैं शनिवार शाम 5 बजे तक दरा अभयारण्य में पहुंच गया था। 274 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले दरा अभयारण्य के 55 वॉटर पॉइंट्स (जहां जानवर पानी पीते हैं) पर वनकर्मी पहले ही "सेट" हो चुके थे। उप वन संरक्षक (वन्यजीव) अनिल कपूर ने क्षेत्रीय वन अधिकारी जयसिंह राठौड व कुछ अन्य पर्यावरण पे्रमियों के साथ दरा अभयारण्य में प्रवेश किया। इसी दल में मैं भी था। अधिकारियों ने पहले ही बता दिया था कि हर वॉटर पॉइंट पर दो वनकर्मी तैनात हैं। उन्हें अपने पॉइंट पर आने वाले जानवरों की संख्या व समय नोट करना था।

जंगल के कैसे-कैसे नियम

रास्ते में अनिल कपूर जंगली जानवरों के बारे में अहम बातें बताते रहे। मसलन पानी पीने के मामले में वन्यजीवन अघोषित "प्रोटोकॉल" का पालन करता है। शाम 5 से रात 8 बजे तक पहले शाकाहारी जानवर और उसके बाद मांसाहारी जीव पानी पीते हैं। शाम साढे पांच बजे हम बंदे की पाल पहुंचे। यहां कोई जानवर नहीं दिखा। 6-7 किलोमीटर चलने के बाद सांभर का झुंड नजर आया, जो गाडी की आवाज सुनते ही ओझल हो गया। इसके बाद जैसे-जैसे आगे बढे, चीतल, बंदर, मोर व नीलगाय के झुंड दिखते रहे। वॉटर पॉइंट से जरख, जंगली सूअर, सियार, लोमडी, कबर बिज्जू, तीतर व जंगली बिल्ली के झुंड देखे जाने की सूचनाएं मिलने लगीं। ... लेकिन हमारा मुख्य लक्ष्य तो पैंथर खोजना था!

एक गांव में एक निवासी

बंदे की पाल, झामरा चौकी होते हुए पथरीले रास्तों के बीच दल करीब 7 बजे लक्ष्मीपुरा चौक पहुंच गया। यहां वन विभाग के रेस्ट हाउस के पास जर्जर हालात में सात-आठ टापरियां नजर आइंü। पता चला कि इसी गांव को विस्थापित किया जाना है, तो उत्सुकतावश उन घरों में जा पहुंचा। 7 बजे ही यहां मानो रात पसर गई थी। आवाज लगाने पर 24 साल का एक युवक भोजराज बाहर आया। उसने बताया कि यहां के लगभग सभी परिवार दूसरे गांवों में जा चुके हैं। हालांकि मुआवजे की आस में उन्होंने अभी तक पुश्तैनी जमीन का कब्जा नहीं छोडा है।

सोया नहीं था सा"ब!

लक्ष्मीपुरा रेस्ट हाउस में चाय पीने के बाद हम रात करीब 8 बजे राम तलाई पहुंचे। गाडी की आवाज सुन कर एक वनरक्षक और एक लटधारी ग्रामीण आंखें मिचमिचाते हुए आए। डीसीएफ ने पूछा, "सो रहे थे क्याक्" जवाब मिला, "नहीं साब, जाग रहा था।" "कुछ दिखा क्याक्" "नहीं, अभी तो कुछ नहीं दिखा", वनरक्षक ने मुंह पोंछते हुए कहा। "सोओगे तो क्या दिखेगा", डीसीएफ बोले। "एक रात की बात है जगे रहो", डीसीएफ ने हिदायत दी और आगे बढ गए।पैंथर के निशान दिखेलक्ष्मीपुरा चौक रेस्ट हाउस पर कुछ घंटे रूकने के बाद सुबह का उजाला होने से पहले ही हम फिर रवाना हो चुके थे। सुंदरपुरा की चौक, बेवडा तलाई और राम सागर में वनरक्षकों ने भालू के पगमार्क दिखने की सूचना दी। सबसे सुखद खबर मिली कैथूनी कल्ला से। यहां वनरक्षक ने पैंथर का पगमार्क प्लॉस्टर ऑफ पेरिस पर जमा रखा था। कोलीपुरा रेंज के शेलजर से भी पैंथर के पगमार्क मिलने की सूचना मिली। रविवार शाम 5 बजे के बाद लौटे वनकर्मियों ने लक्ष्मीपुरा व मशालपुरा के बीच नारायणपुरा व गागरोन फोर्ट के पास गिद्ध कराई में भी पैंथर के पगमार्क दिखने की जानकारी दी।

ये जानवर दिखे

उप वन संरक्षक (वन्यजीव) अनिल कपूर ने बताया कि गणना समाप्त होने के बाद दरा व जवाहर सागर वन्यजीव अभयारण्य से 10 पैंथर, 13 भालुओं के अलावा 23 प्रजातियों के अन्य वन्यजीव देखे गए। इनमें चीतल, सांभर, काला हिरण, चिंकारा, भेडिया, लोमडी, जरख, जंगली बिल्ली व सूअर, गोह, गिद्ध, बंदर व मोर प्रमुख हैं।

साभार राजस्थान पत्रिका

कैसा चुनाव कैसा सर्वसमाज


राजीव यादव

‘हां हम लोगों ने ही मारा। मारा ही नहीं नंगा करके पीटते हुए घुमाया और सूअर बाड़े में बंद कर दिया था। वो हमारे जाति-बिरादरी के लोगों को मारकर पेड़ पर टांग दे रहे हैं और हमसे कह रहे है, वोट हमें ही पड़ेगा नहीं तो कहीं नहीं पड़ेगा।’ नाम पूछने पर उस पूरे समूह के माथे पर रोष की लकीरें साफ तन जाती हैं, जो एक स्वर में गुस्से से कहते हैं कि पुलिस में रपट लिखाओगे न, जाओ लिखा देना पूरे गांव ने उसे पीटा था। इलाहाबाद लोकसभा क्षेत्र के भुंडा गांव में बसपा के ‘ब्राह्मण भाई चारा समीति’ के अध्यक्ष अक्षयवर नाथ पाण्डेय ने सोनकर समाज के लोगों को अपने पक्ष में वोट डालने या कहीं नहीं डालने के लिए दो तीन दिनों से लगातार धमका रहे थे। आखिरकार पारा तेइस तारिख को मतदान बूथ पर गर्म हो गया और सोनकर समाज के लोगों ने उन्हें बुरी तरह पीटा।

