राजस्थान में चुनाव लड़ रहे राजाओं का इतिहास तो देखें

1857 से 1947: गद्दारी का इतिहास

विजय प्रताप

राजस्थान से लोकसभा चुनाव लड़ रहे राजपरिवारों के इतिहास पर एक सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो देश से गद्दारी के अलावा कोई अच्छा उदाहरण देखने को ही नहीं मिलता। इस चुनावों में समाज सेवा की पीड़ा को लेकर उतरे राजाओं का इतिहास यही कहता है, कि इन्होंने समाज सेवा के नाम पर यह समाज का केवल शोषण किया है। अपने से बड़े शासकों के सामने घुटने टेकना व उनके जनविरोधी नीतियों को लागू कर उन्हें खुश रखना ही इनकी संपत्ति रही है। एक नजर डालते हैं विभिन्न रियासतों के महाराजाओं के 1857 से लेकर 1947 तक के संक्षिप्त इतिहास पर -
1857 में उत्तर भारत के अन्य रियासतों के साथ ही जोधपुर रियासत में भी क्रांति का बिगुल बजा था। यहां एरिनापुर छावनी में अंग्रेजी सेना के भारतीय सिपाहियों ने सर्वप्रथम विद्रोह का झंडा बुलंद किया। आउवा के सामंत कुशल सिंह ने सिपाहियों को नेतृत्व प्रदान किया। क्रांतिकारियों ने ‘चलो दिल्ली मारो फिरंगी’ का नारा लगाते हुए दिल्ली की ओर कूच कर दिया। जोधपुर में नियुक्त अंग्रेजों के पाॅलिटीकल एजेंट मोंक मेसन का सिर कलम कर दिया गया। यह घटना आज भी जोधपुर के लोकगीतों में कुछ इस तरह से दर्ज है-‘‘ ढोल बाजे चंग बाजे, भालो बाजे बांकियो। एजेंट को मार कर दरवाजे पर टांकियो।’’ उस समय यहां के महाराजा तख्त सिंह ने क्रांतिकारियों का साथ देने की बजाए उन्हें रोकने के लिए अंग्रेजों को दस हजार सेना व 12 तोपों की सहायता मुहैया कराई। भीषण संघर्श में क्रांतिकारियांें के नेता कुषल सिंह को जान गंवानी पड़ी। हजारों क्रांतिकारी माने गए और राजपरिवार की गद्दारी के चलते आंदोलन दबा दिया गया। जोधपुर की तरह ही कोटा में भी 15 अक्टूबर 1857 में विद्रोह की ज्वाला भड़की थी। यहां क्रांतिकारियांे ने अंग्रेजों को खदेड़ कर उनके पिट्ठू महाराज रामसिंह द्वितीय को 6 महीने तक उन्हीं के महल में कैद रखा। अंग्रेजों के पाॅलिटिकल एजेंट मेजर बर्टन की हत्या कर उसके सिर को पूरे शहर में घुमाया गया। बाद में करौली रियासत के राजा ने अपनी फौज यहां अंग्रेजों की सहायता के लिए भेजी जिसकी मदद से विद्रोह दबाया गया। हजारों विद्रोहियों को पेड़ों पर लटका दिया गया। झालावाड़ जिले में स्थित गागरोन का किला अभी भी इस बात का गवाह है।अलवर और धौलपुर में भी प्रथम स्वाधीनता संग्राम के सिपाहियों ने अंग्रेजों व गद्दार राजाओं के छक्के छुड़ा दिए थे। धौलपुर में क्रांतिकारियों ने पूरे दो महीने तक वहां के महाराजा भगवंत सिंह के महल पर कब्जा किया रखा। उस समय धौलपुर के राजा ने अंग्रेजों से अपनी वफादारी की मिसाल के लिए आगरा के किले में क्रांतिकारियों से घिरे अंग्रेजों को बचाने के लिए अपनी सेना भेजी। लेकिन क्रांतिकारियों ने इस सेना को भी अछनेरा से पहले ही ढेर कर दिया। कुछ ऐसा ही इतिहास डूंगरपुर, जयपुर व मेवाड़ आदि रियासतों में भी रहा। किसी भी रियासत के राजा ने इस जनविद्रोह का साथ नहीं दिया। और इन्हीं राजाओं की सहायता से पूरे देश में आजादी के सूरज को उगने से पहले ही अस्त कर दिया गया।

आजादी मिलने के बाद यहां के रियासतदारों ने एक बार फिर अपनी गद्दारी का सबूत पेश किया। वह भारत में रहने की बजाए खुद को स्वतंत्र रखना चाहते थे। राजाओं ने देखा कि लोकतंत्र में उनकी दाल नहीं गलने वाली तो अपनी सौ वर्षों की चापलूसी व वफादारी के एवज में अंग्रेजों से खुद को स्वतंत्र रखने का अधिकार प्राप्त कर लिया। आज जो राजघराने भारत की सेवा करने को राजनैतिक मैदान में हैं वही कभी खुद को भारत से अलग रखना चाहते थे। जोधपुर के महाराजा तो एक कदम आगे जाते हुए जनआंकाक्षाओं के विपरित अपनी रियासत को पाकिस्तान में विलय के लिए राजी हो गए थे। इसमें भोपाल नरेश हमिदुल्ला खां व धौलपुर के महाराजा ने उसका साथ दिया। इन राजाओं ने यहां के महाराज हुनंवत सिंह की मोहम्मद अली जिन्ना से भी मुलाकात कराई। जब इसकी भनक कांग्रेस के नेताओं को लगी तो सरदार पटेल ने वी पी मेनन को जोधपुर की भारत में विलय की जिम्मेदारी सौंपी। मेनन ने हुनंवत सिंह को कई तरह का लालच देकर भारत में विलय को राजी करा लिया। वायसराय के सामने विलय पत्र पर दस्तख्त के बाद हुनवंत सिंह को लगा कि उसे ठग लिया गया है तो उसने मेनन पर पेन पिस्टल तान दी। हुनवंत सिंह ने विलय पत्र पर दस्तख्त भी पेन पिस्टल से ही किए थे। अलवर, भरतपुर व धौलपुर के राजा हिंदू महासभा के ज्यादा करीबी थे। अलवर के महाराज ने आजादी के बाद डाॅ बी एन खरे को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। खरे महात्मा गांधी की हत्या के षडयंत्र में भी षामिल था। उसकी इस भूमिका के चलते ही भारत सरकार को अलवर में हस्तक्षेप का मौका मिला और उसे हटाकर वी एन वेंकटाचार्य को यहां का प्रशासक नियुक्त किया गया। उधर भरतपुर का राजा जनसंघ का ज्यादा करीबी था। उसने 15 अगस्त 1947 में भरतपुर में आजादी की खुशियाँ न मनाने का ऐलान किया। भारत सरकार से हुई संधि का उल्लंघन करते हुए उसने भरतपुर में बडे़ पैमाने पर अस्त्र शस्त्र के कारखाने शुरू किए और वहां निर्मित हथियारों का प्रयोग जाटों व जनसंघ कार्यकत्र्ताओं के माध्यम से मुसलमान विरोधी दंगों में किया गया।

राजस्थान के राजाओं की गद्दारी का यह केवल नमूना भर है। इस लोकसभा चुनाव में राजस्थान की जनता ऐसे राजघरानों के हाथों में अपनी बागडोर सौंपने जा रही है जिनका पूरा इतिहास ही जनविरोधी रहा है।

