सरकारी कैद में ‘आजाद’ पत्रकारिता

विजय प्रताप

पत्रकारों की वैश्विक संस्था ‘रिपोर्टस विदाउट बॉर्डर’ ने पिछले महीने एक अपील जारी कर भारत सरकार से पत्रकारों के सुरक्षा की मांग की। संस्था की मांग से लगता है कि वह भारत में पत्रकारों पर बढ़ रहे हमलों से चिंतित है। हालांकि संस्था की मांग एक मायने में विरोधभासी भी है। भारत में अभी तक पत्रकारों पर जितने भी हमले हुए हैं, उसमें से ज्यादातर में भारत सरकार या उसकी सुरक्षा एजेंसियों का हाथ रहा है। ऐसे में हमलावर से ही सुरक्षा की मांग हास्यास्पद है।
इस अंतरराष्ट्ीय संस्था की यह मांग ऐसे समय में आई है, जब एक भारतीय पत्रकार सीमा आजाद की गिरफ्तारी को 5 फरवरी को एक साल पूरे हो जाएंगे। सीमा आजाद को अगर भारत में गिरफ्तार या सरकारी प्रताड़ना के शिकार पत्रकारों में से उदाहरण के बतौर चुने तो इसके निहितार्थ समझे जा सकते हैं। पत्रकार सीमा आजाद अपनी गिरफ्तारी से पूर्व तक उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से ‘दस्तक’ नाम की मासिक पत्रिका निकाला करती थी। पिछले वर्ष उन्हें 5 फरवरी को दिल्ली पुस्तक मेले से वापस इलाहाबाद लौटते समय पुलिस ने उन्हें और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रनेता व राजनीतिक कार्यकर्ता विश्वविजय को
स्टेशन से ही उठा लिया। दोनों को दो दिनों तक अवैध हिरासत में प्रताड़ित करने के बाद पुलिस ने उन्हें 7 फरवरी को इलाहाबाद की स्थानीय अदालत में पेश किया। पुलिस का आरोप था कि उनके पास से माओवादी साहित्य बरामद हुआ है और उनका संबंध कुछ माओवादी नेताओं से है। इस आधार पर उन पर राजद्रोह का केस दायर कर दिया गया। फिलहाल पत्रकार सीमा आजाद पिछले एक साल से जेल की सलाखों के पीछे हैं।
इस पुलिसिया कहानी से इतर सीमा आजाद की गिरफ्तारी की सच्चाई कुछ और ही है। सीमा आजाद पत्रकार होने के साथ-साथ मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं। वह पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज पीयूसीएल उत्तर प्रदेश की संगठन सचिव भी हैं। उन्होंने एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की हैसियत से उत्तर प्रदेश में कई गंभीर मुद्दों को उठाया और उस पर अपनी पत्रिका में लगातार लिखती भी रहीं। सोनभद्र में नक्सली नेता कमलेश चौधरी की फर्जी पुलिस मुठभेड़ में हत्या के मामले को उन्होंने अपने संगठन के माध्यम से उठाया। इसके अलावा गंगा एक्सप्रेस वे के निर्माण और उससे बेदखल होने वाले किसानों की समस्याओं पर उन्होंने अभियान छेड़ रखा था। जो लाजिमी तौर पर न तो प्रदेश सरकार को पंसद आ रहा था न ही उसके कारिंदों प्रशासकों को। गंगा एक्सप्रेस वे प्रदेश सरकार की स्वप्न परियोजना है, ऐसे में सीमा अपने उस अभियान से प्रदेश सरकार के निशाने पर थीं। इसका नतीजा उनकी गिरफ्तारी के रूप में सामने आया।
सीमा आजाद और उसके बाद गिरफ्तार अन्य पत्रकारों के मामलों पर नजर दौड़ायें तो कमोबेश ऐसी ही घटनाएं देखने को मिलेंगी। नये साल के शुरुआत में ही 2 जनवरी को महाराष्ट् से पत्रकार सुधीर धवल की गिरफ्तारी भी सीमा आजाद की कड़ी को आगे बढ़ती है। सुधीर धवल स्वतंत्र रूप से एक मासिक पत्रिका ‘विद्रोही’ निकाला करते थे। गिरफ्तारी के बाद उन पर एक प्रतिबंधित संगठन भाकपा माले से संबद्ध होने का आरोप लगाते हुए, राजद्रोह का केस लगा दिया गया। धवल की गिरफ्तारी से पूर्व पिछले वर्ष दिसम्बर के आखिरी सप्ताह में मणिपुर की