यंू तो ये बात जगजाहिर है कि गंुण्डे-माफिया हाथी के महावत बन गए हैं। पर चुनावों में लाज-शरम ही सही उनको अपने दायरे में रहना पड़ता था। पर पिछले दिनों जिस तरह से इंडियन जस्टिस पार्टी के बहादुर लाल सोनकर की हत्या की गई और फिर सोनकर समाज के वोट को रोकने का जो सर्वसमाज अभियान चलाया जा रहा है वो बहन जी को मंहगा पड़ सकता है। सत्ता के मद में चूर जंगली हाथी के दिल्ली कूच के सर्वजन अभियान में बहुजन का उसके प्रति विक्षोभ बढ़ता ही जा रहा है जो दूसरे चरण के मतदान में इलाहाबाद, फूलपुर, कौशांबी और बांदा समेत आस-पास की सीटों पर दिखा।
कभी नेहरु की सीट रही फूलपुर के मैनापुर, मदारीपुर, जलालपुर, तारापुरा समेत यमुना किनारे के बीसियों गावों ने चुनाव बहिष्कार कर दिया। जलालपुर में जहां 215 वोट पडे़ तो वहीं लोकतंत्र की लाठी के बदौलत तारापुर में 20 वोट पड़े। साहब हमारा गांव अंबेडकर गांव है पर यहां न बिजली है न पानी है ऊपर से है तो करवरिया, तो फिर हम क्यों वोट दें। मैनापुर के फूलचंद निषाद का यह संबोधन बसपा प्रत्याशी कपिल मुनि करवरिया के लिए था। वे आगे कहते हैं कि करवरिया की ये जो चमचमाती हुई गाड़ियां देखते हैं वो हम बालू मजदूरों के खून को चूस कर ली गई हैं। निषाद जो बसपा के पारंपरिक वोटर है आज वो नदी से बालू निकालने के लिए हर खेप पर 200 रुपए बालू माफियाओं को देने के लिए मजबूर हैं। यहां करवरिया की पूरी पहचान ही बालू ठेकेदार की है। यहीं के रामचंद्र निषाद बताते हैं कि 200 वाला रेट नया है इससे पहले 100 और 50 वाला था। पूछने पर कहते हैं कि साहब करवरिया को बहन जी को पैसा देना होता है न।
यमुना के इस पूरे क्षेत्र में बालू माफियाओं के खिलाफ चल रहे आंदोलन में सीपीआई एमएल न्यू डेमोक्रेसी की अहम भूमिका है। न्यू डेमोक्रेसी के इस पूरे आंदोलन को नक्सल गतिविधियों के रुप प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है। जिसे करवरिया पोषित स्थानीय मीडिया जोर-शोर से कर रही है। जबकि न्यू डेमोक्रेशी चुनावी लोकतंत्र में आस्था रखने वाली पार्टी है इसकी तस्दीक इलाहाबाद से उनके प्रत्याशी हीरालाल का चुनाव लड़ना है। न्यू डेमोक्रेसी के नेता सुरेश चंद्र कहते हैं कि लाल सलाम का हौव्वा खड़ा कर इस पूरे क्षेत्र को नक्सल प्रभावित क्षेत्र की सूची में लाने साजिश चल रही है, जिससे उसके नाम पर भारी पैमाने में यहां सरकारी पैकेज आए और शासन-प्रशासन उसकी बंदरबाट कर सके।
बालू खनन के लिए बालू माफिया द्वारा मशीनें लगाना भी बालू मजदूरों को बेरोजगारी और भुखमरी की ओर धकेल चुका है। जब कि सरकार और न्यायलयों ने अपने कई महत्वपूर्ण निर्देषों में स्पष्ट कहा है कि बालू उत्खनन के लिए मशीनों का उपयोग किसी भी सूरत में न हो। लेकिन भ्रष्ट प्रशासन और हाथी सवार माफिया की मिली भगत से उच्चन्यायलय के निर्देषों की खुलेआम धज्जीयां उड़ाई जा रहीं है। चायल के एस.डी.एम. अनिल कुमार उपाध्याय तो पूरी बेशर्मी से झूठ बोलते हुए बालू उत्खनन माफिया द्वारा मशीनों के इस्तेमाल को वैध बताते हुए दावा करते हैं कि हाईकोर्ट ने ही मशीनें लगाने का निर्देष दिया है। लेकिन वे न तो फैसले की तिथि बताने को तैयार है और न ही उसकी प्रतिलिपी ही दिखाने को।
जबकि सच्चाई तो यह है कि जब बालू मजदूरों ने अपना रोजगार छिनते देख मशीनों को बंद करने के लिए दसियों हजार की संख्या में जिला मुख्यालय पर धरना दिया तब उच्च न्यायलय ने मामले को स्वतः ध्यान में लेते हुए इसमें हस्तक्षेप किया। मई 2008 में इलाहाबाद उच्च न्यायलय के न्यायमूर्ति जनार्दन सहाय और न्यायमूर्ति एस.पी मेहरोत्रा की एक खंडपीठ ने बालू खनन कार्य में मशीनों के चलाये जाने के अधिकार पर एक सुनवाई की जिसमें उसने स्पष्ट निर्देश दिया कि पर्यावरण की सुरक्षा और रोजगार के लिए मशीनों का इस्तेमाल न किया जाय। आदेश में आगे सरकार सेे इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए बालू माफिया के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने का आदेश भी दिया गया। लेकिन जब विधानसभा में पूर्ण बहुमत हो, विपक्ष भ्रष्ट और अलोकप्रिय हो, और सपना प्रधानमंत्री बनने का हो तब न्यायलयों की फैसलों की क्या औकात। हाथी के गणेश बनने के बाद उस पर सवार हुए कपिल मुनी करवरिया हों या कबीना मंत्री और ‘इनको मारो जूते चार’ के जमाने वाले ख़ाटी महावत इंद्रजीत सरोज सभी की मशाीनें अपने ही पारंपरिक मल्लाह वोटरों को मुंह चिढ़ा रही हैं।
दरअसल इस पूरे क्षेत्र में दबंगई, वो चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, का अखाड़ा नदी और रेत ही रहा है। जिस पर करवरिया कुनबा शुरु से ही एक मजबूत पाला है। जिसके आतंक का अंदाजा इसी से लग जाता है कि कपिल मुनि करवरिया के पिता वशिष्ठ मुनि करवरिया ऊर्फ भुक्कल महराज जिन पर आधा दर्जन हत्या और डकैती के आरोप थे अपने विरोधियों को पालतू मगरमच्छों के आगे जिन्दा डाल देने के लिए कुख्यात थे। भुक्कल महराज पर ये भी आरोप है कि उन्होंने पुलिस की राइफल से 17 पासी समाज के लोगों की हत्या कर यमुना में फेंक दिया था।
इस पूरे इलाके में पासी मत निर्णायक है। इसी के चलते कौसांबी सुरक्षित सीट से गिरीश पासी पर बसपा ने अपना दांव चला। बालू माफिया की पहचान वाले गिरीश ने पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के राजनैतिक खासमखास सीपी सिंह की हत्या से अपने ‘राजनैतिक करियर’ की शुरुवात की थी। कपिल मुनि करवरिया को टिकट मिलने के चलते पासियों का एक बड़ा खेमा गिरीश के साथ नहीं है। जिसका असर ये रहा कि मल्हीपुर से जहां ईवीएम को बैरंग लौटना पड़ा तो वहीं नंदापुर में एक सैकड़ा भी मत नहीं पड़ा। यहां भी यमुना किनारे के दर्जनों गांवों के बालू मजदूरों ने लोकतंत्र के इस महोत्सव का बहिष्कार कर अपनी मांगों को केंद्र में ला दिया।
इस राजनीति को गौर से देखने वाले मानवाधिकार संगठन पीयूएचआर के नेता राजकुमार पासवान कहते हैं ‘बसपा से दलितों की दूरी बढ़ रही है, जिसे दलितों के नाम पर बनी अन्य पार्टियां एक हद तक आकर्षित करने में सफल भी रही हैं।’ पर वे इस नए दलित उभार पर अविश्वास की मुहर लगाते हुए कहते हैं कि चाहे बसपा हो या इंडियन जस्टिस पार्टी ये सभी ब्यूरोक्रेटों द्वारा खड़ी की गई पार्टियां हैं। जो उदित राज बसपा पर दलित आंदोलन को कुंद करने का आरोप लगाते हैं उन्होंने क्यों नहीं बहादुर लाल सोनकर की हत्या को राजनैतिक मुद्दा बनाया। वे मायावती की कार्यनीति पर सूक्ष्मता से निगाह डालते हुए कहते हैं कि बहन जी कानून व्यवस्था की बात करती हैं पर क्या उन्होंने कभी मजबूत विपक्ष की भूमिका अदा की या फिर किसी दलित उत्पीड़न की घटना पर कोई आंदोलन खड़ा होने दिया। ऐसा उन्होंने नहीं किया क्योंकि वे जानती हैं कि प्रतिरोध की चेतना से लैस दलित उनकी भी खिलाफत कर सकता है।
बहरहाल सर्वसमाज के इस बिगड़ते समीकरण का खामियाजा कांग्रेस से बसपा में आए राजनैतिक गणितबाज अशोक बाजपेयी को इलाहाबाद में भुगतना पड़ सकता है। इसी बौखलाहट के चलते उनके बेटे हर्षवर्धन ऊल-जलूल कुछ भी बोलते फिर रहे थे। जिसका खामियाजा उनके समर्थकों को कभी नंगा करके पीटने से लेकर उनके काफिलों पर हुए पथराव में भी दिखा।