राजशाही की ओर बढ़ता राजस्थान

- लोकतंत्र का खोखलापन उजागर करता चुनाव

विजय प्रताप

हाल में राजस्थान की पृष्टभूमि पर बनी फिल्म गुलाल में एक संवाद है -‘‘गुलाल असली चेहरे को छिपा देता है’’। यह संवाद राजस्थान में पन्द्रहवी लोकसभा के चुनाव में चरितार्थ होते दिख रहा है। यहां लोकतंत्र के महापर्व में कई ऐसे उम्मीदवार हैं जिनके चेहरे ऐसे ही गुलाल से रंगे हैं। इनकी आस्था लोकतंत्र की बजाए राजतंत्र में है, जो कि अभी भी उन परंपराओं और मान्यताओं में विश्वास करते हैं, जिनमें प्रजा उन्हें देवता के समान मानती है। राजस्थान के लोकसभा चुनावों में इस बार करीब आधा दर्जन उम्मीदवार ऐसे हैं जो पुरानी रियासतों के राजघरानों से संबंध रखते हैं। इनमें से 4 को कांग्रेस व 2 को भारतीय जनता पार्टी ने टिकट दिया है। कांग्रेस से टिकट पाने वाले उम्मीदवार हैं कोटा-बूंदी संसदीय सीट से महाराव इज्यराज सिंह, जोधपुर से महाराजा गज सिंह की बहन चंद्रेष कुमारी, अलवर से महराज भंवर जितेन्द्र सिंह और जयपुर ग्रामीण से भरतपुर राजघराने के महाराज व पूर्व सांसद विष्वेन्द्र प्रताप सिंह की पत्नी दिव्या सिंह। भाजपा ने जिन राजघरानों को संसदीय प्रत्याषी बनाया है उसमें झालावाड़-बारां सीट से पूर्व मुख्यमंत्री व धौलपुर राजघराने की महारानी वसुंधरा राजे सिंधिया के पुत्र दुश्यंत सिंह व आदिवासी बहुल भीलवाड़ा सीट सीट से बढ़नौर ठिकाने के महाराज बृजेन्द्र पाल सिंह षामिल हैं। दुश्यंत सिंह पहले भी झालावाड़-बारां सीट से सांसद रह चुके हैं। लोकतंत्र में सभी को बराबर का दर्जा दिया गया है। यहां राजा व रंक को चुनने व चुने जाने दोनों का अधिकार मिला हुआ है। इस लिहाज से देखे तो इन राजा-रानियों की उम्मीदवारी कहीं से भी गलत नहीं। वैसे भी भारत में आजादी के बाद लोकतंत्र की जो अवधारणा सामने आई उसमें कमजोर तबके के लिए कोई स्थान नहीं था। जिसके पास ताकत है उसी का अधिकारों पर नियंत्रण होता है। वह चाहे बाहुबली हो, उद्योगपति हो या इनके वंश का अंश हो। इसके लिए लोकतंत्र के प्रति आस्था जैसी किसी तरह के षर्त की जरूरत नहीं। राजस्थान में राजघरानों की उम्मीदवारी कुछ ऐसी ही है। दरअसल इन राजाओं का वर्तमान व इतिहास देखे तो यह कहना कत्तई झूठ नहीं होगा की इनकी लोकतंत्र में न तो कभी आस्था रही है और न ही अभी है। इन्हें आज भी महाराज ;हिज हाइनेसद्ध से कम का संबोधन स्वीकार नहीं। इनके दिलो-दिमाग में भरी राजषाही ठसक इन्हें आज भी आम समाज से कोसों दूर किए हुए है। चुनाव लड़ना इनके लिए कोई जनप्रतिनिधित्व का माध्यम नहीं बल्कि अपने अहम को संतुश्ट करने व सत्ता नियंत्रण में भागीदारी का एक जरिया है। आजादी के साठ साल बाद भी राजस्थान में जब दोनों कथित राष्टवादी पार्टियों को ऐसे राजाओं को चुनाव लड़ाने की जरूरत महसूस हो रही है तो ऐसे में सहज ही समझा जाना चाहिए कि यह संघर्श के बाद मिले आधे-अधूरे लोकतंत्र किस दिषा में ले जाना चाहते हैं। वैसे तो राजस्थान में राजाओं के चुनाव लड़ने का इतिहास कोई नया नहीं है। आजादी के बाद अपनी रियासतें छिन जाने के बाद तो विभिन्न राजाओं ने बकायदा एक पार्टी भी गठित की। 1952 के पहले आम चुनावों में स्वतंत्र पार्टी से कई महाराजा चुनाव लड़े और संसद पहुंचे। ’60 के दषक में राजस्थान विधानसभा में भी एक समय ऐसा था जब यह कांग्रेस पर हावी थे। उस समय पूरे देष में भले ही कांग्रेस की लहर थी लेकिन राजस्थान में कौन जनता का प्रतिनिधित्व करेगा यह उस क्षेत्र की रियासत के राजा-महाराजा ही तय करते थे। राजनैतिक पार्टियांे के नेताओं के लिए अभी भी राजघरानों का आर्षीवाद मिल जाना जीत की गांरटी मानी जाती है। आजादी के 60 साल बाद भी दोनों दलों में राजाओं को अपनी ओर करने की होड़ मची है। जबकि विकास के नाम पर जयपुर, जोधपुर, उदयपुर व कोटा जैसे कुछ बड़े षहर फिल्मों व चित्रों में भले ही बड़े लुभावने लगते हैं, यहां का ग्रामीण जीवन आज भी उतना ही कठिन है। ग्रामीण क्षेत्रों में पानी जैसी मूलभूत जरूरत के लिए सरकारी गोलियों को अपने सीने में उतराना पड़ता है। मंदी की मार में राजस्थान की हैण्डीक्राफ्ट की एक हजार से ज्यादा इकाईयां बंद पड़ी हैं। उद्योग नगरी के नाम से जाना जाने वाला कोटा में पिछले दो दषक से सैकड़ों कारखानों में ताले लग चुके हैं। अब यहां गिने चुने उद्योग ही बचे हैं। पिछले दो सालों गुर्जर आरक्षण आंदोलन में करीब सौ लोगों ने अपनी जान गंवाई है। इस पृश्टभूमि में राजस्थान में पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनाव काफी महत्वपूर्ण हो गए हैं। इस बार के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस राजाओं को टिकट देने में सबसे आगे रही है। लेकिन उसके उम्मीदवारों की पृश्टभूमि पर गौर करे तो उनमें से ज्यादातर का इतिहास ही कांग्रेस विरोध के इर्दगिर्द रहा है। जोधपुर रियासत से षुरू करे तो यहां के राजा षुरू से ही कांग्रेस के विरोधी रहे हैं। हांलाकि यहां की उसकी प्रत्याषी चंद्रेष कुमारी काफी समय से कांग्रेस में सक्रिय हैं। इससे पहले वह हिमाचल प्रदेष में मंत्री भी रह चुकी है। उनके बड़े भाई के महाराजा गज सिंह जो आज उनके लिए प्रचार करते घूम रहे हैं, भाजपा के करीबी माने जाते हैं। पूर्व