मनोज को व्यवस्था ने डस लिया
विजय प्रताप

 पत्रकार मनोज कुमार कंधेर, फिलहाल  स्वास्थ्य संचार के क्षेत्र  से जुड़े थे
और स्वास्थ्य सेवा के अभाव में दम तोड़ दिया
मनोज कंधेर को मैं इस घटना से पहले नहीं जानता था, और जब जाना तब वो इस दुनिया में नहीं रह गए थे। उड़ीसा के बारगढ़ जिले के अपने गांव में छुट्टियां बिताने आए मनोज को नहर में नहाते समय सांप ने काट लिया। उन्हें जब इसका एहसास हुआ तो वह खुद मोटरसाइकिल से अस्पताल पहुंच गए, लेकिन वहां विषरोधी इंजेक्शन नहीं था, और उन्हें दूसरे अस्पताल जाने को कह दिया गया। वह दूसरे अस्पताल भी गए लेकिन वहां भी उन्हें इलाज नहीं मिल सका और अंततः वह तीसरे अस्पताल की तरफ बढ़े और रास्ते में ही बेहोश होकर गिर पड़े लोगों ने उन्हें जिला अस्पताल में भर्ती कराया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। हमारा और मनोज का रिश्ता बस इतना सा है कि हम दोनों एक ही संस्थान से पढ़े थे, लेकिन उनके जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मनोज का रिश्ता केवल मुझसे ही नहीं है उनके जैसे ही दर्दनाक परिस्थितियों में दम तोड़ने वाले 50 हजार अन्य भारतीयों से भी है।
मनोज की मौत भारतीय गांव-कस्बों की आम कहानी है। इसमें कुछ भी अलग नहीं है और आए दिन ऐसी घटनाएं देखने सुनने को मिलती हैं। लेकिन ये हमारी बहस या स्वास्थ सेवाओं की नाकामी के प्रतीक के तौर पर नहीं उभरती हैं। मनोज के बहाने हम यहां उन तकरीबन 50 हजार लोगों की बात करना चाहता हूं जो ऐसे ही सांप काटने और समय पर इलाज नहीं मिल पाने के कारण असमय मर जाते हैं। भारत में हर साल सांप काटने के करीब 2.5 लाख मामले दर्ज किए जाते हैं। भारत जैसे देशों में जहां सांपों से एक धार्मिक लगाव व डर दोनों है, ऐसी घटनाएं बहुत आम हैं। भारत में सांप काटने की घटनाओं पर प्रकाशित रिपोर्ट द मिलियन डेथ स्टडी के मुताबिक दुनिया में सांप के काटने से होने वाली हर तीसरी मौत भारत में होती है। रिपोर्ट में ऐसी मौतों का मुख्य कारण सांप काटने के बाद समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाना, अस्पतालों में विषरोधी दवा का उपलब्ध नहीं होना और आम ग्रामीण की पहुंच में इनका न होना बताया गया है। हालांकि भारत में ऐसी मौतें इस कदर जीवन का हिस्सा हो चली हैं कि कभी यह व्यापक चर्चा या रोष का विषय नहीं बन पाती। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के जरिये ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं पर 20,822 करोड़ रुपये खर्च किया जा रहा है, लेकिन हालात जस के तस हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों में भी एंबुलेंस उपलब्ध कराने के दावा किया जा रहा है, लेकिन स्थिति यह है कि मनोज जैसे लोग जैसे-तैसे खुद चलकर अस्पताल आ भी जा रहे हैं तो उन्हें इलाज नहीं मिल पाता है। उत्तर प्रदेश में तब एनआरएचएम के तहत खरीदी गई करीब 600 एंबुलेंस धूल फांक रही जब इस घोटाले के अभियुक्त डॉ राजेश सचान की जेल में हत्या कर दी जाती है ताकि बड़े नेताओं और घोटालेबाजों के नाम सामने न आ सके। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के नाम पर मची इस लूट ढेर सारी निजी कंपनियों और नेताओं को लाभ पहुंचाया और ग्रामीण अस्पतालों की हालत में कोई बदलाव नहीं आया। गांव के अस्पताल की मरहम-पट्टी की तरह की मूलभूत जरूरत होती है कि वहां पर एंटी रेबीज-एंटी विनेमस (विषरोधी) दवाएं उपलब्ध हों, लेकिन सर्वे कर लें तो 80 फीसद ग्रामीण अस्पतालों में ये दवाएं नहीं मिलेंगी। निजी अस्पतालों में कई गुना मंहगें दामों पर कई बार ये दवाएं उपलब्ध भी होती हैं, लेकिन उनके लिए ही जो समय पर पहुंच जाएं और उनकी थैली भी हल्की ना हो।
हाल के वर्षों में जब से सरकारों ने जीवन के तौर-तरीकों के साथ हर एक चीज में पश्चिमी देशों का अनुकरण और निर्भरता को भारत की मजबूरी बना दिया तब से स्थानीय समाज में मौजूद चिकित्सा को तौर-तरीके भी हाशिये पर चले गए। इलाज से लेकर बीमारियों तक की प्राथमिकताएं विश्व स्वास्थ्य संगठन से निर्धारित होने लगी और अचानक चारों तरफ कभी एड्स तो कभी एचआईवी जैसी बीमारियां सुनाई देने लगी। इसके इलाज के नाम पर भी भारत में पिछले कुछ वर्षों में लगातार एक हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का बजट बनता रहा है, लेकिन काफी ढ़ूंढने के बाद भी सरकारी आंकड़ों में ये जानकारी नहीं मिल पाएगी की सांप काटने या कुत्तों के काटने पर होने वाले इलाज पर कितना खर्च होता। ऐसा नहीं है कि सांप काटने का इलाज केवल विषरोधी टीका ही है, लेकिन करोड़ों-अरबों रुपये फूंकने के बाद भी इलाज न देने वाली व्यवस्था ने परंपरागत इलाज के तरीकों को जरूर अवैध करार दे कर खत्म कर दिया। छोटे से देश नेपाल के दक्षिणी हिस्से में लोगों ने सांप काटने पर ग्रामीण स्तर पर ही समूह बनाकर इलाज के लिए केंद्र स्थापित किए और ऐसे मामलों में होने वाली मौतों को 10.5 प्रतिशत से घटाकर 0.5 प्रतिशत तक ले आया। क्या इस मामले में नेपाल हमारा लिए आदर्श नहीं हो सकता। लेकिन इससे बड़ी कंपनियों को घाटा होगा और भ्रष्ट नेताओं को कमाई का मौका नहीं मिलेगा। उड़ीसा सरकार हर साल भले ही 1597.16 करोड़ रुपये खर्च करती रहे लेकिन मैं उसे इसी रूप में जानता रहूंगा कि उस राज्य में मनोज जैसे प्रतिभाशीली नौजवान एक टीके के अभाव में दम तोड़ देते हैं।

