विजय प्रताप*
आतंकवाद के नाम पर एक के बाद एक फर्जी गिरफ्तारियों के बाद आजमगढ़ में इसका सबसे संगठित व सशक्त प्रतिरोध देखने को मिला। जब ज्यादातर अखबार व समाचार चैनल आतंकवाद की नर्सरी के नाम पर आजमगढ़ को ‘आतंकगढ़’ के रूप में स्थापित करने में लगे थे, वहां लोगों ने अपने गांव के बाहर ‘‘साम्प्रदायिकता फैलाने वाले पत्रकार यहां न आए’’ का बैनर लटका दिया। बैनर प्रतिरोध का एक अहिंसक हथियार था। अहिंसक होते हुए भी यह लोकतंत्र के कथित चैथे स्तम्भ पर उस समाज का ऐसा तमाचा था, जिसे लगातार अलगाव में डालने की कोशिश की जा रही है। लोगों ने यहां प्रतिरोध का अपना तरीका विकसित किया।
आजमगढ़ की ही तरह राजस्थान में भी जयपुर विस्फोट के बाद कोटा, जोधपुर, अजमेर व कुछ अन्य ‘शहरों से मुस्लिम समाज के युवकों की अंधाधुंध गिरफ्तारियां हुई। सबसे ज्यादा कोटा के दो दर्जन से ज्यादा लड़के सिमी से संबंध रखने के आरोप में पकड़े गए। यहां मुस्लिम समाज ने काफी डरते-डरते प्रतिरोध किया। लेकिन लोगों ने प्रतिरोध का वो नायाब तरीका निकाला जिससे उन्हें आतंकवादी के रूप में चिन्हित करने वाली मीडिया को झुकना पड़ा। यहां लोगों ने मीडिया को गलत रिपोर्टिंग बंद करने पर मजबूर कर दिया। हालांकि मीडिया से जुड़े लोगों ने ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ पर हमला और कई अन्य तर्कों से लोकतंत्र के लिए खतरा बताया। लेकिन आतंकवाद के मुद्दे पर मीडिया ने जो ‘शक्ल अख्तिार किया था वो लोकतंत्र के लिए कहीं ज्यादा गैर
जिम्मेदाराना व घातक था।

करीब दो लाख मुस्लिम आबादी वाले कोटा जिले में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों के बावजूद यहां कोई तात्कालिक प्रतिरोध देखने को नहीं मिला। इसका कारण था मुस्लिम समाज के लोगों में समाया एक अनजाना डर। लेकिन जब लोगों ने डर के बंधन तोड़ मीडिया के दुष्प्रचार के खिलाफ संगठित प्रतिरोध का निर्णय लिया तो उसकी खबर भी कानों कान किसी को नहीं लगी। दरअसल इस प्रतिरोध में भी एक तरह से अलगाव का मिश्रण था। प्रतिरोध का निर्णय सभी संप्रदायों के साथ मिलकर सामुहिक रूप से नहीं लिया गया था। इससे पहले मीडिया ने लोगों के दिलों में एक दूसरे के प्रति जो खाई पैदा की थी उसमें ऐसे किसी सामुहिक निर्णय की उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। बहरहाल प्रतिरोध का निर्णय मस्जिदों में लिया गया। मुस्लिम समाज ने पूर्वाग्रह से ग्रसित खबरों के विरोध में राजस्थान के दोनों मुख्य अखबारों ‘‘दैनिक भास्कर’’ व ‘‘राजस्थान पत्रिका’’ का बहिष्कार करना ‘शुरू कर दिया। ‘शहर काजी अनवार अहमद की तरफ से मुस्लिम समाज के लोगों मंे ‘इन अखबारों को न खरीदने, न बेचने और न ही इन्हें विज्ञापन देने’ की अपील जारी की गई। मन में विद्रोह की टीस दबाए लोगों ने इस अपील को हाथों-हाथ लिया और जल्द ही इसका परिणाम भी देखने को मिला। मुस्लिम बहुल मोहल्लों में हॉकरों को इन अखबारों को लेकर घुसने की हिम्मत नहीं हुई। अगले दिन से तीसरे नंबर के अखबार ‘‘दैनिक नवज्योति’’ के स्थानीय संस्करण ने अतिरिक्त कॉपियां छापनी ‘ाुरू कर दी। दोनों ही अखबारों के सरकुलेशन में करीब 20 से 25 हजार की गिरावट आ गई थी। इसके अलावा विज्ञापन की कमी ने और ज्यादा गहरा घाव किया। एक माह में दोनों अखबारों के प्रबंधन से स्थानीय संस्करण के अधिकारियों को नोटिस मिलनी ‘शुरू हो गई। साथ यह भी फरमान आया कि ‘किसी भी कीमत पर उन्हें (मुस्लिम समाज) मनाओ।’
