
इस पुलिसिया पटकथा का सबसे हास्यास्पद पहलू यह है कि तारिक शफीक जिन्हें घटना में शामिल बताया जा रहा है वो उस दौरान 6 अगस्त से लेकर 14 अगस्त तक मुबई में थे। तारिक वहां विभिन्न जेलों में बंद आजमगढ़ के लड़कों के मानवाधिकार उत्पीड़न के मामलों की छानबीन करने गए थे, और उनके पास अपनी यात्रा का टिकट भी है। पीयूसीएल के प्रदेश संयुक्त मंत्री मसीहुद्दीन ने बताया कि उन्हें शुरु से ही पुलिस प्रशासन अपनी औकात में रहने और बाहर से आने वाले मानवाधिकार संगठन के नेताओं और पत्रकारों को यहां न घुमाने-टहलाने की घमकी देती रही है। वहीं तारिक बताते हैं कि बाटला हाउस के बाद यहां आयोजित राष्ट्रीय स्तर के मानवाधिकार सम्मेलन के बाद से ही पुलिस उनसे खुन्नस खायी हुयी थी।
यहां गौरतलब है कि आजमगढ़ में मानवाधिकार नेताओं पर पुलिसिया दमन नया नहीं है और इससे पहले भी छ अक्टूबर 08 को पीयूसीएल द्वारा आयोजित ‘आजमगढ़-आतंक और मिथक’ गोष्ठी जिसमें पीयूसीएल के राष्ट्रीय संगठन सचिव चितरंजन सिंह, वरिष्ठ पत्रकार सुभाष गताड़े और इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के उपाध्क्ष जमील आजमी मौजूद थे, पर आतंकवादियों का कार्यक्रम कह कर पुलिस ने हमला बोल कर बैनर व माइक फेक दिया। तो वहीं वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय के सांप्रदायिकता विरोधी पर्चे को आतंकवादियों का पर्चा कह कर उन्हें बांटने वाले दो कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया था। आजमगढ़ में पीयूसीएल नेताओं पर फर्जी मुकदमें लादने को मानवाधिकारों के लिए उठ रहीं आवाजों को दबाने की कोशिश बताते हुए पीयूसीएल के प्रदेश संगठन मंत्री शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने कहा कि अगर मुकदमें नहीं हटाए जाते हैं तो इस पर आजमगढ़ में बड़ा आंदोलन शुरु किया जाएगा।