क्या बिहार में मीडिया निभाएगी विपक्ष की भूमिका?

विजय प्रताप

बिहार में विकास की तीव्र आकांक्षा ने नीतीश कुमार को सरकार चलाने का एक मौका और दिया है। उनकी जीत को विकास के लिए जनादेश बताया जा रहा है। हालांकि यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि पिछले कार्यकाल में नीतीश कुमार ने किसकाविकासकिया। बावजूद इसके आम जनता ने सही मायने में विकास के लिए उन्हें एक तरफा वोट दिया है। विकास की आकांक्षा की इस आंधी में क्या राजद-लोजपा, क्या वामपंथ, विपक्ष एक सीरे से गायब हो गया। अब सवाल है कि बिहार में अगले पांच साल विपक्ष की भूमिका कौन निभाएगा?
एक लोकतांत्रिक ढांचे में जो जिम्मेदारी विपक्षी पार्टियों की होती है, लगभग वही जिम्मेदारी मीडिया की भी होती है। मीडिया से उम्मीद की जाती है कि वह सरकार के गलत कामों पर निगाह रखेगी और उसे आगाह करेगी। बिहार में विपक्ष की गैरमौजूदगी ने इस जरुरत को और तीव्र बना दिया है। लेकिन क्या बिहार की मीडिया यह जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार है? वहां मीडिया के अभी तक के रुख को देखें तो इसका सहज उत्तर होगा, ना! केवल इसलिए नहीं कि मीडिया की विश्वसनीयता, विश्वास के योग्य नहीं। बल्कि इसके अन्य कई कारण हैं।
नीतीश कुमार की जीत मेंविकासका नारा और मीडिया का बराबर का योगदान है। मीडिया ने दो साल पहले से ही बिहार में कथित बदलाव और विकास को लोगों को महसूस कराया।सड़कें बन रही हैं’, ‘स्कूलों में अध्यापक रहे हैं’, ‘लड़कियां साइकिल चलाकर स्कूल जा रही हैं’, इसे जितना लोगों ने अपने आस-पास देखा, उससे कहीं ज्यादा मीडिया ने प्रचारित किया। मीडिया का दियाकुछ तो कियाजुमला, सीधे तौर पर खारिज भी नहीं किया जा सकता। लालू यादव के 15 साल के शासनकाल के मुकाबले नीतीश के कार्यकाल मेंकुछहुआ। लेकिन उसे ऐसे प्रचारित किया गया मानो कोई बड़ी खैरात मिल गयी हो। यह सवाल किसी ने नहीं उठाया किकुछ, जो नहीं हुआवो क्या था? बिहार में पिछली सरकार के कार्यकाल में जो नहीं किया गया उसका विश्लेषण करें, तो हमें सरकार और मीडिया, दोनों के चरित्र समझने में आसानी होगी। इससे हम अगले पांच साल में मीडिया से लगी उम्मीदों को भी परख सकेंगे।
बिहार में लंबे समय से भूमि सुधार का मुद्दा लंबित पड़ा है। भूमि सुधार के लिए डी. बंधोपाध्याय की अध्यक्षता में गठित आयोग ने पिछले साल अप्रैल में सौंपी अपनी रिपोर्ट में कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की। रिपोर्ट में कहा गया कि बिहार की एक बड़ी आबादी खेती के काम में लगी है। यह ऐसे लोग हैं, जिनके पास अपनी कोई जमीन नहीं है। वह दूसरे जमींदारों के खेतों में बटाइदार या खेत मजदूर के रूप में काम करते हैं। आयोग ने कहा कि राज्य में भूदान से मिली 22 लाख एकड़ जमीन को 20 लाख भूमिहीन खेतमजदूरों में बांट दिया जाए। बाकी दो लाख एकड़ जमीन को राज्य के बेघर परिवारों को दस-दस डिस्मिल जमीन, घर बनाने के लिए दी जाए। यह बिहार की एक बड़ी आबादी को खैरात पर पलने की बजाय सम्मानपूर्वक जीवनयापन करने के लिए आधार प्रदान करने वाला निर्णय था। लेकिन नीतीश सरकार ने विकास के इस फार्मूले को खारिज कर दिया। इस लागू करने देने के पीछे लालू राज के उन्हीं सामंतों का हाथ था, जो अब भाजपा और जद यू में हैं। बटाईदारी बिल पर तो जद यू के एक नेता और कुख्यात सामंत प्रभुनाथ सिंह ने पटना में धमकी भरे अंदाज में यह ऐलान कर दिया किबिल लागू हुआ तो खून-खराबा हो जाएगा।जबकि इस बिल में केवल बटाई पर खेती करने वालों को खेती के लिए मिलने वाली सुविधाएं देने की बात कही गई थी। शिक्षा में सुधार के लिए मुचुकुंद दूबे कमेटी ने बिहार में 60 हजार नए स्कूल और 7.5 लाख शिक्षकों की भर्ती की सिफारिश की। लेकिन ठेके पर भर्ती किए शिक्षा मित्रों की आड़ में यह तथ्य भी दबा लिया गया। ये ऐसे मुद्दें, जिससे बिहार के जीवनस्तर में व्यापक बदलाव सकता है। लेकिन इसेविकासकी परिभाषा से सचेत रूप से बाहर कर दिया गया। जिन पर सवाल खड़े किए जाने चाहिए थे, वहविकासके रूप में मीडिया द्वारा पेश किए गए।
बहरहाल, बिहार में सरकार की नीतियों के प्रचार का जो काम भाजपा-जद यू गठबंधन को करना चाहिए था वो मीडिया ने किया। इसके पीछे के कारणों को, वहां की मीडिया की पृष्टभूमि से समझा जा सकता है। क्योंकि जब मीडिया किसी राज्य सरकार का मुखपत्र बन जाए तो उसके निहित स्वार्थों की पड़ताल जरूरी हो जाती है। बिहार के ही पत्रकार प्रमोद रंजन द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक वहां मीडिया में हिंदू स्वर्ण तबकों की हिस्सेदारी करीब 73 फीसदी है। जबकि पिछड़ी जातियों के लोगों की हिस्सेदारी 10, दलित और महिलाओं की 1-1 और मुस्लिम की 16 फीसदी है। एक वास्तविक सामाजिक संरचना के विरुद्ध, मीडिया और सत्ता में कुछ खास वर्गों की केन्द्रीयता ही व्यापक समाज की प्राथमिकताएं तय करने लगती है। बिहार में यही हो रहा है। बिहार में वास्तविक विकास की शुरुआत निश्चित तौर पर खेतीहर समाज के विकास से होती है। खेतीहर लोगों में समाज की सभी जातियों वर्गों के लोग शामिल हैं। लेकिन सत्ता में मौजूद सामंत और जमींदार तबका और मीडिया में भरे उसी वर्ग के नुमाइंदों के लिए विकास के मायने अलग हैं। उनके लिए विकास का मतलब चमचमाती सड़कें, उंची अट्टालिकाएं, शॉपिंग मॉल्स और नवमध्यवर्गीय उपभोक्ता वर्ग की जरुरतों तक सीमित है।
पत्रकारिता से जुड़े लोग ऐसे तर्क दे सकते हैं कि उन्होंने वही लिखा या दिखाया जो बिहार में लोगों ने महसूस किया। कुछ लोग इसेविकास पत्रकारिताका भी जामा पहना रहे हैं। यह उतना ही फूहड़ तर्क है, जितनी फूहड़ता से वहां आम जनता के जरुरतों का मजाक बनाया जा रहा है। विकास पत्रकारिता की सरकारी परिभाषा है कि मीडिया सरकार के नकारात्मक पक्षों की बजाय सकारात्मक कार्यों को हाईलाइट करे। इस परिभाषा पर बिहार की मीडिया खरी उतरी है। लेकिन जब हम व्यापक जनहित के लिए विकास पत्रकारिता की बात करेंगे तो, उसके सरोकारों का केन्द्र दिखावटी विकास नहीं होगा। तब जीवनस्तर में मूलभूत बदलाव लाने वाले मुद्दे विकास पत्रकारिता के केन्द्र होंगे। जिस तरह सरकार का काम जनहित के कार्याें को गति देना है, उसी तरह मीडिया का काम सरकार से छूट गए जनहित के मुद्दों या समाज के आखिरी व्यक्ति तक की आवाज को उभारना होता है। बिहार में मीडिया के चरित्र को देखते हुए उससे यह उम्मीद करना बेमानी होगी की अगले पांच सालों तक वह बिहार में एक बेहतर विपक्ष की भूमिका निभाएगी।



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भ्रष्टाचार से लड़ाई

विजय प्रताप

राजनैतिक व्यवस्था में समस्या को बनाये रखना और उससे लड़ने के नाम पर हवा में तलवार भांजते रहना जरुरी होता है। तभी आप योद्धा माने जाते हैं। मौजूदा समय में भ्रष्टाचार ऐसी ही एक बड़ी समस्या है। इसकी जड़ व्यवस्था के अंदर तक धंसी हुई है। राजनीतिक दलों में इससे लड़ाई की होड़ लगी है। काजल की कोठरी में सभी काले एक दूसरे को सफाई की नसीहत दे रहे हैं। कुछ ऐसा ही टू जी स्पेक्ट्रम मामले में देखने को मिल रहा है। संसद कई दिनों से ठप्प हैं। विपक्षी दलों के अनुसार सरकार इस मामले में दोषियो को बचाने के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) जांच से बच रही है।

विपक्षी दलों के विरोध का केन्द्र बिंदु संसद और जेपीसी जांच है। कोई भी पार्टी आम जनता के बीच इस मुद्दे पर बहस नहीं करना चाहती। मजबूरी यह है कि कोई भी पार्टी भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त नहीं है, इसलिए उनका जनता के बीच बहस से बचना लाजिमी है। सारी लड़ाई संसद के गलियारों मीडिया के बीच लड़ी जा रही है। यह उनकी राजनैतिक वैधता की जरुरत है। भाजपा ने आदर्श हाउसिंग घोटाला मामले में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का इस्तीफा मांग कर अपने लिए ही संकट मोल लिया। क्योंकि जब सवाल जब उनकी पार्टी से कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा पर उठने लगा तो उनसे इस्तीफा लेना मुश्किल हो गया। अंततःजनप्रियनेता के नाम पर येदुरप्पा मुख्यमंत्री पद पर बने हुए हैं। भाजपा ने इससे साबित कर दिया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रिय होना विधायकों के समर्थन की गुणा-गणित पर निर्भर है। कांग्रेस 2 जी स्पेक्ट्रम से लेकर कॉमनवेल्थ गेम्स तक घोटालों के आरोपों से घिरी है। विपक्षी क्षेत्रीय पार्टियों पर भी उनके राज्यों में ऐसे कई आरोप जांच की प्रक्रिया में हैं।
वास्तव में भ्रष्टाचार के लिए कोई एक व्यक्ति, पार्टी या संस्था ही जिम्मेदार नहीं है। लेकिन समस्या की मूल कारणों पर बात से बचने के लिए सचेत रूप से हमेशा ही बहस को इन्हीं छोटे से दायरों में समेट दिया जाता है। जब भ्रष्टाचार व्यवस्था को अपनी चपेट में ले ले तो उसकी जड़ काट देना ही इलाज होता है। लेकिन मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार की जड़ काटना संभव नहीं है। इससे कइयों के स्वार्थ जुड़े हैं। इसलिए इसके खिलाफ समय-समय पर उठने वाले जन आक्रोशों को दबाने के लिए किसी एक व्यक्ति की बलि जरूरी हो जाती है। जबकि लाखों करोड़ रुपये का घोटला करना किसी एक सुरेश कलमाड़ी, राजा या नीतीश कुमार के बस की बात है। इसमें पूरी प्रशासनिक मशीनरी राजनीतिक व्यवस्था के सहयोग की जरुरत पड़ती है। ऐसे में किसी एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द भ्रष्टाचार की बहस का क्या निहितार्थ है? भ्रष्टाचार कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का अनिवार्य अंग बन चुका है। इसमें कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन एक व्यवस्था का हिस्सा होते हुए वह खुद को पाक साफ नहीं बता सकते। भ्रष्टाचार जैसी समस्या का कोई एक समाधान नहीं हो सकता। भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने के लिए जनआंदोलन की जरुरत होती है। कई देशों में ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जहां भ्रष्टाचार एक सीमा से अधिक बढ़ जाने पर जनता खुद ही सड़कों पर उतर आती है।
भारत में भी ऐसे आमूलचूल बदलाव की जरुरत है। लेकिन विडम्बना यह है कि एक ही रंग में रंगी सभी पार्टियों में बदलाव के लिए संघर्ष का नेतृतव कौन करे? संसदीय पार्टियां अपनी वैधता के लिए विपक्ष में रहते हुए भ्रष्टाचार का मुद्दा तो उठाती हैं, लेकिन लड़ाई का वह सुरक्षित तरीका अख्तियार करती हैं, जिससे व्यवस्था पर कोई आंच आए। इसलिए आजादी के इतने सालों बाद भी भ्रष्टाचार अनवरत विकास कर रहा है और गिनती इस बात की हो रही है कि किसने बड़ा घोटाला किया, किसने छोटा।
सवाल यह भी है कि क्या संयुक्त संसदीय समिति से किसी माामले की जांच करा देने से भ्रष्टाचार का हल निकाला जा सकता है। जांच से केवल व्यक्ति या संस्था को दोषी ठहराया जा सकता है। यह राजनीति करने वाली सभी पार्टियां जानती है। वह चाहती भी यही है। क्योंकि एक बड़ी समस्या का इससे सूक्ष्म और तात्कालिक इलाज कोई और नहीं हो सकता। इसलिए जेपीसी की मांग पर अड़ी विपक्षी पार्टियों की राजनीति भी हमें समझने की जरुरत है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनैतिक पार्टियों का काम पुरानी व्यवस्था को बनाये रखने का है। सभी राजनैतिक दल अपनी उसी जिम्मेदारी को निभा रहे हैं। ऐसे में इनसे यह उम्मीद करना बेमानी होगी कि वह भ्रष्टाचार से लड़ाई के अगुआ बनेंगे।


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