संज़रपुर से शुरू हुआ मुस्लिम युवकों का पलायन

पीयूएचआर ने दिल्ली मुठभेड़ पर उठाए सवाल

दिल्ली धमाकों के प्रमुख आरोपियों के गांव संजरपुर से नौजवानों का पलायन शुरू हो गया है। बम धमाकों के बाद से ही यह गांव पुलिस और खुफिया एजंसियों के निशाने पर आया। गांव के ज्यादातर लड़के अपने रिश्तेदारों के यहां दूसरी जगहों पर चले गए हैं। जो लड़के अन्य महानगरों में उच्च व तकनीकी शिक्षा के लिए बाहर गए थे, वे भी अपने ठिकानों से नदारत हैं। ज्यादातर के मोबाइल फोन बंद हैं और चोरी-छुपे वे अपने घर-परिवार के लोगों से संपर्क कर रहे हैं। मुसलिम नौजवानों को डर है कि बम धमाकों के नाम पर कहीं उन्हें फंसा न दिया जए। इस बीच पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइट्स (पीयूएचआर) के प्रतिनिधिमंडल ने संजरपुर गांव का दौरा करने के बाद बताया कि पुलिस मुठभेड़ में मारे गए और गिरफ्तार किए गए आरोपियों के घर वालों से पूछताछ के नाम पर बदसलूकी कर रही है। घर की महिलाओं से अभद्र व्यवहार किया गया और संप्रदाय सूचक गालियां दी गई। पीयूएचआर ने दिल्ली के इनकाउंटर को संदिग्ध बताते हुए पूरे मामले की जंच सुप्रीम कोर्ट के सिटिंग जज से कराने की मांग की है। इस मांग के समर्थन में यह मानवाधिकार संगठन कल उत्तर प्रदेश विधानसभा पर धरना देगा।पीयूएचआर के प्रतिनिधिमंडल ने आज संजरपुर गांव का दौरा किया और कई घंटे गांव में गुजरे। प्रतिनिधिमंडल के सदस्य विनोद यादव, राजीव यादव, सरफराज कमर, तारिक शफीक और शहनवाज आलम ने गांव के कई लोगों से बातचीत कर माहौल का जयज लिया। गौरतलब है कि संजरपुर गांव में धमाकों के बाद से ही दहशत का माहौल है। यहां के अनवारूल कुरान मदरसे में करीब तीन सौ लड़के पढ़ने जते थे पर आज इनकी संख्या ४0 रह गई है। यहां भी पुलिस ने पूछताछ की। बाकी लड़कों के घरवालों ने उन्हें यहां से रूखसत कर दिया है। गांव वालों का मानना है कि अगर लड़के घर में रहे तो पुलिस उन्हें किसी न किसी धमाके के चक्कर में फंसा देगी। संजरपुर के डा। जवेद अख्तर का लड़का असदुल्ला कोटा में इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा है। पर दिल्ली धमाकों के बाद गांव में पुलिस की दबिश से वह भी दहशत में है। गांव आने में डर रहा है तो कोटा रहने में भी। यही स्थिति दिल्ली, मुंबई और अन्य महानगरों में तकनीकी शिक्षा व उच्च शिक्षा लेने वाले इस गांव के लड़कों की है। संजरपुर गांव की संपन्नता पिछले डेढ़ दशक में बढ़ी है जिसके चलते यहां के लड़के बाहर निकल रहे हैं। गांव में २५ फीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं जबकि ४0 फीसदी दुबई व खाड़ी देशों में नौकरी करते हैं। ३५ फीसदी लोग मुंबई व अन्य जगहों पर रोजगार में लगे हुए हैं। गांव की ७५ फीसदी अर्थ व्यवस्था मनीआर्डर पर निर्भर है। ऐसे में दिल्ली के बम धमाकों के बाद गांव के लोग ज्यादा परेशान हैं। दिल्ली मुठभेड़ में मारे गए साजिद के भाई जहिद ने कहा, ‘मेरे भाई की उम्र १६ साल थी और पुलिस उसे पांच साल पहले हुए धमाकों में संलिप्त बता रही है। क्या ११ साल की उम्र में ही वह आतकंवादी बन गया था।’एक तरफ गांव वाले आतंकवाद के ठप्पे से परेशान हैं तो दूसरी तरफ पुलिस की दबिश से। मंगलवार को पुलिस ने गांव पर छापा मारा और घर से लेकर बैंक तक उन लोगों के खाते खंगाले जिन का नाम दिल्ली धमाकों में आया है। दिल्ली विस्फोटों का मास्टरमाइंड माने जने वाले आतिफ के खाते में १४0९ रूपए निकले। इसी तरह अन्य लोगों के खातों में भी रकम कुछ हजर तक सीमित रही। मानवाधिकार संगठन पीयूएचआर के शाहनवाज आलम ने कहा-आतिफ के खाते में १४0९ रूपए निकलते हैं और दावा किया गया था कि उसके खाते में करोड़ो रूपए का लेन-देन हुआ है। पुलिस को अब ये बताना चाहिए कि यह आरोप उसने किस आधार पर लगाए थे। उन्होंने यह भी कहा कि मारे गए और पकड़े गए आरोपियों को लश्कर का आतंकी बताते हुए लखनऊ से लेकर संकटमोचन मंदिर विस्फोट का मास्टर माइंड तक बताया गया था। हैरानी की बात यह है कि यदि मास्टर माइंड ये थे लेकिन संकट मोचन मंदिर विस्फोट के सिलसिले में मुख्य आरोपी वलीउल्लाह को दस वर्ष व पांच आरोपियों को पांच वर्ष की सज दी गई है।पीयूएचआर ने दावा किया कि दिल्ली में मुठभेड़ की घटना संदिग्ध नजर आ रही है। खासकर जिस तरह मुठभेड़ शुरू होने से पहले ही दो लोगों की लाशें वहां से उठा ली गईं। यह जनकारी पीयूएचआर की टीम को स्थानीय लोगों ने दी। पीयूएचआर ने यह भी सवाल उठाया है कि मुठभेड़ में मारे गए पुलिस अफसर को गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद एक किलोमीटर दूर अस्पताल ले जने में आधे घंटे से ज्यादा समय क्यों लगा, उन्हें पैदल क्यों ले जया गया? यदि उन्हें समय पर अस्पताल पहुंचा दिया जता तो ज्यादा खून बहने की वजह से उनकी मृत्यु नहीं होती। पीयूएचआर इन सवालों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के सिटिंग जज से जंच कराने की मांग को लेकर कल विधानसभा पर धरना देने ज रही है। शाहनवाज आलम ने आरोप लगाया कि पुलिस की वजह से संजरपुर गांव से नौजवानों का पलायन शुरू हो चुका है। यह गंभीर संकेत है। अम्बरीश कुमार (साभार- जनसत्ता)

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये !

एक ऐसे समय में जब की देश में चुनावों की आहट के मद्देनज़र घृणा की फसल को खाद पानी दिया जा रहा है, की जब एक बार फ़िर बम विस्फोटों का सिलसिला शुरू हो गया है, की जब इसकी आड़ में सम्प्रदाय विशेष को निशाना बनाया जा रहा है, की जब सत्ता और राजनितिक दल विस्फोट के बाद चिल-पों कर अपना राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हैं, की जब इसी समय उडीसा के आदिवासी "हिंदू वीरों" से अपने जीवन का भीख मांग रहें हैं और जब जले हुए घर में अपनों की लाश तलाश रहे हैं, की जब उडीसा के "वीरों" से सीख लेकर कर्णाटक, गुजरात व मध्यप्रदेश के वीर अपनी कला का प्रदर्शन करने को ललायित हैं और यहाँ की सरकारें इन वीरों के आगे नतमस्तक हैं, की इस बाटने के खेल को टीवी पर देख केवल आह भर रहें हैं और की जब हम सही ग़लत में फर्क नहीं कर पा रहें हैं

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये


अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये


हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है


दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये


ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले


ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये


हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ


मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये


छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़


दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये


- अदम गोंडवी

फिर मास्टर माइंड, फिर आजमगढ़...

