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जाएं तो जाएं कहां !

- दो राहे पर खड़ा राजस्थान का मुस्लिम मतदाता

- विजय प्रताप

राजस्थान में लोकसभा चुनावों टिकट बंटवारे से लेकर प्रचार तक में यहां के दोनों ही राष्ट्ीय दलों को जातिगत नेताओं के आगे नाक रगड़नी पड़ी। हांलाकि दलाल प्रवृत्ति के यह नेता अंततः राजनैतिक दलों से सौदेबाजी कर जनता के भरोसे व विश्वास की कीमत वसूल चुके हैं। पिछले वर्ष भाजपा के ‘ाासनकाल में हुए गुर्जर आंदोलन में 70 से अधिक गुर्जरों को पुलिस ने गोलियों से भून दिया। उस आंदोलन से चर्चा में आए कर्नल किरोडी लाल बैंसला आज उसी भाजपा की गोद में जा बैठे हैं। मीणा जाति के नेता किरोड़ी लाल मीणा भी अंत समय तक कांग्रेस से सौदे बाजी करते रहे। अन्ततः कांग्रेस ने उनके साथ के ज्यादातर विधायकों को अपनी तरफ मिला मीणा को ही अकेला छोड़ दिया।
इन सब के बीच राज्य का एक बड़ा वोट बैंक अल्पसंख्यक मुसलमान चुनाव के अंतिम क्षणों तक खामोश है। न तो उसकी तरफ से कोई ऐसा नेता निकल कर आया जो उसके लिए राजनैतिक दलों से मोलभाव करे और न ही इस समुदाय के बीच से कोई ऐसी आवाज उठी जो दोनों मुख्य दलों की नीतियों का विरोध करे। इस चुनाव में प्रदेश में कांग्रेस और बसपा को छोड़कर किसी भी राष्ट्ीय दल ने मुसलमान को टिकट नहीं दिया। प्रदेश के मुस्लिम हमेशा कांग्रेस के साथ रहे हंै, इसलिए कांग्रेस की भी मजबूरी है कि उसे खुश करने के नाम पर ही सही एक टिकट मुस्लिम उम्मीदवार को दे। सो उसने इस बार चुरू संसदीय सीट से रफीक मण्डेलिया को टिकट दिया है। बसपा ने नागौर से एक पूर्व कांग्रेसी मंत्री अब्दुल अजीज को टिकट दिया है। इसके अलावा दौसा आरक्षित सीट पर कश्मीरी गुर्जर मुसलमान नेता कमर रब्बानी चेची ने पर्चा भर कर वहां मुकाबला त्रिकोणात्मक कर दिया है। इन तीन सीटों के अलावा प्रदेश में कहीं भी कोई मुस्लिम उम्मीदवार मुकाबले में नहीं दिखता। साढ़े पांच करोड़ की आबादी वाले इस प्रदेश में मुसलमानों की आबादी करीब साढे़ आठ फीसदी है। बावजूद इसके चुनावांे में उसे हाशिए पर ढकेला जा चुका है। इसके पीछे कुछ अहम कारण हैं, जिनकी पड़ताल की जानी जरूरी है।
ऐसा नहीं की प्रदेश में मुसलमानों के पास कोई मुद्दा या सवाल नहीं। हां उनके मुद्दे पर सही ढं़ग से आवाज उठाने वाले नेताओं या संगठनों की कमी जरूर है। प्रदेश की द्विधु्रवीय राजनीति में यह विकल्पहीनता ही इस समुदाय को मजबूर करती है कि वो कांग्रेस या भाजपा में से किसी एक को चुन ले। ऐसे में मुसलमानों के सामने कांग्रेस के साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। इस लोकसभा चुनाव से भी ठीक पहले राज्य के 22 मुस्लिम संगठनों ने राजस्थान मुस्लिम फोरम के बैनर तले, संघ व उसकी सहोदर ‘ाक्तिओं को सत्ता से दूर रखने के नाम पर कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की है। हांलाकि कांग्रेस को समर्थन देने की मजबूरी को इस फोरम के नेता भी छुपा नहीं सके। फोरम के संयोजक कारी मोइनुद्दीन इसे मुश्किल किंतु राष्ट्हित का निर्णय बताते हैं। उनका कहना है कि प्रदेश में सांप्रदायिक तत्वों को सत्ता से दूर रखने का और कोई विकल्प नहीं है। कांग्रेस को बिना ‘ार्त समर्थन देने पर अपनी सफाई में कारी कहते हैं कि कांग्रेस को चुनने के पीछे कोई विशेष लगाव या कांग्रेस अच्छी पार्टी है जैसी कोई बात नहीं। हमारी कांग्रेस से भी लाखों शिकायते हैं। लेकिन उसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता इसलिए कांग्रेस को समर्थन देना एक राजनीतिक निर्णय है। फोरम में ‘ाामिल जामत-ए-इस्लामी हिंद के राज्य अध्यक्ष मोहम्मद सलीम इंजीनियर भी इसे ‘दर्दनाक खुशी’ कहते हैं। यह दर्द उभरे भी क्यों न। पिछले कुछ सालों में राज्य में भाजपा व संघ की सरकार ने उनके दिलों के घावों को और कुरेदा है। सलीम इंजीनियर बताते हैं कि ‘‘भाजपा ‘ाासनकाल में राज्य में 100 से अधिक छोटे-बड़े दंगे हुए। इस दौरान प्रदेश में न केवल मुसलमानों को बल्कि अल्पसंख्यक इसाई समुदाय को भी भय व असुरक्षा के साये में जीना पड़ा है। धर्म स्वातन्त्र बिल के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय की आजादी पर लगाम कसने की कोशिश की गई।’’ दरअसल राजस्थान में भी गुजरात की तर्ज पर भाजपा के माध्यम से राष्ट्ीय स्वयं सेवक संघ ने हर तरह से अपने एजेंडे को लागू करने की कोशिश की। संघ व उससे जुड़े संगठनों ने छोटी-छोटी घटनाओं को सांप्रदायिक रूप देकर अल्पसंख्यकों पर हमला किया। फरवरी 2005 में कोटा रेलवे स्टेशन पर आंध्र प्रदेश से किसी धार्मिक सभा में भाग लेकर लौट रहे 250 ईसाइयों पर बजरंग दल, भाजपा व संघ कार्यकत्र्ताओं ने हमला बोल दिया। इस घटना के बाद पीड़ितों की शिकायत दर्ज करने की बजाए पुलिस ने हमलावरों की तरफ से ही जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश का मामला दर्ज किया। उस समय राज्य के पुलिस महानिदेशक ए एस गिल के संघ से रिश्ते जगजाहिर थे। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले नवम्बर 2008 में जयपुर में श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने रही सही कसर पूरी कर दी। इसके बाद बड़े पैमाने पर मुसलमानों की गिरफ्तारियां हुई। जयपुर, कोटा, जोधपुर, सीकर, बूंदी व बारां जिलों से पचासों मुसलमान युवकों को एसटीएफ ने पूछताछ के नाम पर उठाया। उनके रिश्ते बांग्लादेशी संगठन हरकत-उल-जेहाद-ए-इस्लामी व इंडियन मुजाहिद्दीन के साथ बताए गए। पूछताछ के नाम पर उन्हें हफ्तों मानसिक प्रताड़ना दी गई। इसमें से करीब 27 युवक अभी भी जेल की सलाखों के पीछे अपना अपराध सिद्ध होने का इंतजार कर रहे हैं। जयपुर बम विस्फोट से पहले 2007 में अजमेर के ख्वाजा मुउनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के सामने हुए बम विस्फोट के मामले में भी पुलिस ने अपनी मानसिकता के अनुरूप कई मुस्लिम युवकों को उठाया। दो सालों तक संघ के साये में इसकी जांच चली। लेकिन कुछ दिन पहले ही यह खुलासा हुआ कि अजमेर विस्फोट में अभिनव भारत जैसे हिंदू आतंकवादी संगठन का हाथ था। राज्य की पुलिस ने अब इस दिशा में जांच ‘ाुरू कर दी है। संघ गुजरात के बाद राजस्थान को दूसरी प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किया। पिछले पांच सालों में राज्य में संघ ने अपना जबर्दस्त जाल फैलाया और वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से आदिवासी जातियों के बीच भी मुसलमानों व इसाई अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा का बीज बोया। मुसलमानों को यह सारी कसक रह-रह कर टीस देती है। इस दर्द को मुस्लिम मतदाताओं की बातों में भी महसूस किया जा सकता है। कोटा में रहने वाले राशीद वोट देने के सवाल पर कहते हैं कि ‘‘वोट देकर ही क्या होगा। कौन सी पार्टी मुसलमानों का भला चाहती है। चुनाव के समय हमे सभी अपना कहते हैं, लेकिन चुनाव बाद फिर से हमारे बेटों को आंतकवादी व पाकिस्तानी बताया जाने लगता है।’’ राशिद अपनी बातों में जयपुर बम धमाकों के बाद कोटा से उठाए गए लड़कों की तरफ इशारा कर रहे हैं। इन धमाकों के बाद कोटा से फर्जी गिरफ्तारियों पर यहां के मुस्लिम समुदाय प्रतिक्रियास्वरूप कई महीनों तक खुद को अलगाव में रखा। मुस्लिम धर्मगुरुओं ने मीडिया विशेषकर यहां के दो प्रमुख समाचार पत्रों का कई महीनों तक बहिष्कार किया। राज्य के अन्य जिलों में भी मुस्लमानों ने कुछ इस तरह अपना विरोध दर्ज कराया। जयपुर में बांग्लादेशी मजदूरों की गिरफ्तारियों व मुसलमानों को प्रताड़ित किए जाने पर जमात ए इस्लामी हिंद व अन्य संगठनों ने एक यात्रा निकालकर इस बंटवारे की राजनीति का विरोध किया। इस समय कांग्रेस का एक भी नेता खुलकर मुसलमानों के समर्थन में नहीं आया। अब जब कि चुनाव हो रहे हैं कांग्रेसी नेता इस बात को बेहतर तरीके से जानते हैं कि मुुसलमान उन्हें छोड़कर कहीं जा नहीं सकते, इसलिए उन्हें भी मुस्लिम हितों की कोई परवाह नहीं।
राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो राजस्थान का मुसलमान समुदाय उत्तर प्रदेश या बिहार की तरह खुशनसीब नहीं जो कांग्रेस या भाजपा से शिकायत होने पर किसी अन्य दल के साथ जाकर राजनीति में अपनी भागीदारी दर्ज करा सके या कुछ हासिल कर सके। राजस्थान के एक माक्र्सवादी नेता शिवराम कहते हैं कि यहां की परिस्थितियां इन राज्यों से भिन्न हैं। उत्तर प्रदेश या बिहार में मुस्लिम समुदाय के पास विकल्प है तो इसके मूल में वहां मंडल कमंडल आंदोलन का व्यापक प्रभाव है। इन दोनों राज्यों में बाबरी विध्वंस और उसके बाद पिछड़ी जातियों के आरक्षण आंदोलन ने न केवल मुसलमानों को बल्कि हिंदूओं के भी पिछड़े व दलित तबके को भाजपा व कांग्रेस की सांप्रदायिक व बंटाने वाली राजनीति से दूर ले गई। एक तरफ यह दूरी ऐसी जातियों को दूसरे विकल्पों की तलाश करने पर मजबूर किया तो दूसरी तरफ उनके और मुस्लिम समुदाय के बीच की दूरियों को भी कम कर दिया। इससे पहले तक भाजपाई व कांग्रेसी राजनीति का आधार हुआ मुसलमानों व हिंदूओं की बीच की यह दूरी ही सत्ता पाने की कुंजी हुआ करती थी। इसके बाद से इन राज्यों के मुस्लिम समुदाय के साथ भले ही छोटे दलों ने धोखा किया हो, लेकिन वह अभी भी कांग्रेस या भाजपा के साथ जाने पर मजबूर नहीं है।
