मानवाधिकार दिवस पर परिचर्चा

विदेशी कंपनियों पर निर्भर मानवाधिकार
गौतम नवलखा
सचिव, पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर), नई दिल्ली
मानवाधिकार की समस्या राज्य द्वारा खड़ी की गई है। पूरे देश में न केवल मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, बल्कि सिविल लिबर्टिज कार्यकर्ताओं के रास्ते में नई-नई मुश्किलें खड़ी की जा रही हैं। मुख्तलिफ़ इलाकों में कार्यकर्ताओं को जाने से रोका जा रहा है। कई दुर्गम इलाकों में पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों का उत्पीड़न लगातार जारी है। उन इलाकों को पूरे देश से काट दिया गया है। वहां किसी को आने-जाने नहीं दिया जा रहा है। सिविल लिबर्टिज के कार्यकर्ताओं को भी लगातार उत्पीड़ित किया जा रहा है। उन्हें माओवादी और आतंकी बताकर उन पर फर्जी मुकदमें लादे जा रहे हैं। यह सबकुछ जानबूझकर बहुराष्ट्ीय कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। हमने पिछले दिनों देखा कि छत्तीसगढ़, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में आदिवासियों की जमीने जबरन छीनकर बहुराष्ट्ीय कम्पनियों को दी गई। विरोध करने पर आदिवासियों को माओवादी करार देकर गोली से उड़ा दिया गया, उनके घरों को जला दिया गया। ऐसे में यह उम्मीद करना ही बेकार है कि सरकार या कोई सरकारी संस्था मानवाधिकारों की रक्षा करेगी। यह काम सिविल लिबर्टिज कार्यकर्ताओं को ही करना होगा। वैसे, भी देखें तो मानवाधिकारों के मामले में वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति दिनों-दिन खराब होती जा रही है। प्रदेशों में मानवाधिकार हनन की होड़ लगी है।
गरीबों को मानवाधिकार नहीं
प्रशांत भूषण
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता
हिंदुस्तान में गरीब-असहाय लोगों का कभी कोई अधिकार रहा ही नहीं है। व्यवस्था को ऐसा जटिल बना दिया गया है कि अगर किसी के साथ कोई अन्याय होता भी है तो वह न्यायालय में जाने से पहले कई बार सोचेगा। गरीब आदमी इस न्यायिक व्यवस्था में घुस भी गया तो यह जरूरी नहीं कि उसे न्याय मिलेगा ही। यहां ज्यादातर जज सम्पन्न वर्गों से आते हैं। उन्हें एक गरीब या आम आदमी की समस्याएं समझ में नहीं आती। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में कानून की व्याख्याएं बहुत बदल गई हैं। न्याय न मिलना, मानवाधिकार हनन नही ंतो क्या है? सरकार, बहुराष्ट्ीय कम्पनियों के और पुलिस-प्रशासन, सरकार के इशारों पर गरीब आदिवासियों पर लगातार जुल्म ढाह रहे हैं। ग्रीनहंट जैसे सरकारी अभियान खुल्लम-खुल्ला मानवाधिकारों का उल्लंघन हैं। खनिज सम्पदा से भरे इलाकों को पिछड़ा रखकर वहां माओवाद को पनपने का मौका दिया जा रहा है। पुलिस और सुरक्षा बलों को मनमाने अधिकार देने के लिए नए-नए कानून बनाए जा रहे हैं। हम एक ही सरकार से यह भी उम्मीद करें कि वह हमारे मानवाधिकारों की रक्षा करेगी और वही सरकार मानवाधिकारों की हत्या करने वाले काननू बनाये यह बहुत ही हास्यास्पद बात होगी। अभी कोई भी सरकार यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि वो मानवाधिकारों की रक्षा करती है।

