नींद नहीं आती मुझे

नींद नहीं आती मुझे
उजाले में नहीं आती है,नींद मुझे
चुभता है,यह फिल्प्स आँखों में
सिकोड़कर बंद कर लू आँखें तो
दिखता है गोधरा का सच मुझे,
लाल हो जाती है आँखें,मांस के लोथड़ों से
तड़पाकर गिरते पशु महोबा के खेत में
विदर्भ की फटी धरती पर किसान का खून सना
गोलियों के छर्रे पर नंदीग्राम का सच लिखा
आँखें ढ़कता हूँ,कपड़े से जब मैं
ओखली सा पेट लेकर,नंगों की एक फौज खड़ी
डर कर आँखें खोलता हूँ,जब मैं-
दिखता है उजाल भारत उदय मुझे
बंद कर लू उंगलियों से जो कान के छेदों को
बिलकिश की चीखों से कान फटता मेरा
किसानों की सिसकियाँ चित्कारती है क्यों मुझे?
शकील के घर सायरन का शोर है,
फौज़ के बूट जैसे मेरे सर पर है,
चक्रसेन के कटते सर की खसखसाहट चूभती है,
अब उजाले में नींद मुझसे उड़ती है।


पंकज उपाध्याय

दलितों पर गोलीबारी

उत्तर प्रदेश की ताज़ा हालत पर यह रिपोर्ट हमे डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट के पत्रकार अतुल कुमार ने भेजी है. दलितों की मसीहा कही जाने वाली मायावती की सरकार में दलितों की सरकारी हत्या कोई ने बात नहीं है. सोरों इसका ताज़ा उदाहरण है. इससे पहले भी उनकी सरकार में चंदौली के १६ आदिवासिओं की पुलिस ने नक्सली बता कर हत्या कर दी थी. दूसरी रिपोर्ट भी यू.पी. सरकार की नौकरशाही में चल रही हलचल की है.

सोरों से तहसील छीने जाने के मामले को लेकर चल रहे आंदोलन ने शुक्रवार को उग्र रूप धारण कर लिया। तीर्थ नगरी में पुलिस व प्रदर्शनकारियों के बीच चार घंटे तक हुए संघर्ष में पुलिस की गोली से एक युवक की मौत हो गई और तीन अन्य गंभीर रूप से घायल हुए है। पुलिस गोली से जाटव जाति के युवक की मौत के बाद लोगों का आक्रोश भड़क गया। प्रदर्शन कर रहे लोगों ने पीलीभीत-कासगंज पैसेंजर ट्रेन के इंजन व दो बोगियों, बीएसएनएल के मोबाइल टावर व पुलिस की एक जीप में आग लगा दी।
सोरों के तहसील बचाओ आंदोलन में एक मरा, तीन जख्मी
लोगों ने ट्रेन के इंजन व बोगियों में आग लगाई


आंदोलन कर रहे लोगों ने अधिकारियों व पुलिस को भी निशाना बनाया। पथराव के दौरान आठ पुलिसकर्मी भी घायल हुए हैं। तीर्थ नगरी में जबरदस्त तनाव था और पुलिस व लोगों के बीच देरशाम तक संघर्ष जारी था। प्रशासन ने कर्फ्यू घोषित कर दिया है, जिससे लोग घरों से न निकलें। बसपा सरकार द्वारा सोरों से छीनकर सहावर को तहसील का दर्जा दिलाए जाने से क्षुब्ध लोग गत सात दिनों से प्रदर्शन कर रहे थे। शुक्रवार को शहर का ही एक युवक एक निजी मोबाइल कंपनी के टावर पर चढ़ गया और तहसील का दर्जा बहाल किए जाने की मांग करने लगा। इस युवक को देखकर शहर के लोगों का आक्रोश भड़क गया। देखते ही देखते हजारों लोग टावर के पास एकत्र हो गए। दस बजे के करीब सोरों के एसडीएम व क्षेत्राधिकारी पुलिस बल के साथ मौके पर पहुंचे और युवक को मोबाइल से उतारने का प्रयास करने लगे। जिससे मौके पर मौजूद प्रदर्शनकारी भड़क गए। उनमें से कुछ ने अधिकारियों से अभद्रता की और उन्हें वहां से भगा दिया। सरकार विरोधी नारेबाजी के साथ ही दोपहर एक बजे के करीब प्रदर्शनकारियों व पुलिस के बीच तनाव बढ़ गया।हजारों लोगों ने बरेली से कासगंज जा रही 138 डाउन पैसेंजर ट्रेन को रोक लिया और ट्रेन के इंजन व दो बोगियों में आग लगा दी, जिससे ट्रेन में सवार यात्रियों को जान बचाने के लिए वहां से भागना पड़ा। कुछ देर बाद ही अलीगढ़ के मंडलायुक्त व पुलिस उप महानिरीक्षक [डीआईजी] भी मौके पर पहुंच गए। इसी बीच शहर के कछला गेट पर प्रदर्शन कर रहे जाटव समुदाय के लोगों व पुलिस के बीच संघर्ष शुरू हो गया। पुलिस ने बिना किसी मजिस्ट्रेट के आदेश के ही प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग शुरू कर दी, जिसमें एक युवक की मौत हो गई और तीन अन्य घायल हो गए।पुलिस की गोली से युवक की मौत के बाद प्रदर्शन कर रहे लोग उग्र हो गए। उन्होंने मृतक के शव को रखकर प्रदर्शन शुरू कर दिया और शहर में स्थित बीएसएनएल के टावर व पुलिस की जीप को आग के हवाले कर दिया। उन्होंने टावर की सुरक्षा कर रहे दो पुलिस कर्मियों को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। उसके बाद प्रदर्शन कारियों को जो भी पुलिसकर्मी दिखाई दिया उसे पीटा। प्रदर्शन कर रहे लोगों के पथराव में उप जिलाधिकारी [एसडीएम] सोरों और आठ पीएसी के जवान भी घायल हुए हैं।तीर्थ नगरी में प्रशासन ने कर्फ्यू लगा दिया। उसके बाद अनियंत्रित पुलिस कर्मियों का तांडव शहर में जारी है। पुलिस वालों ने लोगों के घरों में घुसकर महिलाओं से अभद्रता की व लोगों को देररात तक पीटते रहे। जिससे स्थानीय लोगों में खासा आक्रोश था। आज की घटना के बाद क्षेत्र में जबरदस्त तनाव है।


हम हैं उनके साथ खड़े जो सीधी रखते अपनी रीढ़


बात कहने में थोड़ी देर हो गई। लेकिन कभी-कभी देरी से इतना तो साफ हो ही जाता है कि किसने क्या कहा। तो यह साफ हो गया कि किसी ने कुछ नहीं कहा। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में एक बड़ी घटना घटी जब प्रदेश के मुख्य सचिव प्रशांत कुमार मिश्र को इस्तीफा देना पड़ा। इस्तीफा बड़ी घटना नहीं, बड़ी घटना अपने चरित्र और ईमानदारी को लोलुप सत्ता सियासतदानों के आगे घुटने टेकने से बचा ले जाने की है।सुख-सुविधा की अभिप्सा में चाटुकारिता कर अपना जीवन गंवा देने वाले नौकरशाहों के लिए प्रशांत कुमार मिश्र ने एक नजीर स्थापित की, बड़ी घटना यह थी। लेकिन कोई कुछ नहीं बोला। एक बड़ी घटना इस्तीफे की एक मामूली खबर में सिमट गई और छप गई। विस्तृत पढ़ें.....

