ओबामा कहां के राष्ट्रपति हैं !

बराक ओबामा कहां के राष्ट्रपति हैं, यह पूछा जाए तो थोड़ा अजीब जरुर लगेगा। लेकिन पिछले कुछ दिनों से संशय की स्थिति बनी हुई थी। पहले तो पता था कि वह अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए हैं, लेकिन 20 जनवरी को जब वह राष्ट्रपति पद की शपथ ले रहे थे, तो भारत में मीडिया के व्यवहार को देख यह सँशय की स्थिति वाजिब ही थी। लगा कि ओबामा भारत के राष्ट्रपति पद की शपथ ले रहे हैं या शायद भारत कुछ समस के लिए अमेरिका बन गया है।
उस दिन सुबह अखबार खोला तो पता चल गया कि आज राष्ट्रपति ओबामा शपथ लेंगे। यही नहीं वह कहां किस रास्ते से शपथ लेने जाएंगे, कितने सुरक्षाकर्मी उनकी रक्षा के लिए तैनात रहेंगे सब पता चल गया। किसी ने पूरा पेज तो किसी ने आधे से ज्यादा जगह देकर बकायदे फोटो व ग्राफिक्स के माध्यम से सभी कुछ साफ-साफ स्पष्ट कर दिया। ताकि लोग रास्ता न भूल जाएं। मीडिया जानती है भारत के लोग कितने भूलक्कड़ है। कहते है अहिंसा के रास्ते पर चलेंगे, चले कहीं और जाते हैं। बहरहाल उस दिन रात को साढ़े दस बजे अमेरिका में जब राष्ट्रपति शपथ ले रहे थे तो भारत के सभी निशाचर खबरिया चैनल उसका सजीव प्रसारण में लगे थे। भारतीय प्रधानमंत्री शपथ ले तो भी उसे इतना कवरेज नहीं मिलता। ओबामा करिश्माई व्यक्तित्व, ओबामा ने इतिहास रचा। चैनल दर्शकों पर ऐसे रौब झाड़ रहे कि देखों हम तुम्हें इतिहास बनते दिखा रहे हैं। कुछ साथ-साथ ओबामा के भाषण का हिंदी अनुवाद भी दिखा रहे थे। दर्शकों को जबर्दस्ती आशा बंधाई जा रही थी, कि अब सबकुछ बदल जाएगा। मीडिया उनके अश्वेत होने से कुछ ज्यादा ही खुश दिख रही थी, इसे ही इतिहास बताया जा रहा था। एक तरह से यह इतिहास है भी।
इस इतिहास से सचमुच कुछ बदल सकेगा यह सोचने का विषय है। लेकिन इन सब से ज्यादा विचारणीय भारतीय मीडिया का यह चरित्र था जो अचानक रंगभेद, जातिवाद व नस्ल के खिलाफ खड़ा दिख रहा था। एक बरगी समझ में नहीं आ रहा था कि भारत की मीडिया आखिर रंगभेद व जातिवाद के खिलाफ कैसे तन कर खड़ी हो गई है। ऐसा भेदभाव तो भारत में भी होता रहा है। भारत में आज भी कई दलित जातियां, आदिवासी समाज मनुवादी विचारों व संगठनों द्वारा सताई जा रही हैं। और खुद मीडिया के अभी तक के रिकार्ड को देखते हुए यह और भी विश्वसनीय नहीं है कि वह दलितों के साथ भेदभाव की खिलाफत करती हो। सर्वेक्षण बताते हैं कि भारत में मीडिया खुद श्वेतों की मुठ्ठी में रही है। इसमें दलितों की हिस्सेदारी 8-10 प्रतिशत की भी नहीं है। कई मौकों पर खुद मीडिया भारत के स्वर्ण लोगों के साथ खुल कर खड़ी नजर आती है। खासकर पिछड़ों, दलितों को आरक्षण देने का तो यह तहेदिल से विरोध करती रही है। लेकिन वहीं जब अमेरिका में लोग आरक्षण के रास्ते आगे बढ़ रहे हैं तो वह उसके लिए यह इतिहास की तरह है। मीडिया आखिर भारत में ऐसा इतिहास बनते क्यों नहीं देखना चाहती। भारत में कोई मायावती जितती हैं तो यह उसके लिए खुशी का उतना विषय नहीं होता जितना की वह विस्मृत होती है। बात इतिहास की करें तो क्या सत्ता में किसी अश्वेत या दलित के बैठ जाने से वाकई में जमीनी स्तर पर कोई क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है। ओबामा उसी रिपब्लिकन-डेमोक्रेटिक पार्टीयों का हिस्सा हैं जो कई दशकों से अमेरिका पर शासन कर रहे हैं। इन्हीं दोनों पार्टियों के नेताओं की अगुवाई में दुनिया के कई देश नेस्तोनाबूत हो गए। कितने लोग मारे गए। अकेले ओबामा क्या अमेरिका की ऐसी सारी नीतियों को बदल सकेंगे। यह आने वाला समय बेहतर बताऐगा। लेकिन शपथ ग्रहण के दिन उनके भाषण से ऐसे किसी बदलाव की उम्मीद बेकार ही है। भारत में भी खुद ऐसे बदलाव कई बार देखे जा चुके हैं। मायावती जीत कर आईं कहीं कुछ बदल गया! उत्तर प्रदेश में आज पहले से ज्यादा दलित उत्पीड़न की घटनाएं हो रही है। दरअसल ऐसे चुनावी बदलावों से किसी बदलावा की उम्मीद करना भी बेवकूफी से ज्यादा कुछ नहीं होगा। सत्ता का रंग बदल जाने से जमीनी स्तर पर कोई बदलाव संभव नहीं होता। यह बदलाव तो तभी होगा जब निचले स्तर पर रंगभेद व जातिवाद के खिलाफ कोई क्रांतिकारी आंदोलन चले। ऐसे में यह भी तय है कि अश्वेत की जीत से बेइंतहा खुश यह भारतीय मीडिया ऐसी किसी आंदोलन के विरोध में सबसे पहले खड़ी नजर आएगी।

जहरीली शराब बुनती मौत का ताना-बाना

विजय प्रताप
राजस्थान में एक बार फ़िर शराब ने अपना कहर ढहाया और एक साथ १० घरों के दीये बुझा दिया. शिकार हुए धौलपुर जिले के पृथ्वीपुर गाँव के युवाओं पर. एक महीने के भीतर इस तरह की दूसरी घटना है जिसमे अवैध शराब पीने से लोगों की मौत हुई है. घटना की सूचना के बाद अधिकारों ने इसका कारन अधिक शराब का सेवन बताया लेकिन जब एक के बाद एक कई मौतों की सूचना आई तो सच्चाई किसी से छिपी नहीं रही. इससे पहले ११ दिसम्बर को भी जयपुर में इसी तरह की घटना हो चुकी है. उस दिन जयपुर से कुछ दूर हनुतपुरा गांव के सोहनलाल रैगर के घर रिष्तेदार आए थे। सोहन ने रात को अपने रिष्तेदार रामेष्वर रैगर के लिए पास के गांव अमरसर के सरकारी ठेके की षराब की दुकान से देसी शराब खरीदा था। उसने वह शराब खुद भी पी व रिष्तेदार को भी पिलाई। उसी रात अमरसर गांव के युवक सुरेन्द्र मीणा ने एक षादी से लौटते वक्त उसी ठेके पर शराब पी। अल सुबह एक खबर आई सोहनलाल रैगर व रामेष्वर रैगर दोनों की रात को ही मौत हो गई। सुरेन्द्र मीणा को भी तबीयत बिगड़ने के बाद जयपुर ले जाया गया। लेकिन उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। कुछ ही देर में ऐसे करीब तीन दर्जन लोगों को पास के षाहपुरा स्वास्थ्य केन्द्र और फिर जयपुर के सवाईमान सिंह अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। यह सभी लोग उस रात शराब पीए हुए थे। दोपहर तक सोहन, रामेष्वर व सुरेन्द्र की तरह मरने वालों की संख्या 19 तक पहुंच गई। बाद में शराब के सैंपल की जांच से पता चला की इन सभी की मौत जहरीली शराब पीने से हुई है। राजस्थान में अभी-अभी विदा हुई महारानी की सरकार ने हर गांव तक पानी भले ही न पहुंचाया हो लेकिन एक तोहफा जो हर गांव को बिना मांगे मिला है, वह इस तरह की शराब की दुकाने हैं। खेतों को पानी के लिए इन्हीं महारानी के षासनकाल में किसानों को कई जगह अपने सीनों पर पुलिस की गोलियां झेलनी पड़ी, लेकिन शराब की दुकानों के लिए उन्हें न तो आंदोलन करना पड़ा और नहीं गोलियां खानी पड़ी। लेकिन कुछ अलग तरीके से ही सही गरीब आदिवासी लोगों को अपनी जान की आहूति यहां भी देनी पड़ी रही है और वही तरीका ही हनुतपुरा व अमरसर में देखने को मिला। वसंुधरा के षासनकाल में जहरीली शराब से मरने वालों की संख्या इस घटना के बाद करीब 95 हो गई है। यह संख्या उन दुर्घटनाओं की है जहां लोग समूह में मरे, इक्का दुक्का नहंीं। हनुतपुरा व पास के गांव में इतनी बड़ी संख्या में लोगों के मरने की सूचना पर हरकत में आए प्रषासन ने तंुरत शराब के ठेकेदार गोपाल मीणा व गुलाब देवी सहित तीन लोगों को गिरफ्तार कर लिया। अमरसर गांव में यह ठेका गोपाल मीणा के नाम से था, जिसने सरकार से भी ज्यादा दरियादिली दिखाते हुए हनुतपुरा के रैगर बस्ती व कुमावत मोहल्ले में अलग-अलग कांउटर खोल रखे थे। घटना की खबर मिलते ही कांग्रेस नेता अषोक गहलोत मुख्यमंत्री पद की भागदौड़ छोड़ सीधे अस्पताल पहुंच गए। गहलोत ने पीड़ितों को ढ़ांढस बंधाते हुए कहा कि ' अब मैं आ गया हूं, सब ठीक हो जाएगा।' ऐसी ही घटनाओं के चलते कांग्रेस ने पूरे चुनाव के दौरान वसुंधरा सरकार की आबकारी नीति को मुख्य मुद्दा बना रखा। अषोक गहलोत अपनी सभाओं के माध्यम से वसुंधरा राजे ने गांव-गांव में शराब की दुकान खुलवा गांव के वातावरण को खराब करने का आरोप लगाया। है। दूसरी तरफ महारानी अपना बचाव करती नजर आई। महारानी के पास केवल एक ही तर्क था कि उन्होंने शराब के ठेकों पर से उद्योगपतियों व रसूखदारों का वर्चस्व तोड़ा है। लेकिन जनता ने उनके इस फालतू तर्कों को सिरे से नकार दिया। चुनाव परिणामों पर भी नजर डाले तो इसका स्पश्ट असर देखने को मिला। उन जिलों में जहां महिलाओं का मतदान प्रतिषत