फर्जी मुठभेड़ की संस्कृति
चितरंजन सिंह,
राष्ट्ीय उपाध्यक्ष, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज (पीयूसीएल)
भारत में मानवाधिकारों की स्थिति तो सरकारी संस्थाओं की ही रिपोर्ट बयान कर रही हैं। फर्जी मुठभेड़ और गिरफ्तारियां पुलिसिया कामकाज की एक संस्कृति बनती जा रही है। राष्ट्ीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि फर्जी मुठभेड़ों के मामले में उत्तर प्रदेश अव्वल है। आतंकवाद के नाम पर पूरे देश से बड़े पैमाने पर मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारियां हुई। सैकड़ों लोग जेलों में बिना किसी कसूर के सड़ रहे हैं। पुलिस उन पर चार्जशीट तक नहीं दाखिल कर पाई है। माओवाद के नाम पर आदिवासियों पर जुल्म किया जा रहा है। ऐसे लोगों के लिए मानवाधिकार के कोई मायने नहीं है। देश के अधिकांश हिस्सों में यही हो रहा है। लोगों को अपनी बात कहने का अधिकार तक नहीं दिया जा रहा है। कश्मीर में पिछले दिनों विरोध प्रदर्शनों पर पुलिस फायरिंग में सैकड़ों युवा मारे गए। उत्तर-पूर्व से लेकर छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट तक ऐसा क्षेत्र बनता जा रहा है, जहां सरकारी संस्थाओं को मानवाधिकार हनन के लिए लगभग प्रोत्साहित किया जा रहा है। मानवाधिकार हनन के लिए बकायदा कानून बनाये जा रहे हैं। मानवाधिकारों की रक्षा के लिए हमें ही आगे आना होगा। सरकारी और पुलिस के जुल्मों का मुकाबला करना होगा। तभी हम मानवाधिकारों की रक्षा के संघर्ष को आगे बढ़ा सकेंगे।
राज्य जिम्मेदार
राजेन्द्र सच्चर,
पूर्व मुख्य न्यायाधीश
भारत में सभी को समान संवैधानिक अधिकार मिले हुए हैं। राज्य कई बार अपने दायरे से बाहर जाकर इन अधिकारों का हनन भी करता है। लेकिन वहीं हमें ये भी अधिकार है कि हम इसके खिलाफ़ आवाज उठा सके। अखबारों को लिखने की पूरी आजादी है। उन्हें लगता है कि किन्हीं अधिकारों का हनन हो रहा है या सरकार कुछ गलत कर रही है तो वह उस पर जनमत तैयार कर सकते हैं। जनमत के माध्यम से सरकार पर यह दबाव डाला जा सकता है कि वो मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करे। यह सही है कि कश्मीर सहित कई प्रदेशों में मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। लेकिन इसे सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता। अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग स्थितियां हैं। अगर मानवाधिकारों का हनन होता है तो लोगों को विरोध करने का भी अधिकार है। मानवाधिकार हनन के लिए पूरी तरह से राज्य जिम्मेदार हैं। मानवाधिकारों की रक्षा में अदालतों की भूमिका सीमित होती है। सरकार जो कानून बनाती है, न्यायपालिका को उसी दायरे में काम करना होता है। सरकार अगर पोटा जैसे कानून बनाएगी तो जाहिर सी बात है कि उससे मानवाधिकारों का हनन होगा। न्यायपालिका में भी अलग-अलग सोच के लोग हैं। सभी अच्छे हों यह भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए इस पर भी सवाल उठते हैं।

प्रदर्शन का भी अधिकार नहीं

प्रो. एस.ए.आर. गिलानी
मनवाधिकार कार्यकर्ता
भारत में लगभग सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं खोखली हो चुकी हैं। सत्ता की प्रवृत्ति फासीवादी हो चुकी है। विरोध प्रदर्शन तक का अधिकार लोगों को नहीं दिया जा रहा है। कश्मीर में अभी 112 नौजवानों को केवल इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह विरोध प्रदर्शनों में शामिल थे। बच्चों की गिरफ्तारियां हो रही हैं। वहां के जेल निर्दोष नौजवानों से भरी हैं। कश्मीर को दिल्ली ने हमेशा उपनिवेश की तरह सुलूक किया है। ऐसा बर्ताव तो ब्रिटिश हुकूमत ने भी नहीं किया होगा। ऐसे ही दूसरे प्रदेशों में आदिवासियों-दलितों के मामले में भी है। वहां माओवाद के नाम पर लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा है। बहुराष्ट्ीय कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार सभी कानूनों को ताक पर रखकर समझौते कर रही है। उन्हीं के लिए सैन्य बलों का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह पूरे देश में चल रहा है। मानवाधिकारों की लड़ाई सरकारी संस्थाओं के तले नहीं लड़ी जा सकती। इसके लिए जम्हूरियत में विश्वास करने वाले लोगों को मिलकर लड़ना होगा। ऐसे आंदोलनों में निरंतरता की जरुरत है। सुफियान के मामले को लोगों ने पहले खूब जोर-शोर से उठाया। बाद में सीबीआई ने क्लीनचिट दी तो किसी ने कुछ नहीं बोला। मानवाधिकारों की लड़ाई को संगठित रूप से लड़ना होगा।