विदेष मंत्री जसंवत सिंह कभी गजसिंह के निजी सहायक हुआ करते थे। बाद में जसवंत सिंह ने ही महाराज को राजनीति में लाया। अलवर से कांग्रेसी उम्मीदवार महाराजा भंवर जितेन्द्र सिंह भी एक दषक पहले तक कांग्रेस के कट्टर विरोधी थे। उनकी उम्मीदवारी से कांग्रेस कार्यकत्र्ता भी हतप्रभ थे। जयपुर ग्रामीण सीट से उम्मीदवार दिव्या सिंह भरतपुर राजघराने की महारानी हैं। इससे पहले वह एक बार भाजपा के टिकट पर भी संसद पहुंच चुकी हैं। उनके पति विष्वेन्द्र सिंह ने पिछले ही विधानसभा चुनाव में भाजपा से बगावत कर कांग्रेस का दामन थामा था। इससे पहले विष्वेन्द्र, पूर्व मुख्यमंत्री वसंुधरा राजे के राजनीतिक सलाहकार थे। कोटा का राजघराना पिछले कई दषक से राजनीतिक तटस्थता बनाए था। जानकारों की माने तो इन राजाओं की कांग्रेस से खुन्नस कोई नई बात नहीं है। आजादी के बाद से ही इन्हें लगता है कि कांग्रेस ने ही उनके राजपाट और अधिकार छिने है। इनमें से ज्यादातर राजा वैचारिक रूप से संघ व हिंदू महासभा जैसे कट्टर हिंदूवादी संगठनों के करीबी रहे हैं। आज भी यह संगठन राजाओं की राजतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन करते हैं। 1947 में विभाजन के वक्त हजारों मुसलमानों को यहां राजाओं के इसी हिंदूवादी विचारधारा, कांग्रेस से खुन्नस व रियासत छिनने के आक्रोष का निषाना बनना पड़ा। जोधपुर, अलवर, धौलपुर व भरतपुर रियासत के राजाओं ने हजारों हिंदू महासभा से मिलकर हजारों मुसलमानों का कत्ल कराया। वैसे भी राजस्थान में राजतंत्र की जडे़, लोकतंत्र से कहीं ज्यादा पुरानी हैं। यहां राजतंत्र और सामंतषाही की जकड़न अभी भी कमजोर नहीं हुई है। फिलहाल एक बदलाव जो गौर करने लायक है वह 1947 से पहले यहां के राजा कभी अंग्रेजों के तो कभी मुगल षासकों के कदमों तले रहे, लेकिन आजादी मिलने के बाद आज तक लोकतंत्र और राजनैतिक पार्टियां इन राजाओं के कदमों तले अपनी सार्थकता तलाष रही हैं।‘‘ऐसे लोगों को टिकट देने के कारणों की खोज करने के लिए हमें ज्यादा दूर जाने के जरूरत नहीं पड़ेगी। इसे केवल 60 साल के लोकतंत्र की सफलता-असफलता में तलाषा जा सकता है।’’ यह कहना है राजस्थान के वरिश्ठ साहित्य-संस्कृतिकर्मी षिवराम का। वह कहते हैं कि राजस्थान में अभी तक कोई ऐसी पार्टी या नेता नहीं उभर सका है जो जनआकांक्षाओं को समझ सके। यह अभाव ही वर्तमान में पार्टियों को जनता से दूर राजाओं की चैखट तक ले जा रहा है। जोधपुर विष्वविद्यालय के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष डाॅ सूरज पालीवाल कहते हैं कि 60 से यहां लोकतंत्र व राजतंत्र का चोली दामन का साथ बना है, लेकिन 3 करोड़ मतदाताओं को आज पेट भर रोटी, कपड़ा, मकान नसीब नहीं हो सका। हर चुनावों में उन्हें दो विकल्प मिलता है जिसमें से एक चुनते हैं लेकिन वास्तव में वह उनका नेता नहीं होता। पालीवाल हाल के विधानसभा चुनावों का उदाहरण देते कहते हैं कि इस बार भाजपा ने बीकानेर सीट से राजघराने की राजकुमारी सिद्ध को अपना उम्मीदवार बनाया। राजकुमारी इससे पहले कभी महलों से बाहर नहीं निकली थीं। बीकानेर के लोगों के पास कोई विकल्प नहीं था। लोगों ने उन्हें ‘अहो भाग्य’ की तरह स्वीकारा, उनकी आरती उतारी और उन्हें जिता कर विधानसभा भेज दिया। वहीं दातारामगढ़ सीट से किसान नेता अमराराम को चुनाव जिताया। इस सीट पर भाजपा व कांग्रेस दोनों को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा। यहां दोनों ही तरह के उदाहरण है। इसलिए यह कहना कि राजा लोकप्रिय हैं इसलिए चुनाव जीत जाते हैं ठीक नहीं होगा।’’ वरिश्ठ पत्रकार व भारतीय जनसंचार संस्थान के एसोसिएट प्रोफेसर आनंद प्रधान का कहना है कि दो दषक से चुनावों में ऐसे उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी है जिनका पहले कभी राजनीति में कोई सीधा हस्तक्षेप नहीं रहा है। वह अपने-अपने क्षेत्र के नामी ;जरूरी नहीं की लोकप्रिय होंद्ध रहे हैं। इसमें महाराजाओं से लेकर उद्योगपति, फिल्मी सितारे, खिलाड़ी ;विषेशकर क्रिकेट केद्ध को टिकट देने का चलन सा चल गया है। राजस्थान भी इन बदलावों से दूर नहीं है। यहां की राजनीति दिन ब दिन आम जन से दूर होती जा रही है। राजनीतिक दलों के पास ऐसा नेता नहीं है जिन्हें आम जनता अपना मान सके। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि पार्टियां ऐसे लोगों को चुनाव में पेष करे जिनका राजनीति से दूर तक का कोई रिष्ता नहीं हो। उनको लेकर आम जन कोई सवाल नहीं खड़ा कर सके। इसी राजनीति के तहत इस बार के चुनावों में बड़े पैमाने पर राजाओं, फिल्मी सितारों व खिलाड़ियों को टिकट दिया गया है। संभव है राजस्थान में चुनाव लड़ रहे सभी राजा चुनाव जीते जाए क्योंकि इन सीटों पर उनके लिए कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। इस विकल्पहीनता का ही फायदा देष में सत्ता चलाने वाले व पूंजीपति मिलकर उठा रहे हैं। इस विकल्पहीनता के लिए जरूरी है कि कोई जनतांत्रिक आंदोलन खड़ा ही न हो इसके लिए नीतिनिर्धारकों को ऐसे ही राजाओं की जरूरत होगी जो उनके अनुसार काम कर सके। जरूरत पड़े तो महारानी वसुंधरा राजे की तरह छोटी-छोटी मांगों को लेकर उठने वाली आवाज को गोली से दबा सके।

पूर्वांचल का राजनीतिक गणित - वोटों के बिखराव के बीच कमजोर पड़ती सपा और हांफती बसपा

आनंद प्रधान

पूर्वांचल (पूर्वी उत्तर प्रदेश) की 16 सीटों में से 80 फीसदी से ज्यादा सीटों पर बसपा, सपा ओर भाजपा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला हो रहा हैं। हालांकि कांग्रेस इनमें से सिर्फ 12 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं लेकिन कई सीटों पर वह मुकाबले को चतुष्कोणोय बना पाने में कामयाब होती दिख रही है।ं कांग्रेस को 2004 में इनमे से दो सीटों - बांसगांव (सु0) और बनारस - पर कामयाबी मिली थी । उस चुनाव में भाजपा की भी बहुत दुर्गाति हुई थी ओर उसे सिर्फ दो सीटें - गोरखपुर और महाराजगंज - मिली थीं लेकिन इस बार वह गैर भाजपा
धर्मनिरपेक्ष वोटों में बिखराव के कारण 16 सीटों में से 13 सीटो पर लड़ाई में हैं । वरूण प्रकरण के बाद भाजपा उग्र हिन्दुत्व के साथ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की आजमाई रणनीति पर लौट आई हैं। इन 16 सीटों पर पहलें चरण में 16 अप्रैल को मतदान होना हैं।
लेकिन गंगा ओर राप्ती के इस मैदान में वर्चस्ब की असली लड़ाई बसपा और सपा के बीच है। अभी सपा के पास 16 में से 8 सीटें है जबकि बसपा के पास सिर्फ तीन सीटें हैं। सपा के लिए इन सीटों को बचा पाना सबसे बड़ी चुनौती हैं। जाहिर है कि सपा और उसके नेता मुलायम सिंह यादव की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। उन्होंने इस इलाके में अपनी पूरी ताकत झोंक दी हैं। एक दिन में तीन से चार सभाएं कर रहे हैं। इसकें बावजूद सपा कमजोर पड़ती दिखाई दे रहीं है । इसकी सबसे बड़ी वजह मुस्लिम मतों में बिखराव हैं। भाजपा छोड़कर बाहर आए कल्याण सिंह से हाथ मिलाने के कारण मुस्लिम मतदाताओं में मुलायम सिंह और सपा के प्रति पहले जैसा उत्साह नही दिख रहा हैं। उनमें गहरी निराश है और मायावती इसका फायदा उठाने की भरपूर कोशिश कर रही हैं। इसके लिए बसपा ने 16 में से तीन पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं जबकि सपा ने सिर्फ एक सीट पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारा है।
लेकिन कुछ सीटों को छोड़कर अधिकांश सीटों पर बसपा अभी भी मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद नहीं बन पायी है। मुस्लिम मतदाताओं में मायावती के भविष्य के राजनीति व्यवहार - भाजपा से हाथ मिलाने को लेकर आशंका बनी हुई है, इसलिए बसपा की तमाम कोशिशों के बावजूद वह पूरी तरह से हाथी पर चढ़ने को तैयार नहीं हैं । इस कारण सपा के कमजोर पड़ने के बावजूद बसपा उतनी मजबूत नहीं दिखाई पड़ रही हैं जितनी अपेक्षा की जा रही थी । इसके अलावा , बसपा के ब्राह्मण - दलित गठबंधन में भी तनाव और दरारें साफ दिखाई दे रही हैं। कुछ सीटो को छोड़कर जहा बसपा ने ब्राह्मण प्रत्याशी दिये हैं, अन्य सीटो पर ब्राह्मण मतदाता उसके साथ नही दिख रहे हैं। हालाँकि बसपा का अपना दलित और अति पिछड़ा जनाधार उसके साथ टिका हुआ है लेकिन सवर्ण मतदाताओं का वह हिस्सा उससे छिटकता दिख रहा हैं जो पिछले विधानसभा चुनावों में सपा सरकार खासकर अपराधियों को खुली छूट देने के खिलाफ बसपा के पीछे गोलबंद हो गया था।
लेकिन पूर्वांचल में हरिशंकर तिवारी, मुख्तार अंसारी और धनंजय सिंह जैसे बाहुबलियों के हाथ में बसपा की बागडोर सौंपकर मायावती ने वह राजनीतिक पूंजी गंवा दी है। बसपा के लिए अति पिछड़ी जातियों खासकर राजभर, बिंद आदि की छोटी-छोटी पार्टियों के साथ-साथ ताकतवर मध्यवर्ती जाति-कुर्मियों की अपना दल जैसी ‘‘वोटकटवा’’ पार्टियां भी राह मुश्किल कर रही है। लेकिन 2009 के आम चुनावों की सबसे बड़ी खबर यह है कि सपा और बसपा दोनो के कमजोर पड़ने के कारण ही पूर्वांचल में एक बार फिर भाजपा और कांग्रेस खासकर भाजपा की स्थिति में सुधार हेाता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस इसका बहुत फायदा इसलिए नही उठा पा रही है क्योंकि उसका न सिर्फ सांगठनिक ढांचा बहुत कमजोर है बल्कि उसके पास कद्दावर नेताओं की भी इतनी कमी है कि कई सीटों पर वह प्रत्याशी तक नही खोज पायी।
पूर्वाचल की राजनीति में दूसरा सबसे बड़ा परिवर्तन मुस्लिम मतदाताओं के अंदर मची उथल पुथल और इसके कारण उनके मतों में आ रहा बिखराव है। मुस्लिम मतदाताओं को बाटला हाउस एनकांउटर, आजमगढ़ को ‘‘आतंकवाद की नर्सरी’’ के बतौर प्रचारित करने और नौजवान मुस्लिम लड़को को एसटीएफ द्वारा उठाने के अलावा सपा का कल्याण सिंह से हाथ मिलाने और बसपा के अनिश्चित राजनीतिक व्यवहार जैसे मुद्दे मथ रहे है। इस सबसे मुस्लिम मतदाताओं में मुख्यधारा की तीनो पार्टियों-सपा, बसपा और कांग्रेस के खिलाफ निराशा, गुस्से और हताशा को साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। इसका नतीजा यह हुआ है कि मुस्लिम समुदाय खासकर उसके अगड़े (अशराफ) वर्गो और युवाओं में अपनी अलग राह चुनने और धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को सबक सिखाने की भावना उबाल मार रही है। यह भावना आजमगढ़ और लालगंज (सु0) सीटों पर उलेमा कांउसिल और घोसी, देवरिया आदि पर डा0 अयूब की पीस पार्टी के जरिए प्रकट हो रही है।
इसमें कोई दो राय नही है कि मुस्लिम मतों में बिखराव का सबसे अधिक नुकसान सपा और कुछ नुकसान बसपा को जबकि सबसे अधिक फायदा भाजपा को हो रहा है। इससे अचानक भाजपा की बांछें खिल गयी है। हालांकि उसकी जीत की राह में सबसे बड़ा रोड़ा पिछड़ी जातियों का उससे दूर बने रहना है। इस कमी की भरपाई वह अधिक से अधिक सीटों पर साम्प्रदायिक
ध्रु्रुवीकरण करके पूरा करने की कोशिश कर रही है। गोरखपुर से आजमगढ़ होते हुए बनारस तक भाजपा की पूरी मशीनरी इस ध्रुवीकरण को तेज करने में जुटी हुई है। योगी आदित्यनाथ से लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी तक को मैदान में उतार दिया गया है।
लेकिन भाजपा के आक्रामक प्रचार और उसके चढ़ाव के कारण मुस्लिम मतदाताओं में भी प्रतिक्रिया हो रही है। इस बात से इंकार नही किया जा सकता है कि कई सीटों पर जहां साम्प्रदायिक ध्रुवीरकण के कारण भाजपा जीतने की स्थिति में आती दिखाई दे रही है, वहां अंतिम क्षणों में मुस्लिम मतदाता एक बाद फिर ‘टैक्टिकल’ यानि भाजपा केा हरा सकने वाली पार्टी और प्रत्याशी को वोट देता दिखाई दे सकता है। हालंाकि मतदान से कोई एक सप्ताह पहले अभी की खबर यही है कि मुस्लिम मतों में बिखराव दिखाई दे रहा है। यह कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के लिए खतरे की घंंटी हैं, खासकर उन पार्टियों के लिए जिन्हांेने मुस्लिम मतदाताओ को अपनी राजनीतिक जागीर समझ लिया था। उनके लिए यह चुनाव बहुत बड़ा झटका साबित होने जा रहां हैं।
यही नही , पूर्वाचल में गोंरखपुर से लेकर बनारस तक जिस तरह से बिना मुददों के चुनाव होने के कारण मतों का बिखराव हो रहा हैं, उसमें अधिकांश सीटों पर जातिगत समीकरण सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो गए है। इस बिखराव के बीच जो पार्टी और उसका प्रत्याशी कुल मतों का 28 से 30 फीसदी जुगाड़ कर लेगा, वह मैदान मार ले जाएगा । इस राजनीतिक गणित के कारण ही मुख्यतः सपा और बसपा और कुछ हद तक भाजपा अपने मूल जनाधार के साथ 28 से 30 फीसदी के जादुई आंकडे़ को छूने की कोशिश कर रही हंै। जाहिर है कि इस राजनीतिक गणित में बसपा को थोड़ी सी बढ़त दिख रही है और सपा कुछ पिछड़ती प्रतीत हो रही है। इसमे भाजपा अपनी पिछली स्थिति में कुछ सुधार कर सकती है जबकि कांग्रेस वोट बढ़ने के बावजूद अपनी सीटें बढ़ाने की स्थिति में नहीं दिख रही है।

आधी से अधिक गरीब आबादी के बीच हिन्दुत्व के नए भिंडरावाले का उदय


पूर्वी उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े जिलों में से एक गोरखपुर की पहचान मौजूदा सांसद योगी आदित्यनाथ और उनकी हिन्दू युवा वाहिनी के क्रियाकलापों के कारण ‘हिन्दुत्व की प्रयोगशाला’ के रूप में होने लगी है। योगी और उनकी वाहिनी गोरखपुर और उसके आसपास के जिलों को गुजरात की तर्ज पर हिन्दुत्व का गढ़ बनाने में जुटे हैं। उनके उग्र, आक्रामक और हिंसक तौर तरीकों के कारण गोरखपुर और उसके आसपास के जिलों में मुस्लिम समुदाय न सिर्फ एक स्थायी भय और आतंक के बीच जीने को मजबूर है बल्कि उसका सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अलगाव और अकेलापन भी बढ़ रहा है।

इस शहर और आसपास के इलाकों में योगी आदित्यनाथ ने खुद को ‘हिंदूओं के रक्षक’ के बतौर स्थापित करने की कोशिश मे मामूली विवादों को भी तिल का ताड़ बनाने और काल्पनिक विवाद खड़ा करके मुसलमानों पर संगठित हमले करने, उनका सामाजिक-आर्थिक बायकाॅट करने और सार्वजनिक अपमान करने की राजनीति को आगे बढ़ाया है। पिछले डेढ़ दशकों में इस उग्र और हिंसक योगी मार्का हिन्दुत्व की राजनीति के कारण शहर में कई बार दंगे भड़क गए या सांप्रदायिक तनाव। झड़पें हुईं और ग्रामीण इलाकों में गरीब मुस्लिम परिवारों के घर जलाने और हत्या की घटनाएं हुई हैं।