संप्रतिः लेखक शोध पत्रिका जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं।
संपर्कः सी-2, पीपलवाला मोहल्ला
बादली एक्टसेंशन
दिल्ली-110042

विकास की राह के रोड़े


विजय प्रताप

अमेरिकी पत्रिका टाइम के कवर पर मनमोहन सिंहः
जिसने हनुमान को उनका बल याद दिलाया
देश को तेज आर्थिक विकास चाहिए और जो भी इसकी राह में रोड़ा बनने की कोशिश करेगा रौंद दिया जाएगा। सरकार में हालिया बदलाव कुछ इसी ओर इशारा करते हैं। आर्थिक विकास और निवेश में रोड़ा बन रहे अपने ही मंत्रियों से भी सरकार ने पीछा छुड़ाने में देरी नहीं की। मंत्रीमंडल में बदलाव के बाद नए मंत्रियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ये साफ संदेश दे दिया है कि नई जिम्मेदारी तेज आर्थिक विकास के लिए दी गई है। मंत्रियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि हमें कई तरह की बाधाओं को दूर करना होगा, जो निवेश को रोक रही हैं या उनकी रफ्तार को धीमा कर रही हैं। इनमें ईंधन आपूर्ति व्यवस्था, सुरक्षा और पर्यावरण मंजूरियां शामिल हैं। साथ ही वित्तीय मुश्किलें भी बाधक बन रही है।
मनमोहन सिंह के इस बयान का पर्यावरणविद् काफी विरोध कर रहे हैं। दरअसल उन्होंने तेज आर्थिक विकास में जिस तरह से पर्यावरणिय मंजूरी को एक रोड़े की तरह इंगित किया है, वो नौकरशाही सहित पूरी व्यवस्था को यह संकेत देने के लिए काफी है कि ऐसी मंजूरियों में किसी भी तरह की देरी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। इस और खुले रूप में समझने की कोशिश करें तो सरकार पूंजीपतियों और उद्योगपतियों के दबाव में पर्यावरणीय मंजूरियों को खत्म नहीं तो कम से कम निष्क्रिय कर देना चाहती है। कई सारी निजी परियोजनाएं पर्यावरणीय मंजूरी नहीं मिलने के चलते रूकी हुई हैं। आंकड़ों पर नजर डाले तो मार्च में राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयंति नटराजन ने बताया था कि विभिन्न परियोजनाओं से जुड़े 832 प्रस्ताव पर्यावरणीय मंजूरी के लिए लंबित हैं। उद्योगपतियों के दबाव में जब वित्त मंत्रालय ने इस तरह की मंजूरियों में विलंब को खत्म करने के लिए राष्ट्रीय निवेश बोर्ड का गठन का प्रस्ताव लाया। इस बोर्ड के जरिये हजार करोड़ रुपये की परियोजनाओं की मंजूरी अविलंब करने की कोशिश की जाएगी। हालांकि पर्यावरण मंत्री जयंति नटराजन ने पहले ही प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर इस बोर्ड के गठन पर कड़ी आपत्ति जाहिर की दी है। जयंति नटराजन ने किसी भी परियोजना की मंजूरी में पर्यावरणीय मापदंडों को अड़ंगे को तौर पर देखने के नजरिये की तीखी आलोचना की थी। इसके लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट और अन्य कानूनों का हवाला दिया था। लेकिन राष्ट्रीय निवेश बोर्ड के गठन के पीछ वित्त मंत्रालय की बजाय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का हाथ था और उन्हीं के इच्छा के अनुरूप यह सारी कवादय की गई। सिर्फ पैसे और निवेश के सपने देखने वाले प्रधानमंत्री ने अपने इस नजरिये से पूरी व्यवस्था को यह संदेश दे दिया है कि जहां पैसों की बात हो वहां पर्यावरण मंजूरी को ज्यादा तवज्जों देने की बात सोचना भी हराम है।  
तेज आर्थिक विकास के नाम पर सरकार न केवल पर्यावरण को नजरअंदाज करने पर उतारू है बल्कि धीरे-धीरे जमीन अधिग्रहण सहित ऐसे अन्य ‘अंड़गों’ को भी खत्म करने की कोशिश करेगी। गौरतलब है कि कई सारी निजी परियोजनाएं जमीनों के अधिग्रहण के चक्कर में भी रूकी हुई हैं। पर्यावरणीय मंजूरी का सीधा रिश्ता जंगल की जमीनों को निजी हाथों में सौंप देने से है। जिसका की न केवल पर्यावरणविद विरोध कर रहे हैं बल्कि जगह-जगह पर आदिवासी और स्थानीय लोग भी ऐसे भूमि अधिग्रहणों के खिलाफ लड़ रहे हैं। लेकिन सरकार अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर चुकी है। वह साफ कर चुकी है कि वह पूंजीपतियों की राह में किसी भी तरह की रुकावट बर्दाश्त नहीं करेगी। सरकार को आम लोगों की चिंती नहीं है ना ही चुने हुए जनप्रतिनिधियों की ही फिक्र है। हमने देखा कि कैसे गैस के मनमाने दोहन और मूल्य तय करने के मामले में रिलायंस की राह में रोड़ा बन रहे मंत्री जयपाल रेड्डी से उनका मंत्रालय ही छीन लिया गया। इसे मामूली फेरबदल के नजरिये से नहीं देखा जा सकता। यह सरकार की प्राथमिकताओं के द्योतक हैं। 