आम चुनाव ऊर्फ ऐसा देश है मेरा

दुष्यंत

नहीं, ये किसी विशेषज्ञ की राय नहीं है, राजनीतिक राय तो हरगिज नहीं. आप चाहें तो इसे एक आम आदमी के नोट्स मान सकते हैं.बुनियादी परन्तु सतही बात से शुरू करुं तो राजस्थान में लोकसभा की 25 सीटें हैं, जिन पर 7 मई को मतदान होगा.पिछले लोकसभा चुनाव में 21 पर भाजपा जीती थी तो 4 पर कांग्रेस. इस बार भाजपा और कांग्रेस हर बार की तरह सभी सीटों पर चुनाव लड़ रहें हैं. बसपा की हवा इसलिए निकली हुई है कि सभी 6 विधायकों ने सत्तारूढ कांग्रेस में जाने का हाल ही में निर्णय ले लिया.खैर ये तो हुई सामान्य बात, अब कुछ अलग ढंग से देखा जाये, अपनी चार यात्राओं का सन्दर्भ लूंगा. एक महीने में अपने गृह क्षेत्र की दो यात्रायें, एक यात्रा मारवाड़-पाली क्षेत्र की और एक साल भर पहले की दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र की.मेरा गृह क्षेत्र है उत्तरी राजस्थान यानी गंगानगर और हनुमानगढ़ ..पाकिस्तान की सीमा से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर अपने खेतों को छूने की हसरत से गया. कोई पिछले ढाई दशक से जब से होश संभाला है, इस गाँव और खेत के मंजर को देखते आया हूँ. लोग कहते हैं बहुत कुछ बदला है. मुझे पता है, बदला तो बहुत कुछ...ऊँटों की जगह ट्रेक्टर आ गए. पहले फोन घरों में आये फिर हाथों में मोबाइल आ गए. पढी लिखी बहुंए आ गयी, हर घर में कम से कम एक दोपहिया फटफटिया ज़रूर है. कोई साढे तीन दशक पहले मेरे गाँव से तीन किलोमीटर दूर के पृथ्वीराजपुरा रेलवे स्टेशन से जो अंग्रेजों के जमाने का है; से मेरी मां दुल्हन के रूप में ट्रेन से उतरकर ही इस गांव तक आयी थी. मेरे बचपन में गाँव तक शहर से बस जाती थी, कोई पांच बसें. यही पांच वापिस लौटती थीं, सब की सब बंद हो गयी हैं. अब सिर्फ टेंपो चलता है, बिना किसी तय वक्त के, जब भर दिया तो चल दिया...! बचपन में जहां मेरे गाँव में बीड़ी और हुक्के के अलावा कोई चार पांच लोग शराब पीते होंगे, अब तरह-तरह के नशे युवाओं की जिन्दगी में शामिल हैं, जिन्होंने उन शराबियों को तो देवता-सा बना दिया दिया है. और ये हालत कमोबेश आसपास के हर गाँव की है. हमने तरक्की के कितने ही रास्ते तय किये हैं! मेरे पिता गाँव के जिस सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़े थे दसेक साल पहले वो मिडिल हो गया था. पर अब उसमें बच्चे नाम को हैं. मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आने वाले दो चार सालों में वो बंद हो जाये. सुना है उसमें मास्टर सरप्लस हैं. ये भी तरक्की है कि नाम के अंग्रेजी या पब्लिक स्कूलों में कम पढ़े-लिखे मास्टरों के पास बच्चों को भेजकर गाँव खुश है.
नरेगा है पर गाँव में भूख भी है। स्कूल है, पढाई है पर बेरोजगारी भी है। नयी पीढी ने खेत में हाथ से काम करना बंद कर दिया है , तीजिये चौथिये पान्चिये से ही काम होता है. भारत चमकता है जब सफ़ेद झक्क कुरते पायजामे में पूरे गाँव के लोग दिखते हैं. किसी की इस्त्री की क्रीज कमजोर नहीं है॥अद्भुत अजीब से आनंद हैं ॥ कागजी से ठहाके हैं...भविष्य कुछ भी नहीं पता. एक और बदलाव आते देखा है छोटे किसानों की ज़मीनों को कर्ज निपटाने के लिए बिकते और फिर उनको मजदूर बनते भी देखा है.. मुहावरे में कहूं तो कर्ज निपटाने में जमीन निपट गई और अब खुद भी कब निपट जाए, कौन जानता है? कर्ज से मुक्ति की चमक उनकी ऑंखों में ज्यादा है या कि ऑंखों के कोरों से कभी आंसू बनके टपकता अपनी ज़मीन जाने का दर्द बड़ा है ..मैं सोचता रहता हूँ.. वो भी आजादी का मतलब ढूंढते हैं शायद.मध्य राजस्थान का मारवाड़ का इलाका यूँ तो बिजी जैसे लेखक के कारण स्मृतियों में है पर इन सालों में कई बार जाना हुआ है... पाली के एक इंटीरियर इलाके में किसी पारिवारिक कारण से जाता हूँ. दूर तक हरियाली का नामों निशान नहीं. चीथड़ों में लोग दीखते हैं. जीप का ड्राईवर कहता है- साब यहाँ का हर गरीब सा दिखने वाला करोड़पति है..विश्वास नहीं होता. वो कहता है-हर घर से कोई न कोई मुंबई, सूरत या बैंगलोर नौकरी करता है...यहाँ खेती तो है नहीं साहब...! मुझे उसकी बात कम ही हजम होती है..क्योंकि मुनव्वर राणा का शेर कभी नहीं भूलता कि बरबाद कर दिया हमें परदेश ने मगर, मां सबसे कह रही है बेटा मजे में है दूर तक..या तो ये ड्राइवर उसी थव से कह रहा है या कि अपने लोगों की बेचारगी-मुफलिसी का मजाक नहीं बनने देता. दरअसल सच तो ये ही है ना कि दूर तक बियाबान है. किसी हड्डी की लकड़ी-सी काया पर ऊपर रखी हुई लोगों की आंखें किसी परदेसी की जीप का शोर सुनकर चमकती है..मैं उसमें साठ साल की आजादी का मतलब ढूंढता हूँ. जिस नज़दीक के रेलवे स्टेशन मारवाड़ जंक्शन पर उतरता हूँ और फिर जहाँ से वापसी में जोधपुर के लिए ट्रेन लेता हूँ, उसके अलावा कोई साधन नहीं है, ये भी बताया जाता है. कुल मिलाकर एक अलग भारत पाता हूँ.. जो जयपुर में बैठकर सचिवालय में टहलते, कॉफी हाउस में अड्डेबाजी करते, मॉल्स में शॉपिंग करते, हर हफ्ते एक न एक फिल्मी सितारे को शूटिंग, रिबन काटने, किसी की शादी या अजमेर की दरगाह के लिए जाते हुए की खबर पढते हुए सर्वथा अकल्पनीय है.
एक साल पहले बांसवाड़ा के घंटाली गाँव में आदिवासी संसार को देखने के अभिलाषा में गया था। सामाजिक कार्यकर्ता और कम्युनिस्ट नेता श्रीलता स्वामीनाथन मेरी होस्ट थीं.
इलाका जितना खूबसूरत लोग उतने ही पतले दुबले मरियल... अल्पपोषण के शिकार...खेती नाममात्र को॥आय का कोई जरिया नहीं..भाई आलोक तोमर की किताब एक हरा भरा अकाल के सफे जैसे एक-एक कर ऑंखों के सामने खुल रहे थे..कालाहांडी का उनका शब्दचित्र अपने राजस्थान में सजीव होते पाया। हरियाली वाह...अति सुन्दर पर लोगों का जीवन...बेहद मुश्किल .. हालाँकि जीने की आदत डाल लेना इंसानी खासियत भी है और मजबूरी भी, इंसान इन क्षणों में भी मुस्कुराने के अवसर खोज लेता है.
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विरासत बचने में जुटी वसुंधरा