योगी आदित्यनाथ के आक्रामक हिन्दुत्व और इस इलाके को ‘गुजरात’ बनाने की इस अहर्निश मुहिम के कारण शहर खासकर मुस्लिम बहुल इलाकों में एक अघोषित सा तनाव और भय फैला रहता है। राज्य और प्रशासनिक मशीनरी ने योगी के इस अभियान के आगे न सिर्फ घुटने टेक दिए हैं बल्कि एक तरह की मौन और कई बार खुली सहमति दे रखी है। अवामी कांउसिल फॉर डेमोक्रेसी एंड पीस के महासचिव असद हयात के अनुसार यहां स्थानीय प्रशासन बिल्कुल विफल और योगीमय है। उनके जैसे और कई लोगों को लगता है कि योगी को प्रशासन ही भिंडरावाले बना रहा है।

स्थानीय प्रशासन के एकतरफा और पक्षपाती रवैये का हाल यह है कि जनवरी’ 2007 के दंगों की एकपक्षीय एफआईआर के बरक्स दूसरी एफआईआर लिखवाने के लिए असद हयात जैसों को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की शरण में जाना पड़ा तब जाकर कोर्ट के निर्देश पर एफआईआर लिखी गयी। इस सबसे इस इलाके के मुस्लिम समुदाय में हताशा बढ़ती जा रही है। लेकिन योगी आदित्यनाथ के तौर तरीकों पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। असल में, गोरखपुर की सामाजिक-आर्थिक संरचना ऐसी है जिसमें योगी आदित्यनाथ की हिन्दुत्व की राजनीति बिना साम्प्रदायिक विभाजन और धु्रवीकरण के नहीं चल सकती है।

यही कारण है कि योगी इस चुनाव में भी साम्प्रदायिक धु्रवीकरण करने में जुटे हुए हैं। वे अपने उत्तेजक भाषणों के लिए जाने जाते हैं। इस कारण चुनाव आयोग के निर्देश पर चुनावी सभाओं में उनके भाषणों की रिकार्डिंग हो रही है। इससे उनकी जुबान थोड़ी नरम हुई है लेकिन थीम नहीं बदली है। जैसे, अपनी सभाओं में वे कह रहे हैं कि अगर वे जीते और भाजपा की सरकार बनी तो उलेमा कांउसिल की ट्रेन अगली बार दिल्ली और लखनऊ नहीं जा पाएगी। अगर वह जाने की कोशिश करेगी तो उसे दिल्ली नहीं, कराची भेजा जाएगा।

योगी आदित्यनाथ की गरम जुबान की भरपाई उनके मंचों पर मौजूद भाजपा खासकर हिंदू युवा वाहिनी के नेता अपने भड़काऊ और अश्लील भाषणों और नारों से कर दे रहे हैं। इन भाषणों और नारों का मुकाबला भाजपा के नए हिंदू ध्वजाधारी नेता वरूण गांधी भी नहीं कर सकते हैं। लेकिन चुनाव आयोग और स्थानीय प्रशासन इन सबसे आंखें मूंदे हुए है। दूसरी ओर, योगी आदित्यनाथ इस बार पूर्वांचल के इस इलाके में भाजपा के स्टार प्रचारक हैं। भाजपा ने उन्हें हेलीकाप्टर दे रखा है जिससे वे आसपास के जिलों में सांप्रदायिक धु्रवीकरण तेज करने और भाजपा के राजनीतिक ग्राफ को उठाने के लिए तूफानी दौरे और प्रचार कर रहे हैं।

इन सबके बीच योगी का राजनीतिक कद जिस तरह से बढ़ा है, उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी सभाओं होनेवाले भाषणों में लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री और योगी को अगला गृहमंत्री बनाने के लिए वोट मांगा जा रहा है। पूर्वांचल में भाजपा के अंदर योगी का लगभग एकछत्र राज कायम हो गया है। उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में इस इलाके में भाजपा के प्रभावशाली नेताओं को राजनीतिक रूप से या तो हाशिए पर ढकेल दिया है या अपनी शरण में आने के लिए मजबूर कर दिया है। योगी के समर्थकों का प्रिय नारा है- ‘गोरखपुर में रहना है तो योगी-योगी कहना होगा।’

लेकिन योगी के इस उभार और पूर्वांचल को गुजरात बनाने की शुरूआत गोरखपुर से करने के अभियान के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि गोरखपुर, गुजरात नहीं है। गोरखपुर और पूर्वांचल की गरीबी और पिछड़ेपन के सवाल बने हुए हैं। हालांकि गोरखपुर पूर्वांचल का एक प्रमुख व्यापारिक और सेवा क्षेत्र आधारित अर्थव्यवस्था का केंद्र है लेकिन एनएसएसओ के 61वें दौर के सर्वेक्षण के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में 56.5 प्रतिशत और शहर में 54.8 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर कर रही है। ‘इंडिया टुडे’ के लिए इंडिकस एनालिटिक्स के एक ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक गोरखपुर सामाजिक आर्थिक सूचकांक और आधारभूत ढांचे के मामले में देश के सौ सबसे बदतरीन संसदीय क्षेत्रों की सूची में 72वें स्थान पर है। पानी में आर्सेनिक और इंसेफेलाइटिस का कहर एक स्थायी त्रासदी है।

गोरखपुर का यह हाल हिन्दुत्व की राजनीति के लिए एक बड़ा सवाल बन गया है। योगी इसे ‘हिन्दुत्व और विकास’ के नारे से हल करना चाहते हैं। गोरखपुर के जवाब के लिए 16 मई का इंतजार करना होगा।

भगत सिंह और यंगिस्तान

शालिनी वाजपेयी
23 मार्च 1931 को एक 23 वर्ष के युवा क्रांतिकारी ने बिना किसी ईश्वरीय सत्ता का ध्यान किए हंसते हुए फांसी के फंदे को चूम लिया था। यह क्रांतिकारी जिस इंकलाब की बात करता था उसकी तलवार किसी बम और पिस्तौल से नहीं बल्कि विचारों की सान पर तेज होती है। वही विचार जो पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के नाश की बात करते हैं। यह युवा क्रांतिकारी जो अपने जीवन भर एक ऐसे भारत के निर्माण का सपना देखता रहा जिसमें कोई मनुष्य किसी मनुष्य का शोषण न करे, सभी को सामान अधिकार प्राप्त हों, लेकिन क्या मिला इस शहादत से सब कुछ वही हो रहा है जिसके खात्में की बात भगत सिंह और उनके साथी किया करते थे। उन्होंने जिस साम्राज्यवाद के नाश की बात की थी वही आज हमारे युवाओं से उनकी रोजी-रोटी छीन रहा है, वही साम्राज्वाद किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रहा है और मजदूरों से उनके अधिकार छीन रहा है लेकिन हम उसी साम्राज्यवाद की चौखट पर अपना मत्था टेक रहे हैं। इसी मत्था टेकने के फल में हमें परमाणु करार, आर्थिक मंदी और भारत-अमेरिका सह सैनिक युद्धा यास मिल रहा है। जो हमारे खात्मे के लिए ही विकसित किया जा रहा है, खात्मा उस आम जनता और संघर्षशील युवाओं का।
इस १५ वें लोकसभा चुनाव में सत्तर फीसदी के लगभग युवा अपने देश के भविष्य को चुनने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। युवा मतदाताओं की अधिकता के कारण सभी चुनावी दल अपनी पार्टी से युवा नेताओं को हिस्सेदार बना रहे हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि ये युवा नेता मसलन राहुल गांधी, वरुण गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलेट जो अपने मुंह में चांदी का च मच लेकर पैदा हुए हैं और अपनी विरासती जमीन पर अपने पुरखों की लहलहाती फसल को काटने की तैयारी में लगे हुए हैं, ये इन संघर्षशील युवाओं के दर्द को समझ सकेंगे? ये समझ सकेंगे उस आईआईटी छात्र के दर्द को जो इतनी मेहनत के बाद भी बेरोजगारी की भूलभुलैया में खोया हुआ है। ये समझ सकेंगे उन छात्रों को जो बेरोजगारी की पीड़ा न सहन करने के कारण अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। ये उस छात्र को समझ सकेंगे जो विवि और कॉलेजों की महंगी शिक्षा की वजह से ही अशिक्षित रह जाता है। चंद दलितों के घर खाना ख लेने से, उनके घर पर रात बिता लेने से इन गरीब दलितों की समस्याएं खत्म नहीं हो जाएंगी। इनकी समस्याएं अभी भी पहाड़ की तरह इनके सामने खड़ी हैं तब जरूरत है ऐसी नीतियों की, ऐसे निर्णयों की जो इनकी जिंदगी खुशहाल बना सकें और रोके इन दलितों होने वाले शोषण को जो अभी भी सामंतों के द्वारा इन पर किया जा रहा है। रोके सामाजिक शोषण को जिसके बोझ से ये अभी भी उबर नहीं पा रहे हैं।
जब इतनी सारी समस्याएं खड़ी हैं, तो सवाल उठता है कि है किसी युवा नेता में इतनी दम जो इन सारी समस्याओं को हल कर सके। जब इतनी मुश्किलों की बात आती है तो बस एक ही युवा नेता का नाम याद है वह है भगत सिंह की विरासत को स भालने वाला और इनके विचारों पर चलने वाला कोई नेता। ऐसे समय में भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने क्9 अक्टूबर क्9ख्9 को लाहौर के छात्रों के लिए जो पत्र लिखा था उसके शŽद अभी भी गूंज रहे हैं और इतने ही प्रासंगिक हैं जितने कल थे, `इस समय पर हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएं लेकिन राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कंधों पर बहुत बड़ी जि मेदारी आ पड़ेगी। यह सच है कि स्वतंत्रता के इस युद्ध में अगि्रम मोर्चे पर विद्यार्थियों ने मौत से टक्कर ली है। क्या परीक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचाएंगे? नौजवानों को क्रांति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है, करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है जिससे आजादी आएगी और तब तक मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण अस भव हो जाएगा।ं
भगत सिंह की ऐसी क्रांति की इच्छा अभी पूरी नहीं हुई है। नौजवानों ने देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और बलिदान दिए हैं, लेकिन इन कठिन क्षणों में नौजवानों के ऊपर बड़ी जि मेदारी है। इन नौजवानों को भगत सिंह के सपनों के भारत के लिए अभी लड़ना है। जरूरत है इसी तरह की क्रांति की, इसी तरह के बदलाव की जिसकी बात भगत सिंह और उनके साथी किया करते थे। अपनी इसी जि मेदारी के साथ युवाओं को भगत सिंह की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए भगत सिंह जैसे नेता को चुनना होगा। वर्तमान नेताओं से मांग करनी होगी ऐसे ही व्यçक्त की जो इतने बदलाव ला सके, जो इतने सारे सवालों को हल कर सके। जब इतनी सं या में युवा मतदान करने जा रहे हैं तो उन्हें अपनी इस भूमिका को और मजबूती से साबित करना है, यही मौका है जब बदलाव की ज्वला जलाई जा सकती है। इन युवा मतदाताओं को बाहर आना होगा अपने मनोरंजन की दुनिया से, आहर आना होगा एसी और सोफों से ताकि मजदूर किसान के दर्द को समझ सकें और उन्हें उनकी जीत का आश्वासन दे सकें। चुनावी खेल में शामिल होकर अपनी ताकत इन झूठे और मक्कार नेताओं को दिखानी होगी। युवा वर्ग ही ऐसा होता जिसमें कुछ कर दिखाने की क्षमता होती है, अपनी इसी क्षमता को सिद्ध करना है।
मीडिया भी युवा नाम को बहुत प्रचारित करता है मगर अपने स्वार्थरूप में न कि वास्तविक छवि में? उसके लिए यंगिस्तान वही है जो `पेप्सीं से अपनी प्यास बुझाता है। उसके युवा धोनी एंड ग्रुप पेप्सी पीकर कहते हैं कि ये है यंगिस्तान मेेरी जान, लेकिन यंगिस्तान ये नहीं है। यंगिस्तान वह है जो लोक सभा के चुनावों में अपनी ताकत दिखाएगा और अपने देश का बेहतर भविष्य चुनेगा। इस समय मीडिया को भी इस छद्म यंगिस्तान को भूलकर वास्तविक यंगिस्तान की ओर अपना रुख करना होगा। मीडिया को भगत सिंह के विचारों को प्रचारित करना होगा। फिल्में भी भगत सिंह को हमारे युवाओं से जोड़कर दिखाने का प्रयास करें जिससे युवा इस `पेप्सीं जैसे घटिया पेय से प्यास बुझाने वाले यंगिस्तान की असलियत जान सकें और इसे ठोकर मार कर बाहर निकाल सकें, क्योंकि यही तो है जो हमारे युवाओं को छल रहा है।
भगत सिंह ने कहा था- `क्रांति से हमारा प्रयोजन अंततज् एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसको इस प्रकार के घातक खतरों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुता को मान्यता दी जाए और एक विश्व संघ मानव जाति को पूंजीवाद के बंधन से तथा युद्ध से बबाüदी और मुसीबत से बचा सके।ं
हमें इसी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद से बचना है जो हमारे किसानों, युवाओं को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रहा है। हमें इसी सम्राज्यवाद से बचना है जो गरीबों के हाथ से रोटी छीन रहा है और हमारे बच्चों को कुपोषण की गुफा में ढकेल रहा है। तो आह्वान है ऐसी ही युवा क्रांति का जो भगत सिंह की विरासत को आगे बढ़ा सके, और बो सके ऐसी बंदूकें जो पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का नाश कर सकें और सर्वहारा की सत्ता लाकर समाजवाद को स्थापित कर सकें।
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ऐसे तो मोर्चा नहीं बनेगा कामरेड

राजीव यादव

कभी हिन्दुस्तान का लेनिनग्राद कहे जाने वाले पूर्वी यूपी में एक बार फिर से लाल झण्डे की ताकतें एक साथ मैदान में दिख रहीं हैं। लम्बे अरसे बाद ही सही कम्युनिस्ट पार्टियों के चुनाव में आ जाने से सांप्रदायिकता और अपराधीकरण से जूझ रही जनता को एक विकल्प मिल गया है। पर सीटों के तालमेल और चुनावी रणनीति को देख ऐसा नहीं लगता की ये अपने पुर्ननिर्माण के लिए आत्मालोचना करने को तैयार हैं। घूम फिर कर वही सवाल कामरेड तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?आगामी लोकसभा चुनाव में भाकपा 8, माकपा 2, भाकपा माले 12, आरएसपी 2 और फारवर्ड ब्लाक ने भी 2 उम्मीदवार अब तक घोषित किए हैं। जनसंघर्ष मोर्चा जिसे कुछ नीतियों और प्रयोगों के मतभेद के आधार पर भाकपा माले से अलग होकर अखिलेन्द्र सिंह ने बनाया था उसने अब तक कोई स्पष्ट उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है। इस बामपंथी गठजोड़ का पहला विवाद घोसी और गाजीपुर सीट को लेकर भाकपा और भाकपा माले के बीच पैदा हुआ। घोसी से अपनी दावेदारी वापस लेते हुए गाजीपुर सीट पर दोस्ताना संघर्ष की बात करते हुए भाकपा माले के पोलित ब्यूरो सदस्य व राज्य प्रभारी रामजी राय कहते हैं कि यूपी के बाहर भी जहां हमने सीटों का ताल-मेल किया है वहां भी कई जगह दोस्ताना संघर्ष की स्थित है जिस पर सभी तैयार हैं। ऐसे में हमें गाजीपुर में दोस्ताना संघर्ष करते हुए यूपी में भी एक साथ रहना चाहिए। दोस्ताना संघर्ष को नकारते हुए भाकपा के पूर्व सांसद विश्वनाथ शास्त्री कहते हैं कि हम जनता में कम्युनिस्ट पार्टियों के आपसी टकराव का कोई संदेश नहीं देना चाहते। और जहां तक गाजीपुर सीट का सवाल है तो वहां कई बार सरजू पाण्डे सांसद रहे और मैं खुद 95 तक यहां से सांसद था।गाजीपुर सीट ने कम्युनिस्टों के पूरे ताल-मेल को बिखेर कर रख दिया है। जहां भाकपा अपने सुनहरे अतीत को लेकर लड़ रही है तो वहीं दूसरी तरफ भाकपा माले अपने वर्तमान को लेकर मैदान में है। तो वहीं राबर्टसगंज और चन्दौली में भाकपा माले और जनसंघर्ष मोर्चा आमने सामने हैं। राबर्टसगंज और चन्दौली जहां नक्सल उन्मूलमन के नाम पर चल रहे दमन के खिलाफ लम्बे अरसे से लाल झण्डे की ताकतें लड़ रहीं थी। इन क्षेत्रों में माकपा और भाकपा का एक बड़ा जनाधार है जो चुनावों में भी दिखता है तो वहीं भाकपा माले ने पिछले एक दशक में अपने लिए यहां जमीन तलाशी है। ऐसे में भाकपा माले से अलग हुए जनसंघर्ष मोर्चा जिसका आधार क्षेत्र भी यही है, के चुनाव में आ जाने से दोनों आमने-सामने हैं। इन दोनों सीटों पर माकपा का जनसंघर्ष मोर्चा को दिए गए समर्थन की वजह से भाकपा माले काफी नाराज दिख रही है। उनका यहां तक मानना है कि अगर माकपा सचमुच लाल झण्डे की एकता चाहती तो वह ऐसा नहीं करती। फिलहाल माकपा इस समर्थन की बात को नहीं मान रही है। इन दोनों ही सीटों के विवाद का असर किसी दूसरी सीट पर नहीं दिख रहा है। माकपा केन्द्रिय कमेटी सदस्य और पूर्व सासंद सुभाषनी अली यूपी में सांम्प्रदायिक, आपराधिक गठजोड़ के खिलाफ वामपंथी एकता की वकालत करती हैं। लम्बे अरसे बाद आजमगढ़ से माकपा ने इसी रणनीति के चलते अरुण कुमार सिंह को मैदान में उतारा है तो वहीं भाकपा माले ने गोरखपुर में राजेश साहनी को मैदान में उतारा है। गोरखपुर के सांसद योगी आदित्य नाथ के खिलाफ लम्बे अरसे बाद प्रत्याशी उतार कर भविष्य में एक वामपंथी विकल्प देने की कवायद को साफ देखा जा सकता है। आजमगढ़ संसदीय सीट से लड़ रहे माकपा प्रत्याशी अरुण कुमार सिंह पूर्वाचल में कम्युनिस्टों के धरातल के खिसकने के लिए पार्टी की नीतियों को ही जिम्मेवार ठहराते हुए आत्मालोचना के अंदाज में कहते हैं कि सपा जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन और चुनावों में खुद न लड़ना कम्युनिस्टों के लिए आत्मघाती साबित हुआ। आजमगढ़ जो आतंकवाद को लेकर पिछले दिनों राष्ट्ीय-अंतराष्टीय स्तर पर चर्चा में रहा की छवि को जिस तरह से बिगाड़ा गया वो एक सोची समझी साजिस थी। वे आगे कहते हैं कि जो लोग और जो पार्टियां इसे आतंकगढ़ के रुप में प्रचारित कर रहीं हैं उनको इस चुनाव में हम बेनकाब करेंगे।गौर किया जाय तो इस वामपंथी राजनैतिक गणित में माकपा के रणनीतिकारों ने अपने को काफी समयानुकूल बना लिया है। एक तो उन्होंने कम सीटों का चयन किया, जिससे भाकपा, भाकपा माले, जनसंघर्ष मोर्चा समेत लगभग सभी का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन उसे हासिल है। पर चुनावों में केवल दो सीटों पर ही माकपा प्रत्याशी को उतरना यह सन्देश साफ दे रहा है कि वह यूपी में आगामी लोकसभा चुनावों में अपने पुर्ननिर्माण को लेकर गम्भीर नहीं है और बंगाल के लाल दुर्ग से बाहर आने को बहुत उत्सुक भी नहीं दिखते। भाकपा और भाकपा माले का अधिक से अधिक और महत्वपूर्ण सीटों पर उम्मीदवार उतारना, उनके ठोस और दूरगामी रणनीति को दिखाता है। इस पूरे क्षेत्र में घोसी लोकसभा क्षेत्र कई पहलुओं से काफी महत्वपूर्ण है। यह पूरा क्षेत्र मउ के जिला बनने से पहले आजमगढ़ में ही था। वामपंथी नेता जय बहादुर सिंह और झारखण्डे राय के जमाने में यह लाल दुर्ग अभेद्य था। तकरीबन 62 से लेकर 84 तक इनका एकाधिकार रहा। आजादी के बाद जय बहादुर सिंह ने किसानों, मजदूरों, छात्रों और युवाओं की मजबूत गोलबंदी कर इस पूरे क्षेत्र को हिन्दी पट्टी का तेलंगाना बनाने का निर्णय लिया था। यही वजह है कि यहां की राजनीति ने कभी सांप्रदायिक ताकतों को उभरने का मौका नहीं दिया। जिसकी कोशिश लगातार भगवा ब्रिगेड ने यूपी गुजरात बनेगा, पूर्वांचल शुरुवात करेगा के नारों के साथ कर रहा है जिसे आजमगढ़ और मउ में बखूबी देखा जा सकता है। प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव जय प्रकाश धूमकेतु का कहना है कि चाहे वह आजमगढ़ हो या मउ इस धरती पर लोगों ने इतना वैचारिक कीचड़ होने ही नहीं दिया कि यहां कमल खिल पाए। लखनउ विश्वविद्यालय के चर्चित छात्र संघ अध्यक्ष रहे व घोसी से भाकपा के उम्मीदवार अतुल कुमार अंजान कहते हैं कि दरअसल इस पूरे क्षेत्र की आर्थिक रीढ़ जो बुनकरी पर टिकी है, जिसमें दोनों ही समुदायों के लोग एक दूसरे पर निर्भर है के टूटने से जो बेरोजगारों की फौज उपजी है उसे सांप्रदायिक शक्तियां सांम्प्रदायिक आधार पर मिलिटेंट बना कर राजनीति करना चाहती हैं, जिसकी खिलाफत वामपंथी एकजुटता करेगी। गौरतलब है कि ये पूरा क्षेत्र एक दौर में छात्रों-युवाओं के प्रगतिशील आन्दोलन का गढ़ था, जहां पर विश्वविद्यालयों के पढ़े लिखे उच्च शिक्षित नौजवान अपना कैरियर छोड़कर समाज परिवर्तन के आदर्श के साथ किसानों-मजदूरों के साथ धूल फांकते थे। लेकिन बावजूद इसके इन आन्दोलनों को नेतृत्व देने वाली वामपंथी पार्टियां कुछ तो अपनी रणनीतिक गलतियों और कुछ सांगठनिक कमजोरियों के चलते अपने पूरे जनाधार को कथित समाजवादियों को बटाई पर दे दिया, जिस पर बाद में उन्होंने कब्जा जमा लिया। लेकिन आज फिर से उस राजनैतिक जमीन की कीमत उन्हें समझ में आ रही है। बावजूद इसके अभी भी वो अपने को सांगठनिक रुप से सुदृढ़ करने और जनता से एकाकार होने के बजाय सिर्फ चुनावी दांव पेंच से ही अपनी मिल्कियत साबित करने में लगे हैं।बहरहाल भाकपा जो हाल-फिलहाल के दशकों में पूर्वांचल की जमीन से उखड़ी थी ने अपने ठोस जनाधार जहां वो पिछले चुनावों में ज्यादा लड़ाई में थी वहीं की सीटों का चुनाव उसकी राजनैतिक सूझ-बूझ को भी दर्शाता है। भाकपा माले जिसका आधार क्षेत्र इन्हीं पुरानी कम्युनिस्ट पार्टियों के क्षेत्र में ही है वो सीटों के ताल-मेल में भले एक साथ दिख रही पर वो इस चुनावी गणित में ‘फीलगुड’ नहीं महसूस कर रही है। एक तरफ जनसंघर्ष मोर्चा उसके सर का दर्द बना है तो वहीं दूसरी तरफ जब पुश्तैनी जमीन की बात हावी हो तो उसमें अपने को बनाए रखना भाकपा माले के लिए चुनौती है। इस पूरे वामपंथी चक्रव्यूह में निचले स्तर पर जहां लोग साथ दिखाई दे रहे हैं तो वहीं नेतृत्वकारी भूमिका के नेता इस ताल-मेल को लेकर स्पष्ट नहीं हैं। स्पष्टता न होने के चलते एक सीट को लेकर इस एकता का टूटना दिखाता है कि इस कथित मोर्चे की नींव में लगी ईटों में अभी भी अविश्वास की बहुत दरारें हैं। जिसकी तस्दीक भाकपा के वरिष्ठ नेता डा0 गिरीश करते हुए कहते हैं कि दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां धड़क रहा है, कोई वहां धड़क रहा है, जिसे जोड़ने के लिए एक अच्छे सर्जन की जरुरत है।

विरासत का चुनाव

शाहनवाज आलम
यदि साल भर पहले हुए उपचुनाव को छोड़ दिया जाए तो पिछले तीन दशकों में बलिया का यह पहला लोकसभा चुनाव है जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर प्रत्याशी नहीं हैं। लेकिन बावजूद इसके पूरा चुनाव चंद्रशेखरमय ही लगता है। चट्टी-चैराहों की आम जनता की बहस मुबाहिसों से लेकर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के नेताओं यहां तक कि प्रत्याशियों की जबान पर भी चंद्रशेखर ही हैं। जहां जनता हर उम्मीदवार का कद चंद्रशेखर के मुकाबले आंक रही है वहीं हर उम्मीदवार खुद को चंद्रशेखर का असली वारिस होने का दावा कर रहे हैं।

दरअसल बलिया का चुनाव हमेशा चंद्रशेखर केन्द्रित ही रहा है। जहां इस लोकतंत्र के उत्सव का मतलब उन्हें दुबारा संसद में भेजना होता था। लेकिन चूंकि इस बार उनके न रहने पर कई लोग उनका फोटोकाॅपी होने के दावे के साथ मैदान में उतरे हैं इसलिए इस बार ये सीट कई मायनों में महत्तवपूर्ण हो गई है। अव्वल तो ये कि परिसीमन के चलते उपजे नए भूगोल ने इस सीट के राजनीतिक समीकरण को बदल दिया है। वहीं लगभग तीन दशकों से वीआईपी सीट होने के कारण सभी राजनैतिक दल चंद्रशेखर की मृत्यु के बाद उपजे खाली शून्य को भरने की कोशिश में लगे हुए हैं। नए परिसीमन में इसमें जहां एक ओर अब तक गाजीपुर लोकसभा का हिस्सा रहे जहूराबाद और मोहम्मदाबाद विधानसभा सीट जुड़ गई हैं वहीं बांसडीह विधानसभा उससे कटकर सलेमपुर लोकसभा का हिस्सा हो गया है। जहूराबाद और मोहम्मदाबाद विधानसभा सीट जो जातिगत दृष्टि से भूमिहार बनाम मुस्लिम, पिछड़े और दलित वोटों में विभाजित हैं में अब तक मुख्य लड़ाई भाजपा और उस पार्टी के बीच रहा है जिसमें बाहुबली अंसारी बन्धु मुख्तार और अफजाल रहे हैं। लेकिन अब चंूकि ये पूरा क्षेत्र बलिया लोकसभा का हिस्सा बन गया है इसलिए अंसारी बन्धुओं का कोई प्रत्यक्ष हित इस सीट नहीं जुड़ा है। लेकिन चंूकि भाजपा ने पूर्व सांसद मनोज सिन्हा को अपना प्रत्याशी बनाया है जो बाहुबली विधायक कृष्णानन्द राय के करीबी रहे हैं और जिनकी हत्या में अंसारी बन्धू आरोपी हैं, इसलिए बाहरी होते हुए भी इस सीट पर उनकी प्रतिष्ठा और अहम् दांव पर लगा है। ऐसे में अगर उनका प्रभाव चला तो बसपा प्रत्याशी संग्रामसिंह यादव भारी पड़ सकते हैं। जिन्हें पार्टी का परम्परागत दलित वोट के साथ ही थोक मुस्लिम वोट मिल सकता है। लेकिन चूंकि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की छवि अल्पसंख्यकों में एक अग्रिम पंक्ति की धर्मनिरपेक्ष और उनके बेटे सपा प्रत्याशी अभी इस राह से विचलित नहीं दिखते इसलिए इधर के मुस्लिम वोटर दो बाहुबलियों के वर्चस्व की लड़ाई में मोहरा बनने के बजाय नीरज शेखर के साथ आ जाए इसकी संभावना भी उतनी ही प्रबल है। वहीं दूसरी ओर भाजपा प्रत्याशी मनोज सिन्हा जहूरबाद और मोहम्मदाबाद के सजातीय भूमिहार वोटरों के साथ ही बलिया के गाजीपुर से लगे गंगा के मैदानी क्षेत्रों जहां भूमिहार अच्छी तादात में हैं के भरोसे ताल ठोंक रहे हैं। लेकिन चूंकि भाजपा बलिया में अपनी कोई खास जमींन नहीं बना पाई है और चंद्रशेखर को भूमिहार मत भी लगभग एकतरफा मिलता रहा है। इसलिए चंद्रशेखर के इर्दगिर्द ही केन्द्रित चुनाव में यह समीकरण बदलेगा ऐसी संभावना कम ही है।

इस लिहाज से देखें तो सपा प्रत्याशी नीरज शेखर का मुख्य मुकाबला बसपा से ही दिखता है। जिसने पूर्व विधायक और अतीत में भी साईकिल और हाथी दोनों की सवारी कर चुके संग्राम यादव को प्रत्याशी बनाकर सपा के जातिगत आधार में सेंध मारने की कोशिश की है। हालांकि उसका यह प्रयोग नया नहीं है और उसने 2004 के चुनाव में भी चंद्रशेखर के खिलाफ एक कम चर्चित कपिलदेव यादव को लड़ाया था जिसे मुलायम सिंह यादव के चंद्रशेखर के पक्ष में जनसभाएं करने के बावजूद लगभग एक लाख मत मिले थे। वैसे सदर और द्वाबा ;अब बैरिया विधानसभाद्ध बसपा के कब्जे में है जहंा से मंजू सिंह और सुभाष यादव विधायक हैं। लेकिन चूंकि चंद्रशेखर स्वयं विधानसभा सीटों के उनके विरोधी दलों के पाले में होने के बावजूद आसानी से लोकसभा में पहुंचते रहे हैं। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि उनके उत्तराधिकारी को रोकने में मायावती की सोशल इंजीनियरिंगग कहां तक कामयाब होती है। बहरहाल चुनाव के पूरी तरह चंद्रशेखर केन्द्रित होने के चलते जनता के वास्तिवक मुद्दे चर्चा से बाहर हो गए हैं। जबकि यह जिला पिछले दिनों कई अहम सवालों के चलते चर्चा में रहा जिस पर राजनीतिक दल चुप्पी साधे हुए हैं। मसलन द्वाबा क्षेत्र के सैकड़ों गांवों की लाखों आबादी आरसेनिक युक्त पानी पीने को अभिषप्त हैं जिसके चलते महामारी की स्थिति पैदा हो गई है। लेकिन यह किसी भी उम्मीदवार के एजेंडे में नहीं है। वहीं दूसरी ओर पिछले दिनों उजागर हुए देश के सबसे बड़े खाद्यान्न घोटाले का केन्द्र भी बलिया ही है और मायावती द्वारा प्रस्तावित गंगा एक्सप्रेस भी यहीं से शुरू होनी है। जिसकी चपेट में 112 गांव के लाखों परिवार आने वाले हैं जहां के किसान लम्बे समय से आंदोलनरत हैं। गंगा कृषि भूमि बचाओ मोर्चा जिसने पचास हजार पर्चे बांट कर चुनाव में उतरे राजनैतिक दलों से गंगा एक्सप्रेस वे पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने की मांग की है के जिला संयोजक बलवंत यादव इस चुनाव को विरासत की राजनीति के नाम पर किसानों के सवालों को दबाने की कवायद बताते हैं। वहीं पूर्वांचल के सबसे पिछड़े जिलों में से एक जहां से सबसे ज्यादा भुखमरी के सवाल भी सामने आए हैं में कृषि संकट और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हुए जनसंग्राम मोर्चा के बैनर से वामपंथी गीतकार हरिहर ओझा तरूण भी मैदान में हैं।

बहरहाल जिस तरह चुनाव बाद किसी भी एक दल के पूर्ण बहुमत में आने की संभावना ना के बराबर है और गैर कांग्रेस, गैर भाजपा मोर्चा बनाने की कवायद चल रही है उसमें चंद्रशेखर की याद आनी तय है।