मीडिया बार-बार कुछ धार्मिक मुस्लिम नेताओं के माध्यम से दिखाने की कोशिश करती है कि मुसलमानों के लिए बाबरी मस्जिद निर्माण या धार्मिक संरक्षण जैसे ही मुद्दे अहम हैं। लेकिन राजस्थान में आम मुसलमानों से बात करिए तो उनका यह कत्तई मुद्दा नहीं। उनके भी मुद्दे वही हैं जो एक हिंदू मतदाता का है न कि किसी कठमुल्ला मुस्लिम धर्मगुरू का। एक सेल्समैन का काम कर रहे 25 वर्षीय युवा आफताब कहते हैं कि उन्हें केवल उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार चाहिए। उनके लिए मस्जिद-मंदिर कोई मुद्दा नहीं है। बीबीए कर चुके आफताब को सेल्समैन का काम करना पड़ रहा है। वह चाहते हैं कि राज्य से बाहर दिल्ली या मुबंई जाकर किसी कंपनी में काम करे। लेकिन आतंकवादी घटनाओं के बाद धड़ाधड़ मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी से उनके माता-पिता आतंकित हैं। उनकी मां ‘ाबाना बेगम कहती हैं ‘‘ हम कम पैसों में भी गुजारा कर लेंगे। लेकिन अल्ला उसे सलामत रखे।’’ एक स्वयं सेवी संगठन में काम कर रहे अनवार अहमद कहते हैं कि ‘‘ सरकार किसी की भी बन जाए सभी हमे पिछड़ा ही रखना चाहते हैं। यही उनकी राजनीति का आधार है।’’ सच्चर कमेटी रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहते हैं कि उसमें हमारी सारी सच्चाई साफ हो गई। लोग कहते हैं हम मदरसों में इस्लामिक शिक्षा ले रहे हैं कितने मुसलमानों के बच्चे मदरसे जाते हैं? सरकारें तो हमें अनपढ़ ही रखना चाहती हैं ताकि वो आगे न बढ़ सके और उनके बारे में वह भ्रम फैलाती रहें। हांलाकि अच्छी सरकार के सवाल का उनके पास भी कोई विकल्प नहीं है। वह चाहते हैं सरकार चाहे जिसकी बने पिछड़े-गरीब तबकों को लाभ मिले क्योंकि गरीबी में हिंदू या मुस्लिम को कोई बंधन नहीं। कुल मिलाकर राज्य का मुस्लिम समुदाय दो राहे पर खड़ा है। एक रास्ता भाजपा व संघ के फासीवादी यातनागृह की ओर जा रहा है तो दूसरा रास्ता छद्म धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़े कांग्रेसी कैंप तक। यहां के मुस्लिम, उजले भविष्य का सपना संजोए वह अंधेरे रास्ते की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।

जंगल नहीं रहेंगे !

विजय प्रताप
राजस्थान में जंगलों पर गंभीर संकट मंडरा रहा है। एक तरफ़ यहाँ के जंगलों की अंधाधुंध कटाई हो रही है तो दूसरी तरफ़ कई क्षेत्रों में यह खनन माफियाओं की भेट चढ़ रहा है। प्रदेश का कोटा संभाग एसा ही क्षेत्र है जहाँ जंगलों पर अंधाधुंध अतिक्रमण और खनन हो रहा है। कोटा के दरा अभ्यारण्य को कई सालों से राष्ट्रिय उद्यान का दर्जा देने की प्रक्रिया चल रही है। लेकिन दूसरी तरफ़ बड़े पैमाने पर खनन भी हो रहा है. यहाँ के कीमती लाल पत्थरों को राज्य के बाहर भी भेजा जाता है. वन अधिकारीयों की मिलीभगत और स्थानीय नेताओं के संरक्षण में माफिया जंगल को समूल नाश पर तुले हैं. पिछले दिनों इसी मुद्दे पर राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित मेरी एक रिपोर्ट.