छापने या छिपाने का खेलः नैतिकता का सवाल नहीं


विजय प्रताप

जिंदल ग्रुप की ओर से किए गए एक स्टिंग ऑपरेशन में जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी और जी बिजनेस के संपादक समीर आहलूवालिया ने अपनी सफाई में कहा था कि विज्ञापन बटोरने के लिए सभी प्रयास करते हैं और ये कहीं से गलत नहीं है। हालांकि इस पूरे प्रकरण ने भारतीय मीडिया के चेहरे से एकबरगी नकाब उतार दिया। कई सारे वरिष्ठ मीडियाकर्मी और पत्रकारों के इस प्रकरण पर बयान आए जिसमें उन्होंने इसे शर्मनाक बताया। इससे पहले नीरा राडिया के टेपों में भी कुछ पत्रकारों की उद्योगपतियों और नेताओं से सांठ-गांठ की असलियत को सामने लाया था। यह बड़े फलक पर होने वाली बड़ी घटनाएं हैं जो कभी-कभी सामने आती हैं। जो लोग छोटे शहरों और कस्बों में रहते हैं, वो पत्रकारों की इस स्थिति से बखूबी वाकिफ होते हैं। ऐसी जगहों का ये आम अनुभव होता है कि पत्रकार घूसखोर होते हैं, और पैसे लेकर खबरें छिपाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि जी न्यूज के संपादक छिपे कैमरों में बड़े स्तर पर जिंदल ग्रुप से कोयला घोटाले से जुड़ी खबरे नहीं छापने के लिए सौदेबाजी करते देखे गए। वह कह सकते हैं कि वे जिंदल ग्रुप से 100 करोड़ का विज्ञापन मांग रहे थे। ठीक ऐसे ही निचले स्तर पर भी पत्रकार विज्ञापन लेने के लिए ढेर सारी ऐसी खबरें छिपाते हैं। कई बार यह सौदेबाजी किसी खास खबर को नहीं छापने की बजाय खबर बन सकने वाले व्यक्ति से इस आधार पर भी होती है कि पत्रकार उसकी सभी काली करतूतों से मुंह मोड़े रहेगा और कभी उसकी कोई खबर नहीं आने देगा। मीडिया के निरंतर बढ़ते बाजार ने इन करतूतों की संख्या में ना केवल बढ़ोतरी की है बल्कि इन के खुलकर सामने आने की घटनाएं भी बढ़ी हैं।  
सर्वे के अनुभवः भ्रष्टाचार छुपाने का खेल
मीडिया स्टडीज ग्रुप ने अखबारों के स्थानीय स्तर के संस्करणों के विज्ञापनों का एक सर्वे किया यह देखने की कोशिश की कि स्थानीय स्तर पर अखबारों को कौन से लोग ज्यादा विज्ञापन देते हैं। यह आम अनुभव है कि त्यौहारों और राष्ट्रीय पर्वों पर अखबार विज्ञापनों से अटे रहते हैं। किसी त्यौहार या राष्ट्रीय पर्व के दिन का अखबार उठाकर यह साफ-साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थानीय अखबारों को कैसे-कैसे लोग विज्ञापन देते हैं और उनके विज्ञापन देने के क्या लाभ हो सकते हैं। ‘‘मीडिया की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा विज्ञापनों से आता है, ऐसे में कई बार अखबार विज्ञापनदाताओं को उपकृत करने के लिए उनका हुकुम भी बजाते हैं, खासतौर पर बड़े और बहुराष्ट्रीय विज्ञापनदाओं के। ऐसी खबरें और लेख जो विज्ञापनदाताओं के लिए उपयुक्त होती हैं उन्हें प्रमुखता दी जाती है और जो उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं उन्हें हटा दिया जाता है।’’ प्रेस काउंसिल ने यह बातें बड़े और बहुराष्ट्रीय विज्ञापनदाताओं के संबंध में कही थी। तब से लेकर अब तक प्रिंट मीडिया का प्रसार और सघन हुआ है। केवल अखबारों की संख्या ही नहीं बढ़ी है, बल्कि संस्करणों की संख्या में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। आज अखबारों के जिले स्तर से लेकर ग्रामीण स्तर पर अखबारों के संस्करण छप रहे हैं। एक ही जिले में एक अखबार के कई संस्करण पहुंच रहे हैं। मसलन राजस्थान पत्रिका का कोटा से प्रकाशित होने वाला अखबार शहर के लिए अलग छपता है और ग्रामीण क्षेत्र के लिए अलग छपता है या इलाहाबाद से दैनिक जागरण का संस्करण शहर के अलावा आस-पास के क्षेत्रों के लिए और कई संस्करण छापता है, जैसे कि गंगा पारऔर यमुना पार