दिल्ली एक बार फिर धमाकों से दहल गया. 21 लोगों की जान गई और जाने कितने हजार लोगों के सपनों का कत्ल हो गया. अब फिर से इन धमाकों के 'मास्टर माइन्ड' की तलाश होगी और हफ्ते दो हफ्ते बाद उसकी गिरफ्तारी का दावा. फिर कुछ दिनों बाद कोई नई वारदात. हर बार सवाल यही उठता है कि आखिर खानापूर्ति के लिए कथित मास्टर माइंडों की गिरफ्तारी कब तक होती रहेगी और असली अपराधी कब तक गिरफ्त से बाहर रहेंगे?आजमगढ़ में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो दिल्ली पर नज़र लगाए हुए पूछ रहे हैं- अबकी मास्टर माइंड कौन ?
अब अबू बशर को ही लें।“ बाबू कुछ गुण्डा बशर के घरे से अगवा कइ लेनन तब हम पुलिस के इत्तेला कइली त पुलिस हम लोगन से कहलस की आपो लोग खोजिए अउर हमों लोग खोजत हई मिल जाए। पर एक दिन बाद उहय पुलिस साम के बेला आइके हमरे घरे में जबरदस्ती घुसके पूरे घर के तहस नहस कइ दिहिस।” आजमगढ़ के गाँव बीनापारा, सरायमीर के निवासी अबु बकर बेहद परेशान स्वर में जब अपनी दास्तान सुनाते हैं तो उनकी बात पर यकिन करना मुश्किल होता है। असल में यकिन तो कोई नहीं करना चाहता. आजमगढ़ की पुलिस भी नहीं, लखनऊ की पुलिस भी नहीं और अहमदाबाद की पुलिस तो कतई नहीं. अबु बकर बताते हैं कि जिस पुलिस के पास उन्होंने अपने बेटे के अपहरण की सूचना दी, वही पुलिस एक दिन बाद हमारे घर पर आ कर हमें आतंकवादी ठहरा गई.
लेकिन जब आप अबु बकर की बातों के तार जोड़ने लगें तो आपके लिए अबु की बात पर यकिन नहीं करने का कोई कारण नजर नहीं आएगा. अबु यानी अबु बकर और अब पुलिस रिकार्ड में अहमदाबाद बम धमाकों के 'मास्टर माइंड' मुफ्ती अबुल बशर कासमी इस्लाही के पिता अबु बकर !अबु बकर बताते हैं कि जिस पुलिस के पास उन्होंने अपने बेटे के अपहरण की सूचना दी, वही पुलिस एक दिन बाद हमारे घर पर आ कर हमें आतंकवादी ठहरा गई. हमारे घर की तलाशी ले कर बशर की पत्नी के गहने और थोड़े से पैसे उठा कर ले गई और हमसे सादे कागज पर दस्तखत भी करवा लिया. यह तो हमें बाद में पता चला कि हमारे बेटे को पुलिस ने अहमदाबाद ब्लास्ट का मास्टर माइंड बता कर गिरफ्तार किया है.अहमदाबाद बम धमाकों के आरोपी 'मास्टर माइंड' मुफ्ती अबुल बशर कासमी इस्लाही के पिता अबु बकर ये बताते हुए घर के हालात की तरफ इशारा करते हैं- “ इस टूटे-फूटे जर्जर घर में सात बेटों-बेटियों और अपाहिज पत्नी के साथ रहता हूँ. डेढ़ साल से ब्रेन हैमरेज के कारण अब हमसे कुछ भी नहीं हो पाता, एक बशर के सहारे पूरा घर था.”
बशर की सात साल की बहन साईना बताती है कि घर में चार दिन से चूल्हा नहीं जला और न खाने के लिए कुछ है. पड़ोसियों के घर से जो कुछ आता है, उसी से गुजारा होता है।
आजमगढ़ बनाम आतंकवादीगढ़
राहुल सांकृत्यायन, कैफी आजमी, शिब्ली नोमानी और हरिऔध जैसे लोगों की धरती आजमगढ़ कथित आतंकवादियों की स्थली के रुप में अक्सर चर्चा में बना रहता है. देश के किसी भी हिस्से में कोई आतंकवादी घटना होती है तो सबसे पहले उसके तार आजमगढ़ से ही जुड़ते हैं और शुरु होता है तरह-तरह के दावों का दौर. लेकिन महीने दो महीने के भीतर ये सारे दावे और सारे तार हकिकत में तार-तार हो जाते हैं.पिछले साल उत्तर प्रदेश की कचहरियों में हुए बम धमाकों के आरोप में इसी जिले से तारिक कासमी को एसटीएफ ने 12 दिसम्बर को पकड़ा और 10 दिनों तक हिरासत में रखने के बाद दावा किया कि उसे 22 दिसम्बर को बाराबंकी से गिरफ्तार किया गया है. लेकिन यह दावा कुछ ही दिनों में गलत साबित हो गया.अबुल बशर को भी उसके गाँव बीनापारा, सरायमीर से 14 अगस्त को साढ़े ग्यारह बजे पुलिसवालों ने उठाया और 16 अगस्त को लखनऊ चारबाग इलाके से गिरफ्तार करने का दावा किया है. ये और बात है कि 15 अगस्त को विभिन्न अखबारों में छपी खबरें एसटीएफ और एटीएस की इस 'बहादुराना उपलब्धि' को झूठा साबित करने के लिए काफी हैं. पुलिस ने अहमदाबाद विस्फोटो में सिमी का हाथ होने का पुख्ता प्रमाण मिलने का दावा करते हुए कहा है कि मुफ्ती अबुल बशर धमाकों का ‘मास्टर माइंड’ और सिमी का सक्रिय है. गुजरात के पुलिस महानिदेशक पीसी पांडेय के अनुसार अबुल बशर सूरत, जयपुर समेत यूपी की कचहरियों में हुए बम धमाकों की ईमेल द्वारा जिम्मेवारी लेने वाले इंडियन मुजाहिद्दीन(आइएम) का राष्ट्रीय अध्यक्ष है, जो प्रतिबंधित संगठन सिमी की ही शाखा है.लेकिन आजमगढ़ क़े ही रहने वाले प्रतिबंधित स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया यानी सिमी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शाहिद बद्र फलाही इस बात से पूरी तरह इंकार करते हैं. फलाही कहते हैं- “ अबुल बशर सिमी का कभी भी सदस्य नहीं रहा है और न ही सिमी ने प्रतिबंध के बाद कोई सदस्यता अभियान चलाया है.”आइएम के बारे में वे बताते हैं कि सिमी पर प्रतिबंध बरकरार रखने के लिए पिछले सात सालों में तमाम 'कागजी आतंकी तंजीमा' से सिमी का नाम जोड़ा गया है और अब आइएम भी उसी फेहरिस्त का हिस्सा है. वहीं आजमगढ़ पुलिस की मानें तो 2001 में सिमी पर प्रतिबंध के बाद 19 लोग गिरफ्तार किए गए थे औऱ तब से किसी नए व्यक्ति के सिमी का सदस्य बनने का कोई प्रमाण नहीं मिला है. पीयूसीएल के राष्ट्रीय संगठन मंत्री चितरंजन सिंह सूरत में 27 जिंदा बमों के पाये जाने और उनकी चिप खराब होने वाली घटना को मोदी सरकार का ड्रामा बताते हुए कहते हैं कि जिस पीसी पाण्डेय को अल्पसंख्यकों के खिलाफ हुए राज्य प्रायोजित गुजरात नरसंहार में सक्रिय भूमिका निभाने के एवज में डीजीपी बनाया गया हो उनकी बात पर यकिन करने का कोई कारण नजर नहीं आता।
