आतंकवाद, मीडिया और प्रतिरोध

विजय प्रताप*


आतंकवाद के नाम पर एक के बाद एक फर्जी गिरफ्तारियों के बाद आजमगढ़ में इसका सबसे संगठित व सशक्त प्रतिरोध देखने को मिला। जब ज्यादातर अखबार व समाचार चैनल आतंकवाद की नर्सरी के नाम पर आजमगढ़ को ‘आतंकगढ़’ के रूप में स्थापित करने में लगे थे, वहां लोगों ने अपने गांव के बाहर ‘‘साम्प्रदायिकता फैलाने वाले पत्रकार यहां न आए’’ का बैनर लटका दिया। बैनर प्रतिरोध का एक अहिंसक हथियार था। अहिंसक होते हुए भी यह लोकतंत्र के कथित चैथे स्तम्भ पर उस समाज का ऐसा तमाचा था, जिसे लगातार अलगाव में डालने की कोशिश की जा रही है। लोगों ने यहां प्रतिरोध का अपना तरीका विकसित किया।
आजमगढ़ की ही तरह राजस्थान में भी जयपुर विस्फोट के बाद कोटा, जोधपुर, अजमेर व कुछ अन्य ‘शहरों से मुस्लिम समाज के युवकों की अंधाधुंध गिरफ्तारियां हुई। सबसे ज्यादा कोटा के दो दर्जन से ज्यादा लड़के सिमी से संबंध रखने के आरोप में पकड़े गए। यहां मुस्लिम समाज ने काफी डरते-डरते प्रतिरोध किया। लेकिन लोगों ने प्रतिरोध का वो नायाब तरीका निकाला जिससे उन्हें आतंकवादी के रूप में चिन्हित करने वाली मीडिया को झुकना पड़ा। यहां लोगों ने मीडिया को गलत रिपोर्टिंग बंद करने पर मजबूर कर दिया। हालांकि मीडिया से जुड़े लोगों ने ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ पर हमला और कई अन्य तर्कों से लोकतंत्र के लिए खतरा बताया। लेकिन आतंकवाद के मुद्दे पर मीडिया ने जो ‘शक्ल अख्तिार किया था वो लोकतंत्र के लिए कहीं ज्यादा गैर
जिम्मेदाराना व घातक था।
पिछले साल जयपुर में श्रृंखलाबद्ध विस्फ्ोट के बाद राजस्थान पुलिस ने अपनी ऐतिहासिक भूल सुधारने के लिए सिमी का नेटवर्क तलाशने में जुट गई। नतीजन जल्द ही चालीस से पचास सिमी के ‘कुख्यात’ आतंकी उनकी हिरासत में थे। इसमें से ज्यादातर ऐसे युवा थे जिनका सिमी पर प्रतिबंध लगने से पहले कोई संबंध था। पुलिस को भी ज्यादातर के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिलने पर उन्हें छोड़ना पड़ा। लेकिन अभी भी जयपुर जेल में कोटा व जोधपुर के दर्जन भर युवक हिरासत में हैं। इन पर न तो अभी तक आरोप तय किए जा सके हैं और न ही मुकदमा चलाया जा रहा है। इनकी की गिरफ्तारी के बाद बिना किसी जांच के मीडिया ने अपने चिरपरिचत अंदाज व पुलिस की भाषा में सभी युवाओं को ‘खुंखार आतंकवादी’ व ‘आस्तीन का सांप’ करार दिया। खुफिया सूत्र जैसे बताते गए मीडिया आंख मंूद उसका अनुशरण करती रही। कोटा से ऐसी गिरफ्तारियों के कुछ ही दिन बाद खुफिया सूत्रों के हवाले से बताया गया कि कोटा की फलां दरगाह में आतंकवादियों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया गया था। सभी अखबारों व दिन-रात चैनलों के पत्रकार दरगाह की ओर लपके। आस-पास लोगों को टटोलने की कोशिश की। दरगाह के आस-पास रहने वाले लोगों को भी साहसा इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। लेकिन उनकी चुप्पी को ‘पाकिस्तान समर्थक’ से जोड़ दिया गया। खुद मीडिया वालों को भी दरगाह के आस-पास ऐसी कोई जगह नहीं मिली जो हथियारों के प्रशिक्षण के लिए उपयुक्त हो। लेकिन दूसरे दिन ग्राफिक्स, एनिमेशन, व काल्पनिक तस्वीरों के जरिए खुफिया एजेंसियों की भाषा में वही सबकुछ लिखा गया जो उन एजेंसियों के आकाओं ने मीडियाकर्मिंयों को बताई और जिसे तलाशने में उनका पूरा दिन निकल गया था। बाद में कुछ नहीं मिलाने पर यह भी प्रचारित किया गया की यहाँ इन कथित आतंकियों को वैचारिक प्रशिक्षण मिला था. बहरहाल ऐसे करके खुफिया एजेंसियों ने एक के बाद एक स्टोरी प्लांट की और मीडिया उसके आधार पर कोटा में भी आतंकवादियों को ‘स्लीपिंग मॉड्यूल’ की पुष्टि करती गई।
करीब दो लाख मुस्लिम आबादी वाले कोटा जिले में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों के बावजूद यहां कोई तात्कालिक प्रतिरोध देखने को नहीं मिला। इसका कारण था मुस्लिम समाज के लोगों में समाया एक अनजाना डर। लेकिन जब लोगों ने डर के बंधन तोड़ मीडिया के दुष्प्रचार के खिलाफ संगठित प्रतिरोध का निर्णय लिया तो उसकी खबर भी कानों कान किसी को नहीं लगी। दरअसल इस प्रतिरोध में भी एक तरह से अलगाव का मिश्रण था। प्रतिरोध का निर्णय सभी संप्रदायों के साथ मिलकर सामुहिक रूप से नहीं लिया गया था। इससे पहले मीडिया ने लोगों के दिलों में एक दूसरे के प्रति जो खाई पैदा की थी उसमें ऐसे किसी सामुहिक निर्णय की उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। बहरहाल प्रतिरोध का निर्णय मस्जिदों में लिया गया। मुस्लिम समाज ने पूर्वाग्रह से ग्रसित खबरों के विरोध में राजस्थान के दोनों मुख्य अखबारों ‘‘दैनिक भास्कर’’ व ‘‘राजस्थान पत्रिका’’ का बहिष्कार करना ‘शुरू कर दिया। ‘शहर काजी अनवार अहमद की तरफ से मुस्लिम समाज के लोगों मंे ‘इन अखबारों को न खरीदने, न बेचने और न ही इन्हें विज्ञापन देने’ की अपील जारी की गई। मन में विद्रोह की टीस दबाए लोगों ने इस अपील को हाथों-हाथ लिया और जल्द ही इसका परिणाम भी देखने को मिला। मुस्लिम बहुल मोहल्लों में हॉकरों को इन अखबारों को लेकर घुसने की हिम्मत नहीं हुई। अगले दिन से तीसरे नंबर के अखबार ‘‘दैनिक नवज्योति’’ के स्थानीय संस्करण ने अतिरिक्त कॉपियां छापनी ‘ाुरू कर दी। दोनों ही अखबारों के सरकुलेशन में करीब 20 से 25 हजार की गिरावट आ गई थी। इसके अलावा विज्ञापन की कमी ने और ज्यादा गहरा घाव किया। एक माह में दोनों अखबारों के प्रबंधन से स्थानीय संस्करण के अधिकारियों को नोटिस मिलनी ‘शुरू हो गई। साथ यह भी फरमान आया कि ‘किसी भी कीमत पर उन्हें (मुस्लिम समाज) मनाओ।’
मनाने की इस प्रक्रिया में सबसे पहले सबसे बड़े कॉरपोरेट मीडिया घराने के अखबार दैनिक भास्कर के प्रबंधन ने समर्पण किया। अखबार के स्थानीय संपादक और प्रबंधकद्वय ‘शहरकाजी के पास माफीनामा लेकर हाजिर हुए और उनसे प्रतिबंध हटाने की अपील की। बाद में पूर्वाग्रह से ग्रसित खबरें न छापने की ‘शर्त पर प्रतिबंध हटा लिया गया। भास्कर बिकने लगा तो पत्रिका के प्रबंधन में भी खलबली मची और उसने भी ‘मनाने’ का वही रास्ता अख्तियार किया। इन सबसे अलग इस घटना के बाद जो एक और बड़ा बदलाव नजर आया वो मुस्लिम समाज से जुड़ी खबरें जो पहले अखबारों बहुत कम या छोटी छपती थी, अब बड़ी नजर आने लगी। राजस्थान पत्रिका ने तो अपनी छवि सुधारने के लिए मुस्लिम मोहल्लों में साफ-सफाई के लिए अभियान ही छेड़ दिया। ऐसे मोहल्लों में निःशुल्क चिकित्सा शिविर और ईद पर अखबारों की तरफ से बधाईयों के बैनर भी नजर आने लगे। हालांकि यह अखबारों की संपादकीय नीति में बदलाव का कोई संकेत नहीं था, क्योंकि अभी भी जयपुर और अन्य संस्करणों से ऐसी बेतुकी खबरें छापने का सिलसिला चलता रहा। अभी हाल में ईद के दिन जयपुर जेल में बंद कोटा, जोधपुर व आजमगढ़ के आरोपियों को जेलर ने नमाज अदा नहीं करने दी और उन्हें बुरी तरह से प्रताड़ित किया। जिसका मुस्लिम समाज के कुछ संगठनों ने तगड़ा प्रतिरोध किया। कोटा में भी इसका असर दिखा, लेकिन खबरें छापने के मामले में स्थानीय पत्रकारों ने फिर हिंदूवादी रूख अपनाया। लेकिन दूसरे ही दिन प्रतिरोध होने पर अखबारों ने अपनी गलती स्वीकार की और ‘भूल सुधार’ किया।
प्रतिरोध का यह तरीका भले ही कोई मॉडल न बन सके, लेकिन एक समुदाय विशेष के लिए तात्कालिक राहत पहुंचाने वाला जरूर रहा। दुष्प्रचार से पीड़ित आजमगढ़ में लोगों ने उलेमा काउंसिल गठित कर प्रतिरोध का धार्मिक तरीका अपनाया। इसका असर यह हुआ कि चुनावों में उसके कुछ नेता राजनीतिक पार्टियों से मोल-तोल करने की स्थिति में आ गए। लेकिन वे भारी समर्थन के बावजूद भी उस व्यवस्था में परिवर्तन नहीं ला सके जो लगातार उनके खिलाफ घृणा के बीज बोए जा रही थी। उल्टे मीडिया ने उलेमा काउंसिल पर भी आतंकवादियों का समर्थक होने जैसे बेतुके आरोप लगाए। इससे इतर कोटा में मुस्लिम समुदाय ने काफी डरते-डरते प्रतिरोध किया। लेकिन उसने प्रतिरोध का जो तरीका अपनाया वह उस जड़ पर प्रहार किया जो उनके खिलाफ अन्य समुदाय में घृणा और हिंसा की मानसिकता बोए जा रही थी। भूमण्डलीकरण के इस दौर में सत्ता धार्मिक-सामाजिक आधार पर लोगों को बांटकर पूंजीवाद व अपनी कुर्सी को मजबूत करने में लगी है। इसमें मीडिया सत्ता की ‘बांटो और राज करो’ की नीति को प्रोत्साहित कर रही है। इस नीति के खिलाफ उठने वाली कोई भी आवाज जाहिर तौर पर सत्ता व उसकी पिठ्ठू मीडिया को पंसद नहीं आएगी। लेकिन यह भी सही है कि समाज में मौजूद प्रतिरोध की चेतना ऐसी नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध के नित नए-नए तरीके भी ईजाद करती रहेगी।


* लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) से जुड़े हैं.
यह लेख साहित्यिक पत्रिका कथादेश के फ़रवरी 2010 के अंक में मीडिया खंड कोलम में प्रकशित हो चुका है.किसी मीडिया संस्थान में रहते हुए आप भी ऐसे किसी अनुभव से गुजरते हैं और उसे अन्य लोगों से बंटाना चाहते हैं कथादेश के लिए वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडिया को इस पते (namwale@gmail.com) पर लिख भेजे.

नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों से जेयूसीएस की एक अपील

साथी,
पत्रकार बंधुओं,



देश में नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के नाम पर चल रहे सरकारी दमन के बीच मीडिया और आप सभी की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। सत्ता जब मीडिया को अपना हथियार व पुलिस पत्रकारों को अपने बंदूक की गोली की भूमिका में इस्तेमाल करे तो ऐसे समय में हमे ज्यादा सर्तक रहने की जरूरत है। पुलिस की ही तरह हमारे कलम से निकलने वाली गोली से भी एक निर्दोष के मारे जाने की भी उतनी ही सम्भावना होती है, जितनी की एक अपराधी की। हमें यहां यह बातें इसलिए कहनी पड़ रही हैं क्योंकि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद जैसे मुददों पर रिपोर्टिंग करते समय हमारे ज्यादातर पत्रकार साथी न केवल पुलिस के प्रवक्ता नजर आते हैं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा वह उन पत्रकारीय मूल्यों को भी ताक पर रख देते हैं, जिसके बल पर उनकी विश्वसनियता बनी है।

हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हाल ही में इलाहाबाद में पत्रकार सीमा आजाद व कुछ अन्य लोगों की गिरफ़्तारी के बाद भी मीडिया व पत्रकारों का यही रूख देखने को मिला। सीमा आजाद इलाहाबाद में करीब 12 सालों से एक पत्रकार, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय रही हैं। इलाहाबाद में कोई भी सामाजिक व्यक्ति या पत्रकार उन्हें आसानी से पहचानता होगा। कुछ नहीं तो वैचारिक-साहित्यिक सेमिनार/गोष्ठियां कवर करने वाले पत्रकार उन्हें बखूबी जानते होंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि जब पुलिस ने उन्हीं सीमा आजाद को माओवादी बताया तो किसी पत्रकार ने आगे बढ़कर इस पर सवाल नहीं उठाया। आखिर क्यो? क्यों अपने ही बीच के एक व्यक्ति या महिला को पुलिस के नक्सली/माओवादी बताए जाने पर हम मौन रहे? पत्रकार के तौर पर हम एक स्वाभाविक सा सवाल क्यों नहीं पूछ सके कि किस आधार पर एक पत्रकार को नक्सली/माओवादी बताया जा रहा है? क्या कुछ किताबें या किसी के बयान के आधार पर किसी को राष्ट्रद्रोही करार दिया जा सकता है? और अगर पुलिस ऐसा करती है तो एक सजग पत्रकार के बतौर क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?

पत्रकार साथियों को ध्यान हो, तो यह अक्सर देखा जाता है कि किसी गैर नक्सली/माओवादी की गिरफ्तारी दिखाते समय पुलिस एक रटा-रटाया सा आरोप उन पर लगाती है। मसलन यह फलां क्षेत्र में फलां संगठन की जमीन तैयार कर रहा था/रही थी, या कि वह इस संगठन का वैचारिक लीडर था/थी, या कि उसके पास से बड़ी मात्रा में नक्सली/माओवादी साहित्य (मानो वह कोई गोला बारूद हो) बरामद हुआ है। आखिर पुलिस को इस भाषा में बात करने की जरूरत क्यों महसूस होती है? क्या पुलिस के ऐसे आरोप किसी गंभीर अपराध की श्रेणी में आते हैं? किसी राजनैतिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना या किसी खास राजनैतिक विचारधारा (भले ही वो नक्सली/माओवादी ही क्यों न हो) से प्रेरित साहित्य पढ़ना कोई अपराध है? अगर नहीं तो पुलिस द्वारा ऐसे आरोप लगाते समय हम चुप क्यों रहते हैं? क्यों हम वही लिखते हैं,जो पुलिस या उसके प्रतिनिधि बताते हैं। यहां तक की पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताती है और हम उसके आगे ‘कथित’ लगाने की जरूरत भी महसूस नहीं करते। क्यों ?

हम जानते हैं कि हमारे वो पत्रकार साथी जो किसी खास दुराग्रह या पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होते, वह भी खबरें लिखते समय ऐसी ‘भूल’ कर जाते हैं। शायद उन्हें ऐसी ‘भूल’ के परिणाम का अंदाजा न हो। उन्हें नहीं मालूम की ऐसी 'भूल' किसी की जिंदगी और सत्ता-पुलिसतंत्र की क्रूरता की गति को तय करते हैं।

जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) सभी पत्रकार बंधुओं से अपील करती हैं कि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग करते समय कुछ मूलभूत बातों का ध्यान अवश्य रखें.


* साथियों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद तीनों अलग-अलग विचार हैं। नक्सलवाद/माओवाद राजनैतिक विचारधाराएं हैं तो आतंकवाद किसी खास समय, काल व परिस्थियों से उपजे असंतोष का परिणाम है। यह कई बार हिंसक व विवेकहीन कार्रवाई होती है जो जन समुदाय को भयाक्रांत करती है. इन सभी घटनाओं को एक ही तराजू में नहीं तौला जा सकता। नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक होना कहीं से भी अपराध नहीं है। इस विचारधारा को मानने वाले कुछ संगठन खुले रूप में आंदोलन चलाते हैं और चुनाव लड़ते हैं तो कुछ भूमिगत रूप से संघर्ष में विश्वाश करते हैं। कुछ भूमिगत नक्सलवादी/माओवादी संगठनों को सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है। लेकिन यहीं यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इन संगठनों की विचारधारा को मानने पर कोई मनाही नहीं है। इसीलिए पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक बताकर गिरफ्तार नहीं कर सकती है, जैसा की पुलिस अक्सर करती है.। हमें विचारधारा व संगठन के अंतर को समझना होगा।


* इसी प्रकार पुलिस जब यह कहती है कि उसने नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य (कई बार धार्मिक साहित्य को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है) पकड़ा है तो उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिये कि आखिर कौन-कौन सी किताबें इसमें शामिल हैं। मित्रों, लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी खास तरह की विचारधारा से प्रेरित होकर लिखी गई किताबें रखना/पढ़ना कोई अपराध नहीं है। पुलिस द्वारा अक्सर ऐसी बरामदगियों में कार्ल मार्क्स/लेनिन/माओत्से तुंग/स्टेलिन/भगत सिंह/चेग्वेरा/फिदेल कास्त्रो/चारू मजूमदार/किसी संगठन के राजनैतिक कार्यक्रम या धार्मिक पुस्तकें शामिल होती हैं। ऐसे समय में पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि कालेजों/विश्वविद्यलयों में पढ़ाई जा रही इन राजनैतिक विचारकों की किताबें भी नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य हैं? क्या उसको पढ़ाने वाला शिक्षक/प्रोफेसर या पढ़ने वाले बच्चे भी नक्सली/माओवादी/आतंकी हैं? पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि प्रतिबंधित साहित्य का क्राइटेरिया क्या है, या कौन सा वह मीटर/मापक है जिससे पुलिस यह तय करती है कि यह नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य है।

यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है की अक्सर देखा जाता है की पुलिस जब कोई हथियार, गोला-बारूद बरामद करती है तो मीडिया के सामने खुले रूप में (कई बार बड़े करीने से सजा कर) पेश की जाती है, लेकिन वही पुलिस जब नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य बरामद करती है तो उसे सीलबंद लिफाफों में पेश करती है. इन लिफाफों में क्या है हमें नहीं पता होता है लेकिन हमारे सामने इसके लिए कुछ 'अपराधी' हमारे सामने होते हैं. आप पुलिस से यह भी मांग करे कीबरामद नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य को खुले रूप में सार्वजनिक किया जाए.


* मित्रों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तारियों के पीछे किसी खास क्षेत्र में चल रहे राजनैतिक/सामाजिक व लोकतांत्रिक आन्दोलनों को तोड़ने/दबाने या किसी खास समुदाय को आतंकित करने जैसे राजनैतिक लोभ छिपे होते हैं। ऐसे समय में यह हमें तय करना होता है कि हम किसके साथ खड़े होंगे। सत्ता की क्रूर राजनीति का सहभागी बनेंगे या न्यूनतम जरूरतों के लिए चल रहे जनआंदोलनों के साथ चलेंगे।


* हम उन तमाम संपादकों/स्थानीय संपादकों/मुख्य संवाददातों से भी अपील करते हैं , की वह अपने क्षेत्र में नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी घटनाओं की रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी अपराध संवाददाता (क्राइम रिपोर्टर) को न दें. यहाँ ऐसा सुझाव देने के पीछे इन संवाददाताओं की भूमिका को कमतर करके आंकना हमारा कत्तई उद्देश्य नहीं है. हम केवल इतना कहना चाहते हैं की यह संवाददाता रोजाना चोर, उच्चकों, डकैतों और अपराधों की रिपोर्टिंग करते-करते अपने दिमाग में खबरों को लिखने का एक खांचा तैयार कर लेते हैं और सारी घटनाओं की रिपोर्ट तयशुदा खांचे में रहकर लिखते है. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग हम तभी सही कर सकते हैं जब हम इस तयशुदा खांचे से बहार आयेगे. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद कोई महज आपराधिक घटनाएँ नहीं है, यह शुद्ध रूप से राजनैतिक मामला है.


* हमे पुलिस द्वारा किसी पर भी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी होने के लगाए जा रहे आरोपों के सत्यता की पुख्ता जांच करनी चाहिये। पुलिस से उन आरोपों के संबंध में ठोस सबूत मांगे जाने चाहिये। पुलिस से ऐसे कथित नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी के पकड़े जाने के आधार की जानकारी जरूर लें।

* हमें पुलिस के सुबूत के अलावा व्यक्तिगत स्तर पर भी सत्यता की जांच करने की कोशिश करना चाहिये। मसलन अभियुक्त के परिजनों से बातचीत करना चाहिये। परिजनों से बातचीत करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत होती है। अक्सर देखा जाता है कि पुलिस के आरोपों के बाद ही हम उस व्यक्ति को अपराधी मान बैठते हैं और उसके बाद उसके परिजनों से भी ऐसे सवाल पूछते हैं जो हमारी स्टोरी व पुलिस के दावों को सत्य सिद्ध करने के लिए जरूरी हों। ऐसे समय में हमें अपने पूर्वाग्रह को कुछ समय के लिए किनारे रखकर, परिजनों के दर्द को सुनने/समझने की कोशिश करनी चाहिए। शायद वहां से कोई नयी जानकारी निकल कर आए जो पुलिस के आरोपों को फर्जी सिद्ध करे।

* मित्रों, कोई भी अभियुक्त तब तक अपराधी नहीं है, जब तक कि उस पर लगे आरोप किसी सक्षम न्यायालय में सिद्ध नहीं हो जाते या न्यायालय उसे दोषी नहीं करार देती। हमें केवल पुलिस के नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताने के आधार पर ही इन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसे शब्द लिखते समय ‘कथित’ या ‘पुलिस के अनुसार’ जरूर लिखना चाहिये। अपनी तरफ से कोई जस्टिफिकेशन नहीं देना चाहिये।



पत्रकार बंधुओं,

यहां इस तरह के सुझाव देने के पीछे हमारा यह कत्तई उद्देश्य नहीं है कि आप किसी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी का साथ दें। हम यहां कोई ज्ञान भी नहीं देना चाहते। हमारा उद्देश्य केवल इतना सा है कि ऐसे मसलों की रिपोर्टिंग करते समय हम जाने/अनजाने में सरकारी प्रवक्ता या उनका हथियार न बन जाए। ऐसे में जब हम खुद को लोकतंत्र का चौथा-खम्भा या वाच डाग कहते हैं तो जिम्मेदारी व सजगता की मांग और ज्यादा बढ़ जाती है। जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) आपको केवल इसी जिम्मेदारी का एहसास करना चाहती है।

उम्मीद है कि आपकी लेखनी शोषित/उत्पीड़ित समाज की मुखर अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकेगी !!


- निवेदक
आपके साथी,

विजय प्रताप, राजीव यादव, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, चन्द्रिका, शाहनवाज आलम, अनिल, लक्ष्मण प्रसाद, अरूण उरांव, देवाशीष प्रसून, दिलीप, शालिनी वाजपेयी, पंकज उपाध्याय, विवेक मिश्रा, तारिक शफीक, विनय जायसवाल, सौम्या झा, नवीन कुमार सिंह, प्रबुद़ध गौतम, पूर्णिमा उरांव, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, अर्चना मेहतो, राकेश कुमार।


जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से जनहित में जारी

चमड़िया जैसा 'इडियट' नहीं, राय जैसा 'चतुर' बनेंगे

विजय प्रताप

अनिल चमड़िया एक 'इडियट' टीचर है। ऐसे 'इडियट्स' को हम केवल फिल्मों में पसंद करते हैं। असल जिंदगी में ऐसे 'इडियट' की कोई जगह नहीं। अभी जल्द ही हम लोगों ने 'थ्री इडियट' देखी है। उसमें एक छात्र सिस्टम के बने बनाए खांचे के खिलाफ जाते हुए नई राह बनाने की सलाह देता है। यहां एक अनिल चमड़िया है, वह भी गुरू शिष्य-परम्परा की धज्जियां उड़ाते हुए बच्चों से हाथ मिलाता है, उनके साथ एक थाली में खाता है। उन्हें पैर छूने से मना करता है। कुल मिलाकर वह हमारी सनातन परम्परा की वाट लगा रहा है। महात्मा गांधी के नाम पर बने एक विष्वविद्यालय में यह प्रोफेसर एक संक्रमण की तरह अछूत रोग फैला रहा है। बच्चों को सनातन परम्परा या कहें कि सिस्टम के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहा है।
दोस्तों, यह सबकुछ फिल्मों में होता तो हम एक हद तक स्वीकार्य भी कर लेते। कुछ नहीं तो कला फिल्म के नाम पर अंतरराश्ट्ीय समारोहों में दिखाकर कुछ पुरस्कार-वुरस्कार भी बटोर लाते। लेकिन साहब, ऐसी फिल्में हमारी असल जिंदगी में ही उतर आए यह हमे कत्तई बर्दाश्त नहीं। 'थ्री इडियट' फिल्म का हीरो एक वर्जित क्षेत्र (लद्दाख) से आता था। असल जिंदगी में यह 'इडियट' चमड़िया (दलितवादी) भी उसी का प्रतिनिधित्व कर रहा है। ऐसे तो कुछ हद तक 'थ्री इडियट' ठीक थी। हीरो कोई सत्ता के खिलाफ चलने की बात नहीं करता। चुपचाप एक बड़ा वैज्ञानिक बनकर लद्दाख में स्कूल खोल लेता है। लेकिन यहां तो यह 'इडियट' सत्ता के खिलाफ भी लड़कों को भड़काता रहता है। हम शुतुमुर्ग प्रवृत्ति के लोग सत्ता व सनातन सिस्टम के खिलाफ ऐसी बाते नहीं सुन सकते।
सो, साथियों हमारे ही बीच से महात्मा गांधी अंतरराश्ट्ीय हिंदी विष्वविद्यालय के कुलपति या यूं कहें कि सनातन गुरुकुल परम्परा के रक्षक द्रोणाचार्य के नए अवतार वी एन राय साहब ने इस परम्परा की रक्षा का बोझ उठा लिया है। वह अपनी एक पुरानी गलती (जिसमें कि उन्होंने छात्रों के बहकावे में आकर चमड़िया को प्रोफेसर नियुक्त करने की भूल की) सुधारना चाहते हैं। राय साहब को अब पता चल गया है कि गलती से एक कोई एकलव्य भी उनके गुरुकुल में प्रवेश पा चुका है। दुर्भाग्यवश अब हम लोकतंत्र में जी रहे हैं (नहीं तो कोई अंगूठा काटने जैसा ऐपीसोड करते) इसलिए चमड़िया को बाहर निकालने के लिए थोड़ा मुष्किल हो रहा है। तब