विनायक सेन और अजय टीजी को रिहा किया जाये



रविभूषण


विनायक सेन अंतरराष्ट्रीय ख्याति के बाल चिकित्सक हैं, जिन्होंने अपना जीवन निर्धनतम लोगों, विशेषतः छत्तीसगढ के खदानकर्मियों और जनजातियों की सेवा में समर्पित कर दिया है. वे मानवाधिकार के प्रबल-सक्रिय समर्थक रहे हैं. पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्य सचिव के रूप में भी उनकी भूमिका विशेष रही है.14 मई, 2007 को उन्हें छत्तीसगढ की पुलिस ने 1937 के गैरकानूनी गतिविधि अधिनियम और 2005 के छत्तीसगढ राज्य विशेष जनसुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया और वे अभी तक जेल में हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी जमानत की अर्जी खारिज कर दी है.डॉ विनायक सेन पर मुख्य आरोप यह है कि वे जेल में प्रमुख माओवादी नेता नारायण सान्याल से 33 बार मिले थे और उनके पास से इस माओवादी नेता के तीन पत्र पाये गये हैं. इस प्रकार वे खतरनाक नक्सली के रूप में चिह्नित किये गये हैं. उन पर आरोप है कि वे राज्य के विरुद्ध सक्रिय हैं और प्रतिबंधित संगठन को सहयोग प्रदान करते हैं. डॉ सेन को माओवादियों का समर्थक और सहयोगी मान लिया गया है. जेल में वे बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. उनकी गिरफ्तारी से देश-विदेश का बौद्धिक तबका क्षुब्ध है. उनकी गिरफ्तारी (14 मई) के एक वर्ष पर देश के विविध हिस्सों में सेमिनार, धरना और प्रदर्शन हुए हैं तथा अखबारों ने वस्तुस्थिति से सबको परिचित कराया है. 14 मई के कई अखबारों में विनायक सेन संपादकीय से लेकर आलेख तक में उपस्थित हैं. हसन सरूर ने 'ग्लोबल कैंपेन फॉर सेन रिलीज पिक्स अप' (14 मई, 2008, हिंदू) में लंदन में भारतीय उच्च आयोग के समक्ष विनायक सेन की रिहाई को लेकर विरोध-प्रदर्शन का उल्लेख करते हुए भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, छत्तीसगढ के राज्यपाल और मुख्यमंत्री को भेजे गये पत्र की जानकारी दी है, जिसमें सेन की महती भूमिका के बारे में बताया गया है. हस्ताक्षरकर्ताओं में दक्षिण एशिया सॉलिडैरिटी ग्रुप, वेल्लोर अलुमनी एसोसिएशन की ब्रिटेन शाखा, दक्षिण एशिया एलायंस और 1857 समिति के प्रतिनिधि हैं. ब्रिटिश सांसदों का एक ग्रुप भी अपनी सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित कर रहा है. विरोध प्रदर्शन के आयोजकों ने डॉ सेन के विरुद्ध लगाये गये अभियोग को राजनीति प्रेरित माना है और छत्तीसगढ सरकार को अभियुक्त ठहराया है. अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा है कि विनायक सेन ने जेल में माओवादी नेता से मुलाकात पीयूसीएल के उपाध्यक्ष की हैसियत से की थी. रायपुर के सेंट्रल जेल में विनायक सेन नारायण सान्याल को चिकित्सा और कानूनी सहयोग देने गये थे.
विनायक सेन का वास्तविक अपराध क्या है? गरीबों के साथ और उनके पक्ष में खडा होना, मुखर और सक्रिय होना तथा छत्तीसगढ में हिंसा से जूझ रहे बेदखल किये गये लोगों के पक्ष में बोलना. वे जेल में बंद माओवादी नेता से जेल नियमों के तहत ही मिलने गये थे. जेल अधिकारियों ने उन्हें नारायण सान्याल से मिलने की अनुमति दी थी और यह अनुमति कई बार दी गयी थी. माओवादियों से मिलना माओवादी होना नहीं है. पीयूसीएल के पूर्व अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर ने कहा है कि आतंकवादियों से लडने में राज्य स्वयं आतंकवादी नहीं हो सकता. वे विनायक सेन के मुद्दे को देखने और इस पर विचार करने को केंद्र सरकार से कह चुके हैं. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री को प्रेषित पत्र में यह भी कहा गया है कि मानवाधिकार की रक्षा में विनायक सेन के कार्यकलापों को दोषयुक्त ठहराना किसी वकील को अपने मुवक्किल की रक्षा में किये गये कार्यकलापों को दोषयुक्त ठहराने की तरह है.
विनायक सेन की गिरफ्तारी और अब तक उन्हें जमानत न मिलने से कुछ बडे प्रश्र्न उपस्थित हुए हैं. भारतीय संविधान में भारतीय नागरिकों को जो मौलिक अधिकार दिये गये हैं, क्या राज्य उन अधिकारों की सदैव रक्षा करता हैङ्क्ष नागरिक को असहमति व्यक्त करने, विरोध प्रकट करने, किसी आंदोलन में भाग लेने का अधिकार है या नहींङ्क्ष क्या राज्य अपने कार्य और दायित्व का सुचारू रूप से निर्वाह कर रहा है? जब चिकित्सा भी एक पेशा है, किसी चिकित्सक को गरीबों के साथ रह कर उसकी चिकित्सा नहीं करनी चाहिए? माओवादियों की संख्या बढ क्यों रही है? क्या विनायक सेन की गिरफ्तारी से समस्याएं सुलझ जायेंगी? विष्णु खरे ने सलवा जुडूम पर लिखी कविता 'कानून और व्यवस्था का उप मुख्य सलाहकार सचिव चिंतित प्रमुख मंत्री को परामर्श दे रहा है' का समापन इन पंक्तियों से किया है- 'मैं कहूंगा सर आप सेंट्रल लेबल पर एक पहल करें, ताकि हर जगह अपनी नींद से जागे और एक्टिव होकर हर किस्म की ऐसी बगावत को, नेस्तनाबूद करने को लामबंद हो, असली नेशनल सलवा जुडूम.' (पहल- 86)
छत्तीसगढ सरकार की आलोचना जारी है. नोबेल लॉरेट, नोम चोम्स्की, महाश्वेता देवी, अरुंधति राय- सभी विनायक सेन के पक्ष में क्यों हैं? क्या माओवादियों के आतंक का समाधान राज्य के आतंक से संभव है? इसी 29 मई को वाशिंगटन में विनायक सेन को विश्व स्वास्थ्य और मानवाधिकार के लिए जोनाथन मान अवार्ड से सम्मानित किया जायेगा और हिंदू के संपादकीय-'सेट विनायक फ्री' (15 मई, 2008) में विनायक सेन को सम्मान लेने के लिए रिहा करने को कहा गया है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विनायक सेन के पक्ष में वक्तव्य दिये जा रहे हैं और आंदोलन भी चलाया जा रहा है.
रायपुर के पत्रकार और फिल्मकार अजय टीजी की 5 मई को हुई गिरफ्तारी भी सुर्खियों में है. उन पर यह आरोप है कि वे प्रतिबंधित संगठन के संपर्क में है. पिछले लोकसभा चुनाव (2004)में छत्तीसगढ के दांतेबाडा क्षेत्र के सुदूर पिछडे गांवों में अजय तथ्य प्राप्ति टीम के साथ थे. यह टीम माओवादियों द्वारा दिये गये चुनाव बहिष्कार के आह्वान के सिलसिले में ग्रामीणों की प्रतिक्रिया जानने के लिए गयी थी. अजय टीजी ने फोटो खींचना शुरू किया तो युवा माओवादियों ने उन्हें घेरा, पुलिस एजेंट समझ कर उन्हें कई घंटे रोका. बाद में वे छोडे गये, पर उनका कैमरा जब्त कर लिया गया. बाद में अजय ने माओवादी प्रवक्ता को 2004 में जब्त किया गया अपना कैमरा लौटाने को लिखा. पुलिस ने तहकीकात में अजय का कंप्यूटर रख लिया और उससे पत्र के संबंध में पूछा. अजय ने पत्र लिखना स्वीकारा. कंप्यूटर वापसी के लिए अजय स्थानीय अदालतों में गये. अजय के साथ विचित्र स्थिति उत्पन्न हुई. एक ओर वे माओवादियों के अपराध का शिकार हुए, माओवादियों ने उन्हें पुलिस एजेंट समझा और अब पुलिस उन्हें माओवादियों का समर्थक समझ रही है.
पीयूसीएल से विनायक सेन और अजय टीजी का संबंध है. पीयूसीएल के कार्यकर्ताओं पर भी राज्य सरकार की कडी निगाह है. छत्तीसगढ में पीयूसीएल, माकपा तथा निर्मला देशपांडे के साथ लंबे समय तक रहे गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के वनवासी चेतना आश्रम तथा अन्य सलवा जुडूम की कुरूप वास्तविकता उजागर करने में लगे हुए हैं. 10 मई, 2008 को अजय टीजी के केस की सुनवाई थी, पर उन्हें पांच दिन पहले गिरफ्तार कर लिया गया.
पत्रकार, मीडियाकर्मी, बुद्धिजीवी, कवि-लेखक और संस्कृतिकर्मी किसी भी गतिशील समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं। वे संवाद और बहस करते हैं, जो लोकतंत्र में जरूरी है. तर्क के सिद्धांत और दमन के सिद्धांत में अंतर है. वे संवादों से, तर्कों और तथ्यों से राज्य को सुदृढ करते हैं. लोकतंत्र में प्रत्येक विचार के लिए जगह है. इसी से लोकतंत्र विकसित होता है. विरोधियों को शत्रु और दुश्मन मानने का चलन कुछ समय से बढा है. लोकतंत्र में सहमति से अधिक असहमति का स्थान है. विनायक सेन के मामले में अभी तक मानवाधिकार आयोग भी चुप है! मानवाधिकार सक्रियतावादी और पीयूसीएल के लोग जनतंत्र के रक्षक हैं. इन दोनों संगठनों से जुडाव के कारण ही किसी पर संदेह नहीं किया जा सकता. सबसे बडा प्रश्न यह है कि हम किस प्रकार का भारत निर्मित कर रहे हैं. विनायक सेन और अजय टीजी की गिरफ्तारी से छत्तीसगढ की सरकार पर प्रश्न उठे हैं और विश्व भर में इस पर प्रतिक्रियाएं हो रही हैं. डॉ सेन को झूठे इलजाम में गिरफ्तार किये जाने से एक तरह से पूरी व्यवस्था संदेह के घेरे में आ गयी है.