सिंह कहते हैं- “गुजरात के डीजीपी का साम्प्रदायिक चेहरा उजागर हो गया है और स्टिंग ऑपरेशनों ने उनकी कलई खोल दी है. जिस प्रदेश में जाहिरा शेख से लेकर सोहराबुद्दीन तक को न्याय नही मिला उस प्रदेश की पुलिस ब्रीफिंग पर पूरे हिन्दुस्तान में हुई आतंकी घटनाओं के खुलासे पर कैसे विश्वास किया जा सकता है. पुलिस को बताना चाहिए कि नवी मुम्बई से जिस अमेरिकी नागरिक केन हेवुड की आईडी से मेल किया गया था उसे क्यों भारत से बाहर जाने दिया गया और किस आधार पर एटीएस ने उसे क्लीन चिट दे दी.”विभिन्न आतंकी घटनाओं की जांच कर रहे पीयूएचआर नेता शाहनवाज आलम बताते है कि अबुल बशर प्रकरण में जावेद नाम का एक व्यक्ति मार्च 08 से ही बशर के घर आता था जो कभी बशर से मिलता था तो कभी बशर के पिता अबु बकर से और खुद को कम्प्यूटर का व्यवसायी बताता था और वह बिना नम्बर प्लेट की गाड़ी से आता-जाता था. जावेद, बशर के भाई अबु जफर के बारे में पूछता था और कहता था कि जफर को कम्प्यूटर बेचना है. अबु बकर ने बताया है कि बशर को अगवा किए जाने के बाद जावेद 16 अगस्त 08 की शाम छापा मारने वाली पुलिस के साथ भी आया था.
पुलिस या...
बांस की टोकरी बनाने वाले पड़ोसी कन्हैया बताते है कि 14 अगस्त को बशर को अगवा किया गया तो अगवा करने वालों में दो व्यक्ति (पुलिसकर्मी) जो सिल्वर रंग की पैशन प्लस से थे, वे गाँव में महीनों से आया जाया करते थे और वे इस बीच बशर के बारे में पूछते थे. सवाल यही उठता है कि जब महीनों से पुलिस बशर पर निगाह रखे था तो उसने कैसे घटनाओं को अंजाम दे दिया.
आजमगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार सुनील कुमार दत्ता कहते हैं कि जिले से आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए किसी भी व्यक्ति पर आज तक आतंकी होने का आरोप सही नहीं पाया गया है, फिर भी आजमगढ़ को आतंकवादियों की नर्सरी के बतौर प्रचारित करने में मीडिया का अहम रोल है.
पीयूएचआर नेता कहते हैं कि पिछले दिनों मड़ियाहूँ जौनपुर से उठाये गए खालिद प्रकरण में भी आईबी ने इसी तरह छ: महीने पहले से ही खालिद को चिन्हित किया था। आतंकवाद के नाम पर की जा रही गिरफ्तारियों में देखा गया है कि कुछ मुस्लिम युवकों को आईबी पहले से ही चिन्हित करती है और घटना के बाद किसी को किसी भी घटना का मास्टर माइंड कहना बस बाकी रहता है. बीनापारा गाँव के प्रधान मो शाहिद बताते हैं कि पिता के ब्रेन हैमरेज के बाद बशर पर ही घर की पूरी जिम्मेदारी आ गई थी. इसीलिए वह कमाने के लिए आजमगढ़ के ही अब्दुल अलीम इस्लाही के हैदराबाद स्थित मदरसे में पढ़ाने चला गया था. बशर जनवरी 08 में गया था और फरवरी 08 में वापस आ गया था क्योंकि वहाँ 1500 रूपए मिलते थे, जिससे उसका व उसके घर का गुजारा होना मुश्किल था. दूसरा पिता की देखरेख करने वाला भी घर में कोई बड़ा नहीं था. इस बीच वह गाँव के बेलाल, राजिक समेत कई बच्चों को टयूशन पढ़ाता था. अबुल बशर के चाचा रईस बताते हैं कि 14 अगस्त 08 को 11 बजे के तकरीबन दो आदमी मोटर साइकिल से आए और बशर के भाई जफर की शादी की बात करने लगे. बशर घर में मेहमानों की सूचना देकर उनसे बात करने लगा. बात करते-करते वे बशर को घर से कुछ दूर सड़क की तरह ले गए, जहाँ पहले से ही एक मारूती वैन खड़ी थी. मारूती वैन से 5-6 लोग निकले और बशर को अगवा कर लिया. अगवा करने वालों की स्कार्पियो, मारूती वैन और पैशन प्लस मोटर साइकिल पर कोई नम्बर प्लेट नहीं लगा था. इसकी सूचना हम लोगों ने थाना सरायमीर को लिखित दी. नेलोपा नेता तारिक शमीम कहते हैं कि अबुल बशर ने जिन लोगों के बच्चों को पढ़ाया और गाँव के जिन लोगों के साथ उठता बैठता था सबने हलफनामा दिया है. ऐसे में पुलिस की यह बात झूठी साबित होती है कि बशर ने बम धमाके किए. क्योंकि इस बात के सैकड़ो गवाह हैं कि 13 मई 08 के जयपुर बम धमाके हों या 25-26 जुलाई 08 के हैरदाबाद और अहमदाबाद के बम धमाके, इस दौरान बशर गाँव में ही था और अपनी अपाहिज माँ और ब्रेन हैमरेज से जूझ रहे पिता का इलाज करा रहा था.
मीडिया बनाम अफवाह
आजमगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार सुनील कुमार दत्ता कहते हैं कि जिले से आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए किसी भी व्यक्ति पर आज तक आतंकी होने का आरोप सही नहीं पाया गया है, फिर भी आजमगढ़ को आतंकवादियों की नर्सरी के बतौर प्रचारित करने में मीडिया का अहम रोल है. और जहाँ तक हवाला कारोबार का सवाल है तो वह जिले का ऐसा 'कुटीर उद्योग' है जिसे धर्मनिरपेक्ष भाव से हिन्दू-मुसलमान दोनों करते हैं. वे कहते हैं कि पिछले दिनों जिस तारिक कासमी को हुजी का प्रदेश अध्यक्ष बताया जा रहा था. उसकी चार्ज शीट में हुजी या किसी आतंकी संगठन से उसके किसी भी जुड़ाव का कोई जिक्र नही है फिर भी मीडिया आज भी उसे हुजी का प्रदेश अध्यक्ष बता रही है और अब आजमगढ़ को आईएम का कार्यक्षेत्र बता पुलिस ने पूरे जिले में आतंक का महौल व्याप्त कर दिया है. वरिष्ठ प्रवक्ता बद्रीनाथ श्रीवास्तव कहते हैं कि जनता में दंगों के प्रति आई परिपक्व समझदारी नें दंगों की राजनीति को पीछे ढकेल दिया है. ऐसे में आतंकवाद के नाम पर फर्जी गिरफ्तारियां कर साम्प्रदायिक ताकतों के ही एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश की जा रही है, जिसे हम आजमगढ़ में हुए पिछले उप चुनाव में साफ देख सकते है. पूरा चुनाव आतंकवाद के मुद्दे पर लड़ा गया. ऐसा आजमगढ़ में पहली बार हुआ और जनता के मूलभूत सवाल पीछे चले गए.

