भ्रष्टाचार की अधूरी लड़ाई


विजय प्रताप

ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी के हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत को हर घंटे 24 करोड़ और हर दिन 240 करोड़ रुपये का चूना गैर कानूनी वित्तिय प्रवाह के जरिये लग रहा है। रिपोर्ट में गैर कानूनी वित्तिय प्रवाह को स्पष्ट करते हुए इसमें भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, आपराधिक व कर अधिकरणों से पैसे छुपाने की प्रवृति को शामिल किया गया है। वर्तमान में भारत सरकार कॉरपोरेट कम्पनियों को प्रतिवर्ष 5 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी दे रही है। बोफोर्स से लगायत हवाला, हर्षद मेहता, केतन पारिख, सत्यम टेलीकॉम, कृष्णा बेसिन, 2 जी स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी, इसरो, बेल्लारी, और इसके अलावा अन्य सभी घोटालों में एक तरह की समानता देखी जा सकती है। इन सभी बड़े घोटलों की जड़ में कॉरपोरेट कम्पनियों का हित रहा है। लेकिन मौजूदा भ्रष्टाचार की बहसों पर गौर करें तो कॉरपोरेट कम्पनियां इस दायरे से पूरी तरह बाहर हैं। भ्रष्टाचार की बहस चला रहे सिविल सोसायटी के लोगों का कॉरपोरेट को बहस के दायरे से बाहर रखना हजम होने वाली बात नहीं है। इसके बिना यह लड़ाई अधूरी रहेगी।
2 जी स्पेक्ट्रम में टाटा, रिलायंस, एयरसेल, स्वान टेलिकॉम सहित कई संचार सेवाएं उपलब्ध कराने वाली कम्पनियों को लाभ पहुंचाने की बात सामने आई। नीरा राडिया के टेपों से यह भी जाहिर हो गया कि कैसे भारत में कॉरपोरेट हितों को ध्यान में रखते हुए मंत्रिमंडल का गठन किया जाता है। हालांकि मंत्री कौन बनेगा यह केवल भारतीय कॉरपोरेट घराने ही नहीं तय करते बल्कि विकिलिक्स के खुलासों में स्पष्ट हो गया है कि मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम मंत्री बनाने के पीछे शुद्ध रुप से अमेरिका का हित था। बहरहाल, मनमोहन सिंह के वितमंत्री से प्रधानमंत्री तक के सफर ने बेतहाशा भ्रष्टाचार की जो इबारत लिखी है, उसकी स्याही उदारीकरण की नीतियां है।
एक तथ्य के अनुसार भारत का विदेशों में जमा काले धन का 68 फीसदी हिस्सा 1991 के बाद का है। ‘91 से पहले जहां प्रतिवर्ष 9.1 फीसदी की औसत दर से विदेशों में काला धन जमा होता था वहीं इसके बाद यह बढ़कर 16.4 फीसदी हो गया। केवल स्विट्जरलैण्ड के बैंकों में 70 लाख करोड़ रुपए काला धन जमा है। यह राशि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 6 गुना और विदेशी कर्ज का 13 गुना है। बावजूद इसके उदारीकरण की नीतियों को भ्रष्टाचार की बहस के दायरे से बाहर कर दिया गया है। सिविल सोसायटी के लोग भ्रष्टाचार को कुछ लोगों के नैतिक पतन के तौर पर देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि जन लोकपाल के लागू हो जाने के बाद से सर्वव्यापी भ्रष्टाचार रुक जाएगा। लेकिन यहां विचारणीय प्रश्न है कि क्या इन नीतियों को रोके बिना भ्रष्टाचार पर लगाम संभव है? अगर नहीं, तो कॉरपोरेट को सिविल सोसायटियों के आंदोलन के दायरे से बाहर रखने में किसका स्वार्थ है?
उदारीकृत नीतियों ने भारत को बिना किसी हो-हल्ले के विभाजित कर दिया। कोटक वेल्थ मैनेजमेंट और क्रिसिल की ताजा रिपोर्ट के अनुसार एक तरफ 2010-11 में 62 हजार ऐसे परिवार थे जिनकी कुल संपत्ति 25 करोड़ रुपये से ज्यादा की है। इनकी संख्या 2016 तक बढ़कर 2 लाख 19 हजार हो जाने की संभावना है। दूसरी तरफ अर्जुन सेनगुप्त कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि 77 फीसदी भारतीय 20 रुपये पर जीने को मोहताज हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के अगुवा अन्ना की सिविल सोसायटी के लोगों का ध्यान जनलोकपाल से आगे नहीं जाता। भ्रष्ट नौकरशाह और राजनीतिज्ञों को सजा दिला देने मात्र से अगर भ्रष्टाचार खत्म हो सकता है तो यह समाज कब का अपराध मुक्त हो जाता।
कॉरपोरेट कम्पनियों को जानबूझकर भ्रष्टाचार के दायरे से बाहर रखने की कोशिश की जा रही है। यह निजिकरण को प्रोत्साहित करने वाली वही मानसिकता है जो सरकारी को ‘अछूत’ मानकर व्यवहार करती है। मसलन निजी है तो वह समाज को बराबरी के स्तर पर लाने के लिए दिये जा रहे आरक्षण के नियमों से बाहर रहेगा। अगर निजी है तो उसे सूचना अधिकार के दायरे से बाहर रखा जाएगा। अगर निजी है, तो वहां वह तमाम श्रम कानून नहीं लागू होंगे जो एक मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने के लिए जरुरी हैं। अन्ना के आंदोलन के दायरे से निजी कम्पनियों को बाहर रखा गया है तो उसके पीछे वह उच्च मध्यवर्ग की शक्ति है जो इन निजी कम्पनियों का बंधुआ मजदूर है और उसका पैरोकार भी। अन्ना को अनशन करने के लिए जिंदल एल्यूमिनियम से 25 लाख रुपये का दान मिलता है तो यह यूं ही नहीं है। इसमें निजीहित समाहित है।
भ्रष्टाचार के दायरे में कॉरपोरेट लूट को शामिल करने के लिए अन्ना भले ही आंदोलन न करें, लेकिन देश का एक हिस्सा इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहता। अभी हाल में एक लंबे अभियान के बाद ‘स्टूडेन्ट्स-यूथ अगेंस्ट करप्शन’ से जुड़े हजारों छात्रों-युवाओं ने दिल्ली में 100 घंटे की मोर्चेबंदी करके उदारीकरण की नीतियों को भ्रष्टाचार के केन्द्र में लाने की कोशिश की। हालांकि मीडिया ने इसे उस तरह का कवरेज नहीं दिया जैसा अन्ना या रामदेव को मिलता है, लेकिन इससे इनके महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता।
वास्तव में जब तक मौजूदा भ्रष्टाचार को उदारीकरण की नीतियों के साथ जोड़कर नहीं देखा जाएगा, उसको मिटाने के सारे प्रयास खोखले साबित होंगे। हमें यह समझना होगा कि क्यों एक तरफ सरकार किसानों के खाद-बीजों से सब्सिडी खत्म कर रही है और क्यों सरकार कॉरपोरेट कम्पनियों को 5 लाख करोड़ रुपये की प्रतिवर्ष सब्सिडी दे रही है? मौजूदा बजट में सरकार ने बड़े निगमों को फायदा पहुंचाने के लिए कॉरपोरेट टैक्स पर सरचार्ज 7.5 प्रतिशत से घटाकर 5 प्रतिशत कर दिया। कॉरपोरेट के पक्ष में पूरी तरह झुकी सरकारों की बेबसी है कि वह चाहते हुए भी भ्रष्टाचार को खत्म नहीं कर सकती। यह कॉरपोरेट की ताकत ही है कि वह किसी मधु कोड़ा जैसे मुख्यमंत्री को महज 4 हजार करोड़ रुपये दे कर लाखों करोड़ रुपये की खनिज संपदा पर अपना अधिकार हासिल कर लें। यह भ्रष्टाचार न तो मधु कोड़ा जैसे लोगों के नैतिक पतन का परिणाम नहीं है, न ही उन्हें सजा दिलाने से खत्म होने वाला। कॉरपोरेट कम्पनियों के लिए मधु कोड़ा, येदुयुरप्पा, ए. राजा, सुरेश कलमाड़ी बहुत छोटे मोहरे हैं, जिनकी शह-मात, उनके दिन-प्रतिदिन का काम है। ऐसे में भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी लड़ाई उदारीकरण की नीतियों और कॉरपोरेट कम्पनियों को बाहर करके मुक्कमल नहीं हो सकती।

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संसद की कैसी सर्वोच्चता ?


विजय प्रताप

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संबोधन में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने कहा कि ‘‘संसद जैसी संवैधानिक संस्थाओं के अधिकारों और विश्वसनीयता को जाने-अनजाने में कम करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए।’’ इसमें कोई दो राय नहीं की लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद की सर्वोच्चता से समझौता नहीं किया जा सकता। यह देश की जनता की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है। लेकिन पिछले दिनों भष्ट्राचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन से डरे राजनैतिक दलों के नेताओं ने एक सुर में कहना शुरू कर दिया कि ‘अन्ना संसद की सर्वोच्चता को चुनौती दे रहे हैं।’ लेकिन क्या संसद की सर्वोच्चता यह चुनौती केवल अन्ना या सिविल सोसाइटी के लोग ही दे रहे हैं या खुद सरकारें भी ऐसा ही कर रही हैं।
स्ंासद की सर्वोच्चता पर चर्चा से पहले सरकार के कुछ हालिया फैसलों पर एक नजर दौड़ते हैं। सरकार ने पिछले दिनों अपने सभी नागरिकों को यूनिक पहचान पत्र जारी करने की योजना यूआईडी प्रोजेक्ट शुरू की। इसके लिए नेशनल आइडेंटिफिकेशन आथॉरिटी ऑफ इंडिया का गठन किया गया और एक कॉरपोरेट कम्पनी के सीईओ नंदन निलेकनी को इसका अध्यक्ष बना दिया। इतनी बड़ी परियोजना शुरू करने से पहले सरकार ने संसद में चर्चा या उसकी अनुमति की जरुरत महसूस नहीं की। इस संबंध में प्रस्तावित बिल अभी लोकसभा में पेश होना बाकी है, लेकिन निलेकनी के नेतृत्व में सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र में एक महिला को परिचय पत्र देकर इस योजना की शुरुआत भी कर दी है।
दूसरा एक उदाहरण नैटग्रिड का है। राष्ट्रीय सुरक्षा और खुफिया मामलों पर नजर रखने के लिए सिक्युरिटी कैबिनेट कमेटी ने हाल ही में नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) को मंजूरी दे दी। इसका कार्यकारी निदेशक कैप्टन रघु रमन को बनाया गया है, जो पूर्व में महिंद्रा स्पेशल सर्विस गु्रप के पूर्व कार्यकारी निदेशक (सीईओ) रह चुके हैं। नैटग्रिड के गठन और रमन की नियुक्ति के मामले में भी संसद की सर्वोच्चता को नजरअंदाज कर दिया गया। सरकार ने देश के प्रतिनिधियों से इस संबंध में सैद्धांतिक मंजूरी की जरुरत भी महसूस नहीं की।
संसद की सर्वोच्चता पर सवाल उठाने वाले सरकार के प्रतिनिधि क्या यह बता सकते हैं कि बिना संसद को विश्वास में लिए यह फैसले क्यों किए गए? राष्ट्रीय महत्व के इस तरह के बड़े फैसलों में पूरे देश को अंधेरे में रखते हुए इसकी बागडोर निजी कॉरपोरेट कम्पनियों को सीईओ को क्यों दे दी गई? क्या जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि या संसद के प्रति उत्तरदायी कोई व्यक्ति इन कामों के योग्य नहीं था? संसद की सर्वोच्चता का दंभ भरने वाली सरकार यहां खुद कटघरे में खड़ी हैं। कॉरपोरेट कम्पनियों के इशारे पर पिछले दिनों सरकार ने न केवल ऐसे फैसले किए बल्कि उसकी जिम्मेदारी भी कॉरपोरेट कम्पनियों के हाथ में सौंप दी। यह सब कुछ संसद की मंजूरी के बगैर किया गया।
आप को नीरा राडिया के टेपों की याद हो तो वो भी संसद और सरकारों की सर्वोच्चता को चुनौती का नंगा सच उजागर करती है। इन टेपों में कॉरपोरेट के इशारों पर मंत्रिमंडल का विस्तार और अपने पंसद के व्यक्तियों को पंसद के मुताबिक मंत्रालय दिलाने का खुला खेल उजागर हुआ। यह खेल न केवल कॉरपोरेट लॉबी द्वारा खेला गया, बल्कि इसमें मीडिया के दलालों का भी बखूबी इस्तेमाल किया गया। क्या मंत्रियों की नियुक्ति में कॉरपोरेट दलालों का हस्तक्षेप संसद की सर्वोच्चता को चुनौती नहीं है?
है। विकिल्किस के खुलासों में अमेरिकी दूतावास की ओर से भेजे गए कूटनीतिक संदेशों में पिछले दिनों भारत में मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम मंत्री बनाए जाने के पीछे अमेरिका के स्वार्थों को स्पष्ट कर दिया। इन खुलासों ने साफ कर दिया है कि भारत में सरकार और मंत्रीमंडल का गठन जनता के इशारों पर नहीं बल्कि अमेरिका में बैठे आकाओं के इशारों पर होता है। ऐसे में क्या यह हमारी संसदीय संप्रुभता को चुनौती नहीं है? भारत के कूटनीतिक और सामरिक मामलों में अमेरिका का हस्तक्षेप कोई नहीं बात नहीं है। पहले भी सरकार ने अमेरिका के इशारों पर संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने मित्र देश ईरान के खिलाफ वोटिंग की है। अमेरिका के दबाव में ही परमाणु करार किया गया जिसमें कई ऐसे उपबंध है, जो सीधे-सीधे तौर पर भारत की संप्रुभता को चुनौती देते हैं। इसी सवाल पर वामपंथी दलों ने यूपीए सरकार से अपना समर्थन वापस लिया था।
लोकतांत्रिक देश में संसद की सर्वोच्चता वास्तव में स्वीकार की जानी चाहिए। लेकिन यह दौर न केवल संसद बल्कि राष्ट्रीय संप्रभुता से भी समझौते का दौर है। इसे संसद में कॉरपोरेट घरानों के बढ़ते हस्तक्षेप से और सामरिक मामलों में बढ़ते अमेरिकी हस्तक्षेप से समझा जा सकता है। वास्तव में यह किसी एक सरकार से जुड़ा मामला नहीं है। इन समझौतों के लिए यूपीए-एनडीए और इनके घटक दल बराबर के जिम्मेदार हैं। जब सारे फैसले कॉरपोरेट कम्पनियों के इशारों या उनके पक्ष में लिए जा रहे हों, संसद की सर्वोच्चता और उसे जनता की प्रतिनिधि संस्था बताना महज मजाक होगा। जनता ने कब कहा कि खाद्य पदार्थों, रासायनिक खादों और बीजों की सब्सिडी में कटौती कर, कॉरपोरेट आयकर में छूट दी जाए। लेकिन सरकार ऐसा कर रही है। पिछले बजट पर एक नजर दौड़ाएं तो एक शर्मनाक सच्चाई आपको मुंह चिढ़ाती मिलेगी। बजट 2010-11 में सरकार ने खाद्य पदार्थों, रासायनिक खादों और ईंधन पर दी जाने वाली सब्सिडी में 20 हजार करोड़ रुपये की कटौती की, लेकिन वहीं कॉरपोरेट कम्पनियों पर लगने वाले आयकर में 88 हजार 263 करोड़ रुपये की छूट दी।
राष्ट्रपति कहती हैं कि ‘‘संसद, देश के सभी हिस्सों के लोगों और राजनीतिक विचारों का प्रतिनिधित्व करती है।’’ कॉरपोरेट कम्पनियों के पक्ष में लिए जा रहे ये फैसले क्या संसद में देश के सभी हिस्सों के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं? जिस देश में रोजाना सैकड़ों किसान आत्महत्या कर रहे हों और 77 फीसदी लोग कुपोषण के शिकार हों उस देश में कॉरपोरेट कम्पनियों को रोजाना 240 करोड़ रुपये की छूट देने को जनता के साथ भद्दा मजाक नहीं कहेंगे? हमारी राष्ट्रपति किस संसद और किन जनप्रतिनिधियों के सर्वोच्चता की बात करती हैं? उस संसद की जहां 70 फीसदी जनप्रतिनिधि करोड़पति हैं और जहां की 77 फीसदी जनता 20 रुपये से भी कम में अपना गुजारा कर रही है।


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परमाणु हादसों से हम क्या सीखे?