विजय प्रताप से बातचीत पर आधारित

लोकमत समाचार(नागपुर) में प्रकाशित (लिंक देखें)

सेना का प्रयोग या मानवाधिकारों की हत्या

- विजय प्रताप
पिछले दिनों भारत में कनाडा के उच्चायोग्य ने कई सैन्य व खुफिया सेवा के अधिकारियों को अपने देश का वीजा देने से मना कर दिया। उच्चायोग्य का कहना था कि कुछ भारतीय सैन्य, अर्द्धसैन्य व खुफिया एजेंसियां मानवाधिकारों के हनन व चुनी सरकारों के खिलाफ काम कर रही हैं। उच्चायोग्य की इस टिप्पणी पर विदेश मंत्रालय ने कड़ी आपत्ति जाहिर की। लेकिन अभी हाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी जम्मू-कश्मीर की यात्रा के दौरान अपरोक्ष रूप से यह स्वीकार किया कि इस सीमावर्ती राज्य में सेना मानवाधिकारों का हनन कर रही है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।’
प्रधानमंत्री को यह बयान उन परिस्थितियों में देना पड़ा जब कि सेना पर कई फर्जी मुठभेड़ों में निर्दोष कश्मीरियों की हत्या के आरोप लग रहे हैं और वहां की जनता उद्वेलित है। कश्मीर के माछिल इलाके में तीन निर्दोष युवकों को आतंकी बताकर मार दिया गया। काफी दबाव व प्रधानमंत्री की कश्मीर यात्रा को देखते हुए सेना ने आरोपी सैन्य अधिकारियों पर मुकदमा दर्ज करने की अनुमति दी। इससे पहले शोपियां में दो महिलाओं के साथ बलात्कार व हत्या की घटना को भी सेना ने दबाने की कोशिश की थी। जम्मू-कश्मीर में ऐसी फर्जी मुठभेड़ें या सेना द्वारा मानवाधिकारों का हनन नई बात नहीं है। ऐसे में क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि सेना को माओवादियों से निपटने के काम में लगाया जाए तो परिणाम क्या होंगे।
माओवाद के खतरे से निपटने के लिए देश में सुनियोजित तरीके से सैन्य बलों के प्रयोग का माहौल तैयार किया जा रहा है। सरकारी तंत्र हर माओवादी घटना के बाद कुटनीतिक तरीके से ‘सेना के प्रयोग न करने’ की बात कहता है और मीडिया का एक खेमा सेना का प्रयोग न करने पर सरकार की आलोचना करता है। लेकिन इस पूरी बहस में ऐसे अभियानों में सेना या अर्द्धसैनिक बलों के कलंकित इतिहास को छोड़ दिया जाता है। क्या हम पंजाब को भूल गए हैं, जहां खालिस्तानी उग्रवादियों से निपटने के लिए सेना के प्रयोग का दंश अभी भी वहां की जिंदगी का हिस्सा है। या कि हम मणिपुर की ओर देखना नहीं चाहते जहां की बूढ़ी महिलाओं भारतीय सेना को बलात्कार करने के लिए निमंत्रित कर चुकी हैं। जम्मू कश्मीर को हम जानबूझ कर भूल जाते हैं क्योंकि हमें लगता है कि उसे सेना के माध्यम से ही अपने कब्जे में रखा जा सकता है। लेकिन यहीं हम वहां के नागरिकों के दर्द को महसूस नहीं कर पाते जो कभी-कभी हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद मीडिया की सुर्खियां बनती हैं। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि क्या माओवाद से निपटने के नाम पर आधे देश को सेना के बूटों तले रौंदे जाने की छूट दी जा सकती है।