राजधानी इंफाल से निकलने वाले कई अखबार नहीं छपे। अखबार नहीं छापने का यह निर्णय वहां के पत्रकारों ने अपने ही एक पत्रकार साथी और मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन के प्रदेश उपाध्यक्ष मोबी सिंह की गिरफ्तारी के विरोध में लिया। मोबी सिंह इंफाल से निकालने वाले दैनिक सालीबक से जुड़े हैं। पुलिस ने उन पर प्रतिबंधित संगठन कांग्लीपक कम्युनिस्ट पार्टी से संबंध होने का आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
इन सभी गिरफ्तारियों में पत्रकारों का माओवादी संगठनों से संबंध होने का आरोप आम है। वर्तमान दौर में यह ऐसा हथियार बन गया है, जिसके नाम पर कभी भी किसी पत्रकार को उठाया जा सकता है। उसके पास से माओवादी साहित्यों की बरामदगी दिखाई जा सकती है और उस पर राजद्रोह का केस दायर किया जा सकता है। हालांकि ये माओवादी साहित्य क्या हैं, इस सवाल का जवाब कभी भी पुलिस के पास नहीं होता। माओवादी होने के आरोप में उत्तराखंड के पत्रकार प्रशांत राही पिछले चार सालों से जेल की सलाखों के पीछे हैं। ऐेसे पत्रकारों की एक और आम खासियत है कि यह सामान्य पत्रकारों की तरह रोजाना की खबरों तक अपने सरोकार सीमित रखने वालों में से नहीं हैं। बल्कि इन सभी पत्रकार, अपने पेशे की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए, जनसरोकारों से जुड़ी खबरों पर स्वतंत्र रूप से या वैकल्पिक पत्रिकाओं के माध्यम से सत्ता को लगातार चुनौती देते रहे। ऐसे में शासकवर्ग को इन पत्रकारों से खतरा महसूस होना स्वाभाविक है। इसी खतरे को मौजूदा दौर में माओवाद का आवरण पहना दिया गया है। माओवाद चूंकि इस समय सत्ता द्वारा तैयार सबसे बड़े खतरों में से एक है। पत्रकारों की गिरफ्तारियों को भी माओवाद के नाम पर वैधता प्रदान करने की कोशिश की जाती है।
सरकार द्वारा पत्रकारों की गिरफ्तारी की खुली छूट ने न केवल पुलिस के जेहन से मीडिया के डर को खत्म किया है, बल्कि अन्य कट्टर संगठनों को भी पत्रकारों को नियंत्रित करने की खुली छूट दे दी है। छत्तीसगढ़ में ऐेसे ही सरकारी संरक्षण में पनप रही संस्था मां दंतेश्वरी स्वाभिमानी आदिवासी मंच ने वहां के तीन पत्रकारों एन आर के पिल्लई, अनिल मिश्रा और यशवंत यादव को पत्र लिखकर माओवादियों के पक्ष में खबरें न लिखने की धमकी दी। पत्रकारों पर माओवाद के नाम पर हमले ज्यादा हो रहे हैं। लेकिन कई जगह पत्रकारों को प्रशासन या पुलिस के खिलाफ थोड़ी सी भी तिखी खबर लिख देने का नतीजा भुगतना पड़ रहा है। चेन्नई के ऐेसे ही एक पत्रकार एस मणि को पुलिस में भ्रष्टाचार पर खबर लिखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। वहीं दूसरी तरफ बिहार में बहुचर्चित पुर्णिया के भाजपा विधायक हत्याकांड में वहां के स्थानीय अखबार के संपादक नवलेश पाठक को गिरफ्तार कर लिया गया। उनका दोष महज इतना था कि उन्होंने विधायक की हत्या आरोपी महिला के विधायक पर यौन दुराचार के आरोपों को अपने अखबार में जगह दी थी।
यह वर्तमान समय में पुलिस और प्रशासन की ‘सहनशीलता’ का उदाहरण है। इसका खामियाजा जनपक्षधर पत्रकारों को भुगतना पड़ रहा है। पत्रकारों के साथ ऐसी घटनाएं इसलिए भी चिंताजनक हैं, क्योंकि यह सबकुछ भारत की चुनी सरकारों के इशारों पर हो रहा है। देश और दुनिया की तमाम संस्थाएं इन्हीं सरकारों से पत्रकारों के संरक्षण व सुरक्षा की मांग कर रही हैं।


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