सिनेमा कलाकारों के सरोकार और सीमाएं


विजय प्रताप

सामाजिक मुद्दों पर आधारित सिने कलाकार आमिर खान के टेलीविजन कार्यक्रम सत्यमेव जयतेकी चारों तरफ चर्चा है। कहा जा रहा है कि इस कार्यक्रम के जरिये वो आम लोगों के मुद्दों को उठा रहे हैं। कार्यक्रम के पहले शो को ही अखबारों और टीवी चैनलों ने प्रमुखता से प्रकाशित/प्रसारित किया। इसी तरह विद्या बालन को जिस दिन उनकी चर्चित फिल्म डर्टी पिक्चरके लिए राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया, केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने उन्हें सफाई कार्यक्रम के लिए अपना ब्रांड एंबेसडरनियुक्त किया। दूसरे दिन अखबारों में ये सुर्खी छाई रही कि डर्टी गर्ल विद्या बालन लोगों को सफाई के लिए प्रेरित करेंगी।सेलिब्रिटी या ब्रांड एंबेसडर के जरिये चलाए जाने वाले जागरुकता कार्यक्रम अक्सर आम लोगों को उस समस्या के लिए दोषी मानकर शुरू होते हैं और उन्हें सुधारने की जिम्मेदारी उनके पसंदीदा कलाकारों पर होती है। जो काम किसी राज्य सरकार या सामाजिक संगठनों की होनी चाहिए उसकी जगह ये कलाकार ले रहे हैं।
ये पहला मौका नहीं है जब कोई लोकप्रिय सिनेमा कलाकार सामाजिक मुद्दों से जुड़े विषयों पर कदम बढ़ा रहा हो। पहले भी ढेर सारे कलाकार इस तरह के सामाजिक विषयों से जुड़े कार्यक्रमों पर बोलते-बतियाते रहे हैं। कई सारे कलाकार राज्य या उनकी योजनाओं के प्रचारक के बतौर काम करते रहे हैं। लेकिन जिस तरह से आमिर खान के कार्यक्रम की चर्चा हो रही है वो इन सबसे अलग है। आमिर खान खुले तौर पर किसी राज्य या उसकी इकाई के लिए कार्यक्रम नहीं कर रहे हैं। बल्कि यह उन्हीं की प्रोडक्शन कंपनी में बना कार्यक्रम है जिसे दूरदर्शन और एक निजी चैनल पर एक साथ दिखाया जा रहा है। निश्चित तौर पर इस कार्यक्रम का लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ रहा होगा। सत्यमेव जयतेके पहले एपिसोड में आमिर खान ने भ्रूण हत्या पर बात की। उन्होंने उन महिलाओं को लोगों के सामने पेश किया जिन्होंने खुद इस पीड़ा को झेला है। इस कार्यक्रम से पहले भी भ्रूण हत्या पर इससे ज्यादा गंभीर तरीके से बात होती रही है। कई सामाजिक-राजनैतिक संगठनों ने भ्रूण हत्या की गंभीरता को समझा और आंदोलन किया जिसके बाद भू्रण हत्या रोकने के लिए प्री कंसेप्शन एंड प्री नेटल डायग्नोस्टिक टेक्नीक्स (पीसीपीएनडीटी) एक्ट, 1994 और मेडिकल टर्मिनेशन आॅफ प्रेग्नेंसी (एमपीटी) एक्ट जैसा कठोर कानून बना। ये अलग बात है कि इस कानून के बाद भी भ्रूण हत्याएं जारी हैं। शर्तिया तौर पर कहा जा सकता है कि आमिर खान जैसे सेलिब्रिटी के समझाने के बाद ये हत्याएं नहीं रूकेंगी। भ्रूण हत्या कोई जागरुकता या शिक्षा की कमी के कारण उपजी समस्या नहीं है, जैसा की अक्सर इन्हें पेश किया जाता है। इसके अपने सामाजिक कारण हैं, जो कहीं ना कहीं पुरुषवादी और वर्चस्ववादी मानसिकता से नियंत्रित होते हैं। इसे न तो कानून बना देने या जागरुकता फैलाने के सरकारी/गैरसरकारी अभियानों से रोका जा सकता, ना ही सेलिब्रिटी के आभामंडल का इस्तेमाल कर। इसके लिए सामाजिक स्तर पर और चेतना के स्तर समानता की लड़ाई लड़नी होगी। जो कि इतनी आसान नहीं है। ना ही कोई सेलिब्रिटी या सरकारी प्रचार अभियान इस बात के लिए लोगों को खड़ा कर सकता है कि वो एक बनी बनाई व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाएं। जैसे आमिर खान को ही ले लें। उन्होंने भ्रूण हत्या के खिलाफ किसी तरह के सामाजिक आंदोलन की बात नहीं की, ना ही लोगों की चेतना को इस स्तर पर आवेशित किया की वो खुद इस तरह के आंदोलन करें। बल्कि उन्होंने खुद राजस्थान के मुख्यमंत्री से मुलाकात की और ऐसे मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में करने की मांग की। इस तरह की मांग बरसों से होती रही है, और इसका नतीजा ये है कि ऐसी समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं।