अखबारों के संस्करणों में इस तरह से इजाफे का अपना एक आर्थिक और सामाजिक आधार है जो इन संस्करणों को जीवित रखे हुए है। बड़े स्तर पर अखबारों की आर्थिक जरूरत विज्ञापनों से पूरी होती है। लेकिन क्या प्रेस काउंसिल के रिपोर्ट की उक्त बातें छोटे और निचले स्तर पर भी लागू होती हैं? निचले या जिला स्तर पर अखबारों की जरूरत को कौन पूरा करता है? बड़े और कॉरपोरेट विज्ञापनदाता स्थानीय स्तर को ध्यान में रखते हुए विज्ञापन नहीं देते हैं। जिले स्तर पर अखबारों को स्थानीय लोगों में से विज्ञापन जुटाने होते हैं और अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करते हुए कंपनी को फायदा भी देना होता है। ऐसे में स्थानीय स्तर पर के विज्ञापनदाताओं और अखबारों के बीच अंतर्संबंध के बारे में यह बात भी लागू होती है कि अखबार उनकी इच्छा के अनुसार खबरें छापते या छुपाते हैं।मीडिया स्टडीज ग्रुप एक सर्वे में यह देखने को मिला की अखबारों के स्थानीय संस्करणों को विज्ञापन देने वाले लोगों में ज्यादातर ग्राम प्रधान, राशन डीलर, सरकारी अधिकारी और स्थानीय व्यापारी जिसमें बिल्डर और प्रोपर्टी डीलर भी शामिल हैं प्रमुखतौर पर शामिल होते हैं। सर्वे में बहु संस्करणों वाले प्रमुख दैनिक अखबारों को लिया गया है। ये अखबार भारत के अलग-अलग हिस्सों से अपना कई संस्करण निकालते हैं। जैसे दैनिक भास्कर 13 राज्यों से घोषित तौर पर 65 संस्करण निकाला है। सर्वे के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़, असम और गुजरात से छपने वाले हिंदी भाषा के दैनिक भास्कर’, ‘दैनिक जागरण’, ‘अमर उजाला’, ‘हिंदुस्तान’, ‘जन संदेश टाइम्स’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘पत्रिका’ ‘दैनिक कश्मीर टाइम्सऔर पंजाब केसरी’, पंजाबी भाषा का अजीत’, ‘पंजाबी ट्रिब्यून’, ‘पंजाबी जागरण’, गुजराती के अखबार दिव्य भास्करको शामिल किया गया।
इस सर्वे में जो खास बात देखने को मिली की स्थानीय स्तर के वो सभी संस्थाएं या लोग जो भ्रष्टाचार में लिप्त रहते/रहती हैं या हो सकती हैं वो अखबारों की प्रमुख विज्ञापनदाता हैं। मसलन सर्वे में यह देखा गया कि एक व्यक्ति के तौर पर सबसे ज्यादा ग्राम प्रधानों ने विज्ञापन जारी किए। इसी तरह सरकारी राशन डीलर, सरकारी अधिकारी जिसमें की थाना प्रभारी से लेकर जिला कलक्टर, तहसीलदार, वन विभाग, शिक्षा विभाग, आपूर्ति विभाग के अधिकारी-कर्मचारी भी विज्ञापनदाताओं में प्रमुख हैं। मजेदार बात ये कि इन अधिकारियों ने ये विज्ञापन सरकारी तौर पर नहीं दिया बल्कि व्यक्तिगत तौर पर दिया। इनके विज्ञापन देने के क्या लाभ हो सकते हैं।
सर्वे में शामिल विज्ञापनदाता का हिसाब
क्रम
विज्ञापनदाता
विज्ञापनों की संख्या
औसत हिस्सेदारी (%)
1
अलग-अलग पेशे वाले विज्ञापनदाता
860
46.09
2
चुने हुए जनप्रतिनिधि
593
31.78
3
सरकारी अधिकारी
200
10.72
4
सरकारी विभाग
121
6.48
5
संघ/संगठन
92
4.93

योग
1866
100

सर्वाधिक विज्ञापन देने वाले विज्ञापनदाता
क्रम
विज्ञापनदाता
विज्ञापनों की कुल संख्या
विज्ञापनों में हिस्सेदारी (%)
1
ग्राम/सरपंच/पंच
536
28.72
2
स्थानीय सरकारी अधिकारी
200
10.78
3
स्थानीय नेता
191
10.23
4
निजी शिक्षण संस्थान
141
7.56
5
दुकान/प्रतिष्ठान
121
6.48

योग  
1189
63.77

सर्वे में यह भी पाया गया कि आमतौर पर इन विज्ञापनों में कोई ऐसी बात नहीं कही गई होती है जिससे इस विज्ञापन के उद्देश्य साफ हो सके। विज्ञापन के एक जो सबसे अहम गुण होता है, वो उसके बदले विज्ञापनदाता को मिलने वाला लाभ है। तभी एक विज्ञापन को विज्ञापन कहा जा सकता है, या वो इसके मानदंडों पर खरा उतरता है। लेकिन 15 अगस्त या स्वतंत्रता दिवस को स्थानीय संस्करणों में छपने वाले शुभकामना संदेश के विज्ञापनों में कोई भी संदेश साफ-साफ उभरकर सामने नहीं आता है। एक ग्राम प्रधान या राशन डीलर या थाना प्रभारी का जनता को शुभकामना देने विज्ञापन का सहारा लेना समझ से परे है। साफ साफ कहा जाए एक ग्राम प्रधान या थाना प्रभारी की ऐसी हैसियत नहीं होती कि वो अखबारों को विज्ञापन दे। लेकिन सबसे ज्यादा विज्ञापन देने वालो में ऐसे लोगों का शुमार होना ही यह बताता है कि इनका अखबार से अघोषित सांठ-गांठ है जिसके बदले यह उन्हें विज्ञापन के जरिये धन उपलब्ध कराते हैं, और बदले में अखबार से राहत पाने की उम्मीद करते होंगे। एक अखबार ऐसे लोगों को यही राहत दे सकता है कि ग्राम स्तर और स्थानीय स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार या इनके द्वारा किये जाने वाले भ्रष्टाचार को छिपाकर रखे।
इलाज क्या है?
खबर छापने या छिपाने के बदले में धन उगाही की सारी घटनाएं और बहसे अंततः नैतिकता के सवाल में जाकर उलझ जाती हैं। ऐसी घटनाओं पर बहस करते हुए इसे केवल कुछ पत्रकारों की करतूत मानकर बात की जाती है। इसके मूल कारणों को हमेशा ही छोड़ दिया जाता है या वो बहस के क्रम में उभर ही नहीं पाता है। जिंदल और जी न्यूज के बीच विवाद में भी पत्रकारों मुख्य किरदार के तौर पर उभर रहे हैं लेकिन वो नीति नहीं सामने आ पा रही है जिसकी वजह से पत्रकारों को उगाही का सहारा लेना पड़ता है। दरअसल ऐसे सवालों को नैतिकता के जरिये नहीं हल किया जा सकता। जिस तेजी से निचले स्तर तक मीडिया का प्रसार हो रहा है उसके पीछे का मकसद केवल धन उगाही करना ही है। अब चाहे वो विज्ञापन से हो या मीडिया संस्थान की कोई और नीति हो। जिला स्तर के संस्करणों तक को हर साल लाखों रुपये विज्ञापन जुटाने के लक्ष्य (टारगेट) दे दिए जाते हैं। बिहार के खगड़िया जिले में मेरे एक मित्र एक राष्ट्रीय दैनिक अखबार के ब्यूरो प्रमुख हैं। वो अखबार के नियमित कर्मचारी भी नहीं हैं। उन्हें हर साल 5-10 लाख रुपये सालाना विज्ञापन जुटाने की भी जिम्मेदारी निभानी होती है। विज्ञापन के बदले 15 प्रतिशत कमीशन दिया जाता है और उनसे उम्मीद की जाती है कि वो ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन बटोरे। उन्हें दस हजार रुपये महीने तनख्वाह मिलती है, बाकी विज्ञापन पर कमीशन। अब ऐसे में वही खबर भी जुटाते हैं और वही विज्ञापन भी जुटाते हैं। जाहिर सी बात है कि जिले स्तर पर ना तो इतने उद्योग होते हैं ना ही ऐसी बड़ी संस्थाएं होती हैं जो अखबारों को आसानी से विज्ञापन दे सकें, ऐसे में अखबारों को स्थानीय स्तर पर गलत-सही तरीकों से कमाई करने वालों के ही आगे-पीछे विज्ञापन के लिए घूमना पड़ता है। ऐसी घटनाएं हर मीडिया संस्थान में आम हैं, लेकिन कभी-कभार जब वो खुलकर सामने आ जाती हैं तो सब उससे तौबा करने लगते हैं और खुद को उससे अलग कर लेते हैं। ऐसे में केवल पत्रकार को कटघरे में किया जाने लगता है, जबकि वो इन सारी घटनाओं के पीछे केवल एक टूल की तरह होता है। ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन लाने के लिए मजबूर करने वाले संस्थान कभी-कभार ऐसे पत्रकारों को निकाल कर हमेशा खुद को पाक साफ रखते हैं। जबकि ऐसी घटनाओं या मीडिया के इस पतन के मूल में मीडिया संस्थानों की ऐसी नीतियां होती हैं। उन्हें बदलने की ना तो बात की जाती है, ना ही उन्हें बहस के केंद्र में रखा जाता है। कभी सीधे एक मीडिया संस्थान को ऐसी गतिविधियों के लिए कटघरे में खड़ा नहीं किया जाता, जबकि उसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।

संप्रतिः लेखक शोध पत्रिका जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं।