प्रशांत, सीमा, सुधीर, अनु से लेकर जे. डे तक...


हत्यारा कौन ?
मुंबई में मिड डे के पत्रकार जे. डे की हत्या और दिल्ली में शाह टाइम्स के पत्रकार नरेन्द्र भट्टी की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत ने पत्रकारिता जगत में एक खलबली मचा दी है। विभिन्न पत्रकार संगठनों की ओर से पत्रकारों को सुरक्षा देने की बात हो रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाए रखने के लिए पत्रकारों पर हो रहे ऐसे हमलों को रोकने में विफल रहने पर सरकारों को जिम्मेदार बताया जा रहा है। यह पहला मौका नहीं है, जब पत्रकारों पर ऐसे हमले हुए हैं, बल्कि हर दौर में ऐसे हमले होते रहे हैं और कहीं ना कहीं इससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता भी बढ़ती रही है।


प्रशांत राही : चार साल से रिहाई का इंतजार
दरअसल पत्रकारों और पत्रकारिता पर ऐसे हमलों का लम्बा इतिहास है। हमले केवल अपराधियों की तरफ से ही नहीं होते बल्कि खुद सरकार और उसकी एजेंसियों की तरफ से भी ऐसे हमले कराए जाते हैं। भारत उन गिने-चुने देशों की श्रेणी में आता है जो पत्रकारों के लिए खतरनाक माने जाते रहे हैं। पत्रकारों को यह खतरा अपराधियों और पुलिस दोनों से ही रहता है। जिस दिन मुंबई में पत्रकार जे. डे की हत्या से हुई उसी दिन दिल्ली में बिजनेस स्टैंर्डड अखबार के पूर्व संवाददाता कपिल शर्मा को पुलिस ने पूछताछ के नाम पर निर्मम तरीके से प्रताड़ित किया। हालांकि यह घटना मुख्यधारा के समाचार माध्यमों में जगह नहीं पा सकी। अपराधियों द्वारा की जाने वाली हत्याएं ज्यादा चर्चा का विषय बन जाती हैं, जबकि पुलिस द्वारा किए जाने वाली हत्याएं या प्रताड़नाएं खुद मीडिया में भी गंभीर बहस का विषय नहीं बन पाती। इसके पीछे मीडिया और पुलिस की मिली-जुली साझेदारी काम करती है।

पत्रकारों पर हमले के मामले में अपराधियों से ज्यादा सत्ता या सुरक्षा एजेंसियां आक्रामक होती हैं। फिर चाहें वह पाकिस्तान में शाहबाज की आईएसआई द्वारा कराई गई हत्या हो या फिर भारत में पिछले साल जुलाई में आंध्र पुलिस द्वारा पत्रकार हेमचंद्र पाण्डे की एक फर्जी मुठभेड़ में की गई हत्या का मामला हो। भारत में सत्ता के खिलाफ लिखने-पढ़ने वाले पत्रकारों पर सुरक्षा एजेंसियों की आक्रामकता कहीं ज्यादा तेज है। सरकार की नीतियों से असहमति जताने वाले और उसके पक्ष में अपनी लेखनी से एक जनमत तैयार करने में जुटे कई पत्रकार अब सलाखों के पीछे हैं। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब सत्ता की सहृदयता है। मतलब की आप सरकार के खिलाफ तभी तक लिख-बोल सकते हैं जब तक कि वह सीधे सरकार या उसकी नीतियों को कोई नुकसान ना पहुंचाये। इस नियम के खिलाफ जाने वाले उत्तराखंड के स्टैट्समैन के संवाददाता प्रंशात राही पिछले चार सालों से जेल में हैं, या फिर इलाहाबाद से ‘दस्तक’ पत्रिका निकालने वाली पीयूसीएल की उत्तर प्रदेश सचिव सीमा आजाद पिछले डेढ़ सालों से जमानत मिलने का इंतजार कर रही हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र से ‘विद्रोही’ पत्रिका निकालने वाले दलित पत्रकार सुधीर धवले हों, या दिल्ली की ‘टूटती सांकले’ निकालने वाली अनु हों, इन्हें भी अपनी रिहाई का इंतजार है।


सीमा आज़ाद : सरकारी नीतियों के विरोध का नतीजा
देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पैमान क्षेत्र के हिसाब से भी तय होता है। मसलन अगर आप भारत शासित कश्मीर में पत्रकारिता कर रहे हैं तो सेना या सरकार की मेहरबानी आपकी लेखनी के तेवर तय करेगी। वरना आपको इसका अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। पिछले साल कश्मीर में सरकार विरोधी आंदोलनों में आम लोगों के बाद सबसे ज्यादा पत्रकारों को पुलिस और सेना के हमलों का सामना करना पड़ा। सरकारी हमलों के खिलाफ कई दिनों तक घाटी में अखबार नहीं छपे। कई लोकल चैनलों पर रोक लगा दी गई। हालात ऐसे हैं कि कश्मीर में अब अखबारों व चैनलों के अलावा वेब माध्यमों से अपनी बात रखने वाले पत्रकारों या आम लोगों को आई टी एक्ट के तहत गिरफ्तार किया जा रहा है या परेशान किया जा रहा है। पिछले हफ्ते बीबीसी की कश्मीर संवाददाता नईम अहमद मेहजूर को फेसबुक पर कश्मीर पुलिस पर एक युवक की हत्या का आरोप लगाने पर आई टी एक्ट के तहत केस दर्ज कर किया गया। इससे पहले फेसबुक पर निर्दोष लोगों की हत्या के खिलाफ लिखने पर दो युवकों को जेल भी जाना पड़ा। कश्मीर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब पुलिस की सहमति है।

कश्मीर ही नहीं, बल्कि उत्तर-पूर्व और मध्य भारत में भी कमोबेश ऐसे हालात हैं। पिछले साल दिसम्बर के आखिरी सप्ताह में मणिपुर में अखबार नहीं छपे। दैनिक सालीबक के संपादक और ऑल मणिपुर वर्किंग जनर्लिस्ट्स यूनियन के प्रदेश उपाध्यक्ष व प्रवक्ता अहोंग्सांगबम मोबी सिंह की गिरफ्तारी के खिलाफ मणिपुरी पत्रकारों ने अखबार नहीं छापने का निर्णय किया। पुलिस ने उन पर एक प्रतिबंधित संगठन से सांठगांठ और मदद का आरोप लगाया था। उत्तर-पूर्व में पत्रकारों को दोहरे हमले का सामना करना पड़ता है। एक तरफ अलगाववादी संगठनों की अपने पक्ष में खबर छपवाने का दबाव तो दूसरी तरफ पुलिस का दबाव।


सुधीर धावले : गरीबों की बात केवल माओवादी बोलते हैं तो हम 'माओवादी' हैं
इससे कुछ उलट मध्य भारत में पत्रकारों को पुलिस और सत्ता प्रतिष्ठानों का दबाव ज्यादा झेलना पड़ता है। खनिज संपदा से संपन्न इस क्षेत्र में सरकार ने माओवादियों के खिलाफ अघोषित युद्ध झेड़ रखा है। इसका सीधा प्रभाव वहां काम करने वाले पत्रकारों पर पड़ रहा है। देश के अलग-अलग हिस्सों से गए सुरक्षाकर्मियों को जंगलों में रहने वाले माओवादियों और आदिवासियों के बीच फर्क करना मुश्किल हो जाता है, जिसके शिकार सीधे-साधे आदिवासी होते हैं। ऐसे में आदिवासियों के उत्पीड़न की खबर लिखने की कोशिश करने वाले पत्रकारों को पुलिस माओवादियों के समर्थक के बतौर चिन्हित कर उत्पीड़ित करना शुरू कर देती है।

आमतौर पर मुख्यधारा की मीडिया में पत्रकारों के ऐसे उत्पीड़न की खबर बहुत ही कम आती है। भाषाई अखबारों में तो लगभग नहीं के बराबर। पुलिस और सत्ता द्वारा उत्पीड़ित किये जाने वाले पत्रकारों का एक खास वर्ग है। वह कहीं ना कहीं सरकार से सीधे टकराने की कोशिश करता है या फिर उसके लिए जनमत तैयार करता है, जो किसी भी सरकार के लिए काबिले बर्दाश्त नहीं होती। ऐसे में उन्हें या तो राष्ट्रविरोधी या फिर प्रतिबंधित संगठनों का समर्थक बताकर प्रताड़ित किया जाता है। इससे सरकार अपने खिलाफ उठने वाली किसी भी तरह की संभावना को तो दबा ही देती है, साथ ही अन्य पत्रकारों व मीडिया संस्थानों को अघोषित नसीहत भी दे देती है कि उसके खिलाफ जाने का नतीजा क्या हो सकता है।


हेमचन्द्र पांडे : हमारी हत्यारी है सरकार
पत्रकारों पर हो रहे ऐसे हमलों से इतर हम एक नजर उन पत्रकारों की तरफ उठा कर देखें जिनका नाम पिछले दिनों भ्रष्टाचार के मामलों में सामने आया तो वह आज भी मजे से अपनी नौकरी कर रहे हैं या फिर एक संस्थान से दूसरे संस्थान में चले गए हैं। सत्ता के साथ उनकी नजदीकियों का ही नतीजा है कि वो पत्रकारिता की विश्वसनीयता बेचकर भी सुरक्षित और सुखद जीवन गुजार रहे हैं। जबकि दूसरी तरफ जे. डे, हेमचंद्र पाण्डे जैसे लोग अपनी जान गवां रहे हैं। आम जन का पत्रकारों व मीडिया संस्थानों पर विश्वसनीयता भी कारण भी जे. डे और हेमचंद्र पाण्डे जैसे लोगों की शहादत ही है। लोगों को अखबारों में छपे शब्दों में अगर सच्चाई नजर आती है तो वह ऐसे ही लोगों के कारण है। गणेश शंकर विद्यार्थी की परंपरा ने ही पत्रकारों के रसूख को बचाए रखा है वरना सत्ता से समझौता करने वाले अखबार और पत्रकार हर दौर में मौजूद रहे हैं, बावजूद मीडिया की विश्वसनीयता अभी भी काफी हद तक बरकरार है।



विजय प्रताप

स्वतंत्र पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता हैं. इनसे vijai.media@gmail.com या 09696685616 के जरिए संपर्क किया जा सकता है.