तो फिर एक सेलिब्रिटी के सामाजिक मुद्दों पर सवाल और आवाज उठाने के क्या निहितार्थ हो सकते हैं? किसी सामाजिक मुद्दे को राजनैतिक तरीके से हल करने में और सिनेमा-टेलीविजन के पर्दे पर किसी सेलिब्रिटी के हल करने के तरीके में क्या अंतर हो सकता है? दरअसल कोई सेलिब्रिटी किसी समस्या को सुलाझाने के लिए वैकल्पिक कदम के तौर पर कुछ खास तरह के उपाय ही सुझाता है। सेलिब्रिटी की छवि की अपनी एक सीमा होती है, जिसके दायरे से बाहर जाने पर उसे अपनी लोकप्रियता खोने का डर होता है। उसकी अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं होती है। वो कुछ दिन किसी सामाजिक मुद्दे पर बोलने के बाद गायब हो जाए तो उससे फिर कोई कुछ नहीं पूछने जाएगा। लेकिन वही काम जब कोई राजनैतिक संगठन या नेता करता है तो उसकी एक जिम्मेदारी होती है। वह अंतिम समय तक उसके परिणामों को लेकर जिम्मेदार होता है और चुनावों जैसे मौके पर उसके नतीजे भी भगुतता है। सेलिब्रिटी सामाजिक-राजनैतिक कारणों से उपजी किसी खास समस्या को व्यक्तिवादी ढांचे में बांध देते हैं, जिससे की उस समस्या को लेकर सरकार या सत्ता के खिलाफ उठ सकने वाला आक्रोश खुद ब खुद सिमट जाता है। लोग खुद को ही दोषी मानकर उसका निदान करने के उपाय करते हैं। बल्कि ऐसे कार्यक्रम लोगों की चेतना को इस स्तर पर कुंद जरूर कर देते हैं कि वो हर समस्या के लिए खुद को ही दोषी मानने लगते हैं। ऐसी स्थितियां लोगों के लिए ना सही राज्य या सत्ता के लिए बड़ी सुखद होती हैं। इसलिए राज्य ऐसे कार्यक्रमों को रोकने की बजाय परोक्ष-अपरोक्ष रूप से बढ़ावा देता हैै। अगर यही सारी बातें किसी राजनीतिक संगठन के बैनर तले उठाई जाती तो नििचत तौर पर उसे बर्दात नहीं किया जाता। दरअसल राजनीति नाम की संस्था की प्रतिष्ठा में आई गिरावट ने भी इन्हें मजबूती दी है। राज्य की संस्थाओं के जरिये ज्यादा से ज्यादा लोगों का गैर-राजनीतिकरण किया जा रहा है, जिससे एक तरफ ऐसे कार्यक्रमों को वैधता मिलती है तो दूसरी तरफ जो वास्तव में सही राजनीतिक तरीके से समाज में बदलाव के लिए काम करने वाले संगठन हैं, उन्हें राजनीति के नाम पर बदनाम करने में मदद मिलती है। ऐसे में ये कार्यक्रम समाज का विकास करने की बजाय उसकी चेतना को कुंद करने ही सहायक होते हैं।

आंबेडकर के विचारों पर फासीवादी हमला

विजय प्रताप

फ्रांस में 1820 में लुईस फिलिप ने सत्ता संभालने के बाद मानहानि और राजद्रोह के कानूनों को और ज्यादा कड़ा कर दिया। फिलिप को उस समय के कार्टूनिस्टों का डर सताता रहता था। तब फ्रांस में महूर कार्टूनिस्ट फिलिपोन और हाॅनर ड्यूमर सहित ढेर सारे कार्टूनिस्ट साम्राज्यवाद और पंूजीवाद के खिलाफ कार्टूनों के जरिये मोर्चा खोले हुए थे। 1831 में फिलिपोन को कार्टून की वजह से मानहानि के मामले 6 माह की जेल हुई। अगर आज भारत में ंकर पिल्लई जिंदा होते तो उन्हें एससी/एसटी एक्ट में फिलिपोन से कहीं ज्यादा समय जेल में गुजारने पड़ते। साठ साल की संसद ने भारत में कार्टून के पिता कहे जाने वाले शंकर के कार्टून पर जो प्रतिक्रिया दी है, वो फासीवादी चरित्र का परिचायक है। यह ठीक उसी तरह की प्रतिक्रिया है, जैसा की 19वीं ताब्दी में फ्रांस के लुईस फिलिप या जर्मनी में हिटलर के समय देखने को मिली थी। ये दोनों ही अपने मूल में फासीवादी थे।
एनसीईआरटी की ग्यारहवीं की किताब में जिस कार्टून को लेकर बहस की जा रही है, दरअसल वो बहस का विय ही नहीं बनता। संसद में इस मामले के उठाये जाने के बाद सरकार ने तत्परता से इस कार्टून को किताबों से हटाने के निर्दे दिए हैं। सवाल इस पर खड़े होने चाहिए। बहस इस बात पर होनी चाहिए कि क्यों कुछ क्तियां दलितों के नाम पर आंबेडकर को पूज्यनीय बनाने पर तुली हैं?