हे भले आदमियो !


डबाडबा गई है तारों-भरी
शरद से पहले की यह
अँधेरी नम
रात ।
उतर रही है नींद
सपनों के पंख फैलाए
छोटे-मोटे ह्ज़ार दुखों से
जर्जर पंख फैलाए
उतर रही है नींद
हत्यारों के भी सिरहाने ।
हे भले आदमियो !
कब जागोगे
और हथियारों को
बेमतलब बना दोगे ?
हे भले आदमियो !
सपने भी सुखी और
आज़ाद होना चाहते हैं ।
- गोरख पांडे

धर्म के नाम पर

उड़ीसा में बेहद गरीबी के मारों को पढ़ाए जा रहे धार्मिक पाठों के कैसे-कैसे दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं, जानने का प्रयास कर रहे हैं, विजय सिम्हा। रिपोर्ट साभार तहलका हिन्दी से
जब वे नर्मदा दिघल को खोजते हुए आए तो उन्हें घर पर कोई नहीं मिला. नर्मदा अपने पांच बच्चों और सास को साथ लेकर पास के घने जंगल में जा छिपी थी. हमलावरों को जब कोई नहीं मिला तो उन्होंने घर को ही आग के हवाले कर दिया. नर्मदा के वापस आने तक अगर कुछ बचा था तो वो थी सिर्फ राख. नर्मदा ने गहरी सांस ली, खड़ी हुई और अपनी साड़ी का पल्लू सिर पर खींचते हुए ईश्वर से अपने पापों को माफ करने की प्रार्थना की.
एक महिला और उसके ईश्वर के बीच ये एक सहज सा बंधन है जिसे शायद ही कोई मानवीय आपदा तोड़ सकती हो. नर्मदा कहती है, “मैं मर जाऊंगी मगर ईसाई धर्म नहीं छोड़ूंगी.”
ये जगह कंधमाल का केंद्र है. कंधमाल यानी उड़ीसा के बीचों-बीच स्थित एक जिला जहां हिंदुओं और ईसाइयों के बीच तीखा टकराव देखने को मिल रहा है. 1994 में अस्तित्व में आए और 7649 वर्ग किमी में फैले इस जिले में 2515 गांव हैं. पहाड़ियों और गांवों से होकर गुजरने वाली संकरी पगडंडियों से मिलकर बना ये इलाका काफी दुर्गम है. यहां न कोई फैक्ट्री है और न कोई रेलवे लाइन. बस सेवा है मगर दुर्लभ. विकास की दौड़ में कंधमाल इतना पीछे है कि जिले की आधिकारिक बेवसाइट भी इसे उड़ीसा के सबसे पिछड़े जिलों में एक बताती है.
कंधमाल की आबादी करीब आठ लाख है जो अलग-अलग जातियों और जनजातियों से बनी है. इसमें आधा हिस्सा कंध जनजाति का है जो लगभग पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव में है. दूसरा मुख्य हिस्सा पना समुदाय का है जिनमें से ज्यादातर ईसाई हैं. आबादी के लिहाज से देखा जाए तो कंधमाल की एक चौथाई जनसंख्या ईसाई है और बाकी ज्यादातर हिंदू. ये आंकड़ा इस मायने में दिलचस्प है कि पूरे उड़ीसा की आबादी में जहां ईसाइयों की संख्या 2.44 प्रतिशत है वहीं कंधमाल में ये 25 फीसदी हैं. दूसरी तरफ, हिंदू जनसंख्या के घनत्व के मामले में उड़ीसा भारत का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है. 2001 की जनगणना के मुताबिक यहां की 95 फीसदी आबादी हिंदू है. कंधमाल में ईसाइयों की संख्या में बढ़ोतरी विश्व हिंदू परिषद (विहिप) जैसे कट्टरपंथी हिंदू संगठनों को उनके अस्तित्व के लिए उर्वरा भूमि मुहैया कराती है. यहां उसने ईसाइयों के खिलाफ हमलावर अभियान छेड़ा हुआ है जिसके दो घोषित उद्देश्य हैं: ईसाइयों को फिर से हिंदू बनाना और गायों के कथित वध को रोकना.
कंधमाल में विहिप के अभियान की अगुवाई 81 वर्षीय स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती कर रहे थे. उनकी गतिविधियां मुख्य रूप से एक-दूसरे से 150 किमी की दूरी पर स्थित दो आश्रमों से चलती थीं. सरस्वती, विहिप के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल के सदस्य भी थे जो संस्था की शक्तिशाली निर्णय समिति है. 23 अगस्त की रात जब वे अपने आश्रम में जन्माष्टमी का उत्सव मना रहे थे तो उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई. ईसाइयों की नापसंद और अपने अनुयायियों के लिए पूजनीय सरस्वती पर इससे पहले भी नौ बार जानलेवा हमले हो चुके थे.
सरस्वती की हत्या किसने की इस बारे कई बातें कही जा रही हैं. उड़ीसा सरकार का कहना है कि ये कंधमाल में अपना आधार मजबूत करने की कोशिश कर रहे माओवादियों का काम है. सरकार का दावा सीपीआई(माओवादी) द्वारा जारी किए गए दो बयानों पर आधारित है जिनमें उन्होंने इस हत्या की जिम्मेदारी ली है. और अगर ये बात सही है तो इसका मतलब ये है कि माओवादी भी यहां चल रहे धार्मिक टकराव में शामिल हो चुके हैं.
दूसरी थ्योरी विहिप की तरफ से आ रही है. सरस्वती की हत्या के बाद विहिप के अंतराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंघल ने एक बयान जारी करते हुए कहा, “एक बार फिर ईसाई मिशनरियों के क्रूर चेहरे का खुलासा हो गया है. स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती पिछले 45 साल से आदिवासियों के बीच रहकर अस्पताल, स्कूल और हॉस्टल बनाने का काम कर रहे थे. वे न तो पूंजीवादी थे और न असामाजिक तत्व. उनके काम की बदौलत आदिवासियों में अपने धर्म और संस्कृति को लेकर जागरूकता आई थी जो सिर्फ ईसाई मिशनरियों को ही अखर सकती थी.”
दूसरी तरफ, ईसाई संस्थाओं का कहना है कि उनका इस हत्या से कोई लेना-देना नहीं है. उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा इस मामले की जांच की मांग की है. पब्लिक अफेयर्स ऑफ आल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल के नेशनल सेक्रेटरी डॉ. सैम पॉल का कहना था, “दिवंगत विहिप नेता सरस्वती से हमारे काफी मतभेद रहे. संघ परिवार का नफरत का अभियान ईसाइयों के लिए मुसीबतों का सबब रहा है जिसमें पिछले साल दिसंबर में हुई असाधारण हिंसा भी शामिल है. मगर फिर भी हम चाहते हैं कि हर कोई शांति से रहे और हम हर किसी से कानून का पालन करने की अपील करते हैं.”
मगर सच्चाई जो भी रही हो, इस हत्या ने भावनाओं को भड़का दिया. 25 अगस्त आते-आते हिंदूवादी संगठन कंधमाल में ईसाइयों के घरों पर हमला कर रहे थे. हमले अक्सर रात को होते थे. एक सितंबर को उड़ीसा सरकार ने आंकड़े पेश किए: 16 लोग मारे गए, 35 घायल हुए और 185 को गिरफ्तार किया गया. 558 घर और 17 पूजास्थल जलाए गए, 12539 लोग राहत शिविरों में भेजे गए, अर्धसैनिक बलों की 12 कंपनियां, उड़ीसा राज्य सशस्त्र बल की 24 प्लाटून, आर्म्ड पुलिस रिजर्व फोर्स की दो टुकड़ियां और स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप की दो टीमें तैनात की गईं.