रिपोर्ट रियाज़ उल हक के ब्लॉग हाशिया से साभार

लाठी गोली की सरकार को जाना होगा !


गुर्जरों की हत्याएं बंद करो !


वसुन्धरा सरकार पर हत्या का मुकदमा दर्ज करो !


जन संघर्षों पर दमन बंद करों !


राजस्थान में गुर्जर समाज के लोगों के आन्दोलन को गोली और बंदूक के बल पर ख़त्म कराने का प्रयास कर रही वसुंधरा सरकार के दिन अब लड़ चुकें हैं. पुलिस और हत्या को अपने शासन का मूल मन्त्र मनाने वाली इस सरकार ने अपने चार साल के शासनकाल में इसे कई नरसंहार किए . कभी पानी मांग रहे किसानों की हत्या की कभी आरक्षण मांग रहे गुर्जरों की हत्या की. इसी हत्यारी सरकार को अब राज्य में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है. राज्य की भाजपा सरकार राष्ट्रीयता और अस्मिता के लिए लोगों को आपस में लड़ती रहीं है. लेकिन जब समाज के निचले तबके के पिछडे और दलित लोग अपनी हिस्सेदारी की मांग करते हैं तो उन्हें वही भाजपा सरकार गोली मार देती है. गुर्जर समाज के इस आन्दोलन में पिछले साल से लेकर अब तक ६० लोगों की हत्याएं सरकार के इशारों पर पुलिस कर चुकी है. कुछ दिन पहले तक यही वसुन्धरा राजे थीं जो जयपुर बम धमाकों में मरे गए लोंगो पर घडियाली आंसू बहा रही थी. लेकिन अब उनका असली चेहरा लोगों के सामने है. आन्दोलन कर रहे लोगों पर वह ख़ुद गोलियां बरसा रहीं हैं.राजस्थान के लडाकूं किसान जाति के गुर्जर लोगों ने भी इसी सरकार के आगे अभी तक घुटने नहीं टेकें हैं. पिलुपुरा (भरतपुर) और सिकंदरा (दौसा) में लोग मारे गए लोगों की लाशों के साथ अभी भी रेलवे लाइनों पर बैठें हैं. अब देखना हैं की सरकार उनकी मांगे मानती है या आन्दोलन को लीड करें वाले पीछे हटतें हैं. नतीजा जो भी हो लेकिन अब तो तय है की आने वाले दौर में ऐसे ही जनता लड़ेगी और सरकारों को उनके आगे घुटने टेकना होगा. असली आजादी के लिए संघर्ष कराने का इतिहास पुराना है और भारत की जनता तो 'आजादी' के बाद भी लड़ रही है. तेभागा- तेलंगाना से शुरू यह संघर्ष नक्सलबाडीहोते हुए सिंगुर नंदीग्राम तक आता है और अभी तबतक जरी रहेगा जब तक की मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण बंद नही हो जाता.

हर माह हसरतों का लहू चूसता रहा...

उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार के एक वर्ष पूरे होगये हैं. पूर्ण बहुमत से जीत कर आई इस सरकार ने इस एक वर्ष में क्या क्या गुल खिलाये हैं इसका पुरा लेखा जोखा पेश किया है वरिष्ट पत्रकार प्रभात रंजन दीन ने. प्रभात जी उत्तर प्रदेश से निकालने वाले अखबार डेली न्यूज एक्टिविस्ट के संपादक हैं.

चारो तरफ बिखरे पत्थरों और हरे पेड़-पौधों की आत्माएं, धराशाई ईमारतों और सपनों के मलबे, सरकारी बुल्डोजरों से ध्वस्त होते निर्माण और न्याय, डायनामाइट से उड़ाया जाता राज-धन और लोक-मन, और राजपथ पर आत्मसमर्पित लोकतंत्र और नैतिकता... यह लखनऊ है या कि बगदाद?

चारो तरफ भूख और मरी के बीच गिद्ध-राजनीति का त्रासद शोर, हूटरों और सायरनों की फासीवादी हुआं-हुआं के बीच किसानों के आत्म-उत्सर्ग की सांय-सांय, महारानी को धूल से बचाने के लिए बार-बार धुलती सड़क के बीच प्यास के रेगिस्तान में घिसटती आम जिंदगी... यह उत्तर प्रदेश है या कि सोमालिया?

चारों तरफ सरकारी ढिंढोरचियों के कर्णभेदी प्रसारणों के बीच लोकतांत्रिक स्वर के उच्चारण पर मर्मभेदी उत्पीड़न, राज प्रायोजित मुजरों के लिए प्रेक्षागृह और जन आयोजन की पहल करने वालों को यातनागृह, खुद की प्रतिमा स्थापित करने के राजतंत्रीय आयोजनों की हद और लोकतंत्र का प्रतिमान स्थापित करने के लिए तमाम जद्दोजहद...! यह अपना प्रदेश है या कि म्यांमार या कि चीन?

इन सवालों के साथ मायावती सरकार का एक साल आज पूरा हो गया। इस एक साल में जो हुआ उसका सच और उस सच पर चस्पा ये सवाल बाकी के चार साल की सिहरन देते हैं। आज किस्म-किस्म के राज-जश्न हो रहे हैं। राज-जश्न पर सवार यक्ष प्रश्न अब जवाब नहीं चाहते, निराकरण मांगते हैं। राज-प्रचारित छदूम उपलब्धियों के बरक्स असलियत चीख-चीख कर इन सवालों का खोखला जवाब नहीं, ठोस हल मांगती है। हम साल भर की हकीकत का कुछ हिस्सा आपके समक्ष पेश करने का साहस कर रहे हैं, यह जानते-समझते हुए कि हमारे रास्ते में उगा दिए गए हैं कितने ढेर सारे बबूल के जंगल!

मायावती के शासन का आज एक साल पूरा हो रहा है। इस एक साल में हुआ क्या? इस एक साल में आम आदमी की उपलब्धियां क्या रहीं और सत्ताधारिणी की उपलब्धियां क्या रहीं? सरकारी भांड सरकार की उपलब्धियां गिनाएंगे, लेकिन जनता ने इस एक साल में क्या पाया उसकी हम जमीनी समीक्षा तो कर ही सकते हैं। यह हमारा लोकतांत्रिक कर्तव्य है। हम अधिकार की बात करने के फैशन से दूर के हैं।

'डेली न्यूज़ ऐक्टिविस्ट' ने साल भर में सामने आए वे सारे मसले उठाए हैं, जो आम आदमी से जुड़े हैं। पत्थर की मूर्तियों से राजधानी को पाट देने का मसला हो या केंद्र की बिना सहमति लिए किसानों का 28 हजार 510 हेक्टेयर खेत पाट कर गंगा एक्सप्रेस वे बनाने का मसला। बुंदेलखंड की भुखमरी और किसानों की आत्महत्याओं का मसला हो या छात्रों पर पुलिस फायरिंग, छात्र संघ पर प्रतिबंध और व्यापारियों पर वैट का मसला। विकास प्राधिकरण और नगर निगम के नियम-कानून ध्वस्त कर देने का मसला हो या कानून व्यवस्था से लेकर राजधानी की आबोहवा तक के विध्वंस का मसला। सारे पहलुओं की हमने जमीनी समीक्षा का प्रयास किया है। इन जरूरी मसलों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के अलमबरदार का जन्मोत्सव, अथरेत्सव, उपहारोत्सव, नृत्योत्सव, दंडवतोत्सव और लोकतंत्र का विसर्जनोत्सव निश्चित रूप से शामिल है।