विजय प्रताप
जापान में आई सुनामी के बाद फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में विस्फोट दुनिया भर को एक सीख देनी वाली घटना था। ठीक वैसे ही जैसे कभी हीरोशिमा और नागाशाकी ने दुनिया को एक सबक दिया था। फुकुशिमा की घटना के बाद जन दबाव में कई देशों को अपने परमाणु कार्यक्रमों की समीक्षा करनी पड़ी और सबसे अच्छी बात यह कि कईयों ने इसे पूरी तरह से बंद करने का निर्णय लिया। इटली ऐसे ही देशों में से एक है। जर्मनी में न्यूक्लियर पॉवर संयंत्रों को बंद करने के लिए 2022 तक की समय-सीमा निर्धारित की गई। थाईलैंड, जापान में भी इसी तरह के निर्णय लिए जा रहे हैं। परमाणु उर्जा के सबसे बड़े पैरोकार देश अमेरिका को भी अपने परमाणु उर्जा संयंत्रों का काम रोक देना पड़ा। वहां सीबीएन न्यूज द्वारा अप्रैल में कराए गए एक सर्वे में 64 फीसदी लोगों ने परमाणु कार्यक्रमों पर पूरी तरह से रोक लगाने को अपनी सहमति दी।
दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों के ऐसे निर्णयों से इतर, भारत में सरकारें परमाणु उर्जा के नाम पर परमाणु कार्यक्रमों की वैधता दिलाने की कोशिश कर रही है। जब सारी दुनिया में ऐसे कार्यक्रमों को बंद करने पर बहस चल रही है, भारत, जैतापुर में दुनिया का सबसे बड़ा न्यूक्लियर पॉवर प्लांट लगाने के लिए जमीनें अधिग्रहित कर रहा है। जब जर्मनी 2022 तक इसे बंद करने की सोच रहा है, भारत सरकार 2032 तक अपने जरुरत की 25 फीसदी ( 63 हजार मेगावाट) उर्जा न्यूक्लियर से पाना चाहती है। वर्तमान में यह उत्पादन महज 4120 मेगावाट है जो कुल उर्जा खपत का एक प्रतिशत भी नहीं है। ऐसे में सवाल उठता कि क्या हम इतिहास से कोई सबक लेते हैं या नहीं? या फिर इतिहास को त्रासदी के रुप में दुहराते रहने के लिए बकायदा आमंत्रित करते हैं? भारत के लिए हीरोशिमा, नागाशाकी या फुकुशिमा जैसी दूर की घटनाओं से सबक लेने की जरुरत नहीं, यहां का भोपाल की गैस त्रासदी खुद ही ऐसी घटना है, जिससे दुनिया ने सबक लिया। लेकिन हमने क्या सीखा? 25 साल बाद हम फिर ऐसी ही घटनाओं को आमंत्रित करने की दिशा में बढ़ रहे हैं।
जैतापुर में जिस जगह पर न्यूक्लियर पॉवर प्लांट लगाने की बात चल रही है, वह भूकम्प प्रभावित क्षेत्र में आता है। दक्षिणी महाराष्ट्र के इस तटीय क्षेत्र में पिछले दो दशकों में 22 बड़े भूकंप के झटके आ चुके हैं। इसमें से कइयों की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6 से भी ज्यादा रही है। समुद्र तटीय क्षेत्र होने के कारण सुमानी जैसी अन्य प्राकृतिक आपदाओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता। 931 हैक्टेयर में बनाए जा रहे इस संयंत्र पर भारत सहित दुनिया भर के वैज्ञानिकों और संस्थाओं ने सवाल उठाए हैं। भारत के परमाणु उर्जा नियामक बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष ए. गोपालकृष्णन खुद इसके विरोधियों में शामिल हैं। आबादी क्षेत्र में स्थापित किए जा रहे इस संयंत्र से करीब 10 हजार लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा। वो मछुआरे जिनकी आजीविका समुद्र पर निर्भर थी, अपने घर छोड़ देने को मजबूर होंगे। धान के खेत और आम के बगान देखते ही देखते परमाणु उर्जा के नाम पर कुर्बान कर दिए जाएंगे।