विहिप के अंतर्राष्ट्रीय महासचिव प्रवीण तोगड़िया, सरस्वती के अंतिम संस्कार के लिए कंधमाल पहुंचे.(उन्हें उनके चकपाड़ा आश्रम में, जहां वे स्कूल और लड़कों के लिए एक हॉस्टल चलाते थे, पद्मासन की स्थिति में समाधि दे दी गई) तोगड़िया ने कहा कि सरस्वती की हत्या ईसाई समुदाय ने की है. कंधमाल और उड़ीसा में अन्य जगहों पर ईसाइयों पर हमलों की शुरुआत के लिए ये काफी था. सैकड़ों ईसाइयों के घर जला दिए गए, कुछ पादरियों की हत्या कर दी गई और चेतावनी जारी की गई कि या तो हिंदू बनकर घर वापस लौटें या हमेशा के लिए इलाका छोड़ दें.
कुछ मामलों में इस धमकी ने काम भी किया. हम संकरखोल गांव के जंगलों में पहुंचते हैं जहां संघ कार्यकर्ताओं का एक समूह 18 ईसाइयों को फिर से हिंदू बना रहा है. दुबले-पतले और दाढ़ी रखने वाले संघ के मंडल मुखिया सुधीर प्रधान इसके इंचार्ज हैं. ये 18 ईसाई अपना मन न बदल लें ये सुनिश्चित करने के लिए 30 के करीब हिंदू भी मौजूद हैं. हर ईसाई अपने साथ उड़िया में लिखी एक बाइबल, हाथ पर बांधने के लिए कलावा, नारियल, अगरबत्तियां और माथे पर लगाने के लिए तिलक लाया है. ये ईसाई सबसे पहले वहां पर लगाई गई आग में बाइबल जलाते हैं. उसके बाद वे एक गोल घेरे में बैठते हैं जिसके बीच में नारियल रखे जाते हैं. सबसे पहले पड़ाड़ियों के देवताओं की स्तुति होती है. उसके बाद एक ईसाई उठता है. हाथ में नारियल लिए वह कहता है, “मैं शपथ लेता हूं कि आज मैं हिंदू बन गया हूं. आज के बाद अगर मैं फिर कभी ईसाई बना तो मेरा वंश खत्म हो जाए.” वह नारियल को एक पत्थर पर पटककर फोड़ देता है. बाकी लोग भी यही प्रक्रिया दोहराते हैं. कुछ बुदबुदाते हैं, तो कुछ चिल्ला-चिल्लाकर ऐसा कहते हैं. एक हिंदू पुजारी ईसाई से हिंदू बने इन व्यक्तियों के माथे पर तिलक लगाता है.
इसके बाद कमान सुधीर प्रधान थामते हैं. तनी मुद्रा में आंखें बंद करके वो ओम और गायत्री मंत्र का पाठ करते हैं. इसके बाद नारों की आवाज आती है. भारत माता की जय...गंगा माता की जय...गौ माता की जय...श्री रामजन्मभूमि की जय. फिर कुछ समय के लिए चुप्पी छा जाती है. ईसाई से हिंदू बने लोग झुकते हैं और जमीन पर माथा लगाते हैं. नारा गूंजता है, जय श्री राम. ईसाई से हिंदू बनने का पहला चरण पूरा हो चुका है.
इन ईसाइयों के लिए हिंदू बनने की वजह जान की सलामती है. वे कंधमाल में रहना चाहते हैं. अपने घर की सुरक्षा चाहते हैं. कुछ महीनों में ईसाई से हिंदू बने इन लोगों से एक यज्ञ में हिस्सा लेने को कहा जाएगा. इसमें उन्हें भगवा कपड़े पहनकर पवित्र धागा बांधना होगा. उनके केश भी काटे जाएंगे. इसकी फीस के तौर पर वे कुछ बकरियां और कुछ चावल देंगे. उन्हें पीने के लिए गौमूत्र और तुलसी का जल दिया जाएगा. वे संकल्प लेंगे और फिर मिलजुलकर चावल और मांस खाएंगे जो उन्हीं के चढ़ावे से बनेगा. ये हिंदू बनने का आखिरी चरण होगा. इसके बाद उन्हें घर पर तुलसी का पौधा रखना होगा, दीवारों पर देवी-देवताओं की तस्वीरें टांगनी होंगी और हिंदू त्यौहार मनाने होंगे.
प्रधान खुश हैं. उनका आज का काम हो गया है. वे हिंदू और ईसाई के बीच का फर्क समझाते हुए कहते हैं, “वे (ईसाई) गाय खाते हैं. हम गाय की पूजा करते हैं. इसलिए जो लोग गाय खाते हैं उनके साथ वैसा ही व्यवहार होना चाहिए जैसा वे गायों के साथ करते हैं.” प्रधान कहते हैं कि तोगड़िया ने ये नीति बनाई है. वे बताते हैं, “तोगड़िया पहले ही ऐलान कर चुके हैं कि ईसाइयों के लिए कोई जगह नहीं है. अगर वे हिंदू नहीं बनते तो उन्हें जाना होगा. हमें कोई परवाह नहीं वे कहां जाते हैं. उन्हें उड़ीसा छोड़ना होगा.”
मगर लोगों को मारने और बाहर भगाने की कवायद क्यूं? सिर्फ हिंदुओं का प्रतिशत 95 से 100 तक लाने के लिए? कंधमाल के जिला मजिस्ट्रेट डॉ कृष्ण कुमार का मानना है कि इसके पीछे की पहली दो वजहें नौकरियां और जमीन है और धर्म का नंबर इसके बाद आता है. हिंदू गुटों ने जब ईसाइयों पर हमला शुरू किया तो कुमार को रातोंरात कंधमाल का चार्ज दिया गया. सरस्वती की हत्या के बाद उन्हें सूचना मिली कि रैकिया में एक पादरी की हत्या हो गई है. कुमार कहते हैं, “जिस यात्रा में आमतौर पर दो घंटे लगते हैं उसे पूरी करने में मुझे 11 घंटे लग गए. सड़कों पर कई पेड़ काट कर गिरा दिए गए थे.”
कुमार बताते हैं कि उन्हें क्यों नौकरी कंधमाल में छिड़ी लड़ाई की पहली वजह लगती है। उनका कहना है कि उनके प्रशासन के पास जाली जाति प्रमाणपत्र पेश करने के 1000 मामले हैं. साफ है कि कई गैरआदिवासियों ने—आम तौर पर दलित--खुद को कंध जनजाति का बताते हुए जाली प्रमाणपत्र पेश किए हैं. दरअसल कानून अनूसूचित जनजातियों को धर्म परिवर्तन के बाद भी नौकरियों में आरक्षण देता है. लेकिन अनुसूचित जाति को धर्मपरिवर्तन करने पर आरक्षण का लाभ नहीं मिलता. यानी कि कुमार की मानें तो पना, ईसाई बनने के बाद भी आरक्षण के लालच में कंध आदिवासियों की नौकरी के अवसरों में सेंध लगा रहे हैं. कंधमाल में सरकारी नौकरी का बड़ा महत्व है क्योंकि यहां निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसर न के बराबर हैं.फिर मसला जमीन का भी है. कुमार कहते हैं, “आदिवासी यहां हमेशा से हैं. वे यहां के मूल निवासी हैं. उन्हें कभी ये साबित नहीं करना पड़ा कि जमीन उनकी है. बीसवीं सदी की शुरुआत में उनके इलाके को बाहरी दुनिया के लिए खोल दिया गया. जमीनों के पट्टे दिए जाने लगे. उन्होंने खुद भी अलग-अलग वजहों से अपने पड़ोसियों को जमीन दी. जब मालिकाना हक साबित करने का वक्त आया तो वे ऐसा नहीं कर सके. दूसरे लोग जमीनों पर काबिज होने लगे और आदिवासी बाजारवादी अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं बन सके.” इसलिए अनुसूचित जनजाति के हिंदुओं और अनुसूचित जाति के ईसाइयों के बीच टकराव की एक वजह ये भी हो सकती है.
इस पूरे मुद्दे में एक नया पहलू नवंबर 2007 में जुड़ा जब उड़ीसा सरकार ने कहा कि दलित और आदिवासी दोनों एक ही परिवार यानी कुई समाज का हिस्सा हैं. दरअसल कुई कंधमाल में प्रचलित बोली है और सरकार का इरादा इसे दलित और आदिवासियों को आपस में जोड़ने का जरिया बनाने का था. इससे भी ज्यादा अहम ये है कि इसकी मंशा दलितों को आरक्षण और वे दूसरे सामाजिक लाभ देना था जो जनजातियों को मिलते हैं, भले ही उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया हो. आदिवासियों ने इसका कड़ा विरोध किया.
और अब इस जटिल मिश्रण में धर्म का रंग भी घुल गया है.
कंधमाल में मिशनरी पहली बार करीब 300 साल पहले आए. उन्होंने यहां स्कूल और अस्पताल खोले. उन दिनों यहां मलेरिया का कहर हुआ करता था. मिशनरी घर-घर जाते और मलेरिया और दूसरी बीमारियों के शिकार लोगों की सहायता करते. तब इन इलाकों की तरफ कोई झांकता भी नहीं था. चर्चों ने लोगों तक अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाईं. हो सकता है कि उस दौर में मलेरिया से पीड़ित कुछ लोग जब ठीक हो गए हों तो इसे चमत्कार के रूप में प्रचारित किया गया हो. आज भी कंधमाल में हिंदू से ईसाई धर्म अपनाने वाले ज्यादातर लोग कहते हैं कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि जब उन्होंने जीसस से प्रार्थना की तो उनके परिवार का कोई सदस्य चंगा हो गया. 1998 में ईसाई धर्म अपनाने वाली नर्मदा दिघल बताती हैं, “मेरी बेटी सुभद्रा को रहस्यमय बुखार हो गया था. मैंने कई हिंदू देवी-देवताओं की आराधना की मगर वो ठीक नहीं हुई. एक दिन मेरे पति ने मुझे एक पादरी के बारे में बताया जिसका कहना था कि हमें यीशु से प्रार्थना करनी चाहिए. मैंने ऐसा ही किया और मेरी बेटी ठीक हो गई. मुझे ईसाई क्यों नहीं बनना चाहिए?”
नर्मदा के पति गोवर्धन एक स्थानीय ऑफिस में नौकरी किया करते थे. उन्हें अपनी बेटी सुभद्रा को अक्सर मेडिकल चेकअप के लिए ले जाना पड़ता था. ऐसे ही एक चेकअप के लिए गोवर्धन ने जब अपने अधिकारी से छुट्टी मांगी तो उन्हें नौकरी से ही हाथ धोना पड़ गया. उनकी मुसीबत के बारे में जब स्थानीय पादरी ने सुना तो उन्होंने गोवर्धन से यीशु, बाइबल और ईसाई धर्म की चर्चा की. गोवर्धन और उनके परिवार ने ईसाई धर्म अपना लिया. उन्हें बाइबल दी गई और बताया गया कि यीशु ही ऐसे अकेले भगवान हैं जिन्होंने औरों के लिए अपनी जिंदगी दे दी. छह महीने के बाद उन्हें दीक्षा दी गई. नर्मदा बताती हैं कि गोवर्धन को पहले महीने 800 रुपये दिए गए और उसके बाद छह महीने तक हर महीने 2000 रुपये दिए जाते रहे.
गोवर्धन जैसे लोगों के किस्सों ने चर्च के प्रसार में मदद की है. आज कंधमाल में करीब डेढ़ हजार चर्च हैं और उनके अनुयायियों की संख्या दो लाख तक पहुंच गई है.
लक्ष्मणानंद सरस्वती जैसे व्यक्ति के लिए चर्च का उदय अपमान सरीखा था. अनुयाइयों की नज़र में सरस्वती परशुराम के अवतार थे. कथा मशहूर है कि परशुराम ने 21 बार धरती से क्षत्रियों का संहार किया था. सरस्वती खुद को ईसाइयों का संहार करने वाला संत मानते थे. सरस्वती अति पिछड़ी जाति से संबंध रखने वाले एक सरकारी कर्मचारी थे जिन्हें कुछ अप्रिय परिस्थितियों के चलते अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी थी. कहा जाता है कि कुछ अनियमितताओं की बात सामने आई थी. इसके बाद हत्या के मामले में एक पुलिस रिपोर्ट और आपराधिक षडयंत्र की अपुष्ट ख़बरों के अलावा उनके बारे में और ज्यादा कुछ पता नहीं चलता.
1960 के दशक में आरएसएस नेतृत्व ने सरस्वती को बुलावा भेजा. मार्क्सवादियों के उलट जो अब औद्यौगिक शहरों की ओर रुख कर रहे थे, आरएसएस अपनी योजनाओं को देश के सबसे पिछड़े इलाकों में लागू करने की शुरुआत कर रहा था. उड़ीसा के तत्कालीन आरएसएस प्रमुख भूपेंद्र कुमार बसु ने सरस्वती के लिए कंधमाल का चुनाव किया.
सरस्वती ने ईसाइयों के विरोध में अपनी पूरी ऊर्जा झोंक दी. 1969 में उन्होंने चक्रपाड़ा में अपना आश्रम शुरू किया जिसमें इस समय 300 से 400 हिंदू बच्चे हैं जिन्हें आरएसएस के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं के रूप में प्रशिक्षित किया जा रहा है. सरस्वती ने पुराने मंदिरों के पुनरोद्धार के लिए स्वयंसेवकों को तैनात कर रखा था और ईसाइयों को रोकने के लिए उन्होंने आदिवासियों के रहन-सहन पर भी काफी काम किया था.
सरस्वती ने इलाके में सत्संग की शुरुआत की और आदिवासियों के बीच लोकप्रिय शराब और गोमांस के खिलाफ अभियान चलाना शुरु किया. उनके अनुयायी मानते हैं कि सरस्वती ने आदिवासियों के बीच स्वस्थ रहन-सहन की परंपरा पुनर्स्थापित करने का काम किया. संयोगवश ठीक यही तरीका ईसाई भी अपने अनुयाइयों के बीच अपना रहे थे.
1988 में सरस्वती ने जलेसपाड़ा (जहां वो मारे गए) में अपने दूसरे आश्रम की नींव डाली जो सिर्फ लड़कियों के लिए था. ये विवाद की वजह बन गया, एक पूर्ण आवासीय युवा लड़कियों के विद्यालय में पुरुष शिक्षकों पर सवाल खड़े किए जाने लगे. इसी दौरान सरस्वती ने ईसाई बने आदिवासियों को दोबारा हिंदू बनाने और गौ-रक्षा को अपना ध्येय बना लिया.
दिसंबर 2007 मे एक चर्च के सामने की सरकारी ज़मीन पर ईसाइयों द्वारा मेहराब खड़ा कर लेने पर सरस्वती ने अपने अनुयायियों को इसे ध्वस्त करने का आदेश दिया. ईसाइयों का कहना था कि मेहराब सिर्फ क्रिसमस के लिए बना था और उसे दो या तीन दिन बाद हटा लिया जाना था. लेकिन सरस्वती ने किसी की नहीं सुनी. उनके आदमियों द्वारा मेहराब गिराने के बाद सरस्वती इसे देखने के लिए वहां जा रहे थे. जब वे एक गांव से गुज़र रहे थे जहां ईसाई आबादी हिदुओं से कही ज्यादा थी तो भीड़ ने उनकी कार रोक कर उन्हें कार से बाहर खींच लिया. उनके ऊपर पथराव किया गया. सरस्वती के एक सहयोगी ने अपने विश्व हिंदू परिषद के मित्रों को फोन कर कहा, “बाबा को मार दिया”. उसके बाद बड़े पैमाने पर वहां दंगे शुरू हो गए.