दलित मसला भी अहम मसलों में से एक है। दलितों के हित के नारे लगा लगा कर मजबूत बनी बहुजन समाज पार्टी ने जिस तरह रंग बदल कर मनुवाद को अंगीकार किया उससे पार्टी के असली रंग का पता चला। यह साफ हो गया कि कौन से वर्ग का हित साधती है बसपा। सत्ताधारिणी मायावती के अर्थ-सामर्थ्य का ग्राफ तथाकथित कुलीनवाद की परिधि फाड़ता हुआ ऊपर से ऊपर निकलता चला जा रहा है। 2007 के चुनाव नामांकन पत्र में की गई घोषणा और इस साल के इंकम टैक्स रिटर्न के आय-आकलन को ही सामने रखें तो मुख्यमंत्री मायावती की व्यक्तिगत आय 52 करोड़ से बढ़ कर 60 करोड़ रूपए हो गई है। यह आय मायावती को देश की शीर्ष कमाऊ हस्तियों में शुमार करती है। हम आय के अनधिकृत आंकड़े की कल्पना कर सकते हैं, जिक्र नहीं कर सकते। जन्मोत्सव से लेकर किस्म किस्म के उत्सवों में गिर पड़ने वाले उपहारों के आर्थिक आंकड़ीय आकलन से अधिक जरूरी वे सवाल हैं जो आलीशान उपहारों के कुलीन पैकेटों के नीचे दबे हुए झांकते हैं। जो उपहार देते हैं, वह कौन हैं? उपहार के एवज में उन्हें क्या फायदे मिलते हैं? प्रदेश का दलित क्या इतना समृद्ध हो चुका है कि वह बेशकीमती उपहार दे सके? पार्टी में पद, प्रतिष्ठा, पैसा, टिकट किस वर्ग को मिल रहा है? सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार के आरोपों पर सफाई पेश करते हुए मुख्यमंत्री मायावती ने विधानसभा के हालिया सत्र में कहा कि उनकी सरकार का कोई भी अफसर, चाहे वह कैबिनेट सचिव हो, प्रमुख सचिव हो, मुख्य सचिव हो या कोई और, इन सबकी बड़ी साफ छवि है और ये अपनी ईमानदारी और प्रतिबद्धता के लिए मशहूर हैं। मायावती ने विधानसभा के भीतर हास्य में यह बात नहीं कही थी। लेकिन उनका यह गंभीर वक्तव्य समाज में कितना हास्य प्रदान करता है, यह उनके चाटुकार नौकरशाह उन्हें थोड़े ही बताएंगे। प्रतिष्ठित टाइम पत्रिका ने इस पर कहा भी कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की छवि उनके सिपहसालारों और अफसरों के कारण नीचे गिर रही है।

जिस प्रदेश की मुख्यमंत्री दलित हितवादी महिला हो, उस प्रदेश में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं देश भर में सबसे ज्यादा हों, उस हितवाद और वैसी हितवादी कानून-व्यवस्था के बारे में क्या कहा जा सकता है। मायावती ने 13 मई 2007 को उत्तर प्रदेश की सत्ता संभाली। उस तारीख से 31 मार्च 2008 के बीच दलित महिलाओं से बलात्कार की 271 घटनाएं घटीं। बलात्कार की ये वो घटनाएं हैं जो काफी जद्दोजहद के बाद पुलिस ने दर्ज कीं। इनमें उन घटनाओं को हमने शामिल नहीं किया, जिनकी सूचनाएं अखबार तक पहुंचती हैं पुलिस से दुत्कारे जाने के बाद। तब तक काफी देर हो चुकी होती है। हम उसे जन अदालत के समक्ष जनहित याचिका के बतौर पेश तो करते हैं, लेकिन वे मामले सरकारी दस्तावेजों में शुमार नहीं होते। हम ऐसे ही प्रदेश में रहते हैं, जहां दलित से बलात्कार में पुलिस भी लिप्त रहती है और थाने बूचड़खाने की तरह बलात्कारखाने में तब्दील हो चुके हैं। अगर हम उन आंकड़ों और घटनाओं को भी सरकारी आंकड़ों में शामिल कर लें तो भयावह दृश्य दिखाई पड़ेगा। मायावती शासन के 10 महीने में 215 दलितों की हत्या हुई। यह चिंतनीय इसलिए भी है क्योंकि यह वो सरकार है जो दलितों के लिए आठ-आठ आंसू रोती है और दूसरा कोई रोता है तो उसे कोसती है... रूखसत हुआ जो साल तो महसूस यूं हुआहर माह हसरतों का लहू चूसता रहा...