कई मौकों पर प्रधानमंत्री खुद नक्सलवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार देश के 19 राज्य माओवाद से प्रभावित हैं। सेना के नागरिक क्षेत्रों में कलंकित इतिहास को देखते हुए इन राज्यों में सेना के प्रयोग की संभावनाओं पर व्यापक विरोध हो रहे है। सेना के अधिकारी खुद भी अपने ही देश में किसी व्यापक विध्वंसात्मक ऑपरेशन से नहीं जुड़ना चाहते है। सेना पर मानवाधिकारों के उल्लघंन को भी इसी आलोक में देखना चाहिए। अशांत क्षेत्रों में जहां सेना व अन्य सुरक्षा एजेंसियों पर लगातार यह दबाव रहता है कि वो कुछ ऐसा कर दिखाए जिससे वहां उनके होने की उपयोगिता सिद्ध हो और दहशत कायम रहे। 1984 के दौर में अशांत पंजाब में सेना व खुफिया एजेंसियों ने अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए राजनीतिक इशारों पर हजारों सिक्ख युवकों का कत्लेआम किया। इसके निशान अभी भी पंजाब की धरती में गड़े मिल जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में सेना कश्मीरी मुस्लिम युवकों की हत्याओं के लिए बदनाम है। सेना व सुरक्षा एजेंसियों के इस इतिहास को कनाडा उच्चायोग्य के सवालों की तरह खारिज नहीं किया जा सकता। सच्चाई यही है कि हमारी सेना नागरिक क्षेत्रों में अपने ही देश के नागरिकों की हत्या करने से नहीं चूकती। यह अलग बात है कि हर दौर में इन हत्याओं के लिए अलग-अलग राजनीतिक कारण जिम्मेदार होते हैं। नागरिक क्षेत्रों में सेना का दमन शुद्ध रूप से राजनैतिक घटना होती है, इसके लिए अकेले सेना को दोषी नहीं करार दिया जा सकता। समय-समय पर अपने खिलाफ उठने वाले सवालों व जनआक्रोश से निपटने के लिए सत्ता सेना को पालतू कुत्ते की तरह इस्तेमाल करती है। माओवाद का हौव्वा खड़ा करने और फिर सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों के प्रयोग के पीछे भी सत्ता का यही मकसद काम कर रहा है। खजिन संपदा वाले राज्य झारखण्ड, छत्तीसगढ, पं बंगाल, उड़ीसा व आंध्र प्रदेश में करीब 70 हजार अर्द्धसैनिक बल लगाया जा चुका है। वहां खजिन बहुल इलाकों से आदिवासियों को उजाड़कर सरकारी कैम्पों में बसाया जा रहा है। बहुराष्ट्ीय कम्पनियों के लिए पहली बार इतने बड़े पैमाने पर अर्द्धसैनिक बलों का प्रयोग किया गया। हालांकि यह सबकुछ माओवाद हिंसा से निपटने के नाम पर किया जा रहा है, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक कारणों को उन सवालों की तरह नजरअंदाज किया जा सकता जो कनाडाई उच्चायोग्य ने मानवाधिकार हनन के संबंध में भारतीय सैन्य एजेंसियों पर उठाए थे। दरअसल ऐसा भी नहीं है कि केवल भारतीय सेना ही मानवाधिकारों का हनन करती है या कनाडा-अमेरिका की सेना नागरिक क्षेत्रों में मानवाधिकारों का सम्मान करती है। बल्कि किसी भी देश के नागरिक क्षेत्रों में सेनाओं का यही इतिहास रहा है कि वो मानवाधिकारों की हत्या के बल पर ही वहां कथित शांति स्थापित करती हैं। संदेह के आधार पर निर्दोष लोगों की जान ले लेना उनके कार्यपद्धति का हिस्सा है। कई ऐसे काले कानून बकायदे उन्हें ऐसी हत्याओं की इजाजत भी देते हैं।