सरकारें सारी आपत्तियों को दरकिनार कर ऐसे निर्णय ले रही हैं तो इसके पीछे की राजनीति को समझना जरूरी है। भारत के ऐसे परमाणु कार्यक्रमों को अमेरिका का शह मिल रहा है। अमेरिकी विदेश सचिव कोंडलिजा राईस पिछले दिनों अपने भारत दौरे पर यहां के परमाणु कार्यक्रमों में अमेरिका की दिलचस्पी को जाहिर कर चुकी हैं। साफ-सुथरी और कार्बनरहित उर्जा के नाम पर दरअसल यह कूटनीतिक खेल खेला जा रहा है। अमेरिका भारत को परमाणु उर्जा के नाम पर छूट इसलिए दे रहा है, ताकि वह मध्य एशिया में उसके दुश्मन नम्बर एक ईरान के साथ प्राकृतिक गैस के लिए किए गए करार को रद्द कर दे। कई मायनों में प्रस्तावित गैस पाइपलाइन परियोजना ऐतिहासिक है, और मध्य तथा पूर्व एशिया को कूटनीतिक तौर पर करीब लाने वाली है। कोंडलिजा राइस चाहती हैं कि भारत उर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बने और विदेशों (ईरान) पर निर्भर ना रहे। इसके निहितार्थ समझे जा सकते हैं। राइस के अनुसार ही पिछले दिनों हुई भारत-अमेरिका परमाणु संधि से 3-5 हजार अमेरीकियों को प्रत्यक्ष और 10-15 हजार अप्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा। बेरोजगारी और आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे अमेरिका के लिए यह पैकेज की तरह है। इस करार के बाद आगामी वर्षों में भारत ऐसे जितने भी न्यूक्लियर पॉवर प्लांट स्थापित करेगा उसके लिए रियेक्टर अमेरीकी कम्पनियां देंगी। लेकिन आप को जानकर यह आश्यर्च होगा कि ये सभी रियेक्टर अमेरिका में 40 वर्षों पूर्व बंद कर दिए गए संयंत्रों के हैं। माईल आइर्सलैंड में स्थापित ऐसे ही एक संयंत्र में परमाणु रिसाव के बाद अमेरिका के ये सभी संयंत्र बंद कर दिए गए थे, जिन्हें अब भारत को बकायदा बेचा जा रहा है।
अमेरिकी साम्राज्यवाद का इससे बेहतर नमूना और क्या हो सकता है कि वो खम ठोंक कर भी अपने पुराने कबाड़ भारत को बेच रहा है और यहां की सरकार लाल कालीन बिछाकर उनकी कम्पनियां का स्वागत कर रही है। पिछले साल इन्हीं दिनों परमाणु कार्यक्रमों को वैधता दिलाने के लिए संसद में विशेष सत्र बुलाकर परमाणु दायित्व विधेयक संसद में पारित किया गया जो कि वास्तव में एक छलावा मात्र है। परमाणु दुर्घटनाओं का दायित्व निर्धारित करने के नाम पर सरकार ने ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार कम्पनियों को मात्र 110 मिलीयन डॉलर का मुआवजा देकर इसकी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाने की छूट दे दी। जबकि खुद अमेरिका में ही 450 मिलीयन डॉलर के मुआवजे का प्रावधान है।
दरअसल कार्बनरहित उर्जा के नाम पर जिस न्यूक्लियर पॉवर को बढ़ावा दिया जा रहा है, वह अपने आप में कार्बन से भी कहीं ज्यादा खतरनाक आशंकाओं को समेटे हुए है। ऐसे संयंत्र न केवल मानवीय सभ्यताओं के लिए खतरें हैं, बल्कि इसकी आड़ में तीसरी दुनिया के देशों और वहां की जनता को प्रयोगशाला के चुहों के तौर पर प्रयोग किया जा रहा है। सोलर एजर्नी जैसी बेहद साफ-सुथरी उर्जा का विकल्प होते हुए भी न्यूक्लियर लॉबी इसे विकसित नहीं होने देने चाहती। यह विडम्बना ही है कि जिस महाराष्ट्र में जैतापुर न्यूक्लियर पॉवर प्लांट के खिलाफ लोग लड़ रहे हैं वहीं के हरीश खांडे को लोगों तक सस्ती और स्वच्छ सोलर एजर्नी पहुंचाने के लिए प्रतिष्ठित मैग्सेसे पुरस्कार दिया जा रहा है।