विजय प्रताप
राजस्थान लोकसभा चुनाव में इस बार पूर्व मुख्यमंत्री और झालावाड़ लोकसभा सीट से पांच बार सांसद रह चुकी महारानी वसंुधरा राजे को अपनी परंपरागत सीट बचाए रख पाना मुश्किल हो रहा है। इस सीट से महारानी के पुत्र दुष्यंत चुनाव लड़ रहे हैं। दुष्यंत पिछली लोकसभा में भी अपनी मां की परंपरागत सीट से ही चुनाव जीत कर संसद पहुंचे थे, लेकिन इस बार परिस्थितियां कुछ बदली हैं। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को जबर्दस्त हार का मुंह देखना पड़ा था। इस पृष्टभूमि में हो रहे चुनाव में महारानी खुद दिन रात एक कर किसी भी कीमत पर यह सीट बचाए रखना चाहती हैं। उनकी परेशानी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है वह अपने बेटे को चुनाव जीताने के लिए पुराने दुश्मनों से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं। पिछले दिनों महारानी ने भाजपा के बागी गुर्जर नेता प्रहलाद गुंजल को वापस भाजपा में लाकर एक बड़ी सफलता प्राप्त की। हांलाकि वापसी से पहले गुंजल का राजनैतिक सफर भाजपा विरोध पर ही टिका था। गुर्जर आरक्षण आंदोलन के समय गुर्जरों पर गोली चलाए जाने की घटना से नाराज गुजंल ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। जिसके बाद मुख्यमंत्री वसंुधरा राजे ने उन्हें ज्यादा दिन बर्दास्त करने की बजाए उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। उसके बाद से प्रहलाद गुंजल अपनी हर सभा में भाजपा के लिए आग उगलते देखे गए। पिछले विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने भाजपा को हराने के लिए लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी का गठन कर कई नेताओं को चुनाव लड़ाया था। जीत एक भी सीट पर नहीं मिली लेकिन भाजपा को कई सीटों पर जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया। लोकसभा चुनावों में पहले उन्हें कांग्रेस ने कोटा लोकसभा सीट स से टिकट देने का भरोसा दिलाया। लेकिन प्रतिद्वंदी प्रत्याशी को देखकर कांग्रेस को अपना निर्णय बदलना पड़ा और टिकट मिला कोटा के पूर्व महाराज इज्यराज सिंह को। हर तरफ से ठुकराए जाने के बाद भी गुंजल ने हार नहीं मानी और तीसरे मोर्चे से भी टिकट की संभावनाएं तलाश की। लेकिन इससे पहले ही महारानी वसंुधरा राजे ने सही समय भांपकर उनके घावों पर मरहम लगाने उनके घर पहुंच गई। और दो साल से चल रहे गुंजल के इस ड्ामे का अंत ‘‘राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता’’ जुमले के साथ हुआ।आखिर महारानी को इतना पसीना क्यों बहाना पड़ रहा है, जबकि उनके बेटे के सामने एक कांग्रेस ने एक नौसिखिया नेता उर्मिला जैन को मैदान में उतारा है। दरअसल वसुंधरा राजे की तरह जैन के पीछे उनके पति प्रमोद जैन भाया की इज्जत दांव पर लगी है। यहां चुनाव जनता के मुद्दों पर नहीं बल्कि इज्जत और विरासत बचाने के नाम पर लड़ा जा रहा है। ऐसे में वसुंधरा की मुश्किल के कुछ ठोस कारण भी हैं। एक तो पिछले पांच सालों में यहां से सांसद दुष्यंत सिंह ने कोई भी ऐसा काम नहीं किया जिसे लेकर वह जनता के बीच जा सके। इस संबंध मंे दुष्यंत सिंह का कहना है कि केन्द्र में कांग्रेस सरकार ने दुर्भावना के चलते कोई ठोस विकास कार्य नहीं कराने दिया। लेकिन राज्य में भाजपा की सरकार के होते हुए भी यहां किसानों व आदिवासियों की समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुई है। झालावाड़ व बारां के बड़े हिस्से में अफीम की खेती होती रही है। लेकिन पिछले कुछ सालों से नारकोटिक्स ब्यूरो ने मनमाने तरीके से किसानों के पट्टे निरस्त किए जिसके चलते हजारों किसानों को बेरोजगार होना पड़ा। इसे लेकर किसानों में एक स्वाभाविक रोष बना हुआ है। कहने को तो यह जिला राज्य की मुख्यमंत्री का क्षेत्र रहा है लेकिन जिले के सहरिया आदिवासियों के गांवों में मूलभूत सुविधाएं भी नहीं पहुंच सकी है। इसी के चलते विधानसभा चुनावों में भी सहरियाओं ने भाजपा को हराकर अपनी समाज की निर्मला सहरिया को विधायक चुना। इन सब का लाभ कांग्रेस को ही मिलने जा रहा है। दूसरी तरफ उर्मिला जैन के पति प्रमोद जैन भाया ने पिछले विधानसभा चुनावों में बारां जिले की चार विधानसभा सीटों पर व झालावाड़ की दो सीटों पर अपने पसंद के उम्मीदवारों को जीत दिला कर भाजपा ही नहीं बल्कि कांग्रेसी नेताओं के भी होश उड़ा दिए हैं। भाया की इस ‘ाानदार जीत पर ही उन्हें प्रदेश सरकार में सार्वजनिक निर्माण मंत्री जैसे महत्वपूर्ण विभाग से नवाजा गया। लोकसभा चुनावों में भी झालावाड़-बारां सीट से भाया की पत्नी के अलावा कोई योग्य उम्मीदवार नजर नहीं आया। कांग्रेस के भी कई नेता भाया के बढ़ते कद से असहज महसूस कर रहे हैं। वसंुधरा राजे की असल परेशानी भी हाड़ोती के इन दो जिलों में भाया का छाया यह जलवा है। परिसीमन से झालावाड़ लोकसभा सीट में आया बदलाव, महारानी की मुश्किले और बढ़ा दिया है। परिसीमन के बाद बारां जिले का बड़ा हिस्सा झालावाड़ लोकसभा सीट के साथ जुड़ गया है। इसका नाम भी बदल कर झालावाड़-बारां कर दिया गया है। ऐसे में इस पूरे लोकसभा सीट की आठ विधानसभा सीटों में से 6 पर कांग्रेस का कब्जा है। इस लिहाज से झालावाड़ से कांग्रेस का दावा काफी मजबूत दिख रहा था। लेकिन अंत समय में वसुंधरा ने गुंजल का समर्थन हासिल कर अपने लंबे राजनैतिक अनुभव का परिचय दिया है। इस सीट पर गुर्जर मतदाताओं की संख्या एक लाख से भी ज्यादा है। और पिछले लोकसभा चुनावों में इसमें से ज्यादातर वोट कांग्रेस को मिले थे, क्योंकि कांग्रेस ने यहां से गुर्जर समाज के ही संजय गुर्जर को टिकट दिया था। इस बार उनका टिकट काटने से भी गुर्जरों में कांग्रेस को लेकर कुछ नाराजगी पहले से है। अगर यह सभी कारण मिलकर गुर्जर मतदाताओं को भाजपा की ओर मोड़ देते हैं तो परिस्थितियां कुछ बदल सकती हैं नही ंतो यहां से वसुंधरा राजे की विरासत ढहना तय माना जा रहा है।

वंशवाद की छाँव तले लोकतंत्र का तमाशा

पंजाब की पूरी राजनीति पर है 6 परिवारों का कब्जा

इस बार का लोकसभा चुनाव कई मायनों में अहम् है। वैसे तो हर चुनावों में लोगों को प्रत्याशिओं के नाम पर ऐसे लोगों को चुनना होता था जिसका जनहित से दूर तक कोई रिश्ता नहीं होता है। लेकिन इस बार के चुनाव में कुछ नए ट्रेंड देखने को मिले हैं. लोकतंत्र के इस तमाशे में जहाँ राजस्थान में दोनों राष्ट्रिय पार्टियों ने चुनाव मैदान में ऐसे राजाओं को उतारा है जिनका इतिहास ही गद्दारी का रहा है तो दूसरी ओर उससे लगे पंजाब में लोकतंत्र वंशवाद की छाँव तले दम घोंट रहा है. जंतर मंतर में अभी तक आपने पढ़ा कैसे राजस्थान राजशाही की ओर बढ़ रहा है, अब पढी पंजाब के वंशवाद पर एक रिपोर्ट. यह रिपोर्ट है द सन्डे पोस्ट के पत्रकार प्रदीप सिंह की. - संपादक

प्रदीप सिंह

विश्व के लोकतंत्रिक इतिहास में भारत ऐसा देश है, जहां परिवारवाद की जड़ें गहरी धंसी हुई है। यहां एक ही परिवार के कई व्यक्ति लंबे समय से प्रधानमंत्री और केन्द्रीय राजनीति की धुरी रहे हैं। आजादी के तुरंत बाद शुरू हुई वंशवाद की यह अलोकतानात्रिक परंपरा अब काफी मजबूत रुप ले चुकी है। राष्ट्रिय राजनीति के साथ-साथ राज्य और स्थानीय स्तर पर इसकी जड़े इतनी जम चुकी है कि देश का प्रजातंत्र परिवारतंत्र नजर आता है। इस परिवारतंत्र को कितना लोकतांत्रिक कहा जा सकता है, यह सवाल दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।