दिसंबर के दंगों के बाद सरस्वती ने आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र को संभवत: अपना आखिरी इंटरव्यू दिया. उन्होंने कहा, “संख्या बढ़ने के बाद से ईसाई जबर्दस्ती हिंदुओं की लड़कियों को उठा ले जाते हैं और फिर इनका धर्म परिवर्तन करा कर उन्हें गौमांस खाने को मजबूर करते हैं. ईसाई इन जानवरों के मृत अवशेषों को मंदिरों पर फेंक देते हैं.” उनके मुताबिक ईसाई मिशनरी उन्हें ये कह कर दवाएं देते हैं कि ये यीशू का प्रसाद है.
अपने इंटरव्यू में ये कहते हुए कि चर्चों को विदेशों से बड़ी मात्रा में पैसा मिल रहा हैं सरस्वती ने ये मांग भी की कि देश में धर्म परिवर्तन को ग़ैर-क़ानूनी घोषित किया जाए. उन्होंने चेतावनी दी कि भारत के ईसाइयों को ये बात जल्द से जल्द समझ लेनी चाहिए कि हर साल अमेरिकी प्रशासन द्वारा जारी की जाने वाली हिंदू-विरोधी और मानवाधिकार संबंधी रिपोर्टे उन्हें सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती. ईसाइयों को सिर्फ बहुसंख्यक हिंदुओं की भलमनसाहत से ही सुरक्षा मिल सकती है, जिनके बीच उन्हें रहना है.
उड़ीसा के आदिवासियों के युद्ध कौशल के किस्से इतिहास का हिस्सा हैं. अशोक ने कलिंग पर 261 ईसापूर्व में हमला किया था. उस वक्त किसी राजा ने तो अशोक से मुकाबला करने की हिम्मत नहीं की लेकिन इन आदिवासियों ने उन्हें नाको चने चबवा दिए. अशोक ने कलिंग की लड़ाई तो जीत ली लेकिन इस लड़ाई में 110,000 लोग खेत रहे. इसके बाद अशोक ने फिर कोई लड़ाई नहीं लड़ी और बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया.
इसी विरासत का प्रतिनिधित्व करता है 19 साल का रूपेश कन्हार. 28 अगस्त को गोपिंगिया गांव के जंगल में हुई आरएसएस की बैठक--जिसमें ईसाइयों पर हमले की रूपरेखा तैयार की गई--में रूपेश अपने दोस्तों के साथ मौजूद था. जंगलों में रहने वाले इस तेज़तर्रार कंध आदिवासी ने 2006 में सरस्वती के चक्रपाड़ा आश्रम से अपनी पढ़ाई पूरी की थी. इस बैठक में रूपेश के साथ उसके दोस्त भीमराज के अलावा करीब 15 औऱ भी लोग शामिल थे मीटिंग में फैसला किया गया कि वो ईसाइयों को मारेंगे नहीं बल्कि उन्हें इतना डरा देंगे कि वो कंधमाल छोड़ने को मजबूर हो जाए.
बिना अटके आरएसएस की प्रार्थना सुनाने वाले रूपेश ने किसी की हत्या तो नहीं की पर कइयों के घर ज़रूर आग के हवाले कर दिए. कुछ ही घंटों में वो और उसके साथी फिर से हमले के लिए तैयार होंगे. तब तक उनमें से कुछ नशे में धुत हो चुके होंगे. 200 लोगों का समूह करीब 9 बजे रात में इकट्ठा होगा. उनके पास कुल्हाड़ी, तलवार, माचिस और मशालें होंगी. वो अपनी कलाइयों पर लाल धागा बाधेंगे, और एक दूसरे के माथे पर तिलक लगाएंगे. सिर पर बंधी पट्टी के अलग-अलग रंग उनके संकेत होते हैं. अगर लड़ाई एससी बनाम एसटी की होती है तो सिर की पट्टी लाल होती है. आज की रात लड़ाई हिंदू बनाम ईसाई की है इसलिए सिर पर केसरिया पट्टी होगी.
मगर 35 वर्षीय विजय प्रधान जैसे लोग भी हैं जो इस समय रैकिया में छिपे हुए हैं. प्रधान बताते हैं कि वो आठ सालों तक आरएसएस के कार्यकर्ता रहे. उन्होंने सरस्वती के साथ काम किया और कई धर्म परिवर्तन अभियानों का संचालन भी किया. “फिर एक दिन एक पादरी ने मुझे जीसस के बारे में बताया. मुझे लुभाने के उसके साहस पर मैं हैरत में था लेकिन इससे मैं उत्सुक हो उठा.” प्रधान कहते हैं.
प्रधान इसके बाद काफी भ्रमित हो गए थे. “26 जनवरी 1994 को मैंने सृष्टि के रचयिता को चुनौती दी...मैंने धमकी दी कि अगर तुमने मुझे दर्शन नहीं दिया तो मैं नास्तिक बन जाऊंगा. मैं रातभर सो नहीं सका. 4.30 बजे सुबह जब मैं योग के लिए तैयारी कर रहा था तो मुझे एक मानवीय आकृति दिखाई दी. उसके ईर्द-गिर्द खूब प्रकाश हो रहा था. एक आवाज़ आई—मैं ही हूं जिसकी तुम्हें तलाश है,” प्रधान ने बताया.
प्रधान के मुताबिक इसके बाद से उनके सोचने की दिशा ही बदल गई. उन्होंने धर्म का प्रचार करना और चर्च जाना शुरू कर दिया. “आरएसएस के लोग मेरे पास आए और पूछा तुमने धर्म क्यों परिवर्तित कर लिया. उन्होंने मुझसे पूछा इसके बदले में कितना पैसा तुझे मिला. मैं भी लोगों से यही सवाल पूछा करता था. पर मुझे कोई पैसा नहीं मिला था. आरएसएस वाले मुझे खोज रहे है. जब तक यहां फसाद है मुझे छिपना पड़ेगा,” वो कहते हैं.
इस सब के दौरान प्रशासन की अनुपस्थिति साफ महसूस की जा सकती है. उड़ीसा का क़ानून धर्मांतरण की इजाज़त देता है. लेकिन लोगों को इसके लिए डीएम की अनुमति लेना आवश्यक है. डीएम इसकी पड़ताल करते हैं और यदि उन्हें विश्वास हो जाता है कि इसमें किसी तरह का लेन-देन नहीं हुआ है तो फिर ये अनुमति मिल जाती है. मगर आधिकारिक रूप से कंधमाल में 1961 के बाद से महज़ दो धर्मांतरण ही प्रकाश में आए हैं.
राज्य की अनुपस्थिति कंधमाल में आम जीवन का हिस्सा बन चुकी है. लोगों को ये तो पता होता है कि इलाके का आरएसएस प्रमुख या मुख्य पादरी कौन है. लेकिन उन्हें गांव के सरपंच या पुलिस प्रमुख के बारे में कुछ भी नहीं पता.
21 सितंबर की रात को रैकिया राहत शिविर में पुलिस महानिरीक्षक ने एक शांति बैठक बुलाई. वहां उनसे मिलने वाले लोगों में एक युवा ईसाइयों का समूह भी था.जिसके मुताबिक रैकिया के दो गांवो- गुनधनी और गमांडी- के रास्ते पर चलने की ज़रूरत है क्योंकि मुख्यतः ईसाई आबादी वाले होने के बावजूद इन्हें अब तक छुआ भी नहीं गया है. कारण, यहां के निवासियों ने मुकाबला करने के लिए देसी बम सहित कई तरह की तैयारियां कर रखी हैं. उन्होंने प्रशासन से खुद को हथियार दिए जाने की भी मांग की. साफ है कि इलाके में परिस्थितियां कुछ ऐसी बन चुकी हैं कि एक धड़े को प्रशासन का डर नहीं है तो दूसरे को उस पर विश्वास.
मगर प्रशासन है ही कहां?