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भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा होता छात्र-युवा



विजय प्रताप

आर्थिक रुप से तबाह हो चुके यूरोपीय देष ग्रीस में पिछले दिनों बड़ी संख्या में छात्र-युवाओं ने अपने भविश्य के आसन्न संकट के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्षन किया। बुरी तरह से तबाह हो चुकी ग्रीस की अर्थव्यवस्था को बचाए रखने के लिए यूरोपीय यूनियन और संयुक्त राश्ट्र संघ ने बड़ी मदद दी। युवाओं की मांग है कि इसे फिजूल खर्च करने की बजाय उनके भविश्य के लिए खर्च किया जाए और उन्हें नौकरियां दी जाए। यह चिंता ग्रीस के युवाओं की अकेली नहीं है। बल्कि कई यूरोपिय देष ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं। कुछ इसी तरह का आंदोलन भारत में भी खड़ा हो रहा है। भारत के छात्र-युवा भी इसी बात को लेकर सषंकित हैं कि उनका भविश्य कैसा होगा? भ्रश्टाचार का बोलबाला और बेरोजगारी ने युवाओं को मजबूर किया है कि वह संगठित होकर इसका विरोध करें। वैसे ही जैसे ग्रीस, पुर्तगाल या मध्य एषियाई देषों में युवा कर रहे हैं।
भ्रश्टाचार और जनलोकपाल पर हो रही तमाम बहसों के बीच पिछले कुछ महीनों में ‘स्टूडेन्ट-यूथ अगेंस्ट करप्षन’ एक ऐसे मोर्चे के रुप में उभरा है, जो न केवल सरकारी महकमों में भ्रश्टाचार की बात करता है बल्कि कॉरपोरेट लूट के खिलाफ भी उतनी ही मजबूती से आवाज उठा रहा है। टाटा-अंबानी और अन्य बहुराश्ट्रीय कम्पनियों को दी जाने वाली हजारों करोड़ रुपये की छूट पर अधिकार जताने वाला यह युवा वर्ग भ्रश्टाचार को केवल जनलोकपाल के दायरे में सिमटते नहीं देखना चाहता। अन्ना हजारे एण्ड कम्पनी के ‘इंडिया अगेंस्ट करप्षन’ से इतर यह आंदोलन भी महज षहरी मध्यवर्ग के चंद लोगों का आंदोलन न बन जाए, इसके लिए इससे जुड़े संगठन देष के छोटे षहरों-कस्बों, स्कूल, कॉलेज और विष्वविद्यालयों में अभियान चल रहे हैं। इस अभियान के तहत ये 9 अगस्त को दिल्ली घेरेंगे। ‘भारत छोड़ो आंदोलन दिवस’ को ये युवा दिल्ली के जंतर-मंतर से ‘भ्रश्टाचारियों भारत छोड़ो’ की आवाज बुलंद करेंगे।
अब यह साफ हो चुका है कि पिछले दिनों भ्रश्टाचार को लेकर लड़ी गई लड़ाई महज चंद मध्यवर्गीय लोगों और मीडिया के सहयोग से लड़ी गई। चूंकि यह मुद्दा ऐसा है कि कोई भी संजिदा नागरिक खुद को इससे अलग नहीं करेगा, इसलिए ऐसा मान लिया गया कि पूरा देष इस आंदोलन के साथ खड़ा है। जबकि अन्ना के आंदोलन का विष्लेशण करें तो यह पाएंगे कि वह भ्रश्टाचार जैसे व्यापक मुद्दें को उसके मूल कारणों से काट कर महज जन लोकपाल बिल तक समेट देना चाहते हैं। अन्ना का आंदोलन उन नीतिगत भ्रश्टाचारों पर पूरी तरह से खामोष है जो किसी कपिल सिब्बल जैसे मंत्री को यह अधिकार देता है कि वो किसी रिलायंस जैसी निजी कम्पनी के टैक्स को 605 करोड़ से घटाकर 5 करोड़ कर दें। छात्र-युवा ये सवाल कर रहे हैं कि स्विस बैंकों में जमा 280 लाख करोड़ रुपये किसके हैं? अगर ये भारत की आम जनता की गाढ़ी कमाई के रुपये हैं, तो सरकार इसे जब्त क्यों नहीं करती?