सहानुभूति के खिलाफ युद्ध



शोभिता नैथानी


20 दिसंबर 2007 को आंतरिक सुरक्षा विषय पर आयोजित मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक नाटकीय बयान दिया, "नक्सली देश के महत्वपूर्ण आर्थिक ढांचे को निशाना बना रहे हैं। उनका मकसद यातायात और दूसरी सुविधाओं को तहस नहस करना और साथ ही विकास की गति को धीमा करना है। वो स्थानीय स्तर के झगड़ों जैसे ज़मीन का मसला या फिर दूसरे छोटे मोटे विवादों में भी हस्तक्षेप कर रहे हैं। मैंने पूर्व में भी कई बार कहा है कि वामपंथी उग्रवाद संभवत: भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। ऐसा अभी भी है और हम तब तक शांति से नहीं बैठ सकते जब तक कि ये विषाणु पूरी तरह से समाप्त नहीं हो जाता।" इसके बाद उन्होंने राज्यों को इस बात का विश्वास भी दिलाया कि नक्सलवादी ताकतों को पंगु बनाने के लिए सुरक्षा बलों के आधुनिकीकरण पर और ज्यादा निवेश किया जाएगा।
प्रधानमंत्री का बयान ऐसे समय में आया था, जब तमाम राज्यों में पुलिस लगातार ऐसे किसी भी व्यक्ति से निपटने के अभियान में जुटी हुई थी, जो अति वामपंथी विचारधारा से किसी भी तरह की सहानुभूति रखने वाला प्रतीत हो रहा था। इस काम के लिए पुलिस के पास कई घातक हथियार थे--ग़ैरक़ानूनी गतिविधि नियंत्रण एक्ट 1967, छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट 2005, आंध्र प्रदेश पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट 1992, ऐसे क़ानून जो सरकार को ये अधिकार देते हैं कि जो विचारधारा या राजनीति उसे पसंद नहीं है उनसे जुड़े किसी भी व्यक्ति को वो गिरफ्तार कर सकती है और संविधान में मौजूद नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के साथ खिलवाड़ कर सकती है.
गोविंदन कुट्टी, प्रफुल्ल झा, पित्ताला श्रीशैलम और लचित बारदलोई- ये सारे पत्रकार (या पूर्व पत्रकार) या फिर मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। इन्हें नक्सली होने या उनसे सहानुभूति रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। केवल बारदोलोई इनमें अपवाद हैं, जिनके ऊपर उल्फा से संबंध रखने का भी आरोप है। गिरफ्तारियों की ये बाढ़ चिंता में डालती है। इनमें से ज्यादातर मामलों में किसी तरह की हिंसा या फिर किसी तरह के अपराध के कोई आरोप नहीं रहे। इनके ऊपर सिर्फ उग्रवादी गुटों से सहमति रखने या फिर इस तरह के लोगों से संबंध रखने के आरोप हैं। इसलिए ये गिरफ्तारियां सरकार की बढ़ती असहिष्णुता की गवाही देती हैं जिसके तहत सरकार के समर्थक न होने और वर्तमान आर्थिक नीतियों के खिलाफ चलनेवाली किसी भी राजनीतिक विचारधारा के लिए कोई स्थान नहीं है।
नीचे कुछ मामलों का संक्षेप में विवरण है--
प्रशांत राही 48 साल का ये मानवाधिकार कार्यकर्ता "द स्टेट्समैन" का उत्तराखंड में संवाददाता था। इन्हें 22 दिसंबर, 2007 को उत्तराखंड में हंसपुर खट्टा के जंगलों से गिरफ्तार किया गया था। इनके ऊपर प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) समूह का ज़ोनल कमांडर होने का आरोप है। राही पर भारतीय दंड संहिता की तमाम धाराएं थोपी गई हैं इसमें 'ग़ैरक़ानूनी गतिविधि नियंत्रण एक्ट' भी शामिल है। इस संबंध में रुद्रपुर के एसएसपी पीवीके प्रसाद से पूछे जाने पर उनका जवाब था-- "जाइए जेल में खुद उन्ही से पूछ लीजिए। जिस तरह की गतिविधियों में वो लिप्त था उसकी मैं चर्चा भी नहीं कर सकता।" राही की बेटी शिखा जो कि मुंबई में रहती हैं उनसे 25 दिसंबर, 2007 को ऊधमसिंह नगर ज़िले के नानकमत्था थाने में मिली थीं। शिखा उनसे हुई बातचीत के बारे में बताती हैं-- "उन्हें 17 दिसंबर, 2007 को देहरादून से गिरफ्तार किया गया था। अगले दिन उन्हें हरिद्वार ले जाया गया, जहां उन लोगों ने उन्हें पीटा और उनकी गुदा में मिट्टी का तेल डाल देने की धमकी दी। पुलिस वालों ने उनसे ये भी कहा कि वो उन्हें अपने सामने मेरा बलात्कार करने के लिए मजबूर कर देंगे। अंतत: 22 दिसंबर, 2007 को पुलिस ने उनकी गिरफ्तारी दिखाई।"
"राही की गिरफ्तारी का समय प्रधानमंत्री के बयान से बिल्कुल मेल खाता है जिसमें उन्होंने माओवादी उग्रवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। राज्य के मुख्यमंत्री ने इस सम्मेलन में पुलिस बलों के आधुनिकीकरण के लिए केंद्र से 208 करोड़ रूपए की मांग की थी", राही के पूर्व सहयोगी और स्वतंत्र पत्रकार हरदीप कहते हैं। उनके एक औऱ मित्र और 'गढ़वाल पोस्ट' के संपादक अशोक मिश्रा मानते हैं कि राही को सिर्फ उनकी राजनीतिक विचारधारा की वजह से परेशान किया जा रहा है। "वो वामपंथी विचारधारा के हैं और तमाम जन आंदोलनों में शामिल रहे हैं, जिनमें नए राज्य का निर्माण और टिहरी बांध के विरोध का आंदोलन भी शामिल है। उन्होंने राही को इसलिए गिरफ्तार किया है क्योंकि वो ऊधमसिंह नगर में ज़मीन, शराब और बिल्डिंग माफिया के खिलाफ लोगों को गोलबंद करने में लगे हुए थे। मुझे सिर्फ इसी बात की खुशी है कि पुलिस ने उनके साथ एके-47 नहीं दिखाई या फिर उन्हें फर्जी एनकाउंटर में मार नहीं गिराया।"
पित्ताला श्रीसैलम
ऑनलाइन टेलिविज़न मुसी टीवी में एडिटर और तेलंगाना जर्नलिस्ट फोरम(टीजेएफ) के सह संयोजक, 35 वर्षीय श्रीशैलम को उनके मुताबिक 4 दिसंबर 2007 को गिरफ्तार किया गया था। लेकिन पुलिस के दस्तावेजों की मानें तो उन्हें 5 दिसंबर को आंध्र प्रदेश के प्रकाशम ज़िले से गिरफ्तार किया गया था। उनके ऊपर माओवादियों का संदेशवाहक होने का आरोप लगाया गया था। "मैं एक माओवादी नेता का साक्षात्कार करने गया था और पुलिस ने मेरे ऊपर माओवादियों की मदद करने के फर्जी आरोप जड़ दिए," श्रीशैलम बताते हैं। उन्हें 13 दिसंबर को छोड़ दिया गया। मुसी टीवी और तेलंगाना जर्नलिस्ट फोरम दोनो ही अलग तेलंगाना राज्य के समर्थकों में से हैं।
उनके सहयोगी और टीजेएफ के संयोजक अल्लम नारायण इसके पीछे सरकार का विरोध करने वालों को कुचलने की साज़िश देखते हैं। "श्रीशैलम की गिरफ्तारी के बाद सरकार ने ये कहना शुरू किया कि टीजेएफ के भी माओवादियों से संबंध हैं। लेकिन हम पत्रकार हैं औऱ हमें अपनी सीमाएं मालूम हैं। हमारा एकमात्र लक्ष्य है पृथक तेलंगाना राज्य और इसे हम संसदीय व्यवस्था के तहत हासिल करेंगे।" श्रीशैलम स्पष्ट करते हैं कि किसी पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता के लिए गरीबों और जंगलों में रह रहे दबे कुचलों से मिलना कोई आसामान्य बात नहीं है, किसी मौके पर माओवादियों से भी मुलाक़ात हो सकती है। वो सफाई देते हैं- "लेकिन इससे कोई माओवादी नहीं बन जाता।"
गोविंदन कुट्टी
पीपुल्स मार्च के तेज़ तर्रार संपादक गोविंदन कुट्टी को केरल पुलिस ने 19 दिसंबर, 2007 को गिरफ्तार किया था। उनके ऊपर प्रतिबंधित माओवादी संगठनों से अवैध संबंध रखने का आरोप था। ग़ैरक़ानूनी गतिविधि नियंत्रण एक्ट (1967) के तहत गिरफ्तार किए गए कुट्टी 24 फरवरी, 2008 को ज़मानत पर रिहा हुए हैं। वापस लौटते ही उन्हें अपने घर पर एर्नाकुलम के ज़िला मजिस्ट्रेट का आदेश चिपका मिला। इसमें कहा गया था कि पीपुल्स मार्च का रजिस्ट्रेशन रद्द कर दिया गया है। इसमें प्रकाशित सामग्री "बगावती है जो कि माओवादी विचारधारा के जरिए भारत सरकार के प्रति अपमान और घृणा की भावना फैलाती है।"
लेकिन इसका प्रकाशन शुरू होने के सात सालों बाद अब ऐसा क्यों? " इसके लेख भारतीय राष्ट्र की भावना के विरोध करनेवाले हैं। पुलिस काफी पहले ही पत्रिका पर प्रतिबंध लगाना चाहती थी लेकिन इस पर सबका ध्यान कुट्टी की गिरफ्तारी के बाद ही गया", एर्नाकुलम के डीएम एपीएम मोहम्मद हनीश कहते हैं। बहरहाल कुट्टी मानते हैं कि सरकारी नीतियों से विरोध रखने वाले किसी भी व्यक्ति पर माओवादी ठप्पा लगाना उससे निपटने का सबसे आसान तरीका बन गया है। वो दृढ़ता से कहते हैं अगर किसी विचारधारा का समर्थन करना उन्हें माओवादी बना देता है तो वो खुद को माओवादी कहलाने के लिए तैयार हैं। "चार तरफ हिंसा ही हिंसा फैली हुई है। भ्रष्टाचार हिंसा है, वैश्यावृत्ति हिंसा है, न्यूनतम मेहनाता नहीं देना हिंसा है, बालश्रम हिंसा है, जातिगत भेदभाव हिंसा है," वो आगे जोड़ते हैं, "मैं क़ानून का पालन करने वाला नागरिक हूं।"
प्रफुल्ल झा
छत्तीसगढ़ में पीयूसीएल के अध्यक्ष राजेंद्र सेल के शब्दों में-- "प्रफुल्ल झा छत्तीसगढ़ के दस सर्वश्रेष्ठ मानवविज्ञानियों में हैं। वो एक ऐसे पत्रकार हैं जिनके विश्लेषण तमाम राष्ट्रीय समाचार चैनलों में अक्सर शामिल किए जाते हैं।" 60 वर्षीय दैनिक भाष्कर के इस पूर्व ब्यूरो प्रमुख को 22 जनवरी, 2008 को गिरफ्तार किया गया था। उनके ऊपर रायपुर पुलिस द्वारा पकड़े गए हथियारों के एक ज़खीरे से संबंध होने का आरोप है। "उन्हें और उनके बेटे को नक्सलियों ने कार खरीदने के लिए पैसे दिए ताकि वो नक्सली नेताओं और हथियारों को इधर से उधर भेज सकें। वो नक्सली साहित्य का हिंदी में अनुवाद भी किया करते थे", कहना है छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन झा का। वो आगे कहते हैं, "कृपया उन्हें पत्रकार मत कहिए।"
डेली छत्तीसगढ़ के संपादक सुनील कुमार अपनी बात वहीं से शुरू करते हैं जहां डीजीपी साहब अपनी बात खत्म करते हैं। "उनके मामले का मीडिया उसकी आज़ादी के हनन से कुछ भी लेना-देना नहीं है। वो नक्सलियों के एक सक्रिय और वेतनभोगी कार्यकर्ता थे।" कुमार बताते हैं कि झा को इससे पहले भी एक पब्लिकेशन कंपनी ने पैसों के गबन के आरोप में बाहर निकाल फेंका था। लेकिन सेल मानते हैं कि चाहे डा. बिनायक सेन हो या झा इनकी गिरफ्तारी का मकसद सरकारी नीतियों के खिलाफ उठने वाली आवाज़ों को दबाना ही है। उनके मुताबिक, "ये मेरा विश्वास है कि झा नक्सली नहीं हैं। ये कहना सही नहीं होगा कि वो पत्रकार नहीं हैं।"
लछित बारदोलोई
मानवाधिकार कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार लछित, सरकार और उल्फा के बीच बातचीत में लंबे समय से मध्यस्थ की भूमिका निभाते रहे हैं। उन्हें 11 जनवरी, 2008 को असम के मोरनहाट से गिरफ्तार किया गया। आरोप लगे कि वे उल्फा के साथ मिलकर गुवाहाटी हवाई अड्डे से एक जहाज को अपहरण करने की योजना से रिश्ता रखते थे। इस हाईजैकिंग की योजना का मकसद असम के रंगिया कस्बे में पुलिस द्वारा 2007 में जब्त किए गए हथियारों को छुड़वाना और उल्फा के लिए धन इकट्ठा करना था। आरोपों के बारे में गुवाहाटी के एसएसपी वी के रामीसेट्टी कहते हैं, "अपहरण के मामले में, हमें उल्फा के एक गिरफ्तार आतंकी ने बयान दिया है जिसमें उसने खुद के और बारदोलोई के शामिल होने की बात कही है।"
मानवाधिकार संस्था मानव अधिकार संग्राम समिति (एमएएसएस) , जिसके बारदोलोई महासचिव हैं-- के अध्यक्ष बुबुमनी गोस्वामी पुलिस के आरोप को पूरी तरह से नकार देते हैं। । गोस्वामी बताते हैं, "कुछ सरकारी अधिकारी और पुलिस वाले उल्फा समस्या को हल ही नहीं होने देना चाहते। केंद्र हमेशा विरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए मोटी रकम जारी करता है। अगर वर्तमान हालत जारी रहेंगे तो उनका फायदा भी जारी रहेगा।" बारदोलोई के वकील बिजन महाजन अपने मुवक्किल के रंगिया मामले में शामिल होने के आरोपों को सिरे से नकार देते हैं। "अगर ये बात सच थी तो जांच एजेंसियों को उन्हें तुरंत गिरफ्तार करना चाहिए था। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। ये सीधे सीधे पिक एंड चूज़ की राजनीति है जिसमें राज्य शामिल है।"
इन पांचो गिरफ्तारियों का समय और प्रकृति, क्या प्रधानमंत्री के मुताबिक देश की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती के प्रति बढ़ती सरकार की बेचैनी की ओर इशारा नहीं करते? तथ्य भी इसकी पुष्टि करते हैं। 11वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत आंतरिक सुरक्षा के मद में सरकार ने 2500 करोड़ रूपए का प्रावधान किया है। इसमें केंद्रीय और राज्य सुरक्षा बलों के उपकरणों का सुधार भी शामिल है। ये 10वीं योजना में जारी की गई रकम से करीब करीब चार गुना ज्यादा है। पुलिस आधुनिकीकरण योजना के तहत साल 2005 के बाद से देश के नक्सल प्रभावित 76 ज़िलों में पुलिस के आधारभूत ढांचे को मजबूत करने के लिए हर साल दो-दो करोड़ रूपए मिलते हैं।
सरकार का नक्सलियों से निपटने का तरीका पूरी तरह क़ानून व्यवस्था की समस्या से निपटने वाला है। इसकी सामाजिक-आर्थिक जड़ों की अनदेखी की अक्सर कड़ी आलोचना होती रहती है। "सरकार उन सभी वामपंथी कार्यकर्ताओं को निशाना बना रही है जो नक्सलवादियों और माओवादियों के प्रति सरकारी नीतियों को उजागर कर रहे हैं। इसके अलावा सरकार द्वारा ज़मीन अधिग्रहण गतिविधियों का विरोध करने वालों को भी निशाना बनाया जा रहा है", कहना है नागरिक अधिकारों के वकील प्रशांत भूषण का। वो आगे कहते हैं, "शांतिप्रिय कार्यकर्ताओं को निशाना बनाकर देश में नक्सलवाद को बढ़ावा ही मिलेगा क्योंकि इससे उन्हें मजबूरन भूमिगत होना पड़ेगा और अंतत: माओवादियों का हाथ थामना होगा।"