कोटा। एक तरफ दरा अभयारण्य को राष्ट्रीय उद्यान बनाने की कवायद चल रही है, दूसरी ओर दरा और आसपास के जंगलों में धडल्ले से अवैध खनन जारी है। खनन माफिया अवैध तरीके से अब तक करोडों रूपए का पत्थर बेच चुके हैं। वन विभाग और जिला प्रशासन इस ओर से आंखे मूंदे बैठे हैं। दरा, कनवास और मंडाना रेंज के तहत घने जंगल में तमाम अवैध खदानें चल रही हैं। यहां रोज दर्जनों ट्रॉली कीमती लाल पत्थर मंडाना और कोटा होते हुए अन्य जिलों में भेजा जा रहा है।
30 फुट गहरी खानें
राष्ट्रीय राजमार्ग-12 पर दरा स्टेशन से 2 किलोमीटर आगे सडक के दोनों ओर घना जंगल है। रोड के बार्ई ओर राजकीय वनक्षेत्र में सौ मीटर दूरी पर करीब आधा दर्जन खदानें में पत्थरों की खुदाई हो रही थी। हर खान में 5 से 7 मजदूर करीब 30 से 40 फुट गहरे गbे में पत्थर तोडते मिले।
हर जगह यही
सूरतदरा स्टेशन से आगे सुंदरपुरा, टीपण्या महादेव, जूनापाली, मशालपुरा, मुरूकलां, मंडाना से आगे रावंठा, रतकांकरा, मांदल्या समेत इलाके के कई गांवों में बडे पैमाने पर अवैध खनन चल रहा है। दरा स्टेशन के भगत कहते हैं, "आप यह पूछो कि जंगल में खनन कहां नहीं हो रहा। ये पूरे जंगल को ही साफ कर देंगे।"

क्यूबा-कास्त्रो को लाल सलाम !!

क्यूबा की क्रांति के पचास साल ऐसे अहम दौर में पूरे हुए हैं, जबकि पूरी दुनिया में कथित तौर पर मंदी छाई है. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और उसके पैरोकार एक बार फ़िर मार्क्स की 'पूँजी' के पन्ने पलट रहे हैं. ऐसे दौर में क्यूबा उनके लिए लाइट टॉवर की तरह है. क्यूबा की क्रांति को शिवराम अपना सलाम पेश कर रहे हैं. शिवराम ख़ुद भी बड़े मार्क्सवादी विचारक और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के पोलित ब्यूरो सदस्य है. राजस्थान के कोटा शहर के रहने वाले शिवराम एक कुशल संगठनकर्ता के साथ-साथ रंगकर्मी व साहित्यकार भी हैं.

- शिवराम
क्यूबा की क्रांति को 50 वर्ष पूरे हो गए हैं। क्यूबा समाजवादी व्यवस्था की श्रेष्ठता का जीता जागता मिसाल है। समाजवाद की मिसाल तो सोवियत संघ व दूसरे यूरोपीय देशों ने भी बनाई, लेकिन वे इसे कायम नहीं रख सके। पंूजीवादी षडयंत्रों ने उन्हें लील लिया। यद्यपि समाजवादी व्यवस्था की श्रेष्ठता उन्होंने भी सिद्ध की।
क्यूबाई क्रांति के एक साल बाद ही क्यूबा से अशिक्षा नाम की चीज बिल्कुल खत्म हो गई। क्रांति के तुरंत बाद ही प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक की शिक्षा मुफ्त कर दी गई। आज क्यूबा में दुनिया के किसी भी देश से प्रति व्यक्ति शिक्षकों की संख्या ज्यादा है। क्यूबा ने क्रांति के ठीक बाद जो जन साक्षरता अभियान चलाया, वह सारी दुनिया के लिए उदाहरण बन गया।क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी की समझ रही है कि सामाजिक बराबरी के लिए सबसे महत्वपूर्ण औजार शिक्षा है। इसी प्रकार क्यूबा की स्वास्थ्य रक्षा व्यवस्था दुनिया के लिए उदाहरण है।
क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने शिक्षा व स्वास्थ्य को अपने कार्यक्रम में अहम दर्जा दिया। क्यूबा में हर एक लाख लोगों पर 591 डाॅक्टर हैं। यह दुनिया का सबसे बड।ा अंाकडा है। अमेरिका में यह संख्या एक लाख लोगों पर 256 ही है। 2006 के आंकड़ों के मुताबिक शिशु मृत्यु दर 1000 प्रसवों पर मात्र 5 3 है। अमेरिका में यह दर इससे काफी उॅंचा है। भारत जैसे देषों की तो बात ही छोड़िए। क्यूबा में क्रांति से पूर्व शिशु मृत्यु दर इससे दस गुना ज्यादा था। क्यूबा में औसत आयु 78 वर्ष है। क्रांति से पूर्व यह 58 वर्ष था। दूसरे लैटिन अमेरिकी देशों में आज भी शिशु मृत्यु दर क्यूबा से दस गुना ज्यादा है। महिला सशक्तिकरण क्यूबा क क्रांति की एक और बड़ी सफलता है। क्यूबा की कुल श्रमशक्ति में महिलाओं की संख्या 40 प्रतिशत है। तकनीकी श्रम शक्ति में तो महिलाओं की संख्या 66 प्रतिशत है। क्यूबा की राष्टीय एसेम्बली में 36 प्रतिशत महिलाएं है। खेलकूद और कला संस्कृति की दुनिया में क्यूबा की उपलब्धियां दुनिया भर के लिए इर्ष्या का विषय है।
सोवियत संघ के पतन के बाद क्यूबा-क्रांति को भारी संकट का सामना करना पड़ा। एक ओर साम्राज्यवाद ने नाकेबंदी सहित तमाम षड़यंत्र क्यूबाई क्रांति को नेस्तोनाबूद करने के लिए किए तो दूसरी ओर क्यूबा से पूर्व समाजवादी देशों को बड़े पैमाने पर निर्यात होता था, अब वह भी बंद हो गया। पूरी अर्थव्यवस्था संकट में आ गई। क्यूबा का 85 प्रतिशत व्यापार समाजवादी शिविर देशों से था। 1993 में क्यूबा की अर्थव्यवस्था में 39 प्रतिशत की गिरावट आ गई थी। दुनिया के पूंजीवादी भविष्यवक्ता क्ूयबाई क्रांति का मर्सिया पढ़ने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन क्यूबा के श्रमजीवी जन-गण ने अपनी क्रांतिकारी सरकार के नेतृत्व में फिर करिश्मा कर दिखाया।2005 तक क्यूबा की अर्थव्यवस्था वापस अपनी पुरानी स्थिति में लौटने बढ़ने लगी। एक बात जो बहुत महत्वपूर्ण है कि सोविय संघ के पतन के बाद के वर्षों में जब क्यूबा की अर्थव्यवस्था संकट में फंस गई, तब भी क्यूबा की सरकार ने जनता की मूलभूत आवश्यकताएं, जो क्यूबाई क्रांति की चार प्राथमिकताओं के नाम से जानी जाती है जारी रखी। ये हैं- १. मुफ्त स्वास्थ्य सेवा २. मुफ्त शिक्षा ३. सभी के लिए सामाजिक सुरक्षा और ४. सभी के लिए आवास।
क्रांति ने क्यूबा में जो एक और बड़ा काम किया वह है- नस्लवादी विचारों व भावनाओं का खात्मा। क्रांति से पहले क्यूबा में नस्ली पूर्वाग्रह बहुत था। इस क्षेत्र में क्यूबा में दास प्रथा सबसे बाद में समाप्त हुई थी। क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने क्रांति के फौरन बाद आधारभूत भूमि सुधार लागू किया और आवासविहीन लोगों को आवास उपलब्ध कराए। इस तरह हाशिये पर पड़ी अश्वेत आबादी को सुरक्षाव सम्मान दोनों उपलब्ध कराया। शिक्षा के प्रसार ने हीन बोध से मुक्त किया और उनकी गरिमा स्थापित की। क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी ने क्रांति के ठीक बाद पूरे