देश के समृद्वतम राज्य पंजाब भी इससे अछूता नहीं है। या यूं कहें विभिन्न राज्यों की तुलना में पंजाब की राजनीति में सबसे ज्यादा परिवारवाद हावी रहा है तो गलत नहीं होगा। यहां शुरू से अब तक छह परिवारों (कैरो, बादल, बरार, मजीठिया, पटियाला राजघराना और बेअंत सिंह परिवार) का हीं दबदबा कायम है। इसी छह परिवारों के माननीय सदस्य अघिकतम समय तक पंजाब के मुख्यमंत्री पद को सुशोभित करते रहे है। इसके साथ ही मान और भट्ल परिवार इस सरकारी कुनबे में गलबहियां डाले नजर आता है। सत्ता और संगठन की कंुजी इसी परिवार में से किसी के पास रहती है। बाकी के सारे नेता, मंत्री दरबारी की हैसियत से ज्यादा कुछ नजर नहीं आते हैं। इन परिवारों की आपसी समझ,राजनीति और आपस में एक दूसरे के यहां रिश्तेदारियों का समिश्रण अनूठा है। इस दिलचस्प राजनीतिक रसायन का एक उदाहरण सामने है।
आदेश प्रताप सिंह कैरों पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों के पौत्र एवं सुरिंदर सिंह कैरों के पुत्र कांग्रेस से कई बार सांसद रहे हैं। ये वर्तमान मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के दामाद और पूर्व मुख्यमंत्री हरचरण सिंह बराड़ के भांजे है। आदेश प्रताप सिंह कैरों के भाई गुर प्रताप सिंह कैरों भी राजनीति के पाठशाला में दाखिल है।
पंजाब सरकार के कैबिनेट की तस्बीर इस बात को पुष्ट करने के लिए काफी है। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाली सरकार में उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल उप मुख्यमंत्री, मनप्रीत सिंह बादल (भतीजा) वित्तमंत्री, आदेश प्रताप सिंह कैरों (दामाद एवं पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों के पौत्र) खाद्य आपूर्ति मंत्री, जनमेजा सिंह (बादल के करीबी रिश्तेदार) सिचाई मंत्री है।बिक्रमाजीत सिंह मजीठिया (सुखबीर सिंह बादल का साला) कुछ दिनों पहले ही मंत्री पद से इस्तीफा दिए है। अब वह शिरोमणि अकाली दल युवा शाखा के प्रदेश प्रधान है। प्रकाश सिंह बादल की पत्नी सुरिंदर कौर अकाली दल महिला शाखा की संरक्षक हैं। बादल की बहू हरसिमरत कौर की चर्चा यदि न की जाये तो इस समय पंजाब की राजनीति के मर्म को नहीं समझा जा सकता है। कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ जनजागरण अभियान से राजनीति की शुरुआत करने वाली हरसिमरत कौर बीबी जी के नाम से मसहूर है। भटिंडा से वह लोकसभा का चुनाव अपनी पारिवारिक पार्टी अकाली दल की उम्मीदवार है। इसी सीट पर पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और पटियाला राजघराने के वारिस कै अमरिंदर सिंह के बेटे रणइंदर सिंह कांग्रेस के प्रत्याशी है। इस सीट पर दोनों परिवारों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। हरसिमरत कौर बादल की बहू होने के साथ ही जवाहर लाल नेहरु के मंत्रिमंडल के सदस्य रह चुके सत्यजीत सिंह मजीठिया की पुत्री है। दोनों परिवारों के दर्जनों सदस्य इस समय पंजाब की राजनीति में सक्रिय है। बिक्रमजीत सिंह मजीठिया कहते है कि हमारा परिवार महाराजा रणजीत सिंह के समय से जनता की निस्वार्थ सेवा कर रहा है। आजादी के पहले और अजादी के बाद पंजाब की जनता की सेवा और पंजाबियत की रक्षा करता रहा है हम पार्टी के वफादार और ईमानदार सेवक है। गौरतलब है कि अब बिक्रमजीत सिंह अकाली दल में है। इनकी पिछली पीढ़ी के लोग कांग्रेस के वफादार सेवक रहे है।
पटियाला राजपरिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों की राजनीति में सक्रियता काफी लंबे समय से है। देश भर में इस राजपरिवार के लगभग एक दर्जन लोग सत्ता का आनंद लोकतंत्र की सेवा करके ले रहे है। कै अमरिंदर सिंह वर्तमान में विधायक है। उनकी पत्नी महारानी परणीत कौर निवर्तमान लोकसभा में सांसद है। इस आम चुनाव में पटियाला संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस की प्रत्याशी है। बेटा रणइंद्र सिंह भठिंडा से लोकसभा का चुनाव लड़ रहा है। कै0 अमरिंदर की चाची और पूर्व सांसद बीबा अमरजीत कौर इस चुनाव में अकाली दल का दामन थाम चुकी है। संसद में कृपाण के साथ प्रवेश करने की जिद करने वाले सिमरनजीत सिंह मान कै अमरिंदर सिंह के साढ़ू है। फिलहाल वे और उनका कृपाण इस समय संसद के बाहर है। पूर्व विदेश मंत्री कुं नटवर सिंह, उनके विधायक बेटे जगत सिंह, हिमांचल प्रदेश की राजनीति के जाने पहचाने चेहरे कुं अजय बहादुर सिंह का इस परिवार से रिश्ता राजनीति में भी फायदा पहंुचाता रहा।
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के पुत्र तेज प्रकाश सिंह कंाग्रेस से विधायक है। उनके पौत्र रवनीत सिंह विट्टू राहुल गांधी के युवा मंडली के सदस्य और आनंदपुर साहिब लोकसभा से उम्मीदवार है। बेटी गुरकंवल कौर भी चुनाव लड़ चुकी है।


पूर्व मुख्यमंत्री हरचरण सिंह बरार के कई सदस्य राजनीति में अपना भाग्य अजमा चुके है। कुछ को सफलता मिली और कुछ जनता द्वारा नजरअंदाज कर देने पर भी सेवा करने को लालायित है। जगबीर सिंह बरार अकाली दल से विधायक है। दूसरे बेटे सन्नी बरार और बहू करन बरार कई चुनावों में भाग्य अजमा चुके है। बेटी कंवरजीत कौर बरार (बबली) और बेअंत सिंह की पत्नी गुरबिंदर कौर भी सक्रिय रही है। कांग्रेस नेत्री रजिंदर कौर भट्टल पिछले कई चुनावों से राजनीति में अपने परिवार का वंशवृक्ष रोपने की कोशिस में लगी है।विगत विधानसभा चुनाव में वह अपने भाई कुलदीप सिंह भट्टल को टिकट दिलाने और चुनाव जिताने में सफल रही है। अकाली दल ने पिछले चुनाव में पूर्व राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला के पुत्र गगनदीप सिंह बरनाला, चरनजीत सिंह अटवाल के पुत्र इंदर इकबाल सिंह अटवाल ,अकाली जगदेव सिंह के पुत्ररंजीत सिंह तलवंडी एसजीपीसी के अध्यक्ष गुरचरण सिंह टोहड़ा के सुपुत्र हरमेल सिंह टोहड़ा को विधानसभा में भेजने की तैयारी की थी। लेकिन चुनाव के दंगल में राजपुत्रों की योजना फलीभूत नहीं हो सकी। जनता ने सबको करारी शिकस्त दी।

पंजाब की राजनीति, जमीन और अर्थव्यवस्था पर एक तरह से जाटो का कब्जा है। खेती की सर्वाधिक जमीन पर इसी समुदाय का स्वामित्व है।समाजिक पायदान पर सबसे ज्यादा सम्मान जाट सिखों का ही है। इसी तरह राजनीतिक धरातल पर भी इस समुदाय ने अपना वर्चस्व बना रखा है। पंजाब की राजनीति में दलितो की अच्छी भूमिका हो सकती है। लेकिन यहां पर मायावती का बहुजन हासिए पर है।
राजनीति में वंशवाद की विस बेल अब विशाल वट वृक्ष का रुप ले चुकी है। कांग्रेस से लेकर भाजपा,सपा और क्षेत्रिय दलों तक में यह बीमारी आम है। राजनेताओं के परिजनों का राजनीति में इस तरह का पदार्पण लोकतंत्र के लिए कितना सुखद है। यह तो समय बताएगा।


भाकपा-माले के राज्य सचिव राजबिंदर सिंह राणा कहते है कि छात्र आंदोलनों और जनसंघर्षों को भावी राजनीति की नर्सरी कहा जाता था।शासक पार्टियों के लिए अब इसका कोई अर्थ नहीं रह गया है। साजिस के तहत ऐसे जन आंदोलनों से निकले लोगों की जगह नेताओं के पुत्र-पुत्रियों को स्थापित किया गया। पंजाब की हालत तो और बुरी है।वंश वाद के संक्रमण से पंजाब की राजनीति लाइलाज बन चुकी है। विराट पंजाबी जनता के भाग्य का निर्णय चंद परिवारों के हाथ में कैद है। सत्ता से लेकर संगठन तक के पद इन्हीं पारिवारिक सदस्यों को रेवड़ी की तरह बांटी जा रही है।