यह रिपोर्ट तहलका हिन्दी से साभार लेकर रियाज़ उल हक ने अपने ब्लॉग पर दी है .

खोल दे लब, बोल दे अब की वक्त कम है !


पेशे से पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता प्रशांत राही को उत्तराखंड पुलिस ने २२ दिसम्बर २००७ को माओवादी बता कर गिरफ्तार किया था. उन पर यह भी आरोप है की वह माओवादियों के जोनल कमांडर हैं. देश भर में कंही भी सत्ता के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को सरकार अब माओवादी और नक्सलवादी बता कर गिरफ्तार कर रही है. इसमे विनायक सेन और प्रशांत राही कोई बिरले उदाहरण नहीं हैं. प्रशांत राही की रिहाई के लिए तमाम लोग सक्रीय हैं. इसमे आप भी आपना योगदान कर सकते हैं. उनकी रिहाई के लिए राज्य और केन्द्र सरकार को पत्र या मेल कर सकतें हैं.
यहाँ पेश है प्रशांत बेटी शिखा राही का एक पत्र जो काम्बैत ला में छ्पा है. शिखा राही पेशे से फ़िल्म मेकर हैं और हल की चर्चित फ़िल्म तारे ज़मीं पर की वह असिस्टेंट डायरेक्टर रहीं हैं.पत्र का अनुवाद किया है रियाज़ उल हक ने.