देश में नस्लवाद के विरुद्ध विचारधारात्मक अभियान चलाया। उसने अफ्रीकी देशों का भी नस्लवाद उपनिवेशवाद से लड़ने में सहयोग किया। सत्तर व अस्सी के दशक में अफ्रीकी देशों के मुक्ति आंदोलनों तथा प्रगतिशील सरकारों की क्यूबा सरकार व कम्युनिस्ट पार्टी ने महत्वपूर्ण मदद की। अल्जीरिया की मोरक्कों के आक्रमण के समय सैनिक मदद की । कांगो के मुक्ति के योद्धाओं के संघर्ष में तो चेग्वेरा अपने साथियों सहित खुद शामिल हुए । अंगोला, मोजाम्बिक, केप वर्दे व नामीबिया जैसे देशों की आजादी के लिए चले संघर्षों में क्यूबा ने आगे बढ़कर मदद की। उसने दक्षिण अफ्रीका से रंगभेद के खात्मा व विऔपनिवेशिकरण की प्रक्रिया में प्रभावशाली भूमिका निभाई।क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने सर्वहारा अंतर्राश्ट्ीयतावाद का झंडा जिस मजबूती से थामे रखा वह बेमिसाल है। एशिया, अफ्रीका व खासकर लैटिन अमेरिकी देषों में उसने राश्ट्ीय मुक्ति आंदोलन के लिए प्रेरणास्पद सहयोग किया। अभी भी क्यूबा के 30 हजार से अधिक डाॅक्टर तथा स्वास्थ्यकर्मी लैटिन अमेरिकी व कैरीबियाई देषों में तैनात हैं।
फिदेल कास्त्रों का कहना है कि क्यूबाईयों के लिए यह चमत्कार कर दिखाना इसलिए संभव हुआ ‘‘क्योंकि क्रांति को हमेशा से राष्ट का, एक प्रभावशाली जनता का, जो बड़े पैमाने पर एकजुट, शिक्षित व लड़ाकू हुई है, हमेशा से समर्थन हासिल था और रहेगा।’’ कास्त्रों की हत्या की 600 बार कोशिशें की गई। फिर भी वह जिंदा हैं। क्यूबाई क्रांति को समाप्त करने की हजारों कोशिशें फिर भी वह कास्त्रों की तरह जिंदा है। क्यूबा और कास्त्रों ने पूंजीवादी दुनिया को ठेंगा दिखाते हुए हर क्षेत्र में समाजवाद की श्रेष्ठता को स्थापित किया है। फिदेल कास्त्रों ने सत्ता हस्तान्तरण करके भी एक मिसाल कायम की है। अब जब साम्राज्यवादी पूंजीवाद अर्थव्यवस्था धराषराई है और फिर से सारी दुनिया समाजवादी राजनैतिक अर्थशास्त्र की ओर देखने लगी है। सोवियत संघ व समाजवादी देषों की पहली पीढ़ी के पतन के बाद जो निराषा का माहौल छाया था वह छंटने लगा है। क्यूबा और कास्त्रो ने लाल सितारे की तरह, धू्रव तारे की तरह चमक रहे हैं और दुनिया को अग्रगति का रास्ता दिखा रहे हैं।
क्यूबा और कास्त्रो को लाल सलाम !!
क्यूबाई क्रांति अमर रहे !!
- शिवराम से ०9414939576 या abhiwyakti@gmail.com के जरिए संपर्क किया जा सकता है।

लेखकों की भूमिका पर बहस

विजय प्रताप

'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच की ओर से रविवार को राजस्थान के कोटा शहर में एक सार्थक बहस आयोजित की गई. इलाहाबाद और दिल्ली में इसी कई बहसों का हिस्सा बनने का मौका मिला लेकिन कोटा जैसे शहर में इसी बहस पहली बार देखने को मिला. कोटा पहले उद्योग नगरी के रूप में जाती रही है लेकिन भुमंद्लिकर्ण की नीतियों के बाद इसका भी वही हश्र हुआ जो देश के अन्य उद्योग कारखानों का है. इस लिहाज से बहस का विषय भूमंडलीकरण की नीतियां और लेखकीय दायित्व सार्थक ही था.