मनाने की इस प्रक्रिया में सबसे पहले सबसे बड़े कॉरपोरेट मीडिया घराने के अखबार दैनिक भास्कर के प्रबंधन ने समर्पण किया। अखबार के स्थानीय संपादक और प्रबंधकद्वय ‘शहरकाजी के पास माफीनामा लेकर हाजिर हुए और उनसे प्रतिबंध हटाने की अपील की। बाद में पूर्वाग्रह से ग्रसित खबरें न छापने की ‘शर्त पर प्रतिबंध हटा लिया गया। भास्कर बिकने लगा तो पत्रिका के प्रबंधन में भी खलबली मची और उसने भी ‘मनाने’ का वही रास्ता अख्तियार किया। इन सबसे अलग इस घटना के बाद जो एक और बड़ा बदलाव नजर आया वो मुस्लिम समाज से जुड़ी खबरें जो पहले अखबारों बहुत कम या छोटी छपती थी, अब बड़ी नजर आने लगी। राजस्थान पत्रिका ने तो अपनी छवि सुधारने के लिए मुस्लिम मोहल्लों में साफ-सफाई के लिए अभियान ही छेड़ दिया। ऐसे मोहल्लों में निःशुल्क चिकित्सा शिविर और ईद पर अखबारों की तरफ से बधाईयों के बैनर भी नजर आने लगे। हालांकि यह अखबारों की संपादकीय नीति में बदलाव का कोई संकेत नहीं था, क्योंकि अभी भी जयपुर और अन्य संस्करणों से ऐसी बेतुकी खबरें छापने का सिलसिला चलता रहा। अभी हाल में ईद के दिन जयपुर जेल में बंद कोटा, जोधपुर व आजमगढ़ के आरोपियों को जेलर ने नमाज अदा नहीं करने दी और उन्हें बुरी तरह से प्रताड़ित किया। जिसका मुस्लिम समाज के कुछ संगठनों ने तगड़ा प्रतिरोध किया। कोटा में भी इसका असर दिखा, लेकिन खबरें छापने के मामले में स्थानीय पत्रकारों ने फिर हिंदूवादी रूख अपनाया। लेकिन दूसरे ही दिन प्रतिरोध होने पर अखबारों ने अपनी गलती स्वीकार की और ‘भूल सुधार’ किया।
प्रतिरोध का यह तरीका भले ही कोई मॉडल न बन सके, लेकिन एक समुदाय विशेष के लिए तात्कालिक राहत पहुंचाने वाला जरूर रहा। दुष्प्रचार से पीड़ित आजमगढ़ में लोगों ने उलेमा काउंसिल गठित कर प्रतिरोध का धार्मिक तरीका अपनाया। इसका असर यह हुआ कि चुनावों में उसके कुछ नेता राजनीतिक पार्टियों से मोल-तोल करने की स्थिति में आ गए। लेकिन वे भारी समर्थन के बावजूद भी उस व्यवस्था में परिवर्तन नहीं ला सके जो लगातार उनके खिलाफ घृणा के बीज बोए जा रही थी। उल्टे मीडिया ने उलेमा काउंसिल पर भी आतंकवादियों का समर्थक होने जैसे बेतुके आरोप लगाए। इससे इतर कोटा में मुस्लिम समुदाय ने काफी डरते-डरते प्रतिरोध किया। लेकिन उसने प्रतिरोध का जो तरीका अपनाया वह उस जड़ पर प्रहार किया जो उनके खिलाफ अन्य समुदाय में घृणा और हिंसा की मानसिकता बोए जा रही थी। भूमण्डलीकरण के इस दौर में सत्ता धार्मिक-सामाजिक आधार पर लोगों को बांटकर पूंजीवाद व अपनी कुर्सी को मजबूत करने में लगी है। इसमें मीडिया सत्ता की ‘बांटो और राज करो’ की नीति को प्रोत्साहित कर रही है। इस नीति के खिलाफ उठने वाली कोई भी आवाज जाहिर तौर पर सत्ता व उसकी पिठ्ठू मीडिया को पंसद नहीं आएगी। लेकिन यह भी सही है कि समाज में मौजूद प्रतिरोध की चेतना ऐसी नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध के नित नए-नए तरीके भी ईजाद करती रहेगी।
* लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) से जुड़े हैं.
यह लेख साहित्यिक पत्रिका कथादेश के फ़रवरी 2010 के अंक में मीडिया खंड कोलम में प्रकशित हो चुका है.किसी मीडिया संस्थान में रहते हुए आप भी ऐसे किसी अनुभव से गुजरते हैं और उसे अन्य लोगों से बंटाना चाहते हैं कथादेश के लिए वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडिया को इस पते (namwale@gmail.com) पर लिख भेजे.