ंकर ने 1949 में संविधान सभा की धीमी गति पर चोट करने के लिए जब यह कार्टून बनाया था, तब आंबेडकर और नेहरू दोनों जिंदा थे। तब किसी ने ंकर के इस कार्टून पर सवाल नहीं उठाया। लेकिन साठ सालों बाद अचानक यह कार्टून केवल इसलिए चर्चा में आ गया कि आंबेडकर को पूज्नीय मान चुके कुछ दलित मुखौटे के हिंदूवादी संगठनों की भावनाएं आहत होने लगी। धार्मिक कट्टरतावादी संगठनों की भावनाएं पहले भी आहत हुआ करती रही हैं। जिसकी वजह से एम.एफ. हुसैन को दे छोड़ना पड़ा और सलमान रश्दी व तस्लीमा नसरीन को एक तरह से दे में प्रवे पर अघोषित रोक लगा दी गई। भावनाओं के आहत होने का अंत नहीं है। दरअसल, भावनाओं के पीछे कोई तार्किकता नहीं होती। वह आस्था से संचालित होती हैं, इसलिए वह चाहें किसी ईश्वर से जुड़ी हों या किसी व्यक्ति से, दोनों में कोई अंतर नहीं रह जाता।
भीमराव आंबेडकर ईश्वर नहीं है। उन्होंने समाज के सबसे निचले तबके के लिए आजीवन संघर्ा किया और उस तबके को मुक्ति के विचारों से लैस किया। लेकिन इस समय आंबेडकर की जो छवि समाज में मौजूद है वो एक सामाजिक-राजनैतिक चेतना के लिए संघर्ील व्यक्ति की कम, दलितों के भगवान की ज्यादा है। किसी दलित के घर में अमूमन आंबेडकर और बुद्ध की तस्वीर दीवारों पर लटकती मिल जाएगी। लेकिन इससे उसे घर के सदस्यों की चेतना कोई गुणात्मक बदलाव आ रहा हो यह जरूरी नहीं है। बहुत से दलित आंबेडकर के विचारों को समाज में दलितों के अधिकार के लिए लड़ी गई लड़ाई तक या जगह बना पाने तक ही देखते हैं। उनकी लड़ाई उच्च वर्ण के हिंदूओं से केवल सामाजिक बराबरी की मांग तक सीमित हैं। अन्य मामलों में एक दलित की चेतना और एक ब्राह्मण की चेतना में कोई अंतर नहीं है। इन सब के पीछे एक गहरी राजनीति है।
हिंदुत्ववादी क्तियों ने दलितों के बौद्ध और इसाई धर्म में पलायन को रोकने के लिए धीरे-धीरे न केवल उन्हें सामाजिक तौर पर मान्यता देनी ुरू कर दी, बल्कि उनके नेतृत्वकर्ताओं में भी खुद को ामिल कर लिया। अब ऐसे में जिस तरह से बाकी हिंदूओं के लिए कोई भगवान पूज्य होते हैं उसी तरह से दलितों के लिए आंबेडकर पूज्यनीय होने लगे। इससे हिंदुत्ववादियों को फायदा ये हुआ कि एक तरफ आंबेडकर के परिवर्तनकारी विचारों को जड़ कर दिया गया तो दूसरी तरफ बाकी हिंदू देवी-देवताओं के बीच आंबेडकर को प्रतििठत कर दलितों के पलायन को भी रोकने में मदद मिली। इसका साफ-साफ असर आंबेडकर जयंती को देखा जा सकता है। इस दिन को बाकी त्यौहार की तरफ मनाने का गल तेजी से बढ़ रहा है। आंबेडकर की प्रतिमा पर फूल-माला चढ़ाने और अगरबत्ती दिखाने से लेकर दुर्गा या गणे प्रतिमाओं की तरह उनकी झांकी निकालने का चलन आम हो गया है। यह एक तरह से दलितों के प्रति आंबेडकर के विचारों की हार और मनुवादी क्तियों की जीत है।
महाराष्ट्र में हिंदुत्व का गहरा असर रहा है। महाराष्ट्र के ही एक हिस्से में आंबेडकर के विचारों का भी व्यापक असर है। इस समय वहां पर हिंदुत्ववादी शिवसेना और दलितों की नेतृत्वकारी रामदास अठावले की रिपब्लिकन पार्टी गठजोड़ कर लिया है। इसका सीधा सा असर इस कार्टून के मामले में महसूस किया जा सकता है। रिपब्लिकन पार्टी ने ही सबसे पहले इस कार्टून पर आपत्ति जाहिर की थी। इससे पहले भी रिपब्लिकन पार्टी ने मुंबई की इंदू मिल में आंबेडकर के नाम पर स्मारक बनाने के लिए लड़ाई ुरू किया था। दलितवादी रिपब्लिकन पार्टी और हिंदूवादी शिवसेना की कार्यप्रणाली में मूलभूत अंतर नहीं है। जिस तरह से रिपब्लिकन सेना के कार्यकत्र्ताओं ने एनसीईआरटी के पूर्व सलाहकार सुहास पालिस्कर पर हमला किया वैसे ही शिवसेना के कार्यकत्र्ता भी एम.एफ. हुसैन की तस्वीरों को तोड़ते-फोड़ते रहे हैं। दोनों ही अंध आस्था और जड़ता के मूल गुणों से लैस हैं। ासकवर्ग के लिए जड़ता, जड़ी-बूटी होती है। वह समाज में परिवर्तनकारी विचारों को या तो पूरी ताकत से दबाने की कोशिश करता है या फिर उसे जड़ कर देता है। केंद्र सरकार ने आंबेडकर के कार्टून को किताबों से हटाकर इस जड़ता को और मजबूती दी है। 
लोकतंत्र की सफलता के लिए जनता की वैचारिक निष्क्रियता बेहद जरूरी होती है। सत्ता, लोगों को वैचारिक रूप से कुंद रखने के लिए तरह-तरह के हथकड़े अपनाती है। धर्म और आस्था ऐसे ही हथकंडे हैं, जिनके जरिये वैज्ञानिकता और तार्किक विचारों से लोगों को वंचित रखा जाता है। संसद में कार्टून को लेकर चली बहस से जाहिर है कि सत्ता को न केवल वैचारिक रूप से निष्क्रिय जनता चाहिए, बल्कि उसका कोई धड़ा फासीवादी विचारों से लैस हो तो वो उसे बढ़ावा भी दे सकती है।

दुहराया जा रहा है आदिवासियों पर अत्याचार का इतिहास


विजय प्रताप

19 दिसंबर 1949 को संविधान सभा में आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाले जयपाल सिंह मुंडा ने कहा, ‘मैं भी सिंधु घाटी की सभ्यता की ही संतान हूं। उसका इतिहास बताता है कि आप में से अधिकां बाहर से आए हुए घुसपैठिए हैं। जहां तक हमारी बात है, बाहर से आए हुए लोगों ने हमारे लोगों को सिंधु घाटी से जंगल की ओर खदेड़ा। हम लोगों का समूचा इतिहास बाहर से यहां आए लोगों के हाथों निरंतर ण और बेदखल किए जाने का इतिहास है।’’ यह उस समय की बात है जब नया-नया आजाद हुआ भारत, अपने लिए लोकतंत्र का ढांचा तय कर रहा था। तब भी आदिवासियों के लिए मूल लड़ाई महज इतनी थी कि उन्हें उनकी जमीनों से न खदेड़ा जाए। जयपाल सिंह मुंडा की बातों में इसे महसूस किया जा सकता है। अब भी आदिवासियों को उनकी जमीन से खदेड़ने की लड़ाई लड़ी जा रही है। सभ्यता के विकास के साथ आदिवासियों को जंगलों की ओर धकेला गया। अब जब यह पता चला है कि जंगलों में खजाने दबे हैं तो जंगलों को आदिवासियों से खाली करने के लिए उन्हें फिर वहां से निकाला जा रहा है। इसके लिए सैन्य और असैन्य सभी तरह के हथियार आजमाए जा रहे हैं।
1492 में स्पेन के यात्री कोलंबस ने जिस तरह से अमेरिका और 1770 में यूरोपिय नागरिक कैप्टन कुक आॅस्ट्रेलिया की खोज करके जो खुी महसूस कर रहे थे, लगभग वही खुी गृहमंत्री पी. चिदंबरम और  छत्तीसगढ़ के डीजीपी अनिल नवानी की बातों में भी महसूस किया जाता सकता है। चिदंबरम ने आंतरिक सुरक्षा पर राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में इस बात पर खुी जताई की सुरक्षा बल पहली बार सरांडा और अबूझमाड के जंगलों में घुसने में कामयाब हुए हैं। इसी तरह अनिल नवानी ने 19 मार्च को दावा किया कि दुनिया के लिए अबूझ पहेली बने अबूझमाड़ में पहली बार केंद्रीय पैरा मिलिट्री फोर्स और पुलिस बल दाखिल हुआ है। उसके बाद जो कुछ वहां हो रहा है वो अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया के मूल निवासियों से अलग नहीं है। माओवाद के नाम पर आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल कर, वहां की खनिज संपदा पर एकाधिकार करने का अभियान चलाया जा रहा है। सत्ता और काॅरपोरेट प्रायोजित इस अभियान को समूचा समाज समर्थन दे रहा है। हो सकता है कि समूचा समाज में अपने को भी ामिल कर लिये जाने से कई लोग असहमति रखते हों, लेकिन इससे उनका अपराध कम नहीं हो जाता।
मध्य भारत में आदिवासियों के साथ जो कुछ हो रहा है वो आजकल की परिघटना नहीं है। यह पिछले एक दक की तैयारी है। सत्ता में बैठे लोगों ने बहुत पहले ही इसका रोडमैप तैयार कर लिया था। उन्हें अंदाजा था कि आदिवासी अपनी जमीने ऐसे ही नहीं छोड़ देंगे। रोडमैप बनाने वालों ने एक तरह से अमेरिका में आदिवासियों को उजाड़ने की रणनीति को ही अपनाया है। अमेरिकी लेखक डीन ब्राउन ने अपनी चर्चित पुस्तक बरी माई हार्ट ऐट वूंडेड नीमें रेड इंडियन आदिवासियों पर अमेरिकियों के नृंस हमलों का जिक्र किया है, जिसकी आज के भारतीय परिस्थितियों से तुलना की जाए तो दोनों में कोई अंतर नहीं दिखता। डाउ ब्राउन लिखते हैं कि ‘‘न्यू मैक्सिको को अमेरिका का प्रदे घोषित करने के बाद अमेरिकियों ने वहां बसे रेड इंडियनों से सीमा समझौता किया और अपने हितों की रक्षा के लिए दुर्ग बनाए। जल्द ही यह समझौता टूट गया और अमेरिकी सेना के जनरल जेम्स कार्लेटन ने नवाहोस (रेड इंडियनों का एक कबीला) के नेताओं से कहा कि वे इस जगह को छोड़कर बास्क्यूइ रेडोंडो नाम के सुरक्षित क्षेत्र में चले जाएं। धीरे-धीरे जमी हुई बर्फ पिघली और जनरल कार्लेटन ने नवाहोस कबीले को परास्त करने की रणनीति निर्धारित करते हुए सैनिकों को रेड इंडियनों के जानवर पकड़ लाने का आदे ही नहीं दिया बल्कि प्रति घोड़ा 20 डाॅलर इनाम भी घोषित किया (उस जमाने में सैनिकों को एक महीने में 20 डाॅलर से कम वेतन मिलता था)। रणनीति का अगला कदम रेड इंडियनों के खेतों को तबाह करना, अनाज भंडारों को लूटना और उनमें आग लगाना था। इस जनरल ने वािांगटन पत्र लिखा, ‘‘...यहां सोना पड़ा हुआ है जिसे केवल हाथ उठाकर ही पाया जा सकता है।’’ जाड़ा आते-आते रेड इंडियनों की हालत ये हो गई उनके पास खाने के लिए एक दाना नहीं बचा। इन भूखों से युद्ध करने के लिए अमेरिकियों ने कई तरफ से हमला किया और सर्दी से कांपते नंगे भूखों को सुरक्षित क्षेत्र तक की पैदल यात्रा करनी पड़ी।’’ अमेरिकियों ने उन्नीसवीं ताब्दी आखिरी दकों में रेड इंडियनों के कई सामुहिक नरसंहारों को अंजाम दिया। आज अमेरिकी रेड इंडियन सुरक्षित क्षेत्रों में घिरे हुए हैं। असगर वजाहत ने दिनमान में इस पर श्रृंखलाबद्ध तरीके से लिखा है। (देखें दिनमान 14 सितंबर 1975)
दंतेवाड़ा या बस्तर के घने जंगलों में जब सुरक्षा बल घुसते हैं तो वो भी ऐसा ही करते हैं। आदिवासियों के घर जलाते हैं उनके मुर्गे-मुर्गियां मार कर खा जाते हैं या अनाजों को नट कर देते हैं ताकि उन लोगों को वहां से उजड़ने पर मजबूर किया जा सके। यहां की सरकारें निजी कंपनियों से लगातार सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर कर उन्हें आमंत्रित कर रही हैं कि यहां खजाना पड़ा है, आइए खोद कर ले जाइए।सलवा जुडुम जैसे आंदोलनों के जरिये आदिवासियों को उनकी मूल भूमि से उजाड़कर कैम्पों में बसाया जा रहा है। जैसे की पहले अमेरिका में रेड इंडियनों को सुरक्षित क्षेत्रोंमें कैद किया गया और फिर वह इलाका पर्यटकों के लिए खोल दिया गया। उन्हें नुमाइ की चीज बना दी गई।
सारी दुनिया में आदिवासियों को अपनी जल, जंगल, जमीन से एक सा लगाव होता है। ुरू से लेकर आज तक उनकी लड़ाई इसी के लिए रही है। वर् 1854 में अमेरिका के रेड इंडियन के सरदार ने वािांगटन के एक व्यापारी को पत्र लिखा जो उनकी जमीनें खरीदना चाहता था। सरदार ने कहा - ’’कोई आका या पृथ्वी की उमा कैसे खरीद या बेच सकता है? हवाओं की ताजगी या जल की चमक के जब हम मालिक ही नहीं हैं, तो तुम उन्हें खरीद कैसे सकते हो?...गोरे लोग जब मर कर सितारों के बीच चले जाते हैं तो वो अपने उस दे को भूल जाते हैं जहां उनका जन्म हुआ रहता है, लेकिन हमारे लोग मर कर भी इस जमीन को कभी नहीं भूल पाते क्योंकि वह उनकी मां है।’’ क्या भारत के आदिवासियों का दर्द इससे अलग है?
उड़ीसा में चासी मुलिया आदिवासी संघ के 23 आदिवासियों को इटली के नागरिकों के बदले रिहा किया गया। उनकी गलती महज इतनी थी कि उन्होंने भूमि अधिग्रहण का विरोध किया था और सरकार की मंा के खिलाफ अपनी पुरखों की जमीन देने से मना कर दिया था। छत्तीसगढ़ में माओवादियों ने सुकमा के कलक्टर एनेक्स पाॅल मेनन के बदले जिनको रिहा करने की मांग की है उसमें से करटम जोधा, विजय सोरी, लाला राम कंुजम, सुदरू कुंजम, सन्नू मांडवी आदिवासी राजनैतिक कार्यकर्ता हैं और निर्वाचित जनप्रतिनिधि रहे हैं। इसमें से दो तो ऐसे भी हैं जिन्होंने लंबे समय तक कांग्रेस पार्टी के लिए काम किया। अगर माओवादी ऐसे लोगों को रिहा करने की मांग रखते हैं तो सरकार के लिए यह र्मनाक इसलिए भी होना चाहिए कि इसके लिए उसे अपने अधिकारियों की जान खतरे में डालनी पड़ रही है। माओवादियों ने अपने पत्र में यह आरोप लगाया है कि छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में आदिवासियों की जमीनों की लूट तत्काल बंद होनी चाहिए। उनकी यह मांग आज की मांग नहीं है। अमेरिका से लेकर आॅस्ट्रेलिया तक के आदिवासी यही मांग कर रहे हैं कि उनकी जमीन से उन्हें न उजाड़ा जाए।
आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों पर बहुसंख्यक समाज उन्हें अपराधी या माओवादी मानकर चुप्पी साधे रखता है। समाज में आदिवासियों की इतनी हिस्सेदारी नहीं है कि वो अपने पर होने वाले इन अत्याचारों पर ोर मचा सके। वर्चस्वाली जातियों वाला मीडिया आदिवासियों और माओवादियों को एक दूसरे में घालमेल कर देता है। मीडिया में काम करने वाले ज्यादतर समाज के अगड़े तबके के लोग हैं जिनका इससे वास्ता नहीं होता। सरकारें न जाने कितने आदिवासियों को अपहृत करके अपने कैद में रखे हुए हैं। लेकिन उन्हें रिहा करने के लिए कभी न तो कोई वार्ताकार आगे आता है, ना ही मीडिया में ोर सुनाई देता है। सोनी सोरी की जमानत खारिज करने के बाद सर्वोच्च अदालत से भी ऐसी उम्मीद बेमानी होगी। यह व्यवस्था तो आदिवासियों पर जुल्म करने वालों को राट्रीय पुरस्कारों से नवाजने वाली है। व्यवस्था के पूंजीवादी ढांचे ने लोगों की संजीदगी या संवेदनाओं का एक खांचा तय कर दिया है। इस खांचे में वो संवेदनाएं ही फिट होती हैं जो पूंजीवादी या वर्चस्वाली तबके के हितों को सुहाती हैं। आदिवासियों से जुड़ी बहुसंख्यक समाज की संवेदनाएं या तो दिखावा है या उन्हें उजाड़ने के लिए भावुक हथियार।


एनजीओ के भरोसे आदिवासी

विजय प्रताप

ग्रामीण विकास मंत्रालय और योजना आयोग आदिवासियों के विकास के लिए एक नया संगठन बनाने पर विचार कर रहे हैं। भारत रूरल लाइवलीहुड फाउंडेशन (बीआरएलएफ) देश के 9 राज्यों के 190 आदिवासी बहुल जिलों में काम करेगा। यह फाउंडेशन कई सारे गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) और विदेशी संगठनों की मदद से काम करेगा। जिसका उद्दे”य आदिवासियों को आजीविका के साधन उपलब्ध कराना होगा। सरकार इसे सोसायटी एक्ट के तहत रजिस्टर्ड करावाएगी। शुरुआत में इस संगठन को सरकार 500 करोड़ रुपये देगी। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने उन राज्यों के मुख्यमंत्रियों से इस पर सुझाव मांगे हैं, जहां इसका काम प्रस्तावित है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय और योजना आयोग की इस पहल में एक बात गौर करने लायक है। यह पहल आदिवासियों के विकास के लिए कोई योजना चलाकर नहीं की जा रही है। यह शायद पहली बार होगा कि सरकार कोई ऐसा संगठन बनाने जा रही है, जो कई सारे एनजीओ के साथ एनजीओ की तरह काम करेगा। हालांकि इसमें पैसा सरकार का लगेगा। ऐसा नहीं कि सरकार गैर सरकारी संगठनों के साथ जुड़कर पहली बार कोई काम करने जा रही है। बल्कि यह कहना सही होगा अधिकांश गैर सरकारी संगठन सरकार के पैसों पर ही पल-बढ़ रहे हैं। लेकिन यहां सरकार की यह कोशिश खुद का एनजीओ खड़ा करने की दिख रही है।
इस देश में आदिवासियों की बहुत बड़ी तादाद है। उनके ऐतिहासिक रूप से सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को खत्म करने के लिए सरकारी और गैर सरकारी योजनाओं पर हर साल कई हजार करोड़ रुपये फूंके जाते हैं। लेकिन उनकी स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। उदाहरण के तौर पर पिछले वित्त वर्ष में आदिवासी मामलों के मंत्रालय का कुल बजट 2229 करोड़ रुपये का था। इससे पहले वर्ष 2009-2010 में यह बजट 1818 करोड़ और उससे पहले वर्ष 2008-2009 में करीब 2133 करोड़ रुपये का था। आदिवासियों के विकास के नाम पर खर्च होना वाला उन सब बजट से अलग है जो गृह मंत्रालय आदिवासी बहुल जिलों में वामपंथी उग्रवाद को खत्म करने के लिए खर्च करता है, या दूसरी अन्य योजनाओं के जरिये आदिवासियों पर खर्च हो रहे हैं।
देश व राज्य के आदिवासी मामलों के मंत्रालय या सामाजिक अधिकारिता विभाग की वार्’िाक रिपोर्टों नजर डालना रोचक होगा। यह इकलौते ऐसे मंत्रालय या विभाग होंगे जिनका अधिकांश काम गैर सरकारी संगठनों के जिम्मे होता है। मसलन आदिवासी मामलों के मंत्रालय की वर्ष 2010-11 की रिपोर्ट को लेते हैं। इसमें आदिवासियों के विकास से जुड़ी जितनी भी योजनाएं हैं वह बिना एनजीओ की भागीदारी के नहीं चल रही। कई सारी योजनाओं तो महज एनजीओ के भरोसे ही चल रही हैं। आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल, हाॅस्टल, व्यावसायिक शिक्षा या आदिवासी लड़कियों के सशक्तीकरण की योजनाएं, इन सब की जिम्मेवारी गैर सरकारी संगठनों को दे दी गई। इस रिपोर्ट के मुताबिक मंत्रालय ने आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल और हाॅस्टल चलाने के लिए गैर सरकारी संगठनों को करीब 32.7 करोड़ रुपये की सहायता मंजूर की। इसके अलावा आदिवासी लड़कियों की शिक्षा के लिए करीब 7.50 करोड़ और व्यावसायिक शिक्षा के लिए ऐसे संगठनों को लिए 1.47 करोड़ रुपये की आर्थिक सहायता दी गई। अब इसी तरह अलग-अलग राज्यों के ऐसे मंत्रालय या सामाजिक अधिकारिता विभाग की रिपोर्टों को खंगाले तो कमोबेश ऐसे ही आंकड़े देखने को मिलेंगे। केंद्र और राज्य सरकारें यह तो मानती हैं कि आदिवासियों का विकास उनकी जिम्मेदारी है, लेकिन यह जिम्मेदारी पूरा करने के लिए उन्हें एनजीओ का सहारा लेना पड़ता है। इस पर विचार किया जाना चाहिए कि क्यों ये सरकारें आदिवासियों तक सीधे पहुंच पाने में असफल हैं? क्यों उन्हें गैर सरकारी संगठनों के बैसाखी की जरूरत होती है?
इसका जवाब खोजने के लिए हमें वहां जाना होगा जहां आदिवासी रहते हैं। लेकिन वहां तक सरकार या उनके नुमाइंदों का पहुंच पाना मुमकिन नहीं होता। क्योंकि सरकार के साथ ही नौकरशाही का सारा तंत्र ऐसे इलाकों को कालापानी की सजा के बतौर देखता है। ऐसे में इसके उपाय के बतौर सरकारी तंत्र ने गैर सरकारी संगठनों को खड़ा किया है। ये अलग बहस का विषय है कि ये गैर सरकारी संगठन आदिवासियों या आदिवासी क्षेत्रों का कितना विकास कर पाते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि आदिवासियों की किस्मत गैर सरकारी संगठनों के भरोसे पर ही छोड़ दी गई है।
आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने गैर सरकारी संगठनों को तेजी से खड़ा और मजबूत किया है। कई मामलों में एनजीओ लगभग सरकार या उसकी एजेंसियों के बराबर हस्तक्षेप रखते हैं। सरकार ने भी अपनी नीतियों के जरिये अपरोक्ष रूप से एनजीओ को बढ़ावा दिया है। केंद्र और राज्य में चाहे भी जिस दल की सरकार रही हो, सभी ने एनजीओ को धीरे-धीरे विपक्ष के रूप में खड़ा किया है। पहले जो काम राजनीतिक दलों या उससे जुड़े जन संगठन किया करते थे, उदारीकरण की नीतियों के बाद उनकी जगह ये एनजीओ लेने लगे। यह सबकुछ बिल्कुल सोची समझी रणनीति के तहत धीरे-धीरे किया जा रहा है। उन्हें सरकारी नीति निर्माण में खास महत्व दी जा रही है।
आदिवासियों के लिए बनाया जा रहा भारत रूरल लावलीहुड फांउडेशन का आदिवासियों से कितना वास्ता होगा यह उसके नाम से ही अंदाजा लगाया जा सकता है। 60 सालों से लगातार ‘आदिवासी विकास’ के बावजूद भी आज सरकार की नीतियां उनकी आजीविका (लावलीहुड) तक ही केंद्रीत हैं। दरअसल फाउंडेशन का असली मकसद आदिवासियों को आजीविका उपलब्ध कराने से इतर उनके बीच पैठ बनाने की है। आदिवासियों के विकास के ना पर सरकारों का सारा जोर वहां की खनिज संपदाओं का ज्यादा से ज्यादा दोहन करना है। इसलिए पिछले कुछ सालों में आदिवासी बहुल क्षेत्रों में माओवाद के खतरे को हकीकत से कई गुना ज्यादा प्रचारित किया गया है। वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित 9 राज्यों में माओवाद को खत्म करने, आदिवासियों का विकास करने और ढांचागत विकास के नाम पर पिछले कुछ सालों हजारों करोड़ रुपयों का निवेश किया गया है। अकेले गृह मंत्रालय ने वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित 9 राज्यों के 83 जिलों में सड़कों का जाल बिछाने के नाम पर 7300 करोड़ रुपये खर्च करने की योजना बनाई है। 11वीं पंचवर्षीय योजना में इन जिलों वि”ोष ढांचागत विकास के लिए 500 करोड़ रुपये खर्च किए गए। गृह मंत्रालय इन जिलों में 400 पुलिस थाना बना रहा है। हर थाने पर 2 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। मतलब की कुल 800 करोड़ रुपये के थाने बनेंगे। ये सब काम भी अपरोक्ष रूप से आदिवासियों के विकास के खाते में जुड़ते हैं। हालांकि इनका मकसद आदिवासियों के इलाकों में मौजूद खनिज संपदा तक सरकार और निजी कंपनियों की पहुंच सुनि”िचत करना है। सारा ढांचागत विकास इसलिए किये जा रहा है कि निजी कंपनियां वहां आसानी से पहुंच सके। गौर करने वाली बात है कि जितना खर्च सीधे आदिवासियों से जुड़ी योजनाओं पर किया जा रहा है उससे कहीं ज्यादा और कई गुना ज्यादा खर्च उन इलाकों में घुसने की कोशिश के लिए किया जा रहा है। मसलन आदिवासी मामलों के मंत्रालय का पिछले वर्ष का कुल बजट 2229 करोड़ रुपये का रहा है, लेकिन आदिवासी बहुल जिलों में सड़क बिछाने के नाम पर 7300 करोड़ रुपये का निवेश किया गया। इससे सरकार की प्राथमिकताओं का आसानी से समझा जा सकता है।
बहरहाल, देश की जनसंख्या के 8.4 प्रतिशत आदिवासी भले ही बदतर स्थितियों में जीने के लिए मजबूर हों, उन्हें रोजगार न मिले, लेकिन उनकी आजाविका के नाम पर भारत रूरल लाइवलीहुड फाउंडेशन के जरिये आने वाले कई सालों तक गैर सरकारी संगठनों को रोजगार जरूर मिल जाएगा।