संगरुर से चुनाव लड रहे पूर्व विधायक तरसेम जोधा कहते हैं कि वंशवाद की छाया में राजनीतिक दलों के सारे आदर्श और सिद्वांत तिरोहित हो चुकी है। कांग्रेस की वंशवाद तो समाजवादियों से लेकर जनसंघ तक के लिए आलोचना का विषय था। लेकिन पूरे देश की राजनीति में वंशवाद की काली छाया जिस तरह से अपना पांव पसार रही है। उससे यही लगता है कि अपने परिजनों को राजनीति में स्थापित करने के सवाल पर बामपंथी पार्टियों को छोड़ कर सारी पार्टियां एक राय रखती है।



पंजाब की राजनीतिक वंशावली



कैरों परिवार-

कैरों परिवार-
प्रताप सिंह कैरों - पूर्व मुख्यमंत्री
सुरिंदर सिंह कैरों - पुत्र, सांसद
आदेश प्रताप सिंह कैरों - पौत्र, वर्तमान में अकाली - भाजपा सरकार में मंत्री

गुरप्रताप सिंह कैरों - पौत्र,युवा अकाली नेता

बादल परिवार-

प्रकाश सिंह बादल - मुख्यमंत्री पंजाब सरकार
सुखबीर सिंह बादल - पुत्र, उप मुख्यमंत्री
मनप्रीत सिंह बादल - भतीजा, वित्त मंत्री
हरसिमरत कौर - (बहू बादल परिवार और पुत्री मजीठिया परिवार) भटिंडा से लोकसभा की उम्मीदवार जनमेजा सिंह - करीबी रिश्तेदार, सिचाई मंत्री
सुरिंदर कौर बादल - पत्नी, अकाली दल (महिला शाखा की संरक्षक)
बिक्रमजीत सिंह मजीठिया- साला, पूर्व मंत्री, युवा अकाली दल का प्रदेश अध्यक्ष
सत्यजीत सिंह मजीठिया- पूर्व केद्रिय मंत्री

पटियाला राजघराना


महाराजा यादबिंदर सिंह - पूर्व राज्य प्रमुख पेप्सू,राजदूत,कुलपति
कै अमरिंदर सिंह- पूर्व मुख्यमंत्री

परणीत कौर - पत्नी, सांसद

बीबा अमरजीत कौर- चाची, पूर्व सांसद
रणइंदर सिंह- पुत्र, भटिंडा से का्रग्रेस उम्मीदवार

बरार परिवार


हरचरण सिंह बरार - पूर्व मुख्यमंत्री

जगबीर सिंह बरार - पुत्र, विधायक
गुरबिंदर कौर - पत्नी, राजनीति में सक्रिय
सन्नी बरार - पुत्र, चुनावी राजनीति में सक्रिय
करन बरार - बहु, चुनावी राजनीति में सक्रिय
कवरजीत कौर बरार - पुत्री, चुनावी राजनीति में सक्रिय

बेअंत सिंह परिवार

बेअंत सिंह - पूर्व मुख्यमंत्री
तेज प्रकाश सिंह - पुत्र, कांग्रस विधायक
रवनीत सिंह बिट्टू - नाती, आनंदपुर साहिब से क्रांगेस प्रत्याशी
गुरकवंल कौर (बेटी) और परिवार के कई सदस्य चुनावी राजनीति में सक्रिय

भट्टल परिवार

राजिंदर कौर भट्टल - पूर्व मुख्यमंत्री
कुलदीप सिंह भट्टल - भाई- विधायक
सुरजीत सिंह बरनाला - पूर्व मुख्यमंत्री, राज्यपाल, केंद्रिय मंत्री
गगनदीप सिंह बरनाला - पुत्र- सक्रिय राजनीति में। चुनावों में असफलता

ठेंगे का लोकतंत्र


लोकतंत्र को अंगूठा दिखता एक आन्दोलन

राजीव यादव

द्वापर युग के एकलव्य की कहानी एक बार फिर से सोनांचल में लोकतंत्र के चैकीदारों ने दोहरायी। पूर्वी यूपी के सोनभद्र जिले की राबर्टसगंज लोकसभा सीट पर तेरह दलित-आदिवासी प्रत्याशियों का नामांकन अगंूठा निशान के चलते खारिज कर दिया गया। तो वहीं दूसरी तरफ 2001 की जनगणना के आधर पर हुए नए परिसीमन ने 2003 में अनुसूचित जाति का दर्जा पाने वाली आदिवासी जातियों से उनके चुनाव लड़ने का अधिकार पहले ही छीन लिया था। बहरहाल एकलव्य के वारिसों ने युगों से चली आ रही उनके अंगूठे की साजिश के खिलाफ समानांतर बूथ चलाकर ‘लोकतंत्र के हत्यारों पर चोट है, अंगूठा निशान ही हमारा वोट है’ का सिंघनाद कर चुनावों बहिस्कार कर दिया।
सोनांचल के चुनावी कुरुक्षेत्र में नामांकन खारिज होने के बाद भाकपा माले के ‘अंगूठा लगाओ, लोकतंत्र बचाओ’ समानांतर चुनाव आंदोलन ने अनपढ़ गरीबों को उनके चुने जाने के मौलिक अधिकार से वंचित करने वाले लोकतंत्र विरोधी तंत्र की नीद हराम कर दी है। माले के उम्मीदवार जीतेन्द्र कोल कहते हैं ‘हमारे दोनों महिला प्रस्तावकों ने अंगूठा निशान सहायक निर्वाचन अधिकारी के सामने लगाया था ऐसे में सहायक निर्वाचन अधिकारी की जवाबदेही बनती थी की वे अंगूठा निशान को अभिप्रामिणित करते।’ इस बाबत सोनभद्र के जिला निर्वाचन अधिकारी की भूमिका अदा कर रहे जिलाधिरी पंधारी यादव का कहना है कि खुद उन्हें भी अंगूठा निशान प्रमाणित करवाने के नए प्रावधान की पहले से जानकारी नहीं थी। नामांकन खारिज किए गए प्रत्याशियों ने जब विरोध करते हुए उन्हें जिम्मेदार ठहराया तो पन्धारी यादव ने धमकी भरे लहजे में कहा कि जो करना हो कर लो हाई कोर्ट ही जाओगे न, मेरा कुछ नहीं बिगड़ने वाला। इस स्वीकरोक्ति के बाद जहां होना तो ये चाहिए था कि जिलाधिकारी के विरुद्ध कार्यवाई हो पर उल्टे कार्यवाई प्रत्याशियों का नामांकन खारिज करने की हुई। इस पूरे क्षेत्र में कानूनी-गैरकानूनी का कोई मानक नहीं रह गया है। बगल की मिर्जापुर सीट पर हुए नामांकन में अंगूठा निशान को वैधता दी गयी है। आदिवासियों को सत्ता से दूर रखने की यह कोई नयी कवायद नहीं है। पांच लाख आदिवासी होने के बावजूद यहां कोई सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित नहीं है। उत्राखंड के निर्माण के बाद राजनाथ सरकार ने कहा कि जो भी अनुसूचित जन जाति के लोग थे वे चले गए। आदिवासियों के असंतोष को देखते हुए 2003 की मुलायम सरकार ने गोड़, खरवार, चेरो, बैगा, पनिका, भुइया को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया। जबकि कोल, मुसहर, बियार, धांगर, धरिकार, घसिया जनजाति के आरक्षण की व्यस्था से महरुम रह गए। पिछले 2005 के पंचायत चुनाव में बहुतायत होने के बावजूद एक भी आदिवासी सीट आरक्षित नहीं की गयी थी। इस राजनैतिक चाल के चलते ये सभी जनजातियां चुनाव लड़ने से वंचित कर दी गयीं जिन्हें आदिवासी का दर्जा मिला था। उस दौर में भी समानांतर बूथ आंदोलन चलाकर आदिवासियों ने चुनाव बहिस्कार किया। कई गावों में तो दस-दस वोट पड़े। दुद्धी विधानसभा में बेलस्थी गांव में तो मात्र सात वोट पड़े जिसके आधार पर प्रधान से लेकर बीडीसी चुने गए। बहरहाल वही चाल मौजूदा सरकार भी चल रही है। 2001 की जनगणना के आधार पर 2008 में हुए नए परिसीमन में सुरक्षित सीट के चलते फिर से 2003 में अनुसूचित जनजाति का दर्जा पायी आदिवासी चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। ऐसे में देखा जाय तो अब 2011 की जनगणना के आधार पर 2028 में होने वाले परिसीमन तक ये चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। अब सरकारों की मंशा पर है कि वे कब इन पर ‘मेहरबान’ होंगी और विशेष पहल कर इनके लोकतांत्रिक अधिकारों को सुरक्षित करेंगी। आदिवासियों में सरकार के खिलाफ काफी रोष है कि अगर कोई बाहर से दस्तख़त कर के ले आए तो उसकी जांच नहीं की जाती और उनके लोगों का अंगूठा निशान अधिकारियों के सामने लगाने पर भी नहीं मान्य होता। मगरदहां की पुष्पा कहती हैं ‘जब हम अंगूठा छाप लोगों का वोट सरकार ले सकती है तो फिर हमारे लोगों को चुनाव लड़ने से क्यों रोकती है।’ घोरावल के बागपोखर समानांतर बूथ पर कड़ी लू भरी दुपहरिया में वोट देने आए शीतला गोड़ पूछने से पहले ही झल्लाते हुए कहते हैं कि हमरा अंगूठा लगवाकर हमारे बाप-दादा के जमाने की जमीन-जायदाद हमसे छीनने का अधिकार सरकार के पास है पर वही अंगूठा लगाने पर हमारे नेता का पर्चा खारिज कर देते हैं। साहब अगर अंगूठा निशान गलत है तब हमारे लोगों की जमीन सरकार और हराम खोर सूदखोरों को छोड़ देनी चाहिए। सोनांचल के इस इलाके में जहां-तहां ‘ये जमीन सरकारी है’ के बोर्ड दिख जाएंगे तो वहीं सामंत और सूदखोर मरने के बाद भी अंगूठा लगवा लेते है। जिसका ब्याज पीढ़ी दर पीढ़ी ये आदिवासी चुकाते हैं। पूरे लोकसभा क्षेत्र के तीन सौ से अधिक गांवों में चल रहे समानांतर बूथ आंदोलन के शबाब पर चढ़ते ही पुलिस ने सैकड़ो घरों पर छापेमारी और गिरफ्तारी शुरु कर दी। खरवांव, मगरदहां, तकिया, भवना, समेत दर्जनों गावों में सैकड़ो घरों पर छापेमारी के दौरान पुलिस ने खुलेआम आदिवासियों और दलितों को सरकार के पक्ष में वोट डालने का दबाव बनाया। पर्चा-वर्चा खारिज करना नाटक है कहते हुए मगरदहां के विजय कोल कहते हैं ‘सरकार चाहती है कि उसके पक्ष में वोट पड़े ऐसे में दलित- आदिवासियों के चुनाव लड़ने से उसके वोट बैंक में संेध लग रही थी तो उन्होंने पर्चा खारिज करवा दिया। अब अपने गुण्डों और पुलिस को भेज हमको धमकाया जा रहा है कि हम उनको वोट दें, नहीं तो नक्सलाइट कह कर हमारा एनकाउंटर कर देंगे। इस बात की चर्चा पूरे सोनभद्र में है क्योंकि संासद घूस काण्ड में बसपा के सांसद के पकड़े जाने के बाद हुए उपचुनाव में बसपा मात्र तीन सौ वोटों से जीती थी। जनप्रतिनिधियों और नक्सलवाद के नाम पर हो रही प्रशासनिक लूट के खिलाफ गुस्से को बढ़ता देख सरकार को यह अंदेशा था कि वह चुनाव हार जाएगी। चुनाव के नाम पर ऐसे हथककण्डे अपनाकर सरकार जनता के सवालों पर लड़ने वालों को रास्ते से हटाकर अपने खिलाफ उठ रही आवाजों को नक्सलाइट घोषित कर दमन करने की फिराक में है। सोनांचल में उपजे इस अंगूठा विवाद ने लोकतंत्र के कई स्याह पहलुओ से पर्दा उठाया है और नक्सल उन्मूलन के नाम पर पल-बढ़ रहेे सामंती नौकरशाहों का चेहरा बेनकाब किया है। ओबरा, राबर्टसगंज समेत पूरे क्षेत्र में पिछले दिनों पुलिस वाले गावों-गावों में जाकर आदिवासियों को शिक्षा से लाभ और नक्सलवाद से सचेत रहने का अभियान चलया था, इस अभियान में एसपी राम कुमार भी शामिल थे। ऐसे अभियान कितने कागजी होते हैं यह खुद-ब-खुद सामने आ रहा है कि जो सरकार लोगों को दस्तख़त करना नहीं सिखा सकती वो और क्या करेगी। सरकार के नक्शे में सोनभद्र के 266 गांव नक्सल प्रभावित हैं, जो हर पैकेज और प्रमोशन के बाद बढ़ते ही गए। सबसे हास्यास्पद बात तो ये है कि जिन्हें नक्सलाइट कहा जा रहा है उनका पूरा आंदोलन इसी पर टिका है कि जो पैकेज इस क्षेत्र के विकास के लिए आ रहा है वो कहां गायब हो रहा है। नक्सल उन्मूलन के नाम पर आ रहे पैसों की बंदर-बांट में तमाम सरकारी अधिकारी और नेता लिप्त हैं। बिना किसी जांच के, इनके ऐशो आराम को देख अनुमान लगाया जा सकता है कि आदिवासियों का विकास क्यों नहीं हो रहा है।
दरअसल इस पूरे इलाके में लोकतांत्रिक ढ़ग से चल रही आदिवासियों की जल-जंगल-जमीन की लड़ाई हमारी सरकारों की नजर में ‘देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरनाक है।’ क्योंकि वे किसी भी कीमत पर अपनी जमीन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले नहीं करेंगे। इनकी लंबे समय से मांग है कि गुलामी के दौर के 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को राष्ट्रीय अपराध घोषित किया जाय। ऐसे में इस शोषित तबके से जब कोई स्वतःस्फूर्त नेतृत्व उभरता है तो वह सरकारों के लिए असहनीय हो जाता है। बहरहाल आदिवासियों का अंगूठा आंदोलन सरकार की हर दबंगई को ठेंगा दिखा रहा है।