ज्यादा रहा वहां भाजपा को बुरी तरह हारना पड़ा। दरअसल प्रदेष में आबकारी ऐसी सोने की खान है जिसे कम करने या बंद करने की जुर्रत न तो गरजने वाली कांग्रेस सरकार कर सकती है और नहीं भाजपा सरकार। शराब की बिक्री राज्य में आय का दूसरा सबसे बड़ा जरिया है। पिछले साल इससे सरकार को करीब डेढ़ से दो सौ करोड़ का राजस्व प्राप्त हुआ। ऐसे में षराब से बैर रख कोई भी सरकार अपने खजाने खाली नहीं कराना चाहेगी। वैसे भी प्रदेष में षराब माफियों के खिलाफ कार्रवाई करना किसी के लिए भी आसान नहीं है क्योंकि ऐसे लोगों एक समान भाव से दोनों पार्टियो के साथ खड़े रहते है। षराब की दुकाने न कांग्रेस के षासनकाल में कम रही है और नहीं वसंुधरा के। अतंर केवल इतना सा है कि कांग्रेस ऐसे ठेकों के लिए जिले स्तर पर टेंडर आमंत्रित करती थी जिसे वसुंधरा ने बदल कर हर ठेके के लिए टेंडर देना षुरू कर दिया। ऐसे में दुकानों की संख्या में जरूर अंतर आया। पहले पूरे जिले का ठेका पाने वाला ठेकेदार ही तय करता था, कि उसे कहां कहां दुकाने खोलनी है। वह कम दुकाने खोल सेल्समैन रखने व दुकान का किराया देने के खर्चों से बच जाता। ऐसे ठेकेदार गांवों के बजाए षहरी इलाकों में दुकान चलाने पर ज्यादा जोर दिए। वैसे भी शराब जिले में कहीं से बिके बिकती उन्हीं के ठेके से थी। लेकिन जब से लाटरी प्रणाली द्वारा अलग-अलग ठेका देना षुरू हुआ, नए नवाले ठेकेदारों ने गांव-गांव में अपनी दुकानों को प्रोफेषनल तरीके से चलाना शरू कर दिया। घोर प्रतिस्पद्धा के चलते कुछ ने सरकारी ठेके की दुकान की आड़ में कच्ची शराब भी बेचना षुरू कर दिया। इससे पहले भी आदिवासी बहुल इलाकों में चोरी छिपे कच्ची शराब की अनगिनत फैक्ट्यिां चल रही हैं। कच्ची शराब आदिवासी समुदाय की सबसे अच्छी पेय पदार्थ है। षायद इसलिए भी कि भूख की पीड़ा को इसके नषे में कुछ देर के लिए षांत रखा जा सकता है। षायद इसीलिए ऐसे आदिवासी बहुल गांवों में चार साल की उम्र से ही बच्चों को ऐसी शराब की लत लग जाती है। राजस्थान के बंजारा, कंजर, भील, सांसी व अन्य आदिवासी समुदाय की बस्तियों में ऐसी शराब बनाने के कई छोटे कारखाने चलते हैं। यह आमतौर पर जंगलों के बीच व नदी नालों के किनारे होते है। यहां महुआ, गुड़ या स्प्रिट से शराब बनाई जाती है। लेकिन कई बार बनाते समय असावधानी के चलते कीड़-मकोड़े या छिपकली गिर जाने से या उद्योगों में काम आने वाली स्प्रिट से बनी शराब इनकी जिंदगी के लिए घातक हो जाती है। इन अवैध कारखानों से आबकारी विभाग व स्थानीय पुलिस को हर महीने पैसा पहुंचता रहता है। पैसा नहीं देने पर पुलिस कहर बन इन बस्ती के लोगों पर टूट पड़ती है, फिर चाहें महिला हाथ लगे या बच्चे सभी एक साथ जेल में होते हैं।
डेढ़ साल पहले जहरीली शराब पीने से होने वाली मौतों पर रोकथाम के लिए वसुंधरा सरकार ने आबकारी कानून में थोड़ा संशोधन करते हुए इसे और कड़ा करने का भी ढ़ोंग रचाया। संशोधन के बाद नए कानून में जहरीली शराब से मौत के मामले में शराब बनाने व बेचने वाले को उम्रकैद व अधिकतम दस लाख का जुर्माना और पीड़ित पक्ष को दो से तीन लाख रुपए का मुआवजा देने का प्रावधान किया गया। लेकिन जमीन स्तर की बात करें तो कहीं से भी न तो अवैध शराब का करोबार रूका और नहीं लोगों की मौत पर लगाम लगा। तत्कालीन संसदीय कार्यमंत्री राजेन्द्र सिंह राठौड़ ने दावा किया था कि ''कानून में कड़े प्रावधान करने से ऐसी दुखांतिकाओं पर रोक लोग सकेगी।'' इसके डेढ़ साल बाद अब मुख्यमंत्री अषोक गहलोत ने लोगों को ढांढ़स बंधाया है-'' मैं आ गया हूं, सब ठीक हो जाएगा।'' जनता आने जाने वाली सरकारों की राह तक रही हैं - कब ये वादे हकीकत में बदलेंगे। कब इस जहरीली शराब के ताने-बाने से मुक्ति मिलेगी। कब ये मौत का सिलसिला रुकेगा।