जन लोकपाल जैसी बहसों का उन नीतिगत बदलावों से कोई लेना-देना नहीं है, जिसकी वजह से किसानों को मौत के मुंह में ढकेला जा रहा है। जन लोकपाल कभी इन सवालों को हल नहीं कर पाएगा कि आखिर इस देष का षिक्षित नौजवान क्यों खाली भटक रहा है? उनके भविश्य पर मंडराता खतरा चंद भ्रश्टाचारियों के जेल चले जाने से टल नहीं जाएगा। आज युवा एक करोड़ नौकरियां जैसे चुनावी वादों से आगे काम को मौलिक अधिकार बनाने की मांग कर रहा है। किसी भी लोकतांत्रिक राश्ट्र में नौकरियां खैरात नहीं हो सकती, जिसे देने का चुनावी वादा किया जाए। भारत ने जिन पष्चिमी देषों से लोकतंत्र जैसी उदार राजनैतिक व्यवस्था की नकल की है, उन देषों में काम को मौलिक अधिकार का दर्जा है। वहां षिक्षा के बाद नौजवानों का या तो काम मिलता है या एक सम्मानपूर्ण जीवन गुजारने भर का बेरोजगारी भत्ता। लेकिन हमारे इस लोकतांत्रिक देष और संवैधानिक तौर पर ‘कल्याणकारी राज्य’ में काम मांगने पर युवाओं पर लाठियां बरसाई जानी आम परिघटना है।
ऐसे देष में षिक्षा और बेरोजगारी जैसे न्यूनतम सवालों से जूझते छात्र-युवाओं का सरोकार भ्रश्टाचार के खिलाफ केवल इतना नहीं हो सकता कि वह जन लोकपाल की मांग करे और हाथों में तिरंगा लेकर सड़कों पर उतर आए। तिरंगा घुमाना और वंदे मात्रम के राश्ट्रवादी नारों से जीवन का सवाल हल नहीं होता। यह चंद षहरी आदर्षवादी युवाओं का नारा हो सकता है, स्कूली बच्चों का रोमांच हो सकता है, लेकिन जब दांव पर जीवन लगा हो तो ये नारा उनके लिए नहीं है। जो युवा दो दिनों तक साधारण रेल के डिब्बों में पिसता हुआ राजधानी पहंुचता है तो वह खोखले राश्ट्रवादी नारों से तुश्ट नहीं होगा। वह सहज रुप से ही ‘इंकलाब’ के नारे लगाएगा।
मुद्दा महज भ्रश्टाचार का नहीं है, बल्कि यह लड़ाई इससे कहीं आगे भ्रश्ट राजनैतिक व्यवस्था तक जाती है। यह स्वाभाविक ही है कि कोई गांधीवादी आंदोलन वहां तक लड़ने की बात नहीं करेगा। न ही उसके इस नारे पर षहरी मध्यवर्ग खड़ा होगा। मीडिया तो कतई नहीं। ऐसे में यह दारोमदार आधी युवा आबादी वाले इस देष के छात्र-नौजवानों पर ही आती है कि वो ग्रीस के युवाओं की तरह सड़कों पर उतरें और अपने सुनहरे भविश्य के लिए खुद लड़ाई लड़े।


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संप्रति: स्वतंत्र पत्रकार
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