एक बेटी की अपील


शिखा राही

उत्तराखंड में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मुख्यमंत्री के आंतरिक सुरक्षा को लेकर 20 दिसंबर, 2007 को हुए अधिवेशन तक राज्य में किसी भी तरह की नक्सली गतिविधि की एक भी खबर के बारे में मुझे याद नहीं. मुख्यमंत्री को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा-मैं पहले कह चुका हूं कि वाम चरमपंथ संभवतः भारतीय राज्य के लिए अकेली सबसे बडी चुनौती है. यह निरंतर बढ रहा है और हम चैन से तब तक नहीं रह सकते जब तक कि इस विषाणु का उन्मूलन न कर दें.' राज्य को आंतरिक सुरक्षा बेहतर करने के लिए मदद देने का आश्वासन देते हुए उन्होंने कहा-अपने सभी माध्यमों के जरिये हमें नक्सली शक्तियों की पकड को छिन्न-भिन्न कर देने की जरूरत है.'
इस अधिवेशन से मुझे यह जानकारी मिली कि उत्तराखंड भी अब उन राज्यों में से एक है, जो लाल आतंक का सामना कर रहे हैं, जैसा कि राज्य के मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी ने उन सशस्त्र व्यक्तियों के बारे में कहा-जिन पर माओवादी होने का संदेह था-जो उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में देखे गये थे. खंडूरी के अनुसार, चूंकि उत्तराखंड नेपाल सीमा पर पडता है, यह सीमा पार कर आ रहे माओवादियों की ओर से बडे खतरे का सामना कर रहा है. आंतरिक सुरक्षा को मजबूत करने के क्रम में और 'माओवादी शैतानों' की धमकियों से बचाव के लिए खंडूरी ने केंद्र से 208 करोड रुपयों की मांग की.
दिलचस्प है कि 21 दिसंबर, 2007 को अमर उजाला अखबार में छपी एक खबर ने खंडूरी की इस सूचना की पुष्टि की. इसने सूचना दी कि एक दर्जन सशस्त्र व्यक्ति-जिन पर माओवादी होने का संदेह है-उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र के हंसपुर खट्टा, सेनापानी और चोरगलिया में देखे गये हैं. इस खबर के बाद खबर सीपीआइ (माओवादी) के तथाकथित जोनल कमांडर प्रशांत राही की हंसपुर खट्टा के जंगल में गिरफ्तारी की खबरें आयीं, जो नैनीताल जिले के स्थानीय अखबारों में छपीं, और जिन्होंने आंतरिक सुरक्षा के लिए फंड की जरूरत को न्यायोचित ठहराया. अखबार की खबर के अनुसार, 22 दिसंबर, 2007 को राही पांच दूसरे लोगों के साथ एक नदी के किनारे बैठे हुए थे, जब उन्हें गिरफ्तार किया गया. जबकि दूसरे लोग भागने में सफल रहे. कोई राज्य और इसकी पुलिस को इस तरह की उच्च स्तरीय योजना और समन्वय-जो उन्होंने हासिल किया-के लिए श्रेय जरूर दे सकता है. जिस गति से ये सारी घटनाएं एक के बाद एक सामने आयीं, उस पर विश्वास करना कठिन है. पहली बार जब उत्तराखंड में संदिग्ध माओवादी देखे गये और उस दिन में जब उनका जोनल कमांडर गिरफ्तार किया गया, मुश्किल से सिर्फ दो दिनों का फर्क है. इससे भी अधिक, जिस क्रम में ये घटनाएं आंतरिक सुरक्षा पर अधिवेशन के तत्काल बाद सामने आयीं, वह सुनियोजित दिखती है.
जबकि, असली कहानी, जो प्रशांत राही, मेरे पिता ने मेरे सामने रखी, जब मैं उनसे 25 दिसंबर, 2007 को ऊधम सिंह नगर जिले के नानकमत्ता पुलिस स्टेशन में मिली, वह उससे बिल्कुल अलग थी, जो प्रेस में आयी थी. जब मैं उनसे मिली, मैंने रोने का फैसला नहीं किया, इसलिए मैं उनसे लिपट गयी और कहा-'हरेक चीज ठीक है. चिंता मत करो.' हालांकि मैं उनकी आंखों में थकान देख सकती थी, मेरे पिता ने मुझे एक चौडी मुस्कान दी. जब मैं बातें करने के लिए उनके साथ बैठी, उन्होंने अपनी गिरफ्तारी का एकदम अलग ब्योरा दिया- देहरादून में 17दिसंबर, 2007 की नौ बजे सुबह मैं अपने एक दोस्त के घर पैदल जा रहा था, जब मुझ पर अचानक चार या पांच लोगों ने (जो वरदी में नहीं थे) हमला कर दिया. उन्होंने मुझे एक कार में धकेला, आंखों पर पट्टी बांध दी और पूरे रास्ते मुझे पीटते रहे. लगभग डेढ घंटे लंबी यात्रा के बाद एक जंगली इलाके में वे मुझे कार से बाहर खींच लाये, जहां उन्होंने मुझे फिर से पीटना शुरू किया. उन्होंने मुझे हर जगह चोट पहुंचायी'-मेरे पिता ने कहा.
मैं धैर्यपूर्वक उन्हें सुन रही थी, बिना उस नृशंसता से खुद को प्रभावित किये, जिससे वे गुजरे थे. मेरे पिता ने कहना जारी रखा-'18 दिसंबर, 2007 की शाम वे लोग मुझे हरिद्वार लाये, जहां प्रोविंसियल आर्म्ड कॉन्स्टेबुलरी (पैक) का अधिवेशन हो रहा था. यहां, उन्होंने मुझे टॉर्चर करना जारी रखा. उन्होंने निर्दयतापूर्वक मेरे शरीर के प्रत्येक हिस्से पर, गुप्तांगों सहित, मारा. अधिकारियों ने भी मुझे मेरे गुदा मार्ग में केरोसिन डालने और बर्फ की सिल्ली से बांध देने की धमकी दी.' इससे बदतर क्या हो सकता है कि पुलिस ने मुझे मुंबई से बुलाने और (जहां मैं रह रही थी और काम कर रही थी) अपनी मौजदूगी में मेरे पिता को मुझसे बलात्कार करने पर मजबूर करने की धमकी दी.
20 दिसंबर, 2007 अधिकारी मेरे पिता को ऊधमसिंह नगर के नानकमत्ता पुलिस थाना लाये. उन्हें शुरू के तीन दिनों तक लगातार पिटाई और और पूछताछ के कारण दर्द और निश्चेतना थी. हालांकि पूछताछ जारी रही, पुलिस ने उन्हें फिर से थोडा ठीक होने का इंतजार किया और तब दो दिनों के बाद 22 दिसंबर, 2007 को उन्होंने उनकी गिरफ्तारी दर्ज की, जो कि पूरी तरह निराधार और मनगढंत है. मेरे पिता के अनुसार, अधिकारियों ने, जिन्होंने उन्हें टॉर्चर किया, अपनी पहचान उन्हें नहीं बतायी और न ही वे पांच दिनों की उस अवैध हिरासत के बाद फिर कभी दिखे.
प्रशांत राही गिरफ्तारी के 24 घंटों के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत नहीं किये गये, संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन. वे मजिस्ट्रेट के सामने 23 दिसंबर को ही प्रस्तुत किये गये. उन्हें वकील, संबंधी या किसी दोस्त से गिरफ्तारी के बाद संपर्क करने की अनुमति नहीं दी गयी. पांच दिनों तक मानसिक और शारीरिक तौर पर यातना देने के बाद वे भारतीय दंड संहिता की धाराओं 120बी, 121, 121 ए, 124 ए और 153 बी तथा गैरकानूनी गतिविधि (निषेध) अधिनियम की धाराओं 10 और 20 के तहत झूठे तौर पर फंसाये गये.
महाराष्ट्र मूल के मेरे पिता ने बनारस हिंदू विवि से एम टेक किया, लेकिन उन्होंने एक पत्रकार बनना चुना. पहले द स्टेट्समेन (दिल्ली) के संवाददाता रह चुके मेरे पिता अब उत्तराखंड में पिछले कई वर्षों से एक पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहे थे. पुलिस ने प्रशांत राही के मामले में जिन मौलिक अधिकारों और संवैधानिक सुरक्षा उपायों का ऐसे खुलेआम उल्लंघन किया है, उनकी भारत के सभी नागरिकों को गारंटी की गयी है, इसमें अंतर किये बगैर कि वे कैसी राजनीतिक या विचारधारात्मक दृष्टि रखते हैं और उन पर किस तरह के अपराध करने का आरोप लगाया गया है. पुलिस द्वारा अधिकारों का इस तरह का भारी उल्लंघन माफ नहीं किया जा सकता. यदि एसी घटना प्रशांत राही के साथ घट सकती है, जो उच्च शिक्षित हैं और यथोचित तौर पर संपर्क में रहनेवाले व्यक्ति हैं, तब पुलिस के हाथों में पडे थोडे कमनसीब व्यक्ति की नियति के बारे में सोचते हुए सोचते हुए रोंगटे खडे हो जाते हैं.
हम खंडूरी को निम्न पते पर लिख/फैक्स कर सकते है
Jai Durga Niwas,
12, Vikas Marg,Pauri
Garhwal- 246 001(Uttarakhand)(01368) 222600
Vidhan Bhawan,
Haridwar Road,
Dehradun - 248 001.Tel 2665090,2665100, Fax 2665722
इसके अलावा राज्य के मुख्य सचिव को निम्न पते पर लिखा/फैक्स किया जा सकता है
S K Das
Phone 0135-2712100 , 2712200FAX- 0135-2712500