बहस में जोधपुर विश्विद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर डॉ. सूरज पालीवाल ने भूमंडलीकरण, बाजारवाद और उत्तर-आधुनिकतावाद को एक ही सिक्के का पहलु बताया. उन्होंने कहा की भारत में इसका आगमन मीडिया के प्रभाव से ऐसे समय में हुआ जब की यह पूरी तरह आधुनिक भी नहीं हुआ. देश में अभी भी १६-१७वी सदी की रूढियां मौजूद हैं. एक सोची समझी साजिश के तहत हमारी स्मृतियों, इतिहास और भाषा-संस्कृति की हत्या की जा रही है. युवाओं को करोड़पति बनने के सपने दिखाए जा रहे हैं. समय को सौ बर्ष पीछे ले जा जाती, धर्म व भाषा के सवालों में लोगों को उलझाया जा रहा है. झालावाड से आए डॉ विवेक मिश्र ने कहा की भूमंडलीकरण और बाजारवाद मनुष्य और मनुष्यता दोनों को ख़त्म कर रही हैं. हमें मनुष्य को विशेष कर, उस मनुष्य को बचाना है जो वंचित-पीड़ित है. समीक्षक शैलेन्द्र चौहान ने कहा की बाजारवादी व्यवस्था अपने ही अंतर्विरोधों से टूट रही है. साहित्यकार और नाटककार शिवराम ने कहा की वसुधैव कुटुम्बकम में सभी शामिल हो तो ठीक लेकिन अगर यह केवाल २० फीसदी लोगों का हो तो कतई मंजूर नहीं. उन्होंने रचनाकारों को पूंजीवादी-साम्राज्यवादी अवधार्नावों को समझने पर जोर दिया. कहा की रचनाकारों को समाज से जुड़ना होगा तभी जनता की आवाज बुलंद होगी.
शिवराम ने ख़ुद को कभी साहित्यकार या नाटककार की सीमा में बाँध कर नहीं रखा. वह ख़ुद तो नाटक लिखते ही हैं साथ ही नए युवाओं को जोड़ कर उनके साथ उसका मंचन भी करते हैं. कोटा में ऐसे ही सक्रीय एक और शख्स महेंद्र नेह ने समारोह का सञ्चालन किया. नेह विकल्प के नए अध्यक्ष भी चुने गए. समारोह में युवा कहानीकार चरण सिंह पथिक, विवेक शंकर, धनि राम जख्मी, अखिलेश अंजुम, हलिम आइना उपस्थित रहे. कवि-चित्रकार रवि ने कविता पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई.
समारोह में कोटा के जाने माने शायरों ने अपने बेहतरीन नगमों से गज़ब का शमा बंधा. रंगकर्मी शरद तैलंग ने दुष्यंत की ग़ज़ल के डॉ शेर वर्तमान व्यवस्था की कहानी कह गए -
"वजन से झुक के जब मेरा बदन दोहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा.
कोई फांके बिता कर मर गया तो,
वो सब कहते हैं की ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा.
यहाँ तो गूंगे और बहरे लोग बसते हैं,
खुदा जाने किस तरह जलसा हुआ होगा."
शायर पुरुषोत्तम यकीन के ग़ज़ल के कुछ शेर देखिए
"कहीं खंजर कहीं हाथों में ले बम निकले,
वो किस मजहब के थे ये न तुम मिले न हम मिले.
हुआ जब कत्ल मासूमों का सड़कों पर,
बचाने तब न मस्जिद से खुदा, न मन्दिर से सनम निकले."
शकूर अनवर ने अपनी ग़ज़ल से लेखकों पर ही कटाक्ष किया-
" खुशनसीबी से दम नहीं निकला,
वरना कातिल भी काम नहीं निकला.
लोग निकले हैं तलवारे लेकर,
और हमसे कलम नहीं निकला."