रोशनी खोजने गये थे, अंधेरा लेकर लौटे

तारागढ़ ब्यावर की दाखू देवी वहां के एक निःशुल्क नेत्र शिविर में आँख का जाला हटवाने गई थीं - "लेकिन मुझे क्या पता था की आँख की रोशनी ही चली जायेगी. पहले तो कुछ दिखता भी था, अब तो बिल्कुल अंधी हो गई हूँ. " कुछ ऐसा ही गवरी देवी, पुष्पा, रामी, पूनम देवी, भगवान दास के साथ भी हुआ. यह सभी उस शिविर में अपनी आँख का इलाज कराने गए थे. आंख की रोशनी खोजने गये ये लोग हमेशा के लिए अपनी आंखों में अंधेरा लेकर लौटे. आपरेशन के बाद पहले इनकी आंखों से लगातार पानी गिरना शुरू हुआ फ़िर आँखों में मवाद भर गया, जिसके बाद इन्हे फ़िर से अस्पताल ने भरती करना पड़ा है.
राजस्थान में पिछले दिनों निःशुल्क नेत्र चिकित्सा शिविरों में आँख का ओपरेशन कराने के बाद करीब ३० लोगों ने अपने आंखों की ज्योति खो दी. ७० से भी अधिक लोग आँख में संक्रमण की शिकायत लिए अस्पतालों में भरती हैं. यह शिविर बीकानेर जिले के सूरतगढ़, अजमेर के ब्यावर और पाली जिलों में वहां की अलग-अलग स्वयंसेवी संस्थाओं की और से आयोजित किए गए थे. इस घटना के बाद राज्य की अशोक गहलोत सरकार ने फिलहाल और शिविरों पर रोक लगा दी है. लेकिन एक के बाद एक हुई इस तरह की घटना ने कई सवाल जरुर खड़े कर दिये हैं. रोशनी का सपना लिए इन गाँव के गरीब लोगों की जिन्दगी में अँधेरा फैलाने के लिए आख़िर कौन जिम्मेदार है?
यह मामला उस समय सामने आया जब सूरतगढ़ के एक चिकित्सा शिविर में आपरेशन कराने के दो दिन बाद ही करीब ४३ लोगों की आंखों से मवाद आने की शिकायत मिली. इस शिविर में ७२ मरीजों की आंखों का आपरेशन हुआ था. शिविर एक स्वयंसेवी संस्था एपेक्स क्लब और चिकित्सा विभाग की भ्रमणशील शल्य चिकित्सा इकाई के संयुक्त तत्वावधान में लगा था. इसके करीब २० दिन बाद ब्यावर से १४ लोगों के अंधे होने की ख़बर आई. इन सभी लोगों ने वहां के एक व्यापारी संगठन की ओर से लगे नेत्र शिविर में अपनी आंखों का आपरेशन कराया था. इस शिविर में करीब ७० मरीजों की आँख के आपरेशन हुए थे. ऐसे ही पाली जिले में एक निजी चिकित्सालय के निःशुल्क नेत्र चिकित्सा शिविर में ३ लोगों ने अपनी दुनिया में अँधेरा कराया. इन सभी मामलों में प्रारंभिक तौर पर संक्रमित दवाई और साफ सफाई के बिना ही ओपरेशन करने की बात सामने आई है. पहले तो डॉक्टरों ने गंवार लोगों द्वारा असावधानी बरतने को इसका कारन बताया लेकिन जब ऐसे कई मामले सामने आने लगे तो सच्चाई फ़िर किसी के छुपाये नहीं छुपी.
पैसे के अभाव में अपने रोगों का सही इलाज नहीं करा पाने वाले लोगों के लिए अभी तक ऐसे शिविर एक वरदान की तरह हुआ करते हैं. लोग भीड़ लगाकर वहां अपना इलाज कराने पहुचंते हैं, लेकिन इस घटना के बाद ऐसे शिविरों पर से लोगों का विश्वास उठा है. देखा जाए तो यह विश्वास काफी पहले ही उठ जाना चाहिए था. इन शिविरों में लोगों के विश्वास से साथ कैसा मजाक किया जाता है इसका अंदाज इस बात से ही लगाया जा सकता है की ब्यावर के शिविर में दो डॉक्टरों ने ४ घंटे के भीतर ४० लोगों की आंखों का आपरेशन किया. यहीं नहीं यहाँ प्रयोग की गई दवाई भी प्रथम दृष्टया संक्रमित पाई गई. इनके प्रयोग की अवधि भी बीत चुकी थी, आपरेशन थियेटर का फोर्मोलईजेशन (कीटाणु रहित करना) तो दूर की बात है. अब यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है की लोगों की जिन्दगी के साथ एसा मजाक कर ये स्वयम सेवी संस्था किस तरह का समाज सेवा कर रही थी. और वह डॉक्टर जो इन शिविरों में कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों को निपटा रहे थे, क्या वह अपने क्लिनिक में भी इन मरीजों के साथ ऐसा ही सुलूक करते ? अगर नहीं तो फ़िर यह समाज सेवा का ढोंग कैसा?
राजस्थान में ऐसे 'निःशुल्क चिकित्सा शिविर थोक के भाव में आयोजित किए जाते हैं. यहाँ की कई कथित स्यवं सेवी, निजी व जातिगत संस्थाएं ऐसे शिविरों के माध्यम से सस्ती लोकप्रियता बटोरने के चक्कर में रहती हैं. एक शिविर में मरीज की आँख में टॉर्च जलाये डॉक्टर को संस्थाओं के दस पदाधिकारी घेर कर फोटो खीचने में लगे होते हैं. इससे भी लोगों का भला हो जाता तो ठीक था लेकिन व्यवस्था करने के नाम पर संस्था के बड़े पदाधिकारी भारी मात्रा में पैसों का गोलमाल करते हैं. कहीं भी न तो इनका कोई लेखा - जोखा होता है और न ही उनके इस पुन्य कार्य में कोई दखल देने वाला. इस घटना से पहले तो राज्य सरकार के पास ऐसे शिविरों के लिए कोई दिशा निर्देश भी नहीं बने थे. जैसा कि इस घटना के बाद डॉक्टरों की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं. यह सवाल एक तरह से लाजिमी भी है क्योंकि जिसे अभी तक इस देश की भोली-भली जनता भगवान मानती थी उसने एक बार फ़िर लोगों को धोखा दिया है. क्या यह डॉक्टर तब भी उन ख़राब हो चुकी दवाओं का ही प्रयोग करते जब ये लोग उनकी मंहगी फीस चुका उनके क्लिनिक में अपना इलाज करते. शायद कभी नहीं? क्योंकि उनके मंहगे क्लीनिकों में आने वाला तबका यह कत्तई नहीं बर्दाश्त करता. दरअसल अपने मंहगे क्लीनिकों में मरीजों की जेब तराशने वाले डॉक्टर भी ऐसे शिविरों के माध्यम से समाज सेवा का सुख बटोरने में लगे होते हैं. यह अलग बात है की यहाँ उनका उद्देश्य समाज सेवा से ज्यादा उसका दिखावा करना होता है. वह केवल पैसों की भाषा समझते हैं इसीलिए वह अपने कीमती समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों को निपटा एक साथ ढेर सारा पुन्य बटोर लेना चाहते है.
इतनी बड़ी घटना के बाद भी राज्य सरकार ने ऐसे डॉक्टरों और उन संस्थाओं के खिलाफ अभी तक कोई कदम नहीं उठाए हैं. लेकिन 30 से अधिक लोगों को अँधा कर इन सभी ने एक बात तो साफ़ कर दिया है की मुफ्त में न तो भगवान अपना होता है, और न कोई फ़रिश्ता बनता है. आज सब केवल पैसो की भाषा समझते हैं।

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लेखकों की भूमिका पर बहस

विजय प्रताप

'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच की ओर से रविवार को राजस्थान के कोटा शहर में एक सार्थक बहस आयोजित की गई. इलाहाबाद और दिल्ली में इसी कई बहसों का हिस्सा बनने का मौका मिला लेकिन कोटा जैसे शहर में इसी बहस पहली बार देखने को मिला. कोटा पहले उद्योग नगरी के रूप में जाती रही है लेकिन भुमंद्लिकर्ण की नीतियों के बाद इसका भी वही हश्र हुआ जो देश के अन्य उद्योग कारखानों का है. इस लिहाज से बहस का विषय भूमंडलीकरण की नीतियां और लेखकीय दायित्व सार्थक ही था.
बहस में जोधपुर विश्विद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर डॉ. सूरज पालीवाल ने भूमंडलीकरण, बाजारवाद और उत्तर-आधुनिकतावाद को एक ही सिक्के का पहलु बताया. उन्होंने कहा की भारत में इसका आगमन मीडिया के प्रभाव से ऐसे समय में हुआ जब की यह पूरी तरह आधुनिक भी नहीं हुआ. देश में अभी भी १६-१७वी सदी की रूढियां मौजूद हैं. एक सोची समझी साजिश के तहत हमारी स्मृतियों, इतिहास और भाषा-संस्कृति की हत्या की जा रही है. युवाओं को करोड़पति बनने के सपने दिखाए जा रहे हैं. समय को सौ बर्ष पीछे ले जा जाती, धर्म व भाषा के सवालों में लोगों को उलझाया जा रहा है. झालावाड से आए डॉ विवेक मिश्र ने कहा की भूमंडलीकरण और बाजारवाद मनुष्य और मनुष्यता दोनों को ख़त्म कर रही हैं. हमें मनुष्य को विशेष कर, उस मनुष्य को बचाना है जो वंचित-पीड़ित है. समीक्षक शैलेन्द्र चौहान ने कहा की बाजारवादी व्यवस्था अपने ही अंतर्विरोधों से टूट रही है. साहित्यकार और नाटककार शिवराम ने कहा की वसुधैव कुटुम्बकम में सभी शामिल हो तो ठीक लेकिन अगर यह केवाल २० फीसदी लोगों का हो तो कतई मंजूर नहीं. उन्होंने रचनाकारों को पूंजीवादी-साम्राज्यवादी अवधार्नावों को समझने पर जोर दिया. कहा की रचनाकारों को समाज से जुड़ना होगा तभी जनता की आवाज बुलंद होगी.
शिवराम ने ख़ुद को कभी साहित्यकार या नाटककार की सीमा में बाँध कर नहीं रखा. वह ख़ुद तो नाटक लिखते ही हैं साथ ही नए युवाओं को जोड़ कर उनके साथ उसका मंचन भी करते हैं. कोटा में ऐसे ही सक्रीय एक और शख्स महेंद्र नेह ने समारोह का सञ्चालन किया. नेह विकल्प के नए अध्यक्ष भी चुने गए. समारोह में युवा कहानीकार चरण सिंह पथिक, विवेक शंकर, धनि राम जख्मी, अखिलेश अंजुम, हलिम आइना उपस्थित रहे. कवि-चित्रकार रवि ने कविता पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई.
समारोह में कोटा के जाने माने शायरों ने अपने बेहतरीन नगमों से गज़ब का शमा बंधा. रंगकर्मी शरद तैलंग ने दुष्यंत की ग़ज़ल के डॉ शेर वर्तमान व्यवस्था की कहानी कह गए -
"वजन से झुक के जब मेरा बदन दोहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा.
कोई फांके बिता कर मर गया तो,
वो सब कहते हैं की ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा.
यहाँ तो गूंगे और बहरे लोग बसते हैं,
खुदा जाने किस तरह जलसा हुआ होगा."
शायर पुरुषोत्तम यकीन के ग़ज़ल के कुछ शेर देखिए
"कहीं खंजर कहीं हाथों में ले बम निकले,
वो किस मजहब के थे ये न तुम मिले न हम मिले.
हुआ जब कत्ल मासूमों का सड़कों पर,
बचाने तब न मस्जिद से खुदा, न मन्दिर से सनम निकले."
शकूर अनवर ने अपनी ग़ज़ल से लेखकों पर ही कटाक्ष किया-
" खुशनसीबी से दम नहीं निकला,
वरना कातिल भी काम नहीं निकला.
लोग निकले हैं तलवारे लेकर,
और हमसे कलम नहीं निकला."

अफीम किसानों की आवाज उठी संसद में

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एंव सांसद मोतीलाल वोरा ने राजस्थान में शीतलहर से बर्बाद हुई अफीम किसानों की फसल को लेकर खासी चिंता जताई है। वोरा ने कहा है कि प्रभावित किसानों को तुरंत पट्टे दिए जाने चाहिए। सांसद वोरा ने राज्यसभा के समाप्त हुए सत्र में इस मुद्दे पर सरकार का ध्यान आकर्षित किया था। वोरा ने सरकार से जानना चाह कि पीडित किसानों के लिए सरकार क्या करने जा रही हैक् राजस्थान के हाडोती व चित्तौडगढ जिले का बेगू विधानसभा क्षेत्र वर्ष 2007-08 के दौरान भयंकर शीत लहर की चपेट में आया था। शीत लहर से प्रभावित आधे से ज्यादा किसानों के अफीम के पट्टे विभाग ने समाप्त कर दिए थे। शेष बचे अफीम के पट्टों की किसानों द्वारा लुवाई-चीराई की गई, लेकिन शीतलहर की प्राकृतिक आपदा के कारण किसानों के पट्टे पूरे औसत को पार नहीं कर सके। यही नहीं 100 व 200 ग्राम की कमी के कारण किसानों के पट्टे विभाग ने रोक दिए, जिससे किसानों की आजीविका का साधन छिन गया। उन्होंने बताया कि वर्ष 2003-04 से 2007-08 तक शासकीय अफीम फैक्ट्री नीमच द्वारा अफीम जांच में जो केमिकल काम में लिया गया, वह ठीक नहीं था। उसमें दस प्रतिशत बर्नवीटी व अमूल पाउडर मौजूद था और इसी आधार पर वर्ष 2007-08 को लाभ दिया गया।चूंकि यही कैमिकल पिछले दस वर्षो से उपयोग में लाया जा रहा है इसलिए वर्ष 2003-04 से 2006-07 के प्रभावित किसानों को भी इसका लाभ दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा है कि सरकार को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए कि प्राकृतिक रूप से ओस का पानी मिल जाने से गाढता प्रभावित होती है। किंतु अफीम काश्तकार न चाहते हुए भी इस गलती का खामियाजा भुगतते हैं। अत: ऎसे प्रभावित किसानों को भी पट्टे दिए जाए।

फिलिस्तीनी बच्चे के लिए लोरी

जंगशुदा फिलिस्तीन के लिए जिसके रग-रग में अपने अस्तित्व के को बचाए रखने का जज्बा है। जहाँ का बच्चा-बच्चा अपने देश का एक सिपाही है. साम्राज्यवाद विरोधी जंग में वे अपने देशवाशियों के साथ लड़ रहे हैं कि जो बाकि दुनिया को भी लड़ने का हौसला दे रहे हैं. उनके लिए फैज़ कि यह कविता -

मत रो बच्चे
रो रो के अभी
तेरी अम्मा की आँख लगी है
मत रो बच्चे
कुछ ही पहले
तेरे अब्बा ने
अपने गम से रुखसत ली है
मत रो बच्चे
तेरा भाई
अपने ख्वाब की तितली पीछे
दूर कहीं परदेस गया है
मत रो बच्चे
तेरी बाजी का
डोला पराये देस गया है
मुर्दा सूरज नहला के गए है
चंद्रमा दफना के गए है
मत रो बच्चे
अम्मी,अब्बा,बाजी,भाई
चाँद और सूरज
तू गर रोयेगा तो ये सब
और भी तुझे रुलायेंगे
तू मुस्कयेगा तो शायद
सारे एक दिन भेस
तुझ से खेलने लौट आयेंगे
__ फैज़ अहमद फैज़

हमास पर फिर हुआ हमला

अभिषेक रंजन सिंह
छह महीने के युद्ध विराम के बाद मध्य- पूर्व एक बार फ़िर से अशांत हो गया है। इज़रायल ने फ़लीस्तीनी शहर गाज़ापट्टी में मिसाइल हमले किए, जिसमें दो सौ से ज्यादा लोग मारे गए और हज़ारों की तादाद में लोग घायल हुए हैं। इन हमलों के पीछे इज़रायल का दावा है कि – उसने ये हमले गाज़ा में हमास के आतंकी शिविरों पर किए हैं,जो कुछ रोज़ पहले इज़रायल पर रॉकेट हमलों का ज़बाब है। इसके साथ इज़रायल ने ये भी धमकी दी है कि वो हमास के ख़िलाफ़ फ़लीस्तीन में ज़मीनी लड़ाई से भी गुरेज़ नहीं करेगा।
इस हमले की निंदा अरब लीग समेत यूरोपियन यूनियन ने भी की है- जबकि ह्वाइट हाउस ने ब़यान जारी किया है कि – इज़रायल को अपनी सुरक्षा का पूरा हक़ है। लेकिन अमरीका ने ये नहीं कहा कि ये हमले तुरंत बंद होने चाहिए.........वैसे अमरीका से इसकी उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि इज़रायल-फलीस्तीन विवाद में उसका क़िरदार दुनिया से छुपा नहीं है। इज़रायल- फ़लीस्तीन मसला आज की तारीख़ में सबसे विवादास्पद मुद्दा है- इनके बीच जारी संघर्ष में लाखों लोग अपनी जान गवां चुके हैं और लाखों लोग बेघर हो चुके हैं। इस आग में समूचा मध्य-पूर्व जल रहा है। समूची दुनिया की पंचायत करने वाला संयुक्त राष्ट्रसंघ की भूमिका भी संतोषजनक नहीं है। जहां तक अमेरिका की बात है तो उसकी असलियत कुछ इस प्रकार है-
इज़रायल और अरब राष्ट्रों के बीच हुए भीषण युद्ध के बाद तत्कालीन इज़रायली प्रधानमंत्री एहुद बराक और फ़लीस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात के बीच अमेरिका के कैम्प डेविड में पन्द्रह दिनों तक चली मध्य-पूर्व शांति शिखर वार्ता बगैर किसी नतीज़े के ख़त्म हो गई। इस विफलता की मूल वज़ह वो तीन मुद्दे थे – लगभग 37 लाख फलीस्तीनी शरणार्थियों का भविष्य, भावी फ़लीस्तीनी राज्य की सीमाएं और येरूशलम पर नियंत्रण। इन तीनों मुद्दों पर इज़रायली प्रधानमंत्री बराक और यासिर अराफात के बीच कोई सहमति नहीं बन पाई और नतीज़ा रहा....सिफ़र। ये सब अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की सक्रिय मध्यस्थता के बीच हुआ। जिसे पश्चिमी मीडिया ने अमरीका के शांति एवं लोकतंत्र प्रेम के रूप में खूब बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया। लेकिन अमरीका की मौजूदगी में शांति वार्ता का ये हश्र...... कोई ताज़्जुब की बात नहीं है।
इज़रायल और फ़लीस्तीनी अरबों के बीच के विवाद के प्रेक्षकों से ये बात छिपी नहीं है कि पिछले पाँच दशकों के दौरान इस क्षेत्र में अमन बहाली के लिए अमरीकी कोशिशों का मतलब क्या रहा है। हमेशा अमरीकी नेतृत्व ने इज़रायल- फ़लीस्तीनियों के बीच समझौते के नाम पर इज़रायली शर्तें मनवाने की कोशिश की है। इज़रायली वजूद की ही बात करें तो- तमाम औपनिवेशिक साम्राज्यवादी साजिशों के तहत नवंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्रसंघ फ़लीस्तीन को एक अरब और एक यहूदी राज्य के रूप में बाँटने को राज़ी हो गया था। लेकिन यहूदियों को यह भी गवारा नहीं हुआ, इससे पहले कि विभाजन हो पाता यहूदियों ने इज़रायल नाम से देश का ऐलान कर दिया।
अमेरिका ने बेहद फुर्ती दिखलाते हुए अगले ही दिन उसे मान्यता भी दे दी और उसी दिन से फ़लीस्तीनी अरबों के दर-दर भटकने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया। लाखों की तादाद में अपना वतन छोड़कर उन्हें विभिन्न अरब राष्ट्रों में शरण लेनी पड़ी। उनकी ज़मीन ज़ायदाद पर यहूदियों ने कब्ज़ा कर लिया और धीरे-धीरे लगभग सारे फ़लीस्तीन पर अपना नियंत्रण कर लिया। इस दौरान अरब राष्ट्रों से इज़रायल के तीन घमासान युद्ध हुए। अमरीका की हर प्रकार की मदद से वह हर युद्ध में अरब राष्ट्रों के कुछ न कुछ इलाकों पर कब्ज़ा करता रहा। 1967 के युद्ध में इज़रायल ने पश्चिमी तट (वेस्ट बैंक), गाज़ा पट्टी, गोलान हाइट्स, सिनार और पूर्वी येरूशलम पर कब्ज़ा कर अपने में मिला लिया।
बहरहाल, 1967 के अरब- इज़रायल युद्ध के बाद विश्व जनमत चिंतित हो उठा एवं मध्य-पूर्व में अमन बहाली की कोशिशों में तेज़ी आई। इसके तहत संयुक्त राष्ट्रसंघ सक्रिय हुआ- संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद् का प्रस्ताव 242 पारित हुआ। जिसमें पूर्ण शांति का आह्वान करते हुए इज़रायल से कब्ज़ा किए गए अरब क्षेत्रों से हट जाने को कहा गया, लेकिन इस प्रस्ताव को अमल में नहीं लाया जा सका। हांलाकि इस चार्टर पर सबने दस्तख़त किए थे, लेकिन अमरीका ने ढ़ीला-ढ़ाला रूख अपनाते हुए इसकी नयी व्याख्या कर दी और इसके तहत इज़रायल ने कब्ज़ा किए गए इलाकों से हटने से इंकार कर दिया। नतीज़तन 1976 में इस प्रस्ताव को दुबारा सुरक्षा परिषद् में विचारार्थ लिया गया। इस दफ़ा प्रस्ताव 242 की बातों की रोशनी में एक नया प्रस्ताव बनाया गया, जिसमें साफ़ तौर पर वेस्ट बैंक और गाज़ापट्टी में एक फ़लीस्तीनी राज्य की स्थापना का प्रावधान जोड़ा गया। इस प्रस्ताव का मिस्त्र, जॉर्डन, सीरिया जैसे अरब राष्ट्र, यासिर अराफात की फ़लीस्तीनी मुक्ति संगठन, सोवियत संघ, यूरोप और बाकी दुनिया के देशों ने समर्थन किया। लेकिन अमरीका ने इस प्रस्ताव के खिलाफ़ वीटो का इस्तेमाल कर इसे रद्द करा दिया।
इसी तरह 1980 में एक ऐसे ही प्रस्ताव पर अमरीका ने फिर वीटो का इस्तेमाल किया – इसके बाद ये मामला संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा में हर साल उठता रहा और इसके खिलाफ़ सिर्फ़ अमरीका और इज़रायल अपना वोट देते रहे। इतिहास से ये सारी बातें मानो निकाल दी गई हैं – उनकी जगह शांति स्थापना के अमरीकी प्रयासों की प्रेरक कथाओं ने ले ली है। और बताया जा रहा है कि अमन बहाली की ये सारी कोशिशें अरबों के कारण ही सफल नहीं हो पा रहे हैं।
अगर मध्य-पूर्व में वाकई अमन बहाली कायम करनी है तो इज़रायल- अमरीका को थोड़ा और आगे जाकर सोचना होगा। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि अमन की कोशिशों को थोड़ी हिम्मत और समझ के साथ उसे सही अंज़ाम पर पहुँचाया जाए। इस मामले में इज़रायल-फ़लीस्तीन समस्या के सबसे गहन अध्येता और महान अमरीकी चिंतक नोम चोम्स्की के शब्दों में हम सिर्फ़ इतना कहेगें – अगर राजनीतिक भ्रमों को छोड़कर मानवाधिकार एवं लोकतंत्र के सवाल को ध्यान में रखेंगे तो निश्चय ही इस समस्या का स्थाई हल निकलेगा।

अभिषेक रंजन सिंह टेलीविजन पत्रकार हैं और साम टीवी (सकाल मीडिया ग्रुप) से जुड़े हुए हैं.

मुश्किल में हाड़ौती के किसान

- विजय प्रताप
बारां जिले के किसान भंवरलाल नागर इन दिनों बेहद परेशान हैं. उनके खेतों में धूल उड़ रही है और उन्हें सलाह दी गई है कि वे अब अफीम की जगह इन खेतों में गेहूं उगाना शुरु कर दें.
भंवरलाल कहते हैं- “पहले अफीम बोते थे, उसमें ज्यादा पानी की जरुरत नहीं रहती. उसकी सिंचाई टैंकर से पानी लाकर भी हो जाती लेकिन अब गेहूं के लिए ज्यादा पानी चाहिए होता है.”
ज़ाहिर है, गेहूं के लिए उन्हें पानी मिलने से रहा और वे पिछले कई दिनों से इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें किसी तरह उनका पारंपरिक अफीम की खेती का पट्टा मिल जाए.
लेकिन भंवरलाल की आवाज़ नक्कारखाने की तूती बन कर रह गई है और भंवरलाल ही क्यों, हाड़ौती के हजारों किसानों की कोई सुनने वाला नहीं है. झालावाड़ और बाराँ के किसान सरकार से अब उम्मीद छोड़ बैठे हैं क्योंकि सरकार उनकी समस्याओं को हल करने के बजाय इस बाद में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रही है कि ये किसान इस मुद्दे पर खामोश हो जाएं. पिछले महीने के अंत में तो इस मुद्दे को लेकर कोटा में प्रदर्शन करने वाले किसान जब रात को सो रहे थे, तब पुलिस ने उन्हें बर्बरता से दौड़ा-दौड़ा कर मारा.
राजस्थान में पिछले पांच साल के वसुंधरा राजे शासनकाल में किसानों पर कई बार हमला हो चुका है. पानी-बिजली मांग रहे किसानों पर गोलियां व लाठियां चलना आम बात हो चुकी है. लेकिन सोते हुए किसानों पर ऐसा हमला पहली बार हुआ.
कोटा के नारकोटिक्स ब्यूरो उपायुक्त कार्यालय पर धरना देने आए किसानों पर रात करीब एक बजे पुलिस ने हमला कर लाठीचार्ज कर दिया. उस समय किसान बारिश से बचने के लिए आस-पास के स्कूल व मंदिर में सोए हुए थे.
हजारों की संख्या में जुटे यह किसान अपने रद्द अफीम के पट्टों की बहाली की मांग को लेकर 16 नवम्बर से ही यहां महापड़ाव डाले हुए थे. इसमें राजस्थान के पूरे दक्षिण पूर्वी क्षेत्र हाड़ौती के अफीम उत्पादक किसान शमिल थे. 19 नवम्बर को जोरदार बारिश की वजह से किसानों का टेंट सहित सारी व्यवस्था ध्वस्त हो गई.

सोये किसानों पर हमला
भारी बारिश व बढ़ती ठंड के कारण किसानों ने धरना स्थगित कर पास के प्राथमिक स्कूल और हनुमान मंदिर में शरण ले ली. रात करीब एक बजे अचानक पुलिस ने किसानों को वहां से खदेड़ने के लिए सोते किसानों पर हमला बोल दिया. इस हमले से डरे और आहत गरीब किसान अगली सुबह अपने-अपने गांव लौट गये.
लेकिन उनके सवाल जस के तस हैं और इनका जवाब किसी के पास नहीं है. चारों तरफ से हताशा में डूबे किसान अब आत्महत्या कर रहे हैं.
यह वे अफीम किसान हैं जो पिछले कुछ सालों से भूखमरी की जिंदगी गुजार रहे हैं. सरकारी तंत्र व उसकी लापरवाही के चलते हाड़ोती के दस हजार से अधिक अफीम उत्पादक किसान बेकार हो चुके हैं. पिछले दो साल लगातार ओलावृष्टि के कारण किसानों की खड़ी फसल बर्बाद हो गई. इस वजह से किसान नारकोटिक्स ब्यूरो द्वारा निर्धारित एक हेक्टेयर में 56 किलो औसत उत्पादन जमा नहीं करा सके. इसी को आधार बनाते हुए केन्द्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो ने क्षेत्र के अस्सी प्रतिशत किसानों के अफीम उत्पादन के पट्टे रद्द कर दिए.
केन्द्रीय स्तर पर यह फैसला लेते समय उन रिपोर्टों को भी दरकिनार किया गया जो जिला कलक्टर व तहसीलदार ने ओलावृष्टि से किसानों की फसल नष्ट होने की जांच के बाद जारी किए थे. रिपोर्ट में कलेक्टर ने माना था कि ओलावृष्टि के कारण क्षेत्र के किसानों की साठ से सत्तर प्रतिशत फसल नष्ट हो गई है. कोटा स्थित नारकोटिक्स ब्यूरो उपायुक्त कार्यालय ने यह रिपोर्ट ग्वालियर के क्षेत्रीय कार्यालय व नई दिल्ली के केन्द्रीय कार्यालय को भी भेजी. बावजूद इसके यहां के हजारों किसानों की रोजी रोटी का पट्टा रद्द कर दिया गया.

आत्महत्या की राह
अफीम उत्पादक किसानों का पट्टा रद्द करने का यह खेल काफी समय से चला आ रहा है. एक समय पूरे राजस्थान में 54 हजार से अधिक अफीम उत्पादकों को पट्टे जारी किए गए थे. लेकिन इस साल पूरे प्रदेश में केवल 18 हजार किसानों को ही अफीम उत्पादन की अनुमति दी गई.
किसान नेता जुगल किशोर नागर बताते हैं कि एक समय पूरे हाड़ौती में अकेले तेरह हजार से अधिक पट्टे थे, लेकिन आज केवल 4 सौ किसानों के पास अफीम उत्पादन के पट्टे हैं. श्री नागर कहते हैं- “ सरकार ने कई बहाने से हमारे पट्टे हड़प लिए और हमे बेरोजगार कर छोड़ दिया.”
संभाग के चार जिलों कोटा, बारां, बूंदी व झालावाड़ के अफीम उत्पादक किसान सेठ साहूकारों के कर्जे में ऐसे दबे हैं कि अब उनके सामने आत्महत्या ही विकल्प नजर आ रहा है. दो हफ्ते पहले ही दीगोद तहसील के ब्रह्मपुरा के बापूलाल के अलावा छीपाबड़ौद के रंगलाल व नारायण लोधा, झालरापाटन के गणेशपुर के कंवर लाल ने अपनी जान दे दी.
यह उल्लेखनीय है कि अफीम उगाने वाले किसानों का बड़ा हिस्सा मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के गृह नगर से आता है. मुख्यमंत्री झालरापाटन क्षेत्र से ही विधानसभा का चुनाव लड़ रही हैं. यहां संघर्षरत किसान भी झालावाड़ के झालरापाटन क्षेत्र से आते हैं. पांच साल मुख्यमंत्री रहते हुए भी राजे इन किसानों की मुश्किलें दूर नहीं कर सकीं.
झालरापाटन के किसान ओम प्रकाश आक्रोश के साथ कहते हैं- ''उनसे क्या उम्मीद करें. वह कहती हैं केन्द्र सरकार का मामला है. लेकिन हमे तो गेंहू उगाने के लिए भी पानी नहीं मिल पा रहा.''

फैसला नहीं, फैसले की मियाद
इस समय ज्यादातर किसान साहूकारों के कर्जे में दबे हैं. अफीम का पट्टा छिन जाने के बाद से उनके कमाई का कोई और जरिया नहीं बचा है. न ही उनके खेत इतने बड़े हैं कि वह भारी पैमाने पर कोई और फसल उगा सके और न ही इन क्षेत्रों में सिंचाई का कोई साधन है. कुछ किसानों ने गेंहू की फसल बोनी शुरु भी की तो पानी की कमी से पर्याप्त उत्पादन नहीं हो सका.
अफीम उत्पादक किसानों की पट्टा बहाली के लिए संघर्ष कर रहे अफीम उत्पादक हाड़ौती किसान संघर्ष समिति के सचिव महेन्द्र नागर कहते हैं –“ हम लोग पिछले दो सालों से संघर्ष कर रहे हैं लेकिन किसी राजनैतिक दल ने हमारा साथ नहीं दिया. हम इतने बड़े लोग नहीं हैं कि दिल्ली जाकर साहब लोगों को अपनी बात बता पाएं, इसलिय हम कोटा के अधिकारियों से ही निवेदन करते हैं कि वह हमारी मांग उपर के अधिकारियों तक पहुंचाए. हम बस इतना चाहते हैं कि हमारे पट्टे फिर से बहाल हो ताकि हम सूकून की जिंदगी गुजार पाएं.”
कोटा में बैठने वाले नारकोटिक्स ब्यूरो उपायुक्त जी पी चंदोलिया भी किसान को मांग को जायज मानते हैं. लेकिन पट्टा बहाली के सवाल पर चंदोलिया का कहते हैं- “ इस समस्या का समाधान केन्द्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो के स्तर से ही हो पाएगा. हमने कलेक्टर की रिपोर्ट व किसानों की मांगों को उन तक पहुंचा दिया है. अब जो भी फैसला लिया जाएगा, वह केन्द्रीय स्तर पर ही लिया जाएगा.”
लेकिन किसान इस चक्करदार सरकारी जवाब से संतुष्ट नहीं हैं. उनके लिए यह कोई जवाब नहीं है कि फैसला कहां लिया जाना है. उनकी दिलचस्पी इस बात में है कि यह फैसला कब लिया जाएगा.
क्या तब जब हाड़ोती के किसान भी विदर्भ की राह पकड़ लेंगे ?
साभार - रविवार डॉट कॉम

फलस्तीन के लिए

- महमूद दरवेश
लिखो कि
मैं एक अरब हूँ
मेरा कार्ड न. ५०,००० है
मेरे आठ बच्चे हैं
नौवा अगली गर्मी में होने जा रहा है
नाराज तो नहीं हो?

लिखो कि
मैं एक अरब हूँ
अपने साथियों के साथ पत्थर तोड़ता हूँ
पत्थर को निचोड़ देता हूँ
रोटी के एक टुकडे़ के लिये
एक किताब के लिये
अपने आठ बच्चों के खातिर
पर मैं भीख नहीं माँगता
और नाक नहीं रगड़ता
तुम्हारी ताबेदारी में
नाराज तो नहीं हो?

लिखो कि
मैं एक अरब हूँ
सिर्फ एक नाम, बगैर किसी अधिकार के
इस उन्माद धरती पर अटल
मेरी जडें गहरी गई हैं
युगों तक
समयातीत हैं वे
मैं हल चलाने वाले
किसान का बेटा हूँ
घास-फूस की झोपडी़ में रहता हूँ
मेरे बाल गहरे काले हैं
आँखें भूरी
माथे पर अरबी पगडी़ पहनता हूँ
हथेकियाँ फटी-फटी है
तेल और अजवाइन से नहाना पसंद करता हूँ

मेहरबानी कर के
सबसे ऊपर लिखो कि
मुझे किसी से नफरत नहीं है
मैं किसी को लूटता नहीं हूँ
लेकिन जब भूखा होता हूँ
अपने लूटने वालों को
नोचकर खा जाता हूँ
खबरदार
मेरी भूख से खबरदार
मेरे क्रोध से खबरदार॥