एकलव्य के अंगूठा काटने पर भी इतनी चिल्ल-पौं नहीं मची थी जितने इस कथित लोकतंत्र में कुछ असामाजिक तत्व कर रहे हैं। राय साहब, आपके साथ हमें भी दुख है कि इस सनातन सिस्टम में लोकतंत्र के नाम पर ऐसे चिल्ल-पौं करने वालों की एक बड़ी फौज तैयार हो रही है। आपने ‘साधु की जाति नहीं पूछने वाली’ मृणाल पाण्डे जी के साथ अपने ऐसे 'इडियटों' को सिस्टम से बाहर करने का जो फैसला किया है, वो अभूतपूर्व है। इसी 'इडियट'(अनिल चमड़िया) ने हमारी मुख्यधारा की मीडिया के सामने आइना रख दिया था, जिसकी वजह से हमें कुछ दिनों तक आइनों से भी घृणा होने लगी थी। हम आइनें में खुद से ही नजर नहीं मिला पा रहे थे। वो तो धन्य हो मृणाल जी का जिन्होंने "साधु को आइना नहीं दिखाना चाहिए उससे केवल ज्ञान लेना चाहिए" का पाठ पढाया, और हमें उस संकट से उबारा. ठीक ही किया जो अपने विष्णु नागर जैसे छोटे कद के आदमी को मृणाल जी व खुद के समकक्ष बैठाने की बजाए उनका इस्तीफा ले लिया। हमारे सनातन सिस्टम में सभी के बैठने की जगह तय है। उसे उसके कद के हिसाब से बैठाना चाहिए। मृणाल जी की बात अलग है। वो कोई चमाइन नहीं, पण्डिताइन हैं, उनका स्थान उंचा है। सनातन सिस्टम में भी फैसला करने का अधिकार पण्डितों व भूमिहारों के हाथ में था, आप उसे जिवित किए हुए हैं हिंदू सनातन धर्म को आप पर नाज है।
साहब, आप तो पुलिस में भी रहे हैं। हम जानते हैं कि आपको सब हथकंडे आते हैं। एक और दलितवादी जिसका नाम दिलीप मंडल है आप की कार्यषैली पर सवाल उठा रहा है। कहता है कि आपने एक्जिक्यूटिव कांउसिल से चमड़िया को हटाने के लिए सहमति नहीं ली। उस मूर्ख को यह पता ही नहीं की द्रोणाचार्य जी को एकलव्य की अंगुली काटने के लिए किसी एक्जिक्यूटिव कांउसिल की बैठक नहीं बुलानी पड़ी थी। आप तो फैसला "आन द स्पाट" में विश्वाश करते हैं। सर जी, यह तो लोकतंत्र के चोंचले हैं। और आप तो पुलिस के आदमी हैं, वहां तो थानेदार जी ने जो कह दिया वही कानून और वही लोकतंत्र है। लोग कह रहे हैं, साहब कि जिस मिटिंग में चमड़िया को हटाने का फैसला हुआ उसमें बहुत कम लोग थे। उन्हें क्या पता कि जो आये थे वह भी इसी शर्त पर आए थे कि सनातन सिस्टम को बचाए रखने के लिए सभी राय साहब को सेनापति मानकर उनका साथ देंगे। जो खिलाफ जाते आप ने बड़ी चालकी से उन्हें अलग रख दिया। वाह जी साहब, इसी को कहते हैं सवर्ण बुद्धि। आप वहां हैं तो हमें पूरा भरोसा है कि वह विष्वविद्यालय सुरक्षित (और ऐसे भी साहब जहां पुलिस होगी वहां सुरक्षा तो होगी ही) हाथों में है।
साब जी, हमने गांव के छोरों से कह दिया है - यह लंठई-वंठई छोड़ों। इधर-उधर से टीप-टाप कर बीए, ईमे कर लो। बीयेचू चले जाओ, कोई पंडित जी पकड़ कर दुई चार किताबे टीप दो। फिर तो आप हईये हैं। एचओडी नहीं तो कम से कम प्रुफेसर-व्रुफेसर तो बनवाईये दीजिएगा। और साहब हम आपके पूरा भरोसा दिलाते हैं यह लौंडे 'अनिल चमड़िया' जैसा 'इडियट' नहीं 'अनिल अंकित राय' जैसा 'चतुर' बनकर आपका नाम रौशन करेंगे।