जयपुर धमाकों के बाद की राजनीति


फासीवादी समाज के लिए सब हैं एकजुट


जयपुर धमाकों के बाद सुरक्षा के नाम पर राज्य अब आम नागरिकों के हर तरह के मूल अधिकारों को अपने कब्जे में करने को आतुर दिख रही है. समय समय पर होने वाले ऐसे विस्फोट सत्ता के लिए अनुकूल माहौल बनते हैं. इस विस्फोट के बाद भी वही सब देखने को मिला मीडिया के उकसावे पर पुलिस ने अवैध बंग्लादेशिओं की धरपकड़ तेज हो गई है. छोटे मोटे धंधे करके अपना गुजरा कराने वाले इन लोगों की ऐसी छवि मीडिया पेश कर रहा है जैसे असली अपराधी यही हों, पुलिस लिए भी यह सबसे आसन शिकार होतें है. अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए पुलिस जब चाहें इन्हे पकड़ लेती है. आतंकवाद के मुद्दे पर यह संघिओं के निशाने पर रहते हैं राजस्थान के सभी मुख्य अखाबरोने बंग्लादेशिओं के खिलाफ कैम्पेन छेड़ रख है. इसमे कौन सबसे जयादा आक्रामक तरीके से उनके खिलाफ खबर ला सकता है की होड़ मची है. अपनी साल साल भर पुरानी कटिंग्स निकल कर दावे कर रहे हैं की हमने बहुत पहले ही चेता दिया था लेकिन पुलिस सोई रही. "वे घुसते रहे हम देखते रहे " जैसी खबरे लाने की होड़ मची है. इलेक्ट्रानिक मीडिया की भांति एक्सक्लूसिव की तलाश जरी है. अब तक जितने भी बम विस्फोट हुए हैं और उसमे जो लोग गिरफ्तार हुए हैं उनका अकडा देखा जाए तो बंगालादेशिओं की सच्चाई खुल कर सामने आजाएगी. उत्तर प्रदेश में हुए विस्फोटों के मामले में अब तक एस टी ऍफ़ ने जितने भी लोगों को गिरफ्तार किया है उसमे कोई भी बंगलादेश का नागरिक नही है. चूंकि मैं इन विस्फोटों की हर ख़बर और गिरफ्तारिओं के बारे में वक्तिगत रूप से छानबीन भी की है लेकिन मुछे कहीं भी कोई बंगलादेशी आतंकवादी की गिरफ्तारी की ख़बर नही मिली . हाँ ऐसा जरुर है की अभी तक जीतनी भी गिरफ्तारिया हुई हैं सब फर्जी हैं. इस सम्बन्ध में पी यू एच आर की रिपोर्ट भी देखि जा सकती है. युवा पत्रकार साथी शाहनवाज़ आलम और राजीव यादव के साथ हम लोगों ने हर गिरफ्तार कथित आतंकी के घर जाकर उसकी पूरी पड़ताल की और पाया की सारी गिरफ्तारियां फर्जी तरीके से की गयीं है. आतंकवाद के नाम पर ही अब हर राज्यों में जायदा खूंखार कानून बनाये जा रहे हैं. इन विस्फोटों की बाद ही उत्तर प्रदेश में यू पी कोका जैसा कानून बनाया गया और अब वही मांग राजस्थान में भी उठाई जाने लगी है. यहाँ भी मीडिया कड़े कानून के नाम पर 'राकोका' की वकालत शुरू हो गई है. यह कानून अभी केन्द्र सरकार के पास अटका हुआ है. पोटा से परहेज कराने वाली संप्रग सरकार के गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल सभी राज्यों को कड़े कानून बनने की नसीहत देते देखे गए. लेकिन अभी तक जिस भी राज्य में ऐसे कानून बनाये गए हैं वहां की जनता के सभी मानवाधिकार छीन जा चुके हैं. छतीसगढ़ विशेष सुरक्षा कानून, मणिपुर में लागु 'आफ्सपा' कानून, महाराष्टर का मकोका, यू पी का यूपी कोका, उतराखंड का विशेष सुरक्षा कानून ये सभी आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद से निपटे की आड़ में सत्ता के खिलाफ उभरते आंदोलनों को दबाने का एक हथियार है. और इसीलिए ऐसे कानूनों के लिए सभी सत्ताधरी पार्टियाँ एकमत हैं.जयपुर विस्फोटों के बाद कुल मिलकर मीडिया, कथित बुद्धिजीवीवर्ग और सरकारी मशिन्रियाँ सब मिलकर ऐसे कानून बनाये जाने और एक फासीवादी समाज के निर्माण के लिए एकजुट हैं. इन विस्फोटों के बाद होने वाली गिरफ्तारियां और भी हास्यास्पद और दिलचस्प होंगी. कैसे कैसे निर्दोष लोगों को फसाया जाएगा देखते जाइये.

भारत सरकार शर्म करो ! विनायक सेन को रिहा करो !!



१४ मई को डॉक्टर विनायक सेन की गिरफ्तारी के एक साल पूरे हो गए. डॉ सेन मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के छतीसगढ़ महासचिव हैं. अभी कुछ दिन पहले ही पीयूसीएल के छतीसगढ़ अद्ध्क्ष टी. जी अजय को भी पुलिस ने माओवादियों का सहयोगी बताते हुए गिरफ्तार कर लिया. पिछले साल इसी दिन डॉ सेन को सरकार ने मओवादिओं का साथ देने के आरोप में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा कानून २००५ और गैर कानूनी गतिविधि अधिनियम १९६७ के तहत गिरफ्तार कर लिया था. डॉ सेन को छतीसगढ़ में एक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता के रूप में जाना जाता है. पुलिस और कोर्ट एक स्वर में यही कहती हैं - सेन नारायण सान्याल जैसे माओवादी नेता से जेल में क्यों मिलाने जाते हैं? अब इसका क्या जवाब दिया जा सकता है और वह भी उस कोर्ट को जो सब कुछ जानते हुए भी सरकार के इशारों पर चलने को मजबूर है. नारायण सान्याल एक वृद्ध माओवादी नेता हैं. डॉ सेन एक डॉक्टर और मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते जेल अधिनियम के अनुसार उनसे मिलते रहे हैं. यह कहीं से भी गैर कानूनी नहीं है. लेकिन कोर्ट कोई भी बात सुनाने को तैयार नहीं हैं और बिना किसी सबूत के डॉ सेन को पिछले एक सालों से जमानत भी नहीं दे रही हैं.


डॉ सेन की रिहाई को लेकर अब दुनिया भर से प्रतिक्रियाएँ आनी शुरू हो गयीं हैं. दुनिया भर के २२ नोबेल पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकारों ने पत्र लिख कर भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से विनायक सेन को रिहा कराने की गुहार लगे हैं. इस बीच डॉ सेन को अमेरिका का प्रतिष्टित 'जोनाथन मैन' पुरस्कार भी दिए जाने की घोषणा की जा चुकी हैं. यह पुरस्कार उन्हें २९ मई को अमेरिका मैं दिया जाना हैं . इस पुरस्कार को लेने के लिए अमेरिका जाने की अनुमति देने की भी मांग इन साहित्यकारों ने उठाई हैं. लेकिन सरकार अभी भी बेशर्मी से चुप्पी साधे हुए हैं. क्या अब भी भारत सरकार को शर्म आएगी या नही ?

जयपुर धमाकों के पीछे कौन ?




जयपुर धमाकों ने एक बार फ़िर से देश को दहला दिया है. ७० से अधिक की मौत, २०० घायल. जीतनी भी निंदा की जाय कम है. हर तरफ लोगों में खौफ है. मिडिया के हाथे एक नया मुद्दा लग गया है. खौफ को बढ़ने में हर संभव लगी है.इस घटना के इस पहलू पर अगर बात करें तो उसके लिए यह नया नहीं है. वह फ़िर इस घटना के पीछे सीमा पर के आतंकवादी गुटों का हाथ होने के अफवाह उड़ाने लग गई है. घटना के लिए हुजी और लश्कर को जिमेद्दर बताया जा रहा है. हालांकि इन संगठनों इससे इंकार किया है लेकिन इन पर विश्वाश कैसे किया जा सकता है. हाँ अगर वह इसकी जिमेद्दारी ली होती तो लोग आसानी से मान लेते. लेकिन लगातार ऐसी घटनाओं मी बढोतरी के कारण तलाशे ज़रूरी हो गए हैं. और जब इसके कारणों की बात की जायेगी तो इसमे राजनीतिक मिलीभगत जैसी कड़वी सच्चाई से भी इंकार नही किया जा सकता. संसद हमले के उदाहरण हमारे सामने हैं. जिसमे पुलिस इसके कारणों का पता अभी तक नही लगा सकी है. इस मामले मी दोषी अफ़ज़ल गुरु को भी अदालत ने केवल इस लिए सज़ा दी है की हमले के बाद 'लोगों के विवेक को संतुष्ट कराने के लिए यह किसी को सज़ा देना ज़रूरी था'. हमले के बाद मीडिया का रुखापुरी तरह से भड़काऊ रहा. अगर उसके हिसाब से समाज का ढांचा हो तो वह पुरी तरह से पुलिस समाज होगा. ऐसी घटनाएँ सरकारों को भी सुरक्षा के नाम पर पुलिस राज्य बनने मी